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-The TFIC Team.
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XXXXXXXXXXXX
वोर सेवा मन्दिर दिल्ली
क्रम संख्या
काल नं०
XXXX:XXXXXXX
खण्ड
४-१
2:022.58(285) शीतल
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प्रकाशक
मूलचन्द किसनदास कापड़िया, प्रकाशक 'जैनमित्र व मालिक दि० जन पुस्तकालय, चंदावाड़ी-सूरत ।
मुद्रक
मूलचन्द किसनदास कापड़िया, " जैन विजय" प्रेस, खपार्टिया चकला, तासवालाकी पोल - सूरत ।
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358380868
प्रस्तावना &
galambena
मद्रास और मैसूर प्रान्त में जैनधर्म । 1
दक्षिण भारत में जैनधर्मका इतिहास और वहांकी जनसमाजके जीवन पर उसका प्रभाव यह विषय इतिहास - प्रेमियोंके लिये जितना चित्ताकर्षक है उतना ही गहन और रहस्यपूर्ण भी है । साहित्य । और शिलालेखादिमें इस विषयसे सम्बन्ध रखनेवाली अनेक घटनायें विक्षिप्त रूपसे इधर उधर पायी जाती हैं, पर ज्यों ही इतिहासकार उन्हें घाराबद्ध करनेका प्रयत्न करता है त्यों ही उसे प्रमाणोंका अभाव पद २ पर खटकने लगता है, और उसे अपनी श्रृंखला पूरी करनेके हेतु अनुमान और तर्कसे काम लेना पड़ता है। अनुमान और तर्क यद्यपि इतिहासक्षेत्र में आवश्यक हैं किन्तु जबतक उनकी नीव अचल प्रमाणोंपर न जमाई जावे तबतक वे सच पथप्रदर्शक नहीं कहे नासके । मद्रास प्रांत में जैनधर्मके इतिहास से संबंध रखनेवाली कई ऐसी बातों का पता लग चुका है जिनसे आगामी अन्वेषण में बहुत सहायता मिलने की आशा है । इतिहासप्रेमियोंका कर्तव्य है कि वे इन बातोंको ध्यान में रखकर खोजमें दत्तचित्त होवें ।
इस विषय में सबसे प्रथम प्रश्न यह उपस्थित होता है कि तामिल देशमें जैन- ऐतिहासिक दृष्टिसे मद्रास प्रान्त में जैनधर्म कब धर्मका प्रचार | प्रचलित हुआ ? चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में भद्रास्वामीका अपने बारह हजार शिष्यों सहित दक्षिण भारतकी :- यात्रा करना जैन इतिहासकी एक सुदृढ़ घटना मानी जाती है ।
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(४) अनेक माहित्यिक और शिलालेखादि सम्बन्धी प्रमाणों द्वारा यह घटना भिद्ध भी होचुकी है। अब प्रश्न यह है कि क्या इससे पूर्व भारतके इस विभागमें जैनधर्मका सर्वथा अभाव था ? दक्षिणभारतके प्रसिद्ध इतिहाससंग्रह 'राजाबली कथा' में उल्लेख है क भद्रबाहुस्वामीके शिष्य विशाखाचार्यने चोल और पाण्ड्य प्रदेशोंमें भ्रमण करते हुए वहांके नि चैत्य लयोंकी वन्दना की और जैन श्रावकों को उपदेश दिया। इसमें स्पष्ट ज्ञात होता है कि 'रानावली कथा' के कर्ताके मतानुमार भद्रबहुम्वामीके आगमनसे पूर्व भी मद्रास प्रान्तमें जैनधर्मका प्रचार था। इस सम्बंधमें प्रोफेसर ए. चक्रवर्तीका अनुमान है कि यदि भद्रबाहुमे पूर्व ही दक्षिण भारतमें जैनध का प्रचार न होता तो भद्रबाट म्वामीको दुर्भिक्षके समयमें बारह हजार शिष्यों को लेकर दक्षिण में आने का साहस कदा चतू न होता। उन्हें अपने वहांके निवासो छ नुयायियों द्वारा अपने शुभागमन किये जानेका विश्वास था इसी में ये एकाएकी वैसा माहा : र सके। इस बातका एक और भी अधिक प्रबल प्रमाण मिला है।
. सिंहलढपके इतिहाससे सम्बंध रखनेवाला सिंहलद्वीपम जैनधर्म।
- 'महावंश' नामका एक पाली भाषाका ग्रंथ है निसे धंतुसेन नामके एक बौद्ध भिक्षुने लिखा है। इस ग्रन्थका रचनाकाल ईसाकी पांचवीं शताव्द अनुमान किया जाता है । इसमें ईस्वी पूर्व ५४३से लगाकर ईस्वी सन् ३०१ त का वर्णन है। इसमें वर्णित घटनायें सिंहलद्वीपके इतिहासके लिये बहुतायतसे प्रमाणभूत मानी जाती हैं । इस ग्रन्थमें सिंहलद्वीपके नरेश 'पनुगाभय के वर्णनमें कहा गया है कि उन्होंने लगभग ४३७ ईस्वी
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(५)
पूर्व अपनी राजधानी अनुराधपुरमें स्थापित की और वहां निर्ग्रन्थ मुनिके लिये एक 'गिरि' नामक स्थान नियत किया। निग्रन्थ 'कुम्बन्धके लिये राजाने एक मंदिर भी निर्माण कराया जो उक्त मुनिके नामसे प्रख्यात हुआ। एक भिन्न धर्मी प्राचीन इतिहास लेखकके इन बचनोंसे सिद्ध होता है कि ईस्वी सनसे पूर्व पांचवीं शताब्दि अर्थात् भद्रबाहुस्वामीकी दक्षिणयात्राके समयसे भी लगभग दोसौ वर्ष पूर्व सिंहलद्वीपमें जैनधर्मका प्रचार होचुका था । ऐसी अवस्थामें मद्रास प्रान्तके चौल और पाण्ड्य प्रदेशोंमें उस समय जैनधर्मका प्रचलित होना सर्वथा सम्भव प्रतीत होता है। विशाखाचार्यके परिभ्रमणसे वहां जैनधर्मको नया उत्तेजन मिला होगा।
तामिल देशके मदुरा और रामनद जिलोंसे अत्यन्त प्राचीन लेख मिले हैं जो अशोकके समयकी ब्राह्मी लिपिमें हैं और इसलिये वे ईस्वीसे पूर्व तीसरी शताब्दिके सिद्ध होते हैं । ये लेख अभीतक पूर्ण रूपसे पढ़े नहीं गये पर जैनियों के श्वंस मंदिरोंके समीप पाये जानेसे प्रतीत होता है कि सम्भवतः वे जैनधर्मसे संबंध रखते हैं।
, तामिल देशका साहित्य बहुत प्राचीन है । इस साहित्यके मंगममाहित्य और प्राचीनतम ग्रन्थ 'संगम्काल ' (संघकाल ) के
जैनधर्म। बने हुए कहे जाते हैं। संघकालका तात्पर्य यह है कि उक्त समयमें समस्त कवियोंने मिलकर अपना एक संघ बना लिया था और प्रत्येक कवि अपने ग्रंथका प्रचार करनेसे पूर्व उसे इस संघ द्वारा स्वीकार करा लेता था। इस प्रबंधसे केवल उत्कृष्ट साहित्य ही जनताके सन्मुख उपस्थित किया जाता था । इस 'संगम'का अभीतक
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( ६ )
निर्विवाद रूप से समय निर्णय नहीं होसका है, पर अधिकांश विद्वानका मत है कि लगभग ईस्वीसन के प्रारम्भमें ही 'संगम' का प्राबल्य रहा होगा । इस कालका 'कुरल' नामक एक उत्कृष्ट काव्य है ज़ो ' तिरुवल्लुर ' नामक तामिल साधुका बनाया हुआ कहा जाता है । यह ग्रन्थ इतना सुन्दर, इतनी शुद्धिनीतिका उपदेशक और इतना धार्मिक व सामाजिक संकीर्णतासे रहित है कि प्रत्येक धर्मवाले इसे अपने धर्मका ग्रन्थ सिद्ध करनेमें अपना गौरव मानते हैं, पर जिन्होंने निष्पक्ष हृदयसे इस ग्रन्थका अध्ययन किया है उन्होंने इसे एक जैनाचार्यकी कृति ही माना है । अनेक साहित्यिक प्रमाण भी इस बात के मिले हैं कि यह ग्रन्थ एलाचार्य नामके जैनाचार्यका बनाया हुआ है । उन्होंने अपने शिष्य 'तिरुवल्लुवर के द्वारा इसे 'संगम' की स्वीकृति हेतु भेजा था । नीलकेशीकी टीका में इसे स्पष्टरूप से जैनशास्त्र कहा है । हिन्दुओंकी किम्वदन्ती है कि एलासिंह नामक एक शैव साधुके शिप्य तिरुवल्लुवर ने 'कुरल' ग्रन्थ रचा था । इस किम्वदंती से भी परोक्षरूपसे कुरलका एलाचार्यकी कृति होना सिद्ध होता है । ये एलाचार्य अन्य कोई नहीं, दिगम्बर संप्रदाय के भारी म्तम्भ श्री कुन्दकुन्दाचार्य ही माने जाते हैं । इस विषयको बढ़ानेका यहां अवसर नहीं है । जिन्हें इस विषय में रुचि हो उन्हें कुरल ग्रन्थका और इस सम्बंध में प्रकाशित अनेक लेखोंका स्वयं अध्ययन करना चाहिये । *
1
कुरल ग्रन्थका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कराना जैनियों का कर्तव्य ही नहीं, उनका महत्वपूर्ण अधिकार था । हाल ही में इसका एक हिन्दी . अनुवाद अजमेर के 'सस्ते साहित्य कार्यालय से प्रकाशित हुआ है । जैनियोंको इसे अवश्य पढ़ना चाहिये ।
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( ७ )
कुरल काव्यकी सत्ता से ही सिद्ध होता है कि ईस्वी सन्के प्रारम्भ में जैनधर्मके उदार सिद्धान्तों का तामिल देशमें अच्छा आदर होता था । फ्रेजर साहवने अपने इतिहासमें कहा है कि वह जैनियोंके ही प्रयत्नका फल था कि दक्षिण भारतमें नया आदर्श, नया साहित्य, नवीन आचार विचार और नृतन भाषाशैली प्रगट हुई । एलाचार्य अपर नाम कुन्दकुन्दाचार्य के सम्बंध में यह भी कथन मिलता है कि उन्होंने अपने प्राकृत ग्रन्थ ( प्राभृतत्रय) महाराजः शिवकुमार के सम्बोधनार्थ रचे थे । प्रोफेसर के ० बी० पाठक इन शिवकुमार महाराजको एक प्राचीन कदम्बनरेश श्रीविजय शिवमृगेशर्मा सिद्ध करते हैं किंतु प्रोफेसर ए० चक्रवर्तीने इन्हें कांचीके नरेश व शिवस्कन्दवर्मा सिद्ध किया है । इनका उल्लेख एक ताम्रपत्र में पाया जाता है जो प्राकृत भाषामें है और जो अन्य कुछ विशेषताओंसे भी जैनधर्मसे सम्बन्ध रखनेवाला सिद्ध होता है ।
'कुरल' के रचनाकालके पश्चात् तामिल देशमें साहित्यका खूब प्रसार हुआ और इसमें जैनियों का भाग विशेष रहा। तामिल भाषाके प्रसिद्ध पौराणिक काव्य 'सिलप्पदिकारम ' और ' मणिमेकले ' में जैन के अनेक उल्लेख हैं जिनसे सिद्ध होता है कि उस देशमें उस समय जैनधर्म ही सर्वश्रेत्र और सर्वमान्य धर्म था । ये उल्लेख यह भी सिद्ध करते हैं कि जैनधर्मको चोल और पाण्ड्य नरेशोंका अच्छा आश्रय मिला था और राजवंशके अनेक पुरुष और महिलाओंने जैनधर्मको अपनाया था। सारा तामिल देश जैनमुनियों और आकाओं के आश्रमोंसे भरा हुवा था । नगरसे बाहर चौराहों पर मुनियोंके आश्रम रहा करते थे और समीप ही आर्जिकाओंके जुदे
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आश्रम थे । मदुरा जैनियोंका मुख्य केन्द्र था, यह अवस्था ईस्वीकी लगभग दूसरी शताव्दिकी है । आगेकी शताब्दियोंमें जैनधर्मकी उन्नति जारी रही यहांतक कि पांचवीं शताब्दिमें साहित्योन्नतिके लिये जैनियोंने अपना एक स्वतंत्र संघ स्थापित किया जो 'द्राविड़' संघके नामसे प्रसिद्ध हुआ और इसका केन्द्र मदुरामें ही रक्खा गया । इस संघके स्थापक पूज्यपादस्वामीके शिप्य वजनंदि थे।* ऐसे संघोंकी उत्पत्ति उस कालमें राजाश्रयके विना असंभव थी, अतएव सिद्ध होता है कि पांचवीं शताब्दिमें भी जैनियोंको पाण्ड्य नरेशों का प्रबल आश्रय था।
जैनियोंकी यह असाधारण उन्नति उनके समीपवर्ती विपक्ष विश्वका मापात धर्मियोंको महा नहीं हुई और उन्होंने जैनियोंके और कलभ्रों का विरुद्ध अनेक जाल रचना प्रारम्भ किया। इस
आगमन। सम्बन्ध में पहली टक्कर जैनियों को शिवधर्मियोंसे लेनी पड़ी, पर प्रारम्भमें 'कलत्रों' की सहायतासे मैनी अपने विपक्षियोंपर विजय प्राप्त करनेमें सफल हुए। अनेक पांड्य
और पल्लव लेखोंसे सिद्ध होता है कि ईसाकी छठवीं शताब्दिमें तामिल देशपर उत्तरसे कलभ्र वंशियोंका आक्रमण हुआ और उन्होंने जैनधर्मको खूब आश्रय दिया ।x इसी विनयके समय जैनियोंने 'नालदियार' नामक तामिल काव्यकी रचना की । इस
देवसेनकृत दर्शनसारमें इस संघकी स्थापनाका उल्लेख है किन्तु उस उल्लेख से ज्ञात होता है कि इस संघकी.स्थापनाका मूल कारण कुछ आचार्योका धार्मिक मतभेद था। उपर्युक्त मत श्रीयुत् रामस्वामी अय्यन्गारका है ।
___x कलभ्रोंके दक्षिण भारतपर आक्रमणका कुछ विवरण 'मध्यप्रान्त, मध्यभारत व गजपूतानाके जन स्मारककी भूमिका' पृ. ८-९ में देखिये।
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काव्यमें ४०० पद हैं जिन्हें भिन्न२ चारसौ जैनाचार्योंने रचा है। डाक्टर पोपने इस काव्यको ‘वेल्लार वेदम्' अर्थात् किसानोंका वेद कहा है । इस काव्यके पदों का आजतक तामिल देशके घर में प्रचार है । इस काव्यमें कलभ्रोंके जैनी होने व जैन और ब्राह्मण धर्मोके बीच बढ़ते हुए विद्वेषके उल्लेख पाये जाते हैं।
___ कलभ्रोंके आक्रमणसे शैवधर्मके विरुद्ध जैनधर्मकी कुछ कालके जैनधर्मकी कमजरियां, लिये रक्षा हो गई पर यह थोड़े ही समयके शैव और वैष्णवोंकी लिये थी। इस समय जैनधर्मके पालनमें कुछ
वृद्धि। ऐमी कमजोरियां आ चली थीं जिनके कारण शैव धर्मको बढ़नेका अच्छा अवसर मिल गया। श्रीयुक्त रामस्वामी अय्यन्गारजी अपने इतिहासमें लिखते हैं कि छठवीं शताब्दिके लगभग “जैनधर्मकी मृदुल आज्ञायें प्रतिदिनके जीवन के लिये बहुत कड़ी और कष्टप्रद होगई थीं। जैनियोंकी दूसरोंसे पृथक् बुद्धि और देशकालके अनुकूल परिवर्तनोंके अभावके कारण वे हंसी और घृणाकी दृष्टिसे देखे जाने लगे। अब वे केवल राजशक्ति द्वारा अपने प्रभावको स्थिर रख सक्ते थे। तामिलदेशके लोग अब हार्दिक विश्वासके साथ मैनधर्मको स्वीकार नहीं करते थे।"* जिस धर्मके प्रतिपालनमें देशकालानुसार परिवर्तन नहीं किये जाते वह धर्म कभी अधिक
"The mild teachings of the Jain system had become very rigorous and exacting in ther application 10 daily life. The exclusiveness of the Jain; and their lackaf adoptability to circumstances roon renlered them objects of contempt and ridicule and it was only with the help of state patronage that they were able to make their iniluence felt. No longer did the Tamilians embrace the Jain faith out of open conviction.'
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समयतक नहीं टिक सक्ता । शैवधर्मके प्रचारकोंने जैनियोंकी इन दुर्बलताओं से पूरा लाभ उठाया । ये प्रचारक' नामनार ' कहलाते थे, वे free महात्म्यके स्तोत्र बनारकर उनका जनतामें प्रचार करने लगे और स्थानर पर शिव मंदिर निर्माण कराकर उनमें जनसाधारण के चित्तको आकर्षित करनेवाला क्रियाकाण्ड करने लगे । इस समय अर्थात् लगभग सातवीं शताव्दिके मध्यभागमें पांड्य देश में सुन्दर पांड्य नामक राजाका राज्य था । यह राजा पक्का जैनधर्मी था किन्तु इसकी रानी और मंत्री शैवधर्मी थे । इन्होंने पांच देशमें शैवधर्मकी प्रभुता स्थापित करनेका जाल रचा। इस हेतु उन्होंने 'ज्ञान सम्बन्दर' नामक शव साधुको आमन्त्रित किया । कहा जाता है कि इसने कुछ चमत्कार दिखाकर राजाके सन्मुख जैनियोंको परास्त कर दिया जिससे राजाने अपना धर्म परिवर्तन कर लियर और आठ हजार जैनाचार्योंका वध करा डाला ।
ठीक इसी समय पल्लव देशमें भी धर्म विप्लव हुआ । वहां अप्पर नामके एक दूसरे शैव साधुने पल्लव नरेश महेन्द्रवर्माको जैनसे शैव बनाया। कहा जाता है कि स्वयं अप्पर पहले जैनी था किन्तु अपनी भगिनीके प्रयत्नसे वह शैव होगया । इन राजधमों में विहारका वर्णन 'पेरिय प्रराणम्' नामक शैव साधुओंके जीवनचरित्र सम्बंधी ग्रन्थ में कथारूपमें पाया जाता है । इन कथाओंका अधिकांश कल्पनापूर्ण है किन्तु उनमें भी ऐतिहासिक तथ्य छुपा हुआ है । इसी समय वैष्णव अल्वरोंने अपना धर्मप्रचार प्रारम्भ किया और जैनधमको क्षति पहुंचाई। मदुराके मीनाक्षी मंदिरके मंडपकी
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(११)
दीवालकी चित्रकारीमें जैनियोंपर शैवों और वैष्णवों द्वारा किये गये अत्याचारों की कथा अंकित है । जैनधर्म तामिल देशमें बहुत क्षीण अवश्य होगया किंतु कुछ बातोंमें वहांके दैनिक जीवन और कला - कौशलपर उसका अक्षय प्रभाव पड़ गया है । यह प्रभाव एक तो अहिंसा सिद्धांत का है जिसके कारण शैव और वैष्णव धर्मोसे भी पशुयज्ञका सर्वथा लोप होगया । दूसरे शेव और वैष्णवोंने बड़े२ मंदिर बनाना व अपने साधु: पुरुषों की मूर्तियां बिराजमानकर उनकी पूजा करना जैनियोंसे ही सीखा है। ये बातें जैनधर्ममें बहुत पहले से ही थीं और शेवों व वैष्णवोंने इन्हें जैनधर्मसे लिया ।
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पाण्ड्य और पल्लव देशों में राजाश्रयसे विहीन होकर व शैव जैनियों को श्रवणबेलगोल और वैष्णवों द्वारा सताये जाकर जैनियोंने गंगनरेशका आश्रय । अपने प्राचीन स्थान श्रवणबेलगोलमें आकर गंगनरेशोंका आश्रय लिया । गंगवंशका राज्य मैसूर प्रांत में ईसाकी 1 लगभग दूसरी शताब्दिसे ग्यारहवीं शताब्दि तक रहा। मैसूर में जो आजकल गंगडिकार नामक कृषकों की भारी संख्या है वे गंगनरेशों की ही प्रजाके वंशज हैं। अनेक शिलालेखों व ग्रन्थों में उल्लेख है कि गंग राज्यकी नीव जैनाचार्य सिंहनंदि द्वारा डाली गई थी। तभी से इस वंश में जैनधर्मका विशेष प्रभाव रहा। इसी वंशके सातवें नरेश दुर्विनीतके गुरु पूज्यपाद देवनंदि थे। गंगनरेश मारसिंहने अपने जीवन के अंतिम भाग में अजितसेन भट्टारकसे जिन दीक्षा लेकर समाधिमरण किया था । ये नरेश ईसाकी दशवीं शताब्दि में हुए हैं । पांड्य और पल्लव प्रदेशों में आकर जैनियोंने अधिकतर इसी समय में गंग नरेशका आश्रय लिया जिससे गंग साम्राज्य में जैनियोंका अच्छा
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(१२)
'प्राबल्य बढ़ गया । मारसिंह के उत्तराधिकारी राचमल्ल हुए जिनके मंत्री चामुण्डरायने विन्ध्यगिरिपर श्रीबाहुबलिस्वामीकी वह उत्तरमुख खड्गासन विशाल मूर्ति स्थापित की जिसके दर्शन मात्रसे अब भी बड़े २ अहंकारियोंका गर्व खर्व होजाता है । चामुण्डरायनीने अपने बाहुबलसे अनेक युद्ध जीते थे और समरधुरन्धर, वीरमार्तण्ड, भुनविक्रम, बैरिकुलकालदंड, समरपरशुराम आदि उपाधियां प्राप्त की थीं । चामुण्डराय नी कवि भी थे। उन्होंने कनाड़ी भाषामें " चामुण्डराय पुराण' नामक ग्रन्थ भी रचा है जिसमें तीर्थंकरोंका जीवन चरित्र वर्णित है। ___ग्यारहवीं शताव्दिके प्रारम्भमें चोल नरेशों द्वारा गंगवंशकी होटसल नरेशोंका इतिश्री होगई और मैसूर प्रान्तमें होरसलवंशका
आश्रय । प्राबल्य बढ़ा। इस वंशकी प्रारंभिक उन्नतिमें भी एक नैन मुनिका हाथ था। इस राजवंशके समय में जैनियोंकी खूब ही उन्नति हुई निसका पता श्रवणबेलगोलके मंदिरों और शिलालेखोंसे चलता है ।* इस वंशके विनयादित्य द्वितीय जैनाचार्य शांतिदेवके शिष्य थे। एक लेखमें कहा गया है कि उन्होंने राज्य श्री इन्हीं आचार्यकी चरण सेवासे प्राप्त की थी। लेख में कहा गया है कि इस नरेशने इतने जैनमंदिरादि निर्माण कराये कि ईटोंके लिये जो भूमि खोदी गई वहां बड़े२ तालाव बन गये, जिन पर्वतोंसे पत्थर निकाला गया वे पृथ्वीके समतल होगए, जिन रास्तोंसे चूनेकी
:: श्रवणबेलगोलके मंदिरों, शिलालेखों व वहांके सविस्तर इतिहासके लिये देखो “माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमालामें प्रकाशित होनेवाला " जैन शिलालेख संग्रह "।
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(१३) गाड़ियां निकलीं वे रास्ते गहरी घाटियां होगई इत्यादि । इनके पौत्र बिट्टिगदेव आदिमें पक्के जैनधर्मी थे किन्तु कुछ समयोपरान्त रामानुनाचार्यके प्रयत्नसे वे वैष्णव मतावलम्बी होगये तबसे उनका नाम विष्णुवर्द्धन पड़ गया। कहा जाता है कि इस धर्मपरिवर्तन के पश्चात उन्होंने जैनधर्मपर बड़े२ अत्याचार किये किन्तु श्रवणबेलगोलके लेखोंसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि धर्मपरिवर्तनके पश्चात् भी जैनधर्मकी ओर उनकी सहानुभूति रही । उनकी रानी शान्तलदेवी आजन्म जन श्राविका रहीं और जिनमंदिर निर्माण कराती व दान देती रहीं। उनके मंत्री गंगराज तो उस समय जैनधर्मके एक भारी स्तम्भ ही थे । उन्होंने विष्णुवर्द्धनके राज्यकी आद्वितीय उन्नतिकी और अपनी सारी समृद्धि जैनधर्मके उत्थानमें व्यय की। गंगरानकी वीरता, धार्मिकता और दानशीलताका विवरण अनेक शिलालेखों में पाया जाता है । विष्णुबईनके पश्चात नरसिंह प्रथम राना हुए जिनके समयमें जैनधर्मकी उन्नतिका कार्य उनके मंत्री व भंडारी हुल्लपने किया। मैसूर प्रांतमें ये तीन पुरुष चामुण्डराय, गंगराज और हुल्लप जैनधर्मके चमकते हुए तारोंके सदृश हैं। इनके उपदेशपूर्ण जीवनचरित्र स्वतंत्ररूपसे संकलित कर प्रकाशित किये जाने योग्य हैं। इन्होंने ही गिरतीके समयमें मैसूर प्रांतमें जैनधर्मको ऊपर उठाया था।
होय्सल राज्यमें जैनधर्मकी अवस्था उन्नत रही। इस वंशका मसलमानोंका आक्रमण, राज्य १३२६ ईस्वी में मुसलमानों द्वारा समाप्त विजयनगरका हिन्दुराज्य होगया। मुपलमानोंके आक्रमणसे अन्य भार
और जनधर्म। तीय धर्मों के समान जैनधर्मको भी भारी क्षति
उप १२मानों
को भी
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( १४ )
हुई किन्तु मैसूर प्रान्त में शीघ्र ही पुनः विजयनगरका हिंदू राज्य स्थापित होगया । इस वंशके नरेश यद्यपि हिंदू थे पर जैनधर्मकी ओर उनकी दृष्टि सहानुभूतिपूर्ण रहती थी । इसका बड़ा भारी 'प्रमाण कराया वह शिलालेख है जिसमें उनके बड़ी महदयता के साथ जैनियों और वैष्णवोंके बीच संधि स्थापित करनेका विवरण है | विजयनगर के हिन्दू नरेशोंके समय में राजघरानेके कुछ व्यक्तियोंने जैनधर्म स्वीकार किया था। उदाहरणार्थ- हरिहर द्वितीयके सेनापतिके एक पुत्र व 'उग' नामक एक राजकुमार जैनधर्माचलम्बी होगये थे ।
इस प्रकार विजयनगर राज्यके समय में जैनी लोग शांतिसे जैनियोंकी वर्तमान अय- अपना धर्म पालन कर सके किन्तु जैनधर्मके स्था और प्रस्तुत उस पूर्व राजसन्मान और व्यापकताका पुनपुस्तकका 'येय | रुद्धार न होसका । इस समय से जैनधर्मके 'अनुयायियों में उस अदम्य उत्साह, उस वीरता और धार्मिकता के मधुर सम्मिश्रण, उस साहित्यिक सामाजिक और राजकीय कर्मशीलताका भारी दास होना प्रारम्भ होगया जो अबतक चला जाता है। एक तो वैसे स्वार्थ त्यागी मुनियों का ही अभाव हो चला और जो थोड़े बहुत मुनि रहे भी उन्होंने धर्मके हेतु नरेशोंपर अपना प्रभाव जमाना छोड़ दिया। पांड्य, पल्लव और चोल प्रदेशों में अब भी जैनधर्म से सम्बन्ध रखनेवाले न जाने किनने ध्वंसावशेष विद्यमान हैं । मैमूर प्रान्तमें 'तो जगह२ बहुत अधिक संख्या में जैनमंदिर और मूर्तियां पाई जाती हैं। पुरातत्व रक्षणका राज्य द्वारा प्रबन्ध होनेसे पूर्व न जाने कितने मंन्दिरोंका मसाला व मूर्तियां आदि पुल, इमारतें आदि बनाने के
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काममें लाई गई हैं। मद्रास प्रान्तमें जैनियोंकी संख्या अब केवल २८०००के लगभग है सो भी तितर बितर और अधिकतर धार्मिकज्ञानसे शून्य है। अपनी प्राचीन अवस्थाका कुछ परिचय प्राप्त कर यह सोती हुई समाज कुछ सचेत हो, उसके रक्तमें कुछ नया जीवन संचार हो, यही अभिप्राय ब्रह्मचारीजीका इन पुस्तकोंके संकलित करनेका है।
इस पुस्तकके अवलोकनसे अनेक ऐतिहासिक समस्यायें उपस्थित होती हैं। उदाहरणार्थ कलिंगदेशके गंगवंश और मैसूर प्रान्तके गंगवंशके बीच सम्बंध, उनका इतिहास व उत्पत्ति, जिसका कुछ उल्लेख प्रस्तुत पुस्तकके पृ० ७, १४६ व २९७में आया है, विचारणीय प्रश्न हैं। ब्रह्मचारीजीका अनुमान है कि जिस कोटिशिलाका वर्णन पद्मपुराण, हरिवंशपुराण व निवाणकाण्ड आदि जैनग्रन्थों में आया है वह गंजम जिलेका मालती पर्वत ही है (ए. १०-१२) इसपरसे मेरा अनुमान होता है कि समुद्रगुप्तके अलाहाबादवाले शिलालेखमें जो ‘गिरि किट्टर' का उल्लेख है सम्भव है वह भी यही गिरि हो। ये सब प्रश्न बर रोचक और महत्वपूर्ण हैं। ब्रह्मचारीजीकी इस पुस्तकको पढ़कर इतिहास प्रेमियों और जैनी भाइयोंका ध्यान इन बातोंकी ओर आकर्षित हो और वे उत्साहपूर्वक अपने पूर्व इतिहास व प्राचीन स्मारकों का महत्व समझ कर उनके अध्ययनमें दत्तचित्त हों व इतिहासके मंकलनमें भाग ले यह हमारी हार्दिक अभिलाषा है ।
अमरावती। किंग एडवर्ड कालेज
हीरालाल। निर्वाणचतुर्दशी २४५३
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नोट-इस लेखमें श्रीयुत रामास्वामी अय्यनगरने जो समालोचना जैनधर्मकी की है वह किसी अंशमें यथार्थ नहीं है क्योंकि नो जैनधर्मकी शिक्षा जैनशास्त्रोंमें जैन गृहस्थोंके लिये बताई है वह सर्व देश सर्व कालके लिये आचरणमें आसक्ती है और उससे कोई बाधा किसी लौकिक व सामाजिक उन्नतिमें नहीं पड़ सक्ती है। जिस धर्मके माननेवालोंमें सच्चा ज्ञान व त्याग कम होनाता है व सांसारिक वासना घर कर जाती है उसी धर्मके ऊपर दूसरे धर्मवालोंका आक्रमण होता है और वे परास्त हो जाते हैं। यही कारण दक्षिणमें जैनधर्मके हमका भी हुआ । शंकराचार्यने बौद्धधर्मके माननेवालोंको भारतसे बिलकुल निकाल ही दिया । यद्यपि जैनधर्मियोंकी भी बहुत क्षति पहुंचाई परंतु उनका बल मात्र निर्बल होसका, उसका विध्वंश न होसका । वादानुवाद, जैनाचार्य स्याहादके बलसे विजयी ही रहे परन्तु अन्य पड़यंत्रोंसे मैन राना अनेन हुए तब प्रना भी अजैन हुई । जैनधर्मकी शिक्षाका कोई भी दोष नहीं हो सक्ता है, जिसे विद्वान् लोग जैन प्राचीन व अर्वाचीन ग्रन्थोंको पढ़कर समझ सक्ते हैं।
ब्र. सीतल ।
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मदरास व म्हैसुर प्रान्तके प्राचीन जैन स्मारकके दानीਵਵਰਸ਼ਟਰਵੇਟਰਵਵਰਟਵਰਕਸਵਟਸ)
***
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ਛੇਵੇਦਰਦੇਸ਼ ਵਿਦੇਸ਼
ਸਟੇਟਵੰਟੇਸਟਰੋਟਰ
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श्रीमान सेठ मांगीलाल जौहरीलाल जैन गंगवाल,
मालिक दूकान, सेठ जेठमल सदासुख-लखनऊ। (3) ਬੈਠ ਬੀਚਾ ਸੀ, (੨) ਜੇਠ ਸੈਂਟੀਗਲ ਸੀ, जन्म-सं० १९१८ भादों सुदी १४ जन्म-सं० १९४८ श्रावण सुदी ਏਸ਼EEs ,
ਵੇਸਟ Jain Vijaya Press, Sirat.
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जिनवाणी प्रचारकों का परिचय |
COOK
इस उपयोगी ऐतिहासिक पुस्तकको लखनऊ (सआदतगंज) निवासी खण्डेलवाल दिगम्बर जैन सेठ मांगीलाल जौहरीलालजी गंगवाल प्रसिद्ध व्यापारीने अपने उदार भावसे "वीर" पत्रके ग्राहकोंको भेटमें देनेके लिये प्रकाशित कराया है । इन दोनों धर्मात्मा भाइयोंके चित्र भी अन्यत्र प्रगट किये हैं। आपका कुटुम्ब मूल निवासी मारवाड़ प्रान्त राज्य किशनगढ़ ग्राम करकेड़ीका है । किशनगढ़ के राजा बड़े न्यायवान् हैं व अपनी प्रजाका पुत्रवत् पालन करते हैं । आपके कुटुम्बमें प्रसिद्ध सेट पद्मचन्दजी होगए हैं। उनके दो सुपुत्र थे - एक का नाम इन्द्रभानजी, दूसरेका नाम सुवायारामजी । इन्द्रभानजीके पुत्र का नाम जेठमल व सुवायारामजीके पुत्रका नाम सरदारमलजी था । जेठमलजी बड़े उद्योगी थे । ये २४ वर्षकी आयु में व्यापारार्थ प्रसिद्ध नगर लखनऊ में आए और संवत् १९०४ में सआदतगंज में किरानेकी दुकान खोली । दूकानका नाम जेठमल सरदारमल रक्खा । छः मास पीछे ही जेठमलनीका स्वर्गवास होगया उस समय उनके पुत्र पांच वर्ष के सदासुखजी थे । सरदारमलजी सब काम सम्हालने थे। कालान्तर में सदासुखजीके तीन पुत्र हुए दो तो ये ही दानी सेट मांगीलालजी और जौंहरीलालजी और तीसरे लक्ष्मीचन्दजी । सग्दारमलजीके दो पुत्र हुए व्रजलालजी और सुगनचन्दनी । सब बड़े प्रेमसे दूकानदारी करते हुए धर्मसाधन करते थे । संवत् १९५९ में दूकानका नाम जेठमल सदासुख रखा गया जो अबतक प्रचलित है । संवत् १९६२में सेठ लक्ष्मीचन्दजी और
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( २ )
१९६९ में सेठ कानपुर में भी
व्रजलालजी दोनोंका स्वर्गवास होगया । फिर सं० सदासुखजी भी स्वर्ग पधार गए । सं० १९७२ में एक दूकान खोली गई जिसमें सेठ मांगीलालजी काम करने लगे व कानपुर रहने लगे । सेठ सुगनचंदजी और जौंहरीलालजी लखनऊ में 1 ही रहे और धर्मसाधन करते हुए व्यापार में तरक्की की । जौंहरीमलजीके कई पुत्रादि हैं। सेठ सुगनचन्दजी पूजन सामायिक दानादि कार्यों में बहुत उत्साही हैं। उनकी संगतिसे सेठ मांगीलालजी व जौहरीलालजी सदा दान धर्म करते रहते हैं । सेठ जौहरीलालजी लखनऊकी जैन सभा के उपसभापति हैं । सआदतगंज में आपके घराने से ही धर्मकी जागृति है । आपने जैनधर्मकी प्राचीनता व उत्तमता बतानेवाली इस उपयोगी पुस्तकका प्रकाश कराया है अतः आपकी इस अनुकरणीय उदारता के लिये आप कोटिशः धन्यवादके पात्र हैं ।
प्रकाशक ।
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पृष्ठ
लाइन
अशुद्ध anliguity
antiquity
१११ १२९
११
ज्वर
वेनूर
-'
२०६
२१२
हुई थी
(४१) पेखुर शोमरुन्
शोभन प्रमात
प्रभात श्रवणे
श्रावणे वोडेवरमें
वोडेयरने यत्न
दान स्मृतिकी स्मृतिका
हुआ था (१९)
(१८) जैन गुफाओं जैन गुरुओं
कुक्कुट सर्व कुक्कुट सर्प परिमिति मधुना चरिमिति मधुना
नामे श्रीमब्दाहु श्रीमहाहु दाहने हाथमें दाहना हाथ
भरउ ईसिय ईसिप
'
२१८
-
नामे
२२४ २४१
मरउ
२४२
*
गोय
गोप
गंगवेश
गंगवंश
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________________
(८)
लाइन
त्रैवेद्य
२५४ २५५ २६२ २६३ . २६६
- 22 :
अशुद्ध त्रैवेध मूलसंघमें छन्दीम्बुधि । नागदा
वेध मचन्द्र
मूलसंघ छन्दाम्बुधि नागरी त्रैवेद्य शुभचन्द्र
२६६
२७० २७८
२७९ २८३ २८७
सौधोदधिः अभयेन्द्र अमचंद्र उयाद दिया षड़का कीले त्यत्का
सौधोदधिः अभयेन्दु अभयचंद्र उमेयाद बढ़िया षड़ग किले त्यक्त्वा किले
२९८
Mr
त्रैवेद्य
नैविद्य अक्रय
2-29
३२१ ३३४
अक्रम
पक्षी
-
0-44
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पंच पांडव द्राविड़ राजा... २ मदरासका इतिहास
मदगसका पुरातत्त्व मदरासी भाषा बोलनेवाले... ५
मदरासमें जैनी
[१] गंजम जिला (१) कलिन पाटन (२) चिकाकोलानगर (३) जौगढ (४) महेन्द्रगिरि (५) मलियाह
0.0
( ९ )
सूचीपत्र |
(१) जयती
(२) नंदपुरम
420
...
...
D..
...
...
...
...
(६) मुखलिंगम (७) श्रीकृनेम
( ८ ) मालतीपर्वत शायद
कोटशिला
...
...
...
૧.
प्राचीन श्रावक ११ [२] विजगापटम जिला १३
१४
१५
...
...
...
(३) रामतीर्थम्
१५
...
राजा विमलादित्त्य जैन १६
१७
१७
१७
१९
१९
( ४ ) मुरुतरी (५) भामिदीवाड़ा [३] गोदावरी जिला (१) आर्यपत्तम (२) तातिपक (३) पिथापुरम् या पिष्ठपुरम
...
...
...
...
...
(४) द्राक्षा रामन (५) नंदुनूरु
(६) आत्रेयपुरम
"
...
(७) गलवलडाम (८) येन्दागुरु (९) शील (१०) जल्लुरू (११) काजलुरु (१२) माचपुरम (१३) पेंद्दामुरु
::
...
(१) गुडिवाडनगर (२) गुंतूपली (३) जग्गया पेट
(४) धरणीकोटा
(५) पनिदेन
(६) पट्टमकेम
...
...
भूतमादेवी जैन रानी (७) अमेनाबाद या फिरंगीपुस्म् (८) पेहू पललकलून
(९) हाडीकोड
(५०) निदमरू
(११) अमरावली.
(१२) मलटीप्रोलु (१३) कोहपतम्
...
१० | [ ४ ] कृष्णा जिला धरणीकोटाके जैन राजा
१०
૧૦
...
...
800
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२५
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...
-
(१०) (१४) उदवल्ली
___ जैन लोग ... ... ३० (१५) कोंडबिडु
(१) अडोनी ... ... ३० (१६) गोकनकोड
(२) कोथुरू ... ... (१७) इपुरु ...
(३) रायडुगनगर ... . (१८) पेज्जुरुकुल
(४) विजयनगर या हम्पी (१९) तेनाली...
मदरासमें चित्र- ... (२०) रखुलपाडु ... " (५) चिनतुम्बलम् ... (२१) वजवादानगर ... २६ (६) पेद्द तम्बलुम् (२२) कोकिरेनी ... , (७) चिप्पगिरि (२३) उदुकोड या उदुकोट .. (८) हौरिहालु (२४) पोंडु गोरु ... (९) कुडातिनी (२५) नसर्बु पेली
(१०) कुरुगोडु मदरास एफिप्राफीमें चित्र , जैन प्रभाव जैन महत्त्व ...
(११) कोगली 14] नेल्लोर जिला
(१२) वागली (१) आत्मकूर ... (१३) हरपनहल्ली ... (२) महिमालूरू
(१४) उच्छूगोदुर्गम् ... मदरास एफिप्राफीमें चित्र (१५) सन्दूर नगर ... [६] कुरापा जिला ... (१६) हुलीविदु ... (१) पानबुलपादु
(१७) कोनवरचोडु पेनुगोंडा दि जेनोका केन्द्र (१८) नंदिवेवरू मदरासमें चित्र ... (१९) कप ... ... कलनूर जिला ... ३४ (२०) तारेणगल प्राचीन कुर्नाम जैनी ... (२१) मांगला
(१) जगमाय घट्ट ... [C] अनन्तपुर जिला ... [८] पिलारी जिला ... (१) गूटी ... ... कादम्बवंशी जैन धर्मा
(२) कोनकोडला चालुक्यवंशी जैन धर्मी
(३) कम्बदूरू ... ...
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________________
(११)
(४) अगली ... ... ५३ । (५) आनन्द मंगलम्... ६९ (५) अमरपुरम् ..
[१२] उत्तर सीट जिला , (६) हेमावती...
मैन लोय ... ... ६५ (७) रलागिरि...
· मदरासके जैनोंमें उपजातियां (6) पेनूकोंडा...
नहीं ... ... ... , (९) तदपत्री ...
(१) बापनत्तन ... ६८ मदरासमें नकशे
अर्काट तालुको ... " (१०) को शिवपुर ... (२) तिरुवतूर ...
(११) पट शिवपुरम् ... (३) पंचपांडवमलई १. पद्मप्रभ मलधारीदेव ... (४) मानन्दूर या जैन प्रभाव...
सोमामन्दूर ... ७० [१०] मदरास शहर ...
अरनी तालुका ... नेमिनाथ स्तोत्रम् ... (५) पिंडी ... ... [११] चिगिलपुर जिला ५६ (६) अरनीनगर ... (१) चेयूरनगर... ...
चंद्रगिरि तालुका , (२) कंजीवरम् नगर ... , (७) चन्द्रगिरिनगर ... , जैनोंका प्रभाव... ... " (6) तिरुमल ... ... महेन्द्रवर्मन जैन राजा...
चितर तालुका... ७२ अमोघवर्ष , , ... (९) मेलपादी ... , होयसालवंशी जैन ... (१०) वल्लीमलई ... , तिरुपत्तिकुनरम् ग्राम ...
गुड़ियत्तन तालुका ७३ त्रिलोकनाथ स्वामी
(21) लाहेरी ... " यहांके शिलालेख ... (१२) पसुमत्तूर ... मदरासमें चित्र ... (१३) कोवनुरू समन्तभद्राचार्य जन्म ...
(१४) सोरामूर... ... . (३) सात मंदिर ... (१५) तिरुमणि (४) श्री पेरुम्बुदूर ... ६५ करवेटनगर जमीदारी मदरासमें फोटो ... (११) अरुनगुलम् ... "
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पोलुर तालुका (१७) तिरुमलई ( पवित्र जैन तीर्थ ) ७४
१६॥ फुट ऊंचे नेमिनाथ ७४ यहांके शिलालेख
...
...
"
मुनि वादीभसिंह समाधि ७५
मदगसमें चित्र
७७
99
(१८) पोडवेहु (१९) जवादी पहाड़ियां वालाजावेत तालुका ७८ (२०) पेरुनूगिंजी.
(२२) महेन्द्रवाड़ी वंडीवाश तालुका ... (२२) तेल्हार (२३) तेरुक्काल (२४) देसूर (२५) वेनकजरम् (२६) पौन्नूर पहाड़ी श्री कुंदकुंदाचार्यकी तपेाभूमि चरणचिह्न ७९ मदरासमें चित्र [१३] सालम जिला
"9
राजा अमोघवर्ष जैन
गंग राजा
...
39
...
(१) धर्मपुरी (२) सालेम नगर ८१ बकरोंकी बलि जैन मूर्तिपर (३) आदमन् कत्तई ...
900
...
...
...
...
...
...
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...
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9.0
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( १२ )
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८२
गोमहस्वामी जैसी बड़ी मूर्ति ८१ [१४] कोयम्बटूर जिला (१) कंजीकोविल विजयमंगलम्
(२) करून
(३) वस्तीपुरम (४) एगेडनगर
...
...
...
...
...
800
...
...
...
...
"}
(५) पोलोची नगर ( ६ ) त्रिमूर्ति कोविल मदरासमें चित्र [१५] दक्षिणअर्काट जिला ८४ जैन लोग (१) कुचलो ... (२) किलरुंगुनम
८६
૮૮
(३) तिरुवादी चीरावंशी जेनी राजा (४) सिंगवरम
(५) चिंतामूर जैन भट्टारककी गही (६) टिंडीवनम
23
(७) टोंडूर (c) तिरुनिरन कोनरई १२
(९) कोलियन्द्र
...
(१०) विलपुरम
(११) पेरुमन्दर
(१२)
नासूर (१३) अरियन कुपन
...
...
...
640
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...
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...
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8.0
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( पांडिचेरी )
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(१३)
१६] तंजोर जिला ... ९३ (१२) वेल्टु बात्तलई ... १०४
___ जैन लोग ... ९४ [१८] पुडुक्कोट्टई राज्य ... , (१) कुंभकोनम् ... ९५ (१) कुदुमिया मलाई... , (२) तिरुवलन्जली...
(२) नर्त मलाई ... १०५ (३) मन्नाग्मुडी या राजामिराज (३) सीतनवासल जन क्षेत्र ,
चतुर्वेदी मंगलम , (४) पिट्टइ वात्तलई ... , ज्वालामालिनी देवी ... [१६] मदुरा जिला ... , (४) दीपनगुडी ... पांड्यवंश जैन ... ... १०६ * दीपनायक अटक
जैन लोग व जैन प्रभाव १०६. मंदिग्का शिलालेख
(१) अनइमलइ ... १०७ वीरसंवतम विचार
शिलालेख ... ... १०८ (५) नेगापटम
(२) पसुमलई ... ... (९) शियालीनगर ... (३) त्रिपुरनकुनरम (७) तंजोग्नगर ... दक्षिण मथराके गुप्ताचार्य ११. जनोपर अजैनोंका तिरस्कार १०० (४) तिरुवेदगम ... १११
मदगसमें चित्र ... , (५) ऐवग्मलइ ... [१७] त्रिचिनापली जिला १०८
(६) उत्तम पालझ्यम... ११२ (1) कुलितलई ... १०२ (७) कोवितन्कुलम् ... , (२) महादानपुग्म ... । (८) कुम्पल नत्तम ... १३) तिरुवंरुम्बर ... १०३ (९.) किदाग्म ... ... ११३ (४) जयनकुन्द चोलकुग्म , (१०) कुलशेषर नल्लर (') श्रीरंगम ... ... , (११) हनुमंत गुट्टी ... , (६) परियम चोलमय... (१२) मेलुवनृर ... " (७) वालीकुंदपुरम ... मदरासमें नकशे आदि । (८) अम्बिपुग्म ... , [२०] टिनेवलो जिला ... ११४ (९) वाइनार ... ... "
जैनोंका अपमान ... (१०) लालुगुडी ... (1) आदिचनल्टर ... १ (11) मुन्दकीपाई ... १०४ (२) कलगमलद ...
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________________
[२] कोलार जिला (३) नोनमंगल...
(२) नंदिब्रुग यहां शिलालेख
***
"9
...
(i) तालुका मालुर (२) चिकबल्लपुर [३] तुमकूर जिला यहांके शिलालेख
...
(२) तलकाड
(3) वेलदपुर (४) येवल (५) मालिग्रामनग (६) सरिंगापटम
...
...
...
...
ता० ननूजनगुड
मुनि सिंह
...
....
...
(१) ना० तुमकुर (२) ता० गुब्बी पद्मप्रभ Heariदेव
ता० तिपट ता० चिकनयकनहल्ली
श्री कुंदकुंदाचार्य आकाशगामी,,
ता० मीग
ता.. पमगोडी ... [४] मैसूर जिला
(१) चामराजनगर
...
...
...
...
...
...
100
...
...
...
( १६ )
१६७
...
"
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भद्रबाहु चन्द्रगु (७) येलदर
"
मैसूरके ८०३ शिलालेख १७४
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ता• तिरुमकुदल नरसीपुर १७५
मांड्या
तिरु मकादल
मतवल्ली
29
जैन गंगराजाके कृत्य
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ता० ननूजन् गुड
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...
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,, जन्जन् गुड मलवल्ली ...
मैसर
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श्रीरंगपट्टम
मांड्य
...
>>
१७६
तिरुमकुदल नरसीपुर १७७
मलवल्ली...
"
आचार्य पट्टावली लेख
...
...
...
...
..
...
...
...
...
...
...
...
संस्कृत
...
...
...
होटगे गच्छ
ता० हेग्गडे देवनकोटे
"
950
"
ता० ननजन, गुड
""
39
वही मैसूर जिलेके शिलालेख १८५
...
"
38
१७८
ता० चामराजनगर
"
वीरसम्वत में विचार १८८
१८९
मुनियोंका कालोग्रगण ... ता० गुंडट्रपेट ... पुस्तकगच्छी राजेन्द्रवोल १९९
१९०
१९२
१९३
"
'D
१७९
१८०
१८१
१८४
" हमर
...
95
मुनियोंमें इंग्लेश्वरवली... १९८ ता. कृष्णराजपेट
.... 37
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________________ ता• नागमंडल ... ... 194 होयसाल वंश वर्णन ... 196 राजकन्याएं गाननृत्यमें निपुण ,, मुनियोंका एरगिटूरगण 200 द्राविल संघ ... ... 202 पुन्नाटदेश ... ... चंगलवंश जैन राजा ... [5] हासन जिला (1) वेलूर ... ... (2) ग्राम ... ... (3) हलेविड ... (4) श्रवणबेलगोला ... , यहांके शिलालेख 500 जैन ,, चिकवेट या चन्द्रगिरि ... 207 चन्द्रगिरिके जैन मंदिर 208 (1) पार्श्वनाथ वस्ती ... , (2) कट्टले वस्ती ... ,, (3) चन्द्रगुप्त वस्ती ... 2.9 मनिवंशाभ्युदय काव्य चिदानंद कवि ... , (6) शांतिनाथ वस्ती... , ('.) सुपार्श्वनाथ वस्ती... (6) चन्प्र भ , ... " (7) चामुंडगय ,, (8) शासन (9) मजिगन्ने , (10) एण्ड कहे ,, ... (11) सवती गंधवग्ण वस्ती ,, (12) टेरिन नम्बी ... , (13' शांतीभर वस्ती 212 (14) कूगे ब्रह्मदेव स्तम्भ , (15 महानवमी मंडप , (16) इरुवे ब्रह्मदेव मंदिर 213 (17) कन्डुनडोन ... " 18) लकीडोन ... , (19) भद्रबाहु गफा ... , - (20) चामुंडराय चान 14 दोदावेट या विध्य गिरि , भी गोम्मटस्वामी मूर्तिवर्णन ,, कुकटेश्वर ... . ... 21'', भुजबली शतक ग्रंथ ... भुजबलि चरिम ... गोमटेश्वर चरितम् राजाबली कथा गजा चामुंडराय मूर्तिकी माप ... ... माप सम्बन्धी श्लोक ... 218 मस्तकाभिषेक करानेवाले 22. गोम्मटस्वामीके कोटमें प्रतिमाएं, 223 विष्यगिरिपर जिनमंदिर 225 (1) मिदर वस्ती ... , (2) अखंड वागिल ... 226 (3) त्यागड ब्रह्मदेवस्तम्भ , (4) चेवनावस्ती ... 227 (.) भादगलवस्ती या त्रिकटवम्ती 227 गुसराय ...
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( १८ )
...
""
(६) २४ तीर्थकर वस्ती २२७ / चामुंडराय गोम्मटसारवृत्ति लेखक २४३ (७) ब्रह्मदेव मंदिर राष्ट्रकूट जैनवंशके शिलालेख... २४५ श्रवणबेलगोला ग्रामके मंदिर २२८ चालुक्यवंशी जैन राजाओंके लेख२४६ व दिराज जैनाचार्य शब्द चतुर्मुख होयशालवंशी जैन लेख
( १ ) भंडार वस्ती
(२) अक्कन (३) सिद्धांत (४) दानशाला वस्ती
"
"
"
(५) नगर जिनालय (६) मंगाई वस्ती
(७) जैन मठ कल्याणी सरोवर
जक्की करे
चेन्ना सरोवर जिननाथपुर मंदिर अरेगल वस्ती
जैन समाधिस्थान ग्राम हलेवेलगोला
...
...
...
महाराज अशोक जैनी गवंशके लेख गंगवशी श्रीमती सवियव्वे
वीर महिला
...
...
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...
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...
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...
...
भद्रबाहु व चंद्रगुप्त सम्ब
न्धी लेख
10
...
...
"
...
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"
,,
२२९ जैनधर्मी गंगराजाका चरित्र... २४७
२३०
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२३१
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साने हल्ली श्रवणबेलगोलाके शिलालेख २३५
"
२३२
"
"
२३३
"
૨૨૪
राजा मारसिंहकी वीरता
व उपाधि
चामुंडराय गजाकी वीरता व गुण २४० |
...
शांतलदेवी नृत्यगानमें चतुर २५१ जैनधर्मी प्रसिद्ध हुल भंडारी चरित्र २५२ हुल्लाको सम्यक्तचूडामणि उपाधि
...
इरुगप्पा नानार्थ ग्रंथमालाका कर्ता
मैसूर राजाओंके जैन लेख चंग्लव वंशके जैन लेख
"
97
91
निदुगल प्रभाचन्द्र मुनि व धारके
...
बेलगुलके व्यापारी समुद्रके व्यापारी थे २५४
...
...
मुनियों में इंग्लेश्वर देशीक गण २५५ विजयनगर के राजाओंके जैन लेख
>>
जैन सेनापति संस्कृतज्ञ २५६
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...
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कविरत्नकृत अजितनाथपुराण
२३९ नागवर्माकृत छान्दोम्बुधि व
कादम्बरी
"
"
२५७
राजा भोज
90
२३६
अकलंक स्वामीका बौद्धों से वाद लेख २५८ पद्मनंदिपचीसी ग्रंथका समय २३७ मुनि व आर्जिकाओंके समाधिमरणके लेख २५९
२३८ | श्रवणबेलगोलाके यात्रियों के लेख २६२
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13
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श्रवणबेलगोलापर राइससाहब जैनाचार्यों की सूचीके लेख आचार्य गोपनन्दी त्रिमुष्टिदेव कुंदकुंदाचार्य आकाशगामी २६६
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सुमतिसप्तक ग्रन्थ
२६७
चिन्तामणि
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नड़ामणि काव्य रूपसिद्धिके कर्ता दयापाल arita और अथके अर्थ
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600
जिनेन्द्रबुद्धि या पूज्यपाद शिवकोटि तत्वार्थ सूत्रपर वृत्तिके कर्त्ता ता० हासनके लेख
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छः मास २६९
२७०
वादि राजेन्द्र राजा जयसिंह
देवके गुरु
राजा गंगके जाननेयोग्य सात नर्क ता. आरसीकेरीके लेख माममें अटोपवासी आर्जिका कलचुरीवंशी जैन राजा चरस ता० चामरायपाटनके लेख
ता० होले नरसीपुर ता• अर्कलगुड सुराष्ट्रगण मुनियों का अरूंगलान्वय
ता० मंजराबाद
...
२७१
२७२
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विमलचन्द्राचार्य पल्वराजाके गुरु २७४
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( १९ )
२६: | कोंग्लवंशी जैन राजा
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[६] कादूर जिला सातारा राज्यके जैन राजा
(१) अगदी
(२) कलस
(३) श्रृंगेरी
(४ वस्तरा
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इस जिलेके शिलालेख
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32
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ता० कादूर उपजातिविवाहका नमूना
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ता० चिकमगलूर
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मुदगेरी कोप्पू भैररसदेवी जैन रानी सांतारवंश जैन... जैन महारानियोंका राज्य २९३
29
राजा ओडियर
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[७] शिमोगा जिला
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...
(१) अनन्तपुर..
(२) वंदलिके
(३) बेलगामी...
(४) गोवर्द्धनगिरि
(५) हूमछ सांतार इतिहास
(६) मलवल्ली...
(७) तालगुंड (८) कुमसीनगर शिमोगाके शिलालख
ता० शिमोगा ..
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(२०)
पाषाणगन्छ
गंगवशोत्पत्ति लेख ... २९७ दिहली बादशाहके पूजित आचार्य सिंहनंदिकी
सिंहकीर्ति मुनि ३२२ उपाधियां ... ... २९८ सिकन्दरसे पृजित विशालकीर्ति माणूरगणके आचार्य वंश २९९
__मुनि , ता. शिकारपुर ... ३०३ बुद्देशभवन व्याख्यान विद्यानंदिकृत ,, जक्कव्वे श्राविकाका समाधि- सिद्धांतरत्नाकर वृत्ति तत्वार्थमृत्र ३२४ मरण व स्वरचित श्लोक ३०५ ता० तीर्थहली ... ... ... , वीर भाा जक्कममे... ३०७ अरुंगलान्वय मुनियों में... ... ३२५ ता० हानली ... ... ३०९ [८] चितलग जिला ... ३२६ कारगण ... ... " (१) ब्रह्मांगरि ... ... "
(२) चीतलग ... , ता. सोराव ... ... ३१० बहुतसे समाधिमरणके लख ३११
(३निग्रेड ... ... , तिनत्रिकगच्छ मुनियोका ... ३१४
(५) सिन्द्रपुर ... ...
यहांके शिलालेख ... ता. सागर ... ... ... ३१५ अभिनव समन्तभद्र ... ...
ता. मलकालमुरु ... , ता. नगर ... ... ... ३१७ ता. हिदियर ... ... सांतरवंशकी उत्पत्ति ... ,, २७ कुर्ग प्रांत ... ... कुन्दकुन्दाचार्य आकाशगामी ३१८ चंगल्यवंशी 'जन गजा ... पम्पादेवी विदुषी ग्रंथकी ... २१९ कोंगल्ववंशी जैन गजा ... विद्यानंदि व्रतपति ... ... ३२० गवंशी राजा उदयादित्य पाणिनी व्याकरणपर न्यासके व नाम गुणवर्मा कवि, हरिवंश ३२९
का स्वामी पृज्यपाद ३२१ व पुष्पदंत पुराणादिक कर्ता ) जिनराजवाणीके कर्ता माणिक्यनंदि , मदगसके अजायबघरकी ... बायकुमुदचंद्रोदयके कर्मा प्रभाचंद्र ,, नैन मूर्तिये ... ३३१
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ASON
मदरास व मैसूर प्रान्तकेप्राचीन जैन स्मारक।
इस प्रांतका वर्णन मुख्यतासे मदरास प्रांतके गनटियरोंसे लिया गया है जिसमें प्रधान Imperial Gaz tteer of - India Madras (1908) है ( इम्पीरियल गजटियर मदरास )।
मदरास प्रांतकी चौहद्दी-भारतका दक्षिण भाग सब इस मदरास प्रान्तमें शामिल है । इसीमें ६ देशीराज्य जैसे ट्रावनकोर, कोचीन, पुदुक्कोहह, बंगनपल्ली, सन्दूर तथा मैतूर, ट्रिचनापली व कुर्गका इंग्रेजी भाग भी गर्भित है ! पश्चिमकी तरफ भारतीय समुद्र है, पूर्व बंगालकी खाड़ी है, उत्तरमें उड़ीसा, मध्यप्रांत, हैदराबाद और वम्बई है।
क्षेत्रफल-ऊपर लिखित पांच देशी राज्यों को छोड़कर इस प्रांतका क्षेत्रफल १४ १७०५ वर्गमील या बृटिश संमिलित राज्यसे २०००० वर्गमील अधिक है । पांच देशी राज्यों में १०००० वर्गमील है।
इतिहास-इस दक्षिण भारतके सबसे प्राचीननिवासी वे इतिहासके समयके पूर्वजन हैं जिन्होंने स्मारक पापाण ( evirus ), हाथगाड़ी (varrows), करें (Kistv.ens) व गुफाएं (dolmens) बनाई थीं जो बहुतसे जिलों में पाई जाती हैं और वे वेलोग हैं जिन्होंने
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प्राचीन जैन स्मारक। उन पापाणके शस्त्रोंको बनाया था जो दक्षिणकी पहाड़ियोंके ऊपर बहुत अधिक संख्यामें पाए गए हैं। हालमें आश्रर्यकारक मरणस्थानोंकी खुदाई होकर जो बहुत सुन्दर वर्तन और शस्त्र टिनेवेली जिलेके आदिचनल्लूर और अन्य स्थानों में पाए गए हैं उनके कर्ता भी यहां के पुराने निवासी थे। यह अनुमान किया जाता है कि वे द्राविड वंशके थे।
सम्पादकीय नोट-दक्षिण मथुरा या मदुग मिलेके पास ही टिनेवेली निला है। मैन शास्त्रोंसे प्रगट है कि युधिष्ठिर, भीमसेन,
अर्जन, नकुल, सहदेव ये पांच पांडव अन धर्मी थे तथा कौरवोंसे व्युह होनेके पीछे अंतिम जीवनमें वे दक्षिण मथुरामें आए । यहीं राज्य किया और यहीं अंतमें जैन साधु होकर तप किया और पांचोंका शरीर त्याग काठियावाडके शत्रुजय पर्वतसे हुआ जिनमेंसे प्रथम तीनने मुक्ति पाई । ये पांडव द्राविड़ोंके राजा कहलाते थे। जैनशास्त्रानुसार पांडवोंका समय अवसे अनुमान ८८००० वर्ष पर्व है । अति प्राचीन प्राकत निर्वाणकांडमें नीचे लिखी गाथा है, उसमें इन पांडवोंको द्रविड़राजा लिखा हैगाथा-पंडमुत्रा निणिजणा दविटारिंदाण अट्ठकोडीओ।
सेतुजय गिरि सहरे णियाणगया णमो तेसि ॥६॥ हिन्दी अनुवादःपांडव तोन द्रविड़ राजान | आठकोडि मुनि मुकति प्रयान । श्रोशत्रुजय गिरिके शास । भावसहित दो निशदोस ॥७॥
(भैया भगवतीदास कृत वि० सं० १७:1 में) प्राचीन इतिहास बताता है कि महाराज अशोक (२५० वर्ष सन ई. से पहले) के शिलास्तम्भ गंजम निलेके नौगढ़ स्थान पर
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [३ और मैसूर राज्यमें वेल्लारीके कोनेके निकट एक ग्राममें पाए जाते हैं। यह बताता है कि उत्तरीय आधा भाग मौर्यराज्यका अंश था तथा दक्षिणी भाग इस तरह बटा हुआ था कि मदुरा या दक्षिण मथुराके पांडवराजा बिलकुल दक्षिणमें राज्य करते थे। चोलवंशीय राजा उनहीके उत्तर और पूर्वमें तथा चेरा या केरल राजा पश्चिमीय तटपर राज्य करते थे। अशोक महारानके पीछे किसी समय कमीवरम् या कांचीके पल्लव रानाओंने बहुत उन्नति की थी-उनका राज्य पूर्वीय तटपर उत्तरमें उड़ीसातक फैला हुआ था। उत्तरमें मौर्योके पीछे अंध्र राजाओंने राज्य किया। ये लोगबौद्धधर्मके माननेवाले थे, इन्होंने अमरावतीमें सुन्दर मंगमर्मरका एक स्तूप बनवाया था और बहुतसे मकान बनवाए थे जिनके ध्वंश कृष्णा और गुत्तुर जिले में पाए जाते हैं। उनके आचर्यकारी शीशेके सिक्के भी वहां मिलते हैं।
पांचवी शताब्दीके अनुमान चालुक्यवंशी राजा जो उत्तरीय भागोंसे दक्षिणमें आए थे, पश्चिमीय दक्षिणमें उन्नति करने लगे, सातवीं शताब्दीमें उनके दो विभाग हो गए-एक पश्चिमीय, दूसरा पूर्वीय । पूर्वीय चालुक्योंने वेंगीदेशके पल्लव राजाओंको विनय किया और वहां जम गए । वेगींदेश कृष्णा और गोदावरी नदियोंके मध्य कलिंगदेशसे दक्षिण है तथा पश्चिमीय चालुक्य अपने मूल स्थानमें बने रहे । इसीके साथ साथ दक्षिणके दक्षिण पश्चिममें और मैसूरके उत्तरमें कादम्बवंशी राजाओंकी शक्ति बढ़ गई जिनकी राज्यधानी उत्तर कनड़ाके वनवासी स्थानपर थी। इन्होंने कंमीवरमके पल्लवोंको हरादिया और पश्चिमीय चालुक्योंको लगातार सताया। इघर निजाम राज्यके मलखेड़के शासक राष्ट्रकूटवंशी राजाओंने बहुत
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प्राचीन जैन स्मारक। बल के साथ पश्चिमीय चालुक्योंका सामना किया और अंतमें उनको दवाकर अपना प्रभुत्त्व पश्चिमीय दक्षिणमें सन् ई० ७५०से ९५० तक दृढ़तासे स्थापित रक्खा । - इस समयके पीछे पश्चिमीय चालुक्योंने फिर उन्नति की और अपना पद सन् ई० ११८९ तक जमाए रक्खा । पश्चात् उनको उनहींके आधीन राजाओंने अंतमें दबादिया। एक तो देवगिरिके यादववंशी राजा थे, दूसरे होयसालवंशी राजा थे जिनकी राज्यधानी मेसुरके दोर समुद्र या वर्तमान हालेविड़ स्थानपर थी।
इसी समय दक्षिण व पूर्वयें तंबोरके चोल राना बहुत तेजीके साथ अपनी हद्द बढ़ा रहे थे । सन् ९९९ तक उन्होंने पूर्वीय चालुक्योंके सर्व समुद्रतट प्रदेशोंपर विजय करके अधिकार करलियाउन्होंने पल्लव और पांडवों दोनोंको दबा लिया, पल्लवोंके राज्यको अपने में मिलालिया और पांडवोंको अपने वश कर लिया परन्तु पश्चिमकी तरफ चौलोंको होयसाल राजाओंने बढ़ने से रोक दिया। १२वीं शताब्दीके अंतमें उत्तरकी ओर उनके राज्यको वरंगलके गणपति रानाओंने लेलिया।
इस तरह तेरहवीं शताब्दीके अंतमें दक्षिण भारतमें तीन श्रेष्ठ वंश राज्य करते थे अर्थात् होयसाल, चौल और पांडव ।
१४ वीं शताब्दीमें मुसल्मान लोग आगए ।
पुरातत्त्व और चित्रकला-ऐतिहासिक समयके बाहरके पदार्थ मिट्टीके वर्तन और शस्त्र मिलते हैं । ऐतिहासिक समयके स्मारक लेख, मंदिर और किले हैं ( देखो R ports of A. Survey of India, south Iudian inscriptoins and
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मदरास व मैमूर प्रान्त । Epigraphica Indica.) यहां सहस्रों मंदिरोंमें अनगिनती लेख मिलते हैं। पुरातत्वमें इतिहासके पूर्व व इतिहास समयके अनेक स्मारक हैं । इतिहासके पूर्वके स्मारक मदरासके अजायबघर (Museum) में हैं इसीमें अत्यन्त प्रसिद्ध पदार्थसमूह भी गर्भित है जिसको मि० बेक्स साहबने नीलगिरि पर्वतोंमें पाया था और जिसका सूचीपत्र मि० ब्रूस फूटेने तय्यार किया था। उसके पीछेके कब या समाधिस्थान टिन्नल्लूर जिलेमें आदिचतुल्लुरमें हैं । धार्मिक चित्रकलाके नमूने सबसे प्राचीन बौद्धोंके कृष्णा नदीकी घाटीमें मिले हैं । सबसे प्रसिद्ध वह स्तूप है जो अमरावतीमें पाया गया है। इससे कम प्राचीन पल्लववंशकृत गुफाएं और मकान हैं जिनमें सबसे प्रसिद्ध मात मंदिर (Seven pagodas) हैं जो चिंगेलपुट निलेमें पाए जाते हैं । जैन प्राचीन शिल्पके नमूने दक्षिण कनड़ामें बहुत हैं उनमें सबसे प्रसिद्ध मूडबिद्रीके मंदिर तथा कारकल और येनूरकी विशाल श्रीबाहुबलिस्वामीकी मूर्तिये हैं। हिन्दू शिल्पकला चालुक्योंकी कमी २ बेलारी निलेमें और उड़ीसाकी गंजम मिलेमें पाई जाती हैं । द्राविड़ पद्धतिकी प्रचलित शिल्पकला १६वीं और १७ वीं शताब्दीकी मिलती है। इस कालके मध्यके सबसे प्रसिद्ध मंदिर मदुरा, रामेश्वरम् , तंबोर, कंजीवरम्, श्रीरंगम् , चीदम्बर, तिरुवन्नमलई, वेल्लोर और विजयनगरमें हैं। भाषा-बोलनेवाले सन् १९०१के अनुसार नीचे प्रमाण थे
तामील भाषाके-१,५१,८२,९५७ तेलुगू , १,४२,७६,५०९ मलपलम् , २८,६१,२९७ कनड़ी , १५,१८,९७९
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६]
प्राचीन जैन स्मारक। उड़िया , १८,०९,३१४ हिन्दुस्तानी, ८,८०,१४५
अन्य , १६,८०,६३५ यहां ब्राह्मण ११,९९,००० हैं। १०० में हिन्दू ८९, मुसल्मान ६, ईसाई ३, अन्य २ हैं ।
जैनी कुल २७००० हैं-अधिकतर दक्षिण कनड़ा और उत्तर व दक्षिण अाटमें हैं।
नोट-उपरके वर्णनमें मैसूर आदि राज्य गर्भित नहीं हैं।
उच्च पर्वत-गंजम जिलेमें महेन्द्रगिरि समुद्रसे ५००० फुट ऊंचा है, कुर्गसे उत्तर सुब्रह्मनिय पर्वत ५६२६ फुट है, कादूर निलेके दक्षिण पश्चिम कुद्रेमुख पर्वत ६२१५ फुट है, ट्रावनकोरमें अनहमुड़ी पर्वत ८८३७ फुट ऊंचा है । कुड़ापा निलेमें कुंबम्के उत्तर पश्चिम भैरनी कंदा ३०४८ फुट ऊंचा है। नल्लमलई पहाड़ी श्रीशैलम्का भाग है इसपर प्राचीन नगर, किला, मंदिर आदि हैं।
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(१) गंजम जिला। यह जिला त्रिकोण है। उत्तरमें उड़ीसा और मध्यप्रांत है। पूर्वमें समुद्र है। पश्चिममें विजगापटम है, यह बंगालकी खाड़ीके पास तक चला गया है।
इसमें ८३७२ वर्ग मील स्थान है, सबसे सुन्दर जिला है।
उच्चपर्वत-इस निलेके मध्य उच्चपर्वत बारुवपर पूर्वीय घाट समुद्रसे १५ मीलकी दूरीपर चलेगए हैं। उनकी चोटी सिंगराजू
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Nimnvar
मदरास व मैमूर प्रान्त। [७ और महेन्द्रगिरि सबसे ऊंची हैं अर्थात् ५००० फुट ऊंची हैं। इससे कम ऊंची देवगिरिकी पहाड़ी है जो पटकि मेढ़ीके पीछे दक्षिणको ४५३५ फुट ऊंची है।
इतिहास-यह जिला कलिंगदेशका एक भाग है । प्राचीन कलिंगदेश सन् ई० से ९.०० वर्ष पहले स्थापित हुआ था। यह कलिंगदेश उड़ीसाकी बंगाल हादसे लेकर गोदावरी नदी तक चला गया था निसका फासला ५०० मील है । महाराजा अशोकने इसे सन् ई० से २६० वर्ष पूर्व विनय किया था । कुछ काल पीछे यह प्रदेश वेंगीक अंध्रराजाओंके हाथमें आगया जो बौद्धधर्मी थे। अशोकका एक स्तम्भ नौगढ़पर है। तीसरी शताब्दीमें अंध्र लोगोंको भगाकर कलिंगदेशके प्राचीन गंगवंशने राज्य जमाया। प्राचीन गंगवंशकी मितीका ठीकपता नहीं है। यही हाल बैंगीके पूर्वीय चालुक्योंका है । इन चालुक्योने भी गंजमके एक भागपर राज्य किया था। चोलवंशने १० वीं के अंत और ११वीं शताव्दोके प्रारम्भमें वेंगी और कलिंगीको विनय किया था इसीमें गंजमके भाग गर्भित थे।
इनका सबसे प्रसिद्ध राजा राजेन्द्रचोल हुआ है जिसके विजयके लेख महेन्द्रगिरिपर मिलते हैं। इसी समय कलिंगके पीछेके गंगवंशी राजाओंने पहले तो चोलोंके आवीन फिर स्वतंत्र आगेकी चार शताब्दियोंतक राज्य किया था । इन्होंने उत्तर और दक्षिण अपना राज्य बहुत बढ़ाया था और परस्परकी कलह और मायाचारीसे इनका पतन हुआ । उड़ीसाके गनपति राजाओंका अधिकार यहां . १५वीं शताब्दीमें हुआ । गंगवंशो रानाके एक मंत्रीने अपने स्वामीको मारकर राज्य ले लिया। गजपति वंशके लोगोंकि हाथमें अब
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८ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
भी इस जिलेका बहुत भाग है। उड़ीसा के इस गजपति या सिंह वंशको यायाती केशरीने स्थापित किया था । इन्होंने ६०० वर्ष से अधिक राज्य किया ।
यह कहा जाता है कि गजपति वंशके सबसे प्रसिद्ध राजा अनंग भीमदेवने ११७२ से १२०२ ई० तक राज्य किया था । इसीने पुरी में जगन्नाथजी का मंदिर बनवाया था ।
सन् १९७८ के अनुमान गोलकुंडाके कुटलेशाही वंशने गजपतियों को दबा दिया |
शिल्पकला - यहां नौगढ़का शिलास्तम्भ है व अनेक प्राचीन मंदिर लेख सहित हैं । इन मंदिरोंमें बहुत प्रसिद्ध श्रीकृर्णमू में वैष्णव मंदिर और मुखलिंग में शिव मंदिर हैं । यहांके प्रसिद्ध स्थान |
(१) कलिंगपाटन - यह चिकाकोल तालुका में यहां से १७ मील एक बन्दर है । सन् १९०३ - ४ में यहांसे ६ लाख रुपये का माल बाहर गया था। यह बहुत प्राचीन नगर है। सुवर्णकी मोहरें मिलती हैं । दीर्घसी नदीके उस तरफ प्राचीन शिलालेख हैं जो अभी तक पढ़े नहीं गए हैं ।
(२) चिकाकोला नगर- यहांकी तंजेवें ढाका तथा अरनीकी तंवों समान प्रसिद्ध थीं । मिलका माल जारी होनेसे यहांके शिल्पको धक्का पहुंचा । चीकाकोल रेलवेस्टेशन जो कटकसे २१२ मील है, यहां निकट सेंलदा ग्राम में संगेश्वर पहाड़ीपर एक गुफा है जिसमें एक कायोत्सर्ग जैन मूर्ति है तथा मंदासा के सरोवर के पास एक विशाल पल्यंकासन जैन तीर्थंकरकी मूर्ति बिराजमान है
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मदरास व मैसूर प्रान्त । (Epigraphica of south 1921-22) यहांके फोटो लिये गए हैं नं० ७०४, ७०९, ७०६ ।,
(३) जौगढ़-बरहामपुर तालुकामें ऋषिकुल्य नदीके उत्तर गंजम नगरके पश्चिम १८ मील है । यहां एक ध्वंश किला है व एक बड़े नगरके ध्वंश हैं । किलेके मध्यमें अशोकका स्तंभ है इस पर १३ लेख हैं। पुराने मिट्टीके वर्तन और पुरानी ईंटें किलेकी दीवालके भीतर बहुत मिलते हैं। पहली शताब्दीके तांबेके सिके भी मिलते हैं । एक पुराना मंदिर जमीनके नीचेसे गड़ा हुआ मिला है । ऋषिकुल्य नदीके तटपर पुरुषत्तपुर वसा है । यहीं अशोकका पाषाणस्तंभ है।
(४) महेन्द्रगिरि-गंजम जिलेमें पूर्वीय घाटीकी एक चोटी। यह ४९२३ फुट ऊंची है । समुद्रसे १६ मील है। इसमें से दो धाराएं निकलती हैं जिनको महेन्द्रतनय कहते हैं। एक धारा दक्षिणकी ओर बहती है और परलाकिमेडी जमीदारीमेसे होकर पंसाधारा नदीसे मिलती है। दूसरी बुदरासिंगी और मंदासा राज्योंमें होकर बुरुवाके पास समुद्रमें गिरती है । इस महेन्द्रगिरिके शिखरपर बड़े २ काले पाषाणोंसे बने हुए चार मंदिर हैं उनमेंसे एक बिजलीसे खंडित हो गया है। इनमें तामील और संस्कृतमें शिलालेख हैं उनसे मालूम होता है कि चोलराजा राजेन्द्रने इस जंगलमें एक विजयस्तंभ अपने साले विमलादित्य (सन् १०१५से १०२२) की विनयमें स्थापित किया। संस्कृत श्लोकके नीचे एक सिंह बना है जो चोलोंका चिह्न था । उसके सामने दो मछलियाँ हैं जो उनके आधीन पांड्य राजाका चिह्न था।
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१०] प्राचीन जैन स्मारक।
(५) मल्लियाह-(उच्चस्थान )-इसके उत्तरमें उदयगिरिका तालुका है वहां २३०० फुट ऊंचाई है। पश्चिमकी तरफ वल्लिगुडा और पोकिरी वोन्दोकी तरफ १७०० से १५०० फुट है और वल्लिगुडाके दक्षिण १००० फुट कठघरपर है।
(६) मुखलिंगम्-ग्राम परलाकी मेडी तहसीलमें यहांसे१८ मील । यहां नौमी शताब्दीके दो मंदिर हैं । यह प्राचीन कलिंग देशके गंगवंशी राजाओंकी राज्यधानी थी । लेखोंसे मालूम होता है कि यहां बौद्ध लोग रहते थे। ।
(७) श्रीकृनम्-तालुका चिकाकोल-यहांसे दक्षिण पूर्व ९ मील । यहां रामानुजाचार्यका बनवाया विष्णु मंदिर है । पहले यह शिव मंदिर था । उसके द्वार और स्तम्भ सुन्दर हैं । यहां तेलुगू
और देवनागरीमें अनेक प्राचीन लेख हैं । ११वीं शताब्दीसे लेकर ८०० वर्षके हैं जिनमें गंगवंश, मत्स्यवंश, शीलवंश और चालुक्यवंशका जानने योग्य इतिहास है।
नोट-यद्यपि उपरके स्थानोंमें अधिकमें किसी जैन चिह्नका वर्णन नहीं है तथापि इन सब स्थानोंकी खोज जैनियोंके द्वारा होनेसे जैन चिह्नकी बहुत संभावना है क्योंकि कलिंग देशमें बहुतसे जैन राना हुए हैं । गंगवंशका तो प्रधान धर्म जैन था ।
(८) मालती पर्वत-कोटशिला यही विदित होती है
इसका वर्णन List of antiquarian remains of Madras by Robert Sewell (1882) पुस्तकमें है। वहांसे मालूम हुआ कि यह ऊंचा पर्वत गुमसर तालुकाके पासलपादा भागमें गुमसरसे दक्षिणको है। यहां प्राचीन किला व प्राचीन
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मदरास व मैमूर प्रान्त । [११ मंदिर थे जो बहुत वर्षोंसे विलकुल नष्ट होगए हैं । इस स्थानपर किसान लोगोंको सोनेकी मोहरें और मुवर्णकी मूर्तियोंके खंड मिले हैं । इस पहाड़ी पर एक पाषाणमें एक दीपक खुदा हुआ है जिसमें २५० सेर तेल आसक्ता है (नोट-इसको ग्रामवाले दीपशिला कहते हैं)। पर्वतकी तलहटीको केशरपल्ली कहते हैं । एक पुराना मंदिर किलेके पास खोदा गया था तब मूर्यनारायणकी मूर्ति निकली थी जिमको वुगुड़ामें ले जाकर नए मंदिरमें स्थापित किया गया था। प्राचीन समयमें यहां केशरी राजा रहता था। खुदे हुए पत्थर और बहुत बड़ी २ ईंटें पर्वतपर दिखलाई पड़ती हैं । कुछ मूर्तियां पर्वतपर पाई गई थीं उनको यहांसे उठा लिया गया था। वे या तो बौद्ध होंगी या जैन । वास्तवमें इस स्थानकी परीक्षा करनेकी जरूरत है। इस वर्णनको पढ़कर हमको संदेह हआ कि शायद यही कोटिशिला हो । हम वरहामपुर टेशनपर आए। यहांसे मोटरपर चढ़कर' करीब ३४ मील रमूलकड़ी रोडकी तरफ असकासे थोड़ी दूर सड़कपर मोटर द्वारा आए, निमिना ग्राममें ठहरे। यहांसे २ मील यह पर्वत है, इस निमिना ग्राममें ६ सराक (प्राचीन जैनी) जातिके 'घर हैं जो अपनेको अग्रवाल कहते हैं। उनमें मुख्य हैं-सन्यासी पात्र, भरथ पात्र, मल्ला रामचन्द्र पात्र, वेलना नारसी पात्र । इनके वरहामपुरमें ३०० वर हैं। यहांसे कुछ दूर कोदुंनमें २० घर हैं वहां हरवर्प सभा होती है तब २० घर पीछे दो आदमी आते हैं। वीमापाटन, नथिनापाटन, पेठ, पुरी व कटक जिलेके ५००० ससक जमा होते हैं। इस सभाके मंत्री बालकृष्ण पात्र हैं जो कमकोयसक वैश्यवाणी नामकी पत्रिका निकालते हैं। पहले ये सराक लोगः
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१२ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
'पर्वतकी यात्रा भी करते थे, अब भी वर्षमें एक दिन ग्रामके ५ आदमी जाते हैं । इस ग्राम में पोष्ट मास्टर अप्पास्वामी नैहू हैं । उनको साथ लेकर हमपर्वतपर गए। चहुंओर पर्वत के नीचे कमलोंसे - सज्जित ७२ सरोवर है जिनको राजाने अपनी ७२ रानियोंके नाम से बनवाए थे । पर्वतके नीचे प्राचीन नगर के ध्वंश व किले व 1 मंदिरोंके ध्वंश हैं । एक झोपड़ीके नीचे कुछ मूर्तियां रक्खी थीं उनमें एक खंड पद्मासन जैन मूर्तिका देखने में आया । यह पर्वत बहुत लम्बा चौड़ा, ऊँचा है । श्रीसम्मेदशिखरजीके समान शास्त्रों में कोटिशिलाको १ योजन लम्बा चौड़ा ऊंचा लिखा है वैसा ही यह पर्वत है । इसके एक भागके एक बड़े पाषाणको दीपशिला कहते हैं । राजा इसकी बहुत मान्यता करता था । यही वह शिला है जिसको नारायण उठाया करते थे ऐसा अनुमान किया जासक्ता है । पर्वतके ऊपर विकट जंगल है | हम ७ बजे चलकर
१० ॥ बजे ऊपर पहुंचे परन्तु जानकार आदमी साथमें न रहने से पर्वत पर जैन मूर्तियां देखने में नहीं आई। भा० दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटीको चाहिये कि अच्छी तरह खोज करावे और यदि हमारे ही समान निश्चय होजावे तो इस तीर्थको प्रसिद्ध करे । - जैनशास्त्रों में कोटिशिलाका प्रमाण यह है
जसरहरायस्स सुआ पंचसयाई कलिंगदे सम्मि | कोडिसिला कोडि मुणी निव्वाणगया णमो तेसिं ॥ १८ ॥ ( प्राकृत निर्माणकांड ) दशरथराजाके सुत कहे। देश कलिंग पांचसौलहे । कोटिशिला मुनि कोटिप्रमान । वंदन करू जोर जुग पान ॥१६॥ श्रीजिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण पर्व ५३ में है कि
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मदरास व मैमुर प्रान्त। [१३ "कृष्णने चक्ररत्नकी पूजा की एवं सर्व रत्नोंसे मंडित हो, अनेकदेव असुर मनुष्योंसे मंडित हो, दक्षिण भरतक्षेत्रका विजय किया।॥३१॥ भाठ वर्ष पर्यंत कृष्णने प्रतिदिन निरवच्छिन्न रूपसे अनेक भोग भोगे, जिन राजाओंको वश करना था वश किया और आठवर्षके बाद वे कोटिशिला उठाने के लिये गए ॥३२॥वह शिला अतिशय विशेषको लिये थी, करोड़ों मुनिराज उससे मोक्ष गए थे इसलिये वह कोटिक शिलाके नामसे प्रसिद्ध थी॥३३॥ शिलाके पास पहुंचकर पहले कप्णने उसकी तीन प्रदक्षिणा दी, सिद्धोंको नमस्कार किया
और अंतमें अपनी भुनाओंसे उसे चार अंगुल ऊंचे तक उठाया ॥३४॥ वह शिला एक योजन (४ कोस अनुमान) उंची, १ योजन चौड़ी और १ योजन लम्बी थी।
श्रीरविषणाचार्यकृत पद्मपुराण पर्व ४८ श्रीराम लक्ष्मण शिलाकी तरफ आए । शिला महामनोहर, उसकी पूजा की, तीन प्रदक्षिणा दी। लक्ष्मणने णमोकारमंत्र पढ़ शिलाको गोड़े प्रमाण उठाया, कोटिशिलाकी यात्राकरि। बहुरि सम्मेदशिखर गए। . नोट-कोटिशिला यदि यह है तो यहांसे ही मार्ग सम्मेदशिखरका है ! बरहामपुरसे कटक होते खड़गपुर होकर गोमोह स्टेशन आता है वहीं सम्मेदशिखर है। हमें तो यही प्रतीत होता है कि यही कोटिशिला होनी चाहिये ।
(२) विजगापटम जिला । इसको वैशाषापट्टनम् भी कहते हैं-यह मदरास और वंगालकी खाड़ीके पास है । यह तटकी तरफ ११० मील लम्बा व भीतरको
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१४] प्राचीन जैन स्मारक । १८०मील है। मदरास हातेमें सबसे बड़ा जिला है तथा मारतवर्ष के बड़े जिलोंमें एक है । यह १७२२२ वर्गमील है।
चौहदी-पूर्वमें बंगालखाड़ी, उत्तरमें गंजम जिला व बंगालके कुछ देशी राज्य हैं। पश्चिममें मध्यप्रदेश बदक्षिणमें गोदावरी जिला है।
इतिहास-यह जिला भी कलिंग राज्यमें गर्भित था। अशोक राजाने इसको भी विजय किया था। मौर्योंके पीछे बैंगीके अंध्र राजाओंने राज्य किया था । अंधोंके पीछे पल्लवोंने सन् २२० ई० तक राज्य किया फिर यह प्रदेश कलिंगके प्राचीन गंग राजाओंके हाथमें आगया । वेंगीके पूर्वीय चालुक्योंने पल्लवोंको सातवीं शताब्दीके प्रारम्भमें भगा दिया तब यहां कई सौ वर्षों तक चालुक्य और गंग दोनों विभाजित प्रदेशोंपर राज्य करते रहे। १०वीं शताब्दीके अंतमें तंजोरके चोलोंने दोनों राज्योंको विजय किया तब अनुमान १०० वर्ष तक यहां चोलोंका अधिकार रहा, तब कलिंगके गंगवंशी राजा जो चोलोंके अधिकारमें यहां शासन करते थे । १२वीं शताब्दीमें उन्होंने स्वतंत्र होकर सर्व विजगापटमको ले लिया। १५वीं शताब्दीमें उड़ीसाके गजपति राजाओंने अधिकार जमाया। पीछे मुसल्मान अधिकारी हुए।
यहां पहले जैन बहुत थे । लिंगायतोंने जैनोंको अपनेमें मिला लिया । अब यहां केवल ४९ जैन हैं। जैन प्राचीन स्थान यहां रामतीर्थक नंदानों में हैं।
यहांके कुछ प्राचीन स्थान । (१) जयती-ता० गमपतिनगर-नगरसे उत्तर पश्चिम ८ मील। यहां दो प्राचीन मंदिर हैं। एकमें एक कमरा १२ फुट वर्ग है
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मदरास व मैसूर प्रान्त ।
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जिसमें शिखर १६ फुटका ऊंचा है। ये दोनों मंदिर बिना चूने के - बनाए गए थे। यहां कई असाधारण मूर्तियां हैं। ग्रामवाले कहते हैं कि ये जैनोंके मंदिर हैं परन्तु खुदाई देखनेसे शंका होती है । लोग कहते हैं कि यहां जैनोंकी बस्ती थी ।
कुछ
(२) नंदपुरम् - ता० पट्टंगी यहांसे पश्चिम १५ मील । - यहांसे सेम्बलीमुड स्थानको जाते हुए ३ मील पर एक बहुत ही प्राचीन और आश्चर्यकारी स्मारक है । एक छोटा मंदिर है जिसमें तीन नग्न पाषाणकी पद्मासन मूर्तियां हैं जो कि जैनोंकी विदित होती हैं।
(३) रामतीर्थम् - ता० बिजगापटम - यहांसे उत्तरपूर्व ८ मील । इस ग्रामके उत्तर दो पहाड़ियाँ हैं जिनमें बड़ी २ चट्टानें हैं, इनमें से पासवालीको बोड़ीकोंडा या बड़ी पहाड़ी कहते हैं । इस पहाड़ी के पश्चिमीय भागके मस्तक पर एक ध्वंश ईंटोंका मंदिर है। जिसमें जैन तीर्थङ्करों की तीन मूर्तियां खड़ी हैं। ये १ ॥ फुटसे ३ फुट ऊँची हैं, इनका शिल्प बहुत स्वच्छ है । इस पहाड़ीके कुछ अधिक ऊपर जाकर एक बड़ी निकलती हुई चट्टान के नीचे एक जैन - मूर्ति है जो बहुत घिस गई है ।
उत्तरकी तरफ पहाड़ी पर जिन स्थानको "गुरुभक्त कुंड" कहते हैं तीन पाषाण हैं जिनपर वैसी ही मूर्तियां हैं । इन दोनों पहाड़ियों में से -दूसरी पहाड़ी दुरगीकोंडके पश्चिमीय भागपर एक बड़ी निकलती हुई चट्टान के नीचे बहुत घिसे हुए जैन स्मारक हैं जो पानी पड़ने से खराब हो गए हैं। चट्टानपर एक छोटी कायोत्सर्ग नग्न मूर्ति है । इसीके पास एक बिगड़ा हुआ लेख है जिसमें पूर्वीय चालुक्य राजाका वर्णन है जो शायद विमलादित्य है, जिसने सन् १०११ से १०२२
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१६]
प्राचीन जैन स्मारक |
ई० तक राज्य किया था। इसीके पास दो पाषाण और हैं उनमें से एकपर दूसरी कायोत्सर्ग जैन मूर्ति है उसके पीछे ऊपर को सर्पका फण है। दूसरेपर भी ऐसी ही मूर्ति है । इन दोनोंके ऊपर एक गोल तीसरा पाषाण है जिसमें एक पद्मासन जैन मूर्ति है ।
मदरास पुरातत्व भागकी रिपोर्ट जिसमें सन् १९१९ तक के फोटोका वर्णन है उनमें रामतीर्थ के फोटो नीचे प्रकार हैं
(१) नं० सी १२, पद्मासन जैन मूर्ति और आसन गुरुभक्तकुंडके ऊपर |
(२) नं ० सी १३, बोड़ीकोंडके ३ आलोंका दिखाव ईंटके मंदिर सहित ।
(३) नं० सी १४, दुर्गा कुंडकी कायोत्सर्ग मूर्तिका दिखाव फण सहित ।
सन् १९१८ की एपिगुफीकी रिपोर्टसे विदित हुआ-नं० ८३१ - लेख रामतीर्थकी दुर्गापंच गुफाकी भीतपर। पूर्वीय चालुक्य राजा सर्वलोकाश्रय विष्णुवर्द्धन यहां आया था ।
सन् १९०५ के नं० ३०२ लेखकी फिर नकल ली गई जिससे प्रगट हुआ कि राजमार्तंड व मुम्मदी भीमपदधारी राना विमलादिस बड़ी भक्तिसे रामकुंडके दर्शनको आया । राजाके गुरु देशीयगण के मुनि त्रिकालयोगी सिद्धांत देव आचार्य थे । इससे यह जैनधर्मका माननेवाला सिद्ध होता है ।
नं० ८३२ गुरुभक्तकुंडपर खंडित जैन मूर्तिके आसन पर तेलगू में लेख है कि ओमार्मार्ग में चावड़ बोलुके पुत्र प्रेमी सेठीने मूर्ति स्थापित की ।
Archeological survey r port of India.
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [१७ . सन् १९१०-११ में भी रामतीर्थका वर्णन है-विशेष यह है कि गुरुभक्तकुंडके पास ८४ फुट वर्ग एक बड़ा स्तूप है जो बौद्धोंका कहा जाता है । इसके पूर्व एक बड़ा पाषाण है जिसके नीचे स्वाभाविक गुफा है । इसके भीतर एक पाषण है जिसमें पद्मासन जैनभूर्ति है ( प्लेट नं० ४३ (२)) यह मूर्ति श्री पुष्पदंत भगवानकी है, मकरका चिह्न है । यह मूर्ति बौद्धस्तूपसे बहुत प्राचीन कालकी है। प्लेट नं. ४३ में नं. ३ से ८ तक जैनमूर्तियां इस भांति हैं-नं० ३ अर्द्ध पद्मासन अखंड, नं० ४ अई पदमासन, नं० ५ कायोत्सर्ग पग नहीं, नं० ६ कायोत्सर्ग, नं. ७ कायोत्सर्ग पग खडित, नं० ८ कायोत्सर्ग अखंड । यहां गुफाओंमें मूर्ति सहित मंदिर हैं।
(४) मुरुतुरी अनकवल्हीसे उत्तर ३ मील । ग्रामसे १मील जाकर दो पहाडियां हैं निनपर पापाणमें खुदे मंदिर हैं। यहां जैन मूर्तियां देखी जाती हैं।
() भामिदीवाड़ा-सर्वसिद्धि तालुकासे उत्तर पूर्व ५ मील । दो प्राचीन मंदिर जैनों द्वारा बने प्रसिद्ध हैं ।
(३) गोदावरी जिला। यह मदराम निलेका उत्तरीय पूर्वीय तट है । इसकी चौहद्दी इस प्रकार है
उत्तर और उत्तरपूर्व-विजगापटम, उत्तरमें मध्यप्रांत, पश्चिममें निनाम, दक्षिण पश्चिम कृष्णा जिला । यहां पूर्वीय घाटकी सबसे ऊँची चोटी पेजकोंड ४४७६ फुट ऊंची है ।
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प्राचीन जैन स्मारक। इतिहास-यह निला कलिंग और वेंगीके दो प्राचीन राज्योंमें शामिल था। प्राचीन शासक अंध्र लोग थे, जिनको अशोकने सन् ई० से २६० वर्ष पूर्व विनय किया था परन्तु अधोंने पीछे ४०० वर्षके अनुमान यहां स्वतंत्रतासे राज्य किया । उनका राज्य बम्बई व मैसूर तक था। उनके पीछे तीसरी शताब्दीके प्रारम्भमें पल्लव राजाओंने राज्य किया, उनमेसे दो रामाओंकी राज्यधानी क्रमसे एल्लोर और पिथापुरम्में थी । सातवीं शताब्दीमें यह देश पूर्वीय चालुक्योंके हाथमें आगया, इन्होंने अपना राज्य विनगापटम तक बढ़ाया और राजमहेन्द्रीको राज्यधानी बनाया। सन ९९९में ये चालुक्य लोग चोल राज्यके आधीन होगए । १२ वीं शताब्दीके मध्यमें चोलोंकी शक्ति घटने लगी तब वेंगीमें छोटे २ राजा राज्य करने लगे। तेरहवीं शताब्दीके अंतमें वरांगलके गनपति राजाओंने राज्य किया। इनका बल मुसलमानोंके सामने सन १३२४ में घट गया परन्तु मुसल्मानोंके हट जानेपर वेंगी देशमें कोंडविद और राजमहेंद्रीके रेजो राजा राज्य करने लगे। १५वीं शताब्दीके मध्यमें वेंगी और कलिंगदेश उड़ीसाके गनपति राजाओंके अधिकारमें थासन् १४७० में गुलवर्गाके सुलतानने ले लिया।
पुरातत्त्व-एल्लोरके पास पेज्जूवेगी और देन्कुलुरुमें टोले हैं ये वेंगीके बौद्धोंकी राज्यधानीका स्थान हैं। एलोरसे उत्तर २४ मील बौद्धोंके स्मारक हैं। येनगुदेन ता०के अरुगाला स्थानमें खुदाई करनेसे एसे मकान मिले हैं । एलोर ता० के कन्वरपुकोट और कोरुकोंडमें हिन्दुओंकी मूर्तियां खुदी हुई हैं। द्राक्षापुरम् में उपयोगी लेख
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मदरास व मैसूर प्रान्त।
जाननेयोग्य स्थान । (१) आर्यवत्तम् ग्राम तालुका कोकोनडा-इसको जैनपाद कहते हैं। यहां जैन स्मारक हैं। यहां बहुतसी बैठे आसन जैन मूर्तियां हैं । इनकी अब कोई पूजा नहीं करता है।
(२) तातिपकता नगरम्-राजावलुसे उत्तर ३ मील। इसकी एक गलीमें एक जैनमूर्ति गले तक गड़ी हुई है । मस्तक पुरुषाकार है । यहां वापिकाएं हैं जिनको जैनवापो कहते हैं।
(३) पिथापुरम्-प्राचीन पिष्ठपुरम्-बड़ा पुराना नगर है। कोकानडासे १० मील | अलाहाबादके शिलालेखके अनुसार चौथी शताब्दीमें यहां महेन्द्र राजा राज्य करता था । इस नगरका नाम ऐहोल (वीनापुर)के शिलालेखमें भी आया है। नगरकी मुख्यगलीमें एक तरफ तीन बड़ी बेठे आसन जैन मूर्तियां विराजित हैं जिनको लोग सन्यासी देवलु कहते हैं और पूजते हैं । एक मेला भी गर्मऋतुमें भरता है।
(४) द्राक्षारामन-ता० रामचंद्रपुरम्-यहांसे दक्षिण ४ मील । इसको दक्षिण काशी कहते हैं । यहां भीमेश्वरस्वामीका बड़ा मंदिर है। इसके उत्तर एक पाषाणमें बैटे आसन जैन तीर्थकरकी मूर्ति अंकित है । इसपर पुराना लेख है (नं० २७१ सन् १८९३ एपिग्राफी रिपोर्ट)। इस मूर्तिका फोटो सन् १९१९में पुरातत्त्व विभागने लिया था नं० ५१९ ।
(५) नेदुनूरु-ता० अमलापुरम् तथा (६) आत्रेयपुरम् वही तालुका-यहां जैन स्मारक हैं । बहुत बड़ी जैन मूर्तियां हैं। जैनियोंक बनाए २ बड़े कूप हैं।
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प्राचीन जैन स्मारक |
(७) गल्लप लंडाम - का कोनडासे दक्षिण पश्चिम ८ मील | आर्यवत्तमकी घाटीमें कुछ जैन स्मारक हैं ।
ऐसे ही जैनस्मारक काकोनडा तालुका (८) येन्दामुरु और (९) शीलमें हैं तथा पिथापुरम के (१०) जल्लुरु स्थानपर हैं । (११) काजलुरु - रामचन्द्रपुरम्से दक्षिणपूर्व १० मील । यहां सरोवर के कोनेपर दो जैन मूर्तियां हैं ।
(१२) माचपुरम् - रामचंद्रपुरम्से पश्चिम उत्तर ४ मील | यहां दो प्राचीन जैन मंदिर हैं ।
(१३) पेंदामुरु-उन्डी से दक्षिण पूर्व ४ मील । यहां चोल राजाका बनाया एक मंदिर है । उसके पूर्व एक जैन मूर्ति है ।
(8) कृष्णा जिला ।
यहां ८४९८ वर्ग मील स्थान है ।
चौहद्दी - पूर्व में बंगाल खाड़ो, पश्चिममें निजम राज्य और जिला कुरनूल, उत्तरमें गोदावरी, दक्षिण में नेल्लोर ।
इतिहास - यहां के प्राचीन शासक अंधलोग थे उन्होंने अमरावती में एक स्तूप बनवाया है । उनके सिक्के मिलते हैं । उनके पीछे ७ वीं शताब्दी के अनुमान पूर्वीय चालुक्योंने राज्य किया । उनके खुदाए हुए गुफा मंदिर उन्दावल्ली व अन्य स्थानों पर हैं । सन् ९९९ के अनुमान चोल राजाओंने राज्य किया । उनके दो शताब्दी पीछे गजपति वंशने १६ वीं शताब्दी में मुसलमानोंने -अधिकार किया । कृष्णा जिलेके गजटियर (सन् १८८३ ) से विशेष इतिहास यह विदित हुआ है कि यहांके निवासी अधिकतर द्राविड
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [२१ भाषा तेलुगू बोलते हैं। ये वास्तवमें प्राचीन तूरानी लोग हैं। इनके सम्बन्धमें विशम कोल्डवेल साहब कहते हैं कि आर्योंके भारतमें आनेके पहले इनकी सभ्यता बहुत उन्नति पर थी। वर्तमानमें जो उपजातियां हैं वे २५०० वर्षसे ही हो सक्ती हैं। यहां चीन यात्री हुइनसांग सन् ६४०में आया था। वह यहांके बौद्धोंके ध्वंश होनेपर शोक करता है । यहां बौद्धोंका नाश बहुत कुछ जैनोंने किया था फिर ब्राह्मणोंने भी किया क्योंकि हुइनसांगकी यात्राके पीछे ६०० वर्ष तक कृष्णा जिलेमें जैन लोग पाए जाते थे । धरणीकोटाके जैन रानाओंके नाम कई शिलालेखोंमें मिले हैं जिनमें से बहुत उपयोगी वह शिला लेख है जो गुंटूर तालुकेके यनमडल ग्रामकी गलीमें मिला है । लेखमें नीचे लिखे छः राजा
ओंके नाम हैं । (१) कोट भीमराय । (२) कोट केतराय सन् ११८२, (३) कोट भीमराय द्वि०, (४) कोट केतराय हि०, सन् १२०९ । (१) कोट रुद्रराय । (६) कोट वेतराय । तृ. ____अंतिम राजा कोट वेतरायने वरंगलके राजा गनपतिदेव और रानी रुद्रम्माकी कन्या गनपनबाको विवाहा था। गनपतिदेवने सन् ११९०से १२५८ तक वरंगलमें राज्य किया। इसने वरंगलके चहुंओर पाषाणकी भीत बनवाई थी तव नगरका नाम था एक शिलानगरम् । यह राजा जैनियोंको कष्टदायक था। इसने इसी युक्तिसे अपनी कन्या जैन राजाको विवाही थी। इस कन्यासे जो प्रतापरुद्र पुत्र हुआ उसने माताका ब्राह्मण धर्म पाला । प्रतापरुद्रके समयमें जैनी यहांसे चले गए, मात्र ब्राह्मण रहगए। कहते हैं गनपतिदेवने जैनियोंको तेलके कोल्हुओंमें दबाकर मारा था।
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२२]
प्राचीन जैन स्मारक ।
पुरातत्व-ता. सत्तन पल्लेमें अमरावतीपर बौद्धोंका स्तूप है। यहांके शिलालेखोंसे प्रगट है कि अमरेश्वर मंदिर या तो बौद्धोंका होगा या जैनोंका होगा । इस मंदिरके पास कई टीले हैं जिनमें इन दोनोंके स्मारक होसक्ते हैं। तेजोती तालुके में चंदबोलु एक बहुत प्राचीन स्थान है । एक मंदिर व बौद्धोंका टीला है। यहां सोनेके सिके मिले हैं । बोडस्तूप जग्गर्यपेट और गुडिवाडमें हैं । भट्टिमोतुमें बौद्धोंका सुंदरस्तूप है। यहां एक स्फटिककी पिटारीम एक हड्डीका भाग मिला है। वेनुकोंड तालुकामें बहुतसे शिलालेख मिले हैं।
यहांके मुख्य स्थान । (१) गुडिवाड नगर-ता० गुडिवाड । यह बहुत प्राचीन स्थान है, एक ध्वंश बौद्ध स्तूप देखा जाता है । इसके मध्यसे ४ पिटारे मिले थे। पश्चिमकी तरफ एक बहुत सुन्दर जैनमूर्ति है। कुछ और दूर जाकर एक बड़ा टीला है जो नगरका पुराना स्थान है । यहां बड़े २ पत्थर व धातुकी वस्तुएँ व अंध्रोंके सिके मिले हैं।
(२) गुंतूपल्ली-ता० एल्लोर-एक ग्राम एल्लोर नगरसे उत्तर २४ मील । पश्चिमकी ओर बहुतसे स्मारक हैं। छोटी पहाड़ियोंके समूहमें बौद्धोंके पत्थरमें कटे मंदिर हैं जो सन् ई० से १०० वर्ष पहलेके होंगे। एक चैत्य गुफामें है जहां अब भी यात्री आते हैं। यहांके लोग कहते हैं कि यहां पहले गुंतपल्लीके स्थान पर एक नगर था जिसको जैनपुरम् कहते थे (नोट- यहां अवश्य खोदेनेसे जैन स्मारक मिलेंगे।
(३) जग्गया पेट-ता० नंदिग्राम । यहां पहले वेलबोलु नगर था । बौद्धस्तूप ६६ फुट चौड़ा है।
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२३ (४) धरणीकोटा ताः सत्तेनपल्ली-यहीं अमरावती नगर व धरणीकोटा ग्राम है। यह प्राचीन नगर धनकचक है। यह महाराज मुकंति या त्रिलोचनपल्लवकी राज्यधानी थी। यहां बहुतसे सिके पहली शताब्दीके मिले हैं । प्राचीन नगरकी बडी भीत है। पुरानी ईंटे मिलती हैं, यह गुन्तूरसे २० मील है, किलेमें दो पुराने लेख हैं। जैनोंके समयमें यह किला मुकतेश्वर राजाने बनाया था। इसका नाम मुकतीराजा प्रसिद्ध है। शायद यह दूसरी तीसरी शताब्दीका पल्लव राजा हो । यहां यह कहावत प्रसिद्ध है कि यहां जैन
और ब्राह्मणोंमें बहुत बड़ा शास्त्रार्थ हुआ था तब ब्राह्मणोंने मंत्रबलसे जैनियोंको हरा दिया। उस समय जैनियोंका नाश किया गया। धरणीकोटा और अमरावतीके मध्यमें नदीके तटपर एक छोटी इमारत है जो जैनमंदिरसा मालूम देता है । यहां कई लेख स्थानीय जैन राजाओंके वंशके मिले हैं उनमेंसे एक स्तंभ है जो अमेरश्वरम् मंदिरके गोपुरम्के पश्चिम है। यह स्तंभ कोटकेत जैन राजाका सन् ११८२का है। यहां गोपुरमके पूर्व कई जैनमूर्तियां विराजित हैं जिनको हिंदुओंने मंदिरके बाहर रख दिया है। . (५) पनिदेम-सत्तनपल्लीसे उत्तरपूर्व एक ग्राम । यहां तीन दानके लेख मिले हैं । एक ग्रामके पूर्व एक पाषाण स्तंभपर है। सन् १२३१ दातार कोटकेत राजा (जैनी) । ग्रामके पश्चिम एक टीला है जिसको दीदाल दीन पालेम कहते हैं।
(६) पट्टमक्केम-ग्रामके पूर्व एक स्तंभपर दो लेख हैं । एक सन् ११६० कोट गंधय राजाकी महारानी भूतमादेवीका दान । दुसरा सन् ११७५का है नोट-यह जैन रानी मालूम होती है।
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२४ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
(७) अमीनाबाद - फिरंगीपुम् - तालुका सत्तेनपल्लीके दक्षिण पूर्व कोने में जहां सड़क गंटूरसे नरसरवपेटको गई है । किनारे २ कोंडविडु पर्वत माला चली गई है। यहां बहुत से ग्राम हैं। अमीनाबादके चारों तरफ कई मंदिर हैं जिनमें दो प्रसिद्ध पहाड़ी ऊंचाई पर हैं। ये जैनियोंके मूलमें मालूम होते हैं । इनमें सुन्दर खुदाई है । यहां बहुतसे शिलालेख हैं । एक अम्मवारुके मंदिर में ग्रामके पश्चिम है सन् १९९२ का । मंदिर के उत्तर कई लेख हैं उनको पढ़ा नहीं गया ।
(८) पेहू पललकलूर - ता०गंटूर उत्तर ओर रिङ्गसड़क पार एक पहाड़ी है । इस ग्राम के पास एक जैनपाद है जिसपर एक मूर्ति खड़ी हुई है। नीचे के हिरणका चिह्न है । दाहिने हाथ में तलवार है । नोट- शायद यह कोई देवीकी मूर्ति हो, मस्तकपर तीर्थंकर की मूर्ति हो ।
(९) हाडीकोड - गंतूर से उत्तर १० मील । इस ग्राममें प्राचीन मंदिर व लेख हैं । एक मंदिरको बौद्ध या जैनोंने बनाया है क्योंकि अभी भी बौद्ध या जैन मूर्तियां मिलती हैं ।
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(१०) निदमरू - तादीकोंडसे आगे जाकर दाहिनी तरफ नीरकोंडकी प्रसिद्ध पहाड़ी है । तुलतुरु ग्रामकी तरफ जाते हुऐ ऊंचाई पर एक जैनपाद है। खेतों में एक जैन व दो तीन बौद्ध मूर्तियें ग्रामके आसपास मिलती हैं।
(११) अमरावती - ता० गंतर- कृष्णानदी के दक्षिण तटपर । इसीके दक्षिण धरणीकोटाका प्राचीन नगर था। यहां बहुत सुन्दर बुद्धस्तूप है जिसपर ब्राह्मी अक्षरों में लेख है ।
(१२) मलटीप्रोलु-ता ० तेनाली - यहां बौद्धस्तूप १३२ फुट व्यासका है जिसमें से तीन पिटारी जवाहरात व प्राचीन हड्डी
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [२५ निकली थी जो मदरासके म्यूजियममें हैं। यहां पालीमें ९लेख हैं।
(१३) कोट्टपतम्-ओन्गोलीता०-ओनगोली नगरके दक्षिण पूर्व । यह ग्राम कोमटी लोगोंका मूल स्थान है।
(१४) उदवल्ली-ता. गंतूर । यहां गुफाएं हैं ।
(१५) कोंडबिड-ता० नर्सर्वपेट-यहां पहाड़ी किला है । ९॥ मीलकी लम्बी पहाड़ी है। ग्रामके पूर्व सबसे ऊँची चोटी है। इसपर चरणपादुका है। मुसल्मान इसे बाबा आदमके चरण कहते हैं। यहां किलेके एक द्वारपर जैन खुदाई है। यहांपर १२ वीं शताब्दीमें उड़ीसाके राजा गजपति विश्वम्भरने किला बनवाया था।
(१६) गोकनकोंड-ता० विनुकोंड । यहांसे उत्तरपूर्व १० मील, गुल्दकम्मा नदीके तटपर । यहां ग्राम और नदीके मध्यमें पहाड़ी है जिसपर प्राचीन मंदिर है व गुफाएँ हैं।
(१७) इपुरु-ता० विनुकोंडसे १३मील उत्तर । यहां बहुत खंडित जीर्ण मंदिर हैं व शिलालेख हैं । एक सन् १२७८ का है, खुदाईकी जरूरत है।
(१८) पेज्जुचेरुकुरू-ता; बपतलु । यहां बहुतसे शिलालेख हैं। एक तः १२०९ ई०का धरणीकोटके जैन राजा वेत महाराजका है।
(१९) तेनाली-ता. रेयल्ली दुग्गिरलके दक्षिण । निजामपतम नहरके ऊपर वसा है । यहांके मंदिरोंमें तीन चार लेख हैं तथा रामलिंगेश्वर के मंदिरमें एक बड़ी मूर्ति बौद्ध या जैनकी है।
(२०) रावुलपाडु-सा नंदिगाम। इस मामके दक्षिण पांच लेख हैं । एकमें कोट गुणधर रानाका दान मंदिरको है । यह धरणीकोटके जैन रानाओंमें से एक है।
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प्राचीन जैन स्मारक ।
(२१) वजवादा नगर - यह पहाड़ियोंसे घिरा है। नगरके दक्षिण एक पर्वत है । दो पाषाणकी मूर्तियें पश्चिमी पहाड़ीपर व एक मूर्ति पूर्वीय पहाड़ी पर मिली हैं । ये शायद जैनधर्मकी हैं । खुदाई से मालूम होता है कि यहां पहले बड़ा प्राचीन नगर था । ११ वीं शताब्दीके ४७ लेख मिले हैं ।
(२२) को किरेनी- नंदिगाम ता० से पश्चिम उत्तर ३६ मील | मुनगल ज़मीदारीसे दक्षिण पश्चिम प्राचीन जैन नगरके स्मारक हैं ।
(२३) उदुकोंड या उदुकोट - नंदिगाम से पश्चिम ३० मील एक पहाड़ी किला है । पहाड़ पर सरोवर हैं । पानी बहुत बढ़िया है। गांववाले जब पानी लेते हैं तब एक पैसा डाल देते हैं। यहां बहुत गहरी व बड़ी गुफाएं हैं ।
(२४) पोंडुगोरु - दाचिपल्लीसे उत्तर पश्चिम ७ मील | यहां हैदराबादकी सड़क कृष्णानदीको पार करती है । यहां जैन ध्वंश स्थान है । नदीके निजाम राज्यकी तरफ प्राचीन जैन स्मारक हैं। (२५) नर्स पेली - तालुका । यहां प्राचीन मंदिर हैं। एक शिव मंदिर है जो पहले जैनोंका था ।
मदरास पुरातत्त्व विभाग द्वारा नीचे लिखे फोटो व चित्र लिए गए हैं
(१) नं ० सी ० १ - बेड़ावादेके एक बड़े जैनस्तंभका चित्र । (२) नं० सी० २ - गुडिवाडकी जैनमूर्तिका चित्र | (३) नं० सी० ३ - एक कायोत्सर्ग जैनमूर्तिका फोटो जो dजवाद के म्यूजियम (अजायबघर ) में है ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त ।
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(४) नं० सी० ५ - एक पाषाण स्तम्भ बेजवादा जिसके चारों ओर मूर्तियां हैं ।
कृष्णा जिलेके गजेटियर पृष्ठ २६८ में है ।
" यद्यपि इस समय यहां कोई जैन या बौद्ध नहीं हैं परन्तु प्राचीनकाल में इनके अस्तित्वके बहुत चिह्न मिलते हैं । हिन्दुओंमें कई रोतियें ऐसी प्रचलित हैं जिनका सम्बन्ध जैन तत्त्वोंसे है । वेदोंमें सूर्य, वायु व अग्निकी पूजा है, उनमें मूर्तिपूजा नहीं है । जब ब्राह्मण उत्तरसे यहां आए तब उन्होंने बौद्ध और जैनोंको यहांसे भगा दिया । ब्राह्मणधर्मकी सादगी जाती रही। ब्राह्मण पुराण ८ वीं व ९ वीं शताब्दी में लिखे गए थे ।
(५) नेल्लोर जिला ।
यहां ८७६१ वर्गमील स्थान है ।
चौहद्दी यह है - पूर्व में बंगाल खाड़ी, दक्षिण में चिंगलपेट और उत्तर अर्काट, पश्चिममें पूर्वीयघाट, उत्तर में गुन्त ।
इतिहास - तामील शिलालेख कहते हैं कि १२ वीं शताब्दी तुक यह चोल राज्यका भाग रहा है तब उनका पतन हुआ और १३ वीं शताब्दी के मध्य में यह जिला मदुरा के पांड्य राजाओंके अधिकार में गया फिर तेलुगु चोड़ राजाओंके हाथमें आया जो वरंगलके काकतियोंके नीचे राज्य करते थे । १४ वीं शताब्दी में विजयनगर के हिन्दू राजाओंने कबजा किया। इस वंश के सबसे बड़े राजा कृष्णरायने उदयगिरिका किला सन् १९१२ में लेलिया । सन् १९६८ में मुसल्मान आगए ।
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२८ ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
पुरातन्त्र - यहां उदयगिरिपर पहाड़ी किला व प्राचीन ध्वंश हैं। नेल्लोर जिलेकी उत्तर और खासकर ओन्गोले के पास बहुतसी जैन मूर्तियां व अन्य स्मारक देखे गए हैं। खास नेल्लोर में भी कलेक्टर की कचहरी के सामने तालाव खोदते हुए एक जैनमूर्ति मिली थी ।
यहांके गजटियर ( सन् १८७३ ) में लिखा है कि आर्यन् लोगोंने सीढ़ी कौमों को जीता। सीदी जातियोंने उत्तर भारत से प्राचीन द्राविड़ लोगोंको भगा दिया । द्राविड़ लोगोंने दक्षिण में अपनी स्वतंत्रता स्थिर की, देश और वसती स्थापित कीं। सबसे प्राचीन तेलुगू व्याकरणका लेखक कन्व होगया है जिसने चालुक्य वंशके अंध्रराजाकी आज्ञा से व्याकरण लिखी थी । इस राजाका पिता कृष्णानदीपर शिचकोलम् में राज्य करता था । फिर उसने अपनी राज्यधानी गोदावरी नदी तटपर बदली । यह राजा सन् ई० से कई शताब्दी पहले होगया है 1
यहां कुछ स्थान |
(१) आत्मकूर - नेल्लोर से पश्चिम उत्तर २५ || मील । संगमके पश्चिम ८ मील । नगर के पश्चिम पहाड़ीपर एक पाषाणकी जैनमूर्ति है ।
(२) महिमालूरु - आत्मकूरसे पश्चिम ८ मील । ग्रामके दक्षिण जैनियोंके प्राचीन नगर बुदपादका स्थान है ।
मदरास सर्कारी पुरातत्त्व विभागने सन् १९२१-२२ में इस जिलेके नीचे लिखे फोटो लिये
(१) नं० ७०८ - नेल्लोर के वेंकटगिरि कालेज में स्थापित एक जैनमूर्तिका चित्र ।
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मदरास व मैमूर पान्त। [२९ (२) नं० ७०९-नेल्लोरके लक्ष्मीनरसिंह स्वामी मंदिरमें स्थापित एक जैनमूर्तिका चित्र ।
___ (६) कुड़ापा जिला। यहां ८७२३ वर्गमील स्थान है।
चौहद्दी-उत्तरमें कुरनूल, पूर्वमें नेल्लोर, दक्षिणमें उत्तर अर्काट और मैसूर, पश्चिममें अवन्तपुर ।
इतिहास-यह ११ से १३ शताब्दीतक तंजोरके चोल रानाओंके आधीन था। १४ वीं शताब्दीमें विजयनगरके राजाओं के हाथमें आया।
पुरातत्व-यहां पेन्नेरकी घाटीमें इतिहाससे पहलेके पाषाणके शस्त्र मिले हैं। सोम् पिल्ली और कादिरीमें प्रसिद्ध हिंदू मंदिर हैं।
मुख्य स्थान ।। (१) दानबुलपाद-यहां प्राचीन जैन मंदिर हैं जो खोदनेसे मिले हैं । तेलुगृमें शिलालेख भी हैं।
पेन्नारनदीके वाएं तटपर जम्मलु मदुग नामके नगर तालुकासे करीब ५ मील यह छोटासा ग्राम है। यह ग्राम एक बहुत ऊंचे व बड़े टीलेपर बसा है। यह बहुत प्राचीन स्थान था जिसका प्रमाण एक शिलालेख है जो निकटवर्ती ग्राम देवगुडीसे मिला है। इसमें लिखा है कि यहां एक जैनमंदिर था । खुदाई करनेसे जैनस्मारक मिले हैं व दो अन्ध्र राजाओंके सिक्के प्राप्त हुए हैं।
खुदाई करनेपर एक मंदिर ११ फुट वर्ग मिला है जिसकी भीते २ फुट ९ इंच मोटी हैं। इंटे बहुत पुरानी एक फुट ९ इंचकी
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प्राचीन जैन स्मारक । चौडी व ४ इंच मोटी हैं। मंदिरके भीतर एक विशाल कायोत्सर्ग जैनमूर्ति मिली है जो घुटनोंसे ९ फुट ७॥ इंच ऊँची है। पगोंके नीचे पाषाणका आसन है । ऐसी ही दूसरी मूर्ति है वह घुटनोंके वहां खंडित है । पाषाण सफेद चूनेका सा है, इसी पाषाणकी और भी मूर्तियां मिली हैं। मंदिरके भीतरकी वेदीके सामने बाहरको एक बहुत सुन्दर श्वेत पाषाणका स्तंभ मिला है, आसन गोल है, यह २॥ फुट ऊँचा है, चारों तरफ चार बैठे आसन जैन तीर्थकरोंकी मूर्तियां हैं। हरएक तरफ एक सिंहपर एक२ यक्ष खड़े हैं। इसीमें मंदिरके सामने ही जो मुख्य तीर्थकरकी मूर्ति है उसपर पांच फणका नाग है। आसनके नीचे हाथी बने हैं, उपरके कोनेपर लेख है जिसका भाव यह है "स्वस्ति-ऐश्वर्यशाली नित्त्यवर्षने (जिसका निर्दोष राज्यकीय यश व्याप्त है और जो सदा ही बड़ा बलवान है ) इस पाषाणस्तंभको शांतिनाथ भगवानके महान अभिषेकोत्सवके हर्षमें बनवाया । बिष इतना विष नहीं है, जितना विष देवद्रव्य है। जो इस देवद्रव्यरूपी भयानक विषको लेता है उसके पुत्र, पौत्र सब नष्ट होते हैं। विष तो मात्र एक हीको मारता है।" यह मूर्ति अर्ध पद्मासन है।
इम इंटोंके मंदिरसे १५ फुट दक्षिण दूसरे मंदिरकी पाषाणकी भी हैं । इस मंदिरका नकशा विजयनगरके मंदिरसे मिलता है व इन दोनोंका समय भी एकसा है। ईंटोंका मंदिर इससे कई शताब्दी पहलेका है। इसमें महा मंडप है जिसके चार खंभे हैं। मंदिरमें प्रतिमाकी वेदीका आसन २॥ फुट लम्बा है । ऐसे कई आसन इस मंडपके भिन्न स्थानोंपर हैं। इस मंडपके सामने
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [३१.. एक पाषाण है जिसपर एक छोटासा लेख है जो अपूर्ण है । मात्र इतना पढ़ा गया " ऐश्वर्यशाली वदेवा महाराजा"। मंडपके सामने चौरस चबूतरा है जहां एक पाषाणमें चार बैठे आसन जैन तीर्थकर यक्ष सहित (चित्र नं. १ ) है। नीचे चित्र सहित आसन (चित्र नं० २) है व छोटा स्तम्भ (चित्र नं. ३) ३॥ फुट ऊंचा है। इसके ऊपरी भागमें बैठे आसन जैन तीर्थकर नागफण सहित हैं। इसके नीचे स्वस्तिकका चिह्न है जिससे यह सुपाश्वनाथजीकी मूर्ति है। इसके नीचे भागमें दो लेख हैं। पहलेमें है "कनककीर्तिदेव आदि सेठीका गुरु....” दूसरेमें है निषीधिका (समाधिस्थान) आदि सेठीकी जो वल्लवसिंगी सेठीका पुत्र था। यह अनंतपुर जिलेके पेनुगोंडे स्थानका निवासी था जो मैसूरके दिगम्बर जैनोंकी विद्याका केन्द्र था । (Digambar Jain iconography Indi. Ant. Vol. XXXII 1903 p. 451). इस दूसरे मंदिरके दक्षिण तीसरे मंदिरकी न्यू मिलती है। मंदिरके भीतोंके पास चौरस प्लैप्टर ५॥ फुट लम्बा (चित्र नं. ४) महा. मंडपके पास एक बैठे आसन जै। तीर्थकरकी मूर्ति मस्तक रहित २ फुट ८ इंच ऊंची है। पश्चिमकी तरफ कुछ दूर एक कायोत्सर्ग जैन तीर्थकर हैं (चित्र नं. ६) पग खंडित हैं । यह पांच फुट ३ इंच ऊंची है। ईंटोंके मंदिरसे पूर्व ४२ फुटकी दूरीपर एक चौकोर चबूतरा है जिसपर एक स्तंभ कोरा हुआ दो आले सहित है । यह २ फुट ७ इंच ऊंचा तथा चित्र नं० ४के समान है ।
नीचेके आलेमें दो बैठे हुए पुनारी हैं तथा ऊपरके आलेमें एक बैठे आसन जैन तीर्थकर हैं। बीचमें सिंहका चिह्न है,
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३२ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
शिला लेख है उसमें लिखा है “यह पेन्नगोडेके बोई सेठीके पुत्र होन्नी सेठी और उसकी स्त्री विरायीकी निषीधिका ( मरण स्मारक ) हैं। कुछ फुट दूर पांच खुदे हुए व लेखसहित पाषाणोंकी कतारें हैं - बांई तरफका पाषाण ४ || फुट ऊँचा हैं उसमें बैठे आसन तीर्थङ्कर हैं, कलशका चिह्न है, पीछे लेख है" उस आचार्यकी निषिधिका जो कुरुमा रिना तीर्थसे सम्बन्ध रखते हैं परोख्य विमय ( एक जाति) के हम्पवेने स्थापित की ।
दूसरे पाषाण में भी बैठे आसन तीर्थङ्कर हैं ।
1
तीसरे पाषण के पीछे एक खंडित लेख है । चौथे पाषाण में बैठे हुए तीर्थंकर हैं । लेख यह है "पेन्नुगोंडेके वैश्य विजयन्नाकी पुत्री ममगवेकी निषीधिका" पांचवां तथा अंतिम पाषाण (चित्र नं० ७) सबसे ऊंचा है । यह ६ फुट तीन इंच लम्बा है । इसके तीन भाग सामनेकी तरफ हैं | कलशका चिह्न है । नीचेके भागमें घुड़स1 वार है, बीच में नमस्कार करता हुआ पुजारी है । ऊपरी भाग में बैठे हुए तीर्थङ्कर हैं। दोनों बगल में तथा पीछे लेख हैं । पहले लेखमें है - " महा योद्धा दंडाधिपति ( सेनापति ) श्रीविजय अपने स्वामीकी आज्ञा से ४ समुद्रोंसे वेष्टित पृथ्वीपर राज्य करता था जिसने अपने प्रबल तेजसे शत्रुओं को दबाया व विजय कर लिया था । अनुयम कवि श्री विजयके हाथमें तलवार बड़े बलसे युद्ध में काटती है और घुडसवारोंकी सेना के साथ हाथियोंके बड़े समूहको प्रथम हटा कर भयानक सिपाहियोंकी कतारको खंडित कर विजय प्राप्त करती है । बलि वंशके आभूषण नरेन्द्रमहाराजके दंडाधिपति श्रीविजय जब कोप करते हैं पर्वत पर्वत नहीं रहता, बन बन नहीं रहता, जल जल नहीं रहता - आदि ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [३३ (२) दुसरालेख है-'इसमें शास्त्राभ्यासो निनपद नुतिः' आदि है अर्थात् जबतक मोक्ष न हो तबतक हमको शास्त्रका अभ्यास, मिनेन्द्रकी भक्ति, सदा आर्य पुरुषोंकी संगति, उत्तम चरित्रवालोंके गुणोंकी कथा, परके दोष कहने में मौन, सबसे प्रिय व हितकारी वचन बोलना व आत्मतत्वकी भावना प्राप्त हों। शाका १३१९ ईश्वर वर्ष में फाल्गुण सुदी एकम सोमवारको....सेटीकी निषिधिका.... कल्याण हो।
(३) तीसरे लेख में है-अनुपम कविश्री विजयका यश पृथ्वीमें उतरकर आठों दिशाओं में शीघ्र फैल गया....औ श्री विजय तुम्हारी भुना जो शरणागतको कल्पवृक्ष तुल्य है, शत्रु रानारूपी तृणके लिये प्रसिद्ध भयानक अग्निवन तुल्य है, व प्रेमके देव द्वारा लक्ष्मीरूपी स्त्रीके पकड़नेको जाल तुल्य है इस पृथ्वीकी रक्षा करे। ____ " ओ दंडनायक श्री विजय, दान व धर्ममें सदा लीन तुम समुद्रोंसे वे उस पृथ्वीको रक्षा करते हुए चिरकाल जीवो।"
यहां कुछ खुदाई और होनेकी जरूरत है।
दानुयलाईके उत्तर १२ मील पेज मुडियममें एक वीरभद्रका मंदिर है, उसमें सदाशिव रानाका लेख है। इसमें एक बातका ऐतिसिक प्रमाण है कि इस ओर विजयनगरके राजाओंने अपना महत्व स्थापित किया था।
विजयनगरमें अब भी बहुतसे जैन मंदिर हैं यह बात प्रसिद्ध है तथा विजयनगरके कोई राना ऐतिहासिक दृष्टिसे मूलमें जैनवंशन न थे इससे वे जैन मंदिर इस वंशके आनेके पूर्वके हैं-उनको सकड़ों वर्षों से भुला दिया गया है। उनमें मूर्तिये नहीं हैं। सत्र
३
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३४]
प्राचीन जैन स्मारक ।
नष्टभ्रष्ट हैं । (लेखक A. Rea ए० री साहब Archeological survey Report for 1905-6)
मदरास एपिग्रेफीके दफ्तरमें सी० ८ नं०में यहांके एक जैन मंदिरका नकशा है । तथा नीचे लिखे फोटो हैं
(१) नं० सी २४ दबे हुए मंदिरका नकशा । (२) नं० सी २५ जैन मूर्ति। (३) नं० सी २६ दबे हुए नैनमंदिरका दक्षिण पूर्वभाग। (४) नं० सी १०९ जैन पाषाण मूर्ति ।
(७) करनूल जिला । यहां ७५७८ वर्गमील स्थान है।
चौहद्दी यह है-उत्तरमें नदी तुंगभद्रा और कृष्णा, उत्तर पूर्व गुन्तर, पूर्वमें नेल्लोर, दक्षिण में कुड़ापा और अनंतपुर, पश्चिममें बेलारी।
' इतिहास-यह निला चालुक्य, चोल, गणपति रानाओंके अधिकारमें रहा है । १६ वीं शताब्दीके अनुमान विनयनगरके सबसे बड़े राजा कृष्णरायने सर्व प्रदेशपर अधिकार कर लिया था। पीछे मुसल्मानोंका कबना हो गया।
पुरातत्त्व-यहां Dolmens समाधि स्थान सब कुम्बुम् भागमें पाए जाते हैं जहां किसी समय जैनोंका बड़ा प्रभाव था । नीचे लिखे स्थानोंपर मिलते हैं
(१) मारकापुर तालुकामें एकोड प्लेममें ग्रामसे उत्तर इंद्रपल्लीकी तरफ दो तीन मीलतक पहाड़ियों के मध्यमें ऐसे
समूह हैं।
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मदरास व मैसूर प्रान्त |
[ ३५
(२) कुम्बम्के दक्षिण अनुमुलपलीमें गरुतवरमकी सड़कके पास एक ऐसा स्थान मिला है।
(३) वासनपल्ली - ग्राम के पूर्व दो स्थान हैं ।
(४) कुम्बम् ता० के जल पलचेरुवके ग्राम मल्लुपुरममें । आमके पूर्व १ मील १२ स्थान हैं ।
(५) कुम्बम्से दक्षिण पश्चिम १७ मील नरवामें भंगमिनास टीलेके पास चार स्थान हैं । कुम्बम्के उत्तरपूर्वं यचवरम् में एक घाटी में वसनपल्ली व दूसरे ग्रामोंमें जहां जैनधर्मधारी प्राचीन कुर्नाम लोग रहते थे ऐसे स्थान मिले हैं। पोतराजुतुरुके दक्षिण कुछ पाषाणके टीले एक पहाड़ी के पास हैं इनको लोग जैनियोंके समाधिस्थान कहते हैं । चूमयचवरम के पश्चिम एक नदी बहती है जिसका नाम है चेरुबुपयवगु | इसके तटोंपर एक प्राचीन मंदिरके पाषाण और इंटोंके ध्वंश जमीन के नीचे गड़े हैं इसीके ऊपर एक छोटे मंदिरका ध्वंश है । यह मंदिर प्राचीन जैनियोंका है जिनकी बस्ती गज्जनपल्ली और मेरुमें अधिक थी । नल्लुमलईपर श्री शैलम् में पुराने किले व मकान व नगरके ध्वंश हैं जो बताते हैं कि अति प्राचीनकालम यहां वैभवशाली जातियां रहती थीं ।
श्री शैलम् और अहौविलम्में हिन्दुओं के प्रसिद्ध मंदिर हैं । यहांके स्थान |
(१) जगन्नाथघट्ट - एर्रमली पहाड़ीका शिखर ता० रमल्लकोटमें है । इसपर एक मंदिर है । यहां पहले एक जैनमूर्ति थी ऐसा कहा जाता है ।
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३६ ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
(4) बिलारी जिला ।
यहां ५७१४ वर्गमील स्थान है ।
चौहद्दी है - उत्तर पश्चिम - तुंगभद्रा नदी, पूर्व में कुर्नूल और अनंतपुर जिला । दक्षिणमें मैसूर ।
इतिहास - यहां पहले अंध्रवंशी राजा राज्य करते थे । उनके पीछे चौथी शताब्दी में कादम्बोंने राज्य किया । इनकी राज्यवानी बम्बई हातेके उत्तर कड़ाने नगर वनवासी पर थी । इनका धर्म जैन था । ( Who were Jains by religion ) उनके मुख्य नगरोंमें एक शहर उच्चशृंगी हर्पनहल्ली ता० में है। यहां से ४ मील अनजी पर मैसूर स्टेटमें एक शिलालेख चौथी शताब्दी का है । यह बताता है कि कादम्बों और कांचीके पछवोंमें बड़ा युद्ध हुआ था । छठी शताब्दीके मध्य में चालुक्य वंशी राजा कीर्तिवर्मन (सन् १६६ - १९७ ) ने दबा दिया । चालुक्य वंशी राजा मूलमें जैन थे (were originally Jains) पीछे हिन्दू होगए | इनका मुख्य नगर बीजापुर जिलेमें बादामी (वातंपी) है । यहां राष्ट्रकूटोंने दशवीं तक, गंगोंने दशवीं में फिर पश्चिमीय चालुक्योंने ११ वीं शताब्दी में राज्य किया । कमसेकम वेलारी जिले का एक भाग चालुक्योंके पुनः सजीवित राज्यशासन में अवश्य आगया था क्योंकि तेल द्वि० ने कुन्तलदेशको ले लिया था जिसमें हम्बी और 'कुरुगलु शामिल थे । तथा इस राजा के शिलालेख बागली मंदिर में तथा हुडगल्ली ता०के कोगली जैन मंदिर में हैं । अनुमान सन् २०७० तक इनकी राज्यवानी कल्याणी (राज्य निनाम) में रही ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त |
[ ३७ और शायद ११ वीं शताब्दी में ही वे बहुत सुन्दर मंदिर चालुक्य ढंगके, जिनमें बहुत महीन खुदाई है व प्रशंसा के पात्र हैं, हडगली और हरपनहल्ली ता० में बनाए गए थे। इसी समय में कुछ जैन मंदिर भी बनाए गए थे, ऐसा विदित होता है । यद्यपि हम्पीका एक जैन मंदिर जिसको गणिमिती मंदिर कहते हैं सन् १३८५ तक नहीं बनाया गया था । कोगलीकी जैन वस्ती (मंदिर) में होय मालवंशके वीर रामनाथ के दो लेख हैं ।
सन् १३३६ में तुंगभद्रा नदीके तटपर वर्तमान हम्पीग्रामके निकट प्रसिद्ध विजयनगर नामका शहर बसाया गया था ! विजयनगर के राजाओंने २०० वर्षतक सर्व दक्षिण भारतको मिलाकर राज्य किया और मुसलमानोंको १९६५ तक रोक रक्खा |
जैन लोग - अब खासकर बेलारी, हडगल्ली और हरपनहल्ली तालुके में हैं। उनकी संख्या बहुत थोड़ी है, यद्यपि उनके मंदिरोंके खंडहर देशभर में छितरे पड़े हैं । वे बताते हैं कि जैनियोंका धर्म पूर्वमें यहां बहुत विस्तार में फैला हुआ था तथा उनके धर्मका असर जिलेभरके धार्मिक जीवनपर बहुत गहरा था । ( Show how widely their faith must formerly have prevailed, their influence was deep on religious life of distrial). अब इस धर्मको भुला दिया गया है । होसपेत और हिरेहलुमें कुछ बोगाई जैन कुटुम्ब हैं जो पीतलकी वस्तुएं बनाते हैं ।
पुरातत्व - इतिहास समयके पूर्वकी वसतियां और शस्त्र मदरासके और जिलेकी अपेक्षा यहां अधिक पाए जाते हैं, उनमें से कुछ बहुत उपयोगी हैं । राद्रुग ता के गल्ल पल्लेमें चारों तरफ सैकड़ों
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प्राचीन जैन स्मारक। समाधिस्थान हैं। कुछोंके भीतर मिट्टीके वर्तन व हड्डियां आदि मिली हैं।
जैन मंदिर-बहुत हैं। पश्चिमीय तालुकेमें कुछ चालुक्य ढंगके मंदिर हैं जिनमें बहत मुन्दर खुदाई है। बहुत प्रसिद्ध प्राचीन स्थान बहुत अधिक संख्या व बहुत ध्यानके योग्य हम्पीके निकट है जो विनयनगर राज्यकी बड़ी राज्यधानी थी। अडोनी, बेलारी और रायदुग ये बहुत प्राचीन प्रसिद्ध पहाड़ी किले हैं ।
यहांके मुख्य स्थान । (१) अटोनी-नगर ता० अडोनी-मदराससे ३०७ मील। बंगलोरसे सिकन्दराबादकी सड़कपर । यह इस जिलेमें सबसे बड़ा नगर है । यहां कुछ पहाड़ी चट्टाने हैं जिनपर कुछ जैन तीर्थंकरोंकी मूर्तियां अंकित हैं। ये सबसे प्राचीन स्थान हैं। अब जैनियोंने इसकी खबर ली है। यहां पांच पहाड़ियां हैं जिनमें सबसे ऊंची पहाड़ी उत्तरकी तरफ बाराखिल्ली है जिसके ऊपर किला है व पुराना तोपखाना है व पाषाणकी तोप है । इसके पश्चिम तालिबंद पहाड़ी है। दूसरी तीन पहाड़ी हनारासिदी, धर्महल्ली और तासिनबेट्टा हैं। वाराखिल्लीके ऊपर जाते हुए कुछ भाग ऊपर मार्गमें एक बहुत बड़ी चट्टानके नीचे जिसके सामने विशाल वर्गतका वृक्ष है सबसे प्राचीन और अत्यन्त आश्चर्यकारी स्मारक हैं । अर्थात् चट्टानपर बैठे आसन कुछ जैन तीर्थंकरोंकी मूर्तियां ध्यानाकार अंकित हैं। इनमेंसे तीनकी उंचाई ९ इंच है, इनके सामने तीन और बड़ी मूर्तियां हैं जिनमें सबसे बड़ीकी ऊंचाई ३ फीट अनुमान है। इसके ऊपर छत्र है। अडोनीके मारवाड़ी जैनोंने इन तीन बड़ी मूर्ति,
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मदरास प्रान्तव मैमूर।
[३९
योंके सामने एक भीत बनादी है और पूजा भी करते हैं। यह स्थान पर्वतभरमें सबसे बढ़िया है जहांसे चहुंओर मनोहर दृश्य दिखलाई पड़ता है। प्राचीन जैनलोगोंकी दृष्टि ऐसे स्थानोंके तलाश करने में बहुत प्रशंसनीय थी। यह स्थान रायगुग किलेके झोपड़ेके समान है।
(२) कोथुरू -नगर ता. कुडलिगी । यहांसे दक्षिण पश्चिम १२मील । यह लिंगायतोंका केन्द्र है । उनके गुरु वासप्पाकी यहीं मृत्यु हुई है। उसकी समाधि बनी है, कनड़ी भाषामें एक कथा है कि वासपा यहां जब आया तब यह जैनियोंका दृढ़ स्थान था। इसने जैनियों को बादमें जीत लिया, उनको लिंगायत बनाया और नियोंके मुख्य मंदिरमें लिंग स्थापित कर दिया। इस मंदिरको अब मूरुकल्लु मठ अर्थात् तीन पाषाण मठ कहते हैं।
इसके तीन मंदिरोंमेंसे हरएककी भुनाएं तीन बड़े बड़े पाषाणोंसे बनी हैं। यह वास्तवमें जैन मंदिरोंका एक बढ़िया नमूना है। यहां तीन भिन्न२ मंदिर थे-उत्तर, पूर्व और दक्षिणको। मध्यमें हाता था जिसमें अब मूर्ति विराजित है। इन मंदिरोंपर शिषर चौकोर पाषाणके हैं जो जैन मंदिरोंके समान हैं । मध्य हातेमें एक शिलालेख है जो आधा पृथ्वीमें गड़ा है। किलेके भीतर चूड़ामणिशास्त्रीके मकानकी बाहरी भीतपर ३ शिलालेख और हैं।
(३) रायगुग नगर-तारायद्रुग-यहां एक पहाड़ी है, नीचे नगर है । इस पर्वतकी सबसे ऊंची चोटी २७२७ फुट है । पर्वत पर किला है व बहुतसे मंदिर हैं। प्राचीन राजाओंके मकानोंके ध्वंश हैं, एक जैन मंदिर है तथा राससिद्धकी झोपड़ीके नामसे प्रसिद्ध स्थानमें चट्टानके मुखपर कुछ जैन तीर्थंकरोंकी मूर्तियां अंकित
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४० ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
हैं। यहां यह कहावत प्रसिद्ध है कि जब रायद्रुगमें महाराजा राजराजेन्द्र राज्य करते थे तब राससिद्ध नामके साधु यहां निवास करते थे । यह भी कथा प्रसिद्ध है कि इस राजाके दो स्त्रियें थीं, उनमें से बड़ी श्रीरंगधर नामका पुत्र था, यह बहुत ही सुंदर था । छोटी स्त्री इसपर मोहित होगई । श्रीरंगधरने उसकी इच्छा पूर्ण नहीं की वह स्त्री कोपित होगई और बदला लेनेको अपने पतिसे चुगली खाई कि श्रीरंगधर मेरी इज्जत विगाड़ना चाहता था । राजाको क्रोध आगया और उसने आज्ञा दी कि रावनुगसे उत्तर २ मील सालेवल बंद नामकी चट्टान पर पुत्र श्रीरंगधरको लेजाओ और उसके हाथ और पग काटकर उसे छोड़ दो । आज्ञानुसार हाथ पग काट दिये गए । इतने ही में महात्मा राससिद्ध साधु उधर आ निकले । राजकुमारको पड़े हुए देखकर व निमित्तज्ञानसे उसे निरपराधी जानकर मंत्र द्वारा उसके अंग जोड़ दिये । राजकुमार उठकर तुर्त पिता के पास गया । राजाने उसको निरपराधी पाया तब अपनी दुष्टा स्त्रीको दंड दिया । इस साधुके आश्रम में अब एक उत्तर भारतके फकीर रहते हैं । हिन्दु और मुसलमान दोनों इस पर्वत के स्थान पर आकर नारियल फोड़ते हैं। इसमें तीन कोठरियाँ हैं जिनमें पाषाणके कटे हुए द्वार हैं । ये तीनों कोठरियां 1 बड़ो २ चट्टानोंके मध्य में, सुन्दर वृक्षों के बोचमें बहुत ही मनोहर स्थलपर हैं । इन चार बडी चट्टानोंपर जैन तीर्थकरों की मूर्तियां अंकित हैं । पूर्व की ओर बहुतसी हैं। यहां दो दो आलोंकी तीन कतारे हैं। ऐसे ६ आले हैं । हरएकमें जोड़े मूर्तियोंके हैं । हरएकमें दो मर्द एक दूसरेके सामने बैठे हैं। देखनेवालेकी दहानी तरफ जो
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मदरास व मैसूर प्रान्त |
[ ४१ पुरुष है उनका मस्तक साफ केश रहित है। दूसरे पुरुषके डाढ़ी है । पहले के पास कमंडल है और वह कुछ वस्तु दूसरेको दे रहा है जो दोनों हाथ जोड़े विनयसे बैठा है । (नोट-मालम होता है इनमें एक मुनि, दूसरा श्रावक है ।
इन आलोंके ऊपर ३ जैन तिर्थकरोंकी मूर्तियां बैठे आसन हैं। तीन दूसरी चट्टानोंपर भी ऐसी ही मूर्तियां अंकित हैं । किन्तु संख्यामें अंतर है । दो पश्चिमीय चट्टानोंपर कानोंमें आभूषण आदि पहने हुए स्त्रियां हाथ जोड़े किसी मुनिके सामने बैठी है इन सबके ऊपर पद्मासन जैन तीर्थकर है । इनमेंसे एकके नीचे दो या तीन लाइन लेख है । इन चार समूहों में से एकके चारों तरफ हाल में मंदिर बनाया गया है व पद्मासन मूर्तियोंके आंखें लगा दी गई हैं । तथा मुखपर शिवका चिह्न भस्म सहित लगा दिया गया है।
इस पर्वत पर जो माधवस्वामीका मंदिर है उसके सामने जैन मंदिर सुरक्षित दशा में है । पहले इसके भीतर एक जैन मूर्ति खड़ी थी - यह मूर्ति बहुत सुन्दर काले पाषाणकी ३ फुट ऊंची खड़गासन नग्न दिगम्बर है। अब इस मूर्ति तालुका आफिसमें रख दीगई है । इस मंदिर के पीछे पाषाणकी २१ जैन तीर्थंकरोंकी मूर्तियां पद्मासन और दो कायोत्सर्ग अंकित हैं । इसके नीचे एक लेख है, इसी मंदिरसे उत्तर आध मील जाकर पहाड़ीका निकला हुआ भाग है यहीं प्रसिद्ध जैनस्मारक हैं । इसीको रससिद्धका झोपड़ा कहते हैं ।
मदरास एपिग्राफी में सी नं ० ४ में किलेके भीतर पर्वत में कटे हुए पाषाण मंदिरका नकशा है ।
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४२ ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
(४) विजयनगर या हम्पी - ता० होस्पेत तुंगभद्रा नदीपर एक बड़ा नगर था । इस नगरके ध्वंशस्थान ९ वर्गमील में हैं । इनको हम्पी ध्वंश स्थान कहते हैं। इस नगरको देवराजाने सन् १३३६ मैं बसाया था । यह इंग्लेंडके आठवें हेनरीके समकालीन थे । बहुतसे विदेशियोंने इस नगरका दर्शन किया था ( देखो Sewell's forgotten Empire ) कम्पलीको जो सड़क जाती है उसपर सबसे पहला ध्वंशस्थान गणि गित्ती (बुढ़िया) का जैन मंदिर मिलता है । इसके सामने जो दीपकका स्तंभ है उसपर जो लेख है उससे विदित होता है कि इस मंदिरको हरिहर द्वि० के राज्यमें जैन सेनापति इरुगप्पाने सन १३८५ में बनवाया था । यह राजा सब धर्मों पर माध्यस्थ भाव रखता था ।
इस शिलालेखकी नकल South Indian inscriptions Vol. I by Hultrych 1890 में दी हुई है । यह लेख २८ लाइनका संस्कृतमें है ।
इसका भावार्थ नीचे प्रकार है " मूलसंघ नंदिसंघ बलात्कारगण सरस्वती गच्छ आचार्य पद्मनंदि, उनके शिष्य धर्मभूषण भट्टारक उनके शिष्य अमरकीर्ति, उनके शिष्य सिंहनंदिगणमृत, उनके शिष्य धर्मभूषण म० द्वि० इनके शिष्य वर्द्धमान मुनि- उनके शिष्य धर्मभूषण भ० तु ० । इस समय वुक्कु महीपतिका पुत्र हरिहर द्वि० राज्य करता था तब उसके मंत्री दंडाधिपति चैत्र के पुत्र इरुगदंडेशने, जो मुनि सिंहनंदिका शिष्य था, शाका १३०७में बिजयनगरमें श्री कुंथुजिननाथका पाषाण मंदिर बनवाया । यह विजयनगर करनाटक देशके कुन्तल जिलेमें है ।
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मदरास व मसूर मान्त ।
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हजारा रामस्वामीके मंदिरके दो ध्वंश द्वार हैं जो देखने योग्य हैं। यह राजाओंकी पूजा करनेका एकान्त स्थान था । इसको कृष्णदेवरायने सन् १९९३ में प्रारंभ किया था | आंगनके भीतर बाहरी दिवालों पर कई मूर्तियां अंकित हैं उनमें जैन मूर्तियां भी हैं। यहां जो दरबारका कमरा है. उसके पश्चिम हाथीका अस्तबल है । इसके पूर्व खेतों में दो छोटे जैन मंदिर हैं जो ध्वंश हो गए हैं
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पम्पापती मंदिरके नीचे और उसके उत्तर नगरमें सबसे बड़ा जैन मंदिरोंका समूह है । उनके शिखर देखने योग्य हैं । कदलईकल्लु गणेश के सामने सड़ककी दूसरी तरफ एक और जैन मंदिर है । पम्पापति मंदिर के गोपीपुरम् के उत्तरसे कुछ उत्तर दो और जैन मंदिर हैं । हम्पीसे उत्तर पूर्व २ मीलके अनुमान एक और जैन मंदिर उस मार्गपर है, जो तुंगभद्राके तटपर चला गया है। इन सब चिह्नोंसे प्रगट होता है कि एक समय यहां जैन मत बहुत उन्नतिमें फैला हुआ था । इन मंदिरोंका समय अनिश्चित है । ये सब मंदिर गणिगिती मंदिरसे पुराने हैं । ये सब मंदिरोंके ध्वंश देखने योग्य हैं
( Forgotten empire p. 244 ).
विजयनगर में एक शिलालेख एक जैन मंदिर पर है । यह प्रसिद्ध जैन मंदिरके उत्तर पश्चिम द्वारकी दोनों तरफ अंकित है। यह संस्कृत में है । इसका भाव है कि शाका १३४८ में देवराज द्वि० श्री पार्श्वनाथजीका पाषाण जिन मंदिर- विजयनगरके पान-: सुपारी बाजार में बनवाया ।
यदुवंशी वुक्कका पुत्र हरिहर उसका देवराजम० उसका विनयः
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४४] प्राचीन जैन स्मारक । उसका देवरान हि था जिसको आदि देव या वीर देवराज भी कहते हैं-संस्कृतका कुछ भाग यह है-" सोऽयं श्री देवराजेशो विद्याविनयविश्रुतः। प्रागुक्त पुरवीप्यतः पण्यपूगी फलापणे । शाकाब्दे प्रमिते याते वसुसिंधु-गुणेंदुभिः । परामवाब्देकार्तिक्ये धर्मकीर्ति प्रवृत्त्यये । स्याद्वाद मतसमर्थन खबितदुर्वादिगर्व वाग्विततेः अष्टादशदोष महामद गन निकुरुंब महित मृगराजः भव्यांभोरुह मानोरिन्द्रादि सुरेन्द्रवृन्द वंदस्य मुक्तिवधृ प्रिय भत्तः श्री पार्थ जिनेश्वरस्य करुणाब्धेः भव्यपरितोषहेतुं दाधरणिधुमणि हिमकर स्थैय. (S. I. Ins. Vol. I. No. 153 )
मदरास एपिग्राफी विभागमें यहांके मुख्य स्थानोंके नकशे व फोटो इस भांति हैं(१) सी नं० ३-पम्पापति मंदिर हम्पीके दक्षिण तरफका नकशा। (२) मी नं० ४-पम्पापतिके दक्षिण जैन मंदिरका (३) मो नं० ५- , , ,, ,, उत्तरकाभागका ,, (४) सी नं० ६-पम्पापतिके दक्षिणके मंदिरकी मापका , (५) सी नं० ७-हम्पीके दक्षिण चट्टानपर जैन मंदिरका ,, (६) सी नं. १-फोटो जैन मंदिर समूह हम्पी । (७) सी नं० १८-हम्पीके हेमकूटम्के नैन मं० पूर्वीय भागका फोटो। (८) सी नं० १९-उपरके मंदिरका दक्षिण पश्चिम भागका , (९) सी नं० २०- , , उत्तर " " " (१०) सी नं० २१-हम्पीके गणगित्ती जैन मंदिरका , , (११)सीनं० २२-ऊपर मंदिरके दीपस्तंभका दक्षिण पूर्वीय भा०,, (१२) सीनं०९८-हम्पीके पास नदीके निकट चट्टानपर जैन में,
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मदरास व मैसूर शान्त । (१३) सी नं० ९९ - गणगित्ती जैन मंदिरका
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(५) चित्रम्बलम् - अडोनीसे उत्तर ३ मील एक ग्राम । यहां नरसिंहस्वामी मंदिर के पास दो ध्वंश जैन मंदिर हैं जिनके शिखर पाषाणके हैं।
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(६) पेह तम्बलम् - अडोनीसे १२ मील उत्तर में | सड़क से बाव मील, व ग्रामसे आधा मील जाकर ध्वंस मंदिरोंका समूह है। जो खुदे हुए पाषाण ग्रामके आसपास पड़े हैं, उनमें कई जैन तीर्थङ्करोंकी पद्मासन मूर्तियां हैं । तथा एक लम्बा ध्वजास्तंभ है । इसके उत्तर तीन मंदिर हैं वे मूलमें जैन मंदिर थे, अब वे नागमंदिर हैं | यहां सन् १०७६, ११२६, ११४९ व ११८३ के शिलालेख हैं । एक बड़ा टीला खोदनेके लायक है ।
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(७) चिप्पगिरि - ता० अलूर से दक्षिण पूर्व १३ मील | यह गुंटकलकी सड़कपर है । ग्रामके उत्तर एक नीची किलेदार पहाड़ी है जिसमें दक्षिण इतिहाससे पूर्वकी वस्तीके चिह्न हैं । प्राचीनकाल में यहां जैनियोंकी बहुत वस्ती थी । मेकन्जी लिखित शास्त्रों से (Sco Yaylor's catalogue of oriental manuscripts III p. 550 ) प्रगट है कि कलचुरी वंशके जैन राजा बज्जाल (सन् ई० १११६-११६७) ने किला बनवाया था और अपनी जैन प्रजाके साथ रहता था । पर्वत पर एक जैन मंदिर है जिसको बसती कहते हैं । यह मंदिर शिषरबंद है। मंदिर के भीतर बहुतमी जैन तीर्थंकरोंकी नग्न मूर्तियां बैटे तथा खड़े आसन हैं । इस मंदिर के द्वारके उत्तर एक बड़ी चट्टान के नीचे तीन पापाण हैं जिनमें बड़ीर जैन तीर्थंकरोंकी मूर्तियां हैं । ग्राममें जो भोगेश्वर
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प्राचीन जैन स्मारक। और चेन्न केशवस्वामीके मंदिर हैं उनके भीतरी मंदिरके भाग प्रगटपने मूलमें जैन मंदिर थे, इनको पीछे हिंदू ढंगमें बदल लिया गया। इनमें से एक पर्वतके जैन मंदिरसे मिलता जुलता है। इसमें कुरुगोडुके समान आश्चर्यकारी रचना है। इन दोनों मंदिरोंके चारों मध्यके स्तम्भ जैन ढंगके हैं।
मदरास एपिग्राफीमें सी नं० २३ में इस चिप्पगिरि पर्वतके जैन मंदिरका नकशा है ।
(८) हीरिहालु-ता. वेल्लारीसे दक्षिण पश्चिम १२ मील। यहां बोगार जैनी पीतलके वर्तन बनाते हैं ।
(९) कुडातिनी-वेल्लारीसे पश्चिम उत्तर १२ मील कुड़ातिनी रेलवे स्टेशनसे १ मील । यह प्राचीनकालमें जैनियोंका मुख्य स्थान रहा है । इसका प्रमाण यह है कि किलेके उत्तर द्वारकी तरफ जो मसनिद है तथा कुमारस्वामी मंदिरके पश्चिम द्वारके पास जो लिंगायतोंका मंदिर है उनमें ये चिह्न प्रगट हैं कि ये मूलमें जैन मंदिर थे । किलेके पश्चिमीय द्वारपर जो नग्न मस्तक रहित मूर्ति है वह भी जैनकी है। यहां दो राष्ट्रकूट शिलालेख सन् ९४८-४९ तथा ९७१-७२के मिले हैं।
यहां इतिहासके पूर्वका एक टीला है, इसमें प्राचीन मूर्तियां हैं।
(१०) कुरुगोडु-ता० वेल्लारी । कुरुगोड पर्वतोंके पूर्वीय 'किनारेपर एक ग्राम । यह प्राचीन ऐतिहासिक स्थान है। शिलालेखसे प्रगट है कि यह ग्राम बादामीके चालुक्योंका था । ग्रामके पश्चिम पुराने ग्रामका स्थान है जहांपर अब खुला मैदान है । इन खेतोंमें बहुत ही प्रसिद्ध प्राचीन स्मारक हैं अर्थात् जैन मंदिरोंका ऐसा
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मदरास व मैसूर मान्त। [४७ समूह है जिसकी सहशता जिलेभरमें नहीं है ( a collection of Jain temples which is herhaps without rival in the district)
यहांपर नौ मंदिर हैं। दसवां मंदिर उजालपेताके बाहर उत्तर तरफ हनुमंती पहाड़ीकी दूसरी ओर है। नौमें से तीन मंदिर वसेश्वर मंदिरके गोपुरम्के दक्षिण पश्चिम १०० गजकी दूरीपर हैं । चार हालुगोडीके भीतर हैं। शेष तीन इन दोनों समूहोंके बीच खेतोंमें हैं। ये सब मंदिर विना चूना गारा लगाए हुए बिलौरी पाषाण (Granite) के बने हुए हैं। एक लेखमें सन् १९७५-७६ है जिसको एक व्यापारीने बनवाया था।
____एकके सिवाय सबमें हम्पीके जैन मंदिरके सदृश पाषाणके शिखर हैं । द्वारपर खुदाई है । इनमेंसे सबसे बड़े मंदिरको अब हिंडल संगेश्वरगुडी कहते हैं । इनके देखनेसे मालूम होता है कि यहां जैनियोंका बहुत प्रभाव था। ( The wholte series show how strong Juin iufinence must at oue time have been in this localtiy ) इसी ढंगके दूसरे भी मंदिर निकट स्थानों में हैं । १ मंदिर सिंदीगाह ग्राममें, एक वेलारीसे ९ मील कोलुरु ग्राम में, एक तेकलकट ग्राममें तथा एक कुरुगोडुके पश्चिम ६ मील वरयावी ग्राममें है।
(११) कोगली-ता०हडगल्ली । यहांसे उत्तर पश्चिम ४मील। देखनेसे विदित होता है कि यह जैनियोंका एक महान स्थान था। यहां एक जैन मंदिर वस्तीके नामसे है। इसीके निकट एक पुरुषाकार जैन मूर्ति है । इस ग्रामके निकट नेलीकुदिरी, कन्नेहल्ली तथा कोगली सम्मुत कोडीहल्ली ग्रामोंमें जैन स्मारक हैं। वसतीके भीतर
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१८] प्राचीन जैन स्मारक। तथा निकट बहुतसे शिलालेख हैं । इन लेखोंसे तथा हरपनहल्ली ता० के वाघली जिनमन्दिरके लेखोंसे उन सरदारोंका कथन मिलता है जिन्होंने कोगली ५०० पर शासन किया था। सन् ९४४-४५ में यहां राष्ट्रकूट वंशीय राजा कृष्ण तृ० के आधीन चालुक्य वंशी रानाने व ऐसे ही सन् ९५६-५७ में दूसरे राजाने राज्य किया था। जब चालुक्योंने सन् ९७३ में अपना अधिकार जमा लिया तब यहां ९८७ से ९९० तक आर्यवर्मनने व ९९२-९३ में आदित्य वर्मनने राज्य किया। सन् १०१८में चालुक्योंके आधीनपल्लव राजा उदयादित्य उपनाम जगदेक मल्लनोलम्ब पल्लव परमानदीने शासन किया तथा १०६८में चालुक्य सम्राट सोमेश्वर द्वि० के छोटे भाई जयसिंहने राज्य किया । कोगलीके लेख भी बताते हैं कि ग्रामके चेन्न पार्श्वनाथजीके जैन मंदिरको होयसाल वंशीय गना वीर रामनाथने सन् १२७५ और १२७६ में दान किये थे तथा विजयनगरके अच्युतरायने वीरभद्र मंदिरको दान किये थे।
(१२) वागली-ता० हरपनहल्ली। यहांसे ४ मील । यहां पश्चिमीय राजा चालुक्य विक्रमादित्य चतुर्थके १२ लेख है जो उसके ४ थे वर्षके राज्यसे लेकर ६५ वर्षतकके हैं। यह सन् १०७६में गद्दीपर बैठा था। इनमें से एक शिलालेख ग्रामके ब्रह्म जिनालय नामके जनमन्दिरके सम्बन्धमें है। ___ (१३) हरपनहल्ली-यहां पुराना किला है जो ध्वंश हैं। दो मंदिर हैं । एक जैनमन्दिर है जहां पूजा होती है। मंदिरके आगे ध्वजास्तंभ है । इस मंदिरको वोगरी वस्ती कहते हैं । इस मंदिर में बहुतसी जैन मूर्तियें हैं। यहां थोड़े जैनी हैं।
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मदरास व मैसूर प्रान्त। (१४) उच्छंगी दुर्गम-यह एक पहाडी किला ग्वालियरके किलेके समान है। किसीसमय (चौथी शताब्दी)में यह कादम्बवंशका मुख्य नगर था । पीछे यह नोलम्बपल्लव राजाओंकी राज्यधानी रहा । गंगमारसिंहने (सन् ९६३-९७३) नोलम्बोंसे ले लिया। ग्राममें जो शिलालेख हैं उनसे प्रगट है कि सन् १०६४ में यहां चालुक्यवंशी राजा त्रैलोक्यमल्ल तथा सन् ११६९ में पांडवविजय पांडवदेव राज्य करते थे।
(१५) सन्दूर नगर-संदूर राज्य-होस्वत ला० के पास कुमारम्वामी मंदिरके गोपुरम्के सामने मंदिरके बाहर अगस्त्य तीर्थम् नाम सरोवरके चारों ओर कुछ छोटे मंदिर व खंडित मूर्तियां पड़ी हैं । इनमें से कुछ जैनोंकी हैं।
(१६) हुलीविदु-में एक जैन मुनिकी मूर्ति पाषाणकी है जिसका फोटो मदरास एपिग्राफी दफ्तरमें है। नं० सी ९७ हैं।
(१७) कोनवरचोडु ता० अल्लूर-यहां श्रीवर्द्धमान भगवा वानकी जैन मूर्ति है निप्तको लोग हिन्दू देवता मानकर पूजते हैं। वझं कनडीमें एक लेख है जिससे प्रगट है कि १२ वीं शताब्दीमें श्रीपद्मप्रभ मलधारी स्वामीके शिप्य राया महासेठीकी स्त्री चन्दव्वेने पुनः प्रतिष्ठा कराई थी।
(१८) नंदिवेवरू-ता. हरपनहल्ली-यहां अंजनेय स्वामीके मंदिरके पस एक पाषाण है जिसमें लेख है कि शाका ९७६में जब त्रैलोक्यमल्ल नोलम्बपल्लव परमानदी नोलम्बवाड़ी ३२०००, वल्लकुन ३००, कोदम्बलि १००० पर राज्य करते थे तब रेचरुरुके १२० महाजनोंने जैन तीर्थंकरोंकी भक्तिके अर्थ बाग आदि देशी
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५०] प्राचीन जैन स्मारक। गणके अष्टोपवासी मुनि वीरनंदि सिद्धांत देवके सामने भेट किये थे।
(१९) कप-विजयनगर-कपके पटेलके पास एक ताम्रपत्र है निससे प्रगट है कि शाका १४७९में जब वीर प्रताप सदाशिवराय राज्य करते थे तब तम्मलरस उपनाम मद्दे हगड़े जो कपका सरदार था और उसके आधीन गणपम् सामन्तने कपके लोंगोंसे मिलकर श्री देवचन्द्रदेवकी आज्ञासे अपने गुरु मुनिचन्द्रदेवके आत्मलाभके हेतु मैरग्राममें भूमि दान किया।
(२०) तारेणगल्ल-ता० होस्पत-यहां शंकर देवराज गुड्ड पर्वतपर तंगमनगुंडु नामकी चट्टानपर एक कनड़ीमें लेख है जिससे प्रगट है कि यहां श्री अकलंकदेयके शिप्य बयिची सेठकी निषिधिका (समाधिस्थान) है।
(२१) मांगला-तुंगभद्रा नदीपर-हुविनहडहल्लीसे पश्चिम १० मील । यहां एक जैन मंदिर है ।
. (९) अनन्तपुर जिला ।
यहां ५५५७ वर्ग मील स्थान है। चौहद्दी है-उत्तरमें वेलारी और कुरनूल जिले, पश्चिनमें वेलारी और मैसूर, दक्षिणमें मैसूर, पूर्वमें कुड़ापा मिला।
इतिहास-यहां इतिहाससे पहलेके मनुप्योंके मरणस्थान FE Ki tvzing ) सैकड़ों हैं जो मुदीगल्लुमें हैं। यह स्थान कल्याणदुगसे पूर्व ३ मील है तथा देवटुलवेट्टमें हैं। यह एक बड़ी पहाड़ी उसीके उत्तरमें है। कुछ ऐसे स्थान अनन्तपुर ता.में माल्पवंतम्मे उत्तर सड़ककी तरफ है । ८ वीं से १० शताब्दी तक
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मदरास व मैमूर प्रान्त। [५१ नोलम्ब राजाओंने राज्य किया जो राष्ट्रकूटोंके आधीन थे। ये राष्ट्रकूट राजा बेल्लरीमें सन् ७५० से ९५० तक बड़े प्रभावशाली थे। सन् ९७३में गंगवंशी राजा मारसिंहने इनको दबाया जिनकी राज्यधानी मैसूरमें कावेरी नदी तटपर तलकाड पर थी। ९ वीं शताब्दीमें पश्चिमीय चालुक्योंने और होयसालोंने, १२वीमें यादवोंने फिर मुसल्मानोंने कबजा किया।
पुरातत्त्व-यहां बहुत प्रसिद्ध पेन्नर नदीके तटपर तावपतूपर किले और मंदिर हैं। इन मंदिरोंमें आश्चर्यकारी कारीगरी है । लेपाक्षी और हेमवतीपर जो मंदिर हैं वे शिल्पके लिये प्रसिद्ध हैं। यहां बहुत पुराने शिलालेख मिले हैं जिनमें पल्लवोंकी प्राचीन शाखाका कथन है। जैन-यहां ३०० जैन होंगे जिनमें दो तिहाई मदकसीरपर है।
प्रसिद्ध स्थान । (१) गृटी-ता० गूटी-रेलवे टे० से दक्षिण २ मील । चट्टानके नीचे छोटे मंदिरके भीतरका भाग जैन ढंगका है। जो पत्थर. ऊपर जानेके मार्गपर काममें लाए गए हैं उनमें अधिकोंमें जैन चित्रकारी अंकित है।
(२) कोनकोंडला-ता. गंटकल-यहांसे दक्षिण पश्चिम ५ मील । यह झलकता है कि किसी समय यह स्थान जैनियों केन्द्र था। यहां जो चिह्न मिलते हैं उनसे प्रगट है कि यहां पूर्व में जैनमत फैला हुआ था । आदि चेनकेश्वर मंदिरसे थोड़ी दूर वस्तीके मध्य एक पाषाण सीधा जमीनपर पड़ा है जिसपर लेखोंके मन्द २ चिह्न हैं-इस लेखके उपर एक जैन तीर्थरकी मूर्ति
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प्राचीन जैन स्मारक। कोरी हुई है यह बैठे आसन है । इस पाषाणके पीछे बादका एक तेलुगू भाषामें लेख है । ग्रामके दक्षिण छोटी चट्टानके ऊपर एक पाषाण है जिसपर कायोत्सर्ग जैन तीर्थकरकी मूर्ति ३॥ फुट ऊँची है । यह नग्न है । इसलिये यह दिगम्बर आम्नायकी है । हर दोनों तरफ चमरेन्द्र हैं । आसपास जो खुदे हुए पाषाण कुछ मंदिरोंके पड़े हुए हैं उनमें एक हरे पाषाणका खंड है जिसपर लेख है । इस पत्थरका ऊपरी भाग टूट गया है परन्तु यह मालूम होता है कि यहां मूलमें जैन तीर्थकरकी मूर्ति होगी क्योंकि पद्मासन पग अभीतक दिखलाई पड़ते हैं।
ग्रामके पश्चिम उत्तर एक छोटी चट्टानपर दो और पाषाण हैं जिनमें दो नग्न कायोत्सर्ग जैन मूर्तियां खुदी हुई हैं ये भी ३॥ फुट ऊंची पहलेके अनुमार है । हरएक मूर्तिके ऊपर तीन छत्र हैं तथा हर तरफ चमरेन्द्र हैं। ग्रामवालोंने इनके चारों तरफ दीवाल खड़ी कर दी है। उसे काले रंगसे पोत दिया है व शिवमतके चिह्नोंसे उसे भूपित कर दिया है । इनसे पश्चिम कुछ फुट जाकर एक दुसरी चट्टान है । इसके भीतर भी एक जैन तीर्थकरकी मूर्ति अंकित है। यह मूर्ति आठ फुटसे अधिक लम्बी है, नग्न है व अन्योंके समान कायोत्सर्ग है । इसीके पास चट्टानपर दो चरणचिह्न अंकित हैं जिनके आसपास चित्रकला है। इस चट्टान के नीचे एक छोटे सरोवरके पास एक चित्रित सीधा पाषाण है जो १० फुट ऊँचा है । इसके गस्तकपर कुछ लेख है। आधी दूर पर दो दो लाइनमें भी कुछ अक्षर खुदे हैं। ये सब लेख दो फुट वर्गमें है। यहां अधिक जांच करनेसे जैनियोंके और भी स्मारक मिल सकेंगे।
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मदरास व मैमूर प्रान्त। [५३ । (३) कम्बदुरू-ता. कल्याणद्रुग-मदाक्षिराको जाती हुई सड़कपर । यहां तीन मंदिर हैं जिसकी कारीगरी जैनियोंके समान है। दो खंडित पड़े हैं । एकको शिवमंदिर बनाया गया है। इसमें कई जैन चिह्न हैं।
(४) अगली-ता० मदाक्षिरा-यह प्राचीन जैन मंदिर है जिसमें एक नग्न तीर्थकरकी मूर्ति है।
(५) अमरपुरम्-ता० मदाक्षिरा यहांके उत्तर पश्चिम कोनेमें एक ग्राम । यहां जैन मंदिर है जिसमें एक प्राचीन पाषाण है जिसमें कायोत्सर्ग नग्न जैन मूर्ति है व पुरानी कनड़ी भाषामें लेख है । इस मंदिर बननेके पहले यह मूर्ति यहां विद्यमान थी। नैन लोग इसको पूजते हैं ऐसा कहा जाता हैं। तम्मदहल्लीमें अंजनेय मंदिरके भीतर उत्तरको १ मील जाकर ऐसा पाषाण है जिसमें दो नग्न जैन मूर्तियां हैं व लेख है।
(६) हेमावती-अमरपुरम्से दक्षिण ८ मील | यह स्थान पल्लवोंकी शाखा नोलम्बोंका मुख्य स्थान है। ये ८ वीं से १०वीं शताब्दी तक ऐश्वर्यशाली हुए थे। तीन लेखोंमें उनके राजाओंके नाम हैं। दो लेख सन् ३५० व ४ ४ ४के हैं-जिनमें हेजेरू के युद्ध में वीरताके लिये दान हैं ( Rice, Mysors I. p. 163 ).
(७) रत्नागिरि-मदाक्षिरासे दक्षिण पश्चिम १७ मील। यहां पुराना किला है व एक प्राचीन जैन मंदिर है।
(८) पेनूकोंडा-ता० यहां दो प्राचीन जैन मंदिर हैं ।
(९) तदपत्री-ता० पेन्नरके कोनेपर रामेश्वर मंदिर है। इसमें ५ शिलालेख हैं। सबसे प्राचीन सन् ११९८का है। इसमें जैनि
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५४] प्राचीन जैन स्मारक । योंका दान लिखा है । यह किसी जैनमंदिरसे यहां लाया गया है जिसका पता अब नहीं चलता है ।
मदरास एपिग्राफी दफ्तरमें इस जिलेके जैन नकशे व फोटो नीचे प्रकार हैं(१) सी १५ रत्नागिरिके जैन मंदिरका उत्तरीय पूर्वीय भाग । (२), १६ , , पूर्वीय भाग ।। (३) ,, १७ ,पश्चिम पहाडीपर एक चट्टानपर अंकित जैनमूर्ति।
नीचे लिखा वर्णन एपिग्राफी रिपोटे सन् १९१६-१७से लिया।
(१०) कोट्ट शिवपुर-ता. मदाक्षिरा-इस ग्रामके द्वारके मंडपके स्तंभपर एक लेख है कि राजा इरनालकी रानी अल्पद्रीने इस जैन दानशालाका जीर्णोद्धार कराया। यह कुंदकुंदाचार्यान्वयी करगणके मुनियोंकी श्राविका शिष्या थी। वहीं पर दूसरा स्तंभ है उसपर लेख है । (नं० २१) कि इस वसती या जैन मंदिरको काणूरगणके पुष्पनंदी आचार्यके समय बनाया गया था ।
(११) पट शिवपुरम ता० मदाक्षिरा-इस ग्रामके दक्षिणद्वारपर एक स्तंभपर लेख (नं० २८)-पश्चिमीय चालुक्य राना त्रिभुवनमल्ल वीर सोमेश्वर देवके समय शाका ११०७ का है। जब इस राजाके आधीन त्रिभुवनमल्ल भोगदेव चोल महाराज हेजिरानगरपर राज्य कर रहे थे। यह जैन मंदिर बनाया गया तब श्री पद्मप्रभ मलधारीदेव और उनके गुरु वीरनंदि सिद्धांतचक्र. वर्ती विद्यमान थे। ____स० नोट-श्री कुंदकुंदाचार्यरुत नियमसार ग्रन्थकी संस्कृत वृत्ति श्री पद्मप्रभ मलधारी देवने रची है-यह वही मालूम होते हैं।
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मदरास व मैसूर प्रान्त ।
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यह शाका ११०७ वि० सं० १२४२ व सन् १९८५ में हुए हैं । इसी ग्रामके जैन मंदिरके आंगन में एक स्तम्भपर लेख (नं. ४०) है । भाव यह है कि जब निदिगल्लू राज्यधानी पर महामंडलेश्वर त्रिभुवनकोल राज्य करते थे शाका १२०० में तब संगनव वोम्बीसेठी और मलव्वे भार्याके पुत्र मल्लिसेठीने तन्नदहल्ली ग्राममें २००० एकड़ भूमि श्री पाश्चदेव मंदिरके लिये दी। यह मूर्ति तेलनगरकी जैन वस्तीमें है। इसे ब्रह्म जिनालय कहते हैं। सेठी कुंदकुंदान्वयी पुस्तक गच्छीय देशीयगण मूलसंघ इंगलेश्वर शाखाके त्रिभुवनकीर्ति वारुलके शिष्य बालेन्द्रमलधारीदेवके श्रावक शिष्य थे।
इसी मंदिरमें अनुमान १२०० शाकाके नीचे लिखे लेख भी हैं। (१) नं० ४१-वेरी सेठीके पुत्र सोमेश्वर सेठीकी समाधि ।
(२) नं० ४२-इसी मंदिरके एक आसनपर इस वस्तीको वालेन्दुमलधारी देवके शिष्यने बनवाया ।
(३) नं० ४३-मंदिरके दक्षिण एक सरोवरके निकट पाषाणपर मूलसंघीय इंगलेश्वर शाखाके भट्टारक श्री प्रभाचंद्रके शिष्य बोम्बीसेठी बचय्याकी समाधि-निषीधिका ।
(४) नं० ४४ - ऊपरके स्थानपर एक पाषाण-मूलसंघी सेनगणके मुनि भावसेन त्रैविध चक्रवर्तीकी निषीधिका (समाधिस्थान)
(५) नं. ४५-वहीं-वालेन्दुमलघारी देवके शिष्य विरुप या भरयाकी निषीधिका।
(६) नं० ४६-वहीं पोटोज पिता और सयबी मारक पुत्र दोनोंकी निषीधिका ।
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५६ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
(७) नं० ४७ - वहीं प्रभाचंद्र मुनिके शिष्य कोम्मसेठीकी निषीधिका ।
(८) नं० ४८ - तन्नदल्लीके अंजनेश्वर मंदिरके आंगन में एक चबूतरे पर पाषाण है । उसपर - मूल सं० देशीयगणके चारुकीर्ति भट्टारकके शिष्य चंद्रक भट्टारककी निषोधिका ।
आर्किलाजिकल सर्वे रिपोर्ट सन् १९१६-१७ में है कि इस जिलेके मुदाक्षरा तालुका में जो शिलालेख मिलते हैं उनसे यह साफ प्रगट है कि यहां चोलवंशी अनेक राजाओंने राज्य किया है । तथा इन लेखोंसे यह भी प्रगट है कि इस ओर जैन लोगोंका और उनके धर्मका बहुत बड़ा जोर था | यहांके राजाओं में से एक राजाकी रानी श्रीकुंदकुंदाचार्य के कारगणके मुनिकी शिष्या थी । ( These same epigraphps also point to the vast influence of the Jainas aud their creed, a queen of one of the ruling princes beeing herself a lay disciple of the Kauurgan and Kunda Kundacharya ).
(१०) मदरास शहर |
यह समुद्र से २२ फुट ऊंचाईपर है । २७ वर्गमील स्थान है । दो मील से ४ मील है
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यहां मैलापुर एक प्रसिद्ध स्थान है । यहां प्राचीनकालमें एक बृहत जैन मंदिर था । उसे ध्वंश होनेपर वर्तमान में प्रसिद्ध शिव मंदिर सरोवर के तटपर बनाया गया है। इस विशाल जैन मंदिरमें श्री नेमिनाथस्वामीकी बहुत सुन्दर कायोत्सर्ग मूर्ति ९ फुट उंची
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मदरास व मैसूर प्रान्त |
[ ५७
वेराजमान थी । यह मूर्ति अब अर्काट जिलेके चीतम्बूर मंदिरमें है जहां दि० जैन भट्टारक महाराज रहते हैं - इस मूर्तिके सम्बन्धमें तामीलमें एक स्तोत्र प्रसिद्ध है सो यहां दिया जाता है
नेमिनाथस्तोत्रम् |
श्रीभदाकृतिभासुरं जिनपुंगवं त्रिदिवागतं ।
बामनादिपुरे गतं मइलापुरे पुनरागतं ॥ हेमनिर्मितमंदिरे गगनस्थितं हितकारणं । नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नीलमहस्विषं ॥ १ ॥ कामदेव सुपूजितं करुणालयं कमलासनं । भूमिनाथसमचितं भुत्कीतपादसरोरुहं ॥ भीमसागरपद्ममध्यसमागतं महलापुरे । नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नीलमहत्विषं ॥ २ ॥ पापनाशकरं परं परमेष्टिनं परमेश्वरं । कोपमोहविवर्जितं गुरुरुग्मणिविविधार्चितं ॥ दीपधूप सुगंधि पुष्पजलाक्षतैः मइलापुरे । नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नोलमहस्विषं ॥ ३ ॥ नागराजन रामराधिपसंगता शिवतार्चनै । रसागरे परिपूजितं सकलार्चनैः समनीश्वरं ॥ रागशेषमशोकिनं वरशासनं मइलापुरे । नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नोलमहस्विषं ॥ ४ ॥ वीतरागभयादिकं विविधाथं तत्त्वनिरीक्षणं जातबोधसुखादिकं जगदेहनाथमलं कृतं ॥ भूतभव्यजनाम्बुजद्वयभास्करं महलापुरे | नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नोलमहस्विषं ॥ ५ ॥ वीरवारजनं विभुं विमलेक्षणं कमलारदं । धीरधीरमुनिस्तुतं त्रिजगदद्भुतं पुरुषोतमं ॥
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प्राचीन जैन स्मारक |
सारसार पदस्थितं त्रिजगद्भुतं महलापुरे । नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नोलमहस्विषं ॥ ६ ॥
५८ ]
चामरासनभानुमंडलापडिवृक्ष सरस्वति । भोमदं दुभिपुष्पवृष्टिसुमंडितातपवारणै ॥ दमयेन कृतालयं करिशाभितं महलापुरे । नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नोलमहस्विषं ॥ ७ ॥ आदिनाथमनामयं कमनोयमच्युतमक्षयं । घातिकमैचतुष्टयं क्षयकारिणं शिवदायिनं ॥ वादिराजविराजितं वरशासनं मइलापुरे । नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नोटमहत्विषं ॥ ८ ॥
सानंदवंदित पुरन्दर वृन्दमौलि । मंदारकुल्लनव खेचर धूसरांक्रीं ॥ आनंदकान्तमति सुन्दर मिदुकांतं ।
श्रीनेमिनाथ जननाथमहं नमामि ॥ ६ ॥
( सी० एस० मल्लिनाथ मदरासके पास एक तामील लिखित ताड़पत्रकी पुस्तकसे गृहीत ।)
(११) चिंगिलपुट जिला ।
यहां ३०७९ वर्गमील स्थान है । चौहद्दी है - पूर्वमें बंगाल खाडी, उत्तर में नेल्लोर, पश्चिम और दक्षिण-उत्तर व दक्षिण अर्काट । मदरास शहर भी इसी की हदमें गर्भित है ।
इतिहास - प्राचीन काल से आठवीं शताब्दीके मध्य तक यह जिला पल्लव वंशके प्राचीन राज्यका भाग था। इनकी राज्यधानी कांची थी जिसको अब कंजीवरम् कहते हैं। सातवीं शताब्दीके प्रारम्भमें इनकी शक्ति बहुत चढ़ी हुई थी तब इनका राज्य एक
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [५९ विशालक्षेत्र पर था। उत्तरमें नर्बदा और उड़ीसासे लेकर दक्षिणमें पन्नवार नदी तक, पूर्वमें बंगालकी खाड़ीसे लेकर पश्चिममें सलेम, बंगलोर और बरारकी सीध तक। ___महाबलपुरमें जो बड़े २ मंदिर और रथ हैं वे इनके ही बनवाए हुए हैं। ये अब सात मंदिर Daven pagodasके नामसे प्रसिद्ध हैं। ये समुद्र तटपर चिंगलपुट नगरके करीब २ बिलकुल पूर्वमें हैं । सन् ७६०के अनुमान पल्लवोंका शासन जाता रहा तब यह जिला मसूरके पश्चिमीय गंगवंशियोंके हाथमें आगया। फिर निनाम हैदराबाद रियासतके स्थान मलखेड़के राष्ट्रकूटोंने हमला करके कांची देश नौमीके प्रारम्भमें पुनः दशवीं शताब्दीके मध्यमें ले लिया । थोड़े दिन पीछे यह चोलवंशके पास चला गया जिस वंशका सबसे बड़ा राजा राजदेव हुआ है। १३वीं शताब्दीमें चोल शक्ति कम होगई तब यह वरंगलके काकिंतय लोगोंके हाथमें आया। सन् १३९३ में विजयनगर राज्यमें शामिल हुआ तथा १५ वीं शताब्दीमें मुसलमानोंने अधिकार किया । पल्लवोंको बौद्ध धर्म व आर्य धर्मका पवित्र अंश मान्य था। पीछेसे उन्होंने जैनधर्म स्वीकार किया । १२वीं शताब्दीमें वैष्णव धर्मका ज़ोर हुआ तब बौद्ध और जैन दोनों या तो लुप्त हो गए या बहुत घट गए।
तामील भाषाकी सबसे प्राचीन पुस्तक नौमी शताब्दीकी मिलती है-इसके कर्ता जैन हैं।
पुरातत्त्व-सबसे प्राचीन पदार्थ यहां कुरुम्मोंके और इतिहा. ससे पूर्वके निवासी कौभोंके पाषाणके स्मारक हैं जो यहां बहुत अधिक पाए जाते हैं
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प्राचीन जैन स्मारक।
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यहांक मुख्य स्थान । (१) चेयूरनगर-ता० मदुरा उतकम । मदरास शहरसे १३ मील । यहां तीन मंदिरोंमें चोलवंशके मूल्यवान शिलालेख हैं।
(२) कंजीवरम् नगर (प्राचीन कांची)-ता० कंजीवरम् । मदरास शहरसे दक्षिण पश्चिम ४५ मील । सन् १९०१ में यहां जनसंख्या ४६१६४ थी उनमेंसे नैनी ११८ थे। यह बहुत प्राचीन नगर है । प्राचीनकालमें पल्लवोंकी राज्यधानी थी। हुइनसांग चीनयात्रीने सातवीं शताब्दीमें इसे देखा था। इसके समयमें यह नगर ६ मोलके घेरमें था । यहांकी प्रजा वीरता, धर्म, न्यायप्रियता और विद्यामें श्रेष्ठ थी । जैनोंकी बहुत अधिक संख्या थी। बौद्ध और ब्राह्मणोंका एकसा बल था (People were superior in bravery and piety, love of justice and learniog. Jains were numerous in his days).
सं० नोट-इस वर्णनको पढ़कर विदित होता है कि चीन यात्रीके समय कांचीमें आदर्श जैन गृहस्थ निवास करते थे। यहांके स्थलपुराणसे प्रगट है कि यह नगर बहुत कालतक बौद्धोंके फिर जैनियोंके हाथमें रहा । यहां ईसाके पूर्वकी सभ्यता झलकती है। वास्तवमें एक समय इस देशमें जैनियोंका बड़ा प्रभुत्व था। चालुक्यबंशी पुलकेशी प्रथम, जिसकी राजधानी कल्याण थी, का लेख कहता है कि इसने चोल राजाको जीतकर कांजीवरम सन् ४८९ में प्राप्त किया। इसने बौद्धोंको कष्ट दिया।
सन् १९२२-२३ की एपिग्राफी रिपोर्टमें वर्णित है कि कांचीके कुछ पल्लव राजा, कुछ पांड्य राना, पश्चिमी चालुक्य राजा,
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [६१ गंगवंशी तथा राष्ट्रकूट वंशी राजा पक्के जैनी थे (were stanch Jains) पल्लवराना महेन्द्रवर्मन प्रसिद्ध जैन राजा था परन्तु यह पीछे शिवमती हो गया ऐसा तामील साहित्यमें प्रसिद्ध है। पश्चिमी चालुक्य राना पुलकेशी प्रथम, विजयादित्य व विक्रमादित्य बहुत प्रसिद्ध जैन राजा थे जिन्होंने जैन मंदिरोंका जीर्णोद्धार कराया था व ग्राम भेट किये थे । चालुक्योंके समयमें जैन बहुत प्रभावशाली थे । राष्ट्रकूटोंके समयमें भी इन्होंने अपना प्रभाव स्थिर रक्खा । राष्ट्रकूटराजा अमोघवर्ष प्रथम जो श्रीजिनसेनाचार्यका शिप्य था,, बहुत प्रसिद्ध होगया है । कलचूरीवंशका वज्जाल राजा भी जैन था। गंगवंशी राजा राजमल जैनने उत्तर अर्काटमें वल्लिमलई में जैन गुफाएं स्थापित की थीं ( Ey. Incita. Vol. IV. P. 140;.
होयशालवंशी राना भी मूलमें जैनी थे। राना बुक्कर (सन् १३५३-१३७७) के समयमें जन और वैष्णवोंमें जो मेल हुआ है उससे प्रगट होता है कि प्राचीन विजयनगरके राजाओंने जैन धर्मको महत्व दिया था। राना उक्काने दोनों धर्मोकी रक्षा की और उमको मित्रभावसे रहने की प्रेरणा की। विजयनगर राना हरिहर हि के सेनापति के पुत्र इनाने जैनधर्म स्वीकार किया था। (S. I. Irs. V.:. I. P. 152.) रावट सेवल साहब लिखते हैं कि इस कंजीवरम्के यथोक्तकारि नामके भागमें एक विष्णु मंदिर है जिसमें नग्न जैन मूर्ति विराजित है । जैनियोंका प्राचीन मंदिर कंजीवरम्के पिल्लपालइयम् स्थानसे २ मिल तिरूपत्तिकुनरम् ग्राममें है । इस मंदिरकी छतपर सुन्दर चित्रकारी है। भीतपरके लेखसे प्रगट है कि यह उस समयकी है जब यहां चोलोंका महत्व था ।
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६२ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
विजयनगर राजाओंने १४, १५, १६वीं शताब्दी में इस मंदिरको भूमि दान की है।
यहांके शिलालेख ऐतिहासिक हैं ।
पिल्लपलद्दम वह स्थान है जहां कपड़ा बुननेवाले रहते हैं । इस मंदिर की मूर्तिको त्रिलोकनाथस्वामी कहते हैं। यहां जो शिलालेख हैं उनका भाव नीचे प्रकार है
(१) दो भक्त वामरचरियर और पुष्पनाथ जो श्री मल्लिषेण मुनिके शिष्य थे एक वृक्षके नीचे ध्यान कर रहे थे । यह वृक्ष उस स्थान के पीछे है जहां अब मूर्ति विराजमान है । एक जैन व्यंतर देव इन दोनोंके सामने उपस्थित हुआ और अपनी प्रसन्नता प्रगट की । इन दोनों भक्तोंने इस वर्तमान मंदिरजीको बनबाया तथा पुजारियोंके लिये दो ठहरनेके स्थान वृक्षके नीचे बनवाए । इस जैन कांचीके त्रिलोकनाथस्वामीकी पूजाके लिये सर्वम नियमके तौरपर २००० गुली भूमि तिरुपरुत्तिकुनरममें दान की गई । (२) पुप्प मास थथु वर्षमें मूर्तियों की पूजाके लिये चिन्नपा आमम् नामका ग्राम जो मुशखकके बाहर है, दिया गया । (३) कोलथुंग चोलम्के २१ में वर्ष के राज्यमें जब यह पांड्य मदुराका स्वामी था, एक भक्त मोंडियन किलनने जिन मूर्तिकी पूजा की और ऐसी गाढ़ भक्ति की कि एक जैन व्यंतर सामने आगया और कहा कि जो तू चाहे सो मांग परन्तु उसने कुछ इच्छा न प्रगट की तब उसने येीरकोत्तमके अम्बी ग्राममें २० वली भूमि तथा कलियर कत्तमके तिरुपरुत्तिकुनरममें २० बली भूमि मूर्तिकी पूजा व अन्य व्ययके लिये पुजारीको अर्पण की ।
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मदरास व मैसूर मान्त। (४) जगतमें ऐश्वर्यकी वृद्धि हो। रानोंका राजा कृष्णदेव महारानके राज्यमें जिसने युद्ध में विजय प्राप्त की थी, शालिवाहन वर्ष १४४० में वर्ष वहमनिया थनु मासमें सप्तम रविवारको पुष्प नक्ष
में तेरुपरुत्तिकुनरमके मंदिरके पुजारीको श्रीजिन मूर्तिकी नित्यपूजाके लिये एक घर २०० फुट चौड़ा बेचा गया जो अवयन पुकनके घरके पूर्वमें व नदीके उत्तर गलीके दक्षिण में है। इसमें नदीके तटपर टीला व वृक्षादि शामिल हैं।
(१) कोल डुंगचोलम्के ४५ वें वर्षके राज्यमें यह आज्ञा दी गई कि ग्राममें पानी मंदिरके लिये लिवा जासक्ता है ।
(६) हरिहर राजाके पुत्र श्री मौवुख रानाने त्रिलोकवल्लभ तिरुपत्तिकुनरमके पुनारीको भामन्दरके निकट महेन्द्रमंगलम् ग्राम भेट किया। जो आमदनी हो वह मंदिर जीर्णोद्धार व नित्य पूजामें लगे।
(७) कोलयुंगचोलम् रानाके २० वें राज्यवर्षमें वियवदुकन नामके जैन ब्राह्मणने, जिसकी उपाधि त्यागू समुद्रप्पत्तयेर थी व जिसकी, उदारता समुद्र समान गंभीर थी एक मंडप बनवाया । मदरास एपिग्राफीके दफ्तरमें यहां के नीचे प्रमाण नकशे हैं(१) नं० सी २७ वर्द्धमानस्वामी के मंदिरका दक्षिण पूर्वीय भाग (२) नं० सी २८
, दक्षिणी भाग(३) नं० सी २९ त्रैलोक्यनाथ मंदिरका उत्तर पूर्वीय भाग (४) नं० सी ३० , , का पूर्वीय भाग (१) नं० ८३८, (सन् १९२४) एक जैन मूर्ति कंनीवरम्के
एक प्राइवेट बागमें है उसका फोटो ।
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६४] प्राचीन जैन स्मारक।
इस जैन कांचीमें ही श्री समन्तभद्राचार्यका जन्म हुआ था जो द्वि० शताब्दीमें बड़े भारी नैय्यायिक व दार्शनिक होगए हैं| स्वयंभूस्तोत्र, रत्नकरण्ड, आप्तमीमांसा आदि ग्रन्थोंके कर्ता है
देखो-आराधना कथाकोष ब्र० नेमिदत्तकृत । इहैव दक्षिणस्थायां कांच्यां पुर्या परात्मवित् । मुनिः समन्तभद्राख्यो विख्यातो भुवनत्रये ॥२॥
(३) Seven pagodas सात मंदिर-ता० चिंगलपुट । मदरास शहरसे दक्षिण ३५ मील । इस स्थानको महावलीपुर, महावल्लीपुर, भावल्लीपुर, मामल्लपुर या मल्लापुर कहते हैं। यहां बहुत प्रसिद्ध कारीगरी है। ग्रामके दक्षिण ९ मंदिर बौद्धोंके हैं । ये गुफाओंके मंदिर छठी या सातवीं शताब्दीके एलोरा और एलिफैन्टाके समान है। दो मंदिर विष्णु और शिवके थे जो समुद्रसे वह गए हैं। शिलालेखोंसे प्रगट है कि उत्तरसे चालुक्योंने आकर कांचीके पल्लवोंको जीता । यह स्थान ईष्ट कोष्ट नहर और समुद्र के बीचमें है। यहां गुफाएं भी हैं । यह पहाड़ी १५०० फुट लम्बी है । इसको राजबली कहते हैं । यहां १४ वा १५ रिपियोंके ध्यानकी गुफाएं हैं। बड़ी शांतिका स्थान है। यह निःसंदेह जैनियोंकी कारीगरी है। (is no doubt work of Jains) हैदराबादमें एक जैन गुरु महेन्द्रमन्तके पाप्त एक ताम्रपत्र है उसमें लिखा है “ राजा अमर जिसका नाम परमेश्वर और विक्रमादित्य पल्लव मल्ल था उसको श्री वल्लमने दबा दिया । यह श्री वल्लम कांचीका राजा हुआनाम राजमल्ल प्रसिद्ध हुआ। इसने महामल्ल जातिके स्वामीको सन् ६२० में जीत लिया।
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[ ६५
मदरास व मैसूर प्रान्त | यहां कुरुम्बरोंका राज्य था जो बौद्ध या जैन होंगे। ये पीछे
शिवमती हो गए ।
इसने ७०० विद्यालय
जब
यह यात्रा करता
(४) श्रीपेरुम्बू दूर - ता० कंजीवरम् । मदराससे दक्षिण । पश्चिम २५ मील | यहां वैष्णवोंके प्रसिद्ध गुरु रामानुजाचार्यका जन्म सन् १०१६ के अनुमान हुआ था । स्थापित किये व ८९ मठ कायम किये । हुआ श्री रंगम्में लौट रहा था तब चोल राजाने आज्ञा दी कि शिवमत के माननेवाले सब ब्राह्मण हस्ताक्षर करें । रामानुज शिवमत नहीं मानता था यह भाग गया और आकर मैसूरके जैन राजा विट्ठलदेवकी शरण ग्रहण की । यह १२ वर्ष मैसूर में रहा । यहां उसने अपने प्रभाव से राजाको वैष्णव धर्ममें बदल लिया । जब चोल राजाकी मृत्यु हो गई तब रामानुज श्रीरंगम में लौटा । यहीं उसकी मृत्यु हुई |
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मदरास एपिग्राफी आफिसमें नीचे लिखे चित्रादि हैं(१) नं० सी २ (सन् १९१९ तक) जैन मूर्ति जो विल्लिवक्कर है।
२) नं० ४३० - (सन् १९२२ - २३) एक जैन मूर्ति एक चट्टान पर है जो मदुरा उतकम ता०के आनंदमंगलम् ग्राममें है । अपक्कम मांगरूल, आर्यपरूम्बाक्कम्, विशार और सिरुवाकाम् रुई बोनेके मुख्य स्थान हैं । यहां श्री वर्धमानस्वामीकी मूर्ति ६ फुट ऊंची पाई गई थी । अर्पक्कममें श्री आदिनाथजीका जैन मंदिर है । प्राचीन जैन स्मारक आर्यपेरूम्बाक्कम् तथा विशारमें हैं। वहां शिलालेख भी हैं। सिरुवक्कम के लेख (नं० ६४ ) से प्रगट है कि
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६६] माचीन जैन स्मारक। वहांके जैन मंदिर श्री करण पेराम्बलीको भूमि दान की गई थी।
(६) आनन्दमंगलम्-ओत्मकर स्टेशनसे ५ मील एक बड़ी चट्टानपर तीन समुदाय जैन मूर्तियोंके अंकित हैं। तथा दूसरी चट्टान पर एक कायोत्सर्ग जैन मूर्ति है। मध्य मूर्तिको जैन लोग अनंत तीर्थकर कहते हैं । लेख (नं० ४३०) है कि मदिराय कोंद पारकेशरी वन राजाके ३८वें वर्षके राज्यमें, विनयभाष कुरवदिगलके शिप्य वर्धमान परि यदिगलने निनगिरिपल्लीमें भक्तोंके लिये दान किया।
(१२) उत्तर अर्काट जिला। यहां ७३८६ वर्गमील स्थान है। उत्तरमें कुनबा और पूर्वीय घाट, पश्चिममें मैसूर, दक्षिणपश्चिम पालार, दक्षिणमें दक्षिणअर्काट और चिंगलपुट, उत्तरपूर्व नीलगिरि पहाड़ी।
इतिहाप-यहां द्राविड़ लोगोंकी सभ्यता सन ई०से १००० वर्ष पूर्वकी है। यह कहावत प्रसिद्ध है कि यहांके समुद्रतटसे विदेशोंके साथ बहुत अधिक व्यापार होता था। इसका प्रमाण यह है कि ममुद्रतटपर पल्लवरानाओंके सिक्कों के साथ रोम और चीनके भी सिक मिलते हैं।
यहां जैन साधुसंधने आकर बहुतसे लोगोंको जेनी बनाया था। जैनियोंका मुख्य अड्डा कंमीवरम् (कांची) था । बहुतसे जैन साधु नगरोंमें विहार करते थे। जैनधर्मके माननेवाले लोग अब भी अर्काट, वंडीवाश, पाल्लूर और दक्षिण अर्काटमें पाए जाते हैं। सातवीं शताब्दीमें पल्लवोंकी शक्ति घट गई, परन्तु उन्होंने मी तक राज्य
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मदरास व मैमूर प्रान्त। [६७ किया, फिर क्रमसे चोलोंने, मलखेडेके राष्ट्रकूटोंने, फिर तंबोरके महान चोलराजा राजेन्द्रदेवने, फिर विजयनगरके रानाओंने, पश्चात् मुसल्मानोंने अधिकार किया।
जैन लोग-कनड़ासे दूसरे नं०में उत्तर अर्काटमें जैनियोंकी संख्या है । जैन लोग कहते हैं कि उनका धर्म आर्य जातिका मूल प्राचीन धर्म है। जैनियोंकी संख्या करीब ८००० है । इसमें आधीसे अधिक बंडिवाश तालुका व शेष अर्काट और बोल्लर तालुकामें हैं । मदरास प्रांतमें कुल जैनी अनुमान २८००० है ।
जैनधर्मके राजवंशोंने कांचीमें बहुत वर्पोतक राज्य किया है (Jaia dynasti:s reigned for many years al Conjeevaram) अर्कोट गनटियर (सन् १८९५) में लिखा है
They must at one time A vcay numerous as their temples and sculptures are found in very many places from whici they themselves have now disappeared. They donot admit of any sub castes and say that lay are all purc Brahumans. Usual caste office is Nainar. Sy:neone called Rai, Chetti, Dies or Mudalier. All these may intermarry and associate frecly, but no Jains will tıke food witii iny other castem in."
भावार्थ-"किसी समय इनकी बहुत बड़ी संख्या होगी क्योंकि इनके मंदिर और प्रतिमाएं ऐसे बहुतसे स्थानोंपर पाए जाते हैं जहां अब वे नहीं रहे हैं । इनके यहां उपनातियां नहीं हैं । ये कहते हैं कि वे सब पवित्र ब्राह्मण हैं। उनकी साधारण जातिके अल नैनार है। इनमें कुछ राय, चेट्टी, दास या मुईलियर कहलाते हैं। ये सब स्वतंत्रतासे परस्पर खातेपीते व विवाहसम्बंध करते हैं परन्तु कोई भैन, जैन सिवाय दुसरी जातिका भोजन नहीं लेगा ।"
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६८ ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
नोट - नैनार शब्दके अर्थ पापरहित हैं। कहते हैं जब हिन्दू लोगोंने तंग किया तब कुछ नॅनारोंने अपना बाहरी नाम राय, चेट्टी आदि रखा। पुरातत्त्व - यहां बहुत से समाधिस्थान है ( Kistvaens ) प्रसिद्ध समूह पलमानेर तालुकाके वापनत्तन ग्राममें हैं । ये प्राचीन I कुरुम्बोंकी कारीगरी है । पदवेदु नामका ध्वंश नगर उनकी राज्यधानी थी । प्राचीन जैनियों द्वारा स्थापित मूर्तियें चट्टानोंपर नीचे लिखे स्थानों पर पाई जाती हैं:
(१) तालुका अर्काटमें पंच पांडवमलईपर
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भामन्यूरपर तिरुबत्तूरपर
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(8) पोलूर में तिरुमलईपर (9) चित्तूर में बल्लिमलईपर
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शिलालेख बहुत मिलते हैं जिनमें से बहुतसे अभीतक नहीं गए हैं । सबसे बढ़िया जैन मंदिर अरुन्गुलम् में है ।
यहांके मुख्य स्थान |
(१) वापनत्तन - ता० पालमनेर - यहांसे १७ मील । इतिहासके पूर्व के समाधिस्थान ( Kietvaens ) हैं इनको पांच पांडवों के मंदिर कहते हैं | (Indian Antiquary Vol. 10) अर्काट तालुका स्थान ! यहां १०६६ जैन हैं ।
(१) तिरुवत्तूर - यह प्राचीनकाल में जैनियोंके मुख्य नगरों में से एक नगर था । यहां जो मंदिर हैं वे मूलमें इन जैनियों के होंगे । जैनियों को बहुत कष्ट दिया गया था । इस ग्राममें प्राचीन जैन मंदि
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [६९. रके मूल अभीतक दिखलाई पड़ते हैं। उनकी भीतें गिराकर तिरुवत्तरके मंदिर बनाए गए हैं। दो बड़ी जैन मूर्तियें भूमिमें पड़ी हुई हैं । उनहीके निकट सुंदर एक सरोवर है। कहते हैं यहां जैन मंदिरोंका खजाना भूमिमें गड़ा हुआ है। यहां पुनिदगईके खेतमें जो जैन मूर्ति है उसका फोटो मदरास एपिग्राफी दफ्तरमें है ।
(३) पंच पांडव मलई-अर्काटसे दक्षिण पश्चिम ४ मील एक छोटी पहाड़ी है । विशेष देखने योग्य पर्वतपर पूर्वीय ओर सात गुफाए हैं जिनको येजहबासलपदी कहते हैं। यहां २ फुट वर्गके ६ स्तम्भ द्वारपर हैं जिससे सात भाग हो गए हैं । भीतरका कुल कमरा ५० फुट लम्बा, ९ फुट ऊंचा व १६ फुट गहरा है। हरएक द्वारके सामने भीतमें चबूतरा है । शायद पहले इनपर मूर्तियें हों। इसीके ऊपर कुछ दूर जाकर चट्टानके मुखपर एक जैन तीर्थङ्करकी मूर्ति दि० जैन पल्यंकाशन १ हाथ उंची अंकित है । हम स्वयं यहां सी० एस० मल्लिनाथनी मदरासके साथ ता. २२ मार्च १९२६को आए थे । अर्काट नगरसे घोड़ा गाड़ी पर्वत तक आती है । पर्वतके दक्षिण ओर एक गुफा ३ फुट ऊंची है। आगे पानीका सरोवर है। इसीके पास चट्टानमें ५ यक्षकी मूर्तियां अंकित हैं जिनको लोग पांच पांडव कहते हैं । कुछ ऊपर आकर गुफाकी चट्टानके मुखपर एक दि० जैन मूर्ति पल्यंकाशन छत्र चमरेन्द्र सहित १ हाथ ऊँची बहुत मनोज्ञ अंकित है। नीचे दो शिलालेख हैं उनके नीचे एक कायोत्सर्ग मूर्ति ॥ हाथ ऊँची है उसके नीचे एक पशुका चिह्न है, शायद गैंडा मालम होता है। इसीके पास दूसरी गुफा है जिसके भीतर मुसलमानोंने कब
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७० ]
प्राचीन जैन स्मारक |
स्थापित कर दी है । यह गुफा वास्तवमें जैन साधुओंके तपकी भूमि थी । मदरास एपिग्राफी में इन दोनों जैन गुफाओंके चित्र सी नं० १६, १७ व १८ हैं । शिलालेखोंका भाव नीचे है जो इपिफिका इंडिका जिल्द 8 में दिया है । पृ० १३६ । इस पंच पांडवमलई का दूसरा स्थानीय नाम तिरुप्पामली या पवित्र दुग्ध पहाड़ी है । यहां जैनोंकी गुफाए हैं । एक लेख तामील भाषा में वीरचोल राजाका है । ११ लाईन हैं । अपनी रानी लाट महादेवीकी प्रार्थनापर वीर चोल लाट पेरुरैयनने, जो ऐयूरका स्वामी था कपूरका खर्च व विना आज्ञा चलनेवाले करघोंपर लगनेवाला कर तिरुप्पमलई के मंदिरके देवके लिये दिया तथा एक गांव कूरगणपदी ( वर्तमान कुरम्बदी ) दिया जो इस पर्वतसे २ मील है । चोलराजा राजरानके राज्यमें जो सन् ९८४-८९ में गद्दी पर बैठा था यह वीर चोल राजराजाके आधीन था । यह लेख लिखा गया राजराज केशरीवर्तन के ८वें वर्षके राज्य में । इस पहाड़ीसे १ मील दूर जो विलाप्पाक्कम नामका ग्राम है वहां अब भी देशी कपड़ेका बहुत व्यापार है । कई करधों चलते हैं ।
नोट- यह लेख प्रगट करता है कि राजा वीर चोल जैनी था व दसवीं शताब्दी में करघोंका बहुत प्रचार था ।
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(४) मामन्दूर यादूसीमामन्दूर पहाड़ी गुफाएं । यह कंजी - वरमसे ७ मील है । दो छोटी पहाड़ियोंपर एक सरोवरका तट है। इनके दक्षिणी भाग पूर्वीय मुखपर जैनियोंकी गुफाएं हैं जो साधुओंके ध्यानके स्थान हैं। ये भी पंच पांडवमलईके समान प्रसिद्ध हैं । चार गुफाओंमें दो पासपास हैं । हरएक में दो स्तंभ हैं। दोनों में
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VENNA
मदरास व मैसूर प्रान्त। [७१ लम्बे लेख हैं । इनमेंसे एकमें ६ मूर्तिये हैं। तीसरी गुफा उत्तरकी तरफ सबसे बड़ी है जिसमें ६ या ७ खंभोंकी दूनी कतार है, पीछे वेदियां हैं। सरोवरके नीचे समाधिस्थान (Kistveens) है । एक बड़ी चट्टानपर तामील और ग्रन्थ अक्षरोंपर लेख है जिससे प्रगट है कि श्री राज वीर महाराज रघुवीरने शाका १५०५में भूमि दान दी। ( See Malra's Journal of literature and science 1839').
तालुका अरनी जागीर। यहां जैन १६३९ हैं। चेनर में अधिक जैनी हैं। यहां जैन स्त्रियें खजूरके तागोंसे मोटी चटाईयां वुनती हैं।
(१) पिंडी-अरनीसे उत्तर पूर्व २ मील। यहां बहुत ही प्राचीन जैन मंदिर है। यहांकी कुछ मूर्तियें अरनीमें भेजी गई हैं।
(६) अरनीनगर-यहां दि० जैनियोंके ७० घर हैं । मुख्य धनदेव नैनार, वसुपाल नैनार, चक्रवर्ती नैनार हैं। रामनाथ नैनार सब इन्सपेक्टर पुलिस हैं । एक दि० जैन मंदिर कोट व मानस्तंभ सहित है। हम यहांसी० एस० मल्लिनाथ नीके साथ ता०२० मार्च २६को आए थे। यहां पुस्तकालय है। लोग धर्मप्रेमी हैं। यहां पुन्नई उपाध्याय संगीतकलामें निपुण हैं।
ता० चन्द्रगिरि । (७) चंद्रगिरिनगर-स्वर्णमुखी नदीके दाहने तटपर । यहां ऐतिहासिक सामग्री हैं-यहांके किलेको सन् १०००में हम्मदी नरसिंह जादव रायलने बनाया जो कार्वेट नगरके नरंजन वनम्में राज्य करता था । यहां ध्वंश मंदिरों में प्राचीन कारीगरी है।
(८) तिरूमल-(पवित्र पर्वत) यह हिन्दुओंकातीर्थ है। बहुतसे मंदिर हैं।
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प्राचीन जैन स्मारक ।
तालुका चित्तूर
(९) मेलपादी - चित्तूर से दक्षिण पश्चिम १६ मील पूर्वीय कोने में एक प्राचीन जैन मंदिर है जिसको अब शिवमंदिर में बदल लिया गया है । यह बात यहां प्रसिद्ध है कि यह पहले जैन मंदिर था । ३ प्रसिद्ध पंडित अप्पर, सम्बुन्दर और सुन्दर इस मंदिरको शिवमंदिरों में बदलनेको आए परन्तु पोन्ने नदीकी बाढ़ आनेसे वे न आसके तब उन्होंने तपस्या की और अंतमें इसे शिवमंदिर बना लिया ऐसी लोकोक्ति है ।
७२ ]
(१०) वल्ली मलई - मेलपादीसे उत्तर पश्चिम १ मील । यह जैनियोंकी बहुत प्रसिद्ध पुजाकी जगह है। बहुतसी जैन मूर्तियां चट्टानोंपर अंकित हैं। कुछ मंदिरों को शिवमतियोंने अपना कर लिया है । यहां एक बड़ी गुफा है - ४० फुट लम्बी, २० फुट चौड़ी व ७ से १० फुट ऊंची है। इसके तीन कमरे हैं, इसीमें मंदिर भी है। इस मंदिर के उत्तर और दक्षिण दोनों स्थानोंपर जैन मूर्तियां बहुत सुन्दर हैं। एक मूर्ति बहुत बड़ी है। पहाड़ीके ऊपर भीतें दिखलाई पड़ती हैं। अति प्राचीनकाल में यहां जैन राजाका किला था। यहां एक मंदिर को किसी चोलराजाने बनवाया था ।
1
एपिग्रेफिका इंडिका जिल्द ४ ८० १४० में यहांका हाल दिया हुआ है । गुफाके पूर्वीय पहाड़ीकी तरफ जो जैन मूर्तियोंका समुदाय खुदा हुआ है उसके नीचे ४ कनड़ी भाषाके लेख हैं उनमें पहला और तीसरा ग्रन्थ अक्षरोंमें व दूसरा व चौथा कनड़ी अक्षरोमें हैं । इनका भाव नीचे प्रकार है
नं ० १ - गंगवंशी राजा शिवमारके पुत्र श्रीपुरुष उनके पुत्र रण
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मदरास व मैसूर प्रान्त |
[ ७३
विक्रम उनके पुत्र महाराज राजमलने शाका ८९९ में मन्दिर बनवाया । नं० २ - बाई ओरसे दूसरी मूर्तिके नीचे लेख है -
" श्री आर्यनंदि भट्टारक प्रतिमे मादिदार । "
नं० ३ - श्री बानराय गुरुकुल अप्पाभवनंदि भट्टारक शिप्यर अप्पा देवसेन भट्टारक प्रतिमाः (वानरायके गुरु भवनंदिके शिष्य देवसेन द्वारा ) | नं० ४ - श्री बालचन्द्र भट्टारक शिष्यर अज्जनंदि भट्टारक ।
मदरास एपिग्राफी दफ्तर में यहां के चित्रादि नीचे प्रकार हैं(१) नं ० सी ९ शिवमंदिर के दक्षिण जैन मूर्तियोंका चित्र | (२) नं० सी १० गुफाके दक्षिणपूर्व (३) नं० मी ११ उत्तर ""
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गुड़ियत्तन तालुका |
(११) लाहेरी - रेलवे स्टेशन - यहां कुछ प्राचीन जैन स्मारक हैं। (१२) पसुपत्तूर - गुडियत्तन रेलवे स्टेशनसे २ मील | यहां प्राचीन जैन स्मारक हैं ।
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(१३) कोवनूरु-गुड़ियत्तन से पूर्व ८ मील । ग्राममें जैन स्मारक हैं ।
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(१४) सोरामूर - गुड़ियत्तन से पूर्व १३ मील व विरिचिपुरम् रेलवे स्टेशन से दक्षिण पूर्व ३ मील। यहां कुछ जैन स्मारक हैं । (१५) तिरुमणि - गुड़ियत्तनसे पूर्व १४ || मील । विरिची पुरम् रे० टे० से पूर्व ४ मील । यहां कुछ जैन स्मारक हैं । करवेटनगर जमीदारी ।
(१६) अरुनगुलम् - तिरुत्तरुसे पूर्व ८ मील । यहां बहुत प्रसिद्ध प्राचीन जैन मंदिर श्री धर्म तीर्थकरका है उनको पार्श्वनाथ
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७४ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
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मानके पूजा जाता है । ग्राममें एक पाषाण है जिसके अक्षर पढ़े नहीं जाते | इसके द्वारा पशुओंके रोग अच्छे हो जाते हैं । पोलूर तालुका ।
यहां ८४६ जैनी हैं |
(१७) तिरुमलाई - पोलरसे उत्तर पूर्व ७ मील, देविकापुरम्से ५ मील । अरनीसे १९ मील | कटपादी बिलपुर लाइन के मादिमंगलम् ष्टेशन से २ मील । यह जैनियों का पूज्य बहुत प्रसिद्ध पर्वत है । हमने इस पर्वतकी यात्रा सी० एस० मल्लिनाथजीके साथ ता० २१ मार्च १९२६को की थी । यह पर्वत थोड़ा ऊंचा बहुत स्वच्छ चट्टान सहित है। यहां ग्राम ५ उपाध्याय जैनियोंके घर हैं। मुख्य भूपाल उपाध्याय तथा शिखामणि शास्त्री व देवराज ऐय्यर हैं । पर्वतके ठीक नीचे बहुत प्राचीन मंदिर व सुन्दर गुफाएं हैं। एक गुफार्मे चार फुट ऊंची श्री बाहुबलि, श्री नेमिनाथ, श्री पार्श्वनाथ व कूष्मांडी देवीकी मूर्ति है। मंदिर में श्री नेमिनाथ, बाहर आदिनाथजी २ | हाथ ऊंची पल्यंकासन मूर्ति है । गुफा बहुत गहरी है । यहां जैन साधुगण विद्याभ्यास करते होंगे क्योंकि भीत व छतोंपर अनेक चित्र समवशरण, ढाईद्वीप व जम्बूद्वीप आदिके हैं । इसी हातेमें श्रीगद्यचि - न्तामणि ग्रन्थके कर्ता श्री मुनि वादीमसिंहजीकी समाधि है। एक दूसरा मंदिर है उसमें मिट्टीकी श्री वर्द्धमानस्वामीकी मूर्ति २ हाथ ऊंची बहुत सुंदर है। सीढ़ियाँ चढ़के पर्वतके ऊपर श्रीनेमिनाथजीकी कायोत्सर्ग मूर्ति १६ ॥ फुट ऊँची बहुत मनोज्ञ है । दर्शन करके जो आनंद आता है वह वचन अगोचर है और ऊपर जाकर एक मंदिरमें श्री पार्श्वनाथजी की मूर्ति कायोत्सर्ग १ ॥ हाथ है । पर्वतके
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मदरास व मैसूर मान्त |
[ ७५ बिलकुल ऊपर १ || फुट लम्बे चरणचिह्न हैं । कुछ और चरणचिह्न हैं। यहां बहुतसे लेख है जिनकी नकल South Indian Inscriptions Vol. I में मुद्रित है जिनका भाव नीचे दिया जाता है । यहां यह प्रसिद्ध है कि जो १२००० मुनिसंघ श्री भद्रबाहु श्रुतकेवलीके साथ दक्षिण आया था उनमेंसे ८००० मुनियोंने यहां विश्राम किया था |
शिलालेखोंका भाव |
( नं ० ६६) - तिरुमलाई पर्वत के नीचे गोपुर के सामने एक गड़ी हुई चट्टानपर १०वीं शताब्दी के राजा राजदेवके २१ वें वर्ष के राज्य में गुणवीर मामुनिबनने जो बैगई ग्रामका स्वामी था एक पानी रोकने की आड़ बनवाई जिसको विद्वान जैन आचार्य गुणिशेषर मरु पोरचुरियमके नामसे प्रसिद्ध किया ।
वैई या वैगपुर वह गांव है जो इस पर्वतके नीचे बसता है । नं० ६७ - गोपुर के ऊपर चट्टान पर - कोपर केशरवर्मन या उदय्यर राजेन्द्र चोलदेव के १२ वर्षके राज्य में पेरुम्वानय्यदी अर्थात् करट्टवऊ - मल्लियुर के निवासी व्यापारी नन्न पयनकी स्त्री चामुंडप्पईने श्री कुंदवजिनालयको दान किया। यह जिन मंदिर पर्वतके ऊपर है । इसको महाराज राजराजकी कन्या, महाराज राजेन्द्र चोलकी छोटी बहन या पूर्वीय चालक्य विमलादित्यकी स्त्री कुंदवईने बन
वाया था ।
नं० ६८ - गोपुर और चित्रित गुफा के मध्य सीढ़ियोंके नीचे चट्टान पर - कोपरकेशरी वर्मनके १२वें वर्ष के राज्यमें पल्लव राजाकी स्त्री सिन्नवईने मंदिर के देवके लिये दीपक जलानेको दान किया ।
मुझे
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___७६] प्राचीन जैन स्मारक ।
___ नं०६९-द्वारके पूर्व तिरुमलईके नीचे मंडपकी भीतपर कौमारवर्मन त्रिभुवन चक्रवर्ती वीर पांड्यदेवके १० वें वर्षके राज्यमें 'पांडप्पा मंगलम्के स्वामी अम्बलपेरूमलया शीनत्त रैयनने पर्वतके निकट एक आड मुदगिरि सरोवरके लिये बनवाई।
नं. ७०-पहाडीके नीचे द्वारके दाहनी तरफ मंडपकी भीतपर राजनारायण संवुवराजके १०३ वर्षके राज्यमें पोनूर निवासी मन्नई पीन्ननुईकी कन्या नल्लात्तालने वैगइतिरुमलईपर जैन मूर्ति स्थापित की तथा पवित्र विहार नायनार-पन्नेयिलनाथके नामका बनवाया । ___नं० ७१-ऊपरके स्थानपर-अरुलमोरी देवरपुरम्के इडहयरन अप्पनके ज्येष्ठ पुत्र व भाइयोंने एक कूप बनवाया ।
नं. ७२-उपरके मंडपकी दक्षिण भीतपर शाका १२९६में वीर कम्वन ओडइयरके पोते व कम्वन ओडइयरके पुत्र ओम्मन ओडइयरके राज्यमें विष्णुकम्बली नायकने अपने खर्चसे भूमि दान दी।
नं०७३-चित्रित गुफाके नीचे छोटे मंदिरमें राजा कृष्णराजके राज्यमें तिरुमलईके आचार्य परवादीमल्लके शिप्य कउइककोन्तूरके अरिष्टनेमी आचार्यकी आज्ञासे यक्षीकी स्थापना हुई।
___ नं०७४-चित्रितगुफाको जानेवाले द्वारकी बाहरी भीतपर त्रिभुवन चक्रवर्ती राजराजदेवके १० वें वर्षके राज्यमें शाका ११५७-५८ में राज गम्भीर संवृ व रायन अट्टी मल्लान व संबूकुल पेरुमल उपाधिधारीने रानगंभीर नल्लूर ग्राम, ईरालपेरूमनके पुत्र अन्दंगलगल रापरको दिया ।
नं७५-ऊपरके स्थानपर-कैरलके यवनिकाके कुलमें प्रसिद्ध राजराजके पुत्र चीरांवंशी व्याप्रक्तश्रवणोज्वलने, जिसकी राज्यधानी
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मदरास व मैसूर मान्त। [७७ तकटामें थी, यवनिका द्वारा स्थापित यक्ष ब यक्षिणीकी मूर्तियोंका जीर्णोद्धार कराया और पर्वतपर स्थापित की तथा इस तिरुमलई पर्वतः पर जिसको अरहसुगिरि ( अरहंतोंका सुन्दर पर्वत ) कहते हैं एक पानीकी नहर बनवाई।
नं० ७६-गुफाके भीतरी हारपर-नं. ७५के समान ।
नं. ७७-गुफाके द्वारके भीतर-अम्बरके पुत्र करिया पेरुमलने पर्वतके सरोवर में पानी लानेको एक आड़ बनवाई।
नं० ७६का लेख संस्कृतमें हैं सो नीचे प्रमाण है--
"श्रीमत्केरलभूभृता यवनिका नाम्ना सुधर्मात्मना | तुंडीराहवय मंडलाह सुगिरौ यक्षेश्वरौ कल्पितौ। पश्चात्तत्कुलभूषणाधिकनृप श्री राजरानात्मजे व्यामुक्तश्रवणोज्वलेनतकटानाथेन जीर्णोद्धतौ”।
मदरास एपिग्राफी दफ्तरमें यहांके चित्रादि नीचे प्रकार हैं
(१) नं० सी १२-बाहरी परिक्रमा स्थापित एक मूर्ति, गुफाके नीचे कमरेमें एक खड़े हुए गोल पाषाणमें मूर्तियोंका संग्रह व पर्वतके पश्चिम सरोवरके निकट एक स्थापित मूर्तिके चित्र ।
(२) नं० सी १३-पश्चिम कोने में नीचेके खनमें जो धर्म देवस्थान मंदिर है उसके आलेमें जैन मूर्तियां ।
(१८) पोडवेडु-यह स्थान बहुत ही ऐतिहासिक है । यह सैकड़ों वर्ष राज्य करनेवाले बलवान वंश कुरुम्बोंका मुख्य नगर था। इसका घेरा १६ मीलमें था । यह मंदिरोंसे भरपुर था ।
___(१९) जवादी पहाड़िया-पोडवेडुके ऊपर-उत्तर अर्काटके दक्षिण पश्चिम ३००० फुट ऊंची चोटी है। यहां ऐसे चिह्न हैं जिससे प्रगट होता है कि बहुत प्राचीनकालमें यहां एक सभ्य जाति
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७८ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
रहती थी। यहाँ हिन्दुओं के मंदिरोंके स्मारक हैं व कुछ लेख कोवि-लनूरपर है जो पत्र कूडसे कोमटिपूर के मार्ग में है । तालुका वाला जावेत ।
(२०) पेरून गिंजी - यह प्राचीनकालमें जैनियोंका मुख्य स्थान था । सरोवर के पास व बड़े वृक्षके नीचे जैन मूर्तियां दिखलाई पड़ती हैं। (२१) महेन्द्रवाड़ी - यह सरोवर सहित ग्राम है। किसी समय यह एक बड़ा नगर था । किले की भीतें दिखती हैं। घेरेके भीतर एक छोटा मंदिर खोदा गया है यह जैनियोंका मालूम होता है । इसपर लेख है जो पढ़ा नहीं गया । बंडीवाश तालुका |
(२२) तेल्लार - टिंडीवनमूको जाते हुए सड़क के ऊपर एक ग्राम है। यहां देसूरके समान जैनियों के पूजाका स्थान है ।
(२३) तेरुक्काल- बंदिवाशसे पश्चिम दक्षिण ८ || मील | यहां पर्वतके ऊपर तीन जैन मंदिर हैं व तीन गुफाएं हैं, बहुतसी जैन मूर्तिये हैं व तामीलमें लेख है कि चोलराजा परकेशरी वर्मन के तीसरे वर्ष राज्यमें नलवेलई निवासी नंदो अर्थात् नरतुंगपल्लव रायनने पोन्नेरनादमें तंदपुरम्की जैन वस्तीके लिये घीके वास्ते एक भेड़ भेट की । (२४) देमूर - दिवाशसे दक्षिण पश्चिम १० मील। यहां जैन मंदिर है व जैन रहते हैं ।
(२५) वैनकुनूरम् - चंदिवाशसे उत्तर ३ मील। यहां जैन मंदिर है ।
(२६) पोन्नूर पहाड़ी -बंदीवाशसे ६ मील एक छोटी पहाड़ी। इसकी यात्रा हमने सी० एस० मल्लिनाथजी के साथ ता० १९ मार्च
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मदरास व मैसूर प्रान्त । १९२६ को दुबारा की थी। यह पहाड़ी ३. फर्लाग ऊंची है। ऊपर नाकर एक शिलापर वृक्षके नीचे श्री कुंदकुंदआचार्यके चरणचिह्न हैं। ये दो वालिस्त लम्बे बहुत प्राचीन हैं। यह आचार्य वि०स० ४९में प्रसिद्ध हुए हैं। यह बड़े योगी व दार्शनिक थे। दिगंबर जैनी इनको महापूज्य मानते हैं। इनके ग्रन्थ श्री पंचास्तिकाय, श्री प्रवचनसार, श्री समयसार, श्री नियमसार, द्वादशभावना आदि बहुत प्रसिद्ध हैं व अध्यात्मरससे पूर्ण हैं। यहां स्वामीने तपस्या की थी, आसपासके ग्रामोंके भाई पूजनार्थ सदा आते रहते हैं। यहां आरानिवासी जमीदार धर्णेन्द्रदास जैन ब्रह्मचारीने नीचे एक आश्रमं व चैत्यालय बनवा दिया है । ध्यान करने के इच्छुक यहां निवास कर आत्मकल्याण कर सक्ते हैं।
मदरास एपिग्राफीके दफ्तरमें कुछ चित्रादिनं० सी १४-करिकत्तरमें गणेश मंदिरके पास खेतमें एक जैन मूर्ति है। नं० सी १५-चन्द्रगिरिके राजमहलके सामने एक भैन मूर्ति है । नं० सी १००-वेंगुरम ग्राममें जैन मूर्ति । नं० सी १०१- " " नं० सी. १०२- " " नं० सी १०३-तिर्राकोलमें चट्टान मूर्ति सहित ।
__ (१३) सालम जिला।
यहां ७५३० वर्गमील स्थान है । चौहद्दी है-उत्तरमें मैसूर व उत्तर अर्काट, पूर्वमें दक्षिण व उत्तर अर्काट और ट्रिचनापली, दक्षिणमें ट्रिचनापली और कोयम्बटूर, पश्चिममें कोयम्बटूर और मैसूर राज्य।
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८० ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
इतिहास - प्राचीनकाल में उत्तर भागमें पछवोंने राज्य किया व दक्षिण भाग कोंगूराज्य में गर्भित था । नौमी शताब्दी में चोल राजाओंने कुल लेलिया । पीछे होयसालवंशी बल्लालोंने राज्य किया । । सन् ८१५ में यहां राष्ट्रकूट वंशी गोविंद तृ०का राज्य था । फिर उसके पुत्र अमोघवर्ष प्रथमने ६२ वर्षतक राज्य किया । यह धार्मिक स्वभावका था, जैन धर्मका पक्का भक्त व साहित्यका रक्षक था (He was religiously minded, a devout supporter of Jain faith and a great patron of literature).
होयसालवंशी विष्णुवर्द्धनका मंत्री गंगराजा था । यह तीन बड़े जैनधर्मके रक्षकों में से एक था । वे तीन थे - चामुंडराय मंत्री मारसिंह, तलकाड गंग मंत्री विष्णु० और हुछा मंत्री होयसाल नरसिंह प्रथम | कुछ चोल राजाओंने जैन मंदिरोंको नष्ट किया व स्थानीय जैन धर्मका उल्लंघन किया । १४वीं शताब्दी में विजयनगरके राजाओं ने लेलिया । १७वीं शताब्दी में मदुराके नायक राजाओंने राज्य किया । मैसूरके राजाने १६५२ में कुछ भाग लेलिया फिर १६८८--९०में चिक्कदेवराजाने, जो मैसूर में बड़ा प्रतापी था कुल लेलिया । १७६१ में मुसल्मानोंने कबजा किया |
मुख्य स्थान |
(१) धर्मपुरी - ता० धर्मपुरी-मदराससे १७८ मील मदरास, कलिकट, ट्रंक सड़कपर। यह मोरप्पूर होसुर लाइट रेल्वेका स्टेशन है । यहां विष्णु और शिवमंदिरसे कुछ ही दूर सेठी अम्मनका मंदिर है तथा सड़क की तरफ दो जैन मूर्तियां एक उंचे पाषाण पर अंकित हैं जिनको लोग रामक्का और लक्ष्मणका कहते हैं । इस
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [८१ सेठी मारि अम्मनके मंदिरमें एक कनड़ी भाषाका लेख राजा महेन्द्रका सन् ८७८ ई०का है (नं. ३०७ सन् १९०१) तथा इस ही महेन्द्रका दूसरा लेख मल्लिकार्जुन मंदिरके मण्डपके एक स्तम्भपर सन् (७३ का है। यह लेख कहता है कि तगदूरमें श्री मंगल सेठके पुत्र निधिपन्ना और चंदिपन्ना दो भाइयोंने जैन वस्ती अर्थात् मंदिरका निर्माण कराया । निधिपन्नाने राजा महेन्द्रसे मूलशल्लो ग्राम लेकर श्री विनयसेन आचार्यके शिष्य कनकसेनकी सेवामें वस्तीके जीर्णोद्धारके लिये अर्पण किया तथा अय्यप्पदेवने स्वयं इस वस्तीको बुदुगुरु ग्राम अर्पण किया तथा मारि अम्मन मंदिरका सन् ८७८का लेख कहता है कि राना महेन्द्रने मरुन्दनेरी नामका सरोवर किमो शिव गुरुको मेट किया था तथा तगदूरके वणिकोंने एक जैन वस्ती बनाई थी तथा मालपर कुछ कर देवदानके रूपमें बांधा था। यह बात जानने योग्य है कि नौमी शताब्दीमें जैन और शिवमत दोनों साथ साथ उन्नतिपर थे । नालम्ब गनाओंके अधिकारमें धर्मपुरी बहुत उन्नतिपर थी। अब यहां जैन वरतीके स्मारक नहीं मिलते हैं।
(२) सालेमनगर-यहां पुराने कलेक्टरके बंगले के सामने एक जैन मूर्ति बैटे आसन है जिसको लोक तलइ वेट्टी मुनि अप्पन कहते हैं और उसके सामने बकरोंकी बली होती है। दुसरी एक जैन मूर्ति नदीके तटपर है।
(३) आदमत कतई-धर्मपुरीसे दक्षिण पश्चिम ५ मील चार वीरकुलके आगे एक जैन मंदिर है। इसके पास श्रवणबेलगुलकी श्रीगोमट्टस्वामीकी बड़ी मूर्तिके समान एक खड़े आसन नग्न बड़ी मूर्ति है। उसके आसनपर लेख भी है उसकी जांच होनी चाहिये।
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८२] प्राचीन जैन सास्क।
(१४) कोयम्बटर जिला यहां ७८६० वर्गमील स्थान है। चौहद्दी है-पश्चिम और दक्षिणमें नीलगिरि पर्वत और अनहमलई जो ७००० फुट ऊँचा है। उसरमें पूर्वीय घाटी है।
इतिहास-इस जिलेमें अनेक समाधि स्थान हैं जिनको पांडवकुली कहते हैं। ये सब इतिहाससे पूर्वके अति प्राचीन निवासियों के हैं। इनमें मुख्य अनईमलई पर्वतके निकट हैं। कहते हैं कि कोयम्बटूरकी पहाड़ीपर पांडवराजाओंने वास किया था। इस जिलेको कोंगूनाद कहते हैं । यह प्राचीन चीरा राज्यका अंश है। मूल चीरा राज्य मलयालम् (केरल) और कोयम्बटूर व सालेमके कुछ भाग तथा मेसूरके घाट तक उत्तरमें व उत्तरपूर्वमें शेवराय तक था । पूर्वमें चोलराज्य व दक्षिणमें पांडवों का राज्य था। यह कोंगूनाम इसलिये 'पड़ा कि सन् १.८९में आकर उतर पश्चिमसे गंग या कोंगनी वंशके राज्यने आकर यहां शासन किया। कोंगनी वंश का पहला राजा कोंगनी वर्मा था, यह शायद कावेरीकी घाटीसे आप होंगे । सन् ८७८में चीरा वंशमे चोल रानाओंने ले लिया और २०० वर्ष राज्य किया। फिर १०८० में होयसाल बल्लालोंने राज्य किया । सन् १३४८में विजयनगरके राजाओं ने अधिकार किया। सन् १७०४ में मैसूरके चिक्कदेव रामाने शासन किया पश्चात् मुसलमान आ गए।
यहांके मुख्य स्थान । (२) कंजीकोविल-ता एरोड-ग्रहांसे ९ मोल आसपास पांच ग्रामों में अर्थान बेल्लाडू, तितूर, विजयमंगलम्। पुंडई तथा कोंगम पालइसममें जिन मंदिर हैं। विजयमंगलम्के मंदिरजीमें
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मदरास व मैसूर प्रान्त |
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श्री आदिनाथजीकी पद्मासन मूर्ति है व अच्छी नकाशी है। मंदिरके बाहर एक गहरा कूप है। कहते हैं इसे भीम पांडवने बनवाया था।
(२) करूर - ता० करूर । यह एक बहुत प्राचीन जगह है । होलिमी कहते हैं कि सन् ११० में यह चीरा राज्यकी राज्यधानी थी । प्राचीन तामील नाम करूर का तिरूवानिलाई ( पवित्र गोशाला ) है ।
(३) वस्तीपुरम् - ता० कोल्छेगाल । यहांसे १ मील दक्षिण । यह प्राचीन कालमें जैनियोंका नगर था। पीछे छोड़ दिया गया । अभी भी यह एक जैनमूर्ति है । पुराने जैनमंदिरके पाषाण कावेरी नदीपर शिवसमुद्रम् पास पुल बनाने के काममें ले लिये गए ।
(४) एरोडनगर - मदराससे २४३ मील। यहां दो प्राचीन मंदिर हैं जिनमें तामील और ग्रन्थ अक्षरोंमें बहुतसे लेख हैं ।
(५) पोल्लोची नगर - ता० पोछोची- यहां बादशाह आगस्टस और टाइवरियस के सिक्के मिलते हैं । प्रसिद्ध समाधि स्थान व पाषाणके घेरे हैं उनमें से कई भीतर से खोलकर देखे गए। ये १० से ४५ फुट व्यासके घेरे में हैं । भीतर मनुष्य खोपड़ी व हड्डी मिट्टी के व्रर्तन व शस्त्र ५ से ७ फुट लम्बे मिले हैं। तीन बिजोरकी मूर्तियें मर्द व स्त्रीकी इतिहाससे पूर्वकी हैं ।
(६) त्रिमूर्ति कोविल - उदमलपेट से दक्षिण पश्चिम ११ मील । पुंडीसे पूर्व दक्षिण २ | मील | यह ग्राम अनमलई पहाड़ी पर है जो समुद्र से २००० फुट ऊंची है । एक पाषाणका बना छत्र है । उसके पास आठ पाषाणकी जैन मूर्ति विरानमान हैं ।
(१) मदरास एपिग्राफी दफ्तर में नीचे लिखे चित्रादि हैं - विजयमंगलम् के जैन मंदिरके गोपुरके द्वारकी छन का नकशा नं० सी २०१
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प्राचीन जैन स्मारक. 1..
(१५) दक्षिण अकर्ट जिला ।
यहां मूमि ५२१७ वर्गमील है । चौहदी है - पूर्व में बंगाल खाड़ी, दक्षिणमें तंजोर व त्रिचनापली, पश्चिममें सालेम, उत्तरमें उत्तर अर्काट और चिंगलपेट । फ्रांसीस लोगों के अधिकारमें जो पांडिचरी है वह इसी जिलेमें है ।
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इतिहास - यहां इतिहासके पूर्वके लोग रहते थे । ये लोग कलरायन पहाडियों पर पाए जानेवाले पाषाणकी कोठरियोंके बनानेबाले थे । समाधिस्थान इतिहास के पूर्वके यहां बहुत हैं जिनके भीतर हड्डी, मिट्टी के वर्तन व लोहा मिलता है । सबसे बढ़िया देवनूर में हैं। जिंजीसे पश्चिम ७ मील सत्तियमंगलम् में अनुमान १२ हैं । सबसे बड़ा स्थान ३० फुट व्यासमें व २४ पाषाणोंका बना है । सित्तममुंडी से दक्षिण बरिक्कल, अत्तियूर, टोचनपट्टू, यंडव समुद्रम् व सेंजीक्कन्नटूर ग्रामोंमें भी ऐसे स्थान हैं तथा नम्बई में हैं जो तिसक्कोयिलोरसे उत्तर पश्चिम ११ मील है । तथा कल कुर्ची के पलंजमरुकु, कोंगरई व कुगईयूर ग्रामों में और संसे बालुका के कुंडलूर में है जहां ४० से ५० तक हैं ।
तिरुवन्न मलई व तीरुक्कोयिल्लूर में जो समाधिस्थान हैं उनके सम्बन्धमे यह प्रसिद्ध है कि ये ६०००० ऋषियोंके निवासस्थान हैं। तीरुक्कोयिलूर के देवनूर स्थान में जो समुदाय है उनमें एक बड़ा पाषाण १६ फुट ऊंचा व ८ फुट चौड़ा ६ इंच मोटा खड़ा है । इसको कचहरी काल या सुननेवाला पाषाण कहते हैं ।
इतिहास के समय का पता पछवके राजाओं तक लगता है जो कंजीवरम् में ४थी से ८वीं शताब्दी तक राज्य करते थे । इस वंश के
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[द आधीन जो भाग तोंडइमंडलमूका था उसमें यह जिला शामिल था। समुद्रगुप्ताका चौथी शताब्दीका अलाहाबादका लेख कहता है कि उस समय कंजीवरम् में राजा विष्णुगोप राज्य करते थे । छठी शताब्दी के अंतमें पलवराजा सिंहविष्णु था । उसका पुत्र महेन्द्रवर्मन प्रथम था । उसने तिरुवापुलियर में शिवमंदिर बनवाया था । तामील भाषाके पेरिया पुराणभर में इस मंदिरके सम्बंध में कथा दी है । इस पुराणमें ६३ शिवमती साधुओंके चरित्र हैं । इसीमें लिखा है कि अप्पर नामका शैवयोगी था उसको पहले तो पलक राजाने कष्ट दिया परन्तु फिर उसकी प्रतिष्ठा की । यह महेन्द्रबर्मन प्रथम था । यह महेन्द्रवर्मन मूलमें जैनी था परन्तु अप्पर ने इसको शैवमती बना लिया तब इस राजाने पाटलीपुर ( तिरुपावु लुथरका प्राचीन नाम यह है । ) में जैन मंदिरको ध्वंश किया और उसके स्थान में शिव मंदिर बनाया, उस मंदिरको अब गुणधर विच्छरम् कहते हैं । नौमी शताब्दी में गंग पल्लवोंने राज्य किया । उनके ताम्रपत्र फ्रान्स राज्य के बाहर स्थानपर व नौमी शताब्दी के दूसरे तीन तिरुक्कोयिलूरमें पाए जाते हैं । १० वीं शताब्दी में तंजोरके चोलोंने राज्य किया । राजा राजादित्यको मलखेड़के राष्ट्रकूटोंने मार डाला तब कृष्ण तृ० ने चौलोंपर हमला किया था और कंजीवरम् व तंजोर ले लिया था । फिर चोलोंने १० से १३ शताब्दी तक राज्य किया । उनका प्रथम राजा राजाराज प्रथम ९८५ से १०१३ ई० तक हुआ व अंतिम राजा राजराम तृ० (सन् १२१६-१२३९) था । इसको सर्दार कोव्वे रुन् जिन्ने कैदकर लिया तब द्वार समुद्रके होयसाल राजा नरसिंह द्वि० ने छुड़ाया ।
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प्राचीन जैन स्मारक । फिर पांडवोंने, फिर केरलोंने, फिर होयसालोंने, पीछे मुसल्मानोंने राज्य किया। यहां : ओडइपर सर्दारोंने राज्य किया। उनमेंसे एकको विजयनगरके हरिहर द्वि० ने जीत लिया। उसके नामका लेख सन् १३८२ का पाया गया है ।
जैन लोग-इस जिलेके गजटियर जिल्द १ सन् १९०६में पृष्ठ ७६में जो हाल दिया है वह नीचे प्रमाण है__इस जिलेमें करीब ५००० जैनी हैं। उनमेंसे टिंडीवनम् तालुकामें करीब ४०० ० हैं व ७०० बिल्लुपुरमें हैं। कुछ वृद्धचलम् और कल्चकुर्ची ता० में हैं। इसमें संदेह नहीं कि प्राचीनकालमें जैन धर्म यहां बहुत जोरमें था। यह भी कहावत है कि यहां श्री कुंदकुंदाचार्य और उमास्वामी महाराजने वास किया था जो विक्रमकी प्रथम शताब्दीमें दिजैन आचार्य होगए हैं।
गमीलपुराण पिरियपुराणम्में लिखा है कि पाटलीपुत्र ( वर्तमान नाम तिरुपायुलियूर है ) में एक जैन मठ और एक विद्यालय था। शैव साधु अप्पर जैन विद्यालयमें विद्यार्थी था। यह पहले जैन था परंतु इसकी भगिनीने इसे शिवमतमें बदल लिया। स्थानीय राजा महेन्द्रवर्मा प्रथम था। यह जैन था परन्तु इसने अपना मत बदलकर शिवमत कर लिया तब इस राजाने जैनियोंका ध्वंश किया । इसके पीछे फिर जैनियोंका प्रभाव जमा । कुछ काल पीछे फिर नैनियोंको नष्ट किया गया जिसका वर्णन मैकेंनी साहबके संग्रहीत लेखोंमें है।
सन् १.४७८ ई० में जिंजीका राजा वेंकटाम येट्टइ वेंकटापति था। यह कवरई जातिमेंसे नीच जातिका था।
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[ ८७ इसने स्थानीय ब्राह्मणोंको कहा कि वे अपनी कन्या विवाह देवें । ब्राह्मणोंने कहा कि जैन लोग यदि व्याह देंगे तो हम भी कन्या देंगे तब वेंकटपतिने जैनियोंसे कन्या मांगी । तव उन्होंने परस्पर सम्मति करके इस अप्रतिष्ठाको पसंद नहीं किया । उन्होंने राजाको यह बहाना बता दिया कि एक जैन अपनी कन्या दे देगा । नियत दिन नेकटराजा विवाह के लिये कन्याके घर गया परंतु वहां देखा कि घर में कोई न था, नात्र एक कुतिया बरामदे में बंधी थी इसपर वह क्रोधित हो गया और आज्ञा दि कि सब जैनियोंके मस्तक काट डाले जायें। तब बहुतसे भाग गए, बहुतसोंके मस्तक काटे गए । कुछ छिपकर अपना धर्म पालने लगे । कुछ शिव धर्म में बदल गए । कुछ काल पीछे एक जैन गृहस्थ जिनका पीछे नाम वीरसेनाचार्य हुआ था, टिन्ड़ीवनमूके निकट वेलूर में एक वापीके पास पानी छान रहे थे तब राजाके कुछ अफसरोंने उसको जैनी जानकर पकड़ लिया और राजाके पास ले गए। उस समय राजाके पुत्रका जन्म हुआ था, वह पसन्न था । उसने उसको छोड़ दिया । तब वह श्रावक श्रवणबेलगोला गए और जैनधर्मका विशेष अध्ययन किया और मुनि हो गए, यही वीरसेनाचार्य प्रसिद्ध हुए । इसी समय जिंजी प्रदेशका एक जैनी जो टिंडीवनम् तालुकाके तायनर ग्रामका निवासी गंगप्पा ओडइयर था त्रिचनापलीमें जाकर ओडइयर पालइयम जमींदारकी शरण में रहा । उसने मित्रवत रक्खा तथा कुछ भूमि दी । वह श्रवणबेलगुल गया और वहांसे श्री वीरसेनाचार्यको साथ लाया और उनका विहार जिंजी देशमें कराया । जो जैमी शिमवती हो गए थे उनको फिर जैन
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८८] माचीन जैन स्मारक। मतपर आरुढ़ किया । जो जैन थे और जनेऊ पहनते थे उन्होंने जनेऊ निकाल दिया था, मस्तक पर भम्म लगाते थे और अपनेको निरपुसी वल्लाल अर्थात पवित्र भस्म लगानेवाले कहते थे वे जैनी होगए । अभीतक उनका यह नाम चला जाता है । वीरसेनाचार्यने जैनधर्मका प्रभाव फैला दिया। इनका समाधिमरण वेलूरमें हुआ। ये मुनि महाराज श्रवणबेलगोलासे
श्री पार्श्वनाथजीकी धातुकी मूर्ति लाए थे सो वेलूरके मंदिरमें विराजमान है । इस गंगप्पा ओडयरकी संतान अभीतक तायनूरमें वास करती हैं क्योंकि इस वंशने जैनधर्मकी अपूर्व सेवा की थी इसलिये जब दावत होती है तब सबसे पहले इस वंशवालोंको पान दिया जाता है तथा टिंडीवनम् तालकाके सीतामूरमं जब भट्टारक महारानका चुनाव होता है तब इस वंशवालोंकी मम्मति मुख्य समझी जाती है । टिंडीवनम् तालुका जैन लोग अब भी उच्च पदमें हैं। उनमें धनिक व्यापारी व बहुत बुद्धिमान कृषक है। इनकी उपाधि नेनार और ओडइयर है परन्तु उनके सम्बन्धवाले जो जैनी कुम्भकोनम् व अन्यत्र हैं वे अपनेको चेट्टी या मुडैलियर कहते हैं। दक्षिण अर्काटके सब जैन दिगम्बर जैन है-ऐसे ही मदरासके दक्षिण सव जैनी दि जैन हैं। ये परस्पर स्वतंत्रतामे संबंध करते हैं।
यहांके मुख्य स्थान । (?) कुजलोर-तिरुपायुलियरका नया नाम । अब यहां कोई विशेष महत्त्व जैनियोंका नहीं है परन्तु प्राचीन कालमें यह स्थान जैनधर्मका केन्द्र था । एक खंडित जैन तीर्थकरकी पाषाण मूर्ति चार फुट ऊंची उस सड़कके पश्चिम खड़ी है जो मौना कुप्पममें
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[ ८९ यात्रीके बंगले से होकर पोन्नइयारकी ओर जाती है। यहां एक मंदिर ८वीं शताब्दीका है जिसमें चोल राजाओंके लेख है । एक लेखमें एक पांड्य राजा द्वारा भूमिदानका वर्णन है ।
(२) किलरुंगुनम् - ता० कुड्डलोर । तिरुवेंदीपुरम्से पश्चिम ४ मील | यहांसे वनरुतीको जानेवाली सड़कपर । कुड्डुलोर और
कुप्पमको जानेवाली सड़कोंके मेलपर किलकुप्पम् ग्रामके पास ग्रामकी देवी मंदिरकी भीतके सहारे एक जैनमृति खड़ी हुई है यह बैठे आसन छत्र सहित है, नग्न है, भूमिमेंसे निकली है ।
(३) तिम्वादी - कुड्डालोर से पश्चिम १४ मील पनरुतीकी सरकपर | इस स्थानका प्राचीन इतिहास है। आठवीं शताब्दी तक पलों और गंगवों के समयमें यह मुख्य नगर था जिसके शासक सब जनी थे । तामिल साहित्य में इनका वर्णन है कि इनकी उपाधि आदि गैनम् थी । इनका शासन सालेम जिले में धर्मपुरी तथा कम्बा नेल्ल्टर तक था । (Epi. Indi Vol. 331 ) ग्रामके खेतोंने दो बड़ी जैन मूर्तियां पाई गई हैं । दोनों नग्न हैं । एक ४ || फुट ऊंची बेटे आसन है जो शिवमंदिरके हातेमें विराजमान है। दूसरी ३ || फुट ऊंची बेटे आसन है वह तिरुवेंदीपुर मके कोन्नरप्प नायक कन्वेनई में विराजमान की गई है। इस एपिग्रैफिका जिल्द ६के देखने से पता लगता है कि इस स्थानका सम्बंध उस शिलालेख नं० ७५ से है जो उत्तर अर्काटके पोल्लर तालुकामें तिरुमलई पर्वत पर है । इस लेखमें तीन राजाओंके नाम आए हैं(१) एलिनीयायवनिका, (२) राजराजपावगन, (३) व्यामुक्तश्रवणोज्वल या विदुगदल गिय पेरूमल । एलिन कोचीन राज्य में केरलके
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प्राचीन जैन स्मारकाः । राजा थे। चीरावंशी रानाओंकी राज्यधानी केरल या मलवार या वाननी थी जिसका वर्तमान नाम चेरूमान पेरुमाल कोहलूर है जो कोचीनमें तिरुवंनी कुलम्के पास है। एलिन और राजराजकी उपाधि आदिगैनम् या आदिगैमान थो अर्थात आदिगईके स्वामी। इसी आदिगइको वर्तमानमें तिरुवादी कहते हैं। तीसरा राजा तकतामें राज्य करता था। वर्तमानमें तकताका नाम धर्मपुरी है जो सालेम निलेमें है । एलिनके वंशमें राजराज था उसका पुत्र विदुगद व गिनपेरूमल था-ये सब जैनधर्मके माननेवाले थे।
(४) सिंगवरम्-ता० टिंडीवनम्-जिंजीसे उत्तर २ मील । सिरुकदम्बूर सरोवरपर जो छोटीमी चट्टान है उसपर प्रसिद्ध जैन स्मारक हैं। एक बैटे आसन मूर्ति ४॥ फुट ऊंची एक बड़े पाषाणपर खुदी है। दूसरी बड़ी चट्टानपर एक कायोत्सर्ग नग्न मूर्ति है व २४ जैन तीर्थंकरोंकी मूर्तियां अंकित हैं। यहां दो शिलालेख हैं जिनमें दो जैनाचार्योंके समाधिमरण करनेका वर्णन है। एक मुनिने ३० दिनका उपचास व दूसरेने ५७ दिनका उपवास करके समाधिमरण किया था। ___(५) सित्तामृर-(मेल)-टिंडीवनम्से उत्तर पश्चिम १० मील। यह जैनियोंका केन्द्र है । भट्टारकनी महाराज रहते हैं । यहां उनका सुन्दर मठ है व प्रसिद्ध मंदिर हैं । बहुत ही जानने योग्य वस्तु बड़े मंदिरमें तिर्मुत्ती या पाषाणका मंडप है जहां रथ विहारके पीछे अभिषेकके लिये प्रतिमाको विराजमान करते हैं । यह सन् १८६० में जिंजीके वेंकट रामन मंदिरसे श्री बलि इस नामके नैन डिप्टी कलेक्टर द्वारा लाया गया था। इसमें बहुत सुन्दर
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[ ९ कारीगरी है । मंदिरके उत्तर कमरे में एक बड़ी जैनमूर्ति नेमिनाथस्वामीकी विराजित है जो मदरासके मैलापुर जैन मंदिर से लाई गई। है। यहां ताड़पत्रों ग्रन्थोंका संग्रह है इनमेंसे १७ ग्रन्थों का हाल Dr: Oppert's List of Sanskrit Manuscript in south India P. 29 में दिया है । इनमें एक ग्रंथ सन् ७५० का हुआ व दूसरा सन् १२०० का लिखा हुआ है। मैकंजी साहब के एक लेखमें विक्रम चोलका लेख है जो नोल राजा सन् १९१८ से
११३५ तक राज्य करता था । इसने यहां के जैन मंदिरको भूमि दान की थी। हमने इस ग्रामका दर्शन सी० एस० मल्लिनाथजीके साथ ता० १८ मार्च १९२६ को किया था । भट्टारक लक्ष्मीसेनजी मिले थे। इनकी आयु १६ वर्षकी है। धर्मरोचक हैं। यहां जैनियोंके ६० घर हैं । मठ बहुत सुन्दर बना है । एक हाते ये दो मंदिर हैं उनमें प्रतिमाएं प्राचीन हैं व खंभोंमें अच्छी कारीगरी हैं । एक स्थानपर चरणनि बहुत से हैं व गौतम गणधरकी पाषाणकी मूर्ति बैठे आसन पीली कमण्डल सहित है | नवग्रहकी मूर्तियां भी हैं। एक नया मंदिर बहुत सुन्दर तयार होरहा है । यहां बहुत से लेख ग्रंथ भाषामें हैं ।
(६) डीनम् - यहां एक बागमें एक जैनमूर्ति बेटे आसन तीन छत्र व चमर सहित है जो जिंजीसे लाई गई है ।
(७) टोंडर - निजीसे ८ मील | इस ग्रामके दक्षिण १ मील एक पहाड़ी है जिसको पंच पांडव मलई कहते हैं । यहां दो 1 गुफाएं हैं इनका परस्पर सम्बंध है । इनके पास गुफाकी भीत पर एक जैन मूर्ति २ फुट ऊंची सर्प फण सहित खुदी है । ग्रामके
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उत्तर एक बड़ी चट्टान पर एक लेटे आसन मूर्ति फण सहित १० फुट लम्बी खुदी हुई है | वास्तव में यह स्थान जैन साधुओंके
ध्यानका आश्रम था ।
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(८) तिरुनिरन कोनरई - तिरुक्कोयिल्लूर तालुकासे पूर्व दक्षिण १२ मील | ग्रामके उत्तर एक पहाड़ी ८० फुट ऊँची है जिसके ऊपर दो चट्टाने हैं वहांतक सीढ़ियां गई हैं । इनमें से एक पर एक जैन तीर्थङ्कर श्री पार्श्वनाथजी की मूर्ति ४ फुट ऊँची खड़े आसन फण सहित है । इस चट्टानके ऊपर शिखर के समान दूसरी चट्टान है जिसपर लेख है। पहाड़के ऊपर जहांतक सीढ़ियां गईं हैं पहुंचकर एक वृषभनाथ तीर्थंकरकी जैन मूर्ति बिराजित है जो पनरुती सड़क के पास तिरुक्कोयिल्लूर से दक्षिण पूर्व ९ मील पवुन्दर ग्रामसे लाई गई है ।
(९) कोलियन्द्र - ता० विल्लुपुरम् | यहांसे पूर्व ४ मील । एक जैन मंदिर के स्मारक हैं ।
(१०) विल्लपुरम - कुड्डुलोरसे उत्तर पश्चिम २४ मील | यहां पहले जैन मंदिर था । अब तातेपार्क नाम बागमें कुछ खंडित जैन मूर्तियां खड़ी हुई हैं ।
(११) पेरुमंदूर - टिंडीवनम् से दक्षिण पश्चिम ४ मील । यहां दो जैन मंदिर हैं । शिलालेख सहित हैं ।
(१२) एल्लानासूर - तिरूकोइलर से दक्षिण १६ ॥ मील । यहां प्राचीन जैन मंदिर हैं ।
(१३) अरियन कुप्पन - ( पांडिचेरी में ) यहां एक जैनमूर्ति बैठे आसन ४ फुट ऊँची है । मदरास एपिग्राफी दफ्तर में यहांके
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मदरास व मैसूर प्रान्त । चित्रादि नीचे प्रकार हैं--- नं० सी १९-सीत्तामूरके जैन मंदिरका नकशा ।
(१४) सिरुकदम्बूर-यहां १२ जैन साधुओंके चित्र चट्टानपर खुदे हैं। उनका चित्र नं० सी १०७ है। (सन् १९२४) नं० ८२० फोटो तिरुवादीके जैन मंदिरकी एक मूर्तिका । नं० सी ११ जिंजीके किले के पास २४ तीर्थकरों-उनका फोटो।
(१६) तंजोर जिला यहां ३७१० वर्मल स्थान है। चौहद्दी इस भांति हैउत्तरमें त्रिचिनापली और दक्षिण अर्काट, पश्चिममें पुडकोट्टईका राज्य और त्रिपनापली, दक्षिणमें मदुरा ।
इतिहास-तंबोर गनटियर (मन् १९०६) में लिखा है कि चोलबंशका अस्तित्त्व मन ई में पूर्व २६० वर्षतक मिलता है। चोलों का राज्य यूनानके भूगोलनोंको मालूम था। इनका वर्णन रोलिमी (: 'to!enly) ने सन् १२० ई० में व पेरिप्लप मारिस एवरेने २४६ सन् ई० में किया था । वे कहते हैं कि इनकी राज्यधानी उइरयर पर थी जो अब त्रिचिनापली शहरके बाहरका स्थान है । चोलोंने सीलोनपर २४७ सन् ई० से पहले चढ़ाई की थी। ताम ल काव्योंमें चोल राजाओंका वर्णन है । . सबसे प्राचीन प्रसिद्ध राना कळलचोल हुआ है जो सन् ई० ५० और ९५के मध्यमें था। उसका पुत्र नलन्कल्ली था जो सन् १०२तक राज्य करता रहा। उसका पुत्र किल्लिवाहन था, तब उसके
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प्राचीन जैन स्मारक । भ्राता पन्नारकल्लीने सन् १५० तक राज्य किया। तामील पेरियपुराणम्के अनुसार एक चोल राजकुमारीने पांडव राजाके साथ विवाह किया। यह राजा जैनी था । रामकुमारी शिवभक्त थी। राजकुमारीने शिवालीके शिवसाधु तिरुज्ञान सम्बन्धरकी सहायतासे राजाको शिवभक्त कर लिया।
चालुक्योंने ७वीं शताब्दीमें, फिर गंगपल्लवोंने, फिर चोलोंने यहां राज्य किया। उनका प्रसिद्ध राजा राजरान प्रथम सन् ९८५में हुआ है । इसने सन् १०११ तक राज्य किया। यह बड़ा प्रतापी था। इसने बहुतसे मकान व मंदिर बनवाए। १३ वीं शताब्दीमें तंजोर द्वारसमुद्र के होयसाल वल्लाल और मदुराक पांडव राजाओंके हाथमें चला गया । १४वीं में यह विजयनगर राज्यका भाग हो गया। १७वीं शताब्दीके प्रारंभमें तं नोरमें नायकवंश स्थापित हुआ।
पुरातत्व-तिरुवल्लूरका मंदिर बहुत प्रसिद्ध हैं। कहते हैं इसे राजराज प्रथमने बनवाया था । दूसरे मंदिर आलमगुडी, तिरुप्पुनदुरुत्ती देवाराममें हैं। ये सातवीं शताब्दीके होंगे। लेख तामील और ग्रन्थ अक्षरोंमें १०वीं शताब्दीके पूर्वके हैं। कुछ भेटें पांड्य राजा
ओने की है । मन्नारगुडी व तरुवद मरुदूरके मंदिरों में होयसाल, विजयनगरके समयके लेख हैं। कुछ लेख नायक और मराठोंके हैं।
जैन लोग-इस जिले में ६०० हैं। अधिकतर मन्नार गुड़ी और तंबोर तालुकामें हैं । जैन मंदिर जो मन्नार गुड़ीमें हैं व ता. नन्निलममें दीपनगुड़ीका जो मंदिर है उनके दर्शन करने को बहुत यात्री आते हैं। नेगापटममें एक जैन मंदिर था जिसके दर्शन करनेको यात्री ब्रह्मदेशसे भी आते थे।
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यहांके मुख्य स्थान । (1) कुंभकोनम् नगर-मदराससे १९४ मील । यहां (७ मैन हैं । यह प्राचीन स्थान है । पुराना नाम मलइकुर्रम है जो सातवीं शताब्दीमें चोलवंशकी राज्यधानी थी । शंकराचार्यके मठमें संस्कृत लिखित ग्रन्थों का अपूर्व संग्रह है । बहुतसे मंदिरों में शिलालेख हैं। यहां जैन मंदिर है।
(२) तिरुवलन्जली-कुंभकोनमसे पश्चिम ६ मील । यहां सुन्दर मंदिर हैं जिनमें बढ़िया पत्थरका काम है । कुछ मूर्तिये जैनियोंकी मालूम होती हैं।
(३) मन्नारगुडी-ता० यही। निदमंगलम्से दक्षिण ९ मील। यहां १५३ जैनी हैं । इसका प्राचीन नाम राजाभिराज चतुर्वेदी मंगलम् था | यह नाम चोलोंका दिया मालूम होता है । यहां पुराना किला है जिसको कहते हैं कि होयसाल वंशियोंने बनवाया था । नगरसे एक मील पश्रिा प्राचीन जैन मन्दिर है । तमोरवासी इसकी बहुत भक्ति करते हैं। हम इस मंदिरका दर्शन करने ता० ११ मार्च १९२६ को गा थे। यह मंदिर बहुत बड़ा सुंदर है । प्रतिमाएं भी सुन्दर व प्राचीन हैं। इसीके हातेमें ज्वालामालिनी देवीका भी मंदिर है जिसको शासनदेवी मानकर जैन लोग भक्ति करते हैं। नगर में २५ शिलालेख (नं० ८५से १०९ सन् १८९७) हैं।
(४) दीपनगुडी-ता० नन्निलम् । यहांसे दक्षिण व पश्चिम ५ मील । यहांका जैन मन्दिर हजारों वर्षका प्राचीन है । हम यहां विरुवल्लुर निवासी श्री बद्धमान मुडेलियस्के पुत्र आदिनाथ
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९६] प्राचीन जैन स्मारक । मुडैलियरके साथ ता० १३ मार्च १९२६ को दर्शनार्थ आए थे। इस मंदिरके ५ कोट थे जिनमें २ कोट प्रगट हैं। द्वारपर व शिखरपर जैन मूर्तियां बहुत प्राचीन अंकित हैं, कुछ खंडित होगई हैं। यहां ४ जैन उपाध्यायोंके घर हैं जो त्रिकाल पूजन करते हैं, रात्रिको आरती करते हैं। इनमें मुख्य हैं-जयपाल, बहुबलि, धनंजय और वर्द्धमान । यहां यह प्रसिद्ध है कि यह मंदिर श्रीरामचंद्रनीके पुत्र लवकुश द्वारा पूजित है जैसा नीचे दिये हुए संस्कृत अष्टकमें भी वर्णित है । प्रतिमा श्री रिषभदेवकी बहुत प्राचीन है। इस प्रतिमाको दीपनायक कहते हैं। वर्ष में एक दफे मेला होता है। इस मंदिरके आश्रय ग्राम हैं । इस मंदिरको मुसलमानोंने नष्ट करना चाहा था परन्तु राजा चित्तरम पूबरसने भले प्रकार मंदिरकी रक्षा की थी।
दीपनायक अष्टकनिसको एक ताड़पत्रकी पुस्तकसे नकल किया गया ।---
देवराज निकाय मौलि शिखा महामणि मालिका । भाविरोचन बाल भानु विकासि पादपयोव्हं ।। केवलावगभावलोकित लोक भो भवने नमो। देव नायक दीप नायक देवी कुटी ते ॥१॥ तावका रहितावसान दया गुणाणण धिना । तावका गणनायका मग्नायक, अपिते नुतौ ॥ देव मानव राग गव जी करोति परो मुली ॥ देव० ॥२॥ देव पासय थागतादिक ब.मा सुमोदितः । रेवकार विवादिभिर्मधु गगमा हिमि गकुला । देवरू पित वाग मामृत सेकतोपि विधा जना ॥ देव० ॥३॥ सेवके तरु नामधीय निधीते यदि ता सदा । देवमेव विदेहि मे भवतो तो रुपमात ।। सेवया तव पादयो रुद पधितानशिवेपि सा ॥ देर० ॥ ४॥
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [९७ तापिताखिल जीव पाप निधान कालज वेदना । ताव पावक तापिताखिल जीव लोक महादवी ॥ तावकागम वारि वाह जलैर्यशामि सुखावहैः ॥ देव. ५ ॥ भावनाविषये जने परमौषधे भवतीह मे। देवपादितमीशने न हि वेदना विविधा मये ।। सेविते पग्या मुदा किम तेन लोचनगोचरे ॥ देव ॥ ६ ॥ भाविते समयकनाथ महातपोधन मानसे । देव राघव सूनुना महिते कुशेन लवेन च ॥ तावके परिभावयेऽनघ लालक पद पदे ॥ देव० ॥ ७ ॥ यवमिंधन जालजालकथाभिशप्रणीमहे । देवपाद सरोजयोगगुराग मे च भवे भवे ॥ का पता टनिरुदा ग्ब शोभि रोडित पावन: ।
देवनायक दीपनायक देव दीप कुढीपते ॥ ८ ॥ नोट-इन अटक को सुनकर लिखनेमें सम्भव है भूलें रह गई हैं उन्हें विद्वजन सम्हाल लेवें ।
इस मंदिर में एक पाषाणमें बड़ा शिलालेख है उसमें तामील अक्षरोंमें संस्कृत व तामील भाषामें लेख है । संस्कृत भाग दिया जाता है । भाषा का भाव मात्र है......
ॐ श्रीमत् परम गंभीर माहादामोघलांक्षणं । नीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शापनं जिनशासनम् ॥ भव्यननपरमशरण जाति गरामरणकर्मनाशकरं । संसारतरणहेतुं मिनेन्द्रवर शासनं जयतु ।। भद्रं भूयाग्जिनेन्द्राणां शासनायऽधन शिने । कुतीर्थध्वांतसंघातयति भन्नघनभानवे ॥ श्रीमजिनशासने भावतो महाते महावीरवईमानतीर्थकरम्य
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प्राचीन जैन स्मारक ।
घर्मतीर्थे तत्साक्षात्समाराध सकलगुणग रिंमंगौतममहर्षिचंदनार्य्यका श्रेणिक महामंडलेश्वर चेंलिनीप्रभृतिऋप्यार्जिका श्रावका विकाभेदचतुर्विध संघ परम्परायाति श्लाघनीयगुण संघ श्रीमूलसंघ संगे भूर्भुवस्वर्भेदात् त्रैविध्यामात्मसात् कुर्वाणस्य लोकस्य मध्यमध्य सिमे मध्यमलोके तन्मध्यवर्तिनो लक्षयोजनोदयस्य सुदर्शनमेरोर्दक्षिणभागे षड्विंशति पंचशतयोजनयो जनैकविंशति षट्टभाग विस्तारो ऽनादिसिद्ध भरतव्यपदेश भरतक्षेत्रविजयाई गंगा सिंधु प्रभृति विहित षटूवडमंडिते त्रिषष्टिशलाका पुरुषप्रभृत्यार्य जनसमुत्पत्तिपवित्रितार्यखंडे तथावस्थिताऽयोध्यायां दक्षिणेन स्थिते पशु धान्य हिरण्य कुप्यादि समृद्धिवर्णनीय वर्णाश्रमाकीर्णचौलदेशे धार्मिक जन समाज सततविधीयमान विविधपुण्योत्सवनि कराकरे अस्मिन् दीपंगुडि अभिधान आमे वीतदोषादिसंगत्वाद्वीतरागत्वं निरस्तनित्रिंशत्वादपास्तद्वेषत्वं तदुभयनिमित्तनिश्चलध्यानैकतानत्वम् तत्कारणकर्मक्षय सर्वज्ञत्वादि गुणं साक्षात् कथयंत्यामिव भगवत् श्रीमदादीश्वरस्वामी प्रति नाम दीपनाथस्वामीसन्निधौ श्रीमतं नोर ( नोट- यहांसे तामीलमें हैं ) वासी रामपुरके जमीदार चिह्न स्वामी मुडैलियरने प्रमुदित वर्ष में गर्भग्रहविमान, अंतराल, महामंडप, मुखमंडप, कावनकालमंडप यदि जीर्णोद्धार कराया। महामंडपमें सफेद पत्थर बैठाए । सिंहासन बलिपीठ नए बनवाये | गर्भग्रह विभागपर शिवर ताम्रकलश 1 चढ़ाया । रसोईघर बनवाया । मठ आदि ठीक कराया । कोट ठीक कराया । श्री पार्श्वनाथ व वाहुबलिकी मूर्ति बनवाई |
उत्तर देशवासी श्रीमत् देवमान्य श्रीमदभिनव आदिसेन भट्टारकस्वामीं बुलाए गए । बर्द्धमान मोक्ष गताब्दे अष्टत्रिंशदधिक
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मदरास च मैवार प्रान्त । [९९ पंचशतोत्तरहिसहस परिंगते (वीर संवत् २५३८) शालिवाहन शककाले सप्तनवति सप्तशतोत्तर सहस्रवर्ष सम्मिते शाका सं० १७९७) भवनाम संवत्सरे । फिर आगे यह वर्णन है कि दीपेंगुडिमें पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव कराया। चतुमंघ दान हुआ । ग्रामोसब हुआ । भट्टारकनी तीन मास ठहरे ।
मं० नोट-यहां शाका १७९७में वीर सं० २६३८ दिया है। अब शाका १८४८ में वीर सं० २४५२ लिखा जाता है तब इस हिसाबसे शाका १७९७में वीर सं० २४ ० १ होना चाहिये किन्तु यहां २६३८ है अर्थात १३७ वर्षका अन्तर है। किस हिसाबसे यह गिना गया है सो खोन लगानेकी जरूरत है। संस्कृतमें मङ्गलाचरण करके वर्डमान, गौतम, चंदनार्या, श्रेणिक चेलिनीको स्मरण किया है। फिर मध्य लोक मेरुके दक्षिण भारः भरतक्षेत्र आर्यस्खण्ड अयोध्याके दक्षिण वर्णाश्रम धर्मधारी चौल देश है वहां दीपंगुडि है वहां श्री आदिनाथ महाराज हैं।
(4) नेगापटम-ता०-यहां एक प्राचीन मंदिर शिखरबन्द था इसको ईसाई लोगोंने नष्ट करके मेन्ट जोजेफ कालेन बनाया। यह जैनमंदिर प्रसिद्ध था। इसका दर्शन करने बौद्ध लोग भी आते थे।
(६) शियालीनगर-स्टेशन है । यह तामील कवि व साधु प्रसिद्ध तिरुज्ञान संबंधकी जन्मभूमि है । यह सातवीं शताब्दीमें हुए है। ___(७) तंजोरनगर-मदराससे २१८ मील । यहां १५४ जैनी हैं। एक प्राचीन निन मंदिर है । हम ता० ११ मार्च १९२६को गए थे। एक जैन संस्कृत पाठशाला है। यहां रानाका प्राचीन पुस्तकालय है निसमें २२००० सम्कतके लिखित ग्रंथ है।
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१०० ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
मकान व पुस्तकालय देखने योग्य है । यहां एक बहुत बड़ा शिव मंदिर है जिसको बृहत् ईश्वर मंदिर कहते हैं। यहां जो बैल बना है उसकी कारीगरी देखने योग्य है । चारों तरफ १०८ शिव मंदिर और हैं। बड़े मंदिरके तीन ओर शिलालेख अंकित हैं। चारों तरफ मंदिरों में अनेक चित्र बने हैं। दो चित्र जैनियों को कष्ट दिये जानेके सम्बन्ध हैं । एक चित्रमें पांड्य राजा शयन कर रहा है । एक ओर ब्राह्मण वैद्य हैं, दूसरी ओर जैन वैद्य हैं । कथा यह है कि यह राजा जैनी था । बीमार हुआ तब जैन वैद्योंसे अच्छा न हुआ । ब्राह्मण वैद्योंने अच्छा कर दिया। उन ब्राह्मणोंने जैनधर्मसे इतना द्वेष राजाके दिल में भर दिया कि राजाने जैन मत छोड़कर शिवमत धारण कर लिया और आज्ञा दी कि जो जैनी शिवमती न हो उसको शूली पर चढ़ाया जावे तब अपने धर्मपर प्राण देनेवाले अनेक जैनी शूलीपर चढ़ गए, नीचे से ऊपर तक लोहेकी सलाई देकर बड़ी निर्दयता से मारे गए। यह चित्र भी दिया हुआ है ।
नोट- शिवमतधारी ब्राह्मणोंने कैसा अत्याचार जैनियोंके साथ किया था, इसका चित्र यहां प्रत्यक्ष प्रकट है ।
मदराम एपिग्राफी दफ्तर में इस जिलेके जैन चित्रादि नीचे प्रमाण हैं
(१) नं० सी १०६ - तिरुवेडंडालीमें शिवमंदिरके दूसरे द्वारपर एक जैन मूर्तिका चित्र ।
(२) नं० सी ५७५ (१९२०) में एक चट्टान में खुदा मंदिर है उसकी जेन मूर्तिका फोटो |
(३) नं० सी ५७६ (१९२०) - वहीं दूसरी जैनमूर्ति |
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मदरास व मैमूर प्रान्न । [१०१ (४) नं० सी ६७७ से ५८० वहीं चट्टानसे गुफाओं तकके चित्र ।
(५) नं० ५८६ से ५८९-मुत्तुपट्टीमें मैन मूर्ति और गुफाओंके चित्र ।
(६) नं० ५९४ से ५९७-कुरुनालक्कुदीकी पहाड़ी पर जैनमूर्ति व गुफाओंके फोटो।
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(१७) त्रिचिनापली जिला।
यहां ३६३२ वर्गमील स्थान है। चौहद्दी यह है-पूर्वमें तन्मोर, उत्तरमें दक्षिण अर्काट और मालेमा, पश्चिममें कोयम्बटूर और मदुरा, दक्षिणमें पुड्डक्कोट्टाई। ___ इतिहास-इसका इतिहास बहुत प्राचीनकाल तक जाता है। चोल राजाने की राज्यधानीका वर्णन अशोकके शिलालेखमें है जो सन् ई०से ३ शताब्दी पूर्वक है । यह राज्यधानी उरदपूरपर थी जो त्रिचिनापली नगरके शहरका भाग है। दूसरी शताब्दीके टोलिमीने भी इसका वर्णन किया है। ११वीं शताब्दीमें चोलोंकी राज्यधानी उदझ्यार पालइयन ता०के गंगई कुन्दपुरम्में थी ! यहां सुन्दर मंदिर व सरोवरांके अवशेष अब भी दिखलाई पड़ते हैं । १३वीं शताब्दीके मध्यमें द्वारसमुद्रके होयसालोंने अधिकार किया। पीछे तुर्त ही मदुराके पांड्य राजाओंका शासन हुआ जो १४वीं शता० तक रहा । सन् १३७२में विजयनगर राजाओंके हाथमें आया । १६वीं शताब्दीमें मदूरके नायकोंने राज्य किया। इसका स्थापित कर्ता विश्वनाथ था जिसने त्रिचिनापलीका किला व नगरका
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१०२]
प्राचीन न..
माचीन जैन स्मारक। बहु भाग बनाया था। १७ वीं शताब्दीके मध्यमें चोकनाथने राज्यधानी मदुरासे त्रिचिनापलीमें बदली ।
पुरातत्त्व-कई इतिहाससे पूर्वके समाधिस्थान (Kistvaens) पेरम्बतूर तालुके में हैं वहां कुछ रोमके सिक्के मिले हैं। बहुत प्रसिद्ध स्मारक त्रिचिनोपली पहाड़ीपर, श्रीरंगममें व गंगई कुंदपुरम् तथा समयपुरम्में हैं।
जैन प्रभाव-निलेभरमें जनियोंके स्मारक फैले हुए हैं। जैन तीर्थंकरोंकी मूर्तियां नीचे लिखे स्थानोंपर पाई जाती हैं(१) तालुका त्रिचिनापलीमें-(१) बेल्लनर, (२) पुलम्बादी, (३)
पेट्टइवात्तलई, (४) तथा पेरुगमनीमें । (२) तालुका पेरम्बलूरमें-(१) पारवई, (२) व चालूरमें । (३) ,, उदइयूर पालइयम्में-(१) विक्रनम् , (२) पैयतिरुको
नम्, (३) व जयकुन्द-चोलपुरम्में ।
पलयसंगदम्में उसी तालुकेमें कलित्तलइ सरोवरके निकट एक सुन्दर उठी हुई मूर्तियोंकी कारीगरी चट्टानपर खुदी है । यह जैनियोंकी है । पुडुक्कोहई राज्यमें नार्त्तमलईमें खुदे हुए स्तंभों सहित पहाड़में कटी गुफाएं जैनियोंकी कही जाती हैं।
मुख्य स्थान । (२) कुलित्तलई-रेलवे प्टेशन (त्रिचिनापली एरोड बाञ्च)से उत्तर दो मील-एक पहाडी है जिसपर एक जैन मूर्ति खुदी हुई है।
(२) महादानपुरम्-कुलित्तलईसे पश्चिम (मील । यहां कुछ जैन स्मारक हैं-बड़े किलेके व सुन्दर सरोवरके ध्वंश हैं। ये जैनियों के प्राचीन प्रभावको प्रगट करते हैं । परवसेन् गदममें जैन ध्वंशस्थान हैं।
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मदरास व मैसर प्रान्त ।
[१०३ (३) तिरुवेरुम्बूर-त्रिचिनापलीसे उत्तर पूर्व ६ मील १ पहाड़ी पर एक शिवमंदिर है जिसमें अच्छी नक्काशी है। यह मूलमें जैन मंदिर मालूम होता है।
(४) जयनकुन्द चोलकुरम्-ता० उदइयार पालइयम । यहांसे उत्तर पूर्व ५ मील । यहां दो जैन मूर्तिये हैं । एक गली में व एक सरोवरके तटपर है। लोग इनको पालुप्पर और समनार कहते हैं। पहली मूर्ति बहुत बड़ी व बहुत सुन्दर है । लोग ग्रामदेवता करके नते हैं | कुछ कूप जैनियोंके बनाए हुए हैं।
(८) श्रीरंगम्-त्रिचिनापलो नगरसे उत्तर पश्चिम दो मील। यहां वैष्णवोंका मंदिर है । यही १२वीं शताब्दीमें रामानुजाचार्य रहते थे। उनकी मृत्यु यहीं हुई है । यहां एक जैन मूर्ति है ।
(6) पेरियम चोलयम-तालूका पेरम्वलरसे उत्तर १४ मील ग्रामके पास बड़ी सड़कके निकट एक जैन मूर्ति गड़ी है जिनका मस्तक और कंधा दिखता है ।
___ (७) वालीकुंदपुरम-पेरम्बलूरसे उत्तर पूर्व ७ मील-यहां कुछ जैन प्राचीन ध्वंश स्थान हैं । एक शिषर है।
(८) अम्बिपुरम्-या विक्रमम् ता. उदइयार पालइयम । यहांसे दक्षिण पूर्व ११ मील कुछ जैन स्मारक हैं।
(९) वाउनौर-किरप्पनौरसे दक्षिण दो मील व उदहयार पालइयमसे पश्चिम दक्षिण १९ मील । यहां एक जैन मूर्ति है ।
(१०) लालुगुडी-त्रिचिनापलीसे उत्तर पूर्व ३ मील । मुल्लम्बदीको जानेवाली सड़कके निकट खेतमें एक प्राचीन जैन मूर्ति है।
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१०४] प्राचीन जैन स्मारक । __(११) सुन्दक्की पारई-कुलितलाईसे दक्षिण तीन मील । एक चट्टानपर जैन मूर्ति खुदी है।
(१२) वेल्टुवात्तलई-कुलित्तलाईसे दक्षिण ६ मील । यहां तीन जैन मूर्तिये हैं।
मदरास एफिग्राफी दफ्तरमें चित्रादि-नं० सी ३२वेल्लनोरके खेतमें एक जैन मूर्तिका नकशा है ।
(१८) पुडुक्काई राज्य । यहां ११७८ वर्गमील स्थान है । उत्तर पश्चिम त्रिचिनापली है, दक्षिण मदुरा है । पश्चिममें तंजोर है।
पुरातत्त्व-यहां बहुतसे Kestvaens समाधिस्थान पाए गए हैं । जैनियोंके बहुतसे स्मारक हैं। उनको बहुतसी गुफाएं व मूर्ति मिलती हैं। पुडुक्कोट्टईसे उत्तर पश्चिम १० मील सित्तबवासलके पास पर्वतमें कटी गुफा जैनियोंकी है । कुम्भकोनम व कोचीनके जैन लोग दर्शनके लिये आते हैं। विरालीमलईके पास कोदम्बलरका नाम तामील काव्य पहली शताब्दीकी बनी शीलप्पदी कारम्में आता है। अब यह छोटासा ग्राम उरैयरसे मदुरा जानेवाली सड़कपर है । पुरानी तामील काव्योंमें विरालीमलई व तिरुमयनका नाम भी आता है। यहां शिलालेख बहुत मिले हैं।
मुख्य स्थान । (२) कुदुमिया मलाई-पुडुक्कोट्टईसे पश्चिम ११ मील एक छोटे पहाड़में खुदा मंदिर मूलमें जैनियोंका है, प्राचीन लेख है।
( Sec govt. Epigraphy report 1899.)
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [१०५ (२) नर्त्तमलाई-पुडु० से उत्तर पश्चिम ९ मील । पहाड़में खुदा मंदिर है । चट्टानपर जैनमूर्ति अंकित है।
(३) सीतन्नवासल-पुडु० से उत्तर पश्चिम १० मील । पर्वतमें काटा हुआ जैनमंदिर है। जैन लोग दर्शन करने आते हैं।
(४) पिट्टइवात्तलई-त्रिचिनापलीसे पश्चिम १५ मील । करूररोडसे विक्रमको जो मार्ग गया है उसके एक तरफ दो जैनमूर्तियां हैं।
मदरास एपिग्राफी दफ्तरमें चित्रादिसी नं० ३१-अन्नवासलके बागमें एक जैनमूर्तिका दृश्य है।
___- 388
(१९) मदुरा जिला । यहां ८७०१ वर्गमील स्थान है। चौहद्दी है-उत्तरमें कोयम्बटूर और त्रिचिनापली, उत्तर पूर्व तंबोर, पूर्व व दक्षिण पूर्व पाल्क स्टेट व मनारकी खाड़ी, दक्षिण और दक्षिण पश्चिम टिन्नेवेली।
इतिहा:-मदुरा जिलेके समान और किसीका इतना पुराना इतिहास नहीं है । टावनकोर राज्य और त्रिचिनापलीको लेकर यह पांड्य वंशका राज्य था। इनका अस्तित्त्व सन् ई० मे ३०० वर्ष पूर्व मिलता है। उस समय पांड राना राज्य करता था। ग्रीक एलची मेगस्थनीज लिखता है कि यहां रोमके सिके व्यवहार होते थे। चौथा पांड्य राना उग्र पेरूवलूटी ( १२८ - १४० ) था जिसके दरबारमें ४८ कवियों के सामने तिरुवल्लुवरकी प्रसिद्ध काव्य कुरल प्रकाशित की गई थी।
सं० नोट-सी० एस० मल्लिनाथ मदरासने सिद्ध किया है
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१०६] प्राचीन जैन स्मारक । कि इस कुरल काव्यके कर्ता जैनाचार्य श्रीकुन्दकुन्दस्वामी थे। इस राजाके दरबारमें एक तामील स्त्री कवि अनवैय्यार थी जिसने राजाकी प्रशंसामें कविताएं बनाई हैं। पांड्यकी राज्यधानी उत्तर मथुराके समान नानमादक किंदल थी । पांड्योंका राज्यचिह्न मत्स्य था जैसा उनके सिकोंपर मिलता है । पांड्यवंश प्राचीनकालमें बहुत प्रतिष्ठित था । ग्रीक और रोममें इनका वर्णन मिलता है। प्राचीनकालमें इस राज्यमें जैनधर्म बहुत फैला हुआ था।
( Pandya Kingdom can boost of respectable inliguity The prevailing religion in early times in their Kingdom was Jain creed. Gazetter 1906. )
१०वीं शताब्दीमें यह जिला चोलोंके हाथमें आया। फिर ३०० वर्ष पीछे पांडवोंने इसको ले लिया। पश्चात विजयनगरके फिर नायक राजाओंके हाथमें आया ।
पुरातत्त्व-यहां इतिहाससे पूर्वके dolmens समाधिस्थान मिलते हैं। पांड्य रानाओंके नीचे रोमके सिपाही नौकर थे । रोमके व बौद्धचिह्न के सिके पाए गए हैं।
जैन लोग-१९०१की जनसंख्यामें कुल जिलेभरमें एक भी जैन नहीं मिला किन्तु इस बातके बहुत प्रमाण हैं कि प्राचीनकालमें इस धर्मके माननेवाले मदुरामें बहुत प्रभावशाली थे (were un influential community in Madura)वे बड़े बलिष्ठ थे। बहुतसी मूर्तियां व लेख जैनियोंके इस जिलेमें मिलते हैं । अधिकतर जैन स्मारक नीचे स्थानोंपर हैं____(१) मदुरा तालुकाके अनइमळई और तिरुप्पा लइयममें (२) पालनी ता० में ऐवरमलई में (३) पेरियाकुलम् ता० में उत्त
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मदरास व मैसूर प्रान्त | [ १०७ मालय में (४) तिरुमंगलम ता० में कोवितन्कुलम और कुषनपत्तनमें । इस जिलेमें छोटी २ पहाडियोंपर चट्टान पर ऐसे स्थान खुदे मिलते हैं जो ६ या ७ फुट लम्बे व २ या ३ फुट ऊंचे हैं। इनको रैयत पंच पांडव दुक्कई (पांच पांडवोंके शयन स्थान ) के नामसे पुकारती है । कई स्थानोंमें जैनमूर्तियोंके निकट ऐसे स्थान देखे जाते हैं इसलिये बहुत करके ये सब स्थान जैन साधुओंके निवासके स्थान होने चाहिये ।
यहांके मुख्य स्थान |
(१) अनइ मलड़ - एक पहाड़ी २५० फुट ऊंची परन्तु दो मील लम्बी | ता० मदुरा - यह मदुरा शहरसे ६ मील है। सड़क पहाड़ीके नीचे नरसिंह पेरूमलका मंदिर है । ऐसा प्रसिद्ध है कि यह पहले जैनमंदिर था। अब वहां कोई चिह्न जैनका नहीं है ! कुछ दूर दक्षिण पश्चिम पहाड़ीसे निकलती हुई खास चट्टान के पास अखंडित जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां बड़े पाषाण पर अंकित हैं । नीचे गुफा है जहां पहले जैन साधुगण ध्यान करते थे । यह बहुत सुन्दर स्थान है - इस बड़े पाषाणक दोनों ओर जैनतीर्थकरकी प्रतिमाएं हैं। उत्तर में एक बैटे आसन जनतीर्थंकर है,
इनमें १० फुट लम्बी
दक्षिण में मूर्तियां हैं । ये सब नग्न हैं । व २ फुट ऊंची जगह घिरी है । यहीं आठ शिलालेख तामील बट्टे लुह भाषा में हैं - ग्रामवाले इनको कन्निमार कहके पूजते हैं और इस स्थानको कन्निमारकोविल कहते हैं । और भी गुफाएं हैं। हम ता० १५ मार्च १९२६ को श्रीयुत वर्द्धमान मुंडेलियर तिरुवल्लर निवासीके साथ मदुरासे मोटरपर दर्शनको आए । पहाडीके:
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१०८] प्राचीन जैन स्मारक । नीचे ग्राम वसता है, ग्रामका नाम नरसिंहगुडी पो० उत्तमगुड़ी है। पर्वतपर साफ चट्टानें ध्यान करने योग्य हैं। ऊपर लिखित ८ मूर्तियोंका वर्णन नीचे प्रकार हैं-इनका दर्शन करके हमको बहुत आनन्द हुआ । हमने इस गुफाके भीतर बैठकर जाप दी और उन प्राचीन ऋषियोंको म्मरण किया जिन्होंने इस दक्षिण मदुराकी तपोभूमिपर ध्यान किया था ।
१ पल्यंकासन छत्र सहित ॥ हाथ ऊंची
१-कायोत्सर्ग श्री पार्श्वनाथ यक्ष सहित १ हाथ ऊंची । १ भाई चरणोंको नमस्कार कर रहे हैं।
१-कायोत्सर्ग ॥ हाथ ऊंची दो भक्त सहित । १-पल्यंकासन छत्र सहित ॥ हाथ ऊंची ।
१-- देवीको मूर्ति ॥ हाथ १-पल्यंकासन ॥ हाथ ऊंची।
इस ग्राममें ऐसा प्रसिद्ध है कि यहां गजेन्द्रने मोक्ष पाई। माघ मासमें मेला भी भरता है । यह शायद गनकुमार मुनि हों या दूसरे गजेन्द्र मुनि हों। ऊपर पर्वतपर जानेसे १ गुफा बड़ी सुंदर लेटने योग्य मिलती है । यह १४ हाथ लम्बी चौड़ी व २ हाथ ऊँची होगी। आगे पर्वतका मार्ग कठिन होनेसे न जासके । यहांके शिलालेखोंका भाव नीचे प्रमाण है--
एपिग्राफी रिपोर्ट १९०५से यह हाल विदित हुआ।
नं० ६७-इस मूर्ति (त्रिमणी) को एणदिनादीने बिराजमान किया....अनिपनकी ओरसे ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [१०९ नं. ६८-इसकी रक्षा टिनइकलत्तार करते हैं। नं० ६९- ,, , पोकोंडुके करनत्तार करते हैं।
नं० ७०-मूर्तिको आर्य्यनंदीने प्रतिष्ठित कराया । नरसिंग मंगलम्के साहाकी रक्षामें ।
नं. ७१-यह इयक्कर यक्षकी मूर्ति है जिसे तेंकलवलीनादके सालियम पांडीने बनवाया।
नं० ७२-इस मूर्तिको वेन्पुग्इनाडुके पेन्पुरईको सरदन अरयदनने स्थापित किया।
नं० ७३ इस मूर्तिको....मल्लवासी.....सोमीने स्थापित किया।
नं० ७४ वेन्वईक्कुडी नाडुके ग्राम वेन्वइक्कुडीके वेट्टनजेरीके एवियम् पुडीने इस मूर्तिको स्थापित किया ।
(२) पमुमलई-मदुरा शहरसे दक्षिण २ मील यह छोटी पहाड़ी है । स्थलपुराणमें कहा है कि यहां जैनोंका निवास था ।
(३) त्रिपुरनकुनरम--मदुरासे दक्षिण पश्चिम ४ मोल ।
इसकी भी यात्रा हमने ता० १६ मार्च १९२६ को की। पर्वतके नीचे बड़ा ग्राम बसता है । एक बड़ा शिवका मंदिर है तथा धर्मशाला है । पर्वत बहुत विशाल है । ऊपर मुसलमानोंकी मप्तजिद है उसके कुछ नीचे एक बहुत बड़ी शिला है, उसके नीचे पानी भरा रहता है। पानीसे १८फुट उपर दक्षिणकी तरफ पर्वतके आधी दूर जाकर दो आले ग्बुदे हुए हैं जो २॥ फुट लंबे व १ फुट चौड़े हैं । यह पानीसे १८ फुट उंचे हैं। इनमें दो दिगम्बर जैन मूर्तियां अंकित हैं।
(१) कायोत्सर्ग १॥ हाथ ऊंची अगल बगल दो यक्ष, उपर कई देव विमान सहित, नीचे दो भक्त बैटे हैं।
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प्राचीन जैन स्मारक |
(२) कायोत्सर्ग १ || हाथ ऊंची श्रीषार्श्वनाथ भगवानकी ।
इधर उधर तीन देव नीचे, १ भक्त बैठे हैं, ऊपर लेख है जो बिगड़ गया है । इनका दर्शन करके बहुत ही आनन्द हुआ । कुछ मंदिर आसपास हैं जिनमें अब शिवलिंग है । ऊपर मुसलमानोंने मसजिद बनाली है । भीतर गुफामें कब बना ली है । इन दोनों पर्वतों को देखकर हमको निश्चय होगया कि अवश्य यहां पर चौथे तथा पंचमकालमें जैनधर्मका खूब प्रचार था । जैन पुराणोंसे प्रगट है इस दक्षिण मथुरा नगर में श्रीयुधिष्ठिरादि पांच पांडवोंने अपने अंतिम जीवनमें राज्य किया था व यहां ही दीक्षा लेकर साधु हुए थे तथा रेवती रानीकी अमूढदृष्टि अंगकी कथासे प्रगट है कि यहां श्रीमहावीरस्वामीके समय लगभग बड़े२ मुनि निवास करते थे । यहां तप करनेवाले श्रीगुप्ताचार्य जीने उत्तर मथुरा में सुव्रतनाम मुनीश्वरको नमस्कार कहला भेजा था । प्रमाण आराधनाकथाकोष ब्र० नेमिदत्त कृत
मेघकूटपुरे राजा नाम्ना चन्द्रप्रभः सुधीः ॥ २ ॥ यात्रां कुर्वजिनेन्द्राणां महातीर्थेषु शर्मदाम् । गत्वा दक्षिणदेशस्थ मथुरायां स्वपुण्यतः ॥ ४ ॥ गुप्ताचार्यमुनेः पार्श्व श्रुत्वा धर्मकथास्ततः । प्रोक्तः परोपकारोत्र महापुण्याय भूतले ॥ ५ ॥ इति ज्ञात्वा तथा तीर्थयात्रार्थ श्रीजिनेशिनाम् काश्विद्विद्यादधानोपि क्षुल्लको भक्तितोऽभवत् ॥ ६ ॥ एकदा तीर्थयात्रार्थमुत्तरां मथुरां प्रति । गन्तुकामेन तेनो गुरुः पृष्टः प्रणम्य च ॥ ७ ॥ किं कस्य कथ्यते देव भवद्भिः करुणापरैः ।
स प्राह परमानन्दाद् गुप्ताचार्यो विचक्षणः ॥ ८ ॥
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मदसताच मैसूर वान्त। [१११ मुक्तास्यमुनेवांच्या नतिर्ने गुणशादिनः ।
धर्मवृविध रेवत्याः सम्यक्स्वासक्तचेतसः ॥ ९ ॥ भावार्थ-मेषकूटपुरका राजा चंद्रप्रभ श्रीनिनतीर्थोकी यात्रा करता हुआ अपने पुण्योदयसे दक्षिण मथुरा (मदुरा) आया यह श्री.गुप्ताचार्य मुनिके पास धर्मकथा सुनकर एक विद्या परोपकारके लिये रखकर क्षुल्लक होगया। एक दफे तीर्थयात्राके लिये उत्तर मथुराकी तरफ जानेकी इच्छा करके गुरुसे पूछा कि दयानिधि कोई सन्देशा हो तो कहिये तब गुप्ताचार्य जीने उत्तर मथुराके सुब्रतमुनिको नमोऽस्तु व रेवती रानी सम्यग्दृष्टिनीको धर्मवृद्धि कहला भेनी ।
(४) तिरुवेदगम-ता० निलक्कोत्तई-मदुरासे उत्तर पश्चिम १२ मील । यहां कुब्ज पांड्य मदुराका राना जो जैन था वह रहता था। उसकी स्त्री शिवमतको माननेवाली थी। उसने अपने गुरु तिरुज्ञान सम्बन्धर द्वारा रानाका कर दूर कराया। इसने ऐसा उपदेश दिया जिससे रानाने जैनधर्म छोड़कर शिव धर्म धारण कर लिया और इसने जैनियों को बहुत कष्ट दिया ।
(५) ऐवरमलइ-ता० पालनी । यहांसे १६ मील दिन्दीगल स्टेशनसे मोटर पालनी जाती है । इसको लोग पंच पांडक्का आश्रम कहते हैं। यह पहाड़ी १४०० फुट ऊँची है। उत्तरकी तरफ एक गुफा १६ फुट लम्बी ब १३ फुट ऊँची है। यह निःसंदेह प्राचीनकालमें जैन मुनियोंके ध्यानका स्थान था । इस गुफाके ऊपर चट्टानपर ३० फुट लम्बी लाइनमें ६ कतारों में १६ जैन तीर्थकरोंकी मूर्तियां हैं। हरएक मूर्ति १॥ फुट ऊंची है। बहुताही बढ़िया जैन स्मारक हैं। कुछ मूर्तियां कायोत्सर्ग हैं व कुछ पत्यकासन हैं । कुछ
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११२ ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
पर सर्पके फण हैं । कुछ पर तीन छत्र हैं । कुछमें चमरेन्द्र भी हैं । इसके आसपास कई शिलालेख वट्टेलहू भाषामें हैं ।
(६) उत्तम पालइयम - ता० पेरियकुलम - यहांसे दक्षिण पश्चिम २८ मील । यहां द्रोपदी मंदिर है उसके ठीक उत्तर एक बड़े पाषाणके मुखपर कुरुप्पन मंदिर के निकट बहुत ही बढ़िया नग्न जैन तीर्थंकरोंकी मूर्तियां हैं । दौ लाइन में हैं । १ लाइनमें ११ हैं उनमें दो १॥ फुट ऊँची व शेष छोटी हैं, कुछ कायोत्सर्ग कुछ पल्यंकासन हैं। दूसरी नीचेकी लाइन में ऐसी ही आठ मूर्तियां हैं । २१ फुट लम्बी व १० फुट ऊँची जगह इनसे शोभायमान है ।
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( 9 ) कोवितन्कुलम् - ता० तिरु मंगलम् - यहांसे दक्षिण २० मील | इसके पश्चिम एक कृष्ण पाषाण पर एक जैन तीर्थकरकी मूर्ति ३ || फुट ऊंची २ फुट चौडी अंकित है, बैठे आसन है। ग्रामवासी पूजते हैं ।
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(८) कुप्पल नत्तम - ता० तिरुमंगलम् - यह स्थान प्राचीन जैन स्मारकोंके लिये प्रसिद्ध है । ग्रामके दक्षिण पश्चिम पोइगई मलाई नामकी पहाड़ी है । इसके उत्तर मुखपर एक गुफा है जिसके द्वारपर चट्टान के ऊपर जैन तीर्थकरों की मूर्तियां तीन लाइनमें हैं । पहली लाइन में ४ मूर्तियां प्रत्येक २ फुटसे १ ॥ फुट बेटे आसन तीन छत्र व नमरेन्द्र सहित हैं । दूसरी लाइनमें ३ कायोत्सर्ग व एक बैठे आसन मूर्तियां छत्र सहित ४ इंचसे ३ इंचकी हैं । तीसरी लाइनमें एक कायोत्सर्ग मूर्ति १ फुट ऊंची है, दोनों तरफ हाथी है । इस स्थानको समनार कोबिल ( श्रमण मंदिर या जैन मंदिर) कहते हैं। लोग इन मूर्तियों को पूजते हैं, तेल चढ़ाते हैं ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [ ११३ (९) किदारम - रामनद से दक्षिण पश्चिम १४ मील । ग्रामके दक्षिण १०० गजपर जैन मूर्तियां हैं ।
(१०) कुलशेषर नल्लूर - तिरुचुकईसे पश्चिम दक्षिण मील | यहां जो शिव मंदिर है यह मूलमें जैन मंदिर था । (११) हनुमंत गुड़ी - रामनदसे उत्तर ३७॥ मील | यहां प्राचीन जैन मंदिर है ।
(१२) सेलुवजूर - रामनद से पश्चिम दक्षिण २३ मील व मुदकलत्तूसे दक्षिण पूर्व ९ || मील | यहां जैनमूर्ति है ।
सन १९०९-१० की आरकिलनिकल रिपोर्ट इंडिया में १३१ कि इस वर्ष जो लेख नकल किए गए हैं उनसे जैनधर्म और उसके आकार बहुत प्रकाश पड़ता है । दक्षिण भारत में जैन स्मारक कोगरलियंगुल और मुत्तंप्पत्तीने पाए गए हैं जहां गुफाएँ हैं तथा मदुरा जिलेके दो दूसरे ग्रामोंमें भी गुफाएं हैं। इनमें एक सममें बह पाने लेख हैं जिनमें कई जनाचार्य के नम है। उनसे १ नंदे हैं मनका नाम और भी लेखों में आता है। माता गुणमदार श्री.नादके कुरुन्दी अता, उपवासी महक और उनके गुसेन और माघनंदी है। गुणमेनके शिष्य कन: वीर पेरियादिल थे। कनकनंदी भट्टारकके शिष्य परिमंडल भट्टारक, जिनके शिन अभिनंदन भट्टारक थे। ये सब नाम इन लेखों में हैं। कलुगुमलाई (जिला तिनेवली ) के भी लेखों को लेनेसे जन जतिका मूल्यवान इतिहास सोपा जासक्ता है । मदराम एपिग्राफी दफ्तर में यहां के नक्शे नीचे प्रमाण हैं( १ ) नं० सी० २१ तिरुपरनकुंदरम् के जैन मंदिरका
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११४] प्राचीन जैन स्मारक। (२) नं० मी० २२ तिरुपरनकुंदरम्के जैन मंदिरका (३) नं० पी० २३
नोट-इम देखने गए थे, यह मदुराके पास है। इस मंदिरका पता नहीं लगा। (४) नं० सी० २४-अनमलईके विष्णु मंदिरके दक्षिण जैन मंदि
रका नकशा। (५) नं० सो० २५-नरसिंह मंदिर के दक्षिण जैन मूर्तियोंका चित्र।
१२०) टिन्नेवली जिला। या ५३८९ वर्गमील स्थान है। चौहद्दीमें इसके पूर्व और दक्षिण पश्चिम घाट और समुद्र है। उत्तरमें मदुरा है।
इनिबार इसका इतिहास मदुराके समान है । यहां प्राचीन द्राविद लोग ते थे। यहां इतिहास के पूर्व के समाधियान दक्षिण भारतमें भाको बया हैं जो वासकर श्री बैकुंटमले ३ मील
र - टनेवली गजेटियर सन् १९१७ पृ. १००में है कि अब छ । जन है न बौद्ध हैं। सातवीं शताब्दीके प्रारम्भसे शि: उल्लत हुई तर जैन और बौद्धका प्रभाव घटने लगा। तारा पुराणम्में कई कथाएं हैं जिनमें वर्णन है कि शिवम का विध्वंश किया । शिवमत के साधु अध्पर तिरुज्ञान सम्..... होंड नयनार प्रभित हो गए हैं। मनियोंके विट तमें यहां बहुनसे जिलोंमें एक उत्सव किया जाता है निकोलाजल करते हैं। यहां जैनियों को समगाल कहते
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [ ११५ हैं। यह उत्सव शिवमंदिरों के महोत्सव के छठे दिन किया जाता है । एक मनुष्यका मस्तक एक कीलपर लगाकर गाजेबाजे के साथ निकाला जाना है तथा इस उत्सवमें किस तरह जैनियोंका नाश किया गया ऐसे तमाशे दिखाए जाते हैं ।
सं० नोट- वास्तव में आजकलके जैनियोंको चाहिये कि इस उत्सवको बंद करावें । यह जैनियों के दिलों को दुखाने वाले उत्सव हैं ।
यहां पहले जैनियों का बहुत प्रभाव फैला हुआ था तथा बौद्ध लोग भी थे, यह बात पाषाणके स्मारकोंसे प्रगट है जो (१) कुलुगुमलई (२) मेरुलाई (३) वीर सिखामणि (४) कुलतूर (५) मुरुम्बन (६) मंदीकुरुम् (७) पुदुक्कोत्ताई में हैं । पुदुक्कोचाई अर्थात् पंच पांडव पुदुको ताई यहां पाषाणके आपन हैं जो एक गुफामें खुदे हुए हैं तथा मरुगालतलाई में एक ब्राह्मीमें शिल्पलेख है । यहां जैनियों के स्मारक हैं ।
यहांके मुख्य स्थान ।
(१) आदिचनल्लूर - ता० श्री वैकुंठम् - यहांसे ३ मीळ पश्चिम । ताम्रपणी नदीकी दाहनी तरफ व पालमको हसे १५ मील । यहां १० फुट चौड़ी व ६ फुट गहरी खुदाई करने से हड्डी व मस्तक मिले हैं व १२०० वस्तुएं मिली हैं- जैसे चाकू, मिट्टोंके वर्तन, पुराने पांड्य राजाके सिक्के | ये सब मदरास म्यूजियम में हैं । पर्वतपर जैन मूर्ति है ।
(२) कलुगू मलई - ता० कोयलपट्टी | कोयलपट्टी और शंकर नैनारके मध्य में लोकलफंड रोडसे २४ मील । यहां ३०० फुट उंची बड़ी चट्टान है जिसपर प्रसिद्ध खुदे मंदिर हैं जिनमें बहुत मूर्तिय बैठी हुई हैं। थोड़ा ऊपर जाकर चट्टानपर बहुतसी जैन तीर्थक
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११६] प्राचीन जैन स्मारक । रकी मूर्तियां हैं। ये दो लाइनमें हैं, एकसौसे ऊपर मूर्तियां हैं, सब बेठे आसन हैं । हरएकका आला दो फुट ऊंचा है, नीचे लेख वहे. लहू भाषामें है । इसी चट्टानपर पांड्य राना मारंजदंजन ( निस राजाके लेख मानूर, गंगदकुन्दान व तिरुक्करुनगुडीपर हैं ) का भी लेख है । इस रानाका नाम वरगुणवमेन था। यह राज्यगद्दीपर सन् ८६२ में बैठे थे।
इन जैन मूर्तियों के पास एक बड़ी गुफा है। यह स्थान टिन्नेवली नगरसे उत्तर २८ मील है।
(3) कुलत्तूर-ता० कोयलपट्टी समुद्रसे ३ मील । औद्यपदारमसे पूर्व १४ मील । यहां एक शूद्र गली में खुले मैदान एक जैन मूर्ति खड़ी है, यह तीन फुट ऊँची है । ग्रामके लोग समणार तेरू कहते हैं। चावल और नारियल चढ़ाते है ।
(४) नंदिकुलम्-ता कोयलपट्टी। विल्लतिकुलम्मे दक्षिण ४. मील । ऊपर के समान एक जैन मृति है ।
(२) वलियर-ता० नंगुनेरी यहां यह प्रसिद्ध है कि पहले जैन मंदिर था। इसके पाषाण एक सरोवर में लगा दिये गए व मूर्तिको यूरोपियन लोग लेगए ।
(६)वीर सिखार्माण-शंकर नरहनार कोयलसे दक्षिण पश्चिम भील। जैनियों की गुफाएं हैं, जैन मूर्तियां अंकित हैं व लेख हैं।
(७) कोरबाई-ता० श्री कुठम् । ताम्रपर्णीनदीके उत्तरतट, नदी मुखसे ४ मोल । तामील पुराणों के अनुसार एक समुद्रका बंदर था। पांड्य राजाओंका मुख्य नगर था। यहां जैन मूर्तियां एक सड़ककी तरफ दूसरे ग्रामके पास हैं।
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मदरास व मैसूर प्रान्त ।
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(८) पलयकायल या पुरानी कायल । तिरुचेन्दूरसे टूटीकोरिन जानेवाली पुरानी सड़कपर । प्राचीन नगर सूरनकादूका स्थान है । नहरके सरोवर के पास दो जैन मूर्तियां हैं । एकको धोबी लोग कपडा धोनेके काम में लेते हैं ।
(९) पुदुक्कोट्टाई - ( कुमारगिरि ) - ट्यूटीकोरिन से ८ मील । निकटके कुत्तुदंकाडु ग्राममें एक जैन मूर्ति भूमिपर रक्खी है ।
(१०) शिवलप्पेरी - ता० तिन्नवेली । मरुगलतलाई ग्राममें बौद्ध चिह्न हैं । इस ग्रामसे २ मील पदिनलम् पेरीमें एक चट्टान है जिसको अंदिचिपारइ कहते हैं । यहां एक गुफा ५ फुट वर्ग व ६ फुट ऊँची है। द्वारकी बाई ओर २ खुदी हुई मूर्तियें हैं ।
(११) मुरम्बा - ओइ पिदरन से पश्चिम दक्षिण ९ मील । सड़कके दाहने बाजू जो सड़क काफ्तूरको जाती है एक जैन मूर्ति है । (१२) नागलापुरम् - ओहपिदरनसे उत्तरपूर्व २२ मील खेतमें एक प्राचीन जैन मूर्ति है ।
(१३) कायल - श्री वैकुंठम्से पूर्व १२ मील । समुद्रसे २२ मील। ताम्रपर्णीनदीसे दक्षिण- कई जैन मूर्तियां हैं। दो प्राचीन मंदिर हैं व लेख हैं । मदरास एपिग्राफी दफ्तर में यहांके चित्रादि(१) नं० मी २६ - कुलुग्रमलईकी पहाडीपर जैन मूर्ति
(२) नं० सी २७ -
जैन मूर्तिका समूह
(३) नं० सी २८(४) नं० सी २९
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प्राचीन जैन स्मारक |
(२१) नीलगिरि जिला ।
यहां ९५८ वर्गमील स्थान है । चौहद्दी है - उत्तर में मैसूर, पूर्व और दक्षिण में कोयम्बटूर, पश्चिम और दक्षिण में मलाबार ।
इतिहास - यहां गंग, कादम्ब व होयसालने राज्य किया है। सन् १३१० में यहां पेरु मतु दुरु दंडनायकका पुत्र माधवदंडनायक राज्य करता था । १३वीं शताब्दी में नायकवंशका राज्य था । यहांके कुछ स्थान ।
(१) कोटगिरि - कूनूरका पहाड़ी स्टेशन - ऊटकमंडसे १८ मील, कूनूर से १२ मील। यहां उदयरायका ध्वंश किला है । पुराने समाधिस्थान dolwens है ।
(२) कोणकराय - कोटगिरिसे पूर्वदक्षिण २ || मील | यहांसे दक्षिणपश्चिम २ मील तोतनल्ली ग्राम में गुफाएं हैं जो वेल्लिकी की गुफाएँ कहाती हैं। इसकी भीतोंपर खुदाई है जिनका सम्बन्ध बौद्ध या जैनसे मालूम होता है ।
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(३) परनगिनाद - बेल्लीकी- कुन्नूरके किलेके पास कोलार के उत्तरघाट दो ऊंची चट्टानमें गुफाएं हैं। इनमें जैन मूर्तियां हैं ।
(२२) मलाबार जिला !
यह बहुत सुन्दर जिला है। इसका प्राचीन नाम केरल है । यहां १७९५ वर्गमील स्थान है । यह दक्षिण कनड़ासे १५० मील अरबसमुद्र तटपर चला गया है । दक्षिण कनड़ा उत्तर में, दक्षिणमें कोचीन है । पूर्वमें कुर्ग नीलगिरि है ।
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मदरास व मैसूर मान्त। [२१९ इतिहास-ट्रावनकोरके समान इतिहास है। बहुत प्राचीन कालमें यहांसे मेडिटरेनियनके निकटके नगरोंसे व्यापार होता था। परदेशी लोग मदुराके दरबारसे व्यापार करते थे। यहां चीरावंश राज्य करता था। इसका अंतिम राजा चीरामान पेरुमन सन् ८२५में मक्का गया था। यहां सन् १४९८ में वैस्को डगामा आया था। यहां इतहाससे पूर्वके dollanets समाधिस्थान हैं।
यहांके कुछ स्थान ।। (१) पालघाट-नेसीन मिशनके पास एक छोटा जैन मंदिर है जो कि सुन्दर है। पालघाटमें अब १५ जैनी हैं व इतने ही यहांसे ६ मील मुन्दरमें हैं। यह मंदिर २०० वर्षका है। इसीके पास पहले एक प्राचीन मंदिर था जिसके पाषाण दिखाई पड़ते हैं । यहां जैन लोग मोतियोंके लिये मुत्तपत्तनम् व जवाहरातके लिये मछलपहनम्में वसते हैं जहां वर्तमान में मंदिर हैं।
(२) तिरुनेल्ली-ता. वाइनाद-यहां गुफाका मंदिर है जो अब शिवका है। पहले बौद्ध या जैनका था । यह मंदिर गन्नीकुतीर्तम्के पास है।
मदरासके एपिग्राफी दफ्तरमें नीचे प्रमाण चित्रादि हैं* नं० सी ६-सुलतानकी वैटरीबाई नादमें एक जैन मूर्तिके खंडित भाग।
(२) नं० सी ७-वहीं पग व हाथ रहित एक जैन मूर्ति । (३) नं० सी /- वहीं एक जैन मूर्ति ।। (४) नं० सी९-पालघाटमें जैन मंदिरका दक्षिणपूर्वीय भाग (५) नं० सी १०-पालघाटके मंदिरमें जैन मूर्तियां ।
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१२०] प्राचीन जैन स्मारक । (२३) दक्षिण कनड़ा या तुलब जिला।
यहां ४ ०२१ वर्गमील स्थान है । इसकी चौहद्दी इस प्रकार है-उत्तरमें बम्बई, पूर्वमें मैमूर और कुर्ग, दक्षिणमें कुर्ग और मलाबार, पश्चिममें अरब समुद्र ।।
इतिहास-यह जिला कांचीके पल्लवोंके राज्यमें गर्भित था जिसकी पुरानी राज्यधानी वीजापुर जिलेमें वाताची या बदामीपर थी। उनके पीछे बनवासीके प्राचीन कादम्ब राजाओंने राज्य किया निस बनवासीको यूनानके भूगोल हाता टोलिमीने बनौसिर Janau.ir लिखा है ( दूसरी शताब्दी)। यह बनवासी उत्तर कनड़ामें है । छठी शताब्दीके अनुमान पूर्वीय च लुक्योंने दबा दिया जो बादामीमें जम गए । आठवीं शताब्दी के मध्यमें इनको कादम्ब राजा मयूरवर्माने भगा दिया जिसने पहले पहल इस निलेमें ब्राह्मणोंको बसाया (Wlo introduced Brahmans first in district) इस कादम्ब देशके राजा मलखेड़के राष्ट्रकूटोंके तथा कल्याणी ( निज़ाम ) के पश्चिमीय चालुक्योंके आधीन राज्य करते रहे । १२वीं शताब्दी में दोर समुद्र या हले विंडके होयसाल बल्लालोंने अधिकार किया। १४ वीं शताब्दीमें मुसलमानोंने अधिकार किया परन्तु विनयनगरके राजाओंने उन्हें हटा दिया । सन् १९६५ में तालीकोटके युद्ध में दक्षिणके मुसलमानोंने मिलकर अंतिम विजयनगर राजाको हटा दिया तब जो स्थानीय जैन शासक थे वे स्वतंत्र होगए परन्तु सत्रहवीं शताब्दीके शुरू में इन सबको लिंगायत राजा इक्केरीके वेकंतप्पा नायकने दबा दिया । यह इंकेरी शिमोगा जिलेमें एक ग्राम है। फिर १५० वर्षांतक इक्केरीके राजाओंकी राज्यधानी
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [१२१ वेदनूर पर रही जो मैसूर राज्यमें एक नगर है । तब भी बहुतसे प्राचीन जैन और ब्राह्मण राजाओंने अपनी स्थानीय स्वतंत्रता बनाए रक्खी । सन् १७३७ से इंग्रेजोंने आना शुरू किया।
इस तुलुवा देशके राजाओंका धर्म जैनधर्म था तथा इस जैनधर्मका प्रभाव उस समय ब्राह्मणों के प्रभावसे रुकना शुरू हुआ जब राजा विष्णुवईन होयसाल वल्लाल जैनधर्मसे विष्णुधर्मी हुआ। जब वल्लाल वंशके राजाओंने अपना राज्य देवगिरिके यादवोंको दिया तब स्थानीय जैन राजा भैरसूओडियर स्वतंत्र हो गए और ऐसा शासन जमाया के ब्राह्मणोंको विरुद्ध मालूम होने लगा तब सन् १३३६ में इन जैन धर्मी भूतारपिओडियर रानाओंको विजयनगर राज्यकी आधीनता स्वीकार करनी पड़ी। वारकुर नगरको खाली करदेना पड़ा, वहां विनयनगर राज्य द्वारा नियत गवर्नर रहने लगा। दूसरा गवर्नर मंगलोरमें रहता था। शेष देशमें जैन राना विजयनगरके आधीन राज्य करते थे उनमेंसे ब्राह्मण, वल्लाल और हेगड़े बहुत प्रसिद्ध जैन राना थे जिनका सम्बन्ध प्राचीन हूमस वंशसे था । वे जैन राना इन भांति प्रसिद्ध हुए। (१) कारकल के भैरसू ओडियार, (२) मूविद्रीके चौटर, (३) नन्दावारके बंगर, (४) अल्दनगड़ीके अल्दर, वैलनगड़ीके भुतार, (५) मुल्कीके सावनतूर ! ___सत्रहवी शताब्दीमें विजयनगरके आधीन लिंगायत इक्केरी राजाने भैरसूओडियर वंशको दबा दिया जो वारकुरमें राज्य करतेथे जिन्होंने उत्तरभागके जैनराजाओंका प्रभाव समाप्त करडाला तब इस इक्केरीने दक्षिणभागके जैन राजाओंपर आक्रमण किया परन्तु अधिक बल न कम कर सका |उन जैन राजाओंने इसका आधीनपना स्वी
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प्राचीन जैन स्मारक ।
कार कर लिया । जबसे कादम्बवंशी राजा मयूरवर्माने (सन् ७५० ) ब्राह्मणोंको स्थापित किया तबसे ब्राह्मणोंका प्रभाव प्रारम्भ हुआ उसके पहले जैनोंहीका प्रभाव दीर्घकालसे जमा हुआ था । क्योंकि गिरनारके राजा अशोक के शिलालेख में यह कहा गया है कि चोल, पांड्य और करेलपुर ताम्रपर्णी तक यह रीति प्रचलित थी कि बीमार मनुष्य और पशु दोनोंकी रक्षा की जाती थी । जो आज्ञा देवानाव प्रियदासी अशोककी थी उसका अमल हर जगह किया जाता था (सं० नोट- वास्तव में यह आज्ञा अशोककी उस समयकी थी जब वह जैनधर्मका माननेवाला था । इसीलिये जैन राजाओंने हरस्थान में इसका पूरा र पालन किया। आठवीं शताब्दी के मयूरवर्माने प्राचीन चालुक्योंको दबा दिया जो सन् १६० के पीछे बनवासीके प्राचीन कादम्बों के बाद राज्य कररहे थे और तुलुवा देशके स्वामी थे तथा मैसूर राज्य नगर जिलेके हूमसके जैन रामा पर भी आधिपत्य रखते थे । मयूरवर्मा चारित्र (मेकंजी साहबके संग्रहीत ग्रन्थों में है ) में कहा है कि यह राजा वल्लभीपुरमें पैदा हुआ था, यह ब्राह्मणों को अहिच्छत्रसे पश्चिमीय तट और वनवासी में लाया (सं० नोट- इस चारित्रको देखना चाहिये) । राजा जिनदत्त और उसके वंशजोंने जो हमसके जैन कादम्ब राजा थे पहले अपनी राज्यधानी उप्पिनन्गुडी तालुकाके सिसिला नगर में रक्खी थी पश्चात् उड़पी तालुका कार कलमें स्थापित की जहां भैरम्मूओडियर के नामसे वे चालुक्य व विजयनगरके राजाओंकी आधीनता में राज्य करते रहे । भैरलूओडियर के लेख १२वींसे १६वीं शताब्दी तकके मैसूर राज्यके कुदुमुखके उत्तर कलशमें पाए गए
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [१२३ हैं । कादम्ब राजाओंके समान होयसाल वल्लाल भी जैन थे ( Hysal Eallals like Kadamba chiefs were Jains by religion ) सन् १२५० मे वारकुरनगर जैन राना भूतलपांड्यके आधीन था। इसने अलियासंतान कानून जारी किया जिससे माताका धन पुत्रीको व मामाका धन बहनके पुत्रो जाता था। कारकलमें जो विशाल मूर्तिपर लेख है वह बताता है कि सन् १४३१ में इस वंशके जैन राजा वीरपांड्य राज्य करते थे। सिवाय उपाध्याय या पुनारी विभागके जैनियोंके ओर सब तुलुर देशके जैनी अलियासंतान कानूनको मानते हैं। जैन राजालोग वारकुर नगरमें सन् १९५० से १३३६ तक बहुत बलिष्ठ थे। वारकुरका पुराना किला राजा हरिदेवरायने बनाया था। मंगलोरमें जैन राजा वंगर कहलाते थे। ये रानालोग विजयनगरके राजाओंसे भी अधिक इतिहासमें प्रसिद्ध हैं जिनको यह मात्र कर देते थे।
इक्वेरी या वेदनोरवंशके लोग मालावार जातिके गौड़ थे तथा शिवभक्त या लिंगायत थे और विजयनगरके कृष्णरानाके आधीन केलदी ग्रामके स्वामी थे। सन् १९६०के अनुमान इनमें से एकने सदाशिव रानाको प्रार्थना करके वारकुर और मंगलोरकी गवर्नरी प्राप्त करली और अपनी उपाधि सदाशिव नायक रक्खी। अब जैन राजाओंमें और इकरी वंशवालोंमें शत्रुता हो गई । जिस समय जैरसप्पा और भटकलके आधिपत्त्यको रखनेवाली जैन रानी भैरवदेवी राज्य करती थी और उसने बीजापुरके आदिलशाहकी आधीनता स्वीकार कर ली थी तब इक्केरीमें वेंकटप्पा नापक राज्य करते थे। यह बड़ा दृढ़ था।
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प्राचीन जैन स्मारक |
इसने यह बात पसन्द न की और भैरवदेवीको युद्धमें हरा दिया और मार डाला तथा वारकरमें जैन प्रभावको नष्ट कर दिया । इसने मंगलोरके जैन राजाको भी दबाना चाहा परन्तु वहां वह सफल न हुआ । इटलीका यात्री डेलावल्ले Dallavaile भारत में आया था । इसने सन् १६२३ के अनुमान भारतके पूर्वीय तटकी मुलाकात ली थी । इसके लिखे पत्रोंसे मंगलोरके जैन राजा और इक्केरीके राजाके सम्बन्धका पता चलता है । यह यात्री उस एलचीके साथ गोआसे इक्केरीको होनासे और जैरसप्पा होकर गया था । यह यात्री जानता था कि वंगर जैन राजाने वेंकटप्पा नायककी कोई शर्त आधीनता स्वीकार करनेकी स्वीकार नहीं की। इस यात्रीने मनेलकी जैन राजकुमारीको चलते हुए देखा था, जब वह एक नई नहर के देखने के लिये गई थी जो उसने खुदवाई थी ।
सन् १६४६ में इकेरीके नायकोंने अपनी राज्यधानी इक्केरीसे २० मील वेदनोर में स्थापित की । यह स्थान कुन्दुपरको जाते हुए हसनगुडी घाट के ऊपर है । सन् १६४९ में शिखप्पा नायक स्वामी हुआ । इसने ४६ वर्ष राज्य किया । उस समय कारकल जैन वंशका अधिकार जाता रहा था परन्तु मंगलोर के बंगड़ जैन राजा बराबर दृढ़ता से राज्य करते रहे। इन बंगड़ राजाओं के वंशवाले अब नीचे प्रमाण पाए जाते हैं- नंदावर के बंगड़, मूलबिद्रीके चौटर, बलदलगुड़ी के अजलर, बैलनगड़ीके भुतार तथा विट्ठल हेगड़े |
कारकलकी श्री बाहुबलिस्वामीकी जैनमूर्ति ४१ फुट ५ इंच ऊँची व इसका वजन ८० टन है । इस मूर्तिको राजा वीरपांड्यने सन् १४४२ में बनवाकर प्रतिष्ठा कराई थी । मूडबिद्रीका बड़ा
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [१२५ चंद्रनाथ नीका मंदिर व कारकलका मंदिर सन् १३३४ में बने थे । तुलुवादेशके जैनियोंकी सबसे बढ़िया कारीगरी कारकलके पास हेलियान गडीपर जो जैन मंदिर व स्तम्भ हैं उनमें देखने योग्य है । गुरुवयंकरका जैन मंदिर बहुत बढ़िया है । हेलियनगडीका स्तम्भ ३३ फुट लाम्बा एक ही पाषाण है। बारकर जैन राजाओंको प्राचीन राज्यधानी थी। यहां खंडित जैन मूर्तियां बहुत मिलती हैं।
अब भी मैन लोग इधरके जैन और हिन्दू मंदिरोंके मनेनर हैं।
जैनधर्म - यह बात पूर्ण विश्वास करनी चाहिये कि महारान अशोकके समय में भी नैनधर्म कनड़ामें फैला हुआ था। नलोग केरलपुत्र राज्यतक फैले थे। प्राचीन कादम्बवंशी बनवासीलो और चालुक्य वंशी मिन्होंने पल्लवों के पीछे तुलुवामें राज्य किया निःसंदेह जैन थे तथा यह भी बहुत संभव है कि प्राचीन पल्लव भी जैन थे । कयों के पल'सक या हालसी (बेलगाम जिला) में जो जैन मंदिर है वह पत्र वंशीगनाका बनवाया हुआ है।
"bia ly Killumla: of Banevasi and chalukyas who succeeded Pallavas aj overlords of Tulsvik were undoubtedly Juin and it is probable that curly Plavas werr the same."
पिछले कादम्ब कशी लोग जिन्होंने आठवीं शताब्दी के अनुमान ब्रह्मों को बुलाया था न हों या न हों । सन् ९७० और १०३२ के मध्य एक मुसल्मान लेखक अलवरुनी हो गया है, वह लिखता है कि मलाबारके लोग समणेर या जैन थे । आज जनोंकी (मन् १८९४ साउथकनड़ा गजटियर) वस्ती उड़पी, मंगलोर व उप्पिनन्गुड़ी तालुकोंमें १०००० होगी। कनड़ाके जैन सब दिगम्बर हैं । दक्षिण कनड़ाके जैनोंके दो भाग हैं (१) इन्द्र (२)
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१२६] प्राचीन जैन स्मारक । जैन वंट-इन्द्र पुमारी या उपाध्याय वंश है जिनके दो भाग हैंकन्नड़ पुजारी और तलुव पुनारी। जिनमें कन्नड़वाले बाहरसे आए हए है। इनमें दाय भागके नियम साधारण ब्राह्मणों के समान हैं। जैन बंट अब व्यापार करते हैं।
पुगतत्व-पुरातत्त्वकी विशेष वस्तु इस दक्षिण कनड़ामें जैनधर्मके स्मारक हैं जो इस जिलेमें बहुत प्रसिद्ध हैं। बहुत बढ़िया स्मारक कारकल, मूडबिद्री व येनूरमें मिलते हैं जहां बहुत समयतक जैन राजाओंने राज्य किया है । इन राजाओंमें सबसे अधिक प्रसिद्ध कारकलके भैरारसा ओडियर थे । इस वंशके लोग पूर्वीय घाटसे आए थे। उसी पश्चिम तटके समान पाषाणके मकान उन्होंने बनवाए । फर्गुसन साहब कहते हैं कि जैन मंदिरोंका शिल्प द्राविड़ या दूसरे दक्षिणी भारतके ढंगका नहीं है किन्तु अधिकतर नेपाल और तिव्वतसे मिलता है । इसमें संदेह नहीं यह सब कारीगरी वैसी ही लकड़ीकी है जैसे कि प्राचीन समयमें थी। यहां स्मारक तीन प्रकारके हैं । (१) पहले तो कोट है जिनके भीतर विशाल मूर्तिये हैं। ऐसी एक मूर्ति यहां कारकलमें दूसरी येनूरमें है। कारकलकी मूर्ति ४ १ फुट ५ इंच ऊँची है तथा यह एक पहाड़ीपर खड़ी है, जिसके सामने सुन्दर झील है । दृश्य बहुत बढ़िया है । यह श्री गोमटम्वामीकी मूर्ति है जो श्रीऋषभदेव प्रथम जैनतीर्थकरके पुत्र थे। ऐमी ही मूर्ति मैसूरमें श्रवणबेलगोलामें है। कारकलकी मूर्तिका लेख बताता है कि यह मूर्ति सन् १४३१ में रची थी। (२) दूसरे प्रकारकी इमारतें जैन वस्ती या मंदिर हैं । ये मंदिर जिलेभरमें पाए जाते हैं जिनमेंसे सबसे बढ़िया मूडबिद्री में हैं । यहां
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मदरास व मैसूर मान्त। [१२७ इनकी संख्म अठारह है । इन मंदिरों के भीतर बहुत ही बढ़िया खुदाईका काम लकड़ी पर है । सबसे बड़ा मंदिर मूविद्रीमें तीन खनका है । इसमें १००० स्तम्भ हैं । भीतरके खंभोंमें बहुत ही बढ़िया खुदाई है । (३) तीसरे प्रकारके स्मारक स्तम्म हैं । सबसे सुन्दर स्तम्भ कारफलके पास हवन गुडीपर हैं। यह एक पाषाणका है । मूलसे शिखर तक ५० फुट है । यह ३३ फुट लम्बा है व इसमें बहुत अच्छी कारीगरी की गई है । बारकुर एक दफे जैन राजाओंकी राज्यधानी थी जिसको लिंगायतोंने १७ वीं शताब्दीमें नष्ट किया । इसमें भी बहुत बढ़िया जैनियोंके मकान थे परन्तु अब बिलकुल ध्वंश होगए हैं।
यहांके मुख्य स्थान । (१) वारकुर-ता० उड़िपी में एक ग्राम, वहांसे ९ मील। यह तुलुवा देशकी ऐतिहासिक राज्यधानी है । यह दीर्घकाल तक दोर समुद्र के होत्रसाल वल्लालोंकी राज्यभूमि थी जिनका धर्म जैन था । १२ वी व १३ वीं शत दीमें स्थानीय जैन राना स्वतंत्र होगए. उनमें बहुत बलवान भूताल पांड्य था जिसने अलियासंतान कानून चलाया। इसका मृल विजयनगर राज्यके स्थापनसे पहले ही बन चुका था जो सन १६३६ में स्थापित हुआ जिसका पहला राना हारेहर था इसने रायरूको यहांका वाइसराय नियत किया और एक किला बनवाया जिसके ध्वंश अवतक दिखते हैं। विजयनगरके पतनपर वेदनूर राना म्वतंत्र हो गए तब जैनियोंले युद्ध हुआ, उसमें जेनी नष्ट हुए । ध्वंस सरोवर, जैन मंदिर व मूर्तियां अब भी यहां बहुत हैं परन्तु जैनका कोई घर नहीं है ।
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१२८] प्राचीन जैन स्मारक ।
(२) कल्याणपुर-ता० उडिपी। यह वैष्णव गुरु माधवाचार्यकी जन्मभूमि है जो सन् ११९९ में जन्मे थे।
(३) कारकल-ता० उड़िपी-उडपीसे १८ मील, मंगलोरसे २६ मील । यह एक समय बड़ा नगर था, जैनी बहुत थे। भैररसा
ओडियर जैन बलवान रानाओंकी राज्यधानी थी। यहां बहुत स्मारक हैं। श्री गोमटम्वामीकी मूर्ति है जिसका अभिषेक जैन लोग दुग्धादिसे प्रत्येक ६० वर्ष पीछे करते हैं। उत्तरमें एक छोटी पहाड़ीके ऊपर एक चौबूटा मंदिर चार द्वार सहित है। इसके द्वार व स्तंभ आदि बहुत बढ़िया खुद ईवाले हैं। हरएक द्वारके सामने तीन कायोत्सर्ग तांबेकी पुरुषाकार मूर्तियां हैं। हवरगड़ीमें जैन स्तंभ बहुत बदया है और भी कई जैन मंदिर दर्शनीय हैं। यहां भट्टारकनाका मठ है।
.१६वीं शतानीके मध्य में भररमा ओडियर अंतिम राजा हुआ। उसके सात कन्याएं थीं। इन्होंने राज्य परस्पर बांट लिया तथा हरएकने अपना नाम वरदेवी या भैरवदेवी रक्खा । वरदेवीकी कन्याने जैरसप्पाके इचियप्पा ओडिया को बबाहा तव उसने सब गज्यको फिर मिला लिया क्योंकि उनकी मब चाची विना संतान मर गई थीं परन्तु इस वंशका नाश १ ७ वीं शताब्दीके प्रारम्भमें शिवप्पा नायक लिंगायतने किया। यहां कई शिलालेख हैं उनमेंसे कुछ नीचे प्रमाण हैं---
(१)-शाका १५१४ (सन् १५९२) हरियनगड़ीकी गुरुगम वस्तीके दक्षिण तरफ-र जा पांड्यप्पा ओडियर द्वारा दान । . (२)-शाका १५०८ (सन् १९७९) हरियनगड़ी अम्मनवर बस्तीके उत्तर भैरवराज ओडियर द्वारा दान ।
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मदरास व मैसर प्रान्त । [१२९ . (३)-शाका १२५६ (सन् १३३४) हरियनगड़ी गुरुगल वस्तीके पूर्व तरफ । देवराज राजा कृत दान ।
(४)-शाका १३५३ (सन् १४३१) श्री गोमटस्वामी मूर्तिके. पूर्व, वीरपांडय रानाद्वारा दान ।
(५)- शाका १३४६ ( सन् १४२४ ) वारंगवस्तीके पूर्वविजयनगरके देवराज द्वारा दान ।
(६)-शाका १३७७ हरियंडीके जैन मंदिर श्रीनेमीश्वरदेवको दान ।
(४४) मूडबिद्री-ता० मंगलोर-यहांसे पूर्व २१ मील । यह प्राचीन जैन राजा चौटरवंशका प्रसिद्ध नगर था । अब भी चौटरवंशी रहते हैं । उनको पेन्शन मिलती हैं। यहां १८ जैन मंदिर हैं, सबसे बढ़िया चंद्रनाथ मंदिर है। पासमें कई जैन साधुओंके समाधिस्थान हैं। पुराना पाषाणका पुल है, रानाका पुराना महल है जिसमें लकडीकी छतपर बढ़िया खुदाई है व भीतोंपर चित्र खुदे हुए हैं। यहां बहुतमे शिलालेख हैं उनमेंसे कुछका वर्णन नीचे प्रमाण है।
- (१) गुरुवस्तीके गड्डिगे मंडपके स्तम्भपर-शाका १५३७ (सन् १६१५) एक भाईने मंडप बनवाया ।
(२) इसी वस्तीके एक पाषाण पर शाका १३२९ ( सन् १४०७ ) में स्थानीय राजाने दान किया।
(३) होरमवस्तीके भैरवदेव मंडपके उत्तर दक्षिण एक स्तम्भपर एक भाईने मंडप बनवाया ।
(४) यही वस्ती शाका १३८४ (सन् १४६२ ) यहांके चित्रमंडपम्के बनानेके लिये दान ।
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प्राचीन जैन स्मारक |
(५) इसी वस्तीके भीतर शाका १९३९८ (सन् १४७६) । (६) हीरे अम्मनोवर वस्तीके एक स्तम्भपर - यह मंदिर बना शाका १४६१ (सन् १९३९) में |
(७) तीर्थकर वस्तीके पास एक पाषाणपर - शाका १२२९ (सन् १३०७) में गुरुवस्तीको दान | श्रीपार्श्वनाथ वस्ती में शाका १३३३ का लेख है कि मंदिरका जीर्णोद्धार वीर नरसिंह लक्ष्यप्पा, अरसूवंग राजा ओडियर और शंकरदेविएल मुलरेने कराया । यहां रत्नविम्ब हैं व धवल, जयधवल, महाधवलादि प्राचीन जैन ग्रन्थ भंडार हैं ।
(५) उल्लाल - ता० मंगलोर । यहांसे २ मील नेत्रावती नदीके दक्षिण व मंगलोर नगर के सामने | यह १६ व १७वीं शताब्दी में प्रसिद्ध स्थानीय जैन राजवंशका स्थान था। यहां एक किलेके ध्वंश हैं | यहांसे ६ मील उचिलका किला है जहां उल्लाल की रानी रहती थी । यहीं मनेलकी रानीका महल है ।
(६) येनूर - ता० मंगलोर - यहांसे २४ मील | यहां एक दफे ऐधयुक्त नगर था । गुरुपुरनदी के दक्षिण तटपर श्रीगोमटस्वा - मोकी मूर्ति ३७ फुट ऊंची है, इसका निर्माण सन् १६०३में हुआ था । चारों तरफ ७ या ८ फुट ऊंचा कोट है । यहां ८ जिनमंदिर और हैं। यहां भी ६० वर्षमें एक दफे अभिषेक होता है । एक अभियेक सन् १८८७ हुआ था। यहां के कुछ शिलालेख नीचे प्रमाण हैं।
(१) विमन्नर वस्ती में - शाका ११२६ (सन् १६०४) किसी उडइयर द्वारा दान । (२) गोमटेश्वर की मूर्तिपर शाका १५२६ (सन् १६०४) श्री रायकुमार द्वारा दान । (३) गोमटेश्वर वस्ती में
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मदरास व मैसूर प्रान्त ।
[ १३१ शाका १५४९ । (४) अक्कनगल वस्ती में शाका १५२६ । स्थानीय रानीने मंदिर बनवाया । (५) तीर्थकर वस्ती में शाका ११४६स्थानीय राजाने मंदिर बनवाया । Indian Antiquary V. 36. श्रीबाहुबलिस्वामी येनूर - इंडियन ऐन्टिकेरी जिल्द ५ पृष्ठ ३६-३७ से यह विदित हुआ कि - येनूर कारकलसे पूर्व २४ मील यह गुरुपुरनदी तटपर वसा है। श्रीबाहुबलिस्वामी की मूर्तिका पग ८ फुट ३ इंच लम्बा है ।
यहां श्री शांतिनाथस्वामीके मंदिरमें एक शिलालेख है उससे प्रगट है कि शाका सम्वत ११२६ (सन् १६०४) वीर निम्मराजा अजलरके शासक ने यह श्रीगोमटस्वामीकी मूर्ति स्थापित की और श्रीशांतेश्वरके चैत्यालय के निर्माणके लिये भूमिका दान महाखणी पदिलेवदेवीके मंत्री पांडिप्प ओरस विन्नानेको सुपुर्द की तब उसने यह मंदिर बनवाया ।
कारकल - यहां जो चौमुखा मंदिर छोटी पहाड़ीपर है उसमें कनड़ी में एक लेख है जिसका भाव नीचे प्रकार है । " श्रीजिनेन्द्रकी कृपासे भैरवेन्द्रकी जय हो, श्रीपार्श्वनाथ सुमति दें । श्री 1 नेमि जिन बल व यश दें, श्री अरह, मल्लि, सुव्रत ऐश्वर्य दें, पोम्बुचाकी पद्मावतीदेवी इच्छा पूर्ण करे । पनसोगाके देशीयगणके गुरु ललितकीर्तिके उपदेशसे सोमकुली, जिनदत्तकुलोत्पन्न, भैरवराजाकी बहन गुम्मतम्बाके पुत्र, पोमच्छपुरके स्वामी, ६४ राजाओंमें मुख्य, वंग नगरके राजा न्यायशास्त्र के ज्ञाता, काश्यपगोत्री इम्मदिभैरवने कापेकल (कारकल) की पांड्यनगरीमें श्रीगोमटेश्वर के सामने चिक्कवेव्चर चैत्यालय बनवाया तथा शालिवाहन सं० १९०८ चैत्रसुदी
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प्राचीन जैन स्मारक |
५ को श्री अर, मल्लि तथा सुव्रतकी मूर्ति चारों तरफ स्थापित कीं व पश्चिम की ओर २४ तीर्थंकर स्थापित किये तथा अभिषेकके लिये तेलपारू गाम दिया । यह लेख इंद्र वज्ञाछंद में स्वंय महाराजने रचकर लिखा है | प्रारम्भ में वीतराग शब्द है ।
जिला चिंगलपेट |
वल्लिमलाई - यहां पूर्वओर जैन मूर्तियोंके दो समूह हैं। पहले समूह के नीचे ४ कनड़ी लेख हैं, जिनका भाव यह है ।
नं ० १ - ( गंगवंशी ) शिवमारके परपोते, श्रीपुरुषके पोते, वरण विक्रमके पुत्र राजमल्लने एक वस्ती (जिनमंदिर) बनवाई | नं० २ - जैनाचार्य आर्यनंदिन प्रतिष्ठा कराई ।
नं ० ३ - वाणराय आचार्य के शिष्य की मूर्ति = स्वस्ति श्री वाणराय गुरुगल अप्प भवनंदि अट्टारक शिष्येर अप्पदेवसेन भट्टारक प्रतिष्ठा ।
नं० ४ - स्वस्तिश्री बालचंद्र भट्टारक शिष्य आर्यनंदि भट्टाकाशिद प्रतिमे गोवर्द्धन भट्टारके पेदमवरे - यह प्रतिमा गोवर्द्धन गुरुकी है | देखो Epigraphica Indica Vol.IX.
P. 140-142.
जिला अनंतपुर ।
हेमवती - नीलंबलोगों की राज्यधानी पेंजरू या है जेरुमें थी जिसको तामील भाषा में : पेरमचेरू कहते हैं । यही हेमवती नगरी है जो तालुका मदुक सिरा में सीरनदी के तटपर है। इस नगरीका नाम बहुतसे शिलालेखों में आता है । यह बहुत ही प्रसिद्ध जगह है। नवीं शताब्दी में नोलम्ब राजाओं का विवाह सम्बंध गंगवंशी राजाओंसे होता था । नोलम्बाधिराजने नीतिमार्ग गंगमहाराजकी छोटी बहिन जायको विवाहा था । (देखो Mysore II. P. 163. )
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मदरास व मैसूर पान्त ।
मदुरा जिला । पांडव-पांडवलोगोंने दक्षिणमथुरा या मदुरामें आकर राज्य किया तथा फिर दीक्षाली और शेव्रुनयसे मोक्ष गए । इसका प्रमाण शक सं० ७०५ में प्रसिद्ध श्रीजिनसेन कृत हरिवंशपुराणमें है। पर्व ५४-सुतास्तुपांडोहरिचन्द्रशासनादकांड एवास निपात निष्ठुरान् ।
प्रगत्य दाक्षिण्य भृता सुदक्षिणां जनेन काष्ठां मथुरां न्यवेशयत् ॥७४॥ समुद्रवेला सुमनोहग सुते लवंगकृष्णागुरुंगधवायुषु । सुचंदनामोदित दिक्षु दक्षिणा जिहहरुच्चैर्मलयादि सानुषु ॥७५।।
भावार्थ-श्रीकृष्णकी आज्ञासे पांडव दक्षिण मथुरामें राज्य करने लगे व मलयपर्वतकी गुफाओंमें विहार किया। पर्व ६३-पुत्रपोषित निजश्रियोऽगमत पल्लवाख्य विषयं जिनं प्रति ।
___द्रौपदी प्रभृतयस्तदंगनाः संयमं प्रतिनिविष्टबुद्धयः ॥७॥
भावार्थ-पांडव पुत्र व स्त्रीसहित पल्लवदेशमें श्रीनेमिनाथ भसवानले समवशरणमें गए वहां उनकी द्रोपदी आदि स्त्रियोंने संयम धारण किया। पर्व ६४- इत्थं ते पांडवाः श्रुत्वा धर्म पूर्वभवांस्तया । ।
____ संवेगिनो जिनस्यांते संयमं प्रतिपेदिर ॥ १४३ ॥
भावार्थ-श्रीनेमिनाथ तीर्थकरके निकट इस तरह धर्मका स्वरूप व अपने पूर्वभवोंको सुनकर पांडव वैराग्यवान होगए और उनहींके चरणकमलमें मुनिदीक्षा धारण की । पर्व ६५-ज्ञात्वा भगवतः सिद्धि पंचपांडव साधवः ।
सत्रुजय गिरौ धीराः प्रतिमायोगनं स्थिताः ॥ १८ ॥
भावार्थ-श्रीमेमिनाथनीको सिद्धि प्राप्त हुई ऐसा जानकर पांजों पांडव साधु परमधीर श्रीक्षेत्रुञ्जय पर्वतपर ध्यान लगाकर तिर्छ।
(१) मुड़की-मंगलोरसे उत्तर १६ मील या एक जैन मंदिर है।
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प्राचीन जैन स्मारक |
(८) अल्दन गड़ी - ता० मंगलोर - प्राचीन जैन राजा अजलरका कौटुम्बिक स्थान ।
(९) कांगड़ा मौजेश्वर - ता० कासरगढ़ - मंगलोर से दक्षिण १२ मील | यहां प्राचीन जैन मंदिर है, कासरगढ़से उत्तर १६ मील ।
(१०) बसरूर - ता० कुन्दापुरसे ४ मील । यहां नगरके कोटकी भीत बहुत बड़ी है तथा मंदिर प्राचीन हैं । यह प्रसिद्ध व्यापारी स्थान है । अरबलोग यहां बहुत व्यापार करते थे । बसरूरकी जैन रानी १४वीं शताब्दी में देवगिरिके यादव राजा शंकर नायकको मान देती थी । डारटे बारवोसा Duarte Barbosa साहब लिखते हैं कि सन् १९१४में यहां मलाबार, ऊर्मन, अदन, बजहरसे बहुत जहाज आते थे । जैरसप्पाकी जैन रानीने सन् १९७० और १९८० के मध्य में वसरूरनगर वीजापुर राज्यको दे दिया था इसपर विजयनगर के राजा क्रोधित होगए थे । तब उन्होंने स्थानीय जैन शासकोंका विध्वंश किया ।
(११) बैदूर या बैदूंर-कुन्दापुर से १८ मील । यहां जैन रानी भैरवदेवीका बनवाया हुआ एक किला था ।
(१३) अलेबूर - भूतल पांड्यके अलिया संतान कानूनमें जिन १६ नगरोंके नाम दिये हुए हैं उनमेंसे यह एक नगर है ।
(१४) वारांग - हेगड़े वंशके जैन राजाका स्थान । यहां प्राचीन जैन मंदिर है, यहां तीन शिलालेख हैं (१) शाका १४३६ ( सन् १९१४) दान देवराज महाराज द्वारा (२) शाका १४४४ दान
भैरव द्वारा (३) शाका १४३७ दान एक गृहस्थ द्वारा । दक्षिण
कनड़ाके सब कोर्ट में एक ताम्रपत्र नं ० ८९ है । इसमें कनड़ी लिपिमें
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मदरास व मैसूर प्रान्त |
[ १३५ संस्कृत कनड़ी भाषा में यह तीन पत्र मिले हैं। इनपर मोहर है जिसमें जैन मूर्ति है । विजयनगरके राजा देवराजने शाका १३४६ (सन् १४२४) में बरांगलका ग्राम वरांगके श्रीनेमिनाथ मंदिरको दान किया । विक्खा महीपतिका पुत्र राजा हरिहर, इसका पुत्र रेवाराय, इसका पुत्र विजयभूपति भार्या नारायणदेवी उनका पुत्र देवराज ।
दूसरा ताम्रपत्र साउथ कनड़ाकी सब कोर्ट में नं ० ९१ है इसमें है कि किन्निग भृपाल राजाने शाका १५१३ में जैन मंदिर में पूजाके लिये भूमि दान दी। (A. S. of D. India Vol. II. Sewell. ) (१५) बलि साविर् - (१००० बंश ) यह कहावत है कि यहां नन्दावर वंशके १००० कुटुम्ब रहते थे जो अलियासन्तान कानूनको मानते थे ।
(१६) मुद्रादी - मंगलोर से उत्तर ४० मील । यह स्थान जैन चौतर राजाके आधीन वल्लाल राजाका प्राचीन निवास स्थल था । (१७) सूराल - मंगलोर से उत्तर १९ मील । एक जैन राजाका निवास स्थान ।
(१८) बैलनगड़ी - प्राचीन जैन राजा मुलरका वंश - स्थान | (१९) सिसिल - मंगलोर से ४५ मील । अनुमान ११ वीं शताब्दी में यह हमसके जैन वंशके आधीन तुलुव देशकी राज्यधानी थी । यह हूमसवंश पश्चात् कारकलके बेरसा उडियर होगए थे । (२०) धर्मस्थल - मंगलोरसे ३७ मील | यहां के हेडगे जैन 1 वंशवालोंने जमालाबादपर सन् १८०० में इंग्रेजोंकी अच्छी सेवा की थी। (२१) एल्लारे - येरवत्तूर मांगनी में - उडिपी से उत्तर १ मील । जनार्दन मंदिरके भीतरी प्राकार में दो शिलालेख हैं इनमें से
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प्राचीन जैन स्मारक |
एक शाका १९७१ (सन् १४४९) का है जिसमें जैन मंदिरको - दानका कथन है ।
(२२) कोरवा से - उडिपीसे पूर्व दक्षिण २६ मील | कारकलसे पूर्व ८ मील । एक जैनमंदिर के आंगन में लेख शाका १०८३ (सन् १९६१) का है जिसमें कुमारराय द्वारा दानका कथन है ।
(२३) मरने - उडिपीसे पूर्व १६ ॥ मील व कार्कलसे उत्तर ७ मील | यहां एक चावल के खेतमें एक शिलालेख शाका १३३१ (सन् १४०९ ) का है इसमें किसी राजाके वारकरके जैन मंदिर के दान करनेका कथन है ।
(२४) नल्लूर - अल्दूर मांगने में, उड़िपीसे दक्षिण पूर्व २४ मील । नरना युवानीके घर के पास चावल के खेत में एक शिलालेख शाका १५१८ (सन् १२९६ ) का है। इसमें जैन मंदिरको दान करनेका कथन है ।
(२५) पादुपनम् बूरु - मंगलोर से उत्तर १ मील । मुलकीसे दक्षिण ३ मील | यहां जैन मंदिरका अग्रस्तम्भ मिलता है जिसपर लेख है ।
(२६) बैल - ता० उप्पिनेनगडी - तालुका यहांसे पूर्व १७ मील, यहां श्रीपार्श्वनाथजीका जैन मंदिर है ।
(२७) वेल्लतनगड़ी - मंगलोरसे उत्तर पूर्व ३२ मील । यह प्राचीन नगर था। यहां बंगार राजाका बनाया किला और जैन मंदिर है । ( Sce Buchanan II. P. 291 )
(२८) गुरु यवनकेरी - उड़िपीसे उत्तर पूर्व १२ मील । यहां ५ स्तम्भोंपर एक प्राचीन जैन मंदिर है ।
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मदराय व पैसा पाइन्छ। [१३७ (२९) बुन्द-कुन्गारसे उत्तर ९ मील। एक जैन मंदिरके ध्वंश हैं । इसमें दो जैन मूर्तियां हैं ।
(३०) बंगडी-उप्पिननगुड़ीसे उत्तर पूर्व २४ मील । श्रीशांतिनाथ नीका प्राचीन जैन मंदिर है। यहांके शांतिराज इन्द्रके पास नीचे लिखे ६ ताम्रपत्र हैं.-...-. (१) शाका १५१७ वरदा सेठ द्वारा दान । (२) , १४३८ विजयनगरके रत्नप्पा ओडयर और अजप्या
ओड़यर द्वारा दान । (३) , १९१७ कमी रायसंग द्वारा दान । (४) ,, १३४३ कल्लीमणिदा द्वारा दान । (५) ,, १५१७ कन्नीराय वंग राजा श्रोड्यर द्वारा दान । (६) ,, १६४८ कारकळके अतिकीर्तिदेव द्वारा दान ।
(३१) कुट्टियर-इप्पिननगदीसे उत्तर पूर्व १२ मील । श्रीशांतिनाथजीका जैन मंदिर, यहां दो कनड़ी शिलालेख हैं।
(१) शाका १०४४ जैन नगरवासियों द्वारा दान । (२) मानस्तंभ पर एक लेख इसी प्रकारका हैं ।
(३२) सिबोजी-उप्पिननगडीसे उत्तर पूर्व १६ मील । श्री अनंतनाथजीका प्राचीन जैनमंदिर । प्राचीन कनड़ी लेख बाका १४६४-बीरभन्नबौडेय असू द्वारा दान ।
मदरासके एपिग्राफी दफ्तरमें नीचे लिखे चित्रादि हैं(१) बं० सी ३३ मूडबिद्रीमें एक मूर्ति जो कलुन गुलसे आई (२) नं. सी २४ , श्री चन्द्रनाथ मंदिरका पूर्वीय भाग (३) , , ३५ . , , दक्षिण पूर्वीय भाम
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१३८] प्राचीन जैन स्मारक । (४) नं० सी ३६ श्री चंद्रनाथ वस्तीका द० पूर्वीय भाग (९) , , ३७ , , , भीतरी भाग (६) ,, ,, ३८ , , ,, भैरवदेवी के उत्तर पू..
कोने में एक स्तम्भ ,, ,, ३९ इसी मंडपके दक्षिण प० कोनेका स्तम्भ
,, ४० , उत्तर पश्चिम , ,
,, ४१ , दक्षिणपूर्वीय , ,
,,, ४२ इसीके भैरवदेवी मंडपका नीचेका भाग (११) ,, ,, ४३ इसी मंडपमें नीचेसे ऊपर आलेतक (१२) , , ४४ , " " " (१३) ,, , ४५ , , " "
,, ४६ इसी मंडपका दक्षिणपूर्वीय स्तंभ
४७ इसी मंदिरका मानस्तंभ (१६), ,, ४८ , विशेष (१७) , , ४९ ,, समाधि स्मारक पाषाण (१८) ,, , ५० , " " " (१९), ५१ , लकड़ीका रथ (१९) ,, ,, ५२ मूडबिद्रीमें चौटरके महलका लकड़ीका खुदा स्तम्भ (२०), ,
में लकड़ीका हाथी (२१) , ,
, में लकड़ीका खुदा स्तंभ (२२), "
में लकडीके खंभेमें घोड़ा (२३), , ५६ , , में सामनेके बरामदेमें खंभा (२४), , ५७ ,, जैनियोंका प्राचीन पुल
(१५) ,
५३ "
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(२९), ,
२
(३२)", ६५
मदरास व मैसूर प्रान्त। [१३९ (२५)नं०सी ५८ मूडबिद्रीमें जैनसाधुओंके समाधिस्थानोंका समूह (२६) ,, ,, ५९ बड़ा जैन साधुका समाधिस्थान (२७),,
दो जैन व्यापारियोंका समाधिस्थान (२८),, ,, ६१ , जैन समाधिस्थानके पास स्मारक पाषाण
छोटे चंद्रनाथ मंदिरका साधारण दृश्य (३०), , ६३ , , ,, का दक्षिण पूर्व भाग (३१) ,, ,, ६४
,, के सामनेके मानस्तंभका गुम्बन
में नंदी तीर्थंकर (३३) ,, ,, ६६
में पंच परमेष्ठी (३४) ,, , ६७ , , में श्रतस्कंध (३५),,, ६८ ,, में जैन मंदिरका स्मारक पाषाण (३६),, , ६९ कारकलमें नेमीश्वर जैन मंदिरके सामनेका मान
स्तंभका पूर्वीय भाग (३७),, ,, ७० , , , के मानस्तंभका भाग (३८) ,, ,, ७१-कारकलमें चतुर्मुख नै० म० दक्षिण पश्चिम भाग (३९) ,, ,, ७२ ,, गोमटेश्वर मूर्तिके सामने मानस्तंभ द.प.,, (४०) ,, ,, ७३ , , मूर्तिका सामनेका भाग (४१) ,, ,, ७४ , , , उत्तर पश्चिम भाग
७५ ,, , , के छातीके उपरका भाग (४३),
__एनरके गोमटेश्वरकी मूर्तिका साधारण दृश्य (४४) ,,
, , सामनेका भाग (४५) ,, , ७८
,, उत्तर पूर्व भाग. (४६),
बगळका भाग
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(५०)
(५४) (५५) ,, ,
___१४०] प्राचीन जैन स्मारक । (४७) नं० सी ८० एनूस्के गोमदेश्वरकी मूर्तिका पीछेका भाग (४८) ,, , <१ , , ,, छाती ऊपरका भाग (४९) ,, ,, गोमट ज.म. शांतिनाथ मूर्ति द.प. ,,
,, , , स्मारकमें पाषाण
,, ,, ,, सामनेके मानस्तंभ द.प.,, (५२)
,, के शांतीश्वर जैनमंदिरका दृश्य (५३)
, , , का मानस्तंभ ___" " , मानस्तंभका विशेष
,, ख़ुदा हुआ पाषाण ८९ गुरु यवनकेरीके शांतिश्वर मंदिरका द. पू. भाग ९° , , , पश्चिम भाग
९१ गुरुवयनकेरीके चंद्र जैनमंदिरका द. प. भाग (५९) , ,
" ,, पश्चिम भाग (६०) , , ९३ , शांतीश्वरके पांच खभेवाले मंडपका
उत्तर पश्चिम भाग
,, शांतीश्वर जैन मंदिरका विस्तार (६२) ,, ,, ९९ , , सामने मानस्तंभ (६३) ,, , ९६ , , मानस्तंभका विशेष (६४) नं० ६६७ सन् १९२० फोटो मंगलोर ता०के कादरी जैन
मंदिरके भीतर एक स्तंभका (६५) ,, ६७२ सन् २० कारकलके हरियनगड़ीके धर्माधिकारी
जैन मंदिरमें नैन आचार्योंके समूहका फोटो (६६) , ६५३ सन् २०-वहीं-खुदा हुआ पाषाण लेख सहित
(६१) " "
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [१४१ (६७) नं. ६७४ सन् २० वहीं श्रीचंद्रनाथकी अष्टधातु मूर्ति (६८) ,, ६७६ , २० कारकलमें कारेषस्तीका श्रीगोमटेश्वर
सहित दृश्य । (६९) ,, २२३ सन् २० मंगलोरके कादरीके जैन मंदिरकी सन
१९२१-२२की रिपोर्ट एपिग्रैफिकामें है कि कारकलके तहसीलदारके पास नीचे लिखे दो
ताम्रपत्र हैं--- (१) नं० ४ शाका १४६५ इकरारनामा परस्पर मित्रताका तिरुमलरस
चौटरूने कनवासी पांड्यप्परसको दिया । नं. ५ ऐसा ही इकरारनामा चंदलदेवीके पुत्र पांड्यप्परसने तिरु
मल दस चौटरू और जैनगुरु ललितकीर्ति भट्टारकको दिया।
(२४) ट्रावनकोर राज्य । यह स्थान उत्तरसे दक्षिण १७४ मील लम्बा व ७५ मील चौड़ा है । इसकी चौहद्दी इम भांति है-उत्तरमें कोचीन और 'कोयम्बटर, पूर्वमें पश्चिमीय घाट, दक्षिणमें भारतीय समुद्र, पश्चिममें अरब समुद्र।
यह प्रदेश बहुत सुन्दर व उपजाऊ है ।
इतिहास-यह प्रदेश केरलके प्राचीन राजाओंका एक भाग था। ९वीं शताब्दीके प्रथम अर्द्धभागमें चेरामान पेरूमालने इसे अपने सम्बंधियोंमें बांट दिया । ११ वीं शताब्दीमें चोलोंने व १३ वीं में मदुराके पांड्य राजाओंने राज्य किया। विजयनगरके राजा अच्युतराय और सदाशिवने क्रमसे सन् १५३४ और
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१४२ ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
१९४४ में इसपर हमला किया । सन् १९६५ में यह मदुराके नायक राजाओंके आधीन होगया ।
१८ वी शताब्दीके आदि भागमें मेरतंड वर्माने इसे ले लिया । येही वर्तमान राजाओंके बड़े हैं ।
पुरातत्त्व - यहां प्राचीन मंदिर हैं ।
(१) अलवये - कोचीन शोवनूर नदीपर ता० अलेनगांड | यहां शंकराचार्य का जन्म हुआ था ।
(२) कोल्लालूर - त्रिवन्द्रमसे दक्षिण २१ मील । कोल्छालूरके पूर्व ३ मील चारलमलई नामकी पहाड़ी है । इसपर भगवती कोविल नामका प्राचीन चट्टान में ख़ुदा मंदिर है। इसके मध्य कमरे में एक नग्न जैन तीर्थंकर की मूर्ति बैठे आसन छात्र सहित है । दूसरी मूर्ति दक्षिणके कमरेमें है । मंदिर के उत्तर चट्टान के मुखपर ३२ जैन तीर्थकरों की मूर्तियां अंकित हैं । तीन शिलालेख हैं ।
(२५) कोचीन राज्य ।
यहां १३६१॥ वर्गमील स्थान है । चौहद्दी है - उत्तरमें मलावार, पूर्व में मलावार और ट्रावनकोर, दक्षिण में ट्रावनकोर, पश्चिममें मलावार और अरब समुद्र । इसके दो भाग हैं। छोटे भागको कोयम्बटूरके मलावार लोग चित्तूर कहते हैं ।
इतिहास - यहां नौमी शताब्दी में केरलका राज्य था । पुरातत्त्व - यहां इतिहासके पूर्व के समाधि स्थान मिलते हैं, पहाड़ में खुदी गुफाएं हैं जिनमें मुख्य तिरुविलवमदे और तिरुकर पर हैं।
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [१४३ .
(२६) मैसूर राज्य। इस राज्यमें २९४३३ वर्गमील स्थान है।
चौहद्दी इस प्रकार है-सिवाय उत्तरके सब ओर मदरासके जिले हैं । पश्चिममें दो बम्बईके जिले हैं, दक्षिण पश्चिममें कुर्ग है।
___ इतिहास-मैसूरका पुराना इतिहास सन् ई० से ३२७ वर्ष पहले शुरू होता है जब महान सिकन्दरने भारतपर चढ़ाई की थी। यह बात उन ७००० लेखोंसे प्रगट है जो राज्यभर में फैले हुए हैं (See Epigraphica Carnatica 12 Volumes by M. L. Rice C. I. E) सिकन्दरके पीछे महाराज चंद्रगुप्तका सम्बन्ध मिलता है । जैनियोंकी कथाओंसे और शिलालेख तथा स्मारकोंके प्रमाणोंसे यह सिद्ध है कि महाराज चंद्रगुप्त मौर्याने अपना शेष जीवन मैसूरके श्रवलबेलगोला स्थानमें बिताया था। जैन कथासे प्रगट है कि जब श्रीभद्रबाहु श्रुतकेवलीने यह भविप्यवाणी कही कि १२ वर्षका दुप्काल पड़ेगा तब उसके प्रारंभमें ही महाराजा चंद्रगुप्तने राज्य त्यागके साधुवृत्ति धारण करली और अपने गुरु महाराजके साथ उज्जैनसे दक्षिणकी तरफ प्रस्थान किया। जब वे श्रवणबेलगोला आए, भद्रबाहुस्वामीने अपना मरण निकट जाना तब अपने मुनिसंघको विशाखाचार्यके आधिपत्यमें पुन्नाटदेश (मैसूरका दक्षिण पश्चिम भाग) में भेज दिया। आप स्वयं वहां ठहर गए । मात्र एक शिप्य उनके साथ रहा । वह महाराजा चन्द्रगुप्त थे। भद्रबाहुस्वामीका स्वर्गवास हुआ पश्चात् १२ वर्ष तप करके महारान चंद्रगुप्तने भी समाधिमरण किया। मैसूरके उत्तर पूर्व अशोकके शिलालेख मिले हैं जिससे सिद्ध है कि इस मैसूरके भाग
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१४४ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
मौर्य राज्यमें गर्भित थे । अशोकने जब अपने एलची और देशों में भेजे थे तब महिषमंडल (मैसूर) और वनवासी ( मैसुरके उत्तर पश्चिम ) में भी भेजे थे। ये दोनों शायद उसके राज्यकी हद्दके ठीक बाहर होंगे । पश्चात् मैसूरका उत्तरी भाग अंधवंश या शतबाहन वंशके आधीन आगया । इस शतवाहमसे शालिवाहन संवत् प्रसिद्ध हुआ है जिसका प्रारम्भ सन् ई० ७८ से होता है । इनका शासनकाल सन् ई० से दो शताब्दी पूर्वसे दो शताब्दी पीछे तक है । इनका राज्य पूर्व से पश्चिम तक सम्पूर्ण दक्षिण में फैल गया था । इनकी मुख्य राज्यघानी कृष्णा नदीपर धनकटक या धरणीकोटा थी परन्तु पश्चिम की ओर इनका मुख्य नगर गोदावरी नदीपर पैंथन था । मैसूर में जो राजा राज्य करते थे उनका नाम शतकरणी प्रसिद्ध था ।
कादम्बवंश और पल्लव वंश - अंध्रवंश के पीछे उत्तर पश्चिममें कादम्बोंने, तथा उत्तर पूर्व में पलवोंने राज्य किया । कादम्बोंका जन्मस्थान स्थानगुंडुर ( शिकारपुर ता० में तालगुंड कहलाता है ) था तथा पल्लवोंका कांची या कंजीवरम मुख्य राज्यस्थान था । पल्लवोंका राज्य टुन्डाक या टुन्डमंडल ( मैसूर के पूर्वका मदरास हाता) कहलाता था। इन्होंने महाबली या बाण वंशजोंको हटा दिया था । ये महाबली लोग अपनी उत्पत्ति बलि या महाबलिसे बताते हैं तथा इनका संबंध महाबलिपुर से था (मदरासके तटपर जहां ७ प्रसिद्ध मंदिर हैं ।
नौमी शताब्दी से पल्लवोंका नाम नोलम्ब प्रसिद्ध हुआ । उनका राज्य नोलम्बवाड़ी ( चीतलढुग जिला ) कहलाने लगा जहांके निवासी अब भी नोलम्ब कहलाते हैं ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [१४५ ____Mysore (Vol. I. Rice ) नामकी पुस्तकसे विशेष इतिहास यह प्रगट हुआ कि चंद्रगुप्त मौर्य जैन था। यह बात मेगस्थनीनके कथनसे भी सिद्ध है जिसने इसको श्रमणका नाम दिया है। चंद्रगुप्तने सन् ई० से पहले ३१६ से २९२ तक राज्य किया था फिर उसके पुत्र विन्दुसारने २६४ ई० पूर्वतक, फिर उसके पुत्र अशोकने २२३ ई० पूर्व तक ४१ वर्ष राज्य किया था। अशोकका एक शिलालेख २५८ वर्ष पूर्वका मलकत मरु तालुकेसे मिला है । महाराजा अशोक पहले जैन थे यह बात उनके लेखोंसे प्रकट है तथा अकबरके मंत्री अबुलफनल लिखित आईने अकबरीसे सिद्ध है कि महाराज अशोकने काश्मीरमें जैन धर्मका प्रचार किया। यह बात राजतरंगिणीसे भी सिद्ध है कि अशोक यहां जैन शासनको लाया था। मैमूरके जो लेख हैं उनमें देवानाम् प्रिय यह उपाधि महाराजा अशोकको दी है।
शतवाहन या शालिवाहन वंशके राज्यके पीछे यहां कादम्ब वंशने राज्य किया। इनके वंशकी १६ पीढ़ी तीसरीसे छठी शताब्दी तक मिलती हैं। इनका एक लेख प्राकृतमें जिसमें सलाकरणी द्वारा दान है व दूसरा संस्कृतमें गुफाओंके भीतर महीन अक्षरों में नुदे मिले हैं। दूसरे सब लेख बड़े अक्षरों में संस्कतमें हैं जिनमें कई बहुत सुन्दर हैं। इनमें बहुतसे लेखोंमें जैनोंको दानका लेख है बहुत थोड़ोंमें ब्राह्मणोंको दान है ।
(Many of those grants are to Jains, but a few are to Brahmans.)
० नोट-इसीसे सिद्ध है कि कादम्बवंशी राजा अधिकतर जैनधर्मी थे।
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प्राचीन जैन स्मारक ।
महावली - वंशका सबमें प्राचीन लेख सन् ३३९का मुदियनूर ( ता० मुलवगल ) में मिला है ।
गंगवंश - गंगवंशकी उत्पत्तिके लिये देखो शिलालेख ग्यारहवीं शताब्दीके जो पुरले, हूमश तथा कल्लरगुड्डुमें मिले हैं । इनसे प्रगट है कि इक्ष्वाकु या सूर्यवंश में महाराजा धनञ्जय थे, उनकी स्त्री गंधारदेवी थी । इनके पुत्र राजा हरिश्चन्द्र अयोध्यामें हुए । इनकी भार्या रोहिणीदेवी थी । इनके पुत्र राजा भरत हुए। स्त्री विजयमहादेवी थी । गर्भके समय में इसने गंगा नदीमें स्नान 1 किया था, उसी समय इसके पुत्रका जन्म हुआ तब उस पुत्रका नाम गंगदत्त प्रसिद्ध हुआ ।
इसके वंशवाले गंगवंशी कहलाने लगे । इसी वंश में महाराना विष्णुगोप हुए हैं जिन्होंने अहिछत्रपुर (युक्तप्रांत के बरेली के पास) में राज्य किया । उनकी भार्या पृथ्वीनती थी । इसके दो पुत्र थे- भागदत्त और श्रीदत्त | भागदत्तको कलिंगदेशका राज्य दिया गया। इसके वंशज कलिंगगंग कहलाने लगे । श्रीदत्त प्राचीन स्थान में राज्य करते रहे । इसके वंश में राजा प्रिय बंधुवर्मा हुआ । फिर कुछ काल पीछे राजा कम्प हुए । इनके पुत्र राजा पद्मनाभ थे । इनके दो पुत्र थे जिनका नाम राम और लक्ष्मण रक्खा गया था । पद्मनाभ के साथ उज्जैन के राजा महीपालका झगड़ा होगया तब यह पद्मनाभ अपने दोनों पुत्र और एक छोटी पुत्रीके साथ दक्षिणको प्रस्थान कर गए । अपने दोनों पुत्रों का नाम ददिग और माधव बदल दिया । दक्षिण में पेखर स्थान (जिला कुड़ापा, अब भी इसको गंगरूर कहते हैं ) पर जब ये पहुंचे तब वहां
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [१४७ कणूरगणके आचार्य सिंहनंदि (जैन मुनि ) से भेट हुई। दोनों पुत्रोंने बहुत विनय की तब मुनि महाराजने अपनी मोरपिच्छिका मस्तकपर रखकर आशीर्वाद दी तथा उनको नीचे लिखे वाक्योंमें उपदेश दिया और कहा कि तुम अपनी ध्वनाका चिह्न मोरपिच्छिका रक्खो ।
___“यदि तुम अपनी प्रतिज्ञा भंग करोगे, यदि तुम जिनशासनसे हटोगे, यदि तुम परकी स्त्रीका ग्रहण करोगे, यदि तुम मद्य व मांस खाओगे, यदि तुम अधमोंका संसर्ग करोगे, यदि तुम आवश्यक्ता रखनेवालोंको दान न दोगे, यदि तुम युद्धमें भाग जाओगे तो तुम्हारा वंश नष्ट होजायगा।" ।
इस तरह आशीर्वाद पाकर इन दोनों वीरोंने नंदगिरि (नंदि द्रग) अपना किला, कुवलाल (कोलाल या कोलार ) अपनी राज्यधानी, ९६००० ग्राम अपना राज्य, श्रीजिनेन्द्र अपना देव, श्रीजिनमत अपना धर्म स्थिर रखके पृथ्वीपर राज्य किया जिस राज्यकी चौहद्दी हुई-उत्तरमें मदरकलो, पूर्वमें टोंडनाद, पश्चिममें चेरांकी तरफका समुद्र, दक्षिणमें कोंगु-पेनूर (जिला कड़ापा), श्री इन्द्रभूति आचार्यने अपने समयभूषण ग्रंथमें सिंहनंदीका नाम लिया है। ( See Indian Antiquary XII. 20.)
इन राजाओंका गोत्र कान्वायन था। दूसरी शताब्दीमें मैसुरके भागमें राज्य करने लगे । इनके राज्यको गंगवाड़ी कहते थे। वर्तमानमें जो गंगदिकार लोग पाए जाते हैं वे इसी वंशके हैं, इन्होंने ११ वीं शताब्दीके प्रारम्भ तक मैसूरमें राज्य किया । ये वास्तवमें गंगाकी घाटीके लोग हैं । ग्रीक और रोमके लेखकोंने इन गंग लोगोंको महाराज चंद्रगुप्त मौर्यकी खास प्रजा लिखा है। कलि
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१४८] प्राचीन जैन स्मारक। गदेशके गंगवंशी राजाओंको Pliny प्लिनी लेखकने गंगरिंदय कलिंगप लिखा है-गंगवाड़ीकी चौहद्दी इस भांति दी हुई है। उत्तरमै नरनदले (पता नहीं), पूर्वमें टोंगनाद, पश्चिममें समुद्रचेरा (ट्रावनकोर
और कोचीन) की ओर, दक्षिणमें कोंगु (सलेम और कोयम्बटूर) । इस गंगवंशके राजाओंका सरनाम कोंगुनीवर्मा था। जिन गंगवंशी रानाओंने मैसुरमें राज्य किया उनकी सूची आगे है
गंगवंशी राजा । (१) कोंगणीवर्मा माधव
सन् १०३ (२) किरिया माधव १३) हरिवंश
२४७ से २६६ (४) विष्णुगोप (५) तादंगली माधव
सन् ३५० (६) अविनीत कोंगणी
सन् ४२५ से ४७८ (७) दुर्विनीत ,
,, ४७८ से ११३ (८) मुश्कर या मोक्कर (९) श्री विक्रम (१०) भूविक्रम श्रीवल्लभ
सन् ६७९ (११) शिवमार प्रथम, नवकाय, या एथ्वीकोगणी ६७९-७१३ (१२) पृथ्वीपति, पृथुघोस या भारसिंह ७१३ से ७२६ (१३) श्री पुरुष मुत्तरस परमांदी पृथ्वीकोंगणी ७२६ से ७७७ (१४) शिवमार हि ( संगोथी ) ७८० से ८१४ (१५) विजयादित्य
८१४ से ८६९ (१६) राचमल्ल प्रयम सत्त्यवाक्य ८६९ से १९३
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मदरास व मैसूर पान्त। [१४९ (१७) नीतिमार्ग प्रथम मरुलनन्निय गंग ८९३ से ९१५ (१८) एरयप्पा महेन्द्रांतक
९२१ से ९३० (१९) बुटुग, गंग, गंगेय
९३० से ९६३ (२०) मारसिंह, नोलम्बकुलतिलक ९६३ से ९७४ (२१) राचमल्ल द्वि०
९७४ से ९८४ (२२) राक्षसगंग-गोविंदराज
९८४ से ९९६ (२३) गंगराजा
९९६ से १००४ नोट-इस गंगवंशकी नामावली बंबई स्मारकमें पृ० १२८में दी हुई है उससे इसमें कुछ ही फर्क है । जिस समय सिंहनंदीने गंगवंशपर कृपा की उससमय मैसुरमें जैन जनता बहुत संख्यामें होगी। दुदिग या किरिया माधव प्रथम बहुत विद्वान थे व राज्यनीतिमें कुशल थे। इन्होंने दत्तक सूत्रपर एक टीका लिखी थी (नोटइसका पता लगाना योग्य है ।) इसके पुत्र हरिवर्माने अपनी राज्यधानी तलकांडपर स्थापित की।
अविनीत राजाने पुनाउ १००००में जैनियोंको भूमि दान दी थी। दुर्विनीतके गुरु शब्दावतारके कर्ता आचार्य पूज्यपाद थे। इन्होंने भैरवीकी किरातार्जुनीयपर एक वृत्ति लिखी है । श्रीपुरुषने बहुत कालतक राज्य किया । इनके राज्यको श्रीराज्य कहते थे। इन्होंने मान्यपुर (नेलमंगल ता०में मौने) पर अपनी राज्यधानी स्थापित की थी। इस राजाने कादुवतीको विजय किया, पल्लव राजाको पकड़ लिया व परमानन्द्रीकी उपाधि कांचीके महाराजसे प्राप्त की । इसने वाण राज्यको फिरसे दृढ़ किया और हस्तिमल्लको राज्यपर विठाया। इसने हाथियों के कामोंपर एक गजशास्त्र नामका
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१५० ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
ग्रन्थ लिखा है । शिवमार द्वि० गजाष्टकका कर्ता था । इस समय राष्ट्रकूटोंका बल बढ़ गया, उन्होंने गंगराजाको हटाकर कैद कर लिया । राष्ट्रकूट राजा गुरुड़ या प्रभूतवर्षने उसे छुड़ाया परन्तु फिर कैद कर लिया । तब राष्ट्रकूट वंशके गवर्नरोंने राज्य किया । सन् ८०० में धारावर्षका कुम्भ या राणावलोंक गवर्नर था । उसके समयके तीन लेख पाए गए हैं । (श्रवणगोला लेख नं ० २४ ) । ८१३ में चकी राजाने शिवमार द्वि०से संधि कर ली तब फिर शिवमार राज्य करने लगा । इस समय पूर्वीय चालुक्योंके साथ गंग और राट्ट राजाओंने मिलकर १०८ लडाइयां १२ वर्षमें लड़ीं । राम प्रथमने सब देश राष्ट्रकूटोंसे ले लिया । इसका युवराज सन् ८७० में बूतरास था । उसका एक पुत्र रणविक्रमय्य था इसके पीछे नीतिमार्गने राज्य किया । इसके समयके बहुतसे लेख मिलते हैं । बुटुगने अपने सबसे बड़े भाई राचमल्लको मार डाला ।
ने सात मालवोंको जीत लिया और अपने देशको गंगमालय कहने लगा । इसकी सबसे बड़ी बहिन पनि बब्बे थी यह दोरपय्याकी विधवा स्त्री थी । इसने ३० वर्षतक आर्यिका के व्रत पाले तथा सन् ९७१ में समाधिमरणसे स्वर्ग प्राप्त किया । भारसिंहका पुत्र राजमल्ल द्वि० स्वतंत्र राजा था । इसीका मंत्री प्रसिद्ध चामुंडराय था जिसने श्रवणबेलगोला में प्रसिद्ध श्रीगोमटस्वामीकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा की थी । चोलोंने तलकाडको ले लिया और सन् १००४ में गंगोंको भगा दिया तब इन गंगराजाओंने चालुक्य और होयसाल वंशी राजाओंकी शरण ली । तब मैसूर में इनका राज्य होगया
1
कलिंग तथा उड़ीसा गंगवंशी राजाओंने अपना शासन
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मदरास व मैसूर प्रान्त । सन् १५३४ तक स्थिर रक्खा । इनहीमें अनंग भीमदेव ( सन् ११७५से १२००) बड़ा राजा हुआ है इसने जगन्नाथजीका मंदिर बनवाया। कलिंगदेशका एक राजा चोलगंग सीलोनमें सन् ११९६में राज्य कर रहा था ।
__ चालुक्यवंशी राजा-चालुक्य लोग कहते हैं कि ये अयोध्यासे आकर दक्षिणमें वसे, ५वीं शताब्दीमें वे इस मैसूरसे पश्चिम उत्तरमें प्रगट हुए। इन्होंने राष्ट्रकूटोंको दबाया किन्तु पल्लवोंने इनको रोक दिया । छठी शताब्दीमें चालुक्य राजा पुलकेशीने पल्लवोंसे बातापी ( बादामी) ले लिया और वहां अपनी राज्यधानी स्थापित की । इसके पुत्रने कोकणमें राज्य करनेवाले मौर्योको तथा वनवासीके कादम्बोंको हटा दिया । दूसरे पुत्रने कलचूरियोंको भी जीत लिया। पुलकेशी द्वि०ने सातवीं शताब्दीमें गंगोंसे मेल कर लिया तब गंगवंशी राजा मुष्कर राज्य करता था। धाड़वाड़ जिलेके लक्ष्मेश्वर स्थान या पुलिगेरीपर एक जैन मंदिर उसके (पुलकेशी द्वि० के नामसे बनाया गया था । ' सन् ६१७के करीब चालुक्योंकी दो शाखाएं होगईं। पूर्वीय चालुक्योंने कृष्णा जिलेमें वेंगी अपनी राज्यधानी बनाई । पीछेसे उनकी राज्यधानी राजमहेन्द्री होगई । पश्चिमीय चालुक्य बातापीसे राज्य करते२ फिर कल्याणी (निनाम)में राज्य करने लगे। इन वातापीके राजाओंको सत्यरायवंशी लिखा है । इस शाखाका प्रथम राजा पुलिकेसिन बड़ा विनयी था । इसने खास विनय उत्तर भारतमें सबसे बलिष्ठ राजा हर्षवर्द्धन कन्नौजवालेपर प्राप्त की थी। इस विजयसे इसको परमेश्वरकी उपाधि प्राप्त हुई थी। हर्षवर्धन और
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१५२] प्राचीन जैन स्मारक । पुलकेशी दोनों राजाओंके नाम हुइनसांग चीन यात्रीने लिये हैं । पुलकेसीका सम्बन्ध फारसके राजा खुशरो द्वि० से था। दोनों परस्पर भेट भेना करते थे। पुलकेशीके मरणके पीछे पल्लवोंने इन पश्चिमी चालुक्योंको बहुत हानि पहुंचाई परन्तु विक्रमादिखने अपनी शक्ति फिर जमाली। इसने पांड्य, चोल, केरल और कलभ्रराजाओंको जीता तथा कांचीको लेकर पल्लवराजाका मस्तक अपने चरणोंपर नमाया। इसके पीछे तीन और राजाओंने अपनी विजय जारी रक्खी । यहांतक कि गुप्त और गंगोंको तथा सीलोन तकके राजाओंको अपने आधीन कर लिया।
राष्ट्रकूट या राह-राष्ट्रकूटोंने राजा दतिदुर्ग और कृष्ण या कन्नरके नीचे स्वतंत्र अपना प्रभाव जमाया और आठवीं शताब्दीके मध्यसे २०० वर्षांतक बहुत ऐश्चर्यशाली रहे । इन राष्ट्रकूटोंको राट्ट भी कहते हैं और इनके राज्यको रावाड़ी कहते थे । इनकी राज्यधानी पहले मयूरखण्डी (मोर खंड जिला नासिक)में थी फिर नौमी शताब्दीके प्रारम्भमें मान्यखेड़ (निजाम राज्यमें मलखेड़)पर हुई । उनकी साधारण उपाधि वल्लभ थी जो चालुक्योंसे प्राप्त हुई थी। प्राकृतमें वल्लह कहते हैं । दशवीं शताब्दीके अरब यात्रियोंने उनको वल्हार नामसे लिखा है । आठवीं शताब्दीके अन्तमें ध्रुव या धारावर्षने पल्लव राजासे कर लिया और गंगोंके राजाको कैद कर लिया जिनको उस समय तक किसीने नहीं जीता था । इस मध्यकाल में राष्ट्रकूटोंसे नियत गवर्नर गंग राज्यका शासन करते रहे जिनमें एक शिलालेख कंभरस या राणावलोकका नाम लेता है जो धारावर्षका पुत्र था । सन् ८१३में चाकी राजा या राष्ट्रकूट राजा
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [ १.५३ गोविंद मा प्रभूतवर्ष ने गंग राजाको छुड़ाया जो उस समय शिवमार था और इसे फिर गद्दीपर बिठाया। नौमी शताब्दी में नृपतुंग या अमोघवर्ष ने बहुत काल तक राज्य किया । इसने कनड़ी व संस्कृत भाषामें पुस्तकें लिखी हैं जिससे प्रगट है कि यह देश व प्रजाके हितपर बहुत ध्यान देता था। एक छोटी संस्कृत की पुस्तकको जिसका यह कर्ता था व जो नीति पर है तिब्बत भाषामें उल्था किया गया है ।
(A small sanskirt work by him on morality was translated Into Tibetan. )
सं० नोट - शायद यह प्रश्नोत्तर - नाममाला हो । इसके आगेके राजाओंका पूर्वी चालुक्योंसे सतत युद्ध होता रहा । १० वीं शताब्दी के मध्य में चोलोंने इनको दबाया । उस समय राष्ट्रकूटों का और गंगों का घनिष्ठ सम्बन्ध था। गंगवंशी बुटुगने राष्ट्रकूट राजकुमारीको विवाहा था । इसने अपने साले कन्नर या अकालवर्षको गद्दीपर बिठाया था और चोल राजा राजादित्यको टक्कल ( अरकोनम के पास ) पर मारकर राष्ट्रकूटोंकी बहुत सेवा बजाई । इसतरह चोलों के हमले को हटाकर बुटुग एक बड़ा राजा मैसूरके उत्तर पश्चिमी जिलोंका माना जाने लगा । कुछ देश इसको बम्बई प्रांत के भी अपनी स्त्रीके दहेज में मिले थे । सन् ९७३ में तैलराजाने पश्चिमीय चालुक्योंकी प्रधानता प्राप्त करली तब राष्ट्रकूटोंके अंतिम राजाने सन ९८२ में श्रवणबेलगोलामें मरण प्राप्त किया ।
सं० नोट - राष्ट्रकूट वंशज गंगवंशजोंके समान जैनधर्मी थे और इसी लिये जैनबड़ी या श्रवणबेलगोलाके भक्त थे । नृपतुंग या अमोघवर्ष बड़ा बलवान जैन राजा था । इसने चालुक्योंको हरा दिया था तब चालुक्योंने इसके साथ विंगुवल्लीपर संधि कर ली थी। इस
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१५४ ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
अमोघवर्षने शिलहर वंशके कापर्डी लोगोंको कोंकणका राज्य दिया । यह श्रीमहापुराणके कर्त्ता प्रसिद्ध जिनसेनाचार्य जैन गुरुका मुख्य शिष्य था । इसने ७६ वर्ष राज्य किया फिर स्वयं राज्य त्याग वैराग्य धारण किया था । इसका रचित सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ कनमें कविराज मार्ग कवितामें है ।
पीछे के गंगराजा - राचमल्ल प्रथम ( सन् ८६९ ) के समय से गंगोंने अपना ऐश्वर्य फिर जमाया और अबके अंतके राजाओंतक परमानदी उपाधिके साथ सत्यवाक्य उपाधि भी रक्खी। राचमल्लके पीछे नीतिमार्ग, फिर सत्यवाक्य, फिर एरयप्पा फिर प्रतापी बुटुग हुआ । इसके पीछे भारसिंहने नोलम्बों को नष्ट किया । अंत में राक्षस गंग तथा नीतिमार्ग या गंगराजासे इस वंशका राज्य नीचे लिखी रीतिसे समाप्त हुआ ।
चोलवंश - पश्चिमी चालुक्योंकी शक्तिका पुनरुत्थान २०० वर्षो तक रहा । इसके प्रथम अर्द्धकालमें वे बराबर चोलोंसे युद्ध करते रहे । चोलोंने सन् ९७२ में वेंगीके पूर्वीय चालुक्योंको बिलकुल दबा लिया तब उनका राज्य चोलोंके आधीन हो गया । चोलकुमार गवर्नर होकर शासन करने लगे। इसी समय एक चोलवंशकी राजकुमारी कलिंगदेशके गंगवंशी राजाको विवाही गई थी । सन् ९९७में चोलोंने राजराजाके आधीन मैसूर देशमें पूर्वसे हमला किया फिर १००४ में वे अधिक सेना लेकर आए, उस समय राजराजाके पुत्र राजेन्द्र चोलने तलकाड देश ले लिया । और गंग शासनको मिटा दिया । दक्षिण पूर्वका सब देश ले लिया- अर्कलगुड़से लेकर श्रृंगापटम और नेलमंगल होकर नीदुगल तक क्षेत्र पर कबजा कर लिया ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [१५५ पीछेके चालुक्य राजा-मैसूरका शेष भाग उत्तर और पश्चिमका पश्चिमी चालुक्योंके आधीन था। इनमें सबसे प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य हुआ है जिसकी माता गंगवंशकी थी। इसने सन् १०७६से ११२६ तक राज्य किया। इनके राज्यको साधारणतः कुन्तलदेश कहते हैं जिस देशका मुख्य प्रान्त वनवासी नाद या शिमोगा मिला था। इस कुंतलदेशकी राज्यधानी बल्लिगेरी ( अब बेलगामी ता० शिकारपुर ) पर थी । इस जगहँ बहुत ही सुन्दर मंदिर जैन, बौद्ध, विष्णु, शिव तथा ब्रह्माजीके हैं। यहां पांच मठ थे व पांच मुख्य आचार्य रहते थे जहां आगन्तुकोंको भोजन व औषधि वितरण किया जाता था । चालुक्योंका एक राजा जयसिंह भोजराजाके दर्बार अनहिलवाड़ा (गुजरान ) में भाग गया । यह भोज सौरवंशी राजाओंका अंतिम राजा था। यहां जयसिंहके पुत्र मूलराजने भोजराजाकी कन्या विवाह ली और सन् ९३१ में गद्दीपर बेठगया। इसने ५८ वर्ष तक व इसके वंशजोंने ११४५ तक राज्य किया । चालुक्योंका बल सन् ११८२ तक ही रहा । बम्बई गजटियर जिल्द १ मन् १८९६में जो गुजरातका इतिहास दिया है उसमें मूलराजका राज्य सन् ९६६ से ९९६ तक दिया हुआ है । यह जैनधर्मका भक्त था । इसने अनहिलवाड़ामें जैनमंदिर बनवाया था जिसको मूलवस्तिका कहते हैं।
कलचूरी वंश-चालुक्योंको सन् ११५५ में बज्जाल राना कलचूरीने दबा दिया। यह बन्जाल चालुक्योंका मंत्री और सेनापति था।
वज्जाल जैनधर्मी था। इसको विजालंक काल कहते थे। इसके समयमें वासवने लिंगायत मत स्थापित किया। इस मतके मानने
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१५६] प्राचीन जैन स्मारक । वाले कनड़ी भाषाभाषी बहुत हैं । कहते हैं कि यह वजाल राजा कोल्हापुरके शिलाहर रानाके विरुद्ध युद्ध करने गया था। जब वह लौट रहा था तब भीम नदीके किनारे इसको विष दे दिया गया। इसमें वासवाचार्यका हाथ था तब वज्जालके पुत्र सोमेश्वरने बदला लेनेको वासवका पीछा किया तब वासव भाग गया। ___ इस कलचूरीवंशके नीचे प्रमाण राना हुए। सन् (१) वजाल या विजव, या निशंकमल्ल या ११५६-११६७
त्रिभुवनमल्ल (२) रायमुरारिसोवी, या सोमेश्वर या भुवनैकमल्ल ११६७-११७६ (३) शंकम् या निशंकमल
११७६-११८१ (४) अहवमल्ल या अप्रतिमल्ल
११८१-११८३ (५) सिंधाना
११८३ इसके पीछे इनका बल नहीं रहा । होयसाल या पोयसालवंश-मैसूरमें गंगवंशी राजाओंके दबनेके पीछे जिस स्थानीय वंशने राज्य किया वह पोयसाल या होयसालवंश है। इनका जन्मस्थान सोसेबूर या ससिकपुर (वर्तमानमें अंगडी जिला कदूर) था । कहते हैं कि एक जैनसाधुको एकसिंह उपसर्ग कर रहा था उस समय इस वंशके स्थापकने सिंहको बधकर साधुकी रक्षा की थी तबसे उस रानाका नाम पोयसाल पड़ गया वही अब होयसाल होगया। कहते हैं कि जैनसाधुके आशीर्वादसे उसने राज्यकी स्थापना की। होयसाल वंशी राजा कहते हैं कि वे चंद्रवंशके भीतर यादववंशी हैं । पहले ये पश्चिमी चालुक्योंको अपना स्वामी मानते आ रहे थे। इन्होंने राज्य जमाकर अपनी राज्यधानी दोरसमुद्र
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [ १५७ पर (वर्तमान में हलेबिड जिला हासन ) स्थापित की । ११वीं शताबदके अंत में इस वंशका विनयदित्य राजा राज्य करता था उस समय इनके राज्यमें कोंकण, अल्वखेड़ ( दक्षिण कनड़ा ), वयलनाद ( वाहनाद), तलकाद ( मैसूर जिलेके दक्षिण), और सविमले ( कृष्णाकी उत्तर ओर ) गर्भित थे । इस वंशके राजाओंने १४ वीं शताब्दीत राज्य किया । पहलेके सब राजा जैनधर्मी थे । नीचे लिखे राजा इस वंश में होगए हैं
(१) साल होयसाल
(२) विनयदित्य या त्रिभुवनमल्ल एरयंग- शुवराज
सन् १००७
(१०) बल्लाल तृ०
(११) वीरपक्ष बल्लाल
१०४७ से ११००
,,, १०६२,, १०९५
,,, ११०१,, ११०४
99
(३) बल्लाल प्रथम
(४) विहिदेव या विष्णुवर्द्धन, वीरंगंग या
त्रिभुवनमल (५) नारसिंह प्रथम
(६) बल्लाल द्वि०
(७) नारसिंह द्वि (८) सोमेश्वर
(९) नारसिंह तृ०
११०४, ११४१
११४१, ११७१
, ११७२, १२१९
99
77
,,, १२२०,, १२३५
१२३६, १२९४
,,, १२५४, १२९१
,,, १२९१,, १३४२
77
१३४३
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विनयदित्यका पुत्र एरयंग चालुक्योंके नीचे बड़ा सेनापति
था । इसने कई युद्ध किये । एक युद्धमें इसने मालवाकी राज्यधानी धारको भस्म कर दिया । यह अपने पिताके सामने ही मर
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प्राचीन जैन स्मारक |
गया तब उसके पुत्रोंने राज्य किया । इनमें बिट्टिदेव बहुत प्रसिद्ध हुआ है । यह पहले जैनी था जैसे पहलेके राजा थे परंतु इसके दरबार में चोलोंसे कष्ट पाकर एक बड़े सुधारक रामानुज आचार्यने शरण ली । उनके उपदेशके प्रभावसे इसने जैन मत छोड़कर विष्णुमत धारण किया और अपना नाम विष्णुवर्द्धन रक्खा । इसने बहुत से देशोंको विजय किया । सन् १९१६ के अनुमान इसने तलकाद प्रांतको ले लिया फिर इसने मैसूरसे चोलोंको निकाल दिया । इसके राज्यकी हद्दबंदी इस प्रकार थी - पूर्वमें नन्गुलीके निम्न घाट तक (कोलर जिला ), दक्षिण में कोंगू, चेरम्, अनईमलई ( सालेम और कोयम्बटूर जिला ) तक, पश्चिममें कोन्कनके मार्ग में वार्कनूर घाट तक उत्तर में साविमले तक । कहते हैं दक्षिण में रामेश्वर भी इसके राज्यमें शामिल था । इसने अपना निजका देश ब्राह्मणोंको दान कर दिया था और आप अपनी खड़गके बलसे - विजय प्राप्त देशोंपर शासन करता था । इसका मरण धाड़वाड़ जिलेमें बँकापुर में हुआ । इसके पीछे इसका पुत्र नारसिंह राज्यपर "बैठा। इसका पोता वीर वल्लाल सन् १९७२पर गद्दीपर बैठा। यह ऐसा प्रसिद्ध हुआ कि इसके वंशको बल्लालवंश कहने लगे । इसने कलचूरियों और सियनों (देवगिरी यादवों) पर प्रसिद्ध विजय प्राप्त कीं, खासकर सोरातूरपर। इसने होयसाल राज्यको कृष्णा नदीपर पेज्जरेके आगे तक बढ़ाया । अपनी राज्यधानी लक्किगुन्डी (घाड़वाड़ जिलेमें लक्कुंडी) में स्थापित की । इसने तुंगभद्रा नदीके आसपास सब पहाड़ी किलोंको ले लिया, चोलोंके मुख्य किले उच्छंगको भी ले लिया जिसको वे १२ वर्ष से रक्षित करते रहे थे । अन्तमें वे निराश हो छोड़कर चले
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [१५९ mmmmmm गए । वहांके पांड्य राजाको वश किया। इसका पुत्र नारसिंह द्वि० था। इसने उत्तर पश्चिममें सियनोंको दबाया था। यह अधिकतर दक्षिण पूर्व में युद्धोंमें लगा रहा । इसने पांडयोंको दवाया, कादव था पल्लबोंको जीता और भगर राजाओंको वश किया तथा चोल राजाको वश करके उसे गद्दीपर फिर बिठा दिया। इस समय सियनोंने उत्तर पश्चिमके भागोंमें दखल जमाना शुरू किया। तब सोमेश्वर सन् १२३५में राज्यपर आरूढ़ हुआ। तब सियन लोग दोरसमुद्र तक बढ़ आए परंतु सोमेश्वरने भगा दिया तथापि सियनोंके सेनापति सालु व टिक्कमने कुछ सफलता प्राप्त कर ली। होयसाल राना तब चोलदेशमें कन्ननूर या विक्रमपुर (श्रीरंगम और त्रिचनापलीके पास)में रहने लगा। वह १२५४में मरा तब उसके देशके भाग होगए । दोरसमुद्र और प्राचीन कन्नड़ राज्य उसके बड़े पुत्र नारसिंह त० को तथा तामीलदेश व कोलर जिला दूसरे पुत्र रामनाथको दिया गया । तब न सिंहने सियनोंको उनके राजा महादेव सहित भगा दिया। इसके पीछे बल्लाल तृ० के समयमें सन् १२९१ में फिर सब राज्य एकमें मिल गया। इसके राज्यमें मुसल्मानोंने सन् १३१० में हमला किया, यह हार गया और वीरुपक्षपट्टनमें मर गया । तब इसका पुत्र वीरुपक्ष बल्लाल गद्दीपर सन् १३४३ में आया । परंतु होयसालोंका बल समाप्त होचुका ।
विजयनगर-राज्य विजयनगरमें सन् १३३६ में स्थापित हुआ । इनमें कृष्ण राजा बहुत बलवान हुआ। इसने उम्मत्तूर ( मैसूरजिला )के सर्दार गंगराजाके किलेको ले लिया । यह कृष्णराजा संस्कृत और तेलुगू साहित्यका बड़ा भारी रक्षक था।
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प्राचीन जैन स्मारक ।
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मैसूर के वर्तमान राजा - इनका उदय दो क्षत्रिय यादववंशी राजकुमारोंसे है जिनका नाम विजय और कृष्ण था । ये द्वारका से दक्षिण में सन् १३९९ में आए, महिसूरमें रहे और यहां ओडयरकी उपाधिसे राजा होगए । इनका धर्म लिंगायत हुआ । चौथा राजा चामराज तृ० ने सन् १९१३ से १५५२ तक राज्य किया । अब यही ओडयरवंशी राजा राज्य कर रहे हैं । इस वंशके राजाओंने भी जैनधर्मसे बहुत हित दर्शाया । श्रीमद् राज ओडयरने शाका १५३३ या सन् १६११ में श्री श्रवणबेलगोला क्षेत्रके लिये वार्षिक ३०००) देना प्रारंभ किया व श्रीमद् बड़े देवराज ओडयर बहादुरने शाका १९९५ या सन् १६७३ में श्रीगोमटस्वामीका अभिषेक कराया तथा पूजाके लिये मदन ग्रामकी आमदनी अर्पण की । फिर शक १९९७ या सन् १६७५ में श्री चिक्कदेवराज ओडयर बहादुर ने भी मस्तकाभिषेक कराया और कल्याणी नामका सरोवर बनवाया । फिर शक १७२२ या सन् १८०० में श्री भुम्मडि कृष्णराज ओडयर बहादुरने श्री गोमटस्वामीका महाअभिषेक कराया तथा शाका १७५२ या सन् १८३० 0 में श्रवणलगोला, उत्तेनहली, होसहली, नागय्यम्, कोप्पतु, और वेहनकोष्पत्त ये पांच ग्राम दिये व आगे कव्वालुग्राम भी दिये । सन् १९२५ में श्रीमत् कृष्णराज ओडयर बहादुर ने भी श्रीगोमटस्वामीका महाअभिबेक कराया व क्षेत्रपर पधारकर सभा कराके भारतवर्षीय दि० जैन समाजकी तरफंसे सम्मान प्राप्त किया ।
Mysore Vol. I by Rice नाम पुस्तक ८० ४६० में नीचे लिखा हाल दिया हैं
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [१६१ जैनसमाज- यह बहुत प्राचीन जाति है। मैसुर और दक्षिण कनड़ामें ये १२वीं शताब्दी तक बहुत प्रसिद्ध रहे। चोल और पांड्य देशमें व उत्तर कनड़ामें भी ये बहुत प्राचीन कालसे रहते थे। सबसे प्राचीन कनड़ी और तामील भाषाका साहित्य जैनाचार्यों द्वारा संकलित है । उन भाषाओंकी उन्नति जैनियोंसे हुई है।
जैनियोंके मुख्य केन्द्र मसूरमें तीन हैं--- (१) श्रवणवेलगोला जिला हासनमें (२) मलेयूर नि० मैसूरमें
(३) हमस नि० शिमोगामें श्रवणबेलगोला मठके सम्बंध नीचे लिखे आचार्य प्रसिद्ध हुए हैं---
नाम आचार्य नाम पूजक राजा समय (१) श्री कुंदकंदाचार्य पांड्य राजा (२) मिहांताचार्य वीर पांडव (३) अमलकीाचार्य कुण पांडव (४) नेमिचन्द्र सिद्धांतदेव चामुंडराय सन् ९८३ (२) मोमनन्याचा विनयदित्य होयमाल सन् १०५० (६) त्रिदाम विभुधनन्धाचार्य (७) प्रभा-चन्द्र सिहांताचार्य राजाएरयंग ,, १०९० (८) गुणभद्राचार्य बल्लालराय
,, ११०२ (२) शुभचंद्राचार्य विट्टिदेव
सन् १११७रे इस मठमें जितने गुरु हुए हैं उनको चारुकीर्ति पंडिताचार्य कहते हैं। सब राजाओंने प्रायः मठको भेटें की हैं
(२) मलेयूर मठ-यह अब श्रवणबेलगोलाके आधीन है ।
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प्रायः बंद है । इसी मठके सम्बंधी श्री अकलंकस्वामीने सन् ७८८ में कांचीमें राजा हिमशीतलको सभामें बौद्धोंसे बाद किया था ।
(३) हूमस मठ - इस मटको श्री जिनदत्तरायने आठवीं शताब्दी के अनुमान स्थापित किया था । इस मठके गुरु श्रीकुंदकुंदान्वय नंदि संघके हैं । श्रीजयकीर्तिदेव से सरस्वती गच्छ प्रारम्भ होता है ।
इस मठ सम्बन्धी नीचे लिखे प्राचीन गुरु प्रसिद्ध हुए हैं(१) श्रीसमन्तभद्राचार्य - देवागम स्तोत्र के कर्ता । (२) पूज्यपाद - जैनेन्द्रव्याकरण, पाणिनी व्याकरणपर न्याय अर्थात् शब्दावतार तथा वैद्यशास्त्रोंके कर्ता
(२) सिद्धांत कीर्ति - गुरु राजा जिनदत्तरायके सन् ७३० के अनुमान (४) विद्यानंदि -आप्तपरीक्षा व श्लोकवार्तिक के कर्ता । . (५) माणिक्यनंदि
(६) प्रमाचंद्र - न्याय कुमुचंद्रोदय व शाकटायनपर न्यासके कर्ता ( 9 ) वईमान मुनीन्द्र
सन् ९८० १०४० (८) वासपूज्य व्रती - छालराय होसालके गुरु १०४० - ११०० (९) श्रीपाल मुनि (१०) श्रीनेमिचन्द्र मुनि (११) श्री अभयचंद्र राजा चरमकेशवाचार्य के गुरु |
(१२) जपकीर्तिदेव (१३) जिनचंद्राध्ये (१४) इन्द्रनंदि (१५) वसन्तकोर्ति (१६) विमालकीर्ति (१५) शुभकीर्तिदेव
(१८) पद्मनंदिदेव
(१९) माघनंदिदेव (२०) सिंहनंदिदेव
(२२) वासुनन्दी
(२३) मेवचंद्र
(२१) पद्मनभ (२४) वीरनन्दी
(२५) धनंजय
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(२६) धर्म भूषण - राजा देवरायके गुरु (२७) विद्यानंदि - देवराज और कृष्णराय राजाके सामने वाद किया और बिलंगी और कारकलमें जैनधर्मकी रक्षा की। (२८) सिंहकीर्ति - इन्होंने मुहम्मदशाह के दर्बारमें वाद किया
[ १६३
१४०१ - १४५१
१४५१-१९०८
१४६३-१४८२
(२९) सुदर्शन (३१) देवेन्द्रकीर्ति
(३३) विशालकीर्ति - इन्होंने सिकंदर और वीरुपक्षरायके सामने वाद किया १४६५ - १४७९ (३४) नेमिचंद्र - इन्होंने कृष्णराय और अच्युतराय राजाके सामने वाद किया । १९०८ - १९४२ | इनके पीछे के सब गुरु देवेन्द्रतीर्थ भट्टारक कहलाते हैं:- जैनियोंमें दिगम्बर व श्वेताम्बर दो भेद हैं उनमें दिगम्बर मूल हैं व बहुत प्राचीन हैं ।
(३०) मेरुनंदि
(३२) अमरकीर्ति
The first Digambar is original and most ancient.
श्वेताम्बरों के माने हुए अंग वल्लभीपुर में ५ वीं शताब्दीमें देवर्द्धिगण द्वारा संकलित किये गए थे ! राजा अशोक के शिलालेखों में व प्राचीन बौद्ध साहित्य में इनको निर्ग्रन्थ नामसे लिखा है । ब्राह्मण लोग जैनियों को स्याद्वादी कहते हैं । श्रीपार्श्वनाथ व महावीरस्वामी ऐतिहासिक पुरुष हैं ।
पुरातत्व और शिल्प - एपिग्रेफिका करनाटिका जिल्द १२ में करीब ७००० शिलालेखोंकी नकलें की गई हैं । मलकलमोर तालुका में अशोकका शिलालेख है | श्रवणबेलगोला में महाराज चंद्रगुप्त और श्रीभद्रबाहु जैन श्रुतकेवलीके शिलालेख मिले हैं ।
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प्राचीन जैन स्मारक ।
शिकारपुर तालुकाके मलवल्ली में शतकरणी शिलालेख मिला है । इसे यहांका इतिहास मौर्य समयसे लेकर कादम्बोंतक पूर्ण हो जाता है । कादम्बों की उत्पत्ति व उनकी वृद्धिका प्रमाण तालकुंड ता० के तालकुंडके स्तंभके लेखसे प्रगट है तथा पल्लवोंका सच्चा हाल कोलार जिलेके बोवेरी ताम्रपत्रोंसे प्रगट होता है । मैसूरप्रांत के शिलालेखों से भूले हुए महाबली वंश, बाणवंश तथा मैसूर में दीर्घ काल तक राज्य करने वाले गंगवंशका इतिहास प्रकाश में आगया है ।
चोलोंकी वंशावली भी निश्चित होगई है, होयसाल वंशी राजाओंके निर्मित मकान जान लिये गए हैं इन सबसे विस्तार पूर्वक इतिहास लिखा जा सक्ता है । सिक्के नगर जिले में इतिहासके पूर्व सिक्के Funch Marked जिनको पुराण प्राचीन संस्कृत लेखकोंने कहा है, मिले हैं । अंध्र समयके बौद्ध सिक्के सन ई० से दो शताब्दी पूर्वसे दो शताब्दी तक के चीतल दुगमें मिले हैं। बंगलोर के पास रोमनसिक सन् ई-से २१ वर्ष पहलेसे सन ५१ तक प्राप्त हुए हैं। होयसालवंश के सिक्के भी मिले हैं । ताड़पत्रपर लिखित ग्रन्थ जो संग्रह किये गए हैं वे सबसे प्राचीन कालके कनडी साहित्यको प्रगट करते हैं ।
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(See Kernatak Sabdanusasan introduction and Bibliathica Carnatica 6 Volums.
मलकलनेरुनें इतिहास से पूर्व समय के पापाण स्मारक मिले हैं। जैन मंदिरोंको यहां वरती कहते हैं । श्रवणबेलगोला के चंद्रगिरिपर से मंदिर द्राविड़ोंके ढंगपर बने हैं। फर्गुसन साहब कहते हैं कि ये मंदिर दक्षिण वैबिलोनिया के मंदिरोंसे मिलते जुलते हैं । मंदिरों के सामने मानस्तम्भ ३० से ५० फुट ऊंचे हैं । श्रीगोमट
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मदरास व मैमूर प्रान्त ।
[१६५ स्वामीकी मूर्ति ६७ फुट ऊंची, जिसकी गंग राजाके मंत्री चामुंडरायने सन् ९८३में प्रतिष्ठा कराई थी, बहुत ही प्रभावकारक और आश्चर्यकारी है। ऐसे मानस्तम्भ मिश्रके बाहर कहीं नहीं हैं तथा ऐसी कोई मूर्ति मिश्रमें नहीं है जो इससे बढ़कर ऊंची हो ।
These temples Fergusson considers bear a striking resemblance to ternples of southern Babylonia. In front a Manasth ambha 30 to 50 ft high. Gonat statue 57 ft high erected in 983 by Chamundrai, Ministr of Cing King, nothing grander or more impressing siys Fergusson, crists anywhere out of Egypt and even there is no known statue exceeds it in height.
शाकाहारी जातिय मैसूरमें लिंगायत ६७१००० हैं तथा वोक्कलिग लोग १२८७००० हैं। ये सब बहुतसे शाकाहारी हैं।
ire mostly Vegetarians.
माद जाति-जो वोकलिगकी एक शाखा है, उत्तर पश्चिममें बहत हैं। इनमें जन और लिंगायत दोनों हैं। पहले ये सब जैनधी थे। ये सब खेती तथा व्यापार करते हैं।
वनजिग-जातिवाले व्यापारी हैं। इनकी तीन शाखाएं हैं। पंचम, तेलगु और जैन वनजिग। ये परम्पर न खाते हैं न व्याह शादी करते हैं।
मेमरके प्राचीन ऐतिहासिक विभाग
(१) अष्टग्राम-कावेरी नदीके दोनों तटोंका देश अंगापट्टमके पास इसे होसालराजा विष्णुवईनने रामानुजाचार्यके भेट कर दिया था।
(२)बनवासी-१२०००-वर्तमान शिमोगा जिला । यह दठी शताब्दीमें चालुक्योंके आधीन आगया । इन्होंने अपनी राज्यघानी चल्लिगवे (वेलगामी ता० शिकारपुर) में रक्खी । यह मैसूर राज्यके
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१६६] प्राचीन जैन स्मारक । उत्तर पश्चिम तटपर बहुत प्राचीन नगर था। दूसरीसे पांचवीं शताब्दी तक यह कादम्ब राजाओंकी राज्यधानी रहा है । टोलिमी इतिहासकारने इसको लिखा है । ३री शताब्दी पूर्व यहां अशोकने अपने एलची भेजे थे। ..(३) गंगवाडी-९६०००-गंगराजाओंका देश जिन्होंने दूसरी शताब्दीसे ११ वीं शताब्दी तक राज्य किया। इसकी चौहद्दी यह है-उत्तरमें मोरनदले, पूर्वमें टोडनाद (मदरास देश मैसुरके पूर्व), पश्चिममें चेरा (कोचीन) की तरफका समुद्र, दक्षिणमें कोंगृ (सलेम व कोयम्बटोर जिला)। यहांके निवासियोंको गंगदिकार कहते हैं।
(४) पुन्नाट-६००० मसूरके दक्षिण पश्चिम बहुत प्राचीन भाग-राज्यधानी किथिपुर जिसको अब कित्तर या कव्वामी कहते हैं । यह पांचवीं शताब्दीमें गंग राज्यमें गर्भित होगया। यहां श्रीभद्रबाहु श्रुतकेवलीने अपने संघको सन् ई० से चौथी शताब्दी पूर्व भेजा था । टोलमी इतिहासकारने इसे पौन्नटदेश लिखा है--
मैसूर राज्यके जिलोंमें जैन पुरातत्त्व । (१) बंगलोर जिला।।
यहां एपिग्राफी करनाटिका नं० ९के अनुसार नीचे लिखे शिलालेख पाए गए हैं।
तालुका बंगलोर-(१) नं० ८२ सन् १४२६ ग्राम वेगरमें श्रवण धनदिन्नेकी ध्वंस जैन वस्तीमें एक पाषाण पर जो लेख है उसका भाव यह है कि मूलसंघ, कुन्दकुन्द ० देशीयगणमें शुभचन्द्र सिद्धांतदेवके शिष्य चक्कामय्याके पुत्र नागिय
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मदरास व मैसूर प्रान्त । करियप्प दंडनायकने जब वह नरसूनाडपर शासन कर रहे थे तब जैनमंदिरको दान किया ।
(२) नं० ९४ सन् ५५० ? इसी वेगूर ग्राम में एक खंभेपर - श्रीमत् नागत्तरकी कन्या तोन डब्वेने समाधिमरण किया । तालुका चिन्नपाटन - ( ३ ) नं० ७० सन् १०० १
बेरूर ग्राम में एक पाषाणपर लेख है उसका भाव है कि संदिगवाते वंशके श्रीचंद्रसेन मुनिके शिष्य नागसेन गोरने किरि कुन्ड़ में समाधिमरण किया ।
यहां सन् १८९१ में १९७८ जेनी थे ।
(२) कोलार जिला - यहां सन् १८९१ में ८९६ जैनी थे। (१) नोन मंगल - मालरके दक्षिण - यहां सन् १८९७ में एक जैनमंदिर की नींममें थी और ५वीं शताब्दी के खुदे हुए ताम्रपत्र व कुछ मूर्तियें तथा कुछ वाने मिले थे ।
(२) नंदिडुग - कोलार से पश्चिम एक किले सहित पहाड़ी-यह ४८५१ फुट ऊंची है । यह किला दूसरीसे ११वीं शताब्दी तक गुंगराजाओं का, जो जैन थे, दृढ़ आश्रय स्थान था । उनकी उपाधि थी नंदगिरिके स्वामी । यह बंगलोरसे उत्तर ३१ मील है । इसके उत्तर पूर्व में गोपीनाथ पहाड़ी है, इसपर एक प्राचीन जैन शिलालेख है जिसमें प्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेवकी भक्ति में गंग राजाने दान किया है ऐसा लेख है ।
एपीग्रैफिका करनाटिका जिल्द १० में यहांके कुछ जैन शिलालेख हैं, वे नीचे प्रमाण हैं
तालुका मालुर - (१) नं० ७२ सन् ४२५ ई० । नोनमंगलमें
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१६८] प्राचीन जैन स्मारक । ध्वंश जैन मंदिरके एक ताम्रपत्रपर । इसका भाव यह है कि गंगवंशी कोंगनीवर्मा धर्ममहाराजाधिराजने श्रीविग्यकीर्ति मुनिके उपदेशसे मूलसंधी चन्द्रनंदि व अन्यों द्वारा स्थापित श्री उन्नूर अहंत मंदिरको करिकुंड विषयमें वन्नेलकरणी ग्राम दिया तथा पेरूर रावनी आदिगल अहंत मंदिरकी बाहरी करके कारकापण (द्रव्य) का चौथाई भाग दिया।
(२) नं० ७३ ता० ३७० ई० के अनुमान ऊपरके स्थान पर पाए हुए एक ताम्रपत्रपर । इसका भाव यह है कि गंगवंशी श्रीमाधववर्मा महाराजाधिराजने आचार्य वीरदेवके उपदेवासे मुदकन्तुर विषयके पेरव्वोलल ग्राममें मृलसंघ द्वारा निर्मित अहत मंदिरको कुमारपेर ग्राम व मरोवरकी भृमि दान की। ता. चिकबल्लपुर
(३) नं० २९ ता० ७५० ई० यहां नंदी ग्राममें गोपीनाथ पहाड़ीपर गोपालस्वामी मंदिरके पास एक चट्टानपर लेख है। प्रथम श्रीऋषभदेवकी स्तुति है फिर यह भाव है कि दशरथके पुत्र रामचंद्रने श्री अर्हत्का चतन्यभवन बनवाया। इसका जीर्णोद्धार पांड्य राजाकी कुंतीदेवीने किया । यहां जैन साधुओंके तप करनेके लिये गुफाएं हैं।
(३) तुमकर जिला--यहां सन् १८९१ में १९५६ जैनी थे।
एपीग्रेफिका करनाटिका निल्द १२ वीं में यहां नीचे लिग्वे जैन शिलालेख पाए गए हैं।
(१) तालुका तुमकूर-नं० ३८ ता० ११६० ई०। ।
पंडितरहल्ली ग्राममें-मंदगिरि वस्तीके भीतर एक पाषाणमें लेख है उसका भाव यह है कि दोर समुद्रके वीरमंग होयसाल
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मदरास व मैमूर प्रान्त । [९६९ नरसिंहदेवके राज्यमें उनके नीचे एरयंग दंडनायक थे। उनके नीचे एरयंगका जमाई ईश्वर चामूपति (सेनापति) था इसने एक जिनालय का जीर्णोद्धार कराया। इसकी स्त्री माचिधक्काने जैनमंदिर बनवाए व एक सरोवर पद्मावतीगिरि नामका बनवाया तथा वस्तीके लिये दान किया ।
(२) तालुका गुब्बी-नं० ५ सन् १२०० ई०
नित्तर प्राममें श्री आदीश्वर जैनमंदिरके उत्तर भीत पर एक पापागमें लल। यह मालवे और उसकी साली चौडयव्वेके समाधिमरणका ले । यह मालिव्वे श्रीमूलसंघ कुंद० देशीयगण पुस्तकमा के बन्द्र सिद्धांतचन्द्रके शिष्य श्री बालचन्द्र
१२०० ई० । इसी ऊपर लिखित पाषाणकी बाई तरफ । माललनेके जवामी सेठीकी स्त्री बृचव्वेका समाधिमरण।
) नं० २०० ई० । इसी ऊपरके पाषाणकी दाहनी तरफ । नसेटी और उसके पुत्र मालप्पाने समाधिमरण किया ।
५) नं. ८ ता० १२१९ ई०। ऊपरकी वस्तीकी पश्चिम भीतपर एक पाषाण मूलमंधी कुन्द० देशीगण पुस्तकगच्छके श्रीपद्ममम मलधारीदरके शिष्य मालव से?केव्बेके पुत्र मल्लिसेठीने समाधिमरण किया ।
सं० नोट-यह वहीं पद्मप्रभ मलधारीदेव हो सक्ते हैं जिन्होंने श्रीकुंदकुंदाचार्य कृत श्रीनियमसार प्रास्त ग्रन्थकी संस्कृतमें वृत्ति लिखी है।
इस चैत्यालयकी बाहरी भीतपर बहुतसी जैन मूर्तियां अंकित हैं।
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१७०] प्राचीन जैन स्मारक ।
(६) नं० २७ ता० ९७९ ई०, ग्राम विदोरे एक सरोवर पर पाषाणमें लेख-श्री त्रिलोकचंद्र भट्टारकके शिष्य श्री रविचन्द्र भट्टारकने समाधिमरण किया। देशीगणके धर्मकीर्ति भ० ने स्मारक स्थापित कराया।
(७) तालुका तिपटूर नं० १०१ ता० १०७८ ई० हत्तन कबनहल्ली ग्राममें चंद्रसालेकी जेन वस्तीमें एक पाषाणपर लेख । भाव है-चालुक्य भूलोकमल्ल सोमेश्वरदेवके राज्यमें होयसाल वंशी वीर वल्लालदेव राज्य करते थे। इनके नीचे महासामंत गणदरादित्य और उसकी भार्या नायकित्तीके पुत्र सामंत सुव्वया, सातप्पा, नावप्पा और महासामंत, माचप्पा । ये सब होसालदेवकी चाकरीमें थे। होसाल देवरानकी स्त्री मोकलदेवीने एक जिनालय बनवाया जहां सामंत वल्लीदेव शासन-प्रबंध करते थे। सामंत वल्लीदेवका ज्येष्ठ पुत्र माणिक्य, जाचीसेठी, उसका भाई सहीसेठी दानी थे। माचीसेठी न्याय व व्याकरणका विद्वान था। माचीसेठीका भाई कालीसेठी भी दानी था। इन सबोंने नरवर मिनालयको भूमि दान की-- मूलसंघी कुन्द देशीगण पुस्तक गच्छके आचार्य बागचन्द्र चन्द्रायनदेवके शिष्य रुणिकच्छ गोविंददेव व उसकी स्त्री वोपव्वेको ।
८) ता० चिकनयकनहल्ली-नं० २१ ता० ११६० ई०, ग्राम हेग्गरेमें एक वस्तीके पाषाणपर। इसमें पहले श्रीवर्द्धमानस्वामीके शासनमें प्रसिद्ध श्रीकुन्दकुन्द आचार्यकी प्रशंसा की है कि वे चार अंगुल भूमिसे ऊपर चलते थे। श्लोक है
स्वस्तिश्रीवर्धमानस्य वर्द्धमानस्य शासने । श्रीकुंदकुंदनामाभृत् चतुरंगुलचारणे ॥
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विहिदेवको ३८ वी देशी ग
वने अपनी स
मदरास व मैमूर प्रान्त। [१७१ श्रीमान् चालुक्यवंशी भूवल्लभराय परमादीदेवके राज्यमें उनके सेवक होसाल नरसिंह भृप थे, उनके सेवक हुलियरपुरके राजा विहिदेव सामंत थे । यह सामंत चत्ता और शांतलदेवीके पुत्र थे। इनकी उपाधि वीरतल प्रहारी थी क्योंकि विहिदेवने चालुक्य अहवमल्लके डेरेमें दोधूकको मार डाला था। राजा नरसिंहने इस विहिदेवको यह ग्राम हेमगिरि दिया । ____ यहां मूलसंघी देशी ग० कुद० पुस्तकगच्छके मुनि चंद्रायणदेवके शिष्य महा सामंत गोतीदेवने अपनी स्त्री महादेवी नामकीर्तिकी स्मृतिमें श्रीचन्नपाचे जिनालय बनवाया। इसकी पूजाके लिये सांतलदेवीके पुत्र सामंत विहिदेवने श्री माणिक्यनंदि सि० देवके शिष्य श्री गुणचंद्र मि० देवके चरण धोकर भूमि दान की।
(नं. ९) नं० २२ ता० १५७९ ई०, ऊपर लिखित पाषाणपर महामंडलेश्वर श्रीपती रानाके पुत्र राजप्पदेव महा अरसू उनके पुत्र वल्लभराजदेव महा अरमने हेग्गले जैन वस्तीके जीर्णोद्धारके लिये, जहां वह राज्य करता था, नगरनादमें होयसाल महाराजके ग्रामसिनेको जो बुडिहलेमें था, दान किया --
महारानने स्वीकार किया-----
(१०) नं० २३ ता: ११६३ ई., वहीं दूसरे पाषाणपर मूलसंधी पुस्तकगच्छीय माणिक्य सिद्धांतदेवके शिप्य मेघचन्द्र भट्टारकदेवने समाधिमरण किया ।
(११) नं० २४ ता० १२९७ ई०, वहीं, जीमरे पाषाणपर मूलसंघी त्रिभुवनकीर्ति रौलके शिष्य मलधारी बालचन्द्र रौलके पुत्र चन्द्रकीर्तिने समाधिमरण किया ।
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१७२]
प्राचीन जैन स्मारक |
(१२) ता० सीरा - नं० ३२० ता० १२७७ ई० ।
अमरापुरमें-सरोवर के सामने एक पाषाणपर । भाव यह है-जत्र त्रिभुवनमल चौल पृथ्वी निधिगुलमें राज्य कर रहा था, तैलनगरके जगमल के ब्रह्म जिनालय में श्रीप्रसन्न पार्श्वनाथको भक्तिके लिये मूलसंघी देशी कुंद० पुस्तकगच्छ इंग्लेश्वरबलीके मुनि त्रिभुवनकीर्ति रौलके मुख्य शिष्य मुनेि वालेन्दुमलधारीके गृहस्थ शिष्य मल्लिसेठीने जो वोम्बीसेठी और मेलव्वेका पुत्र था दान किये।
(१३) ता० पमगोडा-नं० १२ ता० १२३२ ई० । गज्जनादुमें अंजनेय मंदिरके पीछे एक पाषाणपर। जब चौल इरूंगलदेव राज्य कर रहे थे तब उसके नीचे कार्यकर्ता गंगेयनायक और चामाके पुत्र गंगयेन मारेयने वीरनंदि मि० च० मलधारीदेव पुस्तकगच्छ वानदवलियके शिप्य पद्मप्रभ मलधारीदेवके शिष्य नेमी पंडिलसे व्रत लिये और बदर सरोवर के दक्षिण कालंजन के शिखर पर श्री पार्श्वनाथ वस्ती बनवाई और इरुगलदेव राजाकी आज्ञासे भूमि दान दी ।
(४) मैमूर जिला - सन् १९०१ में यहां जेनी २००३ थे व लिंगायत १७३००० थे ।
(१) चामराज नगर ता० चाम० नन्जनगुड रेलवे स्टेशनसे दक्षिण पूर्व २२ मील ।
प्राचीन नाम अरकोत्तर, यहां एक जैनमंदिर सन् १९१७में होयसाल राजा विष्णुवर्द्धन सेनापति पुनिसराजाने बनवाया था । यह नगर मैसूरसे ३६ मील है । यहां जैनी ११ ४ थे 1
(२) तळकाड - मैसूरनगर से २८
मील
दक्षिण पूर्व ता०
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मदरास व मैसूर प्रान्त | [ १७३ सोसिले । कावेरी की बांई तटपर प्राचीन नगर है । पुराना नाम था तलवनपुर । यह गंगराजाओं का मुख्य स्थान तीसरी से ११ वीं शताब्दी तक रहा है ।
(३) वेलदपुर - ता० हुन्सुर - यहांसे उत्तर पश्चिम २० मील । यह नोकदार पहाड़ी ४३८९ फुट ऊंची है ।
यह प्राचीनकाल में जैनियोंका मुख्य स्थान था । यहां १०वीं शताब्दी में विक्रम राजा द्वारकासे भागकर आया था और वसा था । उसका पुत्र चेन्गलराय था । इसने जैनधर्म छोड़कर लिंगायत धर्म स्वीकार किया |
(४) येलवल-ता हुन्मूर, मैसूरसे उत्तर पश्चिम ९ मील | यहांसे उत्तर ३ मील श्रवणगुत्त पहाड़ी है, उसपर एक श्रीगोमटस्वामी की जैनमूर्ति येनरकी मृर्ति के समान है । यह २० फुट ऊंची है । (५) सालिग्रामनगर - ता० परिपपाटन - सन् १८९१ में येजेटोरसे उत्तर १२ मील । यहां १८९१ में १८१ जैन थे ।
(६) सरंगापट - कावेरी नदीके उत्तर तटपर । यहां एक प्राचीन शिलालेख नौवीं शताब्दीका गंगवंशी राजाका पाया गया है जिसमें लिखा है कि श्रवणबेलगोलाकी करवप्पु पहाड़ीपर मुनि भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तके चरण अंकित हैं। यहां सन् १४५४ में नागमंडलका शासक तुम्मनेर हव्वार था । इसने यहांसे दक्षिण ५ मील कलावाड़ीनगर में खड़े हुए १०१ जैन मंदिरोंको विध्वंश कर उनके मसाले से रंगनाथका मंदिर और किला बनवाया ।
С
(७) येलन्दर - ता० येलन्दर - मैमूर से दक्षिणपूर्व ४२मील | यहां के निवासी एक जैन विशालाक्ष पंडित थे जिनको येलंदुर
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१७४ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
'पंडित कहते थे। जब चिक्कदेव राजा हंगलमें नजरबन्द था तब इसने राजाको सच्चा प्रेम दिखलाया था। जब वह सन १६७२ में गद्दीपर "बैठा तब उसने विशालाक्षको अपना मंत्री नियत किया । शिलालेखइस जिलेके शिलालेख एपिग्रैफिका करनाटिका जिल्द तीसरी व चौथीमें जो दिये हुए हैं उनमें से जैन सम्बंधी लेख नीचे प्रकार हैंजिल्द तीसरी में कुल शिलालेख ८०३ मैमूर जिलेके पूर्वीय तालुकोंके हैं वे इस भांति हैं(१) गंगवंशके
६१ सन् १०३ से लेकर १०२२ तक
१०० ७ से
१११३ तक
१३४९ तक
१७०४ तक
१८६३ तक
(२) चोलवंशके
(३) होयसाल वंशके (४) विजयनगर राज्य के (५) मैसूर राज्य के
३१
२२०., १६७,
९२
97
शेषमें मुख्य समय नहीं है ।
नीचे लिखे लेख जैन सम्बन्धी हैं । मुख्य हैं
"
१११७ से
१३५८ से
१६१६ से
(१) ता० नन्जनगुड नं० ११० शाका २५ सन् १०३ ई० गंगवंशी । इसका भाव यह है कि यह लेख प्रथम गंगराजा कोंगणीधर्मा धर्म महाराजाधिराज सम्बन्धी है । इनके गुरु सिंहनंदि मुनि थे जो राजाको कड़प जिलेके पेरूर स्थानपर मिले थे। उस स्थानको अब भी गंगपेरूर कहते हैं ।
सं० नोट- यह लेख इस बातका बहुत बड़ा प्रमाण है कि सन् १०३में मुनि सिंहनंदि तथा गंगवंश जैनधर्मानुयायी था । (२) ताम्रपत्र नं० १२२ शाका १६९ सन् २४७ यह गंगवंशी तीसरे राजा हरिवर्मा सम्बन्धी है ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त |
[ १७५
(३) नं० ११३ शाका ६३५ सन् ७१३ गंगवंशी राजा शिवमार या नवकाम या पृथ्वी कोंगुणीवर्माने अपने राज्यके ३४वे वर्ष दान किया ।
(४) तालुका तिरुमकुदल नरसीपुर-नं० १ - शाका ६४८ सन् ७२६ यह शिलालेख गंगवंशी प्राचीन है तथा यह विकटोरिया जुबली इंस्टीट्यूट मैसूर शहर में विद्यमान है । राजा श्रीपुरुष या मुत्तरस या पृथ्वी कोंगणीवर्माने जो शिवमारका पोता था अपने राज्य के प्रथम वर्ष में दान किया ।
(५) नं० ९३ सन् ९७४ - राजा मारसिंह गंगने श्रीअजित सेन भट्टारक जैनाचार्य के चरणोंके समीप चंकापुर (घाड़वाड़ जिला) में समाधिमरण किया |
(६) ता० मांडया में नं ० १०७ व नं० (७) ता० ननूजनगुडमें नं० १८३ सन् ९७७ के गंगवंशी राजमल परमानंदी संबंधी हैं जिसका मंत्री चामुण्डराय था । इसमें गंगवंशके राजाओंकी नामावली दी है जो पहले मैसूर के इतिहास में दी जा चुकी है ।
J
' (८) ता० तिरुमकादल नरसीपुर । नं० ४४ सन् १००७ होयसाल वंशका सबसे प्राचीन |
(९) ता० मतवल्ली नं ० ३१ ता० १११७ | इन दोनों शिलालेखों में विष्णुवर्द्धन महाराजका सम्बंध है । उसके मंत्री और सेनापति गंगवंशी गंग राजा जैनधर्मीने चोलोंसे तलकाडका देश ले लिया । गंगराजाने गंगवाड़ीसे तिगुलोंको भगा दिया और वीरगंगकी उपाधि सहित विष्णुवईनको स्थापित रक्खा । तलकाडके युद्ध में चोलोंकी तरफसे इरियमा सेनापति था तब गंगराजाने उसका
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१७६] प्राचीन जैन स्मारक । सामना किया और कहा कि आधीनता स्वीकार करो परन्तु इरियमाने नहीं माना और युद्धको आया। गंगने इरियमाको हरा दिया
और विजय प्राप्त की तब वह भाग गया। उनका दूसरा सर्दार दामन सामने आया वह गंगसे मार डाला जाता परन्तु वह कांचीमें भाग गया । गंगने ऐसी वीरतासे युद्ध किया कि वह सामना न कर सका। गंगने नरसिंगवर्मा, पल्लव व दूसरे चोलों के सब सेनापतियोंको भगा दिया और वे सब देश फिर ले लिये जो चोलोंने गंगवंशी राजाओंसे छीन लिये थे । गंगराजा सच्चा गनभक्त था । इसने सर्व देश विष्णुवर्द्धनको सुपुर्द कर दिये । महाराज विष्णुवर्द्धनने प्रसन्न हो गंगराजको टिप्परका प्रदेश इनाममें दिया। यह गंगराजा ऐसा सच्चा जैनी व धर्मात्मा था कि इसने वह प्रदेश धर्मार्थ कानृरगण तिन त्रिणिक गच्छके श्रीमेवचंद्र सिद्धांतदेव जैन आचाके चरणोंके सामने दान कर लिया।
सं० नोट गंगराजाके धार्मिक सत्य श्रवणबेलगोलाके लेखोंसे बहुत प्रगट होते हैं। एक जेन राजा कैसा युद्ध कुशल होकर भी धर्मात्मा होता है, इस बात का यह राजा नमूना है। इसका भिन्न जीवनचरित्र प्रगट होने योग्य है।
(१०) ता० नन नन्गुड-गम तगदुरु, चन्नाकेशव मंदिरके बाहर भीतमें एक स्तंभार नं० १३३ सन् ११७० द्रविलसंघमें नंदिसंघके अरुंगलान्वयके श्री मुनि अजितसेन देव आचार्य हुए।
श्रीमद्राभिलसंघेऽस्मिन् नंदिसंवेऽल्यरुनगल: । अन्वयो भाति निःशेषशास्त्रवाराशिपारगैः । ...अजितरोन मुनिपो हि आचार्यताम प्राप्तवान् ॥
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मदरास व मैसर प्रान्त । [१७७ (११) ता० तिरुमकुदल नरसीपुर-नं० १०५ शाका ११०५ (सन् ११८३) बहुत उपयोगी जैन शिलालेख । यह गौंदीवास बनपुरामें हुंडी सिद्धन चिकेके खेतके नाकेपर पाषाण । इसमें द्रमिलसंघके नंदिसंघ अरुंगलान्वयके मुनि चन्द्रप्रभका समाधिमरण है।
इस शिलालेखमें आचार्य श्रीवर्द्धदेव या तुम्बल्लूराचार्यका वर्णन है जिन्होंने कनड़ी भाषामें तत्त्वार्थसूत्रपर टीका लिखी है । इस आचार्यकी प्रशंसा डंडी कविने की है । इसीमें यह भी कथन है कि अकलंकस्वामी ने कांचीके रामा हिमशीतलकी सभामें बौद्धोंको वादमें परास्त किया ( ९मी श० ) जिससे बौद्ध लोग भारतवर्ष छोड़कर सीलोनमें चले गए। इसीमें यह कथन है कि इंद्रनदिने प्रतिष्ठाकल्प और ज्वालिनीकल्प रचा, यह संस्कृतमें हैं जिनके श्लोक आगे दिये हैं।
(१२) ता० ननुजनगुड-नं० ४३ सन् १३७१ ग्राम एचिगनहल्ली के पूर्व भरि चावड़ीके पास । इसमें मेघचंद्र मुनिके समाधिमरणका लेख है। इसीमें बहुत विद्वान मुनि पार्श्वदेव और बाहुबलिदेवका भी वर्णन है । मेघचंद्रके शिप्य माणिकदेवने स्मारक बनवाया।
(१३) नं० ६४ सन १३७१ त्रिन्यापुर या हलहल्ली में बरदराजा स्वामी मंदिरके द्वारके उत्तर पाषाणमें। वंगुलेश्वर वंशमें पुस्तकगच्छी श्रुतमुनिका समाधिमरण शाका १२७८ । माघनंदि सिद्धांतदेव, श्रुतकीर्तिदेव, मुनिचन्द्रदेव, श्रीपार्श्वदेव और बाहुबलि मुनि ये सब श्रुतमुनिके शिष्य थे। श्रुतमुनिके पुत्र कीर्तिव्रतींद्रने शाका १२७८में समाधिमरण किया। इस लेखमें अभ्यचंद्र मुनिकी प्रशंसा है । इसी लेखमें पेरूमलदेवने शाका १२७४ में व उसकी भावन अल्लाम्बाने शाका १२९०में समाधिमरण किया
१२
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१७८] प्राचीन जैन स्मारक । और अल्लाम्बाके पुत्र नरोत्तमश्रीने दान किया । त्रिजन्मंगलम् चैत्यालयको जिसे पेरूमलदेवरस और परमीदेवरसने जो इस हल्लहल्लीमें राज्य करते थे बनवाया था। परमेश्वर चैत्यालयका इन्होंने जीर्णोद्धार किया तथा भूमि दी थी।
(१४) ता. मलबल्ली ग्राम हागलहल्ली तेलकी मिलके पास । नं० ४८ शाका १५२१ (सन् १६९९ ई०) श्री मुनि आदिनाथ पंडितदेव मूलसंघ तित्रियकगच्छीयके शिष्य एक तेलवणिकने जैनमंदिर बनवाया था उसके लिये दीपकके लिये तेल पाषाणकी नेलचक्कीसे देनेका लेख ।
(१५) ता० मैमूर-नं० ६ सन् ७५० ई० ग्राम बलबट्टेमें वासवेश्वर मंदिरकी पश्चिम तरफ । श्री महापुरुष गोवपय्याने गंगराजा श्रीपुरुषसे भूमिदान प्राप्त की। उनहीका समाधिमरण हुआ।
(१६) नं० २५ सन् ७५० ई० । गंगवंशी श्रीपुरुष महाराजनके राज्यमें अरहिके पुत्र सिंगमने निनदीक्षा धारण की (मुनिहुए)। उसकी माता अरहिटीको कोडलूरके माडिओडेने भूमि दान की। ___(१७) नं० ३१ सन् १००० कुम्मरहल्ली ग्राममें वासवगुड़ीकी दक्षिण भीतपर । इसमें श्रीमुनि अजितसेन पंडितके शिष्यका सम्बन्ध है।
(१८) नं० ४० सन् ९८० ई० । बसेण ग्राममें वाप्रवमुड़ीके सामने एक स्तंभपर एक जैन यतिका समाधिमरण हुआ।
___ (१९) ता. श्रीरंगपट्टम-नं० १४४ सन् १४२३. वस्तीपुरामें ग्रामकी हद्दकी चट्टानपर मूलसंघ, कारगण, तितिनीगच्छके मुनि श्रीवासपूज्यदेवके शिष्य सकलचंद्रदेवके तपकी प्रशंसा है।
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[ १७९
मदरास व मैमूर प्रान्त | फिर यह लेख है कि कुरिगहछीके गौड़ोंने श्रीपार्श्वदेवकी वस्ती बनवाई |
(२०) नं० १४७ करीब ९०० ई० । क्यातनहल्ली में ग्रामके दक्षिण जैनमंदिरके पड्डी खेत में एक पाषाणपर । इसमें कथन है कि श्रवणबेलगोलाके कबप्पु पर्वतपर श्रीमुनि भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के चरणचिह्न अंकित हैं । कुवलाल नगर, नंदगिरिके स्वामी गंगकुल तिलक श्रीमत सत्यवाक्य कौंगुणीवर्मा धर्म महाराजाधिराज श्रीमत् परमानदी एरयधरसने परमानदी पाषाण जैनमंदिर के लिये श्रीकुमारसेन भट्टारक जैन मुनिकी सेवामें दान दिया ।
(२१) नं० १४८ सन् ९०१ ई० रामपुरा में कावेरी नदी के उत्तर तट गौतम क्षेत्रके सामने सिगदी गौड़के पड्डी खेत में एक पाषाण - जिसपर श्रीमुनि भद्रबाहु और चंद्रगुप्तके चरणचिन्ह अंकित हैं उस कबप्पपर्वतके स्वामी श्री सत्यवाक्य परमानदीने अपने श्री राज्यके चौथे वर्ष श्रीवरमतिसागर पंडित भट्टारक जैन मुनिके उपदेशसे अन्नथदेवकुमार और धोराने वाननहल्ली ग्राम खरीदकर श्री सिंगकी सेवामें अर्पण किया ।
(२२) मांड्य ता० नं० ३४ करीब ११७० ई० । हुल्लेगेरिपुर में वासव मंदिर के सामने स्तम्भपर एक जैन साधुके तपके स्मरमें जिनचंद्रने स्मारक स्थापित किया। एक संस्कृत श्लोक लिखा है
आसीत् संयमिना पृथ्व्यां होमेनान्यन्महातपः । तत्शंसिना शिलास्तम्भो जिनचन्द्रेण निर्मितः ॥
(२३) नं० ५० सन् १९३० अबलवादी (कया हुबली) पर चौहद्दीकी भीतके पास । होसाल विष्णुवर्द्धन के राज्य में मूलसंघी
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१८०] प्राचीन जैन स्मारक । देशीगण पुस्तकगच्छ श्रीमुनि नयकीर्ति और भानुलीतिके शिष्यपर गड़े मल्लिनाथने एक जैन मंदिर बनवाया।
(२४) नं० ७८ सन् १०२२ ई० । वेलूरूग्राम (कत्तल्टी होव्व ) में दुर्गादेवीके, पीछे तालाव किनारे एक पाषाणपर । शाका ९८४ में परगड़े हासनने जब गंग परमानदी कर्णाटमें राज्य कर रहे थे तब नए जैन मंदिरके लिये सीढ़ियां बनवाई।
(२५) ता० मलवल्ली-नं० ३० ता० ९०९ ई० । कलगिरि ग्राममें सरोवर तटपर एक पाषाणमें शाका ८३१ में। नंदगिरि व कुवलीलके स्वामी नीतिमार्ग परमानदी कौंगुणीवर्मा भट्टा के राज्यमें कनकगिरि तीर्थपरके जनमंदिरके लिये महाराजके सामने श्रीकनकसेन भट्टारककी सेवामें मानब्यूरने तिधेयूरमें कमरों आदिका सर्व कर प्रदान किया । - (२६) नं० ३१ सन् १ ११७ ई० । टिप्पूरमें पहाड़ीपर ग्रामके उत्तरपूर्व-होयसालवंशी विनयदित्यकी स्त्री कलयवरसी, उनका पुत्र एश्यंग, भार्या एचलादेवी उनके पुत्र हुए बल्लाल, विष्णु और उदयदित्य । विष्णुने देश विनय किया। गंगवंशी राजा मार भार्या माकनव्वे-पुत्र एचिराजा भार्या पाचिकव्वे-पुत्र महामंत्री और दंडनायक गंगराजा । इसने चोलराना इडियमाको व नरसिंहवर्माको भगाया। तलकाड़ व दूसरे प्रदेश विनय किये । महाराजाने तिप्परु ग्राम भेट दिया जिसे गंगने मूलसंघ कारगण त्रित्रिंकगच्छके मेघचन्द्र सिद्धांतदेवके चरणों में भेट किया । संस्कृत लेख शिलालेख नं. १०५ सन् ११८३ ई० तिरुमकुदल नरसीपुर ता० में जो (नं० ११ )में पीछे दिया हुआ
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मदरास व मैसूर प्रान्त । निय पूतिमललेपमलं कलंक, आलोकतस्त्रिजगति प्रतिपूजितो यः । श्रीवर्द्धमान इति पश्चिमतीर्थनाथो, भव्यान्मनां दिशतु संततमिष्टपुष्टिम ॥१॥ श्रीवर्द्धमानजिनवक्तृसमुत्थमर्थ, सार्थ समस्तमपि मृत्रगत चकार । यस्सर्वभव्यजनकंटविभूषणार्थम, श्रीगौतमो गणधगेऽस्तु स न: प्रसिद्धये ॥ २ ॥ गुरुणाम् कीर्तिमत् मृर्तिवाणि शद्या विराजते । तद्विप्रयोगशोकाभिव्यचित्तप्रशान्तये ॥ ३ ॥ श्रीमद्रामिलगंधेऽस्मिन नंदिसंघेऽस्त्यरुन्गल: । अन्यो भाति निःशेषशास्त्रवागशिपारंग: ॥ ४ ॥ समन्तभद्रस्संस्तुत्यः कम्य न स्यात्मनीश्वरः । वाराणसीश्वरम्याने निर्जता येन विद्विषः ॥ ५ ॥ उपेन्य सम्यग्दिशि दक्षिणस्याम्, कुमारसेनो मुनिरामाप । तंत्रव चित्रं जगदेकभानोस्तिष्ठन्यसो तस्य तथा प्रकाश: ॥६॥ कृत्वा चिन्तामणिं काव्यमभीष्टार्थसमर्थनम् । चिन्तामणिग्भन्नाम्ना, भव्यचिन्तामणिर्जगुः ॥७॥ विद्वच्चूड़ामणिश्चूड़ामणिकाव्यकृते...चूडामणिसमाख्यो भुवि लक्षलक्ष...लक्षणः ॥८॥ यस्सप्ततिमहावादविजयी वंद्य एव स, ब्रह्मराक्षसवंद्यांदिः महेश्वर मुनीश्वरः ॥६॥ आशान्तवर्तिनी कीर्तिस्तपश्रुतसमुद्भवा, यम्यानवद्य शांतात्मा शान्तदेव मुनीश्वरः ॥१०॥ तस्याकलंकदेवस्य महिमा केन वर्ण्यते, यद्वाक्यखड्गद्यातेन हतो बुद्धो विबुद्धि सः ॥ ११ ॥ श्रीपुष्पसेन मुनिगेव पदम महिम्नो । देवस्य यम्य समभृत्स भवान सधर्मा । श्रीविभ्रमस्य भवनम् ननु पदमेद । पुष्पेषु मित्रमिह यस्य सहखधामा ॥ १२ ॥कोतिर्विमलचन्द्रस्य चद्राशु विशदि वभौ। यद्वाक्यलालितोटाममत्र शोको यमीदृशः ।।१३॥ पत्रं शत्रुभयकरोग्भवनद्वारे सदा संचरन् , नाना गजकरीन्द्रवृन्दतुरगत्राताकुले स्थापितम् । शवम् पाशुपतं स तथागतमतान कापालिकान कापिलान , उद्दिश्योन्द्रतचंतसाम् विमल चद्राशाम्बरेणादगत् ॥ १४ ॥ इन्द्रमन्दिमुनीन्द्रोऽयम् वन्द्यो वन प्रकल्पितः । प्रतिष्ठाज्वालिगांकल्पो कल्पान्तरकृतस्थिति ॥1॥ परवादिमल्लदेवो देवो यत भाग्यदि...प्रवृता कृष्णराजाने चिनामादेशदशिनी ।।१।।
। गृहीतपक्षादितर: परस्स्यात । तद्वादिनस्ते परवादिनस्स्युः ॥ तेषां हि मल्लः परवादिमल्लस् । तन्नाम मनाम वदन्ति संतः ॥१७॥
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प्राचीन जैन स्मारक।
दूसरो ओर। सन्मतिः सप्तनामा...... ...... ना गौतमा...... ...... तस्य जातो भट्टारक..,
( तीन लाइन नहीं )
श्री मलधारी......
श्रीमद द्रमिलसंघ......
तीसरी बाजू( ९. लाइन नहीं ) ...... जितसेन पंडित......
...... दिवोकस्तुत:तर्कव्याकरणागमादिविदितस्त्रविश्यविद्यापतिः... । ...मूलप्रतिपालकोगुणगुरुर्विद्यागुरुयस्य सः ॥ श्रीचन्द्रप्रभनामतो मुनिपतेः सिद्धांतपारंगतो । ...चंद्राजितसेनदेवमुनिपो व...म्पताम् प्राप्तवान् ॥ श्रीमत्वैविध्यविद्यापतिपदकमलाराधनालन्धबुद्धिस् । सिद्धा...णिधानःविसरदमृतस्त्राद...टप्रमोद ॥ दिक्षारक्षा सुपक्षा...मकृतिनिपुनस्संततम्भव्यसेव्यम् । सोयम् दाक्षिन्यमूर्ति गतिविजयते वासुपूज्यः वृतीन्द्रः॥ नमः ...तिमिरमित्रस्सद्गुरुस्सच्चरित्रः । विबुधवनसुचैत्रः पुण्यसम्पूर्णगात्रः ॥ जिननिगदितसूत्रर्या...सा सत पवित्रस । स जयतिगुण......साम चन्द्रप्रभोत्र ॥
चौथी तरफ । नमोस्तु :
स्वपरमतविकासस श्रीसुतः कंठपाशो । नमितगुणगणेशः भव्यबोधोपदेशः ॥ श्रुतपरमनिवेशस् शुद्धमुक्तयंगनेशः । जयति वरमुनीशम् मरिचन्द्रप्रभेश: ॥
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मदरास व मैसूर प्रान्त |
[ १८३
समयदिवाकरदेवो तच्छिष्यः परमतार्किकाम्बुजमित्रः । चन्द्रप्रभुमुनिनाथ कृत्वा सल्लेखनम् शुभतनुत्यागम् ॥ शाके शायक दुर्भाभिगणिते संवत्सरे शोमक्रन | नामनिष्ठे कुजवारशुद्ध दशमीप्राप्तोत्तराषाढ़ के || मासे भापदे प्रमातसमये चन्द्रप्रभाख्यो मुनिस । सन्यासेन समाधिना सुमरणं शे...गणीद्रागभूत ॥ यस्यार्थस्य गुरुरुततमगुणगुरुसत्रैविद्यविद्यानिधिः । ख्यातोऽसौ समये दिवाकर इति स्यादिक्षयाशिष्यकैः ॥ तैर्दत्तम सकलम... तश्रुतगुणं रत्नत्रयाख्यं क्रमात् । दागध... त्यसमाधि... यतिश्चन्द्रप्रभाख्यो भवत् ॥ य... प... दशविध धर्मक्षमा... | करगुणगमे परिणति साहित्य ॥ भ्राजन्ते स भवान समाधिविधिना... चार्यादिवाम | यातो ध्यानवलान्वितः रागद्वेपमोहाथिरः ॥ यस्तत्वो... वर्द्धन विधुकामेभकंटीरवः । श्रीमद्वाविलसंघभूप्रभणिस्सदुज्ञानचिंतामणिः ॥ त्वा चारुतपसूचरित्रममलं स्मृत्वा जिनांहिद्वयम् । कृत्वा सन्यासनम् जिनालयगतो चन्द्रप्रभस्सन्मुनिः ॥ लोके दुजनाकुले हतकुले लोभातुरे निष्ठुरे । सालंकारपरे मनोहरतरे साहित्यलीलाधरे ॥ भद्रे देवि सरस्वति गुणनिधिः काले कलौ साम्प्रतम् । कथं यास्यसि अभिमानग्ननिलयं चंद्रप्रभार्यम् विना ॥ साहित्योन्नतपादपम् क्षितितले दुष्कर्मणा पातितम् । वाग्देवी पृथुवक्ष मंडनमहो संछिद्य निर्नाशितम् ॥ सर्वज्ञागमसार भूधरमिदम् द्वेषेण निर्लोपितम् । श्रीचंद्रप्रभदेव देवमरणे शास्त्रार्णवम् शोषितम् ॥
नमोस्तु !
भावार्थ - इस लेख में पहले वर्द्धमान तीर्थंकरको नमस्कार करके
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१८४] प्राचीन जैन स्मारक । / फिर गौतम गणधरको नमनकर द्रामिल संघमें नंदिसंघके अरुन्गल
अन्वयमें श्रीसमन्तभद्र आचार्यकी प्रशंसा की है जिन्होंने वारानसी (बनारस )के राजाको विजय किया। फिर कुमारसेन व चिंतामणि काव्यके कर्ता चिंतामणि, फिर चूड़ामणि काव्यके कर्ता चूड़ामणि मुनिको, फिर महेश्वरमुनि, शांतदेवमुनि, बौद्धविजयी अकलंकदेव, पुप्पसेनमुनि तथा परवादीको जीतनेवाले विमलचंद्रमुनि, फिर प्रतिष्ठा कल्प व ज्वालिनीकल्पके कर्ता इन्द्रनंदि मुनि फिर कृष्णाराजाके समयमें उपदेशदाता परवादिमल्लदेवको नमन किया है। दूसरी तरफ श्रीमहावीरस्वामी, गौतमगणधर व द्रमिल संघका नाम है ( बाकी लेख रहा नहीं )। तीसरी तरफ, श्री मुनि चंद्रप्रभकी प्रशंसा करके यह कहा है कि उन्होंने भादों सुदी १ ० मंगलवार उत्तराषाढ़ नक्षत्र शाका ११०५ में समाधिमरण किया ।
(२७) ता. नन्जनगड-नं० ५९ ग्राम हरतलेके पश्चिम तुरुके गौडके खेतमें पाषाण । कालेनाटके परतले ग्रामके निवासी प्रियपरमादी गौड़के पुत्र परमादी गौड़ स्वर्ग सिधारे । उसकी माता अय्यब्वेने स्मारक स्थापित किया। (मिति नहीं)
(२८) ता. वही-ग्राम हुसुकुरु मल्लिकार्जुन मंदिरमें पाषाणपर नं० ७५ सन् ८७० ई० । शाका ७९२ में जब सत्त्य० कोंगुनीवर्मा धर्म महाराजाधिराज, कोवलाल और नंदगिरिका राजा प्रसिद्ध रानमल्ल परमानन्दी राज्य करते थे तब कोंगालनाद और प्रन्नादका गवर्नर युवराज बूतरसने शत्रुसे युद्ध किया था।
(२९) ता. वही-ग्राम कारेया जिरीगंद बागकी झाड़ीके पारख । नं० १९३ सन् १९२४-जब सम्यक्त चूडामणि समाधि
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मदरास व मैसूर प्रान्त ।
[ १८५ गत पंच महाशब्द त्रिभुवनमल्ल, वीरगंग, जगदेकमल्ल, होसालदेव राज्य करते थे । महाराजने कारेया के वारंद एरबगोविंदके पुत्र परमादी गोविंदपर कृपा करके शत्रुसे युद्ध करनेकी आज्ञा दी । वह युद्ध करके स्वर्ग गया ।
एपिग्रेफिका नं. 8 में भी मैसूर जिलेके शिलालेख हैं । L वे सब लेख नीचे प्रकार राजवंशोंके हैं-
(१) कादम्बवंशके (२) गंगवंश के
(३) राष्ट्रकूट वंशका
(४) चालुक्यका
(५) चोलवंशके
(६) चंगोलववंश के
(७) होयसालवंशके
(८) विजयवाद के (९) उन्मत्तर राज्यके
(१०) काटे राज्यके
(१२) नंदियले
(१२) हृदिनाद, (१३) मैसूर (१४) कलाले
39
"
99
११ सन्
४२
"9
१ सन
१
२९
४८
२१२
२९८
१३
१२
९.८
७०
""
४५० से १९३८ तक से १००९ "
७००
७८०
९९७
१११० से १११५
१०६० से १६४०
१०६८ से १३४५
१३४४ से १६६८
१४७८ से १५७३
१४८९ से १६५४
१५३० से १५५३
१९५० से १६६७
१६१२ से १८७८ १७४१ से १७६७
८७९) कुल
नोचे लिखे शिलालेख जैनधर्म संबंधी जानने योग्य हैं ।
ता० चामराजनगर ( १ ) - नं ० ५१ ग्राम मंगलमें जोती
कलकलके पास चट्टानपर | श्रीकुंदकुंदा • भट्टारक.... आचार्यके शिष्य
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१८६] प्राचीन जैन स्मारक । गुणनंद कर्मप्रकृति भट्टारकने ३१ दिनके उपवासका नियम कर सन्यास करके समाधिमरण किया।
(२) नं० ८३ ता० १११७ई० चामराजनगरमें श्रीपार्श्वनाथ वस्तीमें एक पाषाणपर । जब द्वारावती (हेडेविड)में वीरगंग विष्णुवर्द्धन विट्टिग होसालदेव राज्य करते थे तब उनके युद्ध और शांतिके महामंत्री चाव और अरसीकन्वेका पुत्र पुनीश राजदंडाधीश था। यह श्रीअजित मुनिपतिका शिष्य जैन श्रावक था तथा यह इतना मीर था कि इसने टोडको भयवान किया, कोगोंको भगाया, पल्लवोंका वध किया, मलयलोंका नाश किया, कालराजाको कंपायमान किया तथा नीलगिरिके ऊपर जाकर विनयकी पताका फहराई । इसने नीलाद्रिको पकड़ लिया तथा मलयलोंका पीछा करके उसकी सेनाको पकड़ लिया। केरलका स्वामी होकर केरलराजाको सेवक बनाया और फिर उसको सब कुछ दे दिया । इसने गंगवाड़ी ९६००० के मंदिरोंकी शोभा की तथा एन्ननादमें अरकौत्तर ग्रानमें त्रिकूलवस्ती नामका जिनमंदिर बनवाया व उसके लिये भूमि दान दी।
(३) नं. १४६० ग्राम मलियारुमें गुंडीन ब्रह्मदेवरुको जाते हुए मार्गपर पर्वतपर-इस लेखमें पुस्तकगच्छ देशीयगणके भट्टाकलंक मुनियकी प्रशंसा है।
(४) नं० १४७ सन् १५१८ ई० । ऊपरकी पहाड़ीपर वलिकल्लूके दक्षिण चट्टानपर संस्कृत भाषामें लेख है-- . शाकाब्दे व्योमपाथो निधिगति शशि संख्येश्वरे श्रवणे । )
तत्कृष्णे पक्षेत्र तद् द्वादशतिथि युत सत् काव्य वारे गुरोर्भे ॥
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [१८७ आद्यंघ्रौ कन्यकायाम यतिपति मुनि चंद्रायवर्याग्रशिष्यो । लेभे चेतः कृतार्हत्पदयुग मुनिचंद्रार्यवर्यस्समाधिम ॥ तच्छिष्य वृषभनाथ वर्णिना लिखितम् । पद्यम विद्यानंदोपाध्यायेन कृतं ॥
भावार्थ-शाका १४ ४ ० श्रावण वदी १२ गुरुवार कन्या लग्नमें यतिपति मुनि चंद्राचार्यके मुख्य शिप्य मुनि चन्द्राचार्यने समाधिमरण किया। उनके शिष्य वर्णी वृषभनाथने लिखा, पद्य बनाया विद्यानन्द उपाध्यायने ।
(५) नं० १४८ ता० १५२८ ? ऊपर पहाड़ीपर सेनगण निषीधिकाके उत्तरपूर्व कालोग्रगणके मुनि चंद्रदेवके चरणचिह्न ।
(६) नं० १४९ ता० १६७४ ई० । ऊपरकी पहाड़ीपर बलिकल्लूके पूर्व चरणचिह्न लक्ष्मीसेन मुनीश्वरके हैं व नीचे लिखा श्लोक है--
१५९६ शाके द्रव्यपदार्थभृतधरणी संख्य मिते वत्सर । चानन्दे वर पुष्पमास मिते पक्षे पचमी सत् तिथौ ॥ लक्ष्मीसेन मुनीश्वरेण पर र्वादीभसिंहेन वै ।
हेमाद्रौ वर पार्श्वनाथजिनपे दीक्षाश्रिता सत्फला ॥ - भावार्थ-इस हेमगिरिपर शाका १९९६में पौष सुदी ५को वादीरूपी हाथियोंको सिंह समान श्रीलक्ष्मोसेन मुनिने पार्श्वनाथ मुनीन्द्रके पास दीक्षा ली।
(७) नं० १५० सन् १८१३ ई० ऊपरकी पहाड़ीपर उत्तरकी तरफ चट्टानपर संस्कृतमें श्लोक है--
श्रीमच्छाके शराग्निव्यसनहिमगु संख्यामिने श्रीमुखाब्दे । पौष मासे त्रयोदश्यावनिजदिवसे धारभे चापलग्ने ॥
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१.८८ ]
प्राचीन जैन स्मारक 1
श्रीमदेशीगणाग्रयः कणकगिरिवरे सिद्धसिंहासनेश: । प्रापद् भट्टाकलंकस्सुमरण विधिनाऽस्मिगिरौ नाकलोकम् ॥ भावार्थ - देशीगणके मुख्य स्वामी श्रीअकलंक मुनिने शाका १७३५ में पौष सुदी १३ को इस कनकगिरिपर स्वर्ग प्राप्त किया । नोट- यह कर्णाटक शब्दानुशासन के कर्ता भट्टाकलंक (सन् १६०४) के वंशमें हुए हैं इसीसे नाम एक ही है ।
(८) नं० १५१ सन् १४०० ई० । इसी पर्वतपर बड़ी चट्टानके पश्चिम । मूलसं० कुंद० इंग्लेश्वर वलि, पुस्तकगच्छ देशीगण के आचार्य श्रुतमुनिके सेवक व शुभचंद्रदेवके शिष्य कोयण निवासी विद्वान चंद्रकीर्तिदेवने श्रीचन्द्रप्रभकी प्रतिमा स्थापित की ।
(९) नं० १५२ ता० १४०० ई० ? इसी पर्वतपर चंद्रकीर्ति मुनिका शब्द कोयल से बढ़िया है ।
(१०) नं ० १५३ सन् १३५५ ई० । बड़ी चट्टानके पूर्व तेलगूमें। श्री मूलसं० कुन्द० देशी ० पुस्तकगच्छ हनसोगे बलिके हेमचंद्र भट्टारकके शिष्य आदिदेवने तथा ललितकीर्ति भट्टारकके शिष्य ललितकीर्तिने कणकगिरिपर विजयदेवकी प्रतिमा स्थापित की । नोट- यह विजयदेव कोई आचार्य होंगे या शायद श्रीअजित तीर्थंकर से प्रयोजन होगा ।
(११) नं० १५४ सन् १८३८ ई० । इसी पर्वतपर चंद्रप्रभु मूर्तिके बगलमें शाका १७६० श्रीवर्द्धमानाब्द २५०१ में देवचंद्र ( राजा वलीकथाके कर्ता ) ने अपनी वंशावली लिखी— सं० नोट - इस लेख में सन् १८३८ में जब वीर सं० २५०१ माना जाता था तब इस हिसाब से आज वीर सं० २५८९ होना
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मदरास व मैसूर प्रान्त ।
[१८९ चाहिये जब कि आज २४५२ माना जाता है । इसमें १३७ वर्षका अंतर क्यों है इस बातकी परीक्षाकी जरूरत है। मालूम होता है मदरासकी तरफके विद्वान् ऐसा ही समझते हैं क्योंकि दीपनगुडी (४) के शिलालेख में भी २५३८ दिया है इससे भी १३७
तंजोर जिले ( नं ०
१६ ) के शाका १७९७ में वीर सं०
वर्षका अंतर हैं ।
(१२) नं० १५६ सन १६३० ई० ? इसी पर्वतपर श्री पार्श्वनाथ वस्तीके हाते में पूर्व द्वारके भाग में जिन मुनिकी मूर्ति स्थापित की ।
(१३) नं० १५७ ता० १३८० ई० ? इसी पर्वतपर इसी हाते में दक्षिण ओर । इस लेखने मूलसंघ दे० कुंद० पुस्तकगच्छके स्वामी श्रीबाहुबलि पंडितदेवका नाम है । यह नयकीर्तिव्रतीके शिष्य थे । तथा विद्या के सम्राट थे, उभय भाषाके कवि थे, ज्योतिषी थे व त्रिनेत्र प्रसिद्ध थे ।
(१४) नं० १९८ ता० ११८९ ई० ऊपर पर्वतपर इसी "हातेके छप्पर के मंडप में एक पाषाणपर श्री अच्युत राजेन्द्रका पुत्र श्री अच्युतवीरेन्द्र शिष्य था जो श्री विद्यानन्द मुनिका शिष्य व वैद्यक में प्रवीण था । उसकी स्त्री चिक्कताईने इस कनकाचलपर श्री पार्श्वनाथस्वामीकी ९ पर्बियोंपर पूजा के लिये व मुनि आदिको सदा ज्ञान दान होनेके लिये किन्नरीपुर भेट किया ।
(१५) नं० १६१ ता० १९८८ ई० इसी पर्वत पर मुनि चंद्रकीनिषीधिकाका पाषाण मूलसंघ कालोग्रगणके मुनि चंद्रदेवका स्मारक - चरणचिह्न उनके शिष्य आदिदासने अंकित किये ।
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१९०]
प्राचीन जैन स्मारक ।
(१६) नं० १८१ ता. ११७३ ई० ग्राम कुलगणमें माचप्पन वासव गौड़के खेतमें पाषाणपर । त्रिभुवनमल्ल वीरगंग वीर वल्लालदेवके राज्यमें इडईनादके सब कृषकोंने कुलगणके जिनमंदिरके लिये महामंडलाचार्य पांडिराज देवर उदेयरके शिप्य संगानदेवको दान किया।
(१७) नं० १८४ ता० १४८६ ई० हरवे ग्राममें श्रीआदीश्वर वस्तीके दक्षिण मंडपमें निषीधिका या समाधिमरण स्थान देवरसकी ज्येष्ठ स्त्री सोमायीका ।
(१८) नं० १८५ सन् १४८२ ई० । ऊपरके आदीश्वर वस्तोके हातेके दक्षिण पूर्व शासनमंडपके खंभेपर । महामंडलेश्वर वीर सोमराय ओडयरके हिसाबके मंत्री देवारसने एक जिन चैत्यालय तथा एक सविपाकघर हरवेमें बनवाया और श्री आदिनाथ भगवानको स्थापित किया । और चारों वर्णोको दान वटा करे इसलिये सरोवरके नीचेका पड्डीका खेत दान किया । उसके पुत्र नंजेराय वोडेयरमें १३०० सूखी भूमि व घर खरीदा और वस्तीके लिये यत्न किया । तथा चंदप्पाने भी भूमि और बाग वस्तीको दिया ।
(१९) नं० १८९ ता० १४८२ ई०हरवेग्राममें शिवलिंगपाके खेत के दक्षिण हरवेके देवप्पाके पुत्र चंदप्पाने श्रीआदिनाथकी सेवार्थ व चारों वर्णोको दानके लिये भूमि दान की। ___ (२०) तालुका गुंडलूपेट-नं० १८ ता० १८२८ ई. । ग्राम केलासुर, जैन वस्तीकी भीतरी भीतपर। मैसूरके अत्रेय गोत्री चाम राजाके पुत्र कृष्णराजाने श्री वत्सगोत्रके शांति पंडितके पुत्रकी प्रार्थनापर केलासुरके चैत्यालयमें श्री चंद्रप्रभु जैन तीर्थकरकी मूर्ति
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [१९१. बिराजमान कराई और उसका जीर्णोद्धार कराया और फिरसे रंग कराया।
(२१) नं० १९ ता० १२२९ ई० ऊपरकी जैन वस्तीमें जब हिरियनादमें महाराज नरसिंहदेव राज्य कर रहे थे तब कलगनाके शंकर....ने केलासुरकी वस्तीके लिये कुदुग बागमें भूमिदान की।
(२२) नं० २० ता० १०३० ई० इसी वस्तीकी जड़में चोल गंगदेवके राज्यमें विक्रम चोल परमादीने वस्तीके लिये गामुंड ग्राम दिया।
(२३) नं० २७ ता० ११९६ ई० गुन्डलुपेट किलेमें जैन यस्तीके एक पाषाणपर सम्यक्त चूड़ामणि होयसाल, वीर वल्लालदेव जब दोर समुद्रमें राज्य करते थे हरलाधिकलका स्वामी गोखगबुन्ड था उसका ज्येष्ठ पुत्र हरगोकुंड था। उसके पुत्र विहिगोकुंडने टुप्पूरमें एक जिनालय बनाया और जीर्णोद्धार व अष्टप्रकारी पूजाके लिये भदहल्ली ग्राम दिया । इसका सम्बन्ध दमिलसंघके नंदिसंघके अरंगुलान्वयसे है
(२४) नं० ९६, ग्राम रामवाडीमरी मंदिरके निकट एक पाषाणपर--धर्मेंद्र पद्मावती सहित श्रीचंद्रोग्र पार्श्वनाथको नमस्कार हो।
(२५) तालुका येदलोर नं० २१ जा० १०२५ ई० । चिकहोन्सागमें जैनवम्तीके द्वारक उपर देशीयगण पुस्तगच्छी श्रीराजेन्द्रचोलने जिनालय बनवाया। ____(२६) नं० २२ ता० १०६० ? वहीं उपरकी वस्तीमें पुस्तक.गच्छी श्रीवीरराजेन्द्र नन्नीचंगलदेवने वसती बनवाई।
(२७) नं० २३ ता० १०८० ? ऊपरकी जैन वस्तीके नवरंग मंडपके ऊपरी द्वारपर कुन्द० देशीगण पुस्तकग के दिवा
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१९२] भाचीन जैन स्मारक । करनंदि सिद्धांतदेवके ज्येष्ठ गुरु दामनंदी मट्टारक थे उनके एक सम्बन्धी पनसोगेके चंगलतीर्थोकी कुल वसदी, व तोरनादमें अव्वेवसदी व बलिवनेकी वस्तीके स्वामी हैं।
(२८) नं० २४ ता० १०९९ ई० इसी वस्तीमें भीतरी द्वारके दक्षिण । कुन्द० पुस्तकगच्छी श्री पूर्णचंद्र मुनिप थे उनके पुत्र दामनंदी मुनीन्द्र थे उनके शिष्य श्रीधराचार्य थे उनके शिष्य मलधारीदेव थे उनके पुत्र चंद्रकीर्ति व्रती थे। तब श्री मूलसंघके दिवाकरनंदी सिद्धांतदेवकी शिष्या वसववे गणती ( आर्यिका )ने जिनालयको दान किया।
(२९) नं० २६ ता० ११०० ई० चिकहान्सोगेमें श्रीशांतीश्वर जैन वस्तीके द्वारपर मूलसंघी देशीगण होट्टगे गच्छका समूह, रामस्वामी द्वारा दिये हुए इस परमेश्वरके दान में स्वामी हैं। अनेकोपवासी, चन्द्रायण व्रतधारी जयकीर्ति मुनि पुस्तकान्वयके सूर्य प्रसिद्ध थे। यहां जो देशीगणकी जैन वस्ती ६४ हैं इनको इक्ष्वाकवंशी राजा दशरथके पुत्र, लक्ष्मणके ज्येष्ठ भ्राता, सीताके पति श्रीरामने स्थापित की थीं। इस बंद तीर्थकी बसतियोंके लिये जिनको श्रीरामने बनवाया था व जिनको गंगराजाओंने दान किया था। यादवोंके (या चंगलवोंके) राजेन्द्र चोल नन्नि चंगलदेवने नया दान किया । होट्टगे गच्छकी वसती व तलकावेरीकी वसतियोंके लिये यही संघस्वामी है।
सं० नोट-यह स्थान बहुत प्राचीन मालूम होता है व यह लेख भी बहुत आवश्यक है। सन् ११०० में यह बात मान्य थी कि इन जैन मंदिरोंको श्रीरामचन्द्रने बनवाया था। यह स्थान दर्शनीय व पूजनीय है।
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मदरास व मैसूर प्रान्त ।
[१९३
(३०) नं० २७-ऊपरके स्थानपर श्री आदीश्वर वस्तीके द्वारपर । यह लेख नं० २३ के समान है।
(३१) नं० २८-करीब ११०० ई० ? वहीं श्री नेमीश्वर वस्तीके द्वारपर देशीगण पुस्तकगच्छक आचार्य श्रीधरदेव थे, उनके शिष्य एलाचार्य थे इनके शिष्य दामनन्दी भ० थे उनके सहवर्ती चंद्रकीर्ति भट्टारक थे उनके शिप्य दिवाकरनंदी सिद्धांतदेव थे, उनके शिष्य चन्द्रायणदेव या जयकीर्तिदेव थे। यह समूह सब वसतियोंका स्वामी है । चंगल्वोंने इनके लिये भूमि दान की।
(३२) नं० ३६ ता० १८७८ ई० ग्राम सालिग्राम । अनंतनाथमीके जेन वस्तीके सामनेके स्तंभपर ।
पेनुगोंडाके सेनगणके श्री लक्ष्मीसेन भट्टारकके शिष्य इदगुरके विदप्पा पल्टनी सेठीके पुत्र अन्नइया व इनके पुत्र वीरप्पा राज्यमहलके मोतीके व्यापारी और टिम्मप्पा इसके छोटे भाईने इस सालिग्राममें इस अनंतनाथस्वामीके नवीन चैत्यालयको बनवाया।
ता० हेग्गड़देवकोटे-(३३) नं. १ ता० १४२४ ई. सरगुरु ग्राममें, ग्रामके दक्षिण पंचवस्ती जैन मंदिरमें पाषाणपर श्री अहंत परमेश्वरका महामंडलेश्वर राना बुक्कराय जेन थे। इसका महामंत्री वइचय दंडनाथ अरन्दले गणके स्वामी मुनि पंडितदेवका शिष्य था व बरगीनाद, मसनहल्लीका राजा था । तब कम्पन गोपुंडने श्री बेलगोलाके गोम्मटस्वामीके लिये वरगीनाटके भीतर तोतहल्ली ग्राम भेटमें दिया। उसका नाम गुम्मटपुर रक्खा ।
(३४) तालुका हन्सूर-नं० १४ ता; १३०३ ई० । ग्राम होमेनहल्ली जैनवसतीके द्वारके बाएं एक पाषाणपर मूल संघ, कुंद.
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१९४] प्राचीन जैन समारक। देशीगण पुस्तकगच्छके हन्सोगेके बाहुबलि मलधारी देवके शिष्य पद्मनंदी भट्टारक देवने वसतीके लिये सम्पत्ति दानकी (पूर्वावस्थामें)
(३५) नं० १२३ ता० १३८४ ई०, ग्राम खन्दुरमें जैन वसतीके एक पाषाण पर मूल संघ कुंद देशी० पुस्तक ग० इंग्लेश्वरवली के अभयचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती देवके शिष्य श्रतमुनि उनके शिष्य प्रभेन्दु उनके शिष्य श्रुतकीर्ति देवका समाधिमरण हुआ उनकी स्मृतिमें उनके शिष्य आदिदेवमुनिके उपदेशसे जैनियोंने श्री सुमतिनाथ तीर्थकर की मूर्तिस्थापितकी व चैत्यालयका जीर्णोद्धार कराया।
(३६) ता० कृष्णराज पेट-नं० ३ ता० ११२५ ई० । होसहललु ग्राममें श्री पार्श्वनाथ वस्तीके दक्षिण एक पाषाण पर | जब दोर समुद्रमें वीर गंग होतालदेव, ९६००० गंगवाडीको लेकर राज्य कर रहे थे तब पोयसाल सेठी व नाम नोलवी सेठी श्रीशुभचन्द्र सिद्धांतदेवके शिष्य थे। उसके पुत्र देवीकव्वे सेठीने त्रिकूटाचल जिनालय बनवाया और उसे मूलसं० कुन्द० देशी० ग० पु. ग०के श्री कुक्कुटासन मलधारिदेवके शिष्य श्रीशुभचंद्रके सुपुर्द कर दिया । व ग्राम अईनहल्ली दिया । गौड नारायणसेठी पुत्र वेहनायकने भी भूमिदान की।
(३७) नं० ३६ ता० ११४७ ई० । कम्ममवाड़ी ग्राम जिनेन्द्र वस्तीके सामने मानस्तंभपर | जब दोर समुद्रमें नरसिंहदेव राज्य करते थे तब महामंत्री हरगड़े शिव राजा थे। उस समय सोमस्याने माणिक्य दोलावेके जिनालयके लिये दान किया।
(३८) ता० नागमंडल-नं० १९ ता० १११८ ई. ? कम्बडहल्लीमें कम्बोदिराय स्तंभपर । सुराष्ट्रगणमें मुनि अनन्तवीर्य थे।
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मदरास व मसूर प्रान्त । [१९५ उनके चरण राजाओं द्वारा पूज्य थे। इनके पुत्र सिद्धांती प्रभाचंद थे। इनके शिष्य कलनेने देव थे। उनके पुत्र अष्टोपवासी मुनि थे। उनके शिष्य विद्वान हेमनंदी मुनि थे । उनके मुख्य शिष्य विनयनंदी यति थे उनके पुत्र एकवीर थे जिनके धर्मकी महिमा इतनी प्रसिद्ध थी कि उनको जंगमतीर्थ कहते थे इनके छोटे भाई पल्लपंडित थे जो व्याकरणमें बहुत प्रसिद्ध थे। यह बड़े दानी भी थे। इसलिये उनको अभिमानिदानी और पाल्यकीर्तिदेव कहते थे । उस समय महामंडलेश्वर त्रिभुवनमल्ल तालकाडके लेनेवाले वीर गंग होयसाल देव राज्य कर रहे थे। इनके बड़े मंत्री मुख्य दंडपायक गंगराजाने विन्दीगण विले पवित्र स्थानके लिये महाराज विष्णुवर्द्धनसे भूमि मांगी तब महारानने दान की। उसी भूमिको गंगराजाने मूल सं० कुंद० देशी ग० पुस्तक ग० के शुभचंद्र सिद्धांतदेवके चरण धोकर दान की। ___(३९) नं० २० ता० ११६७ ई० ग्राम साम, जैन वस्तीके रंग मंडपके खंभेपर । पवित्र गंगवंशमें प्रसिद्ध नेमदंडेश व भार्या मुद्दरसीके पुत्र राजा पार्श्वदेवने विन्दीगण जिलेमें जैन मंदिर जीर्णोद्धार किया और व्रती व छात्रोंके अध्ययनार्थ मूलसं० कुन्द. देशी ग० पुस्तक गच्छके पवित्र होनसगेके मुनि महाराजके चरण धोकर भूमि दान की।
(४०) नं० २९ ता. १२१८ ई० । ग्राम ललनकेरी, ईश्वर मंदिरके द्वारकी दाहनी भीतपर । यादव वंशमें जिन शासनके भक्त, सासकपूरको जीवनदाता, जिनेन्द्र व जिनगुरुका सेवक प्रसिद्ध साल राना हुआ। उसका पुत्र विनयदित्य था, उसका पुत्र एरवंग था,
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१९६] प्राचीन जैन स्मारक । उसका पुत्र विष्णु, उसका पुत्र मारसिंह, उसका पुत्र वल्लाल था।
(४१) नं० ३२ सन् ११८४ अले संद्रामें, ग्रामके मुख्य द्वारके दक्षिण एक पाषाणपर । त्रिभुवनमल्ल विनयदित्य होयसालदेवने अपने देशभरमें बुराईको नष्ट किया व भलाईका प्रचार किया। उसके देशकी हद्दबन्दीमें कोंकण, आल्वखेड़ा, बैगलनाद्र, तलकाद
और साविमले थे । यादव वंशमें साल हुआ जिसने मुनिकी रक्षा सिंहवध करके की इससे पोयसाल नाम प्रसिद्ध हुआ। इसी वंशमें राना विनयदित्य हुआ। इसकी भार्या केलेयव्वरसी थी इस रानीसे सुरक्षित मरियने दंडनायक थे । इसकी भार्या देकव्वे थी। यह शाका ९६७में असंदी नादमें सिंदगेरीका राजा हुआ । पोयसाल और केलेयव्वेसे वीरगंग एरयंग उत्पन्न हुए उसकी भार्या एचला देवी थी उससे तीन पुत्र हुए-वल्लाल, विष्णु और उदयद्वित्त्य । मरियने दंडनायककी दूसरी स्त्री चमवे थी। इससे तीन कन्याएं जन्मी-पद्मलदेवी, चामलदेवी, बोपदेवी । इन पुत्रियोंको विद्या, गान व नृत्यमें प्रवीण किया गया । जब युवती हुई तब इन तीनोंको बल्लालदेवने विवाहा । विष्णुने तुलादेश, चक्रगोट्टा, तलवनपुर, उच्चंगी, कालाल, सेवेनमोल, बल्लूर, कांची, कोंगू, हदुजघट्ट, बैजलनाद, नीलाचल ददिग्ग, रायरायपुर, तरेयूर, कोयतूर, गोंदवादी स्थल ले लिये। जब कांचीको लेकर विक्रमगंग विष्णुवर्द्धनदेव दोर समुद्रमें राज्य करते थे तब उनका सेवक गंग राजा दंडाधीश था । यह ज्येष्ठ मरियने दंडनायकका साला था। इस गंग दंडनायकने बहुतसे जैन मंदिरोंका जीर्णोद्धार किया, ध्वंश नगरोंको बनवाया, सर्वसाधारणको
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [१९७ दान जारी कराया। इसके उद्यमसे गंगवाड़ी ९६००० कोपणके समान शोभने लगी। इसका पुत्र बोवदेव था। इसके साले मरियने दंडनायक ( छोटे ) और भरतेश्वर दंडनायक थे । मरियनेको विष्णु महारानने सेनाका अधिपति नियत किया । इस मरियनेका पिता एचिराना था, माता नागलदेवी थी। भार्या नकलदेवी थी। नकलदेवीके गुरु मुनि माघनंदि थे। उसके पिता मरइया व माता हरियले थे। इसकी छोटी बहन भरतराजाकी स्त्री थी।
कौंडिल्य गोत्रधारी दाकरस दंडनायक और उनकी भार्या एचबी दंडनायकितिके पुत्र नाकुन दंडनायक और मरियने दंडनायक थे। तथा पोता माचन दंडनायक था जिसकी भार्या हन्नवे दंडनायककिति थी । दाकरस दंडनायककी दूसरी स्त्री दग्गवे थी उसके पुत्र मरियने दंडनायक और मरतिम्मगे दंडनायक थे । उनकी छोटी बहन चीकले थी जो काव राजाकी स्त्री थी।
जब मरियने दंडनायक और भरतेश्वर दंडनायक भंडार व जवाहरातके सर्वाधिकारी थे तब विष्णु महारानसे इन्होंने अमंदी नादमें बगायलीके साथ सिंदगिरी ग्राम प्राप्त किया।
___ महाराज विष्णुकी स्त्री लक्ष्मीदेवी थी। उससे नरसिंहराजा उत्पन्न हुए । उसकी स्त्री एचलादेवी थी जिसके पुत्र वीर वल्लालदेव हुए इसके बड़े मंत्री भरतिमय्य दंडनायक व बाहुबलि दंडनायक थे।
__भरत चामूपति और देवी हरिपलेसे विहिदेव उत्पन्न हुए। मरियने सेनापतिसे बोधदेव हुए । मरियने दंडनायकसे हेग्गड़देव उत्पन्न हुए तथा भरतचाभूपके पुत्र मरियने देव हुए।
शांतलादेवीने जो भरत दंडनायककी पुत्री थी, एची रानाकी
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१९८] प्राचीन जैन स्मारक। स्त्री व रायदेव और मरियनेकी माता थी खिदंघट्टीने एक श्रीपार्धनाथका जिनमन्दिर बनवाया। हेग्गणड़े भार्या वमव्वेका पुत्र शांति था उसकी छोटी बहनें देमलदेवी और दुग्गिलेदेवी थीं।
भरत चाभूपका बड़ा भाई मरियने चाभूप था उसकी स्त्री बूचले थी व छोटा भाई बाहुबलि दंडनायक था उसकी भार्या नागलदेवी थी। वल्लाल महाराजकी आज्ञासे भरत दंडनायकने बहुतसे शत्रुओंका विध्वंश किया और आप युद्ध में मरा ।
शाका ११०५में जब वीर बल्लाल राज्य करते थे तब उनके पुत्र वीर नरसिंहदेव पैदा हुए उसके हर्षमें महाराजने बहुत दान किया । महामंत्री मरतिमय्ये दंडनायक और बाहुबलि दंडनायकने कलकोनी नादमें ग्राम सिंदगेरी, वल्लवल्ली, ददिगनकेरी, व अनवसमुद्रका स्वामीपना उस जैन वस्तीके लिये प्राप्त किया जो उन्होंने अनुव समुद्रमें बनवाई थी तथा चाकेयन हल्लीकी जैन वस्तीके लिये भी । शाका ११०६ में उन्होंने ये सब ग्राम श्री देवचन्द्र पंडित देवकी सेवामें भेट किये जो श्री देवकीर्ति पंडितदेवके शिष्य थे । यह श्री गंधविमुक्त सिद्धांतदेवके शिष्य थे जो श्री माघनंदि सिद्धांतदेवके शिष्य थे जिनका सम्बंध मूलसंघ देशीगण कुंद० इंगुलेश्वरवलीकी कल्लीपुरकी सावंत जैन वस्तीके साथ था ।
(४२) नं० ४३ करीब १६८० ई० ग्राम बेल्लुरुमें, श्री विमल तीर्थकर वस्तीके बरामदेकी भीतपर । पहले श्री समंतभद्र मुनिको नमस्कार हो। श्रीमत दिल्ली, कोल्हापुर, जिनकांची, वेनुगुंडे सिंहाशनाधीश्वर लक्ष्मीसेन भट्टारक द्वारा प्रतिबोधित श्री मैसूर देवराज वोडयरने श्री विमलनाथ चैत्यालयके लिये हुलिकल पद्मन्ना
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मदरास व मैसूर मान्त। [१९९ सेठीके पुत्र दोदादन्ना सेठी, इनके पुत्र सत्कार सेठीको भूमिदान दी।
(४३) नं० ७० ता० ११७८ ई० । ग्राम हतनामें वीरभद्र मंदिरके पास एक पाषाणपर । जब होयसाल वीर वल्लालदेव दोर समुद्रमें राज्य करते थे, तब उसके नीचे दक्षिणका राजा नरसिंह नायक था उसके यहां सोमसेठी काम करते थे । इनकी वंशावली यह है कि प्रसिद्ध एरगंकका पुत्र व वम्मीसेठी भार्या माचियक्का उनका पुत्र गांधीसेठी भार्या माकवे उनका पुत्र यह पट्टनस्वामी सोम था । इसकी भार्या मरुदेवी थी। इसके पुत्र थे गंजग, नरसिंह, सिंगाना और बृचना सोमसेठीने तीन सरोवर व एक पार्श्वनाथ जिनालय अपने नामसे प्रसिद्ध नगरमें बनवाए तथा मूलसं० देशीगण पुस्तकगच्छ कुंदके श्रीगुणचन्द्र सिद्धांतदेवके पुत्र नयकीर्ति सि० देव उनके शिष्य श्रीरामनंदी त्रैवेध उनके छोटे भाई श्रीबालचन्द्र मुनीन्द्रके चरण धोकर इस पार्श्वनाथ मंदिरके लिये भूमि दान की। तथा माधव दंडनायककी आज्ञासे नौकाधीश नरना परगड़ेने इस मंदिरमें अष्टप्रकारी पूजा व दीपके लिये एक तेलकी मिल व नौकाकरका १० वां भाग दान किया। ___(४४) नं० ७६ ता० ११४५ ई. । ग्राम येल्लदहल्लीमें ग्रामके दक्षिण पूर्व ध्वंश जैन वस्तीके एक पाषाण पर । जब दोर समुद्रमें नरसिंह राज्य करते थे तब उसका महामंत्री कौशिक कुलधारी श्रीदेवराज जैन थे उनके गुरुकी वंशावली यह है
श्रीगृहपिच्छान्वयमें जैनधर्मके प्रभावना कर्ता श्रीसमंतभद्र और अकलंक हो गए हैं। उसीमें मूलसं० दे० पुस्तकगच्छमें सागर सिद्धांतदेव हुए जो मानो नवीन गणधर थे। उनके शिष्य
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२००] प्राचीन जैन स्मारक । श्री अर्हनंदी मुनि थे, उनके शिष्य श्रीनरेन्द्रकीर्ति त्रैवेधदेव थे जो न्याय, व्याकरण और जैनसिद्धांतके कमल वन थे। इनके साथी ३६ गुणधारी श्री मुनिचन्द्र भट्टारक थे उनके शिष्य कौशिक मुनि कुलमें देवराजा थे। इनकी भार्या कमिकव्वे थी। पुत्र उदयदित्य था, उसकी भार्या किरुगनामी थी। इसके तीन पुत्र थे-देवराज, सोमनाथ और श्रीधर; इनमें कदुचरितेका स्वामी देवरान मुख्य था। भार्या कमलदेवी थी। इस देवराजको उसकी बुद्धिसे प्रसन्न होकर महारानने ग्राम सूरनहल्ली दिया तब देव राजाने वहां श्री पार्श्वदेवका मंदिर बनवाया। महाराज इस बातपर प्रसन्न हुए और सूरनहल्लीका नाम पाश्चपुर रक्खा।
(४५) नं० ८५ ता० ७७६ ई० ग्राम देवरहल्लीमें पटेल कृष्णय्याके पास एक ताम्रपत्रपर। गंगवंशमें श्रीमत् कोंगणीवर्मा धर्म महाराज थे उनके पुत्र दत्तक सूत्र कर्ता माधव महाराज थे। उनका पुत्र हरिवा-पुत्र विष्णुगोप-पुत्र माधव-पुत्र अविनीत पुत्र किरातार्जुनीयके १५ सर्गके वृत्तिकार राजा दुर्विनीत । यह स्वामी पूज्यपाद आचार्यका शिष्य था । इसका पुत्र मुकर, पुत्र श्रीविक्रम, पुत्र भूविक्रम, छोटाभाई नवकाम कोंगनी महाराज या शिवमार । इसका पोता श्री पुरुष मान्यपुरमें रहता था तब मूलसंघ नंदीसंघ एरगिट्टरगण पुलिकल गच्छमें श्री चंद्रनंदि गुरुके शिष्य कुमारनंदी मुनिपति, इनके शिप्य कीर्तिनंद्याचार्य, इनके बड़े शिप्य विमलचंद्राचार्य थे। इनके शिष्य श्रावक दुडू या निर्गुडू युवराज थे। इनके पुत्र परमगुल या पृथ्वीनिर्गुड राजा थे। इनकी भार्या श्री पल्लवाधिराजकी कन्या कन्दाच्छी थी। इस स्त्रीने
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२०?. श्रीपुरकी उत्तर ओरके निकट एक लोकतिलक नामका जैन मंदिर स्थापित किया । पृथ्वीनिगुड राजाके निवेदनसे महाराजने निर्गुड देशमें पोन्नली ग्राम पूजाके लिये अर्पण किया। कुछ और भूमि भी दान की गई।
(४६) नं० ९४ ता० ११४२ ई० । कसलगेरी ग्राममें कल्लेश्वर मंदिरके एक पाषाणपर । राजा विष्णुवर्द्धनके राज्यमें उनका सेवक सामन्त सोम जैन गृहस्थ था। इसकी वंशावली यह है कि जब वीर गंग परमानदी हृदुवनकेरीमें कडुले नदीके तटपर चोलों पर हमला करने के लिये जा रहे थे, एक जंगली हाथी दौड़ पड़ा और सेनापर आ गया। यह देखकर अक्यानने उस हाथीको अपने तीरोंसे मार डाला। तब कलुकनी नादके शासकने उसे करीअक्यानकी उपाधि दी। इसका ज्येष्ठ पुत्र सुग्गगोविन्द था उसका पुत्र सामंत सोम था। इस सोमकी स्त्रियां मरय्ये और माचले थीं। माचलेके दो बड़े पुत्र चट्टदेव और कलिदेव थे । जिनभक्त सामन्त सोम कलिकनी नादका नायक और शासक था व श्रीभानुकीर्ति सिद्धांतदेवका शिष्य था। इसने हेबविदिरूरवाड़ीमें एक उच्च चैयालय बनवाया । उसमें श्री पार्श्वजिनकी मूर्ति स्थापित की और मूलमंघ सुराष्ठगणके मुनि ब्रह्मदेवके चरण धोकर अरुहनहल्ली ग्राम भेट किया।
(४७) नं०९५ ता; ११४२ ई० उपरके पाषाणकी बाईं तरफ । इस कलकनीनादके जिनालयका नाम एकोटिजिनालय रक्खा गया।
(४८) नं० ९६ ता० ११५० ई० इसी मंदिरके सामने । पहले ही कलकनी नादके शासक सामन्त सोमकी प्रशंसा है। फिर
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२०२] प्राचीन जैन स्मारक । लिखा है कि इसका पुत्र मरुदेव था। उसकी भार्या महामती महादेवी थी । वह अपने पतिके साथ स्वर्ग गई।
(४९) नं० १०० ता; ११४५ ई० ग्राम बोगादीमें ध्वंश जैन मंदिरके पास एक पाषाणपर । राना विष्णुवर्द्धनके राज्यमें उनका बड़ा मंत्री हिसाब करनेवाला माधव या मादिराजा था यह श्री अजितसेन भट्टारकका शिष्य जैन श्रावक था । इस मादिरानाकी भार्या उमयव्वे या उमयक्का थी यह मादिराजा विनमय्येका पुत्र था। इसके गुरुकुलकी वंशपरम्परा नीचे प्रमाण दी हुई है-श्री समंतभद्रबड़े वक्ता, देवाकलंकपंडित बौद्धोंके विजेता, सिंहनंदि मुनि, बड़े तार्किक परवादीमल्ल वादिराजदेव, यह बड़े नैयायिक थे। यह चालुक्य राजाकी राज्यधानीमें परवादियोंके विजयी थे व बड़े कवि थे, अजितसेन योगीश्वर यह बड़े योगी थे, मल्लिषेण मलधारीदेव जिनको अनेक राजा पूजते थे, श्रीपाल मुनि त्रैविध, मादय्या हेगड़े या मादिराजाने तुंगभद्रा नदीके तटपर श्रीकर्ण जिनालय बनवाया। महाराज होयसालदेवने भोगवती ग्राम भेटमें दिया।
(५०) नं० १०३ ता० ११२० करीब । सुकदरे ग्राममें लक्कम्मा मंदिरके सामने पाषाणपर। माता एचलेके पुत्र आत्रेयगोत्री जक्कीसेठीने अपने सक्कदरे ग्राममें एक जिनालय बनवाया व / उसके लिये एक सरोवर भी बनवाया तथा श्रीदयापालदेवके चरण धोकर भूमिदान की । इसके गुरु अमितमुनिपति थे जो दाविल संघमें हुए जिसमें समंतभद्र, भट्टाकलंक, हेमसेन, वादिराज व मल्लिघेण मलधारी हुए। इस एपिग्रेफिका करनाटिकाकी भूमिकामें नीचे लिखी जानने योग्य बातें दी हैं
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मदरास व मैसूर प्रान्त |
[ २०३
(१) वर्णन श्री भद्रबाहु श्रुतकेवलीका सन् ९३१ में रचित श्री हरिषेणकृत बृहत् कथाकोश में दिया हुआ है कि भद्रबाहुजीने जैन संघको पुन्नाट देशमें भेजा । श्लोक है - " संघोपि समस्तो गुरु वाक्यतः दक्षिणापथ देशस्थ पुन्नाटविषयम् ययौ । "
(२) पांचवी शताब्दी में गंगराजा अविनीतने पुन्नाटके राजा स्कंधवर्माकी कन्या विवाही, उसके पुत्र दुर्विनीतने पुन्नाट गंगराज्य में मिला लिया ।
(३) पुन्नाके राजाओं में राष्ट्रवर्माका पुत्र नागदत्त, उसका पुत्र भुजंग था । इसने सिंहवर्माकी कन्या व्याही । उनका पुत्र स्कंध था । इनका पुत्र पुन्नाट रविदत्त था, इसकी राज्यधानी कित्थिपुर थी जो वर्तमानमें हेम्गडे देवनकोट तालुकेमें कित्तूर है, पुन्नाट १०००० में कापिनी नदी तक सर्वप्रदेशगर्भित है ।
(४) चंगलवंश - इसने कुर्गके पूर्व व मैसूर के पश्चिम राज्य किया । प्राचीन राजा सब जैनी थे (देखो येदलोर शिलालेख नं ० २२ से २८) इस वंश के राजा जैन मंदिरोंके अधिकारी तलकावेरी और कुर्गमें थे । इनकी उपाधि महामंडलीक मंडलेश्वर थी । यह चोलोंके आधीन थे इससे इनको राजेन्द्रचोल नन्नी चांगलदेवआदि कहते थे ।
(१) राजेन्द्र चोलनन्नी चांगलदेव (२) मादेवन्ना
१०८९
(३) कुलोत्तुंग चोल चांगल उदयादित्यदेव १०९७ ?
(8)
(५)
22
इस वंशके राजाओंके नाम ।
99
99
"9
99
देव सोमदेव बोघदेव
""
१११४ ? १२४६-१२५२.
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२०४ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
नोट- कुछ बीचके नाम रह गए हैं। इसके आगे भी रह
गए हैं। पीछे नाम ये हैं
नंडाराज
नंजुदराजा श्रीकंठराजेय
वीरराज ओडयर
विरिय राजैयदेव रुद्रगण नंजुददेव नंज राजेय्या देव
"9
कृष्ण वीर राजय्या
"9
१५०२-१९३३
१५४४
१९९९ - १९८०
१९८६-१६०७
१६१२-१६१९
१६१७
१६१९ - १६३८
(५) हासन जिला |
यहां सन् १९०१ में १३२१ जैनी थे ।
इतिहास - वनवासीके कादम्बवंशी राजाओंने चौथी और पांचमी शताब्दी से ११ वीं शताब्दी तक यहां राज्य किया था । बहुत भाग गंग राजाओंके हाथमें था जिनके लेख मिले हैं। गंगराजाके मंत्री चामुंडरायने सन् ९८३ में श्रीगोमटस्वामीकी महान प्रतिमाकी प्रतिष्ठा कराई है । मूर्ति के चरणोंपर मराठी, कनड़ी, तामिल, नागरी हलकनड़ी, ग्रंथ, वट्टेलुतू अक्षर में यह बात लिखी है । यहांके कुछ स्थान ।
(१) बेलूर - ता० वेल्लूर । हासनसे उत्तर पश्चिम २४ मील । इसको दक्षिण बनारस कहते थे । यहां बिष्णुवर्द्धन राजाने जैनधमसे वैष्णव धर्मी होकर चेन्नकेशवका सुन्दर मंदिर बनवाया ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त ।
[ २०५
(२) ग्राम - ता० चामराज पाटन - हासन से पूर्व ७ मील । शिलालेखसे प्रगट है कि इस ग्रामको होयसाल महाराज विष्णुवर्द्धनकी महारानी जिनभक्त शांतलादेवीने १२वीं शताब्दी में स्थापित करके शांतिग्राम नाम दिया था ।
(३) हलेविड - ता० वेल्लूर - यहांसे पूर्व ११ मील । इसीको दोर समुद्र कहते थे । यहां किसी समय ७२० जैन मंदिर थे, अब तीन मंदिर स्थित हैं (१) श्री आदिनाथ ( २ ) श्रीशांतिनाथका (३) श्री पार्श्वनाथका जो सबसे बड़ा है। यहां पार्श्वनाथजीकी मूर्ति कायोत्सर्ग बहुत बड़ी व मनोहर है ।
श्रवणबेलगोला - ता० चामराज पाटन - यहांसे ८ मील । Imperial Gezetter ( 1908) इम्पीरियल गजटियर मैसूर में इस भांति हाल दिया है। दक्षिण भारत में यह जैनियोंका मुख्य स्थान है | चंद्रवेट्ट पर्वतपर श्रीभद्रबाहुका परलोकवास एक गुफामें हुआ है । महाराज चंद्रगुप्त मौर्य इन ही भद्रबाहुके शिष्य साधु होगए थे । प्राचीन शिलालेखोंसे यह बात सिद्ध है । महाराज चन्द्रगुप्तका पोता यहां आया था और वर्तमानका नगर उस हीका बसाया हुआ है । पर्वतपर सबसे प्राचीन मंदिर चन्द्रगुप्त वस्ती है। इस मंदिर के भीतर दरवाजों में जो ख़ुदाई की हुई है उसमें श्रीभद्रबाहु और महाराज चन्द्रगुप्त संबंधी ९० चित्र बने हुए हैं परन्तु ये शायद १२वीं शताब्दी की खुदाई हो । श्रीगोमटस्वामी की बृहद मूर्तिका निर्माता अरिहनेमि था । मूर्ति के नीचेके लेखसे प्रगट है कि चारों तरफका घेरा होयसाल राजा विष्णुवर्द्धन के सेनापति गंगराजाने सन् १९१६ में बनवाया था । यह मूर्ति बहुत कालतक ध्यानमग्न निश्चल साधुकी अध्या
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२०६] प्राचीन जैन स्मारक । त्मिक सुन्दरताको झलकाती है। जांघोंके ऊपर इस मूर्तिके लिये कोई आलम्बन नहीं है। बहुतसे राजवंशोंने यहांकी रक्षा की है। टीपू सुलतानने बहुतसे हक छीन लिये थे । (Mysore Vol. I by Rice) नाम पुस्तकमें विशेष यह है कि जैनियोंका प्रभाव राज्य दरबारमें इतना प्रबल था कि विजयनगरके वुक्करायके समयमें कुछ अजैनोंसे झगड़ा हो गया था तब उनसे मेल होने व जैनियोंके हकोंकी रक्षाकी स्मृतिकी पाषाण यहां श्रवणबेलगोलामें व दूसरा मगडी ता० के कलपाल स्थान में स्थापित किया गया था।
श्रवणबेलगोलामें नो शिलालेख हैं उनका वर्णन
Epigraphica carnatica Vol. II (1923) Revised inscriptions of Sravanbelgola by Rao . Bahadur Narsingacharya M. A. Director of Archeology, Mysore नामकी पुस्तकमें दिया हुआ है। उसको देखकर नीचेका वर्णन लिखा जाता है:____यहां अबतक ५०० शिलालेख नकल किये गए हैं-जो सन् ई० ६०० से सन् १८८९ तकके हैं। यहां नितने जैन मंदिर हैं उनमें सबसे बढ़िया द्राविड़ ढंगकी कारीगरीका मंदिर श्री शांतिनाथ महाराजका जिननाथपुरमें है। मैसूर राज्यके सब जैन मंदिरोंसे बहुत बढ़िया कारीगरी है ।
ये सब शिलालेख जैन धर्म सम्बन्धी हैं। शिलालेखोंमें प्रसिद्ध कवि सज्जनोत्तंस अहंदास और मंगरायके नाम हैं।
इन लेखोंमें सबसे बढ़िया कामका नं० १ है जिसमें श्री भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तका उल्लेख है। नं०५४ का बहुत ही उपयोगी है जिसमें जैन वंशावली है तथा नं० १०५ व १०८ व अन्योंसे जैन साहित्यका ज्ञान होता है। इन लेखोंसे गंगवंशी राजाओंके
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मदरास व मैसूर सान्त ।
[२०७ ऐश्वर्यका, अंतिम राष्ट्रकूट राजाके समाधिमरणका, होयसाल वंशके स्थापन और विस्तारका, विजयनगर राजाओंकी उच्चताका तथा मैसूर राज्यकीय घरानेका हाल प्रगट होता है । भूमिकासे नीचे का हाल प्रगट होता हैश्रवणबेलगोला अर्थ जैन साधुओंका बेलगोला है । सन् १६३४के नं० ३५२ लेखसे यह प्रगट है कि इसको देवाट् बेलगोला भी कहते हैं । बेलका अर्थ श्वेत, कोल या गोलका अर्थ सरोवर है । ऐसा श्वेत सरोवर ग्रामके मध्य में है । शिलालेख नं ० ६७ ता० ११२९ और नं० २५८ ता० १४३२ में धवल सरस या धवल सरोवर नाम आया है । करीब सन् ६५० के शिलालेख नं ० ३१ में बेलगोला है व करीब सन् ८०० के लेख नं० ३५ में वेलगोला शब्द है । सन् १९४९ के लेख नं ० ३३३ व ३४५ में व नं० ३९७ में इस नगरको गोम्मटपुर कहा है । नं० ३४४ व ३४५ आदिमें तीर्थ कहा है व ३५५ - ३५६ व नं० ४८१ - ४८२ सन् १८५७-१८५८ में इसे दक्षिण काशी लिखा है । यहां दो पहाड़ी हैं - बड़ीको दोहावे या विव्यगिरि व छोटीको चिक्कबेट्ट या चंद्रगिरि कहते हैं | चंद्रगिरिपर सबसे प्राचीन लेख हैं- सन् १८३० के लेख नं० ३५४ के अनुसार यहां सर्व ३२ जिनमंदिर हैं उनमें से श्री गोम्मटस्वामी मंदिरको लेकर आठ बड़े पर्वतपर व सोलह छोटे पर्वतपर तथा आठ ग्राम में है ।
J
चिक्कबेट्ट या चन्द्रगिरि ।
यह पहाड़ी समुद्रकी तरहसे ३०१२ फुटके करीब ऊंची है। पुराने लेखों में जैसे नं० १, ११, २२, ७५, ९.३, ११४में इस
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२०८ ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
पहाड़ीको कटवम व नं. २७, ७६, ८४ में कलबप्पु तथा नं. १२, २८, ७७ व १३६ में कलवप्पु लिखा है । शिलालेख नं. ७६ जो इस पहाड़ीपर कत्तले वस्तीके पास है उसमें इस पर्वत के एक भागको तीर्थगिरि व उसीके पास लेख नं. ८४ में इसके एक भागको ऋषिगिरि कहा है । इस पहाड़ीपर सब जैन मंदिर द्राविड ढंगके हैं । इन मंदिरोंके छातेके चारों तरफ कोटकी भीत है जो ५०० फुट लम्बी व २२५ फुट चौड़ी है । चन्द्रगिरिके जैन मंदिरोंका दिग्दर्शन |
(१) श्रीपार्श्वनाथ वस्ती - यह १९ फुटसे २९ फुट है । इसमें श्रीपार्श्वनाथकी मूर्ति कायोत्सर्ग १५ फुट उंची ७ फणके छत्र सहित है । यह इस पहाड़ीपर सबसे ऊँची मूर्ति है । इसके नवरंग में शिलालेख नं ० ६७ जिससे प्रगट है कि सन १९२९ में जैनाचार्य श्रीमलिषेण मलधारीका समाधिमरण हुआ था । इसके सामने मानस्तम्भ है। जैन मूर्तियां चारों तरफ खड़ी हुई है, नीचे दक्षिणकी तरफ बैठे आसन पद्मावतीदेवी है, पूर्वमें खड़े हुए यक्ष हैं, उत्तर में बैठी हुई कूप्मांडिनीदेवी है, पश्चिममें ब्रह्मदेव या क्षेत्र - पाल हैं । करीब १७८० ई० में प्रसिद्ध अनन्त कविकृत बेलगोला गोमटेश्वर चरित्र के अनुसार इस मानस्तम्भको मैसूर महाराज चिक्कदेवराज ओडयर (सन् १६७२ - १७०४ ) के समय में जैन व्यापारी पट्टे याने बनवाया था ।
(२) कट्टले वस्ती - यह मंदिर इस पर्वतपर सबसे बड़ा है । १२४ फुटसे ४० फुट है । इसको पद्मावती वस्ती भी कहते हैं । अब इसपर शिखर नहीं है, पहले शिखर था जैसा उस पुराने
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२०९ चित्रसे प्रगट है जो जैन मठमें मौजूद है । इसमें श्रीआदिनाथ भगवानकी पल्यंकासन ६ फुट ऊंची मूर्ति चमरेन्द्र सहित है ।आसनपर लेख नं० ७० है जिससे जाना जाता है कि होयसाल राजा विष्णुवर्द्धनके सेनापति गंगराजाने इस वस्तीको अपनी माता पचव्वेके हेतु सन् १११८में बनवाया था। भीतरके कमरेका जीर्णोद्धार ७० वर्ष हुए मैसूर राज्यधरानेकी स्त्रियोंने कराया था जिनका नाम है देविरम्मन्नी और केम्पमन्नी। इस पहाड़ीपर नितने मंदिर हैं उनमेंसे इसी मंदिरमें ही प्रदक्षिणा है।
(३) चन्द्रगुप्त वस्ती-यह सबसे छोटी २२से १६ फुट है। इसमें तीन कोठरी हैं। मध्यमें श्रीपार्श्वनाथकी मूर्ति है उसकी दाहनी ओर पद्मावतीदेवी व बाईं ओर कूष्मांडिनी देवी है । वरामदेमें दाहनी तरफ धणेन्द्र हैं, बाईं ओर सर्वान्हयक्ष हैं-ये सब बेटे आसन हैं। इस वस्तीके भीतर द्वारोंपर बहुत सुन्दर खुदाई की हुई है । इनमें जो चित्र खुदे हैं उनमें श्रीभद्रबाहु श्रुतकेवली और महाराज मौर्य चन्द्रगसके जीवनसंबंधी अनेक दृश्य हैं । यहीं चित्रकार दासजह का नाम १२वीं शताब्दीके अक्षरों में खुदा हुआ है। इसीने सन् १ १ ४५ का लेख नं० १४० अंकित किया था जो मध्य कोठरीके सामने कमरेम खड़ी हुई क्षेत्रपालकी मूर्तिके आसनपर है। करीब १६८०के अनुमान प्रसिद्ध चिदानंद कविने मुनिवंशाभ्युदय काव्य रचा है उसमें यह लिखा है कि इस मंदिरको महाराज चन्द्रगुप्तके वंशजोंने बनवाया था। यह यहां सबसे प्राचीन इमारत है।
(४) शांतिनाथ वस्ती-यह २४से १६ फुट है। इसमें श्रीशांतिनाथनीकी मूर्ति ११ फुट ऊंची कायोत्सर्ग है।
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२१०] प्राचीन जैन स्मारक।
(५) सुपार्श्वनाथ वस्ती-यह २५ से १४ फुट है । इसमें पल्यंकासन श्रीसुपार्श्वनाथ महाराज ३ फुट ऊंचे ७ फणके सर्प सहित व चमरेंद्रों सहित विरानमान है। ____ (६) चन्द्रप्रभ वस्ती-यह ४२ से २५ फुट है। श्रीचन्द्रप्रभको मूर्ति पल्यंकासन ३ फुट ऊंची है। पासमें श्यामा और ज्वालामलिनी देवी सुखासन हैं । बाहरकी भीतपा शिलालेख नं. ४१५ है जिससे प्रगट है कि आठवीं शताब्दीके अनुमान इस मंदिरको गंगवंशी श्रीपुरुषके पुत्र शिवमारने बनवाया था ।
(७) चामुण्डराय वस्ती-यह बहुत ही सुन्दर है । ६८ से ८६ फुट है। ऊपर भी मंदिर है। नीचे श्रीनेमिनाथकी मूर्ति पल्यंकामन ५ फुट ऊंची चमरेन्द्र सहित है । गर्भगृहके बगलोंमें श्री नेमिनाथनीके यक्ष सर्वान्ह और यक्षिणी कूप्मांडिनी बिराजमान हैं। बाहरी द्वारके बगल की भीतपर शिलालेख हैं। नं. १२२ सन् ९८२के अनुमानका है जो स.फर कहता है कि चामुण्डरायने इस मंदिरीको बनवाया । परन्तु श्रीनेमिनाथ भगवानके आसनपर लेख नं० १२० सन् ११३८के अनुमान का है। यह कहता है कि गंगराना सेनापतिके पुत्र एचनने त्रैलोक्यरअन या बोधन चैत्यालय नामका मंदिर बनवाया । इससे प्रगट है कि शायद यह मूर्ति इस मंदिर की मूल प्रतिमा नहीं है । ऊपरके खनपर श्री पार्श्वनाथको मूर्ति ३ फुट ऊंची है । इसके आसनपर लेख नं० १२१ करीब ९९५ सन्का है जो कहता है कि मंत्री चामुंडराय के पुत्र जिनदेवने वेलगोला पर जिन मंदिर बनवाया।
(८) शास। वस्ती-इस वस्तीका नाम इसलिये पड़ा है कि
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मदरास व मैमूर प्रान्त। [२११ इसके द्वारपर शासनका लेख नं० ७३ (प्रा० नं. ५९) है-यह मंदिर ५५ से २६ फुट है। इसमें श्री आदिनाथनीकी मूर्ति चमरेन्द्र सहित ५ फुट ऊंची है । आसनपर लेख है नं०७४ (६५) कि इस मंदिरको सेनापति गंगराजाने बनवाया । द्वार परका लेख प्रगट करता है कि गंगरानाने सन् १११८में परमग्राम भेट किया जो उसने महाराज विष्णुवईनसे प्राप्त किया था। यह मंदिर १११७के करीब बना होगा।
(९) मज्जिगन्ने वस्ती-यह ३२ से १९ फुट है। इसमें श्री अनन्तनाथ भगवानकी मूर्ति ३॥ फुट ऊंची है ।
(१०) एरडुकट्टेवस्ती-इसका नाम इस कारण पड़ा है कि इसमें जानेके लिये पूर्व और पश्चिममें दो सीढ़िया हैं-यह ५५ से २६ फुट है । श्री आदिनाथकी मूर्ति ५ फुट ऊंची चमरेन्द्र सहित है-आसनपर लेख नं० १३० (६३) है कि इस मंदिरको करीब १११ ८ के सेनापति गंग राजाकी भार्या लक्ष्मीने बनवाया था।
(११) सवती गंधवरण वस्ती-इसका नाम एक उन्मत्त हाथीके नामसे पड़ा है जो शातल देवीका था । यह ६९ से ३५ फुट है । प्रतिमा श्री शांतिनाथनीकी ५ फुट ऊंची चमरेन्द्र सहित है। द्वारपरके लेख नं. १३२ (५६) व श्री शांतिनाथके आसन परके लेख नं० १३१ (६२) से प्रगट है कि इसे सन् ११२३में महाराज विष्णुवर्द्धनकी महारानी शांतलदेवीने बनवाया था ।
(१२) टेरिन वस्ती-इसलिये कहलाती है कि इसके सामने गाड़ीके समान रचना है । इसको बाहूबलि वस्ती भी कहते हैं । यह ७०से २६ फुट है। इसमें श्री बाहुबलि स्वामीकी कायोत्सर्ग
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२१२ ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
मूर्ति ५ फुट ऊंची है । गाड़ीके समान रचनाका मेरु पर्वत है इसमें सब तरफ ५२ जिनप्रतिमा खुदी हुई हैं । इसपर एक लेख नं० १३७ ता० १११७ का है । इसमें लिखा है कि महाराज विष्णुवर्द्धन के दरबारी व्यापारी पोयसाल सेठीकी माता माचीकबेने और नेमी सेठीकी माता शांतिकब्बेने इस मंदिर को और मेरुपर्वतको बनवाया ।
(१३) शांतीश्वर वस्ती - १६ से ३० फुट है । शांतिनाथ - स्वामीकी मूर्ति है । पीछेकी भीतके मध्य भागमें एक आला है इसमें कायोत्सर्ग जैन मूर्ति है ।
(१४) कूगे ब्रह्मदेव स्तम्भ - यह कोटके दक्षिण द्वारपर है । ऊपर ब्रह्मदेव पूर्वमुख विराजित हैं- इस खंभेके आसन के आठ तरफ आठ हाथी एक दफे थांमे हुए थे । अब कुछ हाथी रह गए हैं । इस खम्भे के चारों तरफ प्राचीन लेख अंकित हैं । नं० १९ 1 (३८) | इस लेख में गंगराजा भारसिंह द्वि०के मरणका स्मारक है जो सन् ९७४ में हुई थी । खम्भेका समय इससे पुराना नहीं मालूम होता है ।
(१५) महानवमी मंडप-कट्टले वस्तीके दक्षिण दो सुन्दर चार खंभेवाले मंडप पास पास पूर्वमुख हैं । हरएकके मध्य में लेख सहित खंभे हैं। उत्तर मंडपका स्तम्भ बहुत सुन्दर खुदा हुआ है । इस स्तंभ का लेख नं ० ६६ (४२) जैनाचार्य श्रीनयकीर्तिका स्मारक है जो सन् १९७६ में स्वर्गवास हुए उनके शिप्य राजमंत्री नागदेवने पाषाण स्थापित किया ।
इस पर्वत पर ऐसे कई मंडप हैं जिनमें खुदे हुए स्तंभ हैं ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२१३ एक चामुंडराय वस्तीके दक्षिण है । एक एरडुकट्टे वस्तीके पूर्व है। दो ऐसे मंडप महानवमीके समान टेरिनवस्तीके दक्षिण है।
(१६) इरुवे ब्रह्मदेव मंदिर-यह कोटके बाहर एक ही मंदिर है । उत्तर द्वारकी उत्तर तरफ है । इसमें ब्रह्मदेव (क्षेत्रपाल) की मूर्ति है । मंदिरके सामने जो चट्टान है उसपर कई जिनमूर्ति, हाथी आदिबने हैं। कुछोंमें खुदानेवालोंके नाम हैं। लेखनं० १५० व १५१ मंदिरके द्वारपर बताते हैं कि यह मंदिर सन् ९५०का होगा।
(१७) कन्डुन डोन-ऊपरके मंदिरके उत्तर पश्चिम एक सरोवर है जिसको वेल्ल (धातु) सरोवर कहते हैं। यहां कई शिलालेख हैं। एक नं० ४ ४३ सन् ९००के अनुमानका है जो कहता है कि किसी कादम्ब राजाकी आज्ञासे तीन बड़े बनते हुए पाषाण यहां लाए गए थे, दो अभी हैं, एक टूट गया । लेख नं० १६२ कहता है कि इस सरोवरको आनन्द संवत्में मानमने बनवाया था जो करीब ११९४ सन् होगा ।
(१९) लक्कीडोन-कोटके पूर्व दूसरा सरोवर। इसको लक्की नामकी स्त्रीने बनवाया था। यहां ३० शिलालेख नकल किये गए हैं।नं० ४४५ से ४७५ तक। ये सब करीब ९ या १० शताब्दीके हैं । इनमें यात्रियोंके नाम हैं। बहुतसे जैनाचार्य हैं, कवि हैं।
आफिसर है व उच्च पदाधिकारी हैं । इस चट्टानकी अच्छी तरह रक्षा करनी चाहिये।
(१९) भद्रबाहु गुफा-इसमें श्रीभद्रबाहु श्रुतकेवलीके चरणचिह्न अंकित हैं। यहां लेख नं० १६६(७१) करीब ११०० ई. का कहता है कि जिनचंद्र श्रीभद्रबाहुके चरणोंको नमस्कार करता
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प्राचीन जैन स्मारक |
है । कुछ वर्ष हुए मरम्मत किये जानेसे यह लेख नष्ट होगया है । (२०) चामुण्डराय चट्टान- इस चंद्रगिरिके नीचे एक खुदा हुआ पाषाण है । यह बात प्रसिद्ध है कि चामुण्डरायको स्वप्न आया था कि सामने बड़े पर्वतपर श्रीगोमटस्वामीकी मूर्ति झाड़ी जंगलके भीतर छिपी हुई है, वह यहांसे तीर मारेगा तो वहीं पहुंचेगा । इस स्वप्न के अनुसार चामुण्डरायने यहांसे तीर मारके प्राचीन मूर्तिका पता लगाया । इस चट्टानपर जैन गुफाओंके चित्र हैं, नीचे नाम भी दिये हुए हैं।
दोदाबेट ( बड़ा पर्वत) या विंध्यगिरि - यह पर्वत समुद्रसे ३३४७ फुटके करीब ऊंचा है । तथा मैदानसे ४७० फुट ऊंचा है । इस पर्बतको इंद्रगिरि कहते हैं । नीचे से ऊपर पहाड़ीकी चोटी तक ५०० सीढ़ियां चली गई हैं। सबके ऊपर बड़ा दाता है जिसके चारों तरफ कोट है उसमें कोठरियां हैं जिनमें जैन मूर्तियां विराजित हैं । इस हातेके मध्य में श्री गोम्मटस्वामीकी बड़ी मूर्ति ५७ फुट ऊंची है । इस मूर्तिका मुख उत्तरकी तरफ है। जांघके ऊपर इसको आधार नहीं है । बाल ऊपर घुंघरवाले हैं। पाससे सर्प निकलकर आए हैं। मूर्तिका आसन एक कमलपर है । मूर्तिके ठीक मध्य में एक पुष्प है । कुछ पुराने निवासी कहते हैं कि यदि इसकी मापको १८ से गुणा किया जावे तो मूर्तिकी ऊंचाई, निकल आएगी । यह मूर्ति किसी वड़े पाषाणसे बनाई गई है जो यहां विद्यमान था । मिश्रदेशमें Ramases रामासीसकी मूर्ति है उससे यह मूर्ति बड़ी
। इस पर वर्षा व धूपका असर नहीं पड़ा है। यह बहुत ही स्वच्छ झलकती है। यह मूर्ति अनुमान १००० वर्ष पुरानी है तब
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मदरास व मैसूर प्रान्त | [ २१५ नीलनदी पर रामासी की मूर्ति ४००० वर्ष से अधिक पुरानी है । दक्षिण भारत में यह एक बहुत ही बढ़िया देशी शिल्प है ।
It is most remarkable work of native art in south India.
इस मूर्तिको "कुक्कटेश्वर " भी कहते हैं। इस मूर्तिका वर्णन नीचे लिखी पुस्तकों में है-
(१) यांदैय्या पिरियपट्टेनकृत संस्कृत भुजबलीशतक सन् १९५० (२) श्रवणबेलगोला के पवेहवानकृत कनड़ी भुजबलि चरितम् १६१४ (३) अनन्तकविकृत कनड़ी गोमटेश्वर चरित्रम् सन् १७८० का । (४) देवचंदकृत कनड़ी राजाबली कथा सन् १८३८ का ।
इस मूर्ति के संबंध में यह कथा प्रसिद्ध है कि भरत चक्रवर्तीने पोदनापुर में ५५५ धनुष्य ऊंची श्रीबाहुबलिजीकी मूर्ति सुवर्णमय बनवाई थी । कहते हैं कि इस मूर्तिको कुक्कुट सर्व चारों तरफ बेढ़े रहते हैं इसलिये आदमी पास जा नहीं सकता ।
एक जैनाचार्य जिनसेन थे वे दक्षिण मथुरा गए । उन्होंने इस पोदनपुरकी मूर्तिका वर्णन चामुंडरायकी माता काललदेवीको किया । तब कालदेवी ने यह नियम ले लिया कि जबतक मुझे दर्शन नहीं मिलेगा, मैं दूध नहीं पीऊंगी । इस प्रणकी खबर चामुंडरायकी स्त्री अजितदेवीने चामुण्डरायको कर दी । तब चामुण्डराय अपनी माताको लेकर पोदनापुर के लिये चला । मार्ग में श्रवणबेलगोला में ठहरा और चंद्रगिरिपर जाकर श्रीभद्रबाहुके चरण वंदे तथा चंद्रगुप्त वस्ती में श्रीपार्श्वनाथ भगवानकी बहुत भक्ति की । यात्रा करके नीचे उतरा - रात्रिको श्रीपार्श्वनाथकी भक्त पद्मावतीदेवीने चामुण्डराय और उसकी माताको स्वप्न दिया कि यदि चामुंडराम
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२१६] प्राचीन जैन स्मारक । छोटे पर्वतपरसे एक तीर बड़े पर्वतपर मारे । जहांपर तीर लगेगा वहीं श्रीगोमटस्वामीके दर्शन होंगे । चामुण्डरायने ऐसा ही किया तब श्रीगोमटस्वामीकी मूर्ति प्रगट हुई, तब चामुण्डरायने दूधसे अभिषेक किया परन्तु दूध जांघोंके नीचे नहीं उतरा । उसको बड़ा आश्चर्य हुआ तब उसने अपने गुरुसे प्रश्न किया। उन्होंने विचार करके कहा कि तुम्हारी वृद्ध माता जो सफेद दूध लाई है उससे पहले अभिषेक होना चाहिये । माता एक फलका रस लाई थी जिसको गुल्लाकयी कहते हैं । बस इस थोड़ेसे दूधसे अभिषेक किया गया। यह मूर्तिके पगतक चला गया तथा वहते२ पर्वतपर फैल गया । तबसे इस वृद्ध माताका नाम गुल्लकाय जी प्रसिद्ध हुआ । चामुं. डराय बड़ा ही प्रसन्न हुआ। उसने पर्वतका नीचेका ग्राम तथा ६८ और ग्राम जो ९६००० वराह (कोई सिक्का) की आमदनीके थे, श्री बाहुबलि महाराजकी सेवाके लिये अर्पण किये । चामुंडरायने अपने गुरु श्री अनितसेनकी आज्ञासे मालाको समझाया कि पोदनापुर जाना नहीं होसक्ता है, गुरुकी आज्ञा है कि तेरा प्रण यहीं पूर्ण होगया । माताने स्वीकार किया । गुरुकी आज्ञासे चामुंडरायने नीचेके ग्रामका नाम बेलगोला प्रसिद्ध किया तथा श्री गोम्मटस्वामीके सामने ही द्वारके बाहर अपनी माता गुल्लकायज्जीकी मूर्ति पाषाणमय बनवाकर स्थापित की, यह बात लेख नं० २५० (८०) ता. १६३४ में पंचवाणके कर्त्ताने लिखी है।
दोद्दय्याकत संस्कृत भुजवलिशतक कहता है कि गंगवंशी महाराज राचमल जो सिंहनन्दि मुनिके शिष्य श्रावक थे द्राविड़ देशके दक्षिण मथुरामें राज्य करते थे। इनका मंत्री ब्रह्मक्षत्र शिखा
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [ २१७ मणि चामुंडराय था जो सिंहनंदिके शिष्य मुनि अजित सेनका और श्रीनेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्तीका शिष्य था ।
"
राजावली कथा और मुनि वंशाभ्युदय काव्य कहते हैं कि इस बाहुबलिकी मूर्तिकी पूजा श्रीरामचंद्र, रावण और मन्दोदरीने की थी । लेख नं० २३४ (८५) सन् १९८० नं० २५४ (१०९) सन् १३९८, नं० १७५ (७६), १७६ (७६) और १७९ (७५) जो मूर्तिकी बगल में कनड़ी, तामील और मराठीमें अंकित हैं, बताते हैं कि इस मूर्तिका निर्माण च मुण्डरायने कराया था । (सं० नोटमाम होता है कि मूर्तिपर पहले से ही नकशा मात्र कोरा होगा, जिसको इस वर्तमान शकल में महाराज चामुण्डरायने बनवा कर प्रतिष्ठा कराई होगी ) ।
गंगवंशी राजा राचमलने सन् ९७४ से ९८४ तक राज्य किया । यह मूर्ति सन् ९८३ में प्रतिष्टित हुई इसीसे इसका वर्णन कनड़ी चामुण्डराय पुराणमें नहीं है जो सन् ९७८ में चामुण्डराय द्वारा रचा गया था ।
इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा विभव संवत्सर चैत्र सुदी ५ को हुई थी
( See Indian Antiquary Vol, II of 1871 p. 129 ).
सन् १८७१ में मस्तकाभिषेक किया गया था ।
राईस साहबने इस मूर्तिकी माप नीचे
(१) नीचेसे कानों तक (२) कानोंके नीचेसे मस्तक तक (३) चरणकी लंबाई (४) चरणके आगेकी चौड़ाई
प्रमाण दी है
५० फुट ०
६-६
९ - ०
४-६
इंच
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१७-०
५-३
२१८] प्राचीन जैन स्मारक ।
(५) बड़े पगके अंगूठेकी लंबाई २-९ (६) कमर और कोहनीसे कानतक (७) कंधोंके आरपार चौड़ाई
२६-० (८) गर्दनके नीचेसे कानतक
२-६ (९) पहली अंगुलीकी लंबाई
३-६ (१०) मध्यकी ,, ,, (११) तीसरी , "
४-७ (१२) चौथी , "
२-८ कवि चक्रवर्ती शांतराज पंडितने संस्कृतमें सरसजन चिन्तामणि काव्य सन् १८२०में लिखा है उसमें दिये हुए १६ श्लोक मूर्तिकी माप सम्बंधी ताड़पत्रपर लिखे हुए मैसूरके अरननी जिन चंद्रय्याके घरमें मिले । इसके अतिम श्लोकमें यह है कि महाराज कृष्णराय ओडयर त ने श्री बाहुबलिस्वामीका मस्तकाभिषेक कराया था तब उनकी आज्ञासे कविने मूर्तिकी माप की थी। यह माप ५४ फुर ३ इंच आती है।
माप सम्बन्धी श्लोक। जयति वेलगुल श्री गोमटेशोस्थ मृर्तेः । परिमिति मधुनाऽहम् वच्मि सर्वत्र हर्षात् । स्वसमयजनानाम् भावनादेशनार्थम् । परसमयजनानाम अद्भुतार्थ च साक्षात् ॥ १ ॥ पादान्मस्तकमध्यदेशचरमम् पादार्घयुन्मातु षट् । त्रिंशद्धस्तमितोच्छ्योस्ति हि यथा श्री दौर्बलिस्वामिनः ॥ १ ॥ पादा विंशति हस्तसनिभमिति म्पंतमस्त्युच्छ्यः । पादार्यान्वितषोड़शोच्छ्यभरो नामेस्थिरोंतम् तथा ॥ २ ॥
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मदरास व मैसूर प्रान्त।
[२१९
चुबुकान्मूद्रपर्यन्तम् श्रीमब्दाहुबलीशिनः । अस्त्यंगुलि त्रयि युक्त हस्त षटक प्रमोच्छ्रयः ॥ ३ ॥ पादत्रयाधिक्ययुक्त द्विहस्तप्रमितोच्छ्यः । प्रत्येककर्णयोरस्ति भगवद्दौर्बलीशिनः ॥ ४ ॥ पश्चाद् भुजवलीशस्य तिर्यग्भागेऽस्ति कर्णयोः । अष्टहस्तप्रमोच्छ्रायः प्रभावद्भिः प्रकीर्तितः ॥ ५ ॥ सौनन्देः परितः कण्टं तिर्यगस्ति मनोहरम् । पादत्रयाधिकदश हस्तप्रमितदीपता ॥ ६ ॥ सुनन्दातनुजस्यास्ति पुरस्तात् कंठसुच्छ्रयः । पादत्रयाधिक्य युक्त हस्तप्रमिति निश्चितः ॥ ७ ॥ भगवद् गोमटे शस्यां शयोरन्तग्मस्य वै । तिचंगाय तिरस्यैव खलु पोडशहस्तमा ॥ ८ ॥ वक्षक्षचुकसंलक्ष्य रेखाद्वितयदीर्घता । नवांगुलाधिक्य युक्त चतुहस्त प्रमेशितु: ॥ ९ ॥ पग्तिोमध्यमेतस्य परितत्त्वेनविस्तृतिः । अस्ति विंशति हस्तानाम प्रमाणं दौबलीशिनः ॥ १० ॥ मयमांगुलिपर्यतं स्कन्धाद्दीर्घत्त्वमीशितुः । वाहुयुग्मस्य पादाभ्याम् युताष्टादशहस्तमा ॥ ११ ॥ मणिवन्धस्य तिर्यक् परितत्वात समंततः । द्विपादाधिक षडहस्त प्रमाणं परिगण्यते ॥ १२ ॥ हस्यांगष्ठोच्छ्योस्त्यस्य कांगुष्ठात् वद्विहस्तमा । लक्ष्यते गोमटेशस्य, जगदाश्चर्यकारिण: ॥ १३ ॥ पदांगुष्ठस्यास्य वैय॑म् द्विपादाधिकतायुज: । चतुष्टयस्य हस्तानाम् प्रमाणमिति निश्चितम् ॥ १ दिव्यश्री पाद दीर्घत्त्वम् भगवत् गोमटेशिनः । सैकांगुलचतुर्हस्तप्रमाणमिति वर्णितम् ॥ १५ ॥ श्रीमत् कृष्णनृपालकारितमहासंषेकपूजोत्सवे । शिष्टया तस्य कटाक्षरोचिरमृत स्नातेन शांतेन वै ॥
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२२०] प्राचीन जैन स्मारक।
आजीतम् कविचक्रवर्ति उरुतर श्रीशांतराजेन तद् ।
वीक्ष्ये तम् परिमाणलक्षणमिहाकारिदे तद् विभोः ॥ १६ ॥ उपरके श्लोकोंमें जो माप है वह इस तरह है(१) पगसे मस्तकके अन्त तक हाथ ३६१-० (२) पगसे नाभितक
, २०-० (३) नाभिसे मस्तकतक
, १६१-० (४) ढोढ़ीसे मस्तकतक
६-३ (५) प्रत्येक कानकी ऊंचाई (६) पीछे एक कानसे दूसरे कान तक , (-० (७) गलेका घेरा (८) गलेकी ऊंचाई (९) कंधेसे कंधे तक चौड़ाई
, १६-० (१०) वक्षस्थलपरके स्तनसे चारों तरफ रेखाकी माप ४-९ (११) कमरका घेरा
२०-० (१२) कंधेसे मध्यकी अंगुली तक (१३) कोहनीका घेरा
६-० (१४) हाथके अंगूठेकी लम्बाई
२१.. (१५) पगके अंगूठेकी ,
४१-० (१६) पगकी चौड़ाई
नीचे लिखे व्यक्तियोंद्वारा मस्तकाभिषेक होना प्रसिद्ध है।
(१) सबसे पुराना हवाला लेख नं. २५४ (१०५) ता. १३९८का है । तब पंडिताचार्यने सात दफे अभिषेक कराया था।
(२) कवि पंचइना कहते हैं कि शांत वर्णीने १६१२में किया।
१८१-०
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२२१ (३) सन् १६७७में मैसूरमहाराज चिक्कदेवरान ओडयरके जैन मंत्री विशालाक्ष पंडितके व्ययसे अनन्त कविने किया।
(४) मैसूर महाराज कृष्णराज ओडयर तृतीयने शांतिराज पंडितद्वारा कराया सन् १८२० में।
(५) फिर इसी महाराजने कराया सन् १८२७में जैसा लेख नं० २२३ (९८) में है।
(६) सन् १८७१ में अभिषेक हुआ जैसा इंडियन ऐंटिक्वरी जिल्द दो प्रष्ट १२९ में है।
(७) सन १८८७में कोल्हापुरके भट्टारकने ३०००० खर्च कर कराया यह वात "Harvent field” of may 1887 में छपी है।
(८) सन् १९०९ में जैनियोंढारा हुआ । (९) सन् १९२५में ,, , ,,
नोट-कारकलमें जो बाहूबलिकी मूर्ति है वह ४ १ फुट ५ इंच ऊंची है जिसको पनसागेके जैन आचार्य ललितकीर्तिकी सम्मतिसे वीर डियरानाने सन् १४३२में स्थापितकी तथा एनूरमें वेलगोलाके चारुकीर्ति पट्टाचार्यकी सम्मतिसे चामुण्डके वंशज तिरुमराजने सन् १६०४ में स्थापित की यह ३५ फुट ऊंची है। सन् १६४६ में चंद्रभाने कनड़ीमें कोकलड गोमटेश्वर चरित्र बनाया है उसमें इसका वर्णन है । एक गोमटस्वामीकी मूर्ति २० फुट ऊंची मैसुर ता के इलिवलुके निकट श्रवणगुट्टपर है जिसको भुला दिया गया है । विध्यगिरिपर जो महान मूर्ति है उसकी बाईं तरफ एक गोल पाषाण सरोवर है जिसको ललित सरोवर कहते हैं। श्रीगोम्मटस्वामीके
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२२२] प्राचीन जैन स्मारक । अभिषेकका सर्व जल इसमें आ जाता है। जब यह भर जाता है तब पानी मंदिरके हातेके बाहर एक गुफामें जाता है । जो द्वारके पास है । इसको गुल्लकयिज्जेतिन्गुलु कहते हैं।
श्री गोम्मटस्वामीकी मूर्तिके सामने जो स्तम्भ सहित मंडप है उसकी छतपर ९ अच्छे खुदे हुए आकार हैं। आठ दिग्पाल हैं, मध्यमें इन्द्र है जो श्री गोमटस्वामीमें अभिषेकके लिये जलका कलश लिये हुए हैं । मध्यकी छतमें लेख नं० २११ है जो कहता है कि यह मंडप बारहवीं शताब्दीके प्रारंभके अनुमान मंत्री बलदेवने बनवाया था। लेख नं० २६७ सन् ११६०के अनुमान कहता है कि सेनापति भरतमय्याने श्री गोमटस्वामीके चारोंतरफ दालान बनवाया। नं० १८२ (७८) सन् १२०० के अनुमानका कहता है कि श्री नयकीर्ति सिद्धांतचक्रवर्तीके शिष्य श्रावक बासवी सेठीने हातेकी भीत बनवाई और २४ तीर्थकर स्थापित किये और उसके पुत्रोंने २४ तीर्थकरोंके सामने खिड़कीदार द्वार बनवाए।नं० २२८ (१०३) सन् १९०९का कहता है कि महाराज चंगल्व महादेवके महामंत्री ननराय पाटनके श्रावक के शवनाथके पुत्र चन्नबोम्मरसने ऊपर तक जीर्णोद्धार कराया।
कोट या हाता-लेख नं० १७७ (७६) तथा १८० (७५) जो कन्नड़ और मराठीमें क्रमसे इस बड़ी मूर्तिके बिलकुल नीचे दोनों तरफ लिखे हैं कहते हैं कि कोटको गंगराजाने बनवाया। यही बात लेख नं० ७३ (५९) सन् १११८, १२५ (४५) और २५१ सन् १११८७२४ ० (९०) सन् ११७५, नं० ३९७ सन् ११७९ (?) भी कहते हैं । यह गंगराना होयसालवंशी महाराज विष्णुव
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२२३ ईनका सेनापति था । यह कोट सन् १११७में बनावायागया। श्री गोमटस्वामीके चारों तरफ जो कोठरियां व घेरा हैं उनमें सब ४३ मूर्तियां हैं। उनमें से दो यक्षिणी कूष्मांडिनीकी हैं, शेष २४ तीर्थकरोंकी हैं। किसी२ तीर्थकर दो दो तीन तीन हैं । ये भिन्न भिन्न समयमें स्थापित हुई थीं। इनका वर्णन नीचे प्रकार है--
(१) कूप्मांडिनीदेवी ३ फुट ऊंची । दाहने हाथमें फूलोंका गुच्छ व बाएं हाथमें फल लिये हुए हैं । इसपर लेख नं० १८५ (१०४) कहता है कि इसको अनुमान सन् १२३ १में नयकीर्ति सिद्धांतचक्रवर्तीके शिष्य श्रीबालचन्द्रदेव उनके शिष्य श्रावक केती सेठीके पुत्र वम्मीसेठीने स्थापित की । (२) श्रीचंद्रप्रभु-कायोत्सर्ग ३।। फुट ऊंची, (३) श्रीपार्श्वनाथ ५ फुट ऊंची ७ फण सहित, (४), शांतिनाथ ४॥ फुट (५) रिषभदेव ५ फुट । लेख नं० १८७ कहता है कि इसे श्रीनयकीर्ति सिद्धांतदेवके शिष्य श्रावक वासवी सेठीने करीब ११८० सन्के स्थापित किया (६) नेमिनाथ ५फुट (७) अनितनाथ ४॥ फुट (८) वासपुज्य ४|| फुट । यहां लेख नं० १८८नं० १८७ के समान है (९) से (१२) तक विमलनाथ, अनन्तनाथ, नेमिनाथ और संभवनाथ । प्रत्येक ४ फुट ऊंचे (१३) सुपार्श्वनाथ ४ फुट इनपर तीन फणका सर्प है (१४) पार्श्वनाथ ६फुट।
दक्षिणकी ओर-(१५) संभवनाथ ४॥ फुट । लेख नं. १८९ कहता है कि इसे श्रीनयकीर्ति सि० च के शिष्य श्रावक वल्लैयने सन् ११८०के करीब स्थापित किया (१६) से (२१) तक सीतलनाथ, अभिनन्दन, चंद्रप्रभु, पुप्पदंत, मुनिसुव्रत, श्रेयांस हरएक ४ फुट ऊंचे (२२) विमलनाथ ४ फुट लेख नं० १९० लेख
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२२४] प्राचीन जैन स्मारक । नं० १८९के समान (२३) कुन्थुनाथ पल्यंकासन ३ फुट (२४)
और (२५) धर्मनाथ और नेमिनाथ हरएक ४ फुट (२६) अभिनन्दन ४ फुट, लेख नं० १९३ कहता है कि इसे करीब सन् १२००के श्रीनयकीर्ति सि० च०के शिष्य श्रीबालचंद्रदेव उनके शिप्य श्रावक अंकी सेठीने स्थापित की । (२७) श्री शांतिनाथ ४ फुट-लेख नं० १९४ कहता है कि इसे सन् ११८०के करीब श्रीनयकीर्ति सि० च के शिष्य श्रावक रामी सेठीने स्थापितकी (२८) से (३०)तक श्रीअरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत हरएक ९ फुट। पश्चिमकी ओर(३१) पार्श्वनाथ ६ फुट (३२) और (३३)सीतलनाथ और पुष्पदंत हरएक ४ फुट (३४) पार्श्वनाथ ४ फुट (३५) अजितनाथ (३६) सुमतिनाथ (३७) वर्धमान । ये तीनों हरएक ४ फुट। लेख नं० १९५ श्रीअजितनाथपर कहता है कि इसे सन् १२००के करीब नाथचंद्रके शिष्य बालचंद्रदेव उनके शिष्य श्रावक भानुदेव हेगड़े चुंगी अफिसरने स्थापितको । श्री सुमतिनाथपर लेख नं० १९६ कहता है कि इसे नयकीर्तिके शिप्य विदिय सेठीने सन् ११ ८ ० में स्थापितकी । श्री वर्द्धमानपर लेख नं० १९७ लेख नं० १८७के समान वासब सेठीका है जिसने २४ प्रतिमाएं स्थापित की (३८) शांतिनाथ ४ फुट (३९) मल्लिनाथ ४ फुट लेख नं० १९८ कहता है कि इसे सन् १२००के करीब बलदेवचंद्र मुनिके शिप्य श्रावक कलाले निवासी महादेव सेठीने स्थापितकी (४०) कूष्मांडिनी देवी बैठी हुई नं० २के समान १॥ फुट ऊंची, इसके बाएं हाथमें फल हैं व दाहने हाथमें एक बालकके मस्तकपर रक्खा है (४१) श्री बाहुबलि ६ फुट (४२) चंद्रप्रभु बैठे आसन ३ फुट यह सफेद संग
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मदरास व मैसूर प्रान्त ।
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[ २२५ मर्मरकी मूर्ति है । लेख नं० २०१ मारवाड़ी भाषा में है कि सन् १५८० में शेन वीरमलजी व अन्योंने स्थापितकी (४३) इसी वेदीमें एक छोटी संगमर्मरकी मूर्ति- इस पर भी माड़वाडी लेख नं ० २०२ है । इसे सन् १४८६ में अगुशाजी जोगड़ने स्थापितकी ।
इस हातेके द्वारपर दोनों तरफ दो द्वारपाल हैं जो ६ फुट ऊंचे हैं । मंदिर के बाहर श्री गोमटस्वामीके ठीक सामने एक ब्रह्मदेवका स्तंभ है, ऊपर ६ फुट ऊंचा आलासा है जिसमें बैठे आसन ब्रह्मदेव या क्षेत्रपालकी मूर्ति श्री गोमटस्वामी के सामने है | नीचे चामुंडरायकी माता गुछकायजीकी मूर्ति है । इन दोनोंके निर्मापक राजा चामुंडराय हैं-
विध्यगिरिपर अन्य जिन मंदिर |
(१) सिद्धरवस्ती - एक छोटा मंदिर है जिसमें यहां पल्पंकासन मूर्ति सिद्धकी ३ फुट ऊंची विराजित है । दोनो ओर दो सुन्दर लेख सहित स्तम्भ हैं- प्रत्येक ६ फुट ऊंचा है-अच्छी कारीगरी हैं । एक खंभेपर लेस नं० २५४ (१०५ ) है यह जैन गुरु पंडिताचार्यका स्मारक है जिनका स्वर्गवास सन् १३९८ में हुआ । इस प्रशस्तिका लेखक संस्कृत कवि अर्हदासनी हैं। नीचे इस
में एक शिखर सहित आला है जिसमें एक जैन गुरु एक ओर विराजमान हैं। दूसरी ओर उनका शिष्य बैठा है जिसको गुरु शिक्षा दे रहे हैं । दूसरा आला है उसमें पल्यंकासन जैन मूर्ति अंकित है । दूसरे खंभे पर लेख नं० २९८ (१०८) है जिसमें जैन गुरु श्रुतमुनिका समाधिमरणका स्मारक है जो सन् १४९२ में हुआ । इस प्रशस्तिका लेखक संस्कृतकवि मंगराज है ।
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२२६ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
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(२) अखंड वागिल्लू - यह ऊपर गोम्मटस्वामीके मंदिरमें जानेका द्वार है । यह एक ही पाषाणका बना है इसको भी चामुंsit बनवाया था | इस द्वारके दोनों तरफ दो छोटे मंदिर हैं । दाहनी तरफ श्री बाहुबलिनीकी व बाईं तरफ श्री भरतनीकी मूर्ति कायोत्सर्ग है । यहां लेख नं० २६१ और २६६ कहते हैं कि इन मंदिरोंको सन् १९३० के करीब श्री गंधविमुक्त सिद्धांतदेवके शिष्य श्रावक सेनापति भरतेश्वरने बनवाया था । लेख नं ० २६७ (११५) करीब सन् १९६० का है । उसमें यह भी कथन है और इसके आगे जो सीढ़ियां अखंड वागिल्लूको आनेको बनी हैं उनको भी इसी भरतेश्वरने बनवाया था । इस द्वारके दाहनी ओर एक बड़ी चट्टान है जिसको सिद्धेर गुंड कहते हैं । इसपर बहुत से शिलालेख हैं । सबसे ऊपर पल्यंकासन कई जिनमूर्तियां अंकित हैं । कुछ नाम भी लिखे हैं । दूसरे द्वारकी दाहनी तरफ जिस द्वारको गुलकाय जी वागिलू कहते हैं, एक चट्टानपर एक स्त्रीका चित्र १ फुट ऊंचा अंकित है इसको भूलसे लोग चामुंडरायकी माता गुलकायनीकी मूर्ति कहते हैं- इस मूर्तिके पास लेख नं० ४७७ है । सन् १३०० के करीबका है जिससे विदित है कि यह मलिसेठीकी पुत्री है उसके समाधिमरणका यह स्मारक है ।
(३) त्यागड ब्रह्मदेव स्तम्भ - इसमें बहुत सुन्दर कारीगरी हैं । इसके नीचे से रुमाल निकल जाता है। इसको प्रसिद्ध चामुं - डरायने बनवाया था | इसके नीचे उत्तरकी ओर लेख नं० २८१ (१०९) है जिसमें चामुण्डरायकी वीरता के कामों का वर्णन है ।
यह लेख कुछ टूट गया है । दक्षिण तरफ नीचेको लेख
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [ २२७ नं० २८२ (११०) सन् १२०० का है जो कहता है कि हरडेकन्नाने स्तंभके लिये यक्ष बनवाया । चामुण्डरायका लेख भी दक्षिण ओर से प्रारम्भ हुआ होगा क्योंकि वहां दो मूर्तियें बनी हैं एक राजा चामुण्डरायकी और दूसरी उनके गुरु श्री नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती की । गोम्मटसारकी संस्कृत वृत्तिमें लेख है कि श्री नेमिचंद्रने चामुण्डरायके प्रश्नपर गोम्मटसार ग्रन्थ लिखा था । इस खंभेको चौगडखंभार दान बांटनेका स्थान भी कहते हैं ।
(४) चेनन्नावस्ती - ऊपर के स्तंभ से कुछ दूर पश्चिमको । इसमें पल्यंकासन श्री चंद्रप्रभु २ || फुट ऊंचे विराजमान है । सामने मानस्तंभ है । लेख नं० ३९० सन् १६७३ का है । कि इसको सेठ चेनन्नाने बनवाया था । बरामदे में दो खंभे हैं। उनपर एक पुरुष और स्त्रीकी मूर्तियां हाथ जोड़े अंकित हैं । ये शायद इसी सेठ और उसकी सेठानी की हों ।
(२) औदगलवस्ती या त्रिकूटवस्ती - इसमें तीन कोठरियां है । सामने श्री आदिनाथ वाएं श्री नेमिनाथ । दाहने श्री शांतिनाथ पल्यंकासुन विराजमान हैं। इस मंदिर के पश्चिम एक चट्टानपर ३० लेख माड़वाड़ी नागरी लिपिमें हैं जो उत्तर भारतसे आए हुए यात्रियोंके सन् १८४१ तकके हैं ।
(६) चौवीस तीर्थकर वस्ती - यह नीचेको है । एक पाषाण २ ॥ फुट ऊंचा है मध्य में तीन कायोत्सर्ग मूर्तियें हैं। चारों तरफ २१ मूर्तियें पल्यंकासन हैं । इसमें मारवाड़ी लेख नं० ३१३ (११०) सन् १६४८ है कि चारुकीर्ति पंडित धर्मचन्द्र व अन्योंने स्थापित की। (७) ब्रह्मदेव मन्दिर - बिलकुल नीचे क्षेत्रपाल । इसके पीछे
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२२८ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
चट्टानपर लेख नं० ३२१ (१८१) है जिससे प्रगट है कि करीब १६७९ में हिरिसलीके गिरिगौड़के छोटे भाई रंगीयने मंदिर बनबाया | इस मंदिर के ऊपर श्रीपार्श्वनाथजी विराजमान है । श्रवणबेलगोला ग्रामके मन्दिर ।
(१) भंडारवस्ती - या चतुर्विंशतितीर्थंकर वस्ती । यह सबसे बड़ा जिनमंदिर २६६ से ७८ फुट है । भीतर एक लाईन में २४ तीर्थंकर कायोत्सर्ग तीन फुट ऊंचे विराजित हैं । तीन द्वार हैं 1 मध्य द्वारमें अच्छी नक्कासी है । बीचमें श्रीवासपूज्य हैं उनके दाहने ११ और बाएं १२ मूर्तियें हैं ।
इस वस्ती के सामने मानस्तम्भ है जो बहुत सुन्दर व उंचा है । इस भंडारवस्तीको होयसाल महाराज नरसिंह प्रथम ( सन् ११४१ - ११७३ ) के खजांची या भंडारी हुछाने बनवाया था । लेख नं० ३४५ (१३७) और ३४९ (१३८) से यह वस्ती सन् ११५९ में बनी थी | महाराज नरसिंहने इस मंदिरका नाम भव्य चूडामणि रक्खा व इसके लिये सबने ग्राम दान दिया ।
(२) अक्कन वस्ती - यह मंदिर होयसालोंके ढंगका बना है । इसमें कायोत्सर्ग मूर्ति श्रीपार्श्वनाथकी ५ फुट ऊंची है । इसके स्तम्भ बहुत अच्छे पालिश किये हुए हलेबिडके पास वस्तीहल्ली के श्रीपार्श्वनाथ मंदिरके समान हैं । शिखर बहुत सुन्दर है, उसमें एक आला है जिसमें पल्यंकासन जिन घमरेन्द्र सहित व कायोत्सर्ग जिन यक्ष यक्षिणी सहित विराजमान हैं। सामने की ओर शिखर में एक पल्यंकासन जिन हैं । श्रीपार्श्वनाथकी दाहनी तरफ सुन्दर लेख नं० ३२७ (१२४) है जिससे प्रगट है कि इस मंदिरको
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मदरास व मैसूर मान्त । [ २२९ सन् १९८१ में होयसाल राजा वल्लाल द्वि० के ब्राह्मण मंत्री चंद्रमौलीकी जैन भार्या अचियकेने बनवाया था तथा महाराजने Threat ग्राम इसके लिये भेट किया । इस लेख के ऊपर पल्यंकासन जिन विराजमान हैं । यही लेख श्रीपार्श्वनाथजी के आसनपर नं० ३३१ है व मुडुडी ग्राममें, जो चामरज पाटन में है यही लेख नं. १५० सन् १९८२ है । (देखो एपिग्रेफिका करनाटिका जिल्द ५ ) |
(३) सिद्धांत वस्ती - यह इसलिये प्रसिद्ध है कि इस वस्तीके प्राकार के पश्चिममें एक अंधेरा कमरा है वहां किसी समय जैनशास्त्रभंडार विराजमान था | कहते हैं यहीं से प्रसिद्ध महान ग्रंथ धवल, जयधवल, महाघवल मूड़विद्रीमें लाए गए थे। मंदिर में संगमकी मूर्ति श्रीचतुर्विंशति तीर्थंकरकी ३ फुट ऊंची विराजमान है। मध्य में श्रीपार्श्वनाथ कायोत्सर्ग है और तीर्थंकर पल्यंकासन हैं। यहां मारवाड़ी लेख नं ० ३३२ सन् १७०० करीबका है कि इस मूर्तिको उत्तर भारतके यात्रियोंने स्थापित किया !
सं० नोट- मालम होता है कि यहां मात्र शास्त्र ही रहते थे । जब शास्त्र भंडार न रहा तब खाली मंदिर में यात्रियोंने प्रतिमा स्थापित की ।
(४) दानशा लेवस्ती - यह अनवस्तीके पास है। इसमें पंचपरमेष्टीकी मूर्ति ३ फुट ऊंची है । चिदानंद कविकृत मुनिवंशाम्युदय (सन् १६८०) में लेख है कि श्री दोद्ददेवराजा ओडयर मैसूर महाराज (सन् १६९९ - १६७२ ) राजा ओडयरने बेलगोला के दर्शन किये थे देखा और इसके लिये मदनेयग्राम महाराजसे भेट दिलाया ।
के
समय में श्री चिक्कदेव
तब इस मंदिर को भी
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२३०] प्राचीन जैन स्मारक ।
नोट-यहां पासमें कालम्मावस्ती या काली देवीका मंदिर है। जैन मठसे प्रतिदिन चावल भेजे जाते हैं।
(१) नगरजिनालय-इसमें कायोत्सर्ग श्री आदिनाथ २॥ फुट ऊंचे। यहां लेख नं० ३३५ (१३०) कहता है कि इस मंदिरको होयसाल राजा वल्लाल द्वि० (११७३-१२२०) के मंत्री नागदेवने बनवाया जो नयकीर्ति सि० च०का श्रावक शिष्य था । इसने कई धर्मके काम किये थे। इसने कमठ पार्श्वनाथ वस्तीका पाषाणका चबूतरा और मंडप बनवाया तथा लेख नं० ६६ (४२) कहता है कि इसने अपने गुरु नयचंद्रकी समाधिका स्मारक बनवाया जिनका स्वर्गवास सन ११७६में हुआ था। लेख नं० ३२६ (१२२) कहता है कि इसने करीब १२०० ई० के नागसमुद्र नामका सरोवर बनवाया जिसको अब जिगनकेट्टी कहते हैं ।
(६) मंगाई वस्ती-या त्रिभुवन चूड़ामणि । इसमें एक कायो। मूर्ति शांतिनाथकी ४॥ फुट ऊंची है। तथा एक मूर्ति श्री वर्द्धमानकी भी है।
मंदिरके सामने एक अच्छा खुदा हुआ हाथी है । लेख नं०३३९ (१३२) कहता है कि इसको सन् १३०५ के करीब अभिनव चारुकीर्ति पंडिताचार्यके शिष्य श्रावक वल्लगुलाके मंगई सेठीने बनवाया था-मूलनायक शांतिनाथ नहीं मालूम होते क्योंकि उसपर लेख नं० ३३७ है कि इस मूर्तिको पंडिताचार्यके शिष्य श्रावक भीमादेवीने सन् १४८० में स्थापित किया । यह भीमादेवी देवराज महारानी भार्या थी । यह शायद विजयनगरके राजा देवराज प्रथम है जिन्होंने १४०६ से १४१६ तक राज्य किया।
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२३१ श्रीवर्द्धमानकी मूर्तिपर लेख नं० ३३८ है कि इसको पंडिताचार्यकी शिप्या व सतयी श्राविकाने स्थापित किया। इस मंदिरमें एक लेख नं० ३४२ (१३४) है कि इस वस्तीका जीर्णोद्धार सन् १ ४ १२में जिससप्पाके हीरिय अप्पाके शिष्य गुम्मटन्नाने कराया था।
(७) जैन मठ-इसमें तीन वेदिया हैं । बहुतसी मूर्तियां, सन् १८५० से १८५८ तककी हैं । मठकी भीतोंपर चित्रकारी है । मध्यकी कोठरीकी दाहनी तरफ मैमूर महाराज कृष्णराज ओडयर तृ० के दशहरा दरबारका चित्र है । यह बात प्रसिद्ध है' कि इस मठके स्वामी चामुंडरायके गुरुश्री नेमिचंद्र सि० च० थे तथा उनके पहले भी बहुत गुरुओंकी श्रेणी होगई है । इस मठके एक गुरु चारुकीर्ति पंडित थे। उनके सम्बन्धमें लेख नं० २५४ (१०५) सन् १३९८ व नं० २५८ (१०८) सन् १४३२ कहता है कि उन्होंने होयसाल राजा बल्लाल प्रथम (११००-११०६) को भयानक रोगसे अच्छा किया था। महाराजने उनको बल्लाल जीवरक्षककी उपाधि दी थी।
. यहां बहुतसे जैन गृहस्थोंके घरोंमें मुर्तियां हैं । दौर्बलि शास्त्रीके घरमें भी हैं।
कल्याणी-सरोवर जो ग्रामके मध्य में हैं इसके उत्तर तटपर बड़ा खभोंदार मंडप है उसके एक खंभेपर लेख नं० ३६५ है वह कहता है कि इस सरोवरको मैसूरके चिक्कदेवराजेन्द्रने बनवाया था जिन्होंने सन् १६७२से १७०४ तक राज्य किया। अनंतकविकृत गोमटेश्वर चरित्रसे प्रगट है कि चिक्कदेवराजने अपने सिक्के बनानेके विभागके मंत्री अन्नप्पाकी प्रार्थनापर शुरू किया था। परन्तु उनका
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२३२ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
देहांत हो गया तब कृष्णराज ओडयर प्रथम (१७१३ - १७३१) के राज्य में अन्नप्पाने इसको पूर्ण किया । यह चिक्कदेवराजका पोता था । इस सरोवरका वर्णन ७ वी शताब्दी के लेखमें भी आया है अतएव यातो इसका इस समय अन्नप्पाने जीर्णोद्धार कराया या वह सरोवर दूसरा होगा ।
जक्की कट्टे - भंडारवस्तीके दक्षिण छोटा सरोवर । इसके पास दो पाषाणोंपर जैन मूर्तियां हैं। उनके नीचे लेख नं० ३६७ और ३६८ हैं जो कहते हैं कि इसको करीब सन ११२० के सेनापति गंगराजा (मंत्री होयसाल विष्णुवर्द्धनका ) के बड़े भाईकी भार्या जक्की मव्वेने जो सेनापति वोप्पकी माता थी बनवाया । यह देवी श्री शुभचंद्र सिद्धांतदेवकी शिष्या श्राविका थी । इस देवी की प्रशंसा लेख नं० ११७ (४३) सन् १९२३ में भी हैं। इसमें गंगराजा और उसके तथा देवीके गुरु शुभचंद्र सि० दे० का स्मारक है । दूसरा काम इस देवीका यह है कि इसने बेलगोलासे ३ मील मानेग्राममें एक जिन मंदिर बनवाया था जो अब ध्वंश हो गया है । यह बात उस ग्रामके लेख नं ४०० में भी है । चेन्नाका सरोवर - चैनन्नाने यह सरोवर बनवाया । इसीने बड़े पहाड़ पर एक जैन मंदिर बनवाया था । लेख नं० ३९० के अनुसार यह सरोवर सन १६७३ में बना था । लेख नं० ३६९ ३७५, व ४८८, ४९० भी इसी बात को कहते हैं ।
निकटवर्ती ग्रामोंके मंदिर |
(१) - जिननाथपुर - यह बेलगोलासे उत्तर १ मील है । लेख नं० ३८८ के अनुसार इस ग्रामको राजा विष्णुवर्द्धन के सेना -
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२३३ .. पति गंगराजाने सन् १११७ में वसाया था। यहां श्री शांतिनाथस्वामीका मंदिर होयसाल ढंगकी कारीगरीका बहुत बढ़िया नमूना है। प्रतिमा शांतिनाथस्वामीकी बहुत बढ़िया है । यह ५॥ फुट ऊंची है । यहां चार सुन्दर खम्भे हैं जिनमें महीन काम है। सब मैसूरभरमें मंदिर दर्शनीय है। बाहरकी भीतोंमें बहुतसी जैन मूर्तियां हैं व यक्ष यक्षिणी भी हैं। शांतिनाथनीके आसनपर लेख नं० ३८० से विदित होता है कि इस मंदिरको सेनापति विशुद्धेकवांघव रेची मय्य ने बनवाया था और सागरनंदी सिद्धांतदेवकी भेट किया था । एपिग्राफिका करणाटिका जिल्द ५ वीमें आरसीकेरीका लेख नं० ७७ ला : १२२- कहता है कि यह पहले कलचूरी राजाओंका सेनापति था फिर होयसाल राजा वल्लालहि (११७३१२२०) की शरणमें आकर रहा । यह मंदिर भी करीब १२२० का बना है। नवरंगके एक खंभेपर लेख नं० ३७९ कहता है कि इस वम्तीका जीर्णोद्धार सन् १६३२में पालेज पदुमन्नाने कराया था।
(२) अरेगल वस्ती-ग्राममें पूर्व एक दूसरी वस्ती है जो शांतिनाथ वस्तीसे पुरानी है । पुरानी मूर्ति खंडित होगई है वह एक सरोवरमें पड़ी है, मात्र उसका छत्र शिलालेख नं० ३८४८ (१४४) ता० ११३५के पास है जो मंदिरके द्वारके दाहनी ओर है । अब यहां एक सुन्दर संगममरकी श्रीपार्श्वनाथकी मूर्ति ५ फुट ऊंची है। पासमें घरणेन्द्र पद्मावती २॥ फुट है । लेख जोपार्श्वनाथ मूर्तिपर है उससे प्रगट है कि इसे बेलगुलाके भुनवलइयाने सन् १८८९में स्थापित कराया।
जैन समाधि स्थान-ग्रामके दक्षिण पश्चिम समाधि मंडप
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प्राचीन जैन स्मारक |
२३४ ] या शिलाकूट है । यह पाषाण वर्ग है ४ फुट चौड़ा व ५ फुट ऊंचा है । इस पर लेख है जो कहता है कि बेली गुम्बाके नेमिचंद पंडित जो दरबारी गुरु थे उनके शिष्य व बालचन्द्र देवके पुत्रने १२१३ में समाधिमरण किया तथा इसे वैरोजाने बनवाया तथा इसमें यह भी है कि किसी कालव्वे स्त्रीने सन् १२१४में समाधिमरण किया, शायद यह ऊपरके पुरुषकी स्त्री हो ।
छोटी पहाडी के पश्चिम तावरकेरी सरोवर के उत्तर एक चट्टानपर लेख नं० ३६२ (१४२) है यह कहता है कि यहां साधु चारुकीर्ति पंडितने सन् १६४३ में समाधिमरण किया। दूसरा लेख नं० ६४ (४९) कहता है कि जैनाचार्य देवकीर्तिपंडितका समाधिमरण १९६३में हुआ तथा यह भी कहता है कि दानशालाका निर्मापन हुआ है ।
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(२) ग्राम हले बेलगोला - श्रवणबेलगोलासे उत्तर ४ मोल । यहां होयसाल ढंगकी एक ध्वंश जैन वस्ती है इसमें कायोत्सर्ग जैन मूर्ति २ || फुट ऊंची है तथा एक मूर्ति पार्श्वनाथकी भी कायोत्सर्ग फणसहित ९ फुट ऊंची है । छतपर आठ दिग्पाल बने हैं । एपिग्रैफिका कर्णाटिका जिल्द ५ में चामरणपाटनका लेख नं० १४८ सन् १०९४ कहता है कि होयसाल राजा विष्णुवर्द्धन के पिता एरयंगने जैनाचार्य गोपनन्दीकी सेवामें एचनहली और बेलगोला १२ वसतियांके जीर्णोद्धार के लिये दिया । गोपनंदी गुरुकी प्रशंसा लेख नं० ६९ (५५) सन् ११०० में भी है । यहां एक खंडित जैनमूर्ति ग्रामके मध्य सरोवर के पास विराजित है । (३) ग्राम साने हल्ली - बेलगोलासे ३ मील । यहां ध्वंश
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२३५ जैन मंदिर है जिसको गंगराजाके बड़े भाईकी स्त्री जक्कीमव्वेने ११२० में बनवाया था।
श्रवणबेलगोलाके शिलालेख । यहां अबतक ५०० लेख नकल किये गये हैं।
(१) चिक्कवेट-पर १से १७४ तक, ४०८ से ४७५ तक व ४९१-४९२ हैं।
(२) दोद्दावेटपर-१७५ से ३२६ व ४७६ से ४७९ व ४९५से ४९९ तक हैं।
(३) ग्राममें–३२७से ३७७ तक, ४८० से ४९० तक, ४९३--४९४, ५०० ।
(४) निकटके ग्रामोंमें ३७८से ४०७ तक (पहली पुस्तकमें मात्र १४४ ही लेख थे) इन ५००में ४५ नागरी लिपि, १७ महाजनी, ११ ग्रन्थ और तामील एक वहेलुत्त, शेष सब कनड़ी भाषामें हैं।
श्रीभद्रबाहु और महाराज चन्द्रगुप्त सम्बन्धी लेख। , छोटे पर्वतका नाम चंद्रगिरि व उसपर वस्तीका नाम चंद्रगुप्त वस्ती महाराज चंद्रगुप्तके नामसे प्रसिद्ध है। इसीपर भद्रबाहु गुफा भी है । गुफामें जो लेख नं० १६६ (७१) करीब ११०० का है वह श्रीभद्रबाहुकी चरण पूनाके लिये है । (२) सरिंगापाटनके पास कावेरी नदीके उत्तर लेख नं० १४७ व १४८ सन् ९०० के करीब हैं। उनमें इन दोनों महात्माओंका वर्णन है । (३) यहांका लेख न० ३१ (१७-१८) करीब सन् ६५० का । इसमें इनका उल्लेख है तथा यह भी लिखा है कि जो जैनधर्म उस समय अपने
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ऐश्वर्यपर था उसका प्रचार श्रीमुनि शांतिसेनने किया । (४) नं० ६७ (५४) सन् ११२९ इसमें है कि मुनि चंद्रगुप्तकी सेवा बनके देवोंने की । (५) नं० ६४ (४०) सन् ११६३-इसमें भद्रबाहु श्रुतकेवली व उनके शिप्य मुनि चंद्रगुप्तका कथन है । (६) नं० २५८ (१०८) ता० १४३२ कथन है कि देवोंने श्रीभद्रबाहु और चंद्रगुप्तको नमन किया।
साहित्यमें (१) श्रीहरिषेणकृत बृहत् कथाकोष जो ९३१ सनमें रचा था इन दोनोंका वर्णन करता है।
(२) भद्रबाहु चरित्र अनंतकीर्तिके शिप्य रत्ननंदीकृत १५ वीं शताब्दीका भले प्रकार दोनोंका इतिहास बताता है ।
(३) चूड़ामणि कृत मुनिवंशाभ्युदय सन् १६८० यही बताते हैं।
___ (४) देवचंद्रकृत राजावली कथा ( सन् १८३८ ) में यही वर्णन है--- / Jainism and early faith of Asoka by Dr. Thomas नामकी पुस्कमे लिखा है “ Testimony of Alagasthene's would likewise seen to imply that Chandragupta submitted to devotional tenets of Sramans as opposed to doctrines of Brahmans." "Asoka was Jain at first. " " Successors of Chandragupta were Jains."
_यूनानी एलची मगस्थनीजको यह प्रमाण था कि चंद्रगुप्त ब्राह्मणोंकी शिक्षाके विरुद्ध श्रमणोंके सिद्धांतोंका भक्त था । अशोक पहले जैन था । चंद्रगुप्तके पीछेके राजा जैनी थे। अशोकके शिलाके लेखोंमें जैन मत प्रगट है । अबुल फजल आईने अकबरीमें कहते हैं कि अशोकने काश्मिरमें जैनधर्म स्थापित किया। राजतरंगि णीमें भी लिखा है कि अशोकने काश्मीरमें जिनशासनका प्रचार किया।
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संस्कृत नाटक मुद्राराक्षससे प्रगट है कि चन्द्रगुप्तके समय जैन लोग ऊंचे २ पदाधिकारी थे । उसके मंत्री चाणक्यनें एक जैनीको राज्यदूत नियत किया था। चंद्रगुप्त राज्यपर सन् ई० से ३२२ वर्ष पहले बैठा था तथा उसका राज्य सन् ई० से २९८ वर्ष पहले तक रहा जब उसकी आयु ५० वर्षकी थी फिर कहीं उसके मरणका कथन नहीं लिखा है । उसके पिछले जीवनका इतिहास न मिलना इस बात का सबूत है कि वह साधु होगए थे । श्री भद्रबाहुके स्वर्ग जाने के पीछे १२ वर्षतक मुनि चंद्रगुप्त जीवित रहे । उनका समाधिमरण ६२ वर्षकी आयुमें हुआ था । यह भी बात प्रमाणित है कि दक्षिण और उत्तर मैसूर में मौर्योका राज्य था | अशोकका शिलास्तंभ मास्की (निजाम स्टेट) व मैसूर के चीत - लग है यही इसका उचित प्रमाण है । प्राचीन तामील साहित्य में कथन है कि मौर्योने दक्षिण भारत में हमला किया था । शिलालेख नं० २२५ शिकारपुर (E. C. V.) कहता है कि कुन्तलदेश जिसमें पश्चिम दक्षिण व मैसूरका उत्तर भाग गर्भित है नंन्दोंके शासन में था ।
"
श्रवणबेलगोलाके लेखोंमें " गंगवंश का उल्लेख ।
(१) लेख नं ० ४१९ पार्श्वनाथ वस्तीके पास सन् ८ १० का यह सबसे पुराना गंगवंशी लेख है। इसमें राजा शिवमार द्वि०का वर्णन है ।
(२) नं० ३९४ सन् ८८४ - ग्राम कव्वलु अन्ना मंदिर के पास- सत्त्यवाक्य राचमल्ल परमानंदी द्वि० के राज्यमें महियर बुवइयाका पत्र वितिययत लड़ा और मरा । पाषाणपर दस वीरकी मर्ति
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बनी है कि इसने शत्रुका मस्तक खडगसे काटा, पशुओंको बचाया, दूसरी तरफ यह भी चित्र है।
(३) नं० १३८ (६०) सन् ९४ ०के करीब । बाहुबलि वस्तीके पास । इसमें गंगराजकुमार गंगवज या राक्षणमणिका वर्णन है । यह लेख कहता है कि गंगवज और वहेग तथा कोनेयगंग व अन्योंसे युद्ध छिड़ गया । उस समय राज्यभक्त और वीर बोयिग भयानक युद्धमें मरा ।
(४) नं० १३९ (११) सन् ९५० के करीब । छोटे पर्वतपर बाहुबलि वस्तीके पास । इसमें एक वीर स्त्रीका वर्णन है । श्रीमती सवियब्बे सर्दार वायिककी कन्या व धोराके पुत्र लोक विद्याधर या उदय विद्याधरकी स्त्री थी। जब इसका पति युद्ध करनेके लिये गया तब यह भी पतिके साथ युद्धको गई और घोड़ेपर चढ़कर खडग ले युद्ध करने लगी। उसीमें इसका प्राणांत हुआ। लेखके ऊपर उसकी मूर्ति बनी है कि घोडेपर चढ़ी है, तलवार हाथमें है व उसके सामने एक आदमी हाथीपर है जो उसको शस्त्र माररहा है।
सं० नोट-इन लेखोंसे जैन श्राविका व श्रावकोंकी वीरताका अच्छा प्रमाण मिलता है।
(६) नं० १५० सन् ९५० ब्रह्मदेव वस्तीके द्वारकी दाहनी ओर-इसमें गंगवंशके ऐश्वर्यका अच्छा वर्णन है । राना एरंगंग या एरयप्पाका पुत्र नरसिंह था यह राज्यका महामंत्री था। इसके जमाईका पुत्र नागवर्मा था जो वस्तरान और भागदत्तके समान था उसने यहां समाधिमरण किया ।
(६) नं० ५९ (३८) सन् ९७४ कूगे ब्रह्मदेव स्तंभपर
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मदरास मैसूर प्रान्त। [२३९ चारित्रवीर गंगवंशी मारसिंह-इसमें कथन है कि राना मारसिंह सत्त्यवाक्य कोंगुनीवर्मा धर्म महाराजाधिराजा बड़ा वीर था । इसने राष्ट्रकूट महाराज कृष्ण तृ० की ओरसे उत्तर प्रांतको विजय किया इसलिये इस मारसिंहको गुर्जरोंका राजा कहते थे । इसने कृष्ण तृ०के भयानक शत्रु अल्लाहका घमंड चूर किया। विंध्यवासी किरातोंको भगाया, मान्यखेड़में कृष्णा नृ०की सेनाकी रक्षा की। राष्ट्रकूट राजा इन्द्रचतुर्थका राज्याभिषेक कराया। पातालमल्लके छोटे भाई वज्जालको हराया । बनवासीके अधिकारीको पकड़कर उसपर अधिकार किया, इसने मथुरावासी राजाओंसे विनय प्राप्त किया, नोलम्ब राजाओंको नष्ट किया । इसीसे इसकी उपाधि नोलम्बकुलांतक पड़ी। इसने उ गीका किला लिया। सावर सर्दार नारंगीको मारा, चालुक्य राजकुमार रानादित्यको हराया। इसने तापी, मान्यखेड़, गोनूर, बनवासीकी उडूंगी व पामसी किलेकी लड़ाइयोंको जीता । जैनधर्मकी शिक्षाको स्थिर किया । बहुतसे स्थानोंपर निनमंदिर व मानस्तंभ बनवाये ।
“ Maintained doctrine cis Doctrine, erected temples and main stambha at many places."
___ अंतमें राज्य छोड़कर इसने तीन दिनका सल्लेखना व्रत लेकर श्रीअजित भट्टारकके चरणोंमें बंकापुर (धारवाड़ ) के भीतर समाधिमरण किया । इसकी उपाधियां नीचे प्रकार थीं।
“ गंगचूड़ामणि, नोलम्घातक, गुहियगंग, चलदुत्तरंग, मंडलीक त्रिनेत्र, गंगविद्याधर, गंगकंदर्प, गंगवज और गंगसिंह ।"
कोरगढ़का लेख भी जो सन् ९७१ का है कहता है, कि इसने उच्छंगीके किलेके लिये राजादित्यके साथ युद्ध किया । कुडलूरके
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ताम्रपत्र सन् ९६३ भी कहते हैं कि जब कृष्ण तृ० ने अश्वपतिके विजय करनेको उत्तरपर चढ़ाई की तब इसने मारसिंहको गंगवाडीका अधिपति बनाया । इसीके पीछे प्रसिद्ध राजा राजमल्ल द्वि० • हुए हैं । इन ही के मंत्री और सेनापति प्रसिद्ध चामुंडराय थे (चरित्र राजा चामुण्डराय) जिसने श्री गोमटेश्वरकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा विधि कराई । नं० २८१ (१०९) लेख चामुण्डरायके गुणोंका वर्णन करता है । यह ब्रह्म क्षत्रिय कुलका था। महाराज इंद्रकी आज्ञासे व अपने ही स्वामी जगदेक वीर राजमल्लकी आज्ञासे इसने सेनाको लेकर पातालमल्लके छोटे भाई वज्वलदेवको विजय किया । नोलम्ब राजा और राजा रवसिंहसे युद्धकर उसकी सेनाको भगाया । इसके स्वामी जगदेकवीर राजमल्लने इसकी बहुत प्रशंसा की है । महाराज चलदंक गंगने गंगराज्य बलात्कार छीनना चाहा था उनकी चेष्टाको इसने रद किया । इसने राचय्या शत्रुको मार डाला । इसने नीचे लिखे पद जिन २ कारणोंसे पाए उनका कथन इस प्रकार है
(१) समर धुरंधर - जब चामुण्डने वज्वलदेवको हराया । (२) वीर मांड - कालम्ब युद्ध में सफल हुआ । (३) रण राजसिंह - उच्छंगोंके किलेमें इसने राजादित्य के साथ वीरता से युद्ध किया ।
(४) वैरी कुलकालदंड - जब इसने वागपुर के किलेमें त्रिभुवनवीर को मारा था ।
(५) भुज मार्तंड - राजा कामके किलेमें इसने युद्धकर डांब राजा, वास, सीवर और कुनकादिको हराया ।
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(६) समर परशराम - जब इसने मुद्राचय या चलदंगगंग या गंग भट्टको संहार किया - जिसने चामुण्डके छोटे भाई नागवमका वध किया था ।
(७) सत्य युद्धिष्ठिर - यह चामुण्डराय बड़ा सत्यवादी थी । कभी हंसी में भी झूठ नहीं बोलता था । यह बड़ा साहित्य प्रेमी था । इसने कड़ी में चामुण्डराय पुराण सन् ९७८ में लिखा- उसकी प्रशस्ति में लिखा है कि इसका स्वामी जगदेकवीर हैं व गुरु श्री अजितमेन मुनि हैं । (सं० नोट - यह बात प्रसिद्ध है कि इसने संस्कृत चारित्रसार जैन ग्रंथ व श्रीगोमटसारकी कर्नाटकी भाषा में टीका लिखी इसीके ऊपरसे केशववर्णीने उसकी संस्कृतवृत्ति लिखी । चामुण्डरावने देशी याने कर्णाटकी भाषा में गोमटसारकी टीका लिखी, यह बात गोमटसार कर्मकांडकी नीचे लिखी गाथाओंसे प्रगट है । राजा चामुण्डराय के प्रश्नके वशसे ही श्रीनेमिनाथ सिद्धांत चक्रवतीने गोमटसार ग्रन्थ लिखा था---
जां गुणा विस्संता गणहरदेवादि इड्डि पत्ताणं । सो अजियसेग गाहो जस्सगुरु जयउ सो राओ ॥ ९६८ ॥
भावार्थ - जिनके भीतर गणधर देवादि ऋद्धि प्राप्त मुनियोंके समान गुण वसते हैं ऐसे श्रीअजित सेननाथ जिसके गुरु हैं वह राजा जयवंत हो
सिद्धंतु दय तदुग्गय णिम्मल वरणेमिचन्दकरकलिया ।
गुण रयण भ्रमणं हिमइ वेला मरउ भुवणयलं । ९६७ ॥ भावार्थ - जिसकी बुद्धि रूपी वेला या तरंग सिद्धांत रूपी उदयाचल पर्वत से उदय प्राप्त निर्मल नेमिचन्द्र आचार्य रूपी चंद्र
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२४२] प्राचीन जैन स्मारक। माकी वचन रूपी किरणसे वृद्धिको प्राप्त हुई है ऐसा गुण रूपी रत्नोंका समुद्र चामुण्डराय राजा है। उसकी बुद्धि रूपी तरंग जगतमें विस्तारको प्राप्त होवे ।। 7 गोम्मटसंगहसुत्तं गोम्मट सिहरुबरि गोम्मटजिणो य ।
गोम्मटगय विणिम्मिय दविखग कुक्कुड जिणो जयउ ॥ ९६८ ॥
भावार्थ-गोम्मटसार संग्रहरूप सूत्र जयवंत हो ।तथा गोम्मट शिषरपर चामुंडराय राजासे निर्मापित जिनमंदिरमें विराजमान एक हाथ प्रमाण इंद्रनीलमय नेमिनाथ तीर्थकरका प्रतिबिम्ब सो जयवंत हो तथा चामुण्डराय राजाकत जगत्में प्रसिद्ध दक्षिण कुक्कुट जिनका प्रतिबिम्ब जयवंत हो
जेण विणिम्मिय पडियावय गं सव्वद सिद्धि देवहिं । सव्वपरमोहिजोगिहिं दिदं सो गोम्मटो जयउ ॥९.७९।।
भावार्थ-जिसके द्वारा निर्मापित जिन प्रतिमाका मुख (श्री गोम्मटस्वामी प्रतिमा) सर्वार्थसिद्धिके देवोंदरा व सर्वावधि परमावधिधारीयोगियोंके द्वारा देखा गया सो राजा चामुण्डगय जयवंत हो।
वजयणं जिण भवन ईगिय भारं सुवण्णकलमं तु । तिहुवण पडिमाणिक जेण कयं जयउसो गओ ॥ ९.७० ॥
भावार्थ-जिसने ऐसा जिन मंदिर बनवाया जिसका पीठ बंध वज समान, व जिसका प्राग्भार ईषत् है व सुवर्णमई जिसके कलश हैं व तीन भुवनमें जो उपमा योग्य है सो राजा जयवंत हो।
जेणुब्भियथं भुवरि मलक्खतिरीटम्ग किरणजलधोया। सिलाणसर पाया सो गओ गोम्मटो जयउ ॥९.७१॥
भावार्थ-जिसने मंदिरमें ऐसा स्तंभ बनवाया है उसपर यक्ष हैं उनके मुकुटकी किरणरूपी जलसे सिद्धोंके शुद्ध आत्मप्रदेश
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मदरास व मैमूर प्रान्त । [२४३ रूपी चरण धोए गए हैं सो राजा चामुंडराय जयवंत हो ।
गोम्मट सुत्त लिहणे गोम्मटगयेण जा कया देसी । सो राओ चिरं कालं णामेय व वीर मत्तडी ॥ ९७२ ॥
भावार्थ-गोम्मटसार ग्रन्थके मूत्र लिखनेमें निस गोम्मटराजा द्वारा देशी भाषा की गई सो वीर मार्तडराजा चिरकाल जयवंत हो।
चामुण्डरायने राजा मारसिंहके नीचे भी काम किया था । बहुतसे शिलालेखोंमें इनको रायके नामसे लिखा है।
(७) लेख नं० ३४५ (१३५) सन् ११५९ भंडार वस्तीमें। कहता है कि राजा मल्लक मंत्री राय जैन धर्मका बढ़ानेवाला हुआ। विष्णुवईनके मंत्री गंगराना व उसके पीछे नारसिंह प्रथमके मंत्री हुल्लाने भी इसी भांति धर्मवृद्धि की।
(८) लेख नं० ७३ (५४) सन् १.११८ शासन वस्ती । (९) ,, ,, १२५ (४५) ,, ,, बड़े पर्वतपर ब्रह्म
देव व मंडपके पश्चिम । (१०) ,, ,, २५१ सन् १११८ ॥ (११),, ,, ३९७ ,, ११७९ सानेनवस्ती हल्लीग्राम ।
ये चारों लेख बताते हैं कि गंगराजा प्रसिद्ध चामुण्डरायसे १०० गुणा अधिक पुण्यवान ५ प्रसिद्ध था।
(१२) नं० १५४ सन् १००० चंद्रगिरिपर ब्रह्मदेव मंदिरपर । इसमें यात्री सुभ करय्याका नाम है जो राजाराचमल्ल द्वि०का मुनीम ( Accountant ) था।
(१३) नं० १२१ (६७) ता० ९९५ जो चामुण्डराय वस्ती में पार्श्वनाथजीके आसनपर है कि चामुण्डरायके
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२४४] प्राचीन जैन स्मारक । पुत्र जिनदेवानने जो श्री अजितसेनका शिष्य था बेलगोलामें जिनमंदिर बनवाया।
(१४) नं. ३७८ सन् १०१५ जिननाथपुर शांतिनाथ वस्तीमें कहता है कि गोयनंदि आचार्य ने जैनधर्मकी बहुत प्रभावना की।
(१६) नं० ६७ (५४) सन् ११२९ पार्श्वनाथ वस्तीके स्तम्भपर कि गंगराजाने श्रीविजयकी प्रतिष्ठा की। इसीमें गंगोंके वंश स्थापनमें आशीर्वाद देनेवाले मुनि सिंहनंदिका वर्णन है। इसमें कोंगनीवर्मा गंगराजाकी यह वीरता बताई है कि इसने एक तलवारसे पाषाणके खंभेको काट डाला था।
(१७) नं० ३४५ (१३७) ११५९ । भंडार वस्ती, कहता है कि केल्लनगिरि ग्रामको गंगोंने वसाया था जहां हुल्लाने कई मिन मंदिर बनवाये ।
१८) नं० ३९७ सन् ११७९-साननहल्लीग्राममें-कहता है कि सिंहनंदि मुनि गंगराज्यके दक्षिण में संस्थापक थे।
(१९) न० ३८७ (South Indian Insp. II) हस्तिमल्ल कृत उदयेन दिरम दानपत्र कहता है कि गंगवेशने सिंहनंदी मुनिसे आशीष पाई।
(२०) कुडलरके लेखोंमें (M. A. R. for 1921) मारसिंहका कथन है उसमें भी है कि सिंहनंदि आचार्यकी कपासे कोंगुनीबर्मा या माधवने बल प्राप्त किया था ।
१२१) शिभोगाका नं. ४ (E. C. VII.) व नगरका नं० ३५ व २६ (E. C. VIIL) कहते हैं कि सिंहनंदिके प्रतापसे यहां गंगराज्य स्थापित हुआ । श्री गौम्मटसारकी संस्कृत प्राचीन
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [२४५ टीकामें भी यह कथन आया है कि सिंहनंदि मुनिकी कपासे गंगवंशकी उन्नति हुई।
स नोट-ऊपरके कथनसे विदित होगा कि गंगवंशी गजा जैनी थे । इनमें जैन शास्त्रानुसार आदर्श गृहस्थके लक्षण थे। ये वोर, युद्धकुशल, राज्य प्रबन्धक, विद्वान, तथा धर्मात्मा थे। चामुंडराजा व गंगराजाकी वीरता, युद्धकुशलता व धर्मज्ञता ध्यानमें लेने योग्य है । (२) राष्ट्रकूरवंशका वर्णन बेलगोलाके शिलालेखोंमें ।
(१) नं० ३५ (२४) सन् ( ० ०के करीब पार्श्वनाथ वस्तीपर। यह इस वंशका सबसे प्राचीन लेख है । इसमें राजकुमार रणावलोक कम्बय्याके राज्यका वर्णन है । यह ध्रुवका पुत्र था व इसका बड़ा भाई गोविंद तृ० था । जब ध्रुवने शिवमारको कैद कर लिया था तब यह कम्बय्या गंग राज्यका प्रबंधक था । (६८) हेगड़े देवनकोटका लेख नं० ९३ भी कहता है कि यह यहां राज्य करता था । ऐसा ही लेख नं० ६१ नेलमंगल (E. C. IX) कहना है।
(२) नं० १३३ (५७) सन् ९८२ गन्धवारन वस्तीके सामने एक स्तम्भपर । इसमें इन्द्र चतुर्थकी प्रशंसा भरी हुई है। इसने यहां श्रवणबेलगोलामें सन् ९८२में समाधिमरण किया था। यह कृष्ण तृका पोता था, गंग गंगेय (बुडक)की कन्याका पुत्र था और राजचूडामणिका जमाई था । इस जैन वीर श्रावकको नीचे प्रमाण उपाधियां थीं
(१) राइकंदर्प, (२) राजमार्तड (३) चलदंकसार (४) चलदाग्गली, (५) कीर्तिनारायण (६) एलेववेदेना (७) गेदेगलाभरण (८) बीर रवीर ।
नं. ६७ (५४) सन् ११२९ इसमें दो राष्ट्रकूट राजाओंका वर्णन है-साहसतुंग और कृष्ण । इस साहसतुंगकी सभा अक
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२४६] प्राचीन जैन स्मारक । लंकदेव जैनाचार्यने अपनी विद्वत्ताका प्रभाव बताया था। सहसतुं. गका नाम दंतिदुर्ग भी था। (३) चालुक्यवंशजोंका श्रवणबेलगोलाके लेखोंमें वर्णन ।
(६) नं० ६९८ (६५) सन् ११०० कहलेवस्तीके द्वारके खंभेपर । इसमें कथन है कि गुणचंद्र जयसिंह प्रथम मल्लिका मोदशांतिसा उपाधिधारीका पूजक था। इसमें यह भी है कि चालुक्योंकी राज्यधानीमें वासवचंद्र बहुत प्रसिद्ध हुए उनको बालसरस्वतीकी उपाधि मिली थी।
(२) नं० ६७ सन् ११.९ कहता है कि राजा जयसिंह प्रथमने श्री वादिराजस्वामी जैनाचार्यकी प्रतिष्ठाकी तथा उनको राजा अहवमल्ल (१ ० ४२-- १०६८)की सभामें "शब्द चतुर्मुख'की उपाधि मिली थी।
(४) होयसालवंशजोंका लेखोंमें कथन । नं० १३२ (५६) ता ११२३ गंधवारणवस्ती, १४३ (६३) ता० ११३१ तीसरा स्तंभ गंधवारणवस्ती, नं० ३८४ (१४४) ता० ११३५ अरगलवम्तीके द्वारकी दाहनी तरफ । इनमें होयसाळ वंशावली राजा विनयढित्यसे विष्णुबर्डन तक दी हुई है।
लेख नं० ३४५ (१३७) सन् ११५४ व नं० ३४९ (१३८) ता० ११५९ भण्डार वस्ती । इनमें भी वंशावली विनयदित्यसे नरसिंह प्रथम तक दी है।
नं० ३२७ (१२४) सन ११८१ अकनवस्ती व नं० ३३५ (१३०) सन् ११९५ नगर जिनालय । इनमें विनयदित्यसे वल्लाल द्वि० तक वंशावली है।
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [२४७ ___नं० ६७ (५४) सन् ११२९ कहता है कि बिनयदित्य जैनाचार्य शांतिदेवकी कृपासे एक महान शासक हुआ तथा नं० १४३ कहता है कि उसने जैन मंदिर और सरोवर बनवाये ।
विनयदित्यका पुत्र एरयंग था। लेख नं० ३२७ और ३४५ में कहागया है कि यह चालुक्योंका दाहना बाहु था ।
नं० ३४९में कहा है कि इसने मालवाझा धारनगर विध्वंश किया, चोलोंकी सेनाको भगाया, चक्रगतको नष्ट किया, कलिंग देशको ध्वंश किया। इसकी भाया एचलदेवी थी जिससे तीन पुत्र हुए-(१) वल्लाल प्रथम (२) विष्णुवर्धन और उदयादित्य ।
नं. १३७ सन् १११७ तिरिनीवस्ती कहता है कि महारानके दरबारके व्यापारी जैनधर्मके पके श्रद्धानी पोयसाल सेठी और नेमीसेठी थे, इनकी माता क्रमसे माची कव्वे और शांति कब्वे थी जिन्होंने भानुकीर्ति आचार्यका उपदेश पाया था तथा चंद्रगिरिपर तिरिनी वस्ती बनवाई।
चरित्र गंगराजा । लेख नं० ३८८ कहता है कि खामी द्रोहधरह गंगराजाने बेलगोकाके पवित्र स्थानपर जिननाथपुर वसाया । लेख नं० ७३ (५९) सन् १११८ शासनवस्ती, नं० १२५ (४५) एरदुकट्टेवस्ती नं० २४० (९०) गोमटेश्वर मंदिर, नं० २५१ ब्रह्मदेव मंडप, नं० ३८४ (१४४) एरग्गुलेवस्ती जिननाथपुर, नं० ३९, सन् १११९ सामनहल्ली ग्राम-महाराज विष्णुवईनके राज्यमें जैनधर्मी गंगराजा सेनापतिकी योग्यता और वीरताको बताते हैं। इनमें इसकी वंशावली इस भांति है।
२) सन् १
गोमटेयर मानिनाथपुर,
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प्राचीन जैन स्मारक |
कौडिन्य गोत्रधारी नागवर्मा
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मार भार्या माकनव्वे
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एचा - या बुधमित्र भार्या होचिकम्बे | इसका संरक्षक होंसालगजा नृप काम था
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गंगराजा
चम्मा चामृप
लेख नं० ११८ (४४) सन् १९२० चामुण्डरायवस्ती में गंगराजाकी उपाधियें हैं ।
(१) महा सामन्ताधिपति, महा प्रचंड दंडनायक जिनधर्मरत्न - इस गंगराजा के पिताके गुरु कुर्ग में मुलतृरवासी श्री कनकनंदी आचार्य थे | उसकी वीरता के काम ये हैं- (१) कोन्नगलपर चालुक्यकी सेनाको विजय करना, (२) तलकाड, कोंगु व गिरीको ले लेना, (३) नरसिंहका वध, (४) गंगमंडलको लेकर महाराज विष्णुवर्द्धन के वशमें लाना, (५) चोलोंको हराना । यह मूलसंघ कुंदकुंदान्वयका प्रभावक था । यह देशीयगण पुस्तकगच्छके कुक्कुटासन मलधारी देवके शिष्य शुभचंद्र सिद्धांतदेवका शिष्य श्रावक था। इसने गंगवाड़ीके सर्व जैन मंदिरोंका जीर्णोद्धार किया । इसने श्री गोम्मटदेव के चहुंओर कोट बनवाया । चामुंडराय के पीछे यही जैन धर्मका प्रवर्द्धक था ।
After Chamundrai he was cheif promoter of Jain doctrine. इस गंगराजाने महाराज विष्णुवर्द्धन से परम नामका ग्राम लेकर उन मंदिरोंके लिये उसे दिया जिनको उसकी माता पोचलदेवी और उसकी स्त्री लक्ष्मीदेवीने बनवाए थे । लेख नं० २४०, २५१ व ३९७ कहते हैं कि जब उसने तलकाडपर विजय प्राप्त
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मदरास व मैसूर मान्त | [ २४९ की तब उसने गोविंदवाडी ग्राम पाया जिसे उसने श्री गोम्मटस्वामीकी पूजाके लिये दान किया । दोनों ग्रामोंके दान अपने गुरु श्री शुभचन्द्र सिद्धांतदेव के चरण धोकर किये गए थे । परमग्रामके दानको गंगराजके पुत्र एचीराजा सेनापतिने पुनः स्थिर किया । नं० १२७ (४७) एरद्र कट्टे वस्तीपर यह जैनाचार्य श्री मेघचंद्र त्रैविधदेव के सन् १९१५ में समाधिमरणके स्मारकका लेख है जिसको श्री मेघचंद्रके शिष्य प्रभाचंद्र सिद्धांतदेव के उपदेशसे गंगराजा और उसकी स्त्री लक्ष्मीदेवीने स्थापित किया ।
नं० ७४ (६६) ता० १११७ - शासनवस्ती के आदिनाथजीकी सिंहपीठ पर लिखता है कि गंगराजाने इंद्रकुल गृह या शासनवतीको बनवाया ।
लेख ७० (६४) कट्टलेवस्ती सन् १९१८ - गंगराजाने अपनी माता पोचव्वेके लिये मंदिर बनवाया ।
नं० १३० (५३) एर दुकट्टे वस्ती - लक्ष्मीदेवी शिष्या श्री शुभचंद्रने मंदिर बनवाया । इसमें लक्ष्मीदेवीको चेलनीका दृष्टांत दिया गया है।
* नं० १२९ (४९) एरदुकट्टेवस्ती - स्तंभ पर इसमें राज्य व्यापारी चामुण्डकी भार्या देमतीके समाधिमरणका कथन है जो सन् १९२०में हुआ तब यह गंगराजाकी स्त्री लक्ष्मीदेवीकी बहन थी । लक्ष्मीदेवीने स्मारक बनवाया । लेख नं० ११८ (४४) चामुण्डराय वस्ती कहता है कि गंगराजाकी माता पोचिकव्वेने बेलगोलापर जिनमंदिर बनवाये । अन्तमें सन् ११२० में समाधिमरण किया । इस स्मारकको प्रभाचन्द्र सि० देवके शिष्य श्रावक चावरा
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२५० ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
जाने लिखा तथा होयसालाचारीके पुत्र वर्धमानाचारिने अंकित किया। नं० १२८ (४८) एरदुकट्टे वस्ती कहता है कि गंगराजाकी भार्या लक्ष्मीदेवीने सन् १९२१ में सल्लेखना या समाधिमरण किया ।
नं० ११७ (४३) चामुण्डराय वस्ती कहता है कि श्रीकुंदकुन्दान्वयी गुरु शुभचंद्रका समाधिमरण सन् १९२३ में हुआ । इस लेखमें गंगराजाकी बड़े भाईकी स्त्री जक्कनव्वेकी प्रशंसा है ।
नं० ३६७ जक्कीकट्टे सरोवर के तट चट्टानपर एक जैन मूर्तिके नीचे - यह कहता है कि सेनापति बोधदेवकी माता जक्कनव्वेने मोक्षतिलक व्रत पाला और यहां जैन प्रतिमा खुदवाई | नं० ३६८ कहता है कि उसने सरोवर बनवाया । नं० ४०० कहता है कि उसने साहाली में ऋषभदेवकी मूर्ति सन् ११२० के करीब स्थापित की |
नं० ३८४ (१४४) सन् १९३९, जिननाथपुरके एरगलर वस्तीपर । इसमें होयसालवंशावली विनयदित्यसे विष्णुवर्द्धनतक दी है तथा गंगराजाकी वंशावली बताई है । इसमें कथन है कि गंगराजाके बड़े भाई वम्मा सेनापतिकी भार्या बागनव्वे थी जो आचार्य भानुकीर्तिकी शिष्य श्राविका थी । इनका पुत्र एचा था जिसने कोपन, बेलगोला व अन्यस्थानोंमें जिन मंदिर बनवाए तथा समाधिमरण किया तब गंगराजाके ज्येष्ठ पुत्र बप्पा सेनापतिने एचाका स्मारक स्थिर किया और उसके बनाए मंदिरोंके जीर्णोद्धार के लिये श्री शुभचंद्रके शिष्य माधवाचार्यकी सेवामें भूमियें भेटकीं । नं० १२० (६६) चामुण्डराय वस्ती - नेमिनाथजीके सिंहपीठ पर - सन् ११३८ - गंगराजाके पुत्र एचनने त्रैलोक्य रंजन या बप्पन चैत्यालय बनवाया जिसकी मूर्ति अब चामुण्डराय वस्तीमें है ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२५१ ____ एपिप्रैफिका कर्णाटिका जिल्द पांचवीमें वेलूरके लेख नं. १२४से हम मालूम करते हैं कि गंगराजाका मरण सन् ११३३में हुआ था तब उसके पुत्र बोप्पने हलेविंडमें श्री पार्श्वनाथ वस्ती बनवाई तथा उसका नाम अपने पिताके नामकी उपाधिसे द्रोह धरह जिनालय नाम रक्खा । बोप्पने कम्ब दहल्ली ता० नागमंगलममें शतीश्वर वस्ती भी बनवाई।
नं० १३२ (५६) गंधवरण वस्ती कहता है कि इस मंदिरको विष्णुबन महारानकी भार्या शांतलदेवीने सन् ११२३ में बनवाया । यह शांतलदेवी मारसिंह और माचिकव्वेकी कन्या थी। यह जैनधर्म, दृढ़ थी। यह गान और नृत्य विद्यामें बहुत चतुर थी।
Shc v. Cotert in singing and clancing.
नं० १३१ (६२) यहीं पर कहता है कि शांतल देवीने शांति निनक स्थापित किया व नं० १४३ (५३) कहता है कि शांतलदेवीने सन् ११३१ में शिवगंगा (बेंगलोरसे उत्तर पश्चिम ३० मील) पर स्वर्ग प्राप्त किया । उसकी माता माचिकव्वेने एक मासका उपवास करके अपने गुरु प्रभाचंद्र, वर्द्धमान और रविचंद्रके सन्मुख समाधिमरण किया ! नागवाकी स्त्री चंदिकव्वे थी उनका पुत्र बलदेव था. भार्या बीची कव्वे थी, उनका पुत्र परगेड़सिंगि मय्या था । यह शांतलकी माता माचिकव्वेका छोटा भाई था।
नं० १.१ (५१) गंधवरण वस्ती कहता है कि मदिनगिरि पवित्र स्थानपर माचिकव्वेके पिता बलदेवने ११३९ में समाधिमरण किया। यहां अपने गुरु प्रभाचन्द्रके आधीन एक पाठशाला व एक सरोवर स्थापित किया।
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२५२ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
नं० १४२ (५२) यहीं, सन् १९३९ कहता है कि बलदेवके पुत्र सिंगिय्याने यहां समाधिमरण किया ।
नं ० • २६९ व २६६ सन् १९४५ आसन भुजवलि और भरतकी मूर्ति गोम्मट मंदिरका द्वार। इन दोनों मूर्तियोंको गन्धविमुक्त सिद्धांतदेवके शिष्य सेनापति भरतेश्वरने विष्णुवर्द्धन के राज्य में निर्मापित कराया । इस भरतका वर्णन ६४ (४०) सन १६३ में भी है । इस भरतेश्वरने ८० जिन मंदिर बनवाये व गंगवाड़ी में २०० जिन मंदिरोंका जीर्णोद्धार कराया ।
नं० १९९ (६८) सन् ११३० राज्य विष्णु० चंद्रगिरिके हाके बाहर | कहता है कि महाराज त्रिभुवनमल्लने अय्यवले (ऐहोल जि० वीजापुर) निवासी धम्मिसेठी के पुत्र मल्लिसेठीको चलदंकराव होसालसेठीकी उपाधि प्रदान की ।
जीवनचरित्र धर्मात्मा श्रावक हुल्लाभंडारी ।
नं० ३४९ (१३८) भंडारवस्ती कहता है कि महाराज नरसिंह प्रथमके मंत्री और भंडारी हुल्लाने सन् १९९९में चतुर्विंशति जिन वस्ती या गंगेरवस्ती बनवाई। यह हुल्ला बाजी वंशमें हुआ । यह जक्की राजा और लूकम्बिकाका पुत्र था । इसके छोटे भाई लक्ष्मण और अमर थे | यह जैन मुनि मलधारी स्वामीका शिष्य था । महाराज नरसिंह प्रथम बेलगोला आए और गोम्मटस्वामीकी यात्रा करके इस भंडारवस्तीको भव्यचूड़ामणि वस्ती नाम दिया । हुल्ला सम्यक्त चूडामणि उपाधिधारी था । हुल्लाने सावनेरुग्राम पूजार्थ दान किया । हुला बड़ा राजनीतिज्ञ था । यह बृहस्पतिसे भी बढ़कर था ।
Hulla was a great politician superior to Bruhaspati.
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मदरास व मैसूर प्रान्त।
[२५३
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इस भंडार वस्तीका सम्बन्ध मूल संघ देशीयगण पुस्तक गच्छसे है । नं० ३४५ (१३७) सन् ११५९ कहता है कि नरसिंह प्र० महारानने श्रीगोम्मटस्वामीके दर्शन किये। ____ नं० २४ ० (९०) सन् ११३९ गोमटेश्वर मंदिरके द्वारके दाहनी तरफ कहता है कि जैन धर्मके मुख्य प्रभावना कारक कौन २ थे । प्रथम चामुण्डराय थे जो महाराज राचमल्लके धर्मात्मा मंत्री थे ! उसके पीछे गंगराजा हुए जो विष्णुवर्द्धनके धर्मात्मा मंत्री थे। उसके पीछे महाराज नरसिंह प्र. के मंत्री हल्लाभंडारी हुए। इस हुडाने बंकापुर (जि० धाड़वाड)में उप्पत्तायताके जिन मंदिरका जीर्णोद्धार कराया तथा वहीं कलिविताके ध्वंस व उच्च जिन मंदिरको फिरसे बनवाया । इसने गंगों द्वारा स्थापित कल्लनगिरि सर्वत्र न्यलपर पांच और जैन मंदिर बनवाए । भंडारवस्तीका आचाये श्रीगुणचंद्र सिद्धांतदेवके शिष्य महामंडलाचार्य नयकीर्ति सि० देवको मान्य क्रिया ।।
नं०६४ (१०) महा नवमी मंडप शांतीश्वर वस्ती कहता है कि हुललाने अपने गुरु महामंडलाचार्य देवकीर्ति पंडितदेवका स्मारक बनाया जिनका समाधिमरण सन् १९६३में हुआ। तथा उसकी प्रतिष्ठा उनके तीन शेप्य लखनंदी, माधव और त्रिभुवनदेवसे कराई।
नं० २४० (९०) सन् ११७५ कहता है कि मुनि नयकीतिक शिष्य अध्यात्मिक बालचंद्रने जैन मंदिर बनवाया। इस लेखमें शासन अधिक वर्णन किया गया है।
__नं० ३२७ कहता है कि बेलगोलामें महाराज वल्लाल द्वि० के शिवभक्त मंत्री चंद्रमौलीकी भार्या जिनभक्त अचलदेवीने सन्
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११८१में पार्श्वनाथ वस्ती बनवाई । अचलदेवीके गुरु नयकीर्ति थे, इनके मुख्य शिष्य बालचंद्र मुनि थे व अन्य शिप्य थे भानुकीर्ति, प्रभाचंद्र, माघनंदि, पद्मनंदि और नेमिचंद्र । इम वम्तीके लिये महाराज वल्लाल द्वि०ने ग्राम वनमेरेयनवल्ली भेट किया ।
नं० ३३५ (१८०) सन् ११७५ नगर जिनालय-कहता है कि नवकीर्तिका श्रावक शिष्य नागदेव था। यह महारानका पट्टन स्वामी था । यह मंत्री वम्मदेव और जगवईका पुत्र था । इसने नगर जिनालय बनवाया । इस लेखमें कहा है कि इस समय वेलगोलाके व्यापारी जो खण्डाली और मूलभद्रके प्रसिद्ध वंशमें थे, सत्य तथा धर्मके भक्त थे तथा समुद्रके बंदरोंसे व्यापार करने में
कुशल थे।
Devoted to truth and purity and as skillecl in coducting trade with many seaports.
इसी नागदेवने अपने गुरु नयकीतिका स्मारक स्थापित किया जिनका समाधिमरण सन् ११७६में हुआ।
नं० ३८० शांति वस्ती जिननाथपुर कहता है कि इसको सेनापति विशुद्धैक बांधवने बनवाकर कोल्हापुरकी सावंतवस्तीसे सम्बंधित माघनंदिके शिष्य शुभचंद्र वेधके शिप्य सागरनंदीको सुपुर्द किया।
रेचिमया कलचूरी रानाका मंत्री था। पीछे इसने वल्लाल द्वि के नीचे काम किया।
नं० १८६ (८१) गोमटस्वामीके हातेकी भीतपर । कहता है कि वल्लाल द्वि०के पुत्र नरसिंह द्वि० या सोमेश्वरके राज्यमें अध्यात्म बालचंद्रके शिप्य पद्म सेठी के पुत्र गोम्मट्ट सेटोने सन् १२३ १ में
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२५५ श्री गोमट्टस्वामी और चतुर्विशति वस्तीके लिये बहुत दान दिये। नं. ३३४ (१२९) सन् १२८२ नगर जिनालय-कहता है कि नरसिंह तृ० के राज्यमें माघनंदि आचार्य मौजूद थे जो होयसालवंशके गुरु थे। यह मूलसंघ बलात्कार गणमें थे । यह शास्त्रसारके कर्ता व इनके गुरु कुमुदचंद्र थे। महामंडलाचार्य नेमिचंद्र पंडित मूलसंघने इंग्लेश्वर देशीकगणमें थे उनका शिष्य श्रावकचंद्र था इसने तथा बलात्कार गणके महामंडलाचार्य मावनंदीके शिष्य बेलगोलाके जौहरियोंने नगर जिनालयके लिये भूमियें दान की
नं० २५४ (१०५) सन् १३९८ सिद्धर वस्ती व यहीं नं० २५८ (१०८) सन् १४३२ कहते हैं कि विष्णुवईनके बड़े भाई वल्लाल प्रथम (११००-११०६)को भयानक रोग हो गया था जिसको जैनाचार्य चारुकीर्तिने अच्छा कर दिया तब उसने आचार्यको “वल्लाल जीवरक्षक" की उपाधि दी।
विजयनगरके राजाओंका उल्लेख । नं० ३४४ (१३६) भंडारवस्ती-बुक्कराय प्रथमके समयमें सन् १३.६ में जैन और वैष्णवमें झगड़ा हो गया थातब महाराजने फैसला दिया कि जैन धर्मियोंको पूर्वकी भांति ५ बाजोंका व कलशका अधिकार है । उनको भेदभावसे नहीं देखना चाहिये।
नं० ३३७ मैयायी वस्ती कहता है कि देवराज माहारायाकी भार्या भीमादेवीने जो पंडिताचार्यकी शिष्य श्राविका थी सन् १४१० में मंगायी वस्तीमें शांतिनाथजीको स्थापित किया।
नं० २५३ (८२) कहता है कि महाराज हरिहर द्वि० सेनापति इहगप्पाने सन् १४२२में श्री श्रुत मुनिके सामने श्री
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प्राचीन जैन स्मारक। गोम्मट्टस्वामीको बाग व सरोवर भेट किया। यह देवराय द्वि. के राज्यमें भी था। यह संस्कृतका बड़ा विद्वान था । Irugapa was a sanskrit scholar. इसने नानाथरत्नमाला ग्रन्थ बनाया है ।
मैसूरके राजाओंका उल्लेख । नं० २५० सन् १६३४ अष्टदिग्पालके मंडप ऊपर । इसमें चामराज ओडयरकी वेलगोला यात्राका वर्णन है। मुनिवंशाभ्युदय (चिदानंदकवि कृत) सन् १६८० में इस यात्राका विस्तारसे कथन है। नं० ३६५ कल्याणी तालावका मंडप कहता है कि चिक्कदेव राना ओडयरने कल्याणी तालाव बनवाया । स्थलपुराण कहता है कि १६७२ या शाका १५९५में दोदा देवराजा ओडयरने वेलगोलाकी यात्रा की।
नं० २४९ (८३) गोमट मंदिर हाता कहता है कि कृष्णराज ओडयर प्र०चे १७२३में बेलगोलाकी यात्राकी तथा कुछ ग्राम भेट किये जिसमें बेलगोला और कबाले गर्भित हैं । पहला गोमट पूजाके लिये, दूसर। दानशलाके लिये । अनन्तकवि कृत गोमटेश्वर चरित्रमें (१७८०) कृष्णराज ओडयर तृ०की यात्राका वर्णन है ।
सनद नं० ३५३ मठमें महाराज मैसूरके मंत्री पूर्वैय्या लिखित सन् १८१० जो कवालू ग्रामके दानको पुष्ट करता है ।
सनद नं. ३५४ मठमें कहती है कि बेलगोलाके मंदिर जीर्णोद्धारके लिये महाराजने सन् १८३० में ३ ग्राम अर्पण किये। ____ नं० २२३ (९८) अष्टदिग्पाल | कहता है कि कृष्णराज ओडयर द्वि०के समयमें चामुंडरायके वंशन देवराज अरसू-महारा
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२५७ जके अंगरक्षकके पुत्र पुट्टदेवरानने सन् १८२७में प्रतिवर्ष गोमटस्वामीकी पूजाके लिये द्रव्य दिया।
ता० १० नवम्बर १९००में कृष्णराज ओडयर चतुर्थ वेलगोला यात्राको आए ऐसा लेख चिक्कवेटपर है। महाराजके दस्तखत है। K. R. .
चंग्लव वंशका उल्लेख । इन राजाओंका एक वंश मैसूरके पश्चिम व कुर्गमें राज्य करता था।
नं० २८८ (१०३) कहता है कि महाराज कुल्लोत्तुंग चंगल महादेवके मंत्रीके पुत्र चन्नवोम्मरसने गोम्मटस्वामीके ऊपरी भागका जीर्णोद्धार सन १६०९में कराया।
निदुगल वंशका उल्लेख । निदुगलके प्राचीन शासक सूर्यवंशी थे। व ये कारिकलचोलके भक्त थे । इनकी राज्यधानी अनन्तपुर जिले में हेमावतीके पास पंजेरूपर थी। ___लेख नं० ६६ (४२) सन ११७६-शांतिश्वर वस्ती कहता है कि, महारान विष्णुवर्द्धनका समकालीन राजा इरुन्गोटा नयकीर्ति सिद्धांतदेवका शिष्य श्रावक था ।
दुसरे आवश्यक लेख ।। नं० ६९ (५५) सन् ११०० कट्टले वस्ती कहता है कि प्रभाचन्द्र आचार्यकी प्रतिष्ठा धारके राजा भोजने की थी व मुनि यशकीर्तिका सम्मान सिंहलद्वीप (सीलोन )के राजाने किया था ।
नं० ३४ पार्श्वनाथ वस्ती करीब सन् ७०० में नागनायकोंके आचार्य नागसेनका स्मारक है।
१७
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२५८]
प्राचीन जैन स्मारक।
/ नं० ६७ सन् ११२९ पार्श्वनाथ वस्ती। कहता है कि श्री अकलंकस्वामीने राजा हिमशीतलकी सभामें बोंडोंको परास्त किया तब पांड्य रानाने स्वामीका पद दिया । राजा हिमशीतल कांची में राज्य करता था। शायद यह पल्लव राजा था। _____ नं० १४९ सन् ११५० चंद्रगिरिका हाता व नं० ४५७ सन् १००० ब्रह्मदेवके पर हातेके बाहर कहते हैं कि वत्स्योंके राजा गरुड़ केशिरान और बालादित्य थे।
नं० ६४ सन् ११६३ शांतिवस्ती । इसमें गंधविमुक्त देव मुनिके श्रावक शिष्योंके नाम हैं। सामन्त, केदारनाकरस, कामदेव, भरत, वुचिमय्या, कोरव्वा । निम्बा, माघनंदि मुनिका श्रावक शिष्य था इसका वर्णन तेरदालके लेखपर भी आया है । (Indian Ant. XIV 44) तथा पद्मनंदि आचार्य कृत एकत्व सप्तति ग्रन्थमें इसे सामन्तरत्न कहा है । सं० नोट-हमने लिखित प्रतिमें देखा तो किसी श्लोकमें यह नाम नहीं मिला। शायद ताड़पत्रकी प्रतिमें ऐसा हो । पता लगाने की जरूरत है । यह आनन्द शुभचन्द्र के शिष्य थे जिनका समाधिमरण सन् ११२३ में हुआ है । नोट- इस लेखसे पता चलता है कि पद्मनंदि पचीसी ग्रन्थके कर्ता पद्मनंदि १२वीं शताव्दीके आचाय है)।
___ नं० ४०५ सन् १३३३ वीरगल, ईश्वर मंदिरके सामने चादरहल्लीपर । यहांके केतगोविंदका युद्ध मुमलमानों से हुआ था उसमें यह मारा गया।
नं० २५४ सन् १३९८ सिद्धर वस्ती। हरियाना और माणिकदेव पंडिताचार्यके प्रावक शिष्य थे।
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मदरास व मैसूर प्रान्त |
[ २५९
समाधिमरण ( सल्लेखना ) सम्बन्धी लेख | इन लेखों में ८० से अधिक लेख निषीदाके हैं अर्थात् अधिकतर साधु और आर्यिकाओंके समाधिमरणके लेख हैं ।
शब्द सल्लेखना मात्र तीन लेखों में है । नं० ११८, २५८ और ३८९ तथा शेषोंमें समाधि या सन्यास शब्द है । समाधिमरणके समय एक मासका उपवास नं० २५, १४३, १६७में, २१ दिनका ३३ लेखोंमें व ३ दिनका ६९ में है । ये स्मारक सन् ६०० अनुमानसे लेकर सन् १८०९ तकके हैं। इनमेंसे ६० मुनियोंके व १६ आर्जिकाओंके हैं । इनमें साधुओंके ४८ और आर्जिकाओंके ११ सातवीं व आठवीं शताब्दीके हैं
इन ४८ के नं ० हैं - १, २, ५, ६, ८, ९, ११, १५, १९, २१, ३४, ७५, ७७, ७९, ८५, ८८, ९२, ९३, ९५, ९९, १०२, १०६, १०९, १११, ११३, ११५, ११६, तथा ११ के नं ० हैं - ७, १८, २०, ७६, ९६, ९७, ९८, १०७, १०८, ११२, ११४ ।
कुछ लेखोंका सारांश ।
नं० (१) - ६०० ई० । इसमें श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली और प्रभाचंद्र मुनि अर्थात् चन्द्रगुप्त मौर्य के समाधिमरणका वर्णन है तथा और मुनियोंका भी पीछेसे समाधिमरण हुआ है ।
७००
(११) ६५० ई० | श्री अरिष्ट नेमि आचार्य कई शिष्योंके साथ इस कटवप्र पर्वतपर आए और समाधिमरण किया तब राजा दिन्दीक मौजूद था । उसकी भार्या कंपिता नमन कर रही है ।
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२६० ]
प्राचीन जैन स्मारक |
(२) ६५० ई० । कई मुनियोंने समाधिमरण किया उनमें मुख्य थे - ( १ ) श्रीकनकसेनके शिष्य बलदेव मुनि कट्टारके गुणसेन गुरुवर, वेगृरके सर्वज्ञ भट्टारक, दक्षिण मथुरा (मदुरा ) के अक्षयकीर्ति मुनि जिनको सर्प ने डसा था, गुणदेवसूरी, किटसूरीके पेलमादा के धर्मसेन गुरुके शिष्य बलदेव गुरु |
नं० २७ सन् ७०० पार्श्वनाथ वस्ती । श्रीशांतिसेन मुनि जिन्होंने भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के पीछे जैनधर्मका बहुत प्रकाश किया। नं० ३१ सन् ६५० पार्श्वनाथ वस्ती । वेहदे गुरुके शिष्य सिंहनंदि गुरु ।
नं० ३२ सन् ७०० नागसेन गुरु, रिषभसेन गुरुके शिष्य । नं ० (३४) सन् ७०० - पार्श्व ० वृषभनंदीके शिष्य उपवासपर गुरुनं० ७५ सन् ६५० कट्टले वस्ती बलदेवाचार्य
चंद्रदेवाचार्य नन्नीवंश ।
नं० ८२ ७५०
नं० ८४
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पुष्पनंदी |
नं० ८५ ७५०
नंदिसेन मुनि |
97
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१)
नं ० ८८ ७०० शासन वस्ती, कट्टर संघ के वीतशोक भट्टारक, नबिलूर संघ इंद्रनंदि आचार्य और पुप्पसेनाचार्य, इसी संघके मौनाचार्य के शिष्य वृषभनंदी, श्री देवाचार्य, मेघनंदि मुनि ।
नीचे लिखी आर्यिकाओंने समाधिमरण किया । नं० ७६ सन् ७०० धन्नेकुट्टादेवी गुरानी शिप्या पेरूमृद्ध गुरुकी, जम्बूनाथगिरि, आदेयरनादमें चित्तरके मौनी गुरुकी शिष्या नागमती, ननगंतियर, शमिति ।
नोट - ७०० एरदूकट्टे वस्ती - नविल्लूर संघकी प्राणगणकी राज्ञीमती, अनंतमती, मयूरग्रामकी आर्या, गुणमती, प्रभावती,
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२३१ दमितामती, किङ्करके नविलूर संघकी । यह किट्टर पुन्नाद राज्यकी राज्यधानी थी। नं० ६८ सन् ९५० पार्श्वनाथावस्ती-बेट्टदेवकी कन्या बैनव्वे; नं० ३६ सन् ९५० तेरीनवस्ती-कुमारनंदी भट्टारककी शिष्या सायिव्वेकुन्तियर । नं० १५६ सन् ११००-ब्रह्मदेव-पोल्लवेकुन्तियर ।
आगेके साधु व मार्थिका। नं० २६९ सन् १३१६-अखंडवागिलू-त्रैवेद्यदेवके शिष्य पद्मनंदीमुनि । नं. २७४ सन् ? ३७२ अखंडबागिल्लू बलात्कारगणके धर्मभूषण नं० २७३ ,, १४०० ,, शांतिकीर्तिके शिष्य हेमचंद्रकोति शांतिकीर्ति अमितकीर्तिके शिष्य, अनितकीर्तिने भद्रबाहु गुफामें समाधिमरण किया।
नं० १२७ (४७) सन् १ ११५-एरदूकट्टेवस्ती-मूलसंधी देशीयषगण पुस्तकगच्छके प्रभाचंद्र त्रैविधदेवका समाधिमरण ।
नं० ३५१ (१३९) मठ-आर्यिका श्रीमती गंतीने सन् ११ १९ में समाभिमरा किया। उनकी शिष्या मानकब्वे गंतीने स्मारक स्थापित कराया। देवेन्द्रमिहांतीदेवके शिष्य मलधारीदेव व श्रीमती गंती थी। नं० ११७ (४३) चामुंडराय ५०-सन् ११२३में शुभचंद्रका स० मरण । उसके शिप्य गंगराजाने स्मारक बनवाया । ___नं० ६७ (१५४) पार्श्वनाथ वस्ती। अजितसेनके शिष्य मल्लिषेण मलधारीका स० मरण सन् १९२९ में।नं. १४० (५२) गंधवरणवस्ती-मेषचंद्रके शिष्यप्रभाचंद्रकास. मरण सन् ११४५में।
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२६२] प्राचीन जैन स्मारक । नं० ६३ (३९) शांतीश्वर वस्ती गंधबिमुक्त देवके शिष्य देवकीर्तिका समरण सन् ११६३में। हुल्लाने गुरुका स्मारक बनाया।नं०६६ (४२) शांतीश्वर व ० गुणचंद्रके शिप्य नयकीर्तिका स० मरण सन् ११७६में। नं० ६५ (४८) मलधारी रामचंद्रके शिप्य शुभचंद्रका समाधिमरण सन् १३ १३में। शुभचन्द्रके शिष्य पद्मनंदीने स्तुतिकी, माधवचंद्रने स्मारक बनवाया, बेलुकेरीके गुम्मटराजाने स्थापित किया ।
नं०२६४ (१०५) सिढेरवस्ती। गुरु पंडिताचार्यका स मरण सन् १३९८, उसके शिप्य अभिनव पंडितने स्मारक रक्खा---
नं० २५८ (१०८) सिद्धर बस्ती । सिद्धांत योगीके शिष्य श्रुतमुनिका समाधिमरण सन् १४३२ में।
यात्रियोंके लेख । यहां १६० दक्षिण तथा उत्तरके हैं। इनमेंसे ७ वीं से १२वीं शताब्दीके दक्षिणके ५४ लेख हैं। इनमेंसे नीचेके जाननेयोग्य हैं
नं० ४०-कविरत्न कन्नड़ कविने कवि चक्रवर्तीका पद चालुक्य राजा तैल तृ०से प्राप्त किया व सन् ९९३में अनितपुराण लिखा।
नं. ११७-नागवर्म प्रसिद्ध कन्नड़ कवि जो गंगराजा राक्षस गंगद्वारा सम्मानित था इसने छन्दीम्बुधि और कादम्बरी लिखी।
नं० ४५७ वत्स्योंका राजा वालादित्य यात्रार्थ आया ।
नं० १५७-गंधविमुक्त सिद्धांतदेवका शिष्य श्रीधर श्रावक रईस साहब लिखते हैं--
"The above recards have their own valuc in several other respects, one of them, being their antiquity. They thus bear testirony to the sacredness and importance of the place even in early times; so that eminent Jain Guru, poets, artists, chiefs,
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मदरास व मैमूर प्रान्त । [२६३ officers and high personages in common with ordinary people deemel it duty to visit the place at least once in their life are to have their names permanently recomi on the holy spoi."
भावार्थ-ये यात्रियोंके लेख कई कारणोंसे बहुत उपयोगी हैंप्रथम तो इनकी प्राचीनता है । ये इस बातके प्रमाण हैं कि बहुत प्राचीनकाल में भी यह स्थान पवित्र व उपयोगी माना जाता था क्योंकि प्रसिद्ध जैनाचार्य, कवि, शिल्पकार, सर, आफिसर व अन्य बड़े२ आदमियाने व साधारण लोगोंने भी यह समझ रक्खा था कि अपने जीवनमें कमसे कम एक दफे भी इस स्थानका दर्शन करना चाहिये और अपना नाम सदाके लिये इस पवित्र स्थलपर अकित कर देना चाहिये।
उत्तर भारतके ५३ लेख मारवाड़ी तथा हिन्दीमें हैं। इनमें ३६ नागरी लिपि व १७ महाजनीमें हैं । नागदाके सन् १४८ (से १८४१ तकके हैं। इनमें काष्ठासंघ, व माडिवत गच्छ काष्ठासंघ घेरवाल जाति, व स्थान पुरस्थान, माधवगढ़, व गुडघातिपुर लिखा है । महाजनी लिपिके सन् १७४३ से १७८६ तकके है ।इनका सम्बंध अग्रवालोंसे है । दिहलीवाले नरथानवाला, सहनवाला, गंगनिया पानी पतियो । गोत्र गोयल है । स्थान पेठ व मांडवगढ़ आदि हैं।
जैनाचार्योंको सूची लेखों में । इस तरहके १८ शिलालेख हैं। सबसे पुराना नं० ६२ सन् ९०० व नं० ६९ (५५) सन् ११००का है । यह कट्टले वस्तीके स्तम्भपर हैं । इसमें नीचे प्रकार वर्णन है
मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वयमें वक्रगच्छके धारक वट्ट देव हुए इसी वंशमें
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२६४ ]
प्राचीन जैन स्मारक
देवेन्द्र सिद्धांतदेव हुए ।
चतुर्मुख या वृषमनन्द्याचार्य
| इनके ८४ शिष्य थे । कुछके नाम हैं
T
गोपनंदी प्रभाचंद्र माघनंदी दयनंदी गुणचंद्र जिनचन्द्र देवेंद्र मोंडचन्द्र शुभकीर्ति मलधारी
त्रिरत्ननंदी
त्रिमुष्टिदेव गौलदेव या हेमचन्द्र मलधारी, इनके साथी थे । यशकीर्ति, बासवचंद्र, चंद्रनंदि, शुभकीर्ति, मेघचन्द्र, कल्याणकीर्ति, बालचन्द्र ! अंतिम तीन त्रिरत्ननंदीके भी सहपाठी थे ।
इनका विशेष वर्णन यह है
आचार्य चतुर्मुख इसलिये कहलाते थे कि ये वर्षमें चार दफे ८ दिनका उपवास करते थे । तथा कभी १ मास पीछे पारणा करते थे । आचार्य गोपनंदी - बड़े कवि व नैयायिक थे । इन्होंने गंग राजाओंके समय में जैनधर्मका विस्तार किया। इनकी प्रशंसा एपिग्रैफिका कर्णाटिका जिल्द ५ वी में चामराय पाटनके नं ० ९४८ लेखमें है । होयसालराजा एरयंगने इनको १०९४ में दान किया था । आचार्य प्रभाचंद्र - गोपनंदी के साथी धारके राजा भोज द्वारा पूजित थे ।
आचार्य जिनचन्द्र- बड़े विद्वान थे । व्याकरण जैनेन्द्र में पूज्यपाद समान, न्यायमें भट्टाकलंकदेव समान, साहित्य में भैरवी समान थे ।
आ० देवेन्द्र - बंकापुरकी ओर वास करते थे ।
आ० त्रिमुष्टिदेव - इसलिये प्रसिद्ध थे कि वे भोजन के समय पहले तीन ग्रास ही लेते थे ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२६५ आ० वासवचन्द्र-चालुक्योंकी राज्यघानीमें बाल सरस्वती प्रसिद्ध थे।
(२) लेख मं० १२७ (४७) ता० १११५-चामुण्डराम वस्ती स्तंभपर, इसमें नीचे प्रकार वर्णन है
पहले गौतम गणधरके अन्वयमें
श्री पद्मनंदि या कुन्दकुन्दजी हुए, नंदिगण हुआ।
उमास्वाति या गृद्धपिच्छ
बलाकपिच्छ
गुण नदी-इनके ३०० शिप्य थे, उनमें ७२ प्रसिद्ध थे
उनमें मुख्य थेदेवेन्द्र मिडांतिक
कलधौमानंदो-इनके पुत्र महेन्द्रकीर्ति फिर वीरनंदि हुए । इसी वंशमें हुएगोल्लाचार्य
त्रैकाल्ययोगी
अभयनंदी
सकलचन्द्र
मेघचंद्र त्रैवेद्य-समाधिमरण सन १११५में
प्रमाचद्र
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२६६ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
इस लेखमें लिखा है कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य वायु द्वारा गमन कर सक्ते थे । यही बात नं० ६४, ६६, ६७, २५४ और ३५१ में भी है । ३५१ में है कि वे भूमिसे ४ इंच ऊंचे चलते थे । गोल्लाचार्य - पहले गोल्लदेशके राजा थे । इनका वंश नूतन चांडिल था ।
मेघचन्द्र चैवेध-बड़े विद्वान थे । सिद्धांतमें जिनसेन और वीरसेन के समान, न्यायमें अकलंक व व्याकरणमें पूज्यपादके समान । यह देशीयके वृषभ गणमें थे ।
(३) नं० ११७ (४३) सन् १९२३, चामुंडराय वस्ती के प्रथम स्तम्भपर। इसमें कल धोतानंदी तक वंशावली लेख नं ० १२७ के समान है । उसके आगे इस भांति है
कलधौतानन्दी
रविचन्द्र या पूर्णचन्द्र
1
दामनन्दी - इनके ज्येष्ठ पुत्र श्रीधरदेव थे
I मलघारीदेव
चन्द्रकीर्ति
दिवाकर नन्दी
गंधविमुक्त देव या कक्कुटासन मलधारी । यह कक्कुट आसनसे रहते थे व व कभी शरीर नहीं खुजाते थे ।
भचन्द्र - समाधिमरण सन् १९२३ में
श्रीधरदेब
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [२६७ (४) नं० ६७ (५४) सन् ११२९, पार्श्वनाथवस्ती स्तंभपर। यह श्रुतकेवली भद्रबाहुसे प्रारंभ होता है
श्री भास्वाह
चन्द्रगुप्त-इसीवंशमें
कुदकुंदाचार्य-इगी बंशमें
गतमद्र
सिंहनंदि
वक्रीव
वज्रनदी-नवस्तोत्रके का पात्रकेशरी-त्रिलक्षणके खंडन कर्ता
सुमतिदेव-मुमति सप्तकके कर्ता
कुमारसेन चिंतामणि--चिंतामणिके कर्ता श्री वदेव-चूड़ामणि काव्यले कर्ता
महेश्वर
अकलंक बौद्धजयी-साथी पुष्पसेन
विमलचन्द्र
इन्द्रनंदि
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२६८ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
प्रवादीमल्ल
I आर्यदेव
चन्द्रकीर्ति - श्रुतबोध व कर्मप्रकृतिके कर्ता
श्रीपालदेव
मतिसागर
I
हेमसेन - विद्या धनंजय उपाधिधारी
I
दयापाल - मतिसागरके शिष्य वादिगज के साथी रूपसिद्धि कर्ता
|
वादिराज
1
श्रीविजय - हेमसेनके समान, वादिराज द्वारा प्रशंसनीय
कमलभद्र
1
दयापाल पंडित
}
शांतिदेवस्वामी आहवमल्ल राजा द्वारा प्रदत्त शब्द चतु
मुख उपाधि घारी
गुणसेन भुल्लरके I
अजितसेन -वादीमसिंह उपाधिवारी
शांतिनाथ या कविकांत
पद्मनाभ या वादिकोलाहल
कुमारसेन
महिषेण मलघारी, आचार्य अजितसेन के शिष्यने सन् १९२९ में माधिमरण किया ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२६९ इस लेखमें (१) वक्रग्रीवके सम्बंधमें लिखा है कि इन्होंने अथ शब्दके अर्थ छः मास तक वर्णन किये ।
(२) श्रीवर्द्धदेव दंडी कवि द्वारा स्तुत्य था।
(३) आचार्य महेश्वरने ७० स्थानों में बड़े बड़े वाद किये तथा अन्य भी बहुतसे वाद जीते ।
(४) अकलंकस्वामीने बौद्धोंको '१०० वि० सं० में हराया ऐसा संस्कृत अकलंकचरित्रमें है।
विक्रमार्कशकाब्दीये शतसमप्रमानुषि ।
कालेऽकलंकयनिनो बौद्भर्वादो महानभृत ॥ (५) विमलचन्द्र ऐसे विद्वान थे कि उन्होंने सात्रु भयंकरके महलके द्वारपर यह सुचना लगा दी थी वह शव, पाशुपत, बौद्ध और कापिलाससे वाद करनेको तैयार हैं।
(६) वादिराजने पार्श्वनाथ चरित्र सन् १०२५ में रचा है, जब चालुक्य महाराज जयसिंह राज्य कर रहे थे। इनके गुरु मतिसागर थे। मतिसागरके गुरु सिंहपुरके श्रीपाल थे।
. (५) नं० १४ ० (६०) सन १११५-गंधबरण बस्तीके स्तंभपर । इसमें नं० १२७ के समान मेषचंद्र तक है । इनके शिष्य प्रभाचंद्रकी समाधि सन् ११४५में हुई थी। मेघचंद्रके साथी बालचन्द्रके पुत्र शुभकीर्ति थे व मेघचंद्रके पुत्र बीरनंदी थे। महाराज विष्णुवर्द्धनकी रानी शांतलदेवी प्रभाचन्द्रकी शिष्या श्राविका थी।
(६) नं० ४ ० (६४) सन् ११६३-शांतीश्वर वस्तीके स्तंभपर। गौतमस्वामीसे लेकर भद्रबाहु, चंद्रगुप्त । उसी वंशमें पद्मनंदि या कुंदकुंद। उसी वंशमें उमास्वाति या गृहपिच्छ, फिर बलाक पिच्छ
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२७०] प्राचीन जैन स्मारक । उसी वंशमें समंतभद्र-इसी वंशमें देवनंदी, या जिनेन्द्रबुद्धि या पूज्यपाद (एक हीके तीन नाम) इसी वंशमें अकलंक-इसीमें
गोल्लाचार्य
पद्मनंदी या कौमारदेव
कुलभूषण
प्रभाचंद्र
कुलचंद्र
माघनंदि
माघनंदिके शिष्य थे-( १ ) सामंतकेदारनाकरस (२) सामंतनिम्बदेव (३) सामंतकामदेव ( ४ ) गंधर्वविमुक्तदेव (५) भानुयने (६) वृचिमय्या (७) कौरय्या (८) भरत (९) भानुकीर्ति (१०) देवकीर्ति-इनका समाधिमरण सन् ११६३में हुआ (११) हुल्ला (१२) लक्खनंदी (१३) माधव (१४) त्रिभुवनदेव । इनमें कई साधु व कई श्रावक श्राविका हैं।
इस लेख में है कि स्वामी पूज्यपाद जैनेन्द्र व्याकरण सवोर्थसिद्धि, समाधिशतक, जैनाभिषेकके कर्ता थे। वे प्रभाचन्द्र न्यायके किसी प्रसिद्ध ग्रन्थके कर्ता थे। माघनंदी कोल्हापुरमें तीर्थस्थापक थे। गंधविमुक्तके शिष्य श्रुतकीर्तिने राघवपांडवीय चरित्र लिखा।
(७) नं० ६६ (४२) सन् ११७६ । नं० ११७के समान । मलधारीदेव या श्रीधरदेव । श्रीधरदेवके माघनंदि, इनके शिष्य गुणचंद्र, मेघचंद्र, चंद्रकीर्ति, उदयचंद्र । गुणचंद्रके पुत्र नयकीर्तिकी समाधी सन् ११७६में । इनके साथी माणिक्यनंदि थे। यह भी गुणचंद्रके पुत्र थे।
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मदरास व मैसूर प्रान्त।
[२७१
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(८) नं० ६५ सन् १३१३
मेघचन्द्र नैवेद्य
तथा
कुलभूषण
वीरनंदि
माघनंदि
अनंतकीर्ति
शुभचन्द्र त्रैवेद्य
मलधारी रामचन्द्र
चारुकीर्ति
शुभचन्द्र समाधि १३१३ में
माघनंदि
अमेयशशि
पद्मनंदि
माधवेन्द्र
वालेन्द्र
रामचन्द्र
(९) नं० २५४ (१०५) सन् १३९८ । सिद्धेरवस्ती स्तंभ इसमें श्रीकुन्दकुन्द, उमास्वाति या गृद्धपिच्छ, बलाक पिच्छ समन्तभद्र, शिवकोटिके नाम हैं तथा इसीमें अहंदवली व उनके शिप्य पुष्पदंत भूतबलिके नाम हैं। फिर देवनंदि या पूज्यपाद या जिनेन्द्र बुद्धि, भट्टाकलंक, जिनसेन फिर ज्येष्ठ पुत्र गुणभद्र, फिर नेमिचन्द्र, माघनंदि, अभयचन्द्र, श्रुतमुनि इनके शिष्यके शिष्य अभिनव श्रुतमुनि थे। अभयचंद्रके छोटे भाई श्रुतकीर्ति उनके पुत्र चारुकीर्ति पंडितकी समाधि सन् १३९८में हुई फिर अमिनव पं० हए । इस लेखमें है कि उमास्वाति तत्वार्थसूत्र के कर्ता हैं जिसपर शिवकोटिने एक वृत्ति लिखी। (नोट-यह वृत्ति नहीं मिली है, पता लगाना चाहिये)।
तथा अर्हतबलीने मूलसंघके तीन भाग किये-नंदि, देव और
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२७२] प्राचीन जैन स्मारक । सिंह । नंदिके उपभेद गण, गच्छ और बलि थे। उनमें इंगुलेश्वर बलि, पुस्तक गच्छ देशीगण बहुत प्रसिद्ध हुआ है। इस संघके साधुओंके साथ चन्द्रकीर्ति, भूषण तथा नंदी लगा रहता है।
(१०) नं० २५८ (१०८) सन् १४३२ सिद्धेर वस्ती। सिद्धांत योगीके शिष्य श्रुतमुनिने समाधिमरण किया। श्रुतमुनिके शिष्य चारुकीर्ति थे जिन्होंने सारत्रयका संपादन किया है।
(११) नं० २६८ (११३) सन् ११७८ अखण्ड वागलूपर। इसमें उन जैन गुरुओं और आर्यिकाओंके नाम हैं जो पंचकल्याणक उत्सवके लिये वेलगोलामें एकत्र हुए थे।
(१२) नं० २३४ (८५) सन् ११८० । गोम्मट मंदिरके द्वारपर इस लेखमें श्री गोम्मटस्वामीकी प्रशंसामें दो श्लोक कन्नड़में कवि सजनोत्तांस कृत हैं यह प्रसिद्ध कन्नड़ कवि था जिसकी प्रशंसा केशिराजने अपने शब्दमणि दर्पणमें कवि पम्प, पन्न आदिके साथ की है। सारांश जैन शिलालेख हासन जिला एपिग्राफिका
कर्नाटिका जिन्द ५-ता० हासन । (१) नं० ५७ सन् ११५५ । हेरेगू ग्राममें जैन वस्तीके सामने एक पाषाण पर ।
होयसालवीर नरसिंहदेवके राज्यमें उसके बड़े मंत्री व ज्येष्ठ सेनापति चाविमय्या और उसकी भार्या जकब्बेने मंदिर बनवाया। सुवर्णके चेन्न पार्श्वनाथ विराजमान किये । अष्ट प्रकारी पूजाके लिये भूमिदान दी। इस जकब्बेके गुरु मूलसंधी देशीगण पुस्तकगच्छ कुंदके नयकीर्ति सिद्धांतचक्रेश्वर थे ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [२७३ (२) नं० ११२ सन् ११२०-मुतत्ती, माधवराय मंदिरके नवरंग मंडपके चार खंभोंपर ।
विनयदित्य दंडनायकने होयसाल जिनालय बनवाया। उसके लिये राजा विष्णुवर्द्धन होयसालदेवने मूलसं० दे० ग० पु. ग. कुंद० मेघचंद्र त्रैवेद्यदेवके शिष्य प्रभाचंद्र सिद्धांतदेवकी सेवामें भूमि भेट की। ___ (३) नं० ११९ सन् ११७३-मरकलीग्राम, जैन वस्तीके सामने-होयसाल बल्लालदेवके राज्यमें शांतिके महामंत्री बूचि मय्या
और उसकी भार्या सान्तलेने सिगनाडके मरकल्लीग्राममें त्रिकूट जिनालय बनवाया। और उसी ग्रामको दामिल संघके अरुन्गलान्वयी श्रीपाल त्रैवेद्यके शिप्य वासुपूज्य सिद्धांतदेवके पग धोकर पूजाके लिये अर्पण किया। यह वीचे मय्या कन्नड़ नो संस्कृतका विद्वान था तथा हेगड़े चलप्पाने आम, रंग करधे व तेल मिलको सबको पूजार्थ दिया।
(४) नं० १२९ सन् ११४० ई० । मुगुलूर ग्राममें अन वस्तीकी मूतिके आसन पर । यहां श्रीपाल त्रैवेद्यदेवके श्रावक शिप्य मारिसेठी और गेबीसेठीने एक जिन मंदिर बनवाया व श्रीपार्श्वनाथनीको स्थापित किया तथा भूमि दान की।
(५) नं० १३ . करीब सन् ११४७ ई इस वस्तीके द्वार पर । श्रीअजितसेन भट्टारकका शिप्य बड़ा सर्दार पर्मादी था उसका ज्येष्ठ पुत्र भीमय्या, भार्या देवालव्वे उनके दो पुत्र थे-मसनीसेठी, व मारीसेठी। मारीसेटीने दोर समुद्रमें एक उच्च जैन मंदिर बनवाया। उसके पुत्र गोविंदने मुगाली में एक जैन मंदिर बनवाया। इसके दो पुत्र थे-विट्टीसेठी, बनाकीसेठी । इस गोविंद जिनालयके लिये महा
१८
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२७४] प्राचीन जैन स्मारक। राज नरसिंह होसालदेवके राज्यमें भरत राजदंड नायकने श्रीपाल त्रैवेद्यदेवके शिष्य वासपूज्य सिद्धांतदेवके चरण धोकर भुंगालीमें भूमि दानकी व दीपके लिये आधा मनी तेल व नगरपर आनेवाली वस्तुपर एक वीसा कर लगा दिया ।
(६) नं० १३१ सन् १११७ ? वहीं-द्रामिलसंघ नंदिसंघ अरंगुलान्वयके पुप्पसेन सिद्धांतदेवके शिष्य वासपूज्यदेवने समाधिमरण किया ।
तालुका वेतुल । (७) नं० १७ सन् ११३६ पाषाण हेलविडसे लाकर वेलुरमें स्थापित किया गया । महाराज विष्णुवईनके राज्यमें विष्णु दंडाधिप महाप्रचंड, दंडनायक, सर्वाधिकारीने जो श्रीपाल त्रैवेद्यदेव वादी नरसिंहका शिप्य था यादवोंकी राज्यधानी दोर समुद्र में विष्णुवर्द्धन जिनालय बनवाया तब इम्मपी दंडनायक विट्टियनाने पूजाके लिये ग्राम विजुवोलाल व अन्य भूमि दी । उसके गुरुकी वंशावलीका सार यह है
समन्तभद्र, पात्रकेशरी द्रामिल संघाधीश, वक्रग्रीव, वजनंदी, सुमति भ०, अकलंक, चन्द्रकीर्ति भ०, कमप्रकृति, विमलचंद्राचार्य जो पल्लव रानाका गुरु था, परवादि मल्लदेव, कनकसेन वादिराजदेव, श्रीविनय भ० जो गंगकुल कमलबुटुक परमादीके गुरु थे, वादिराजेन्द्र जो राना जयसिंहदेवके गुरु थे, अनितसेनस्वामी, साथी कुमारसेन सैद्धांतिक जो वर्तमान काल में तीर्थनाथके समान थे, अनितसेनस्वामी, मल्लिषेण मलधारी जो गणधर समान थे, श्रीपाल वादीभसिंह ।
(८) नं० १२३ सन् ९५२ ई० हेलबिडमें वस्ती हल्लीमें लकनावीरन्ना मंदिरके पास एक स्तम्भपर । जब नन्नियगंज जय
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मदरास व मैसूर प्रान्त |
[ २७५ हुत्तरंग बुटक राज्य कर रहे थे, तब कुंद ० के भ० गुणसागर के शि० म० गुणचन्द्रके शिष्य मौनी भट्टारकने समाधिमरण किया तब अभयनंदि पंडित भट्टारकके शिष्य किरियामौनी भ०के उपदेशसे उनका स्मारक स्थापित हुआ I
(९) नं० १२४ सन ११३३, वस्तीहल्ली में पार्श्वनाथजीके बाहरी भीतपर एक पाषाण ।
महाराज विष्णुवर्द्धनके राज्यमें मुख्य दंडनायक कौंडिन्यगोत्री गंगराजा थे जो एची राजा और पाचाम्बिकेके पुत्र, कर्णाट ब्राह्मणोंके मुखिया, दानमें श्रेयांश जैनसिद्धांत में रत्न, वीरभट्टका मुकुटाधिश; इसने बहुतसे जिन मंदिरोंका जीर्णोद्धार कराया । राजा गंग कहता है इस जगतमें सात नर्क ये हैं (१) असत्यवाद, (२) युद्धमें भय ( ३ ) परस्त्री रति, (४) शरणागतको न रखना, (५) याचकोंको तृप्त न करना, (६) आधीनोंका साग, (७) स्वामीविद्रोह । गंगराजा व देवी नागलसे वोप्पा चामृप पुत्र हुए। इसके गुरु कुन्द० मलधारी के शिष्य शुभचन्द्रदेव थे । गंगमंडलके आचार्य प्रभाचन्द्रदेव सिद्धांतिक थे । इस सुन्दर जिनमंदिरको वोप्पादेवने दोरसमुद्रमैं जो शाहीनगरोंमें सबसे बड़ा था, अपने पिता गंगरा - जाकी स्मृति में बनवाया और श्री पार्श्वनाथजीको स्थापित किया । प्रतिष्ठा नयकीर्ति सिद्धांत चक्रवर्ती द्वारा हुई। यह मंदिर द्रोहघरट्ट जिनालय मूलसंघी देशीगण पुस्तकगच्छ कुन्द० हनसगेवलि सम्बन्धी कहलाता था ।
प्रतिष्ठा के पीछे पुजारीलोग शेषाक्षत लेकर महाराज विष्णुवर्द्धनके पास दरबार में वंकापुर गए । उसी समय महाराजने मसन
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२७६ ] प्राचीन जैन स्मारक । नाम शत्रुको वधकर उसका देश प्राप्त किया था तथा उसकी रानी लक्ष्मी महादेवीको पुत्रकी प्राप्ति हुई थी उसने उन पुजारियोंको वंदनाकी, गंधोदक और शेषाक्षत् मस्तकमें मगाए । महाराजने कहा कि क्योंकि इस भगवानकी प्रतिष्ठाके पुण्यसे मैंने विनय पाई व पुत्रका जन्म पाया इसलिये मैं उन भगवानको विजयपार्श्व नामसे पुकारूंगा तथा मैं अपने पुत्रका नाम विजय नरसिंहदेव रखता हूं। तथा मंदिरके जीर्णोद्धारादिके लिये आसन्दीमें जावगल ग्राम भेट किया। तेलके व्यापारी दास गौडने पुनारी शांतिदेवके नाम भूमि दी उस समय मूलसंधी नयकीर्ति सिद्धान्त चक्रवर्तीके शिप्य नेमीचन्द्र पंडितदेवका शिप्य मंडल उपस्थित था ।
(१०) नं० १२५ ता० १२५४ ऊपरकी वस्तीके एक तरफ । होसालवीर नरसिंहदेवरसने बोधदेव दंडनायककी वस्तीके दर्शन किये और भगवान श्रीविजय पार्श्वनाथको भेटकी, इस शासनको पढ़ा । बोधदेवके साले पदमीदेवने मंदिरका घेरा व १ घर बनवाया था उसकी मरम्मत नरसिंह महाराजने कराई।
(११) नं० १२६ ता० १२५५ वहीं । नरसिंहदेव रसने अपने उपनयन संस्कारके समय श्रीविजयपार्श्वकी सेवामें भेट की।
(१२) नं० १२७ ता० १३०० ई०के करीब। इसी वस्तीके बाहरी भीतमें एक स्तम्भपर । यहांसे उत्तर पूर्व १५ हाथ शांतिनाथस्वामी ६ हाथ ऊंचे भूमिमें विरागित है। कोई निकालकर विराजमान करे।
(१३) नं. १२८ ता० १६३८ ई० इसी वस्तीके अंगनमें विलपुरीके चेन्नवेंकटेश्वरके राज्यमें हुल्वाप्पादेवने विजयपार्श्व बसदीके
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मदरास व मैमूर प्रान्त। [२७७ एक खंभेपर लिंगका चिह्न कर दिया। इसको विजयप्पाने मिटा डाला । इसपर यह मामला देवष्टथ्वी महामात्य आदिके पास गया। हासनके पद्मप्पा सेठी आदि गए, उन महामात्ओंने यह तय किया कि पहले विभूति और विल्व महादेवको चढ़ाकर फिर विजयपार्श्वकी पूजा पहली रीतिसे करो । जो जैनधर्मका विरोध करेगा वह शिवका द्रोही समझा जायगा।
(१४) नं० १२९ ता० ११९२ ई० इसी वस्तीके द्वारके पास-वीर वल्लभदेवके राज्यमें श्री मुनि बालचंद्र वक्रगच्छी देशीगण मूलसंघीके समयमें व्यापारी कवदमप्पा और देवी सेठीने शांतिनाथ वस्तीके लिये गांव दान किया व इइगे नल्लरसप्पाके पुत्र अप्पया, गोयप्पा, वृचय्याने श्री मल्लिनाथजीके लिये मांडवी बालचंद सिद्धांतदेवके शिप्य रामचंददेवकी साक्षीसे द्रव्य दिया।
(१५) नं० १३१ सन् १२७४-इसी ग्राममें आदिनाथेश्वर वस्तीमें मुनि बालचंद पंडितदेव प्रसिद्ध तपस्वीने पल्यंकासन धार समाधिमरण किया । इन्होंने सारचतुष्टयपर टीकाएं लिखी। (शायद सारचतुष्टय, कुन्दकुन्दकत पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार व नियमसार हैं)व अन्य ग्रंथ रचे । इनके ग्रंथोंसे नेमिचंद्र पंडित देवने सुना । यह बालचन्द अभयेन्द्र योगीके पुत्र व माधनंददेव मूलसंघ दे० ग० पु० ग० इंग्लेश्वरवलीके प्रिय शिष्य थे तथा नेमचन्द्र सिद्धांतदेव इनके दीक्षागुरु व अभयचंद सि० देव इनके श्रुत गुरु थे । दोरे समुद्रके सब भव्योंने स्मारकमें अपने गुरुकी व पंचपरमेष्ठीकी मूर्तियें बनवाई। इस लेखमें संस्कृत श्लोकोंमें भी कथन है । कुछ श्लोक ये हैं
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प्राचीन जैन स्मारक ।
श्रीजैनागमवार्धिवर्द्धनविधु: कंदर्प दर्पाप हो । भव्याम्भोज दिवाकरो गुणनिधिः कारुण्यसौधोदधिः ॥ स श्रीमान् अभयेन्द्र सन्मुनिपतिप्रख्यात शिष्योत्तमो । जीव्यात् कावानिशम् निजात्मनि रतो बालेन्द्र योगीश्वरः ॥ पूर्वाचार्यपरम्परागतजिनस्तोत्रागमाध्यात्मस । च्छास्त्राणि प्रथितानि येन सहसा भुवन्निलामंडले ॥ श्रीमन्मान्येमयेन्दुयोगिविबुधप्रख्यातसत्सूनुना ।
बालेन्दु व्रतियेन तेन लसति श्री जैनधर्मोधुना ॥ भावार्थ - यह है कि वे बालचंद्र योगीश्वर जयवंत हों जो श्री जैन आगमरूपी समुद्रके बढ़ानेको चंद्र है, कामके अभिमानको खंडनेवाले हैं, भव्य कमलके प्रफुल्लित करनेको सूर्य हैं, गुणोंके सागर हैं, दयाके समुद्र हैं, श्री अभयचंद मुनिपतिके प्रसिद्ध शिष्योत्तम हैं व अपने आत्मामें रत हैं, व जिसने इस जगत में आचार्योंकी परम्परासे स्तोत्र व शास्त्र रचे, ऐसे बालचन्द्र महाव्रतीसे जैनधर्मकी शोभा है ।
२७८ ]
(१६) नं० १३२ सन् १२७४ ई० ? उसी वस्तीमें समाधि मंडपकी बाईं ओर । अभयचंद्र सिद्धांतदेव टीका करते हैं - बालचन्द्र पंडित सुनते हैं । बालचन्द अक्षपादकी युक्तियोंको खंडन करनेवाला है ।
(१७) नं० १३३ सन १२७९ यहीं शांतीश्वर वस्तीमें पहली मूर्तिके पाषाणपर । देशीयगण पुस्तकगच्छ कुन्द० इंग्लेश्वर घलिमें श्रीकुलभूषण सिद्धांतिक थे जिनका शिष्य सामन्त निम्बदेव थे यह बड़े जिन मंदिर के संस्थापक थे । इनके तपोगुरु माघनन्द सिद्धांत चक्रवर्ती थे । गन्ध विमुक्त मुनिका शिष्य शुभनंदि सिद्धांती उसका शिष्य चारुकीर्ति पंडितदेव उसका शिष्य श्रीमाघनंदि मट्टारक, इसके दो
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२७९ शिष्य थे-नेमिचन्द भट्टारकदेव व अभचन्द्र सिद्धांती । ये बड़े नैयायिक व तत्वज्ञानी थे। ये दोनों श्रीबालचन्द्र व्रतीशके क्रमसे दीक्षा गुरु और श्रुत गुरु थे। अभयचन्द्र सिद्धांतिकने पर्यकासनसे सन्यास लिया । दोर समुद्रके वासियोंने उनका स्मारक बनाया।
(१८) नं० १३४ ता० १३०० ई० वहीं दूसरी मूर्तिके पाषाणपर । श्रीबालचन्द्र पंडितदेवके शिष्य रामचन्द्र मलधारीदेवकी समाधि, पर्यकासनसे सन्यास लिया । श्रीरामचंद्रके शिप्य श्री शुभचन्द्रदेव थे।
(१९) नं० १३८ सन् १२४८ । ग्राम हीरेहल्ली मल्लेश्वर मंदिरकी दक्षिण भीतपर पाषाण । द्रामिलसंघी वासुपूज्य मुनि शिप्य पेरूमलदेवके शिष्य श्रावक, होन्नेगोविंद और जक्का गोविंदीके पुत्र अप्पाने जिनमंदिर बनवाया और भूमि दान दी।
तालुका आरसोकेरी । (२०) नं० १ सन् ११६९ ई०-ग्राम बंदियरमें जैन वस्तीके . पाषाणपर-इस समय होयसाल वल्लालदेव दोरसमुद्रमें राज्य कररहे थे। यहां मुनि बंशावली दी है। श्री गौतम, भद्रबाहु, भूतबलि, पुष्पदंत, एकसंघि, सुमति भ०, समंतभद्र, भट्टाकलंकदेव, वक्रग्रीवाचार्य, वजनंदि भट्टारक, सिंहनंद्याचार्य, परवादीमल्ल श्रीपालदेव, कनकसेन, श्रीवादिराज, श्रीविजयदेव, श्रीवादिराजदेव, अजितसेन पंडितदेव, मल्लिषण मलधारीदेव, श्रीपालयोगीन्द्र, इनके शिष्य श्री वासपूज्य व्रतीन्द्र थे इनके शिष्य श्रावक बलदेव थे, भार्या सावियक्का-इनके पुत्र वेल्लिय दास सेठ भार्या वोकीयके, इनकी बहनके पुत्र थे-हेगड़े मादिराज, शंकरसेठी, वेल्लिय दास सेठने दोरसमुद्रमें
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२८० ]
प्राचीन जैन स्मारक |
होयसाल जिनालय बनवाया था उसके लिये यह ग्राम दिया था । यहां मादिराज और शंकरदेवने श्रीपार्श्वदेवका मंदिर बनवाया जिसकी प्रतिष्ठा पुष्पसेन देवने की । व अष्टविध पूजाके लिये श्रीवासपूज्य सि० देवके चरण में भूमि भेट की जिसको उन्होंने वृषभनाथ पंडि तके सुपुर्द की ।
(२१) नं ० ३ ग्राम जवगल्लू । जैन मंदिरके पाषाणपर । कुन्द० दे० ग० म० अमरचरकी शिष्या आर्यिका १ मासमें आठ उपवास करनेवाली ९७ वर्ष जीकर समाधिमरण । इनके सह
पाठी गुणचन्द्र भट्टारक थे।
(२२) नं० ७७ सन् १२२० | आमीवेरीनें शिव मंदिरके सामने पाषाणपर। जब होयसाल बीर वल्लालदेव दोर समुद्र में राज्य करते थे तब उनके आधीन प्रसिद्ध मंत्री कलसूर्यवंशी राचरस थे । इन्होंने सहस्रकूट जिनकी मूर्ति बनवाई तथा राजासे लेकर ग्राम हंदरहाल भेट किया । इसके गुरु मूलसंधी दे० ग० पुस्तक गच्छ, इंग्लेश्वर बलि माघनंदि सिद्धांतदेव के शिष्य शुभचन्द्र त्रैविद्यदेव इनके शिष्य सागरनंदि सिद्धांतदेव थे। दूसरे जैनियोंने सहस्रकूट जिन मंदिर और कोट बनवाया । इस मंदिरको एक कोटि जिनालय कहते हैं तथा जैनियोंने शांतिनाथका एक और मंदिर बनवाया, राजाने भूमि दान दी। इस लेख में आरसीकेरी नगरकी बहुत प्रशंसा है ।
(२३) नं० ७८ सन् १२३० ई० ? उसी पाषाणपर कुमारी सोवलदेवी, हेगड़े दत्तप्पाके छोटे भाई सिंगप्पाने, ब्राह्मणोंने व १००० कुटुम्बोंने द नागरिकोंने सहस्रकूटके लिये भूमि दी ।
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[ २८१
मदरास व मैसूर प्रान्त | (२४) नं० १४१ सन् १९९९ - करुगुन्डुग्राम, जैन वस्तीके दाहनी ओर पाषाण
जब दोरसमुद्र में नरसिंहदेव राज्य करते थे तब उनका दंडाघिनाथ जैन श्रावक भद्रादित्य काश्यपगोत्री अलन्दापुर में राज्य करता था । इसका बड़ा पुत्र तैलदंडाधिप था, इसका पुत्र चाउन्ड युद्ध व शांतिका मंत्री था । इसकी भार्या देकमव्वे थी, पुत्र माघपरिसन्ना था । भार्या बम्मलदेवी थी । इस देवीका पिता महामंत्री मरियने थे माता जव्वे थी, छोटे चचा भरतदंडनाथ थे । परिसन्ना के पुत्र शांत थे। परिपन्नाके गुरु श्रीवासुपूज्य सिद्धांतदेव थे, यह बड़ा वीर था । इसने अमलसे युद्धकर शत्रुकी सेनाको नष्ट किया तब राजाने निर्गुडनादमें करगुंडग्राम दिया । परिसन्ना के स्वर्गवास होनेपर उसके पुत्र शांतिदंडनायकने एक जिनमंदिर बनवाया और भूमिका दान श्रीवासुपूज्य मुनिके शिष्य मल्लिषेण पंडितके सन्मुख किया ।
(२९) नं० १६४ सन् ९७० अनुमान - गंदसी ग्रामके उत्तर द्वारपर पाषाण । श्री जिनसेन भट्टारकके शिष्य गुणभद्रदेव थे इनकी शिया आर्यिका कादम्बेकान्ती थी । तब सत्यवाक्य कोंगनी वर्मा धर्म महाराजाधिराज राज्य करते थे, यह आर्यिकाका स्मारक है ।
चामराय पाटन ता०
श्रवणबेलगोला इसी में गर्भित है । उसके शिलालेखोंका वर्णन कर चुके हैं । अन्य स्थलोंके नीचे प्रमाण हैं
(२६) नं० १४६ सन् १९०४, ग्राम बेक्का | जैन वस्तीके सामने पाषाणपर । जब समुद्र में प्रताप होयसाल बल्लालदेव राज्य
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२८२] प्राचीन जैन स्मारक । कर रहे थे तब हुल्ला दंडाधिप मुख्य मंत्री था। तथा मूलसंघी देशी ग० पुस्तक ग० कुन्द० गुणभद्र सिद्धांतदेवके शिष्य महामंडलाचार्य नयकीर्ति सि० देव थे उनके शिष्य भानुकीर्ति व्रतेन्द्र थे तब बल्लाल राजाने पार्श्वनाथकी पूजाके लिये मेरुहल्ली ग्राम दिया तथा हुल्लाने वीर बल्लाल राजासे ठेक्का ग्राम श्री गोम्मटस्वामीकी पूजा व भोजन दानके लिये दिलवाया।
(२७) नं० १४८ सन १०९४ उसी स्थानपर दूसरे पाषाणपर जब त्रिभुवनमल्ल एरयंग पोयसाल गंग मंडलमें राज्य करते थे तब महाराजने कुंद० मूलसंघी चतुर्मुख देवके शिष्य आचार्य गोपानंदीकी भक्ति करके बेलगोलाके कव्वप्पु तीर्थके मंदिरोंको जीर्णोद्धारके लिये राचनहल्ल और बेलगोला १२ भेट किये।
(२८) नं० १४९ सन् ११२५ उसी स्थानपर तीसरा पाषाण। वीर विष्णुवर्डनदेवके राज्यमें, विष्णु राजाने श्रीपाल विद्यदेवकी भक्ति करके सल्द ग्राम भेट किया। श्रीपाल मुनिको उपाधियां थींवादीभसिंह, वादि कोलाहल, तार्किक चक्रवर्ती। यह अकलंक मठके रक्षक थे, तीन शल्य रहित थे, इनके वंशके मुनि थे-समन्तभद्र, वादीमसिंह, अकलंकदेव, वक्रग्रीवाचार्य, श्रीनंद्याचार्य, सिंहनंदि आचार्य, विजय शांतिदेव, पुष्पसेन सिद्धांतदेव, शांतिसेनदेव, कुमारसेन सिद्धांतिक, मल्लिषेण मलधारी ।
(२९) नं० १५० सन् ११८२ ग्राम बुदुट्टी, अमृतेश्वर मंदिरके पाषाणपर । जब दोर समुद्रमें वल्लालदेव राज्य करते थे तब जैनधर्मी विद्वान चंद्रमौली मंत्री भूषण थे । उनकी स्त्री अचलादेवीने जिनके बड़े भाई देशी दण्डनायक थे व गुरु मूलसंघ दे.
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [२८३ ग० पुस्तक ग• कुन्द० गुणभद्र मि०देवके शि० नयकीर्ति सि. देवके अध्यात्मीक बालचन्द्र मुनींद्र थे, वेलगोलामें जिनपति पावनाथका मंदिर बनवाया, तब महाराजने पूजार्थ ग्राम बम्मेयनहल्ली भेट किया।
(३०) नं० १५१ सन् १२०० करीब । उसी मंदिरके सामने वल्लालराजाके राज्यमें श्रीपालयोगीन्द्रके मुख्य शिप्य वादिराजदेव थे । उन्होंने अपने गुरुके स्वर्गवासपर सल्प ग्राममें परमादी मल्ल जिनालय बनवाया। कुन्दच्छनायककी स्त्री राचवनायकके पुत्र कुंदद हेगड़ेने नयचक्रदेवकी आज्ञासे जैनमंदिर बनवाया । तब महामंत्री व सर्वाधिकारी उत्सवोंके प्रबंधक कम्मट माचय्या और उनके श्वसुर बालप्पाने मंदिरजीमें दीपकके लिये तेलकी मिलोंपर कर बिठाया । महामंत्री व भंडारी हल्लय्याके साले अश्वोंके प्रबंधक हरिपन्नाने कुम्वयनहल्ली ग्राम भेट किया। श्री वादिराजदेवके बड़े भाई परवादीमल्ल पंडित तथा उयाद थे। ___(३१) नं० १६६ सन् ११८६ ग्रामगंदासी, एक पाषाण'पर । यहां ग्राममें मोन गनकट्टके स्वामी रामदेवने एक ऊंचा जिन मंदिर बनवाया। इसके गुरु अध्यात्मिक बालचंद्रके शिष्य मुनि मेघचंद्र थे। श्री शांतिनाथकी पूजा, मंदिर जीर्णोद्धार व दानके लिये बनवासीके स्वामी मोल्तादनायक व डिंदीयूर वृति व मेले १०००के गौंड और प्रभू लोगोंने भूमि दान की। ___(३२) नं० १९८ सन ११३०के करी । तगदूरु ग्राममें पुराने ग्रामके स्थानके पाषाणपर। वीरगंग विष्णुवर्द्धनके राज्यमें । उनके दंडाधिप मरियाने और भरत राजा थे। मरियानेकी भार्या
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कने ताग
मुनिका जीपुर तागुम्बी, मा
२८४] प्राचीन जैन स्मारक । जक्कनव्वे थी। इनके पुत्र भरत और बाहुबलि थे। मींची राजा और मरुदेवीकी कन्या चामियक्का थी। इसके भाई चौंड और कूचियन थे। इस चामियकाने नयकीर्तिके स्वर्गवास पीछे तगदूर में जिनालय बनवाया व दान दिया । सागौंडके पुत्र एयगोविंद और मल्लय नायकने तागदूर व वम्मगट्ट ग्राम दिये व रायगौंडोंने कोठीपर भूमि श्रीकल्याणकीर्ति मुनिपकी सेवामें भेट की।
होले-नरसोपुर ता० । (३३) नं० १६ करीब १०८० ग्राम गुब्बी, मादलहमिगेकी भूमिमें एक खम्भेपर। महामंडलेश्वर त्रिभुवनमल्ल चोल कांगलदेवके सेवक रावसेव्यके पोते अदरादित्य उनके आधीन सरदार बुवेय अदियायकने श्रीपद्मनंदिदेवकी सेवामें भूमिदान की।
अकलगुड ता० । (३४) नं० १२ सन् १२४८ ग्राम मललकेरी, ईश्वर मंदिरके सामने पाषाणपर । गंग होयसाल प्रताप चक्रवर्ती वीर सोमेश्वरदेवके राज्यमें मूल सं० दे० ग० पुस्तक ग० कुन्द० माघनंदव्रतीके शिष्य भानुकीर्ति उनके शिप्य माघनंदी भट्टारक इनका शिप्य श्रावक सोवरस था। उसके पुत्र सेनाधिपति शांतने यहांके श्री शांतिनाथ जिनमंदिरका जीर्णोद्धार कराया और सुवर्ण कलश चढ़ाया व पूनादानके लिये भूमि दान दी।
(३५) नं० ९६ सन् १०९५-सोमेश्वर ग्राममें वासव मंदिरके खंभेपर-स्मारक अर सव्वे गंती आर्यिकाका जो सुराष्ट्रगण केकलनेलेके श्री रामचंद्रदेवकी शिष्या थी।
(३६)नं०९७ ता० १०९५ करीब । वहीं मुखमंडपके पास ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२८५ दुद्दामलदेवके रसोईकार जकय्याने जैन मंदिर बनवाया।
(३७) नं. ९८ ता० १०६० करीब । वहीं बाहरी भीतमें। स्मारक एचलादेवी अनेक गुरु द्राविलगण नंदिसंघ अरुंगलान्वयके गणसेन पंडित थे।
(३८) नं० ९९ सन् १०७९-पुराने जैनमंदिरके पास वही ग्राम जब ओरयूर नगरमें राजेंद्र पृथ्वी कोगल राज्य करते थे तब जैन कोंगलराना अदुतादित्यने जैन मंदिर बनवाया व तरिगलनीमें भूमि दान दी, सिद्धांतदेव प्रभाचंद्र उदय सिद्धांत रत्नाकरकी सेवामें मंदिर बनवाया, मूलसंघ कानूरगण तगरीगल गच्छके गंधविमुक्त सिद्धांतदेवके उपदेशसे ।
(३९) नं० १०२ करीब सन् १०८०, मदतापुरमें, गोनी वृक्षके नीचे । श्री कलाचंद्र सिद्धांतदेव भट्टारकके शिष्य अमलचंद्र भट्टारकली शिप्या श्राविका नल्लरसाने अरकेरीमें जैनमंदिर बनवाया।
ता० मंजराबाद । (४०) नं० ५५ सन १०३५के करीब । बल्लू ग्राममें। जैन कादव वंशी राजा नीति मथेराजीने समाधिमरण किया ।
(४१) नं० ५८ सन १४२० के करीब। ग्राम बेलामी-ग्रामके द्वारके पास । महाराज वीर प्रतापदेव रायमहारानकी आज्ञासे महामंत्री बैचे दंडनायकने श्री गोम्मटस्वामीकी पूजाके लिये ग्राम बेलमी जो मेगूनादमें है उसे दान किया ।
(४२) नं० ६७ सन ९७० के करीब । बालू ग्रामके पास क्राफोर्डके कहवाके बागमें भूमिसे एक जैन मूर्ति धातुकी निकली। उसके आसनपर लेख-स्मारक श्री लक्ष्मीदेवी जो प्रसिद्ध नोलम्ब
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२८६] प्राचीन जैन स्मारक । कुलांतककी भगिनी थी-महाराज जगदेकमल्ल गंगवंशके रत्न थे।
कोंगल्वंश-ओरदूरमें राज्य करते थे जो ट्रिचिनापलीके पास प्राचीन चोलोंकी राज्यधानी थी। ये जैनधर्मी थे। इनके राजाओंके नाम ये मालूम हुए हैं (१) वादिम (२) राजेन्द्र चोलएथ्वी महाराज सन १०२२ (३) राजेन्द्र चोल कोंगत्त १०२६ (४) राजेन्द्र पृथ्वी कोंगलदेवके अदतरादित्त्य १०६६-११०० (६) त्रिभुवनमल्ल चोल कोंगलदेव अदतरादित्य-११०० दर्शनीय शिल्पके जैन स्थान-श्रवणबेलगोलाके जिनमंदिरोंके सिवाय एक्कोटि जिनालय आरसीकेरी व जैन वस्ती, वस्तीहल्ली हेलविड़की देखनेयोग्य है।
-1300DER
(६) कादर जिला। यह शिमोगाके पास है-पूर्वमें चीतलदुग, दक्षिणमें हासन, पश्चिममें दक्षिण कनड़ा। यहां १९०१के पहले १३०८ जैनी थे। इतिहास-प्राचीनकालमें पश्चिम भाग कादम्बोंके व शेष गंगवंशके आधीन था । आठवीं शताब्दीके अनुमान सन्तारा राज्य शिभोगा जिलेके पोम्बूछे या हूमचमें स्थापित हुआ था। इन्होंने अपना राज्य इस निलेके दक्षिण कलसतक पीछे इनकी राज्यधानी सिसिलया सिसुगली हुई जो मुदगेरीमें घाटोंके नीचे है । पीछे उनकी राज्यधानी दक्षिणकनड़ाके कारकलमें होगई। इन्होंने चालुक्योंकी आधीनता स्वीकार की थी। ये पक्के जैनी थे जैसा लिखा है
At one time they acknowledged suprermacy of Chalukyas and were staunch (ains
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२८७ पुरातत्व-सोसेवियर वा अंगदीमें बहुत दिया जैन मंदिर हैं अब वे ध्वंश होगए हैं । यह स्थान होयसालोंकी मूल उत्पत्तिका है । यहां खुदाईके पांच नमूने बढ़िया हैं।
यहांके मुख्य स्थान। (१) अंगदी-ता० बुदगेरी-यहांसे ७ मील । यही प्राचीन सोसेवियर या शसिपुर या शसिष्टकपुर है । यहां दो जैन मंदिर सुंदर व प्राचीन हैं। होयसालोंकी देवी वासंतकी थी जिसकी यहां बहुत मान्यता थी।
(२) कलस-ता; मुदगेरी यहांसे उत्तर पूर्व २४ मील । यहां कलसेश्वरका बड़ा मंदिर है। यह मूलमें जैन मंदिर था। तेरहवीं शताब्दीके ताम्रपत्रमें जैन महारानीका दान पत्र है। पाषाण लेख सन् १५ वी व १६ वीं शताब्दीका है जो कारकलके भैररस ओडयरोंका है।
३) श्रृंगेरी-तुंगा नदीपर ग्राम १५ मील दक्षिण पश्चिम ता० मुदगेरी। यहां (वीं शताब्दीके शंकराचार्यका मठ है । इसने जैन और बौद्धका बहुत साहित्य नष्ट किया-एक जैन मंदिर भी है।
(४) वस्तरा-ता चिकमगल्टर-यहांसे दक्षिण पश्चिम ६ मील। इसको शांतरस हूमश राजाओंने बसाया था। यहां पद्मावती देवीका पुराना मंदिर है। इसमें बड़ी सुन्दर बड़ी मूर्ति सप्त मातृकाकी है तथा एक राजा और उसके मंत्रीकी मूर्ति बैठी हुई आमने सामने हैं। यह बहुत ही बढ़िया शिल्पकला है। शायद ११वीं शताब्दीकी हो । इस जिलेके कुछ जैन शिलालेख (एपिग्रैफिका कर्णाटिका जिल्द छठीसे )
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___२८८] प्राचीन जैन स्मारक ।
ता. कादूर। (१) नं. १ सन् ९७१ ई. किलेके द्वारके स्तम्भपर । गंगवंशी इम्मादी धोरा महारानकी बड़ी रानी पाम्बव्वे थी। यह महाराज बुटुगकी वहन थी। यह बुटुग गंगराजा निसने एरयप्पाके पुत्र रायमल्लको मारकर सिंहासन लिया था ( See E. C. v. III p. 41 ) शाका (७२ या सन् ९५० में । राजा धोरा या धोरधाकी कन्या बोदियव्वा बंदिगको विवाही गई थी जो कृष्णराजाके आधीन था ( जैसा संगवनेरके लेख शाका ९२२ में है) यह राष्ट्रकूट वंशी कृष्ण तृ० अकालवर्ष था (९३९-९६८) इसकी बहन बुटुगको विवाही गई थी।
(सं० नोट-यह गंगवंशी और राष्ट्रकूट वंशीके परस्पर विवाह सम्बंधका नमूना है) यह पाम्बव्वे आर्यिका गुरानी नानव्वे कंतीकी शिप्या थी। यह नानव्वे कंती आभिनंदि पंडितदेवकी कन्या व देशी ग. कुंद० देवेन्द्र सि० देवके शिष्य चन्द्रायण भ० के शिप्य गुणचंद्र भट्टारककी शिष्या थी।
इसने केशलोंच किया । इसने ३० दिनका उपवास धारण किया । समाधिमरण किया ।
(२) नं. ३६ सन १२०३ ई० ग्राम बक्कलेगिरि । बान रघुनाथ मंदिरके बाहरी हालेमें | जब होयसाल वीरबल्लाल लाके गुंडीमें राज्य करते थे तब उनके महामंत्री सर्वाधिकारी अमितव्वादंडनायकने लोक्कुहंडीमें जैन मंदिर बनवाया व अपने चार भ्राताओंके साथ ओकलुगिरिमें एकोटि जिनालय बनवाया व श्री नयकीर्ति पंडितके चरण धोकर श्री शांतिनाथजीके लिये दान
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [ २८९. किया । मेघचंद्रके शिष्य प्रभाचन्द्र सिद्धांतदेव थे । उनके शिष्य जिनचंद्र थे, उनके शिष्य नयकीर्ति थे ।
ता० चिकमगलूर |
(३) नं० २ सन् १२८०, चिकमगलूर में लालबागके पाषाणपर । चिकमगलूर के मसनगौड़ के ज्येष्ठ पुत्र सोमेगोड़ने समाधिमरण किया । यह देशी० ग० पुस्तक ग० हनसोगेवाली कुन्द० मूलसंघ श्रेयांस भट्टारकका शिष्य था, उसके पुत्र हेगड़े गौड़ ने यह स्मारक स्थापित किया और अष्ट प्रकारी पुजाके लिये भूमि दी ।
(४) नं० ७५ सन १०६० के करीब | कादवंती नदीपर | मेल कादवंती चट्टानपर-जब सेनवरस वंशके खचरकंदर्प सेनमार राज्य करते थे तब देशी ग० पाशानान्वयके अदेव भट्टारक के शिष्य महादेव भट्टारके शिष्य श्रावक निर्वद्यने भेलसाको चट्टानपर निर्वयजिनालय बनवाया ।
(५) नं० १६० सन् १९०३ - ग्राम सिंदीगेरी । ब्रह्मेश्वर मंदिर में जब चालुक्य त्रिभुवनमल राज्य करते थे, उनके आधीन होमशाल विनयदित्य द्वारावतीपुरका स्वामी था । उसकी भार्या hotoदेवीने अग्ने छोटे भाईके समान गरियने दंडनायकको पाला व उसे दावे व दिगेरीका राज्य शाका ९६९ में दिया । विनयदत्तका पुत्र वीर गंज एरयंग उसका पुत्र बल्लाल था जिसने पद्मलदेवी, चखलदेवी, वेप्पदेवीको विवाह । । शाका १०२५में - ये तीन मरियने दंडनायककी कन्याएं थीं । दिष्णुवर्द्धन के राज्यमें अर्हतके चरणसेवी जैनी महामंत्री मरियने दंडनायक और भौश्वर दंडनायक थे । मरियनेने बहुत से युद्ध विजय किये ।
१९.
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२१०] प्राचीन जैन स्मारक ।
(६) नं० १६१ सन् ११३७-ऊपरकी वस्तीमें वरामदेके खंभेपर | जब दो समुद्र में वीरगंग होतालदेव राज्य करते थे, मरियने दंडनायकका पुत्र दुकरस था, उसके पुत्र वाचरस और सोवरस दंडनायक थे तब मरियने दंडनायकके भाई भरत दंडनायकने अपनी सर्वसम्पत्ति जैन मंदिर व दानके लिये अर्पण की । मूलसं. दे० ग० पुस्तकगच्छ कुन्द के कुलचंद्र ति देवके शिष्य माघनंदि गुरुके शिष्य गंधविमुक्त मुनि विद्यमान थे।
ता. मुद्गेरी। (७) नं. ९ ग्राम अंगदी, जैन वस्तीके पास विनयदित्य होसालके राज्यमें जकियव्वे गत्तीने आर्यिका होते हुए सर्व सम्पत्ति मोसपूरके जैन मंदिरके लिये दी तथा सुराष्ट्रगण के पंडित वज्रपाणिसे दीक्षा ली।
(८) नं० १० सन् ११००के करीब । उसी स्थानपर सेठी गंगदली का समाधिमरण, उसके पुत्र चातयने स्मारक खड़ा किया।
(२) नं० ११ सन् २.९० ई० ? उसी स्थान पर । दाविल संघ कंद ० पुस्तक गच्छके भ० त्रिकाल मुनिके शिष्य विमल चन्द्र पंडित देवने समाधिमरण किया ।
(20) नं० १२ मन ११७२ उसी स्थान पर । काम बरसने होन्गोकी वार्ड के लिये दान किया।
(११) नं० १३ सन् १८६९ वहीं । पोपलाला चारिक पुत्र मानिकपोपमालाचारीने इसन बन्तीको बनवाया और मुल्लू के श्री गुगसेन पंडदेव मा किया।
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२९१ (१२) नं० १५ सन् ११६४ वहीं । वीर विनय नारसिंह देवने वसतीके लिये दान किया।
(१३) नं० १६ सन् १०६० वहीं । सोसेबूरके व्यापारी लोकजीतका स्मारक नागरिकोंने स्थापित किया ।
(१४) नं० १७ सन् १०६२ वहीं-विनयदित्य पोयसालके गुरु शांतिदेव मुनिने समाधिमरण किया। नागरिकोंने स्मारक स्थापित किया ।
(१५) नं० १८ सन् १०४ ०के करीब । वही ग्राम हरमकी दोददूदाबेके स्थानपर एक पाषाण । महाराज राजमल गंगवाड़ीके मुनियोंमें प्रसिद्ध थे। उनके गुरु मुनि वज्रपाणि पंडितने सोसवरमें समाधिमरण किया।
(१६) नं० २२ सन् ११२९-ग्राम हन्तुरु-ध्वंश जैन मंदिरमें एक पाषाण । विष्णुवर्द्धनके ज्येष्ठ पुत्र कुमार वल्लालदेव जैनकी बड़ी बहन हरियबरसीने, जो जगतप्रसिद्ध गंधविमुक्त सिद्धांतदेवकी शिष्या श्राविका थी, कोदंगी नादमें भलेवाड़ीके हंतियूरमें एक उच्च चैत्यालय बनवाया व उसके शिषरोंमें रत्न जड़वाये व नीर्णोद्धारके लिये भूमि दान की।
ता. कोप्पू। (१७) नं० ३ सन् १०९० के करीब । कोप्प ग्राम । इस म्मारकको अपने गुरु मुनि वादीभसिंह अजितसेनकी स्मृतिमें महाराज मार संतारवंशीने स्थापित किया। यह जेन आगमरूपी समद्रकी वृद्धिमें चन्द्रमा समान था। यह मयूरवर्माका पुत्र था। इसकी
त्र
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२९२] प्राचीन जैन स्मारक । माता दत्तलवरुवंशके विनयदित्यकी बहन थी। यह मारकुंतल देशमें कोदम्ब नगरका शासक था।
(१८) नं० ४७ सन् १९३० कोप्प ग्राम केल्लवस्तीमें। नब बोम्मलदेवीका पुत्र वीर भैररस कारकलमें राज्य करते थे, तब उसकी छोटी बहन अपने खास हकसे वेगमनी सिन्नेपर राज्य करती थी। इसने केल्लवस्तीके श्री पाश्र्धनाथके लिये दान किया।
(१९) नं० ५० सन् १९९८, कोप्प ग्राम, पश्चिमकी ओर खाली भूमिमें । करिदलके मयिलानायक, आयर्या तलार दुग्गम्मा पुत्र पद्मनायक और देरेनायकने कोप्पमें साधन चैत्यालय बनवाकर श्री पार्श्वनाथको स्थापित किया । भैरस ओडियरने भूमि दी। पिंडयप्पा ओडियरने मुदकदानीर ग्राम दिया ।
संथार या संतास । . संथार राजाओंकी पहले राज्यधानी पट्टीपोरु बद्धपुर या हूमहमें नगर तामें थी। ये जैन थे। इनकी उत्पत्ति जिनदत्तरायसे है जो उग्रवंशमें उत्तरमपुराका राना था ।
जिनदत्तने बहुत प्रदेश दक्षिणने कलाल तक जीता व उत्तरमें गोवर्द्धनगिरि (सागर ता०) तक । पीछे इनकी राज्यधानी सिसिलपर वादमें कारकलमें हुई। दोनों दक्षिण कनड़ामें हैं।
कला और कारकल । मैसूरमें घाटोंके ऊपर कलश व नीचे कारकल है। यहां शिलालेखोंसे प्रगट है कि सन् १२४६ से १५९८ तक महारा. नियोंका प्रधानत्व रहा है । जाल महादेवीने सन् १२४६ से १२४७ में व कलाल महादेवीने १२७० से १२८१ तक राज्य
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मदरास व मैमूर प्रान्त। [२९३ किया था। सन् १२०९में वीर वल्लालदेव फिर मल्लदेव फिर मारुदेव राज्य करते थे । इसके पीछे उसकी बड़ी रानी विधवा पट्टदप्रिय अरसी जाकल महादेवीने राज्य किया। बहुत करके ये सब जैन थे। They were probably Juins.
कारकलके राजाओंकी सूची ४६६ वर्षकी सन् ११३२ से १९९८ तक (१) वल्लालदेव ११३२ (२) मल्लादेव (३) मारुदेव (४) जाकल महादेवी। १२४६-४७ (५) कलाल महादेवी १२७०-८१ (६) वालादेवी रायवल्लालदेव १२८४-५ (७) वीर पांड्यदेव पुत्र कलालदेवी १२९२-९७ (८) भैररस ओडियर १४१९ (९) वीर पांड्यदेव भैररस ओडियर १४४० (१०) उसकी बहन बालमा देवी १४९३--१५०१ (११) हम्मदी भैरस
ओडियर १५१६-३०-यह वालमदेवीका पुत्र था (१२) वोर पांडयप्पा ओडयर चंदलदेवीका पुत्र १५५५ (१३) भेररस ओडियर, गोम्मटदेवीका पुत्र १५८८-१५९८ ।
नोट-बीचमें राजाव रानियोंके नाम रह गए हैं Brechanca बचनेन साल सन् १८०१ में लिखते हैं
____" Byrusce olcyars were most: powerful Jain Rajas of Tuluva. They were independant of cach other and of jl other powers and who decended from Kings of Vijayanagar by Jain women."
भावार्थ-बैरस ओडियर तुलुव देशके बड़े बलवान जैन राजा थे । ये आपसमें व अन्य राजाओंसे स्वतंत्र थे । इनकी उत्पत्ति विनयनगरके राजा और जैन स्त्रियोंसे हुई थी।
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प्राचीन जैन स्मारक ।
(७) शिमोगा जिला ।
इतिहास - यहां उत्तर मथुरावासी सूर्यवंशमें उग्रवंशी कुमार जिनदत्तने ७ वीं या ८ वीं शताब्दीमें वास करके सांतारवंश स्थापित किया ।
२९४ ]
पुरातत्त्व - शिकारपुर ता० प्राचीन स्थानोंसे मरा हुआ है । मेलवल्लीमें दूसरी शताब्दीका एक शतकरणी शिलालेख है जो बहुत प्राचीन है । इसी खम्भेपर एक कादम्ब लेख प्राकृतमें है । हममें बहुत सुन्दर जैन मंदिर हैं। यहां सन् १९०१ से पहले ३४२२ जैनी थे ।
यहांके मुख्य स्थान |
(१) अनन्तपुर- ता० सागर । शिमोगा नगरसे २९ मील । इसका नाम अन्धसूर सरदारके नामपर था जिसको हमछवंश संस्थापक जिनदत्तने जीत लिया । यह ११ वीं शताब्दी में शांतार राज्य में मिल गया ।
वंदलिके - ध्वंश ग्राम ता० शिकारपुर | यहांसे उत्तर १६ मील | यह प्राचीनकालमें नगरखंडकी राज्यधानी थी जिसपर एक शिलालेख के अनुसार चन्द्रगुप्तका राज्य था । इसका पुराणमें नाम बांघबपुर है । इसमें आश्चर्यकारी शिल्पके बहुत से ध्वंश मंदिर हैं । ३० से अधिक शिलालेख हैं ।
(३) बेलगामी - ता० शिकारपुर - यहांसे १४ मील उत्तर पश्चिम | इसके नाम बल्लिगम्वे, बल्लिग्रामे, बलिपुर भी प्रसिद्ध हैं । चालुक्य और कलचूरी राजाओंके समय में यह वनवासी १२००० प्रांतकी राज्यधानी थी। इसमें पांच मठ और मंदिर थे । जैन,
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [२९५ बौद्ध, विष्णु, शिव, ब्रह्माके । ध्वंश मंदिरों में खुदाईका काम बढ़िया है । इस स्थानको दक्षिणकेदार कहते हैं । यहां १३ वीं । शताब्दी पूर्व के ८ शिलालेख हैं । १२वीं शता०में इसको अनादि राज्यधानी कहते थे।
(४) गोवर्द्धनगिरि-ता० सागर । यह किलेवार पहाड़ी १७०० फुट ऊंची है । मूल किलेको ८ वीं शताब्दीमें जैन राना । जिनदत्तने बनवाया क्यों के यह उत्तर मथुरासे आया था। इसने . वहांसे गोवर्द्धनगिरिके समान इस पहाड़ीका नाम भी गोवढनगिरि रक्खा । एक जैन मंदिर है उसके सामने स्तंभ है जिसपर १६ वीं शताब्दीका लेख है । इसमें मंदिर स्थापक जेरसप्पाके व्यापारीका वर्णन है।
(५) हमछ-ता० नगर-यहांसे पूर्व १८ मील । पुराना नाम पोम्बूंछ था। जिनदत अपने साथ पद्मावतीदेवीकी मूर्ति लाए थे निसको यहां स्थापित किया। उसके किसी वंशनने ता. तीर्थहल्लीमें सांतलिगे प्रदेश प्राप्तकर लिया। इसलिये इस वंशके शासक सांतार कहलाने लगे। यहां बहुत बड़े२ जैन मंदिर हैं व ध्वंश स्थान हैं । जैन भट्टारकोंका मुख्य मठ है। मैसूर गजटियरमें लिखा है कि जिनदत्तका पिता सहकार था। उसके एक किरात स्त्रीसे पुत्र मारदत्त हुआ। पिता मारदत्तको राज्य देना चाहता था तब पिताने मारदत्तको किसी कामके वहाने बाहर भेजा। कारणवश मारदत्त जिनदत्तको मार्गमें मिल गया तब जिनदत्तने उसे शत्रु जान मारडाला और आप अपनी माताके साथ तथा पदमावतीकी सुवर्णमय मूर्ति लेकर भागा। उसके पिताकी सेनाओंने १५० मीलतक पीछा
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प्राचीन जैन स्मारक।
किया। यह भागकर हूमछमें आया-तब यहांके स्थानीय सरदारोंने इसको शरण दी। यह आकर जित वृक्षके नीचे सोया था वहीं इसने पद्मावतीदेवी का मंदिर बनवाया । यह सब मामला सन् ई से १५९ वर्ष पहलेका है। यह बात यहां के देवेन्द्रकीर्ति भट्टारक कहते हैं । ११वीं शताब्दीके लेखसे प्रगट है कि वह उग्रवंशका था । राइससाहब कहते हैं कि हम (वीं शताव्दीका मानते हैं।
(६) मलबल्ली-ता० शिकारपुर-यहांसे उत्तरप० २० मील। इसका नाम मत्तपट्टो भी है-यहां राजा अशोकके पीछेका सबसे पुराना लेख दूसरी शताब्दीका शतकर्णियोंका एक स्तंभपर है । यह लेख राजा हरिती पुत्र शतकरणीका है।
(७) तालगुंड-ता० शिकारपुर-वेलगामीसे उत्तरपूर्व २ मील । इसका प्राचीन नाम अग्राहर था, इसको तीसरी शताब्दीमें कादम्बवंशी राजा मुकत्या या त्रिनेत्रने बेलगामीके किनारे स्थापित किया था। इसने अहिछेत्र (युक्तप्रांत बरेलीके पास) से १२००० ब्राह्मणों को व किसी अन्यके मतसे ३२००० ब्राह्मणोंको बुलाकर यहां बसाया। यहां बहुत प्राचीन शिलालेख हैं, सबसे प्रसिद्ध एक बंश मंदिरके सामने एक स्तम्भपर है। यह पांचवी शताब्दीका है, बहुत सुन्दर खुदाई है। इसमें संस्थत काव्योंमें कादम्बवंशका मूल लिखा गया है, यहां वहुतसे पुराने टीले हैं।
(८) कुमसीनगर-शिभोगासे उत्तर पश्चिम १४ मील । प्राचीन नाम कुम्बुसे है । इसे जिनदत्तरायने जिन मंदिरके लिये दान किया।
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२९७ जैन शिलालेख एपिग्रेफिका कर्णाटिका जिल्द ७ौं ।
ता० शिमोगा। (१) नं० ४ सन् ११२२, कल्लूर गुड्ड ग्राम । सिद्धेश्वर मंदिरके पास पाषाणपर
यह लेख गंग वंशके इतिहासका योतक है
अयोध्यामें श्री वृषभदेवके इक्ष्वाकुवंशमें महाराज हरिश्चंद्र हुए उनके पुत्र भरत थे, भायां विजय बहादेवी थी। जब यह गर्भस्था हुई तब इसने गंगामें स्नान करना चाहा। उसने स्नान किया। जब उसके पुत्र हुआ तब उसका नाम गंगदत्त रक्खा गया। उसका पुत्र परत द्वि०-फिर गंगदत्त द्वि०, फिर हरिश्चंद्र द्वि०, फिर भरत तृ० फिर गंगदत्त नृ• इस तरह गंगवंश चला आरहा था । जब हरिवंशमें श्रीनेमिनाथ तीर्थकर हुए तब गंगवंशमें राजा विष्णुगुप्त अहिछत्रने राज्य करते थे। जब श्री नेमिनाथनीका निर्वाण हुआ था तब इसने इन्द्रध्वजपूना की । इसकी स्त्री पृथ्वीमती थी, पुत्र भगदत्त और श्रीदत्त हुए ! भगदत्त कलिंग देशपर व श्रीदत्त यहां राज्य करता रहा। जब श्री पार्श्वनाथको केवलज्ञान हुआ, इस राजामे पूना की, इन्द्रने प्रसन्न हो पांच आभूषण श्रीदत्तको दिये तथा अहिछत्रपुरका नाम विजयपुर भी प्रसिद्ध हुआ।
पश्चात् बहु काल पीछे इस वंशमें राजा कम्प हुए । उनका पुत्र पद्मनाभि था, उनके पुत्र राम और लक्ष्मण हुए । उज्जैनीके राजा महीपालने उनको घेर लिया। पद्मनाभने मंत्रियोंसे सम्मति लेकर अपने दोनों पुत्रोंको छोटी बहनके साथ तथा ४८ चुने हुए ब्राह्मणोंके साथ परदेश भेज दिया। इन दोनों भाईयोंने अपने
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प्राचीन जैन स्मारक
नाम ददिग और माधव रक्खे । ये भ्रमण करते हुए पेरूर स्थान में आए जहां पहाड़ी है व चन्दनके वृक्ष हैं । वहां इन्होंने डेरा किया और एक जिन चैत्यालयको देखा । प्रदक्षिणा दे पूजा की, यहां कारगणके सिंहनंदि आचार्य के दर्शन किये । शिलालेख में आचाकी प्रशंसा में नीचे प्रकार शब्द हैं
समस्त विद्यापारावारपारगः, जिनसमयसुधाम्बोधिसम्पूर्णचन्द्रः, उत्तमक्षमादिदशकुशलधर्मरतः, चरित्रभद्र्धनः, विनेयजनानंदः, चतुर्समुद्रमुद्रितयशः प्रकाशः, सकलसावद्यदूरः, क्राणूरगणाम्बरसहश्र किरणः, द्वादशविधतपोनुष्ठाननिष्ठितः, गंगराज्यसमुद्धर्नः, श्री सिंहनंद्याचार्यः - इन दोनों भाइयोंने आचार्यको नमस्कार किया । मुनिमहाराजने दोनोंको विद्या पढ़ाई, उन्होंने मंत्र साधकर पद्मावतीदेवीको प्रगट कराया । देवीने उन्हें षड़का और राज्य दिया । एक समय जब मुनिपति देख रहे थे, माधवने एक पाषाण स्तंभको गिरा दिया, मुनिपतिने उसको नीचे लिखे शब्दों में आशीर्वाद दिया“यदि तुम अपने प्रण में चूकोगे, यदि तुम जिनशासनकी श्रद्धा छोड़ोगे, यदि तुम परस्त्री ग्रहण करोगे, यदि तुम मांस व मद्य खाओगे, यदि तुम नीचोंकी संगति करोंगे, यदि तुम अपनी संपत्ति दान नहीं करोगे, यदि तुम युद्धक्षेत्र से भागोगे, तब तुम्हारा वंश नष्ट हो जायगा । उस समय से कुवलालमें राज्यधानी करके ९६००० देशका राज्य करने लगे । निर्दोष जिनेन्द्रको अपना देव, जिनमतको अपना धर्म मानते हुए ददिग और माधवने पृथ्वीपर राज्य किया । उनके राज्यकी हद्दबंदी थी - उत्तर में मरनदले, पूर्वमें टोंडनाद, पश्चिममें समुद्र और चेरने, दक्षिण में कोंगू । इन्होंने अपने गुरु
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [२९१. सिंहनंदिकी आज्ञासे कोंकण देशकी मंदली पहाड़ीपर एक जिन' चैसालय बनवाया । ददिगका पुत्र माधव उसका हरिवर्मा, उसका विष्णुगोप, उसका पृथ्वीगंग, उसका तदनाल माधव, उसका अवंतिगंग, इसने श्री जिनेन्द्रकी प्रतिमा मस्तकपर लेकर चढ़ी हुई कावेरी नदीको पार किया था। इसका पुत्र दुर्विनीत गंज, इसका मुष्कर, इसका श्री विक्रम, इसका भूविक्रम, इसके दो पुत्र थे-नवकाम और एरंग-एरंगका पुत्र एयंग, इसका श्रीवल्लभ, इसका श्रीपुरुष, इसका शिवमार, इसका मारसिंह, इसने मालव ७ को आधीन किया तब इसका नाम मालवगंग प्रसिद्ध हुआ । मारसिंहने युद्ध में जयकेशीको मारा जो कन्नमुन्जेके राजाका छोटा भाई था। इस मारसिंहका पुत्र अनुपम जगतुंग, इसका प्रसिद्ध राचमल्ल था जो राजविद्याधर व जिनधर्मरूपी समुद्रकी वृद्धिके लिये चंद्र समान था। इसके पोते थे-मरुलय्या और बुटुग परम्मादी । इसका पुत्र एरयप्पा, इसका वीरवेदांग, इसका विद्वान राचमल, इसका एरयंग, इसका वुटुग, इसका मरुलदेव, इसका गुट्टियगंग, इसका मारसिंह, इसका गोविन्द, इसका संगोत्र विजयादित्य, इसका पुत्र राचमल्ल, इसका मारसिंह, इसका कुरुलराजिग, इसका पुत्र गर्वदगंग या गोविदगंग उसके छोटे भाईका पुत्र मालगोविन्द या राक्षसगंग, इसका छोटाभाई कलियंग। इस तरह गंगवंश चलता रहा।
क्राणूरगणके आचार्योंकी वंशावली
मूलसंघीमें-मुनि सिंहनंदि हुए । इसके पीछे अहंदूबली आचार्य, वेट्टद दमनंदि भट्टारक, बालचन्द्र भट्टारक, मेघ त्रैवेद्यदेव, गुणचंद्र पंडितदेव, गुणनंदिदेव, यह व्याकरणमें ब्रह्मा थे ।
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३०० ] प्राचीन जैन स्मारक । इसके पीछे श्री अकलंकके पदको सुशोभित करनेवाले काणूरगणके मेष पाषाण गच्छके प्रभाचंद्र सिद्धांतदेव हुए। इनके शिष्य माघनंदि सिद्धांतदेव हुए। इनके शिष्य चतुरास्य प्रभाचन्द्र। इनके साथी मुनि अनंतवीर्य, मुनि मुनिचन्द्र हुए जो बड़े पूज्यनीय थे । इनके शिष्य विद्वान श्रुतकीर्ति या कनकनंदि हुए मिनको प्रशंसा राजाओंके दरबारों में होती थी। इनका नाम प्रसिद्ध था-त्रिभुवनमल्ल वादिराज | इनके शिप्य विद्य वालचन्द्र यतीन्द्र थे । जब प्रभाचंद्र सिद्धांतदेवके शिष्य बुद्धचन्द्रदेव विद्यमान थे तब प्रभाचंद्रका शिप्य श्रावक बम्मदेव व सुनवल गंग परमादी देव था । इसने दकिंग
और माधवरूत मंदिलीके जैन मंदिरको फिरसे बनवाया तथा उसका नाम पट्टदवस्ती रक्खा । इसके पुत्र थे-मारसिंह, प्रसिद्ध नन्निवगंग, राक्षप्तगंग और भुजवलगंग । __माघनंद सिद्धांतदेवका शिप्य मारसिंह था जिसने अदीवलीमें भूमि दान की । प्रभाचंद्र सि देवका शिप्य नन्नियगंग था जिसने श्रीरेपूरमें भूमि दान की, शामा ९७६ या सन् १०५४ में । अनंतवीर्य सि० देवका शिष्य था राक्षसगंग । इसने भी भूमिदान की। मुनि चंद्रसि देवका शिष्य था भुनबलगंग । यह बहु वीर था। इसने शत्रुओंसे कई किले लेलिये।
इस भुनश्चल गंग परमादीदेवने शाका १०२७ या सन् ११०५में मंदलकी पट्टद तीर्थके निनमंदिरके लिये व दानके लिये हेग् गनगिलेमें भूमिदान की।
___ इसका पुत्र नन्नियगंग सत्य वाक्य कोंगनीवर्मा धर्म महाराजाधिराज परमेश्वर प्रभाचंद्र सि०देवका शिष्य था । इसने अपने
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मदरास व मैमूर प्रान्त । [३०१ बावासे बनाई हुई पट्टद तीर्थकी जैन वस्तीको पाषाणका बनवाया और शाका १०४३ या सन् ११२२में कुरुली आदि २५ जिन चैत्यालय बनवाए, भूमिदान की व वसढियहल्लीका महसूल भी दिया। इसकी पट्ट महादेवी कंचलदेवी थी, इसका पुत्र हमोदीदेव था। यह देवी पद्मावतीकी भक्त थी। यह हमोदी देव परमादी श्री बुधचन्द्र पंडितदेवका शिप्य था ।
(२) नं० ६ सन् १०६०के करीब । ग्राम हरकेरी, रामेश्वर मंदिरके रंगमंडपके उत्तर-पश्चिम खंभेपर । महामंडलेश्वर भुजबलगंग परमादीदेवने मदलीतीर्थके पट्टद बस्तीके लिये भूमिदान की। इसकी पट्टदेवी गंग महादेवी और उसके पुत्र मारसिंहदेव सप्तगंग, राक्षसगंग, भुजबल व उसके पुत्र मारसिंहदेव नन्नियगंग परमादी सबने भूमि दान की।
(३) नं० १० सन् १० ८५के करीब-ग्राम तत्तीकरी रामेश्वर मंदिर के सामने । जब नन्नियगंग राज्य करते थे तब एक पोलि. पम्मा थे उनकी भायर्या कलयव्ये थी। उनका पुत्र नोकय्या था । इसको मंदलीके चागोविन्दको कन्याएं कलेयव्वे और मल्लियने विवाही गई । कलयव्वेका पुत्र गुञ्जम या परमादी गोबुन्द था । मलियव्येने मिनदास पुत्रको जन्म दिया । जब नौक्कप्पा अपने दोनों पुत्रों के साथ रहता था तब गंग परमादी देवने तल्ली कैरीकी मुलाकत ली और नोरकप्पाको वहांका राज्य दे महामंत्री बनाया । इसने सरोवर, मंदिर व दानशालाएं बनवाई। इसने पापाणका जिन मंदिर बनवाया व दो जिन मंदिर हरिगे तथा नेल्लावत्तीमें बनवाए। जिनदासके मरनेपर नेल्लाबत्ती और तल्लीकेरीके मिन मंदिरोंके
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३०२] प्राचीन जैन स्मारक। लिये नोक्कयाकी वीरता और उदारताके इनाममें गंगपरमादीदेवने राज्यकीय चमर, ढोल, छतर आदि दिये यह नोक्कप्या मूलसंघ क्राणूरगण मेष पाषाणगच्छके प्रभाचंद्र सिद्धांतदेवका शिष्य श्रावक था। शांतिके मंत्री दामरानाने यह जिनशासन स्थापित किया ।
(४) नं० ५७ सन् १११५ ई० । नीदिगी ग्राम, दोद्दामने नविलप्प गौडके खेतमें पाषाण नन्नियगंगके राज्यमें, कलम्बुरुके शासक नगरवर्मी सेठीने जिन मंदिर बनवाया। इसके लिये महाराज गंगने कर विना भूमि दी जिसे शुभकीर्ति देव भ० के चरणोंमें सेठीने समर्पण किया ।
(५) नं० ६४ सन् ११ १२, पुरले ग्राम-ग्रामसे द० प० वीर सोमेश्वर मंदिरके सामने पाषाणपर । ___ (१) एरयंग होयसालके जमाई हेम्मदी आरसने क्राणूरगणमें एक जैन मंदिर बनवाया ।
(२) नारसिंहदेव होसालके राज्यमें उसके मंत्री तिप्पनभूपति व छोटे भाई नागचाभूपति व उसकी भार्या चामलदेवीने दान किया।
(३) जब हेम्नदीदेव आरस हरिगेमें राज्य करते थे तब उसने कुतिलापुरमें निनमंदिर बनवाया और शाका ९८९ या सन् १०६७ में उसकी पूजाके लिये प्रमाचंद्र मि० देवके चरणोंमें दान किया ।
(४) जब सत्त्यांगदेव पदेहाली में राज्य करते थे तब उसने कुरुलतीर्थमें जिनालय बनवाया और शाका १०५४ (शायद १०३४) में माधवचंद्रके चरणों में भूमि दान की।
(५) गंग हादोदेवके सामने वागीके सर्वाधिकारी हेगड़े
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मदरास व मैमूर प्रान्त। [३०३ लोकमय्याके पुत्र हेगड़े चांडिमय्याने कुरुलीमें अपनी भूमि कलिपमल्लसेठीको वेची । उसने महाराजाके सामने श्रीबालचंद्र देवकी सेवामें अर्पण की।
(६) श्री पम्मासेठी और उसके दो पुत्रोंने ननियरसदेवके सन्मुख श्री बालचन्द्रदेवकी सेवामें हल्लबूर ग्राममें भूमिदान दी।
(७) नं० ८९ सन् ११११, वेलगामीमें, कदरेश्वर मंदिरके वरामदेके पश्चिम द्वारके खम्भेपर । चालुक्य विक्रमकालके ३५ वर्षमें विट्टिदेव भुजबल गंग पर्मादीने भूमि दान की।
(७) नं० ९७ सन् १११३ ग्राम आलहल्ली, तलवरकी भूमिमें मूलसंघ देशीगण, मलधारी देवके शिप्य शुभचंद्र देव मुनिपके शिष्य प्राविका गंग परमादीदेवकी रानी वाचालदेवीने अपने बड़े भाई बाहुबलिकी सम्मतिसे वम्मीकेरीमें एक सुन्दर जिन मंदिर बनवाया तब श्रीपार्श्वनाथके लिये भुजबल गंग परमादीदेव, गंग महादेवी, ओरगडेवा चालदेवी, कुमार गंगरस, मारसिंहदेव, गोगीदेव, कलियंगदेव और सब मंत्रियोंने भूमि दान की।
(८) नं० ११४ सन ९५०,--ग्राम कुमसी, कीलेके पाषाण कमरेके पास । कलसेके राजाओं वा कनकाकुलमें जिनदत्तरायने जिनेन्द्र के लिये कम्बासीपुर भेट किया उसकी आज्ञासे अधिकारी वोम्मिरल, अन्य गौड और टोंने भी कुम्बासिके जैन मंदिरके लिये वार्षिक मदद दी।
ता० शिकारपुर । (२) नं० १२० सन् १०४८, सोमेश्वर तीर्थनके पास वेलगामी ग्राम । वनवासीके राना चालुक्य चामुण्डराय; इसने अपनी
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३०४]
प्राचीन जैन स्मारक ।
राज्यधानी बेलगामी नगरमें जिन मंदिरके लिये बलात्कारगणके मेघनंदि भट्टारकके शिष्य केशवानंदी अष्टोपवासी भट्टारकके चरण धोकर जनाहुति शांतिनाथने जिट लिगे ७० में ५ मन चावलके योग्य भूभि दी।
(१०) नं० १२४ सन् १०७७ वेलगामीमें वदगुजर लोंडके पास । जब चालुक्य त्रिभुवनमल्ल महाराज एटगिरिपर थे तथा वनवासीमें उनके नीचे महासामंताधिपति दंडनायक कर्मदेव राज्य करते थे, श्री गुणभद्र व्रतीके शिष्य सोम भायी जकब्बे पुत्र प्रतिकठसिंहने धर्मार्थ एक ग्रामकी प्रार्थना की। दंडनायकने महारान त्रिभुवनमलको कहकर चालुक्य गंगपरमादी जिनालयके लिये निसको उसने राज्यधानीने बनवाया था, जिट्टलिगे ७० में ग्राम मनवान अर्पण किया। श्री मूलसंघ सेनगण पोगरी गच्छके रामसेन पंडितके पग धोकर ।।
(११) नं० १३४ ता० १ ०७५ बेलगामी चन्नवासवप्पाके खेतमें एक । खंडित जैन मूर्तिपर । बलात्कारगणके चित्रकूटान्नाय दावली मालवके शांतिनाथदेवके वंशने श्रीमुनिचन्द्र सिद्धांतदेव थे उनके शिष्य अनन्तकीर्तिदेवने हेगड़े केशवदेवकी सेवामें दान किया।
(१२) नं० १३६ सन् १०६८, बेलगामी, वददियारलोंडके खेतमें । जब चालुक्य त्रैलोक्यमल्ल अहबमल्लदेव राज्य करते थे तब उसको लाट, कलिंग, गंग, करहाट, तुरुप्क, वराल, चोल, करनाटक, सुराष्ट्र, मालव, दशार्णव, कोशल, केरल आदिके राजा कर देते थे। मगध, अन्न, अवंति, बंग, द्रविल, कुरु, अभीर, पंचाल, लाल आदिके राजाओंसे युद्ध कर हराया । इन्द्रसे युद्ध कर कर देनेपर
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [३०५ उससे मित्रता की। शाका ९९० में इसने कुरुवर्तिमें योग धारण किया तथा तुंगभद्रा नदीके तट स्वर्गधाम पधारा । तब इसका ज्येष्ठ पुत्र सोमेश्वर भुवनैकमल्ल राज्य करने लगा। इसका सेवक महामंडलेश्वर राजा लक्ष्मण नृप वनवासीमें शासन करते थे। इसका मंत्री शांतिनाथ दंडनायक था जो श्रेष्ठ जैनधर्मरूपी कमलका हंस था। इसके गुरु मूलसंघ दे० ग० कुन्द० वर्द्धमान व्रतपति थे। इसका पिता गोविन्द राजा था। शांतिनाथ कवि था। इसकी उपाधि सरस्वातिमुख-मुकुर थी। इसने सुकुमाल चरित्र रचा है । इसकी प्रार्थना करनेपर राना लक्ष्मण नृपने बलिग्राम, लकड़ीके जिन मंदिरको पाषाणका बनवाया व द्वारपर पापाणका मानस्तंभ स्थापित कराया। व लक्ष्मणने भूमि दान दी।
(१३) नं० १४८ सन् ११८६ बेलग्रानी, काशीमठके द्वार पर। यादव चक्रवर्ती बीर बल्लालदेवके १६३ वर्षके राज्यमें पटनम्वामी मल्लीसेटीकी स्त्री पदमौवेने समाधिमरण किया।
(१४) नं० १९६ सन् १२१२ चिकनगडी, वासबल मंदिरके एक स्तंभपर । यादव नारायण होयसाल बोरबल्लालदेवके २३ वें वर्षके राज्य में लच्छव्चे और मदन मुडती कन्या तथा प्रसिद्ध भरतकी स्त्री व श्रीअनंतकीर्ति मुनिएकी शिष्या नक्षवेने समाधिमरण किया । तब उसने संस्कृतमें एक श्लोक बनाया जो इसभांति हैत्यक्त्वा देह विमोहात अतगुणचरितप्रणिनिकोणिमार्गा। दारुम स्वर्गदुर्गम् निजभजनबलादेवयनराहीला।। याऽहम् जकाम्बिकाऽस्मिन् दिविदिविजयसे सूचनात्मणसादादित्यम् तुरावगत्वासमवसरण मूस्थम् नतेन्म मिनेन्द्रम् ।।
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___३०६] प्राचीन जैन स्मारक ।
भावार्थ-नकाम्बिका देवीने मरते समय अपनी भावनाके अनुसार यह श्लोक बनाया है । इसमें कहती है कि मैंने मोहरहित होकर, व्रत गुण चारित्रकी श्रेणियोंके मार्गसे इस शरीरको छोड़ा और स्वर्गके दुर्गमें चढ़कर व इस स्वर्गमें अपने भननके बलसे व आत्माके प्रसादसे उत्तम देव होकर तथा समवशरण स्थित इंद्रोंसे नमन योग्य श्री जिनेंद्रके पास जाकर परम संतोषको प्राप्त किया है।
(१५) नं० १९७ सन् १८८२ ? चिकमवाड़ीमें वासवन्न मंदिरके सामने । कादम्बवंशी राना बोधदेव था । भार्या श्रीदेवी पुत्र सोम जिसको कादम्बरुद्र सत्यपताका कहते थे, भार्या लच्छलदेवी पुत्र बोप्प-राज्यघानी बांधवपुर । संकर सामंतने श्रीशांतिनाथजीके लिये बहुत सुन्दर जैन मंदिर मागुदीमें बनवाया। वहां श्री नयकीर्ति गुरु थे जो मूलस० कुंद० कानोरगण तित्रिनिकच्छनन्न वंशके पद्मनंदिके मुनिचन्द्र उनके शिष्य भानुकोति सिद्धांतदेवके शिप्य थे। रेचनदंडाधीश्वर वोपराना और शंकरको लेकर मागुदीने आया और श्री जिनेन्द्रको पूना की और तलवे ग्राम दिया।
(१६) नं० १९८ सन् १२५०, चिकनबाड़ी, जैन मंदिरके पास । भुजबलि प्रताप चक्रवर्ती कंदारदेवके ११ वें वर्षके राज्यमें मुडीनिवासी शांतादेवीने समाधिमरण किया।
(१७) नं० १९९ वहीं । सन् १२५० के करीव बम्मोजा सुनारने समाधिमरण किया। (नोट-यह सुनार होकर जैनधर्मी था ।
(१८) नं० २०० सन् ११९० करीब वहीं। श्रीनयकीर्ति देवमुनिकी शिप्या व संकप नायक और मुद्दव्वेकी कन्या शांतलेने समाधिमरण किया ।
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मदरास व मैमूर प्रान्त |
[ ३०७
(१९) नं० २०९ सन् १९९० वहीं । वीरोजा और बोम्मवेने समाधिमरण किया ।
(२०) नं० २०२ सन् १२११ ? वहीं यादवनारायण भुजबल प्रताप चक्रवर्ती होयसाल वीरवल्लाल देवके राज्यके २१ वें वर्ष में सकलचंद्र मुनिपकी शिप्या मछोगाडंडीने समाधिमरण किया ।
-
(२१) नं० २१९ सन् ९१८, बन्द जैन मंदिरके द्वारपर लिकेमें शाका ८३४, अकालवर्ष कन्नरदेवके राज्य में, महासामंत कलिवित्तरस वनवासी १२००० में राज्य करता था तब वहां नगरखण्ड ७० के नालगोकंडके अफिसर सत्तरस नागार्जुनने समाधिमरण किया तब राजाने उसके पतिका पढ़ उसकी स्त्री जक्कमव्वेको दिया । इसने चार मछालचावलके लायक खेत जक्किलमें जैनमंदिरके लिये दिया । इसकी प्रशंसा लिखी है कि यह बड़ी वीर थी । उत्तम पुयुशक्तियुक्ता थी, जिनेन्द्र शासन भक्ता थी यह । नगरखण्ड ७० पर उत्तमता से राज्य करती थी । इसके शरीर में कोई असाध्य रोग होगया, तब इसने अपनी कन्याको बुलाकर राज्य सुपुर्द किया और बंदनिके तीर्थ में शाका ८४० में इसने समाधिमरणकी प्रतिज्ञा धारण की ।
(२२) नं० २२१ सन् १०७५ | ऊपर के मंदिर के उत्तर ओर | जब चालुक्य भुवनेकमल्ल वंकापुर में राज्य करते थे तब श्री मूलसंघ कारगण के परमानंद सिद्धांतदेव के शिष्य श्रीकुलचंद्रमुनिका शासन था । महाराजाने बंदलिक तीर्थमें भरतद्वारा निर्मित श्रीशांतिनाथ जिनमंदिर के लिये नगरखंडमें भूमि दान की ।
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३०८]
प्राचीन जैन स्मारक |
(२३) नं० २२२ से २२४ सन् ११०० वहीं । चक्रबंध श्लोक हैं ।
(२४) नं० २२५ सन् १२०४ वहीं शांतेश्वर वस्तीके सामने | जब विजय समुद्रमें होयसाल वल्लाल राज्य करते थे तब नगरखंडमें कादम्बवंशी सोमका पुत्र बोप्पदेवका पुत्र ब्रह्मभूपाल राज्य करते थे तब रेचचा भूपतिके पुत्र कवदे बोप्पने श्री शांतिनाथ मंदिर में मंडप बनवाया । यह तीर्थ कारगणके मुनिचंद्र सिद्धांतदेवके शिष्य ललितकीर्ति सिद्धांतीके शिप्य शुभचंद्र पंडित - देवके प्रबंध में था | इन्ही मुनिके चरण धोकर राजा वल्लालके प्रसिद्ध मंत्री महासेठी आदिने भी शांतिनाथजीके लिये दान किया ।
(२५) नं० २२६ सन् १२१३ उसी वस्तीके उत्तर और ऊपर कथित शुभचंद्र देवने सन्यास लिया |
(२६) नं० २२७ सन १२०० ? उसी शांतिनाथ मंदिर के रंगमंडप दक्षिण पश्चिम स्तंभ पर अभयचंद सिद्धांतदेव के शिष्य चारुकीर्ति पंडित देवने हरिय महालिंगेकी पंचवस्तीका जीर्णोद्धार कराया व इनके व तलगुप्पेके मंदिरके लिये तीन ग्राम दिये । वविबागुरु, बविया हछी, व तगदुवडिंग |
(२७) नं० २२८ से २३१ सन् ११००, ऊपर के मंडप के पूर्व, दक्षिण, उत्तर खंभोंपर । चक्रबंध लोक
(२८) नं० २३२ सन १२०० के करीब । उसी मंदिरके हावेमें शुभचंद्र देवकी शिष्या सोमल देवीने समाधिमरण किया । (२९) नं० ३११ सन् ११०० के अनुमान | ग्राम संदा |
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[ ३०९
मदरास व मैसूर प्रान्त | सरोवर के द्वारपर एक पाषाण । चालुक्य त्रिभुवनमल्ल के राज्यमें जब महासमन्ताधिपति अनन्तपाल गंगवाड़ी ६०० व बनवासी १२००० में राज्य करता था । यह रणरंग भैरव गोविंद रस कहलाता था । इसका पुत्र सोम भार्या सोमम्बिका, इनकी दो कन्या वीरम्बिका और उदयाम्बिकाने एक जैन मंदिर बनवाया ।
(३०) नं० ३१७ सन् १२०५ के अनुमान । गोग्ग ग्राम वीरभद्र मंदिर के द्वारके दोनों तरफ | मंत्री एचाना व मार्या सोवलदेवीने बेलगवत्ती नादमें जिसकी सदृशता कोई नहीं करसक्ता ऐसा सुन्दर जिनालय बनवाया ।
(३१) नं० ३२० सन् १२०० वहीं । महामंडलेश्वर मलिदेवरसके शांति व युद्ध के मंत्री एचा राजा थे उनकी मार्या सौवलदेवीने अपने छोटे भाई इचाकी मृत्यु होनेपर एक जिन मंदिर बनवाया व श्री शांतिनाथजीकी आठ प्रकारी पूजाके लिये श्री चंद्रप्रभाचार्य के चरण धोकर भूमि दान दी ।
(३२) नं० ३२१ सन् १२०७ करीब वहीं । श्रीवासपुज्य देवके चरण धोकर वीरुपय्याने भूमि दान की ।
होली ता
(३३) नं० ५ सन् १९६० के करीब | ग्राम दिदगुरु । हम्मति देवकी गोशालाकी पीछली भीतके सहारे कायोत्सर्ग जैन मूर्तिके आसनपर | आचार्य बालचंद मूलसंघ काणुरगण मेष पाषाण गच्छकी इच्छानुसार हेगोड़ जक्कया, उसकी मार्या जकव्वेने दिदुगुरमें जिन -मंदिर बनवाया तथा सुपार्श्वनाथकी मूर्ति स्थापित की व भूमिदान की ।
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३१०] प्राचीन जैन स्मारक। एपिप्रैफिका कर्नाटिका जिल्द ८ वींसे जैन शिलालेख
जिला शिमोगा तालुका सोराब । (३४) नं० २८ सन् १२०८ ? ग्राम सोराब दंडवती नदीके तट अतमृत मंडपके स्तंभपर । दोर समुद्रमें वल्लालदेव राज्य करते थे तब बनवासीमें कदकनी विद्वानोंकी खान थी। यहां व रोहन पर्वतपर कीर्तिगोकुन्द राज्य करते थे। इनके पुत्र थेसोम, भासन, महादेव व राम । तब मल्लासेठी माचम्बके पुत्र नेमीसंठी नन्नवंशीने जिसके गुरु काणूरगण मूलसंघके गुरु गुणचंद्र थे जिध्वलिगे, एदेनाद तथा कुदकनीनादमें बहुत जिनमंदिर बनवाए। जब नेमीसेठीने शांतिनाथ मंदिरमें श्रीशांतिनाथको स्थापित किया तब कीर्ति गोवुन्दने उसके पुत्र और जमाई महादेव दंडनायकने पूजाके लिये ५० पोल चावलकी भूमि दान की।
(३५) नं० ५१ सन् १४०५ ग्राम हुले सोराबाके पूर्व अंजनेय मंदिरके पास । सोराब महाप्रभु देवराजाकी स्त्री मेचकने तथा उद्धरे १८ कंचनके राजा बईचकी कन्या अंजनाने समाधिमरण किया।
(३६) नं० ५२ सन् १३९४ वही ग्राम, द० पूर्व, सरोवरके उत्तर। सोराबनिवासी तम्मगौड़ने नोकिलेयकप्प, वैद्यसे अपना रोग असाध्य जान मुनि सिद्धांतिदेवकी आज्ञासे समाधिमरण किया। ___(३७) नं० ९७ सन् ११३२ ग्राम चत्रदहल्ली, अमृतेश्वर मंदिरके सामने । मूलसंघ देशीयगण माघनंदि भ०का शिष्य श्रावक वल्लीदास गोवुन्दके पुत्र बोप्पय्याने समाधिमरण किया।
___ (३८) ग्राम हीरे-आवली-ध्वंश जैन वस्तीके पास २५ पाषाण समाधिमरणके स्मारकके हैं जिनका संक्षिप्त विवरण नीचे प्रकार है
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왕
सन्
१०११२९७ यादव नारायण भुजवल रामचन्द्र
१०३|१३९५
१०२१३६६ | अभिनय कराय
विजयनगर
हरिहरराय विजयनगर
१०५१३९८
१०४१३५४ | महामंड० सुरताल
हिन्दु व राजा
१०६१३७६
१०७१४०८
१०८ १४०८
१०९.१३६७
११०१३५३
मदरास व मैसूर प्रान्त |
११११३९२ ११२/१३८३
किसके राज्य में
११३१२९० ११४१२९.
११५१३७४
११६ १३८९. ११७१४०३
O
eferre
विजयनगर
वीर बुकराय
देवराय विजयनगर
""
वीर हरिया ओडयर
रामदेव कोटिनायक
बुकराय हरिहरराय
"
नाम समाधिमरणकर्ताका
नालप्रभु आवलि काल गावन्द श्रावक
श्रा० अवलि वेचा गौड़का पुत्र मंत्री हरिहरराय कानरामनकी स्त्री कामि गोंडी हरियप्पा ओडयर मालगोवंड व उसकी
चिवाया का पुत्र चंद्रमा गौरव गौड़
[ ३११
कालगौड़ मुड़गौड़की स्त्री एक मत्तिय
गुड्डु चौलय
नाम आचार्य
कलगौड़
गमगौंडन हिरियचंद्रपनु बेचीगौड़की महासती वो भी गौड़ी
सुगष्टगणके मृ० सं०के देवनंदि
सिद्धांतदेव
भार्या चेनक चन्दगौड़की स्त्री चन्द गौड़ी
अवलीचन्दका पुत्र रामचन्द्र मलवारी वेची गौड़ ग्रामाधीश महाभु गमगौड़का पुत्र हारुव
मुनिभद्र देव
गुगणी सिद्धांती यशिशा
गुरु विजयकीर्ति
मूलसंघ वीरसेन शिष्य समाधिदेव
अवलिय कामना बुन्द रामचन्द्र मलघारी
शुभचन्द्रदेव मुनि वीरसेन
मलधारी देव रामचंद्रमलधारीदेव
27
| मुनिभद्रस्वामी
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३१२ ]
११८१४२१
११९१४१८
१२०१४२१
१२११३९६
१२२१२९९८
१२३१३४६१
१२४१२९५
१२५११४३
प्राचीन जैन स्मारक |
देवराजा
""
""
हवा ओवर कोटिनायक
गमचन्द्र
जगदेकमल |
भदुक गौड़ गोपगोड भैरवगौड़ गमीगौडी सती श्री यमागौड़ी सती रामगड
चकची गौड़ी सती दुन्दिय गोल्बल
मुनिभद्र
""
माघवचंद्र मलधागी गुणनंदी भट्टारक रामचंद्र मलधारी कतारसेन माणिक्यसेन पं०देव
(३९) नं० १२७ सन् १९३१, ग्राम हुले सोराब । रामलिंग मंदिर के पास ( मूलसंघ सेनगण पोगारी गच्छ के चंद्रप्रभ सिद्धांतदेव के शिष्य माधवसेन भट्टारकदेवने समाधि ली ।
(४०) नं० १४० सन् १९९८, ग्राम उडरी, वाणसंकरि मंदिर के सामने । होयसाल वीर बहाल राज्यमें जिदुलिगेमें गंगकुल एकल राज्य करते थे उसका मंत्री पद्मनंदि मुनिके शिष्य रामनंदि यतिप उनके मुनिचन्द्र सिद्धांत चक्रेश उनके कुलभूषण व्रती नैविद्य विद्याधर, उनके सकलचंद्र भट्टारकका शिष्य श्रावक था । माघवचंद्रने एग जिनालय बनवाकर श्रीशांतिनाथ की मूर्ति स्थापित की व दान दिया | सकलचंद्र कारगण तिन त्रिणीगच्छके गुरु थे ।
(४१) नं० १४६ सन् १३८८ ग्राम उड़ी सरोवर तटपर । उद्धरवंश में श्रीवीरसेन, जिनसेन तथा लक्ष्मीसेन भ० हुए । उनके शिष्य चंद्रसेनसूरि, उनके मुनिभद्र देव हुए, इन्होंने हिसुगल जैन मंदिर को बनवाया व मूलगुंडके जिनमंदिर का जीर्णोद्धार कराया तथा विजयनगर के राजा हरिहर रायके समय में समाधिमरण किया ।
(४२) नं० १४८ सन् १९०४, उड़ी ग्राम । होयसाल वीर वल्लालदेव राज्यमें, उद्धरेके दंडनायक एक लियन्नाने समाधिमरण किया।
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मदरास व मैसूर प्रान्त ।
[ ३१३
(४३) नं० १४९ सन् १९२९, उडरी ग्राम । जब उद्दरेमें एकलरस राज्य करते थे तब श्रीहरिनंदिदेव मुनिके शिष्य दंडनायक सिंगणने जो बोप्पन दण्डनायकका पुत्र था, समाधिमरण किया ।
(४४) नं० १५२ सन् १३८० उड़ी में । हरिहरराय के राज्य में वैचय्या श्रावकने कोंकण देश में युद्ध में विजय प्राप्त की तथा अन्तमें समाधिमरण किया ।
(४५) नं० १५३ सन् १४०० के करीब उड़री । मुनि मुनिचन्द्रके शिष्य वेचय्याने जो साहु श्रीयन्नाका पुत्र था, समाधिमरण किया ।
(४६) नं० १५५ सन् १९०६ के करीब ? ग्राम उड़री पंडित गुरुके शिष्य मलगौड़के पुत्र प्रसिद्ध मोरशांकने समाधिमरण किया ।
(४७) नं० १९६ सन् १३७९, ग्राम तेवनंदी, किलेके जैन मंदिर के दक्षिण | हरिहररायके राज्य में, तवनिधि चौमनगौड़ने समाधिमरण किया |
(४८) नं० १९८ सन् १२९९ वही ग्राम । क्राणुरगणके माधवचन्द्रदेव शिष्य दंडेश माधवने रामचन्द्ररायके राज्यमें जैन मंदिर बनवाया तथा समाधिमरण किया ।
(४९) नं० १९९ सन् १३९२, वही ग्राम । वीर बुक्कराजाके राज्य में बलात्कारगण सिंहनंद्याचार्यकी शिष्या तवनिधिर्ब्रह्मकी भार्या लक्ष्मी वोम्मकने समाधिमरण किया ।
(५०) नं० २०० सन् १३७८ वहीं । हरिहररायके राज्यमें श्री रामचंद्र मलधारीदेवकी शिप्या अलव महाप्रभु तवनिधि वोघम
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प्राचीन जैन स्मारक |
३१४ ]
arat भार्याने समाधिमरण किया ।
(११) नं० २०१ सन् १३७९ वहीं । माधवचंद्र मलधारी देवके शिष्य वोम्मनने समाधिमरण किया ।
(५२) नं० २३३ सन् १९३९, उड़री ग्राम, वनशंकरी मंदिर के पूर्व - चालुक्यवंशी त्रैलोक्यमल्लके आधीन गंगवंशी एकलके राज्यमें राजा एकलने कनक जिनालयके लिये सब बिबलू में भूमि दान की तथा एरयंगकी माता, एकलके भाई राजा मारसिंहकी कन्या चत्तियव्वरसीने, जिसका चाचा बोधदंडेश था, दान किया । मूलसंघ काणूरगण तिंत्रिकगच्छके रामचंद्र व्रतपतिकी पूजा करके ।
(५३) नं० २६० सन् १३६७ कुप्पतुरु ग्राम, जैनवस्तीके पास । श्रुतमुनिके शिष्य चल्लचंद्र इनके शिष्य आदिदेवने जैन मंदिरकी रक्षा की ।
(५४) नं० २६१ सन् १४०८, वही ग्राम । जैन वस्तीके उत्तर पश्चिम एक पाषाणपर कर्णपटकके देवराजके राज्य में, बांधनपुर के स्वामी गोपीसा के पुत्र श्रीपति उसके पुत्र गोपीपतिने जैन मंदिर बनवाया । यह मूलसंघ देशीगण सिद्धांतचंद्रका शिष्य था । इसकी स्त्रियोंने- गोपासी और पदमासीने समाधिमरण किया ।
(१५) नं० २६२ सन् १०७७, वही ग्राम - कादम्बवंशी राजा कीर्तिदेव के राज्य में । महाराजाकी रानी माललदेवीने जो मूलसंघ कारगण तिन्त्रिक गच्छके पद्मनंदि सिद्धांतदेवकी शिष्या थी कुप्पतूर में श्रीपार्श्वनाथ चैत्यालयका जीर्णोद्धार किया व भूमि दी । (५६) नं० २६४ सन् १३९३ | वही ग्राम- गोपगौड़ ने समाधिमरण किया |
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मदरास व मैमूर प्रान्त । [३१५ (५७) नं० ३२९ सन् १४१५ ग्राम भारंग, कल्लेश्वर मंदिरमें। पंडिताचार्य श्रुतमुनिके शिप्य नगरखंडके राजा गोपगौड़के पुत्र बल्लगौड़ने समाधिमरण किया।
(५८) नं० ३३० सन् १४६५ वहीं-गोपीपतिके पुत्र नगरखंडके राजा बुलप्पाने जो मूलसंघ, नंदिसंघ देगण, पुस्तकगच्छके अभयचंद्रका शिप्य था, समाधिमरण किया।
(५९) नं० ३३१ सन १६५६ वहीं-प्रभुवल्लप और मल्लत्वेकी कन्या भागीरथीने समाधिमरण किया ।
(६०) नं० ३४५ सन् ११७ १, तेवतेप्पा ग्राम । वीरभद्र मंदिरके सामने । कादम्बकुली, मंडलीक भैरव, सत्यपताका सोवीदेव नगरखण्डका रक्षक था तब तेवतप्पाका स्वामी वोप्प गौड़ था उसके पुत्र लोकगावन्दने जैन मंदिर बनवाया और मू० कातिगच्छके भानुकीर्ति सिं०देवके चरण धोकर भूमि दान की।
तालुको सागर । ___(६१) नं० ५५ सन् १९६०, गोदईनगिरि । वेंकटामन मंदिरके सामने स्तम्भपर । क्षेमपुर नगरको जैरसप्पा कहते हैं-यहां राना देव महीपति था जिसने श्री गुम्मटाधीशका अभिषेक कराया था । इसके पीछे भैरव भूपति हुआ । उसकी बहनका लड़का देवराय था जो श्री राजगुरु पंडितदेवका शिष्य था। यह अपने छोटे भाई साल्प और भैरवेन्द्र के साथ तुलु, कोंकण आदिपर राज्य करता था तब अम्बुवनश्रेष्ठी और नागप्पाश्रेष्ठी दोनों भाई यहां आए । श्रीनेमिनाथ चैत्यालयके लिये मानस्तंभ बनवाया। इस मंदिरको उनके बाबा योजनश्रेणीने बनवाया था। उस समय मुनि अभिनव समन्तभद्र मौजूद थे।
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३१६] प्राचीन जैन स्मारक ।
(६२) नं० ६० सन् १४७२, ग्राम यीदिवनी। श्रीपार्श्वनाथ मंदिरमें। वीरुवक्ष महारायके राज्यमें । भैरन्ननायकने पार्श्वनाथ मंदिर बनवाया व भूमि दान दी।
(६३) नं० १४ सन १४१३, वहीं । भैरन्ना नायक, मंदवन्नानायकके पुत्रने श्रीवादीन्द्र विशालकीर्ति भ० की आज्ञासे श्रीनेमिनाथ मंदिरको भूमि दान दी।
(६४) नं० १५९ सन ११५९, ग्राम हेरेकेरी-जैन मंदिरमें त्रिभुवनमल्छके राज्यमें । उनके आधीन, सांतारकुलके राय तेलटदेव, पोट्टी पोम्बुच्चपुरमें राज्य करते थे। भार्या अक्खादेवी थी। पुत्र काम थे । भार्या पांड्यकुली विजलदेवी थी। उनकी संतान पुत्र जगदेव, सिंगीदेव व पुत्री अलियादेवी थी। यह कादम्बवंगी होन्नेपरसकी भार्या थी। इसने अपने पुत्र जकासीदेवकी स्मृतिमें एक उच्च जिन मंदिर बनवाया और वंदनिक तीर्थके आचार्य काणरगण तिंत्रिक गच्छ के भानु कीर्ति सि० देवके चरण धोकर भूमि दान की।
(६५) नं. १६१ सन् १२३९, वहीं। जैन मंदिरके दक्षिण। कुमार पंडित मुनिकी शिष्या श्राविका येकनसेठीकी स्त्री मल्लकेने समाधिमरण किया ।
(६६) नं० १६२ सन् १२४२ वहीं। शुभकीर्ति पंडितदेवकी शिप्या पेकमसेठीकी कन्या कामीव्वेने समाधिमरण किया।
(६७) नं० १६३ सन् १४८८-वहीं। पार्श्वनाथ मंदिर में। तौल्लवदेशके संगीतपुरमें श्रीचंद्रप्रभ जिनका भक्त सलुवेन्द्र राजा राज्य करते थे । उनका मंत्री पद्म था। राजाने मंत्रीको ग्राम ओगयेकेरी दिया । तब सन् १४९८ में पद्मने पार्श्वनाथ मंदिर
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मदरास व मैसूर प्रान्त । पद्माकरपुर में बनवाया और भूमि दान की ।
(६८) नं० १६४ सन् १४९१- ग्राम विदरुरू । जनार्दन मंदिर में एक ताम्रपत्र | जब संगीराय वोडयरका पुत्र महामंडलेश्वर ईदगरस ओडयर विदुरुनादमें रक्षक था तब तौलवदेश संगीत पट्टन के राजा सालुवेन्द्रने श्री जिनमंदिर के वर्द्धमानस्वामीकी सेवार्थ भूमि दान की ।
[ ३१७
नगर तालुका |
(६९) नं० ३५ सन १०७७ - हमछ, पंचवस्तीके आंगन में चालुक्यवंशी त्रिभुवन मल्लके राज्य में । उनके आधीन महामंडलेश्वर ननि सांतरदेव उग्रवंशी राज्य करते थे । इनकी वंशावली यह है: - उत्तर मथुरा में पांडवों के समयमें राह राजा उग्रवंशी राज्य करते थे । उस ही वंश में राजा सहकार हुए जिसके मानव के मांस खाने का शौक होगया। इसकी स्त्री श्रीदेवीसे जिनदत्त पुत्र हुआ ! यह जैनकुली होकर अपने पिताके आचरण से असंतुष्ट होकर दक्षिमें आया और पद्मावतीदेवीकी कृपासे पोम्बरच्छ या कनकपुरमें वस गया | इसके वंश में अनेक राजा हुए। श्रीकेशी, फिर रणकेशी फिर कई राजाओं के पीछे हिरण्यगर्भ । इसने सांतलिंगे १००० नाद स्थापित किया | इसकी उपाधिये थीं कंदुकाचार्य, दान विनोद, विक्रम सांतार | इसकी भार्या, वनवासीके राजा कामदेवकी पुत्री लक्ष्मीदेवी थी । इनके पुत्र चागीसांतार या चागी समुद्र थे । भार्या एंजलदेवी | इनके पुत्र वीर सांतार हुए, भार्या जाकलदेवी, पुत्र कन्नरसांतार हुए भायो नागलदेवी, पुत्र नन्निसांतार हुए। छोटे भाई कामदेव भार्या चंद्रदेवीके पुत्र त्यागीसांतार हुए । नन्निसांतारकी
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३१८]
प्राचीन जैन स्मारक ।
भार्या सिरियादेवी, पुत्र रायसांतार हुए । भायों अकादेवी, पुत्र चिक्कवीरसांतार भार्या विजलदेवी, पुत्र अम्मनदेव भार्या होचलदेवी पुत्र तैलपदेव पुत्री वीरवरसी । तैलपदेव भार्या महादेवी केलयव्वरसी पुत्र वीरदेव, भार्या विरालमहादेवी, विजलदेवी, अचलदेवी वीर महादेवी (गंगवंशी)। वीर महादेवीके पुत्र गोग्गिग व ज्येष्ठ पुत्र तैलपदेव भुजबलसांतार या नन्निसांतार थे । इनकी माता चत्रल या वीर महादेवीने पंचकूट जिन मंदिर (पंच वस्ती) बनवाया । नन्निसांतार और चत्रलदेवीके गुरु ओड़ेयदेव या श्रीविजय भट्टारक नंदिगण अरुंगलान्वय, तियानगुडीके नीदुम्बर तीर्थवासी थे । गुरुकी आज्ञासे पंचवस्तीकी नींव रक्खी गई । / आचार्यकी वंशावली दी है-*
श्री कुन्दकुन्दाचार्य भूमिसे ४ इंच ऊपर चलते थे। भद्रबाहुस्वामी, समन्तभद्र, उनके शिप्य शिवकोटि आचार्य, वर्दताचार्य, आर्यदेव, तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता, सिंहनंद्याचार्य, गंगवंशके स्थापक । एकसंधि सुमति भट्टारक, वजनंद्याचार्य, पूज्यपादस्वामी, श्रीपाल भ०, अभिनन्दनाचार्य, कवि परमेष्ठीस्वामी, त्रैवेद्यदेव, अनन्तवीर्य भ० जिसने श्री अकलंकसूत्रपर वृत्ति लिखी, कुमारसेनदेव, मौनीदेव, विमलचन्द्र भ०, कनकसेन भ०, यह राना राचमल्लके गुरु थे। दयापाल मुनि जिन्होंने शब्दानुशासनकी प्रक्रियामें रूपसिद्धि लिखी, पुप्पसेन सिद्धांतदेव, वादिरानदेव, जो षटतर्कसन्मुख व जगदेक मल्लवादी कहलाते थे, श्रीविनय या पंडित परिजात यही राक्षस गंग परमानदी, चत्तलदेवी, वीरदेव नन्निसांतारके गुरु थे । पंच
** यह वंशावली क्रमवार नहीं मालूस होती ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [३१९ कूट वस्तीकी प्रतिष्ठा श्रीविजय व उनके शिष्य चोल्लत, सांतदेव, गुणसेनदेव, दयापालदेव, कमलभद्रदेव, अनितसेन, पंडितदेव श्रेयांस पंडितदेवने कराई थी। इस वस्तीको उर्वी तिलकम् भी कहते हैं। पूजाके लिये नन्निसांतारने श्रीकमलभद्रदेवके चरण धोकर ग्राम दान किये
(७०) नं० ३६ सन् १०७७ वहीं तोरण वागिलके दक्षिण खम्भेपर। त्रिभुवनमल्लके राज्यमें नन्निसांतार आदिने पंचकूट वस्तीके लिये ग्राम दिये।
(७१) नं० ३७सन् ११४७, तोरन वागिलके उत्तर खंभेपर। जगदेकमल्लके राज्यमें, राजा तैलसांतार जगदेक दानी हुए । भार्या चत्तलदेवी । इनके पुत्र श्री वल्लभराजा या विक्रमसांतार त्रिभुवन दानी पुत्री पम्पादेवी थी। पम्पादेवी महापुराणमें विदपी थी। यह इतनी विद्यासम्पन्न थी कि इसे शासन देवता कहते थे। इसकी पुत्री वांचलदेवी थी। यह अतिमव्वेके समान प्रवीण थी जो चालुक्य राजा तैलके सेनापति मलप्पाकी कन्या थी । यह वांचल देवी नागदेवकी भार्या व पाडल तैलको माता थी। यह बड़ी जिनधर्मकी भक्त थी । इसने पोन्नत शांतिपुराणको १००० प्रतियें लिखाकर बांटी तथा १५०० जिनमूर्तिये सुवर्ण व जवाहरातकी बनवाई (देखो Introduction to भट्टाकलंकदेव कृत कर्णाटक शब्दानुशासन) । पम्पादेवीने अष्ट विद्यार्चना महाभिषेक व चतुर्भक्ति रची। यह द्राविलसंघ नंदिगण, अरुंगलान्वय अजितसेन पंडितदेव या वादीमसिंहकी शिष्य श्राविका थी। पम्पादेवीके भाई श्री वल्लभरानाने वासपूज्य सि० देवके चरण धोकर दान किया।
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३२० ]
प्राचीन जैन स्मारक ।
(७२) नं० ३८ सन् १०७७ मानस्तम्भपर वहीं । राजा व आचार्यकी प्रशंसा ।
(७३) नं० ४० सन् १०७७ मानस्तंभपर । चत्तलदेवीने कमलभद्र पंडितदेव के चरण धोकर भूमि दी पंचकूट जिन मंदिरके लिये तथा विक्रम सांतारदेवने अजितसेन पंडितदेव के चरण धोकर भूमि दी ।
(७४) नं० ४१ सन् १९२० ? वहीं - जिनशासन महात्म्य । (७५) नं० ४२ सन् १०९८१ उसी हातेमें । मूलसंघ पुस्तक गच्छ लक्ष्मीसेन भ० तथा पार्श्वसेन भ० ने समाधिमरण किया ।
(७६) नं० ४३ सन् १९९६ ? वहीं । गुणसेन सि० देवके शिप्य याद गाडड़ने समाधिमरण किया ।
(७७) ४४ सन् १२५९, पार्श्वनाथ वस्ती के पूर्व नंदि अन्वय, पुष्पसेन न्याय और व्याकरण में सागरसम थे । इन्होंने और अकलंकदेवने समाधिमरण किया ।
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(७८) नं० ४५ सन् ९९० इसी वस्ती व द्वारके पश्चिम भीतपर तौल पुरुष सांतारकी स्त्री पालिपकने अपनी माताकी मृत्युपर एक पाषाणका जिनमंदिर बनवाया जो पालिपक्क वस्तीके नामसे प्रसिद्ध है व दान किया ।
(७९) नं० ४६ सन् १५३०, पद्मावती वस्तीके हाते में । इस लेख में श्री विद्यानंदि व्रतपतिकी प्रशंसा इस तरह लिखी है(१) नारायण पट्टन के राजा नंददेवकी सभा में नंदनमल्ल भट्टको जीता इससे विद्यानंदि पद पाया । (२) सातवेन्द्र राजा केशरीवर्मा की सभा में वाद जीता इससे वादी प्रसिद्ध हुए । ( ३ )
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मदरास व मैसूर प्रान्त। [३२१ सालुवदेव रानाकी सभामें महान विजय पाई (४) विलिगेके राजा नरसिंहकी सभामें जैनधर्मका माहात्म्य प्रगट किया। (५) कारकलनगरके शासक भैरव राजाकी सभामें जैनधर्मका प्रभाव विस्तारा (६) राजा कृष्णरायकी सभामें विनयी हुए (७) कोपन व अन्य तीर्थोपर महान उत्सव कराए । (८) श्रवणबेलगोलाके श्रीगोम्मटस्वामी के चरणोंके निकट अपने अमृतकी वर्षाके समान योगाभ्यासका सिद्धांत मुनियोंको प्रगट किया। (९) जिरसप्पामें प्रसिद्ध हुए। (१०) आज्ञानुसार श्रीवरदेव राजाने कल्याण पूजा कराई । (११) मंगी राजा और पद्मपुत्र कृष्णदेवसे पूज्य थे। आगे इन मुनि महाराजको वंशावली दी है
भद्रबाहु अलकेको, विशापाचाये, तत्वार्थसूत्र की उमाम्यामी । मुनीश्वर जो श्रुतकेवलो समान थे, सिद्धांतकीर्ति जिनकी पूजा मिनदत्तरायने की । महर्दि अकलंकदेव जिन्होंने श्रीसमन्तभद्रके देवा गम स्तोत्रपर भाप्य लिया, स्वामी विद्यानंदि जिन्होंने अष्टमहत्री और श्लोकवार्तिक लिखे, माणिक्यनंदि जो जिनराजबाणी के कती थे, प्रभाचन्द्र जो न्यायकुमुदचन्द्रोदय के कती थे । श्रीपूज्यपाद (नोट-यहां भी अक्रय ही नाम है जिन्होंने शाकटायन व्याकरण और पाणिनी व्याकरणपर न्याप्त बनाया, जैनेन्द्र व्याकरण व शब्दावतार वद्यशास्त्र व तत्वार्थसूत्रपर टोका (सर्वार्थसिद्धि) रची, वर्द्धमान मुनींद्र जो होसाल वंशके गुरु थे, वासपूज्य व्रती जो वल्लालदेवसे पूजित थे, पात्रकेशरी, नेमिचन्द्र सिद्धान्त सार्वभौम त्रैलोकसारादिके कती व चामुण्डरायसे पूनित माधवचंद्र, अभयचन्द्र जिन्होंने वेशवार्य से प्रण कराया, जयकीर्तिदेव, निनच
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३२२ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
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द्वार्य, इन्द्रनंदि संहिता शास्त्रकर्ता, वसंतकीर्ति, विशालकीर्ति, शुभकीर्तिदेव, पद्मनंदि सुनि, माघनंदि, सिंहनंदि, चंद्रप्रभ मुनि, वसुनंदी, माघचंद्र, वीरनंदि, धनंजय, वादिराज, धर्मभूषण गुरु जिनकी पूजा बर्द्धमान मुनि वल्लभके मुख्य शिष्य देवराय राजाने की थी । विद्यानंदिका पुत्र सिंहकीर्ति व्रतींद्र, मेरुनंदि, बर्द्धमान, प्रभाचंद्र, अमरकीर्ति, विशालकीर्ति, नेमिचन्द्र भ०, सिंहकीर्ति मुनि हुए । यह अश्वपति के समय में प्रसिद्ध हुए । यह बड़े नैय्यायिक थे । इन्होंने दिहली के बादशाह महमूद सूरित्राणकी सभा में जिनके आधीन बंगाल देश था बौद्ध व अन्यों को बाद में हराया । बलात्कारगणी विशालकीर्ति जिसकी प्रतिष्ठा सिकन्दर सूरिताणने की थी व जिसने विद्यानगरके वीरपक्ष रायकी सभा में वादियों को जीता था देवप्पा दंडनायके नगर आरगनें उसने जैनधर्मका चमत्कार बताया था । विशालकीर्तिके पुत्र विद्यानंद स्वामी थे जिनकी प्रतिष्ठा साल्य महिराने की थी । स्वामी विवानंदिके पुत्र भारती और मललोचन थे । इनको देवेन्द्रकीर्तिक कहते थे। इनकी सेवा कृष्णराय के भाई अच्युतरावने की थी । विधानगिरिके कृष्णरायकी सभा में विद्यानंदिने विजय पाई और सुदेशभवन व्याख्यान रचा । विद्यानंदिके साथी नेमिचन्द्र सुनीं थे । इन्होंने श्री पार्श्वनाथ वस्ती जो पोम्बूच्छ है उसके तीन खन बनवाए व प्रतिठा करी । उनके पुत्र विशारकोर्ति व साथी अमरकीर्ति थे । देवेन्द्रकीर्तिकी पूजा राजा पांड्य और भैरव ओडयरके वंशवालोंने की थी । देवेन्द्रकी र्तिके पुत्र सुखी वा बर्द्धमान मुनिने इन काव्योंको रचा |
(८) नं० ४० सन् १६२ - नादात के मुखमंड
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मदरास व मैमूर प्रान्त |
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पके स्तंभपर । त्रैलोक्य मल्लदेवके राज्य में उनके आधीन त्रैलोक्यमल्ल वीर सांतारदेव पोम्बूर्च्छा में राज्य करते थे । राजाने नोकियके नामका जैन मंदिर बनवाया । इसकी स्त्री चागलदेवीने वसतीके सामने मृकरतोरण व वलिंग में चागेश्वर नामका जिनमंदिर बनवाया ।
(८१) नं० ४८ सन् १०६० | पद्मावती मंदिरके द्वारपर । उग्रवंश वीर सांतार राजाने नोकियव्ये मंदिरके लिये दान किया । ( ८२ ) नं० ४९ सन् १२३५ । ऊपर के मंदिरके हाने में पोम्वृच्छक माच गावन्दने समाधिमरण किया ।
((३) नं० ५० सन् १२६७ीं। सोमय पुत्रने समाधिमरण किया ।
((४) नं० ५१ सन १३२८ वहीं | होम्बुच्छा के पावलाने समाधिमरण किया ।
(८५) नं० ५३ सन १९२६१ वहीं मूलसंघ बालचंद्रदेवको शिष्या श्राविका सोपीदेवीने समाधिमरण किया ।
((६) नं० १४ सन् १९२० ? वहीं स्मारक गुनिचन्द्र मलारीदेव शिष्य अभयचंद्र मुवी देशीगण ।
(८७) नं० ५५ सन् १९६८ ? यहीं । धनीनजकयके पुत्र रामश्रेष्ठी व ब्रह्मश्रेष्ठीने पहला मंडप बनवाया ।
(८८) नं० १६ सन् १९४८ वहीं महामंडलेश्वर ब्रह्मभूपाके मंत्री ब्रह्मप्पा सेनवावे के पुत्र पार्थसेन वायेने समाधिमरण किया । ((९) नं० ५७ सन् १०७७ करीब । सेलवस्ती के सामने मानस्तम्भपर ।
वीर सांतारके राज्य में दिवाकरनंदि सिद्धांतदेव के शिष्य पट्ट
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३२४] प्राचीन जैन स्मारक । नस्वामी नोकप्पासेठीने तत्त्वार्थसुत्रपर कनड़ीमें सिद्धांतरत्नाकर नामकी वृत्ति रची जिसे उसके पुत्र मल्लामने लिखी।
(९०) नं० ५८ सन् १०६२ सुले वस्तीके सामने । नन्निसांतारके राज्यमें पट्टनस्वामी नोकथ्यासेठीने पट्टनस्वामी जिनालय बनवाया व वीरसांतारसे मोलकेरी ग्राम पाकर उसे व ग्राम कुक्कडवल्लीको सकलचन्द्र पंडितदेव सहधर्मीके चरण धोकर दान किया ।
पट्टनस्वामी बड़े धर्मात्मा थे । इनका नाम सम्यक्तवाराशि प्रसिद्ध था । इसने महुरामें जवाहरात व सुवर्णकी प्रतिमा बनवाई व कई सरोवर बनवाए।
(९१) नं० ५९ ता० १०६६ । चन्द्रप्रभु वस्तीके बाहरी भीतपर । भुनवल सांतारदेवने कनकनंदि मुनिकी सेवामें हरवरो, आम अपने बनाए जिनालयके लिये दिया ।
(९२) नं० ६० सन् ८९७-गुड्डुडवम्तीकी बाहरी भीत। तैल पुरुष विद्ययादित्य सांतारने कुन्द ० मुनि सिद्धांत भट्टारकके लिये पापाणका जिन मंदिर बनवाया।
ता० तार्थहल्लो । (९३) नं० १६६ सन १६१० ग्राम मेलिंगे । आदिनाथ वस्तीमें रंगमंडपके दक्षिण पश्रिम । पहले अनन्तनाथको स्तुति है फिर अन्वय देशके पोंडगोंडे दबार के बेंकटपति देवरायके राज्यमें । इसके राज्य में नगर आरग था । भुवनगिरिके पूर्व जिसका शासक वेंकटौदि महिपाल था । इसके आधीन मुत्तरपर सोम्मनी हेगड़े राज्य करते थे तब बर्द्धमान सेठीके पुत्रने अनंत जिनका मंदिर बनवाया व दान दिया। गुरु बलात्कारगणमें भ० विशालकीर्ति
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मदरास व मैमूर प्रान्त। [३२५ थे जो विद्यानंदि मुनीश्वरके वंशमें देवेन्द्रकीतिके शिष्य थे।
(९४) नं० १९१ सन् ११८० ? वानसालेमें वस्तीके पास। महामंडलेश्वर मंडल महिपालके सर्वाधिकारी श्रीपद्मप्रभुदेवके शिष्य वैजनके पुत्र, वायलसेन वोवके भाई चगसेन वोक्ने समाधिमरण किया।
(९५) नं० १९२ सन् १? ०३ । चालुक्य त्रिभुवनमल्लके राज्यमें । उग्रवंशी अजवलि सांतारने णेम्बुलीमें पंच वस्ती बनवाई उसीके सामने अनन्दरमें चत्तलदेवी और त्रिभुवनमल्ल सांतारदेवने एक पाषाणको वस्ती श्री दाविल संघ अरुंगलान्वयके अजितसेन पंडितदेव वादि घरट्टके नामसे बनवाई ।
(९६) नं० १९७ सन १३६३. कनवे ग्राम, नंदगद्देके पास कल्ल्ट वस्तीमें । जब मूलस० देशीगण पुस्तकगच्छमें चारुकीर्ति पंडितदेव थे व माले राज्यमें वीरमुक्त महारान और उसके पुत्र वीरपन्न ओडयर राज्य करते थे तर वेदरनादके लोगोंसे और मंदिरके आचार्यसे श्रीपार्श्वनाथ वस्तीकी ममिके सम्बन्धमें जो हेड्डानादमें तदुतालमें थी, झगड़ा होगया। नः महामंत्री नागन्ना, अरसू, जैन मलप्पा व तीन मंदिर व १८ कम्पन के लोगोंने मिलकर आरग चावड़ीमें जांचकर हद्द कायम कर दी।
___ (९६) नं० १९८ सन् १०९० : वाह । होसालदेवके महामंत्री भंडारी चंडिमय्याकी स्त्री बोप्पवेने पमाधिमरण किया ।
(९८) नं० १९९ सन् १०९३ : वहीं। मूल • सुंद० देशीग. के मलधारीदेवके शिप्य शुभचन्द्रने समाधिमरण किया।
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३२६ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
(८) चीतलडुग जिला |
यह जिला मैसूर से उत्तर है ।
पुरातत्त्व - यहां प्राचीन समाधि स्थान हैं, जैसे मलकालमेरुमें है जहां अशोकका शिला स्तंभ पाया गया है जिसको मौर्यमने या मौर्योका घर कहते हैं । यह स्थान बेड़ोंकी वस्तीका है । ऐसा मालूम होता है कि यहां उत्तर ( बेडग ) से आकर कनड़ी लोग नीलगिरि वेडग कहलाने लगे ।
यहांके स्थान |
(१) ब्रह्मगिरि- ता० नलकालमेरुमें एक पहाड़ी है- सन् १८९२ में यहां एक बड़े पाषाण पर अशोकका लेख पाया गया था | इसके पश्चिम सिला यान है यह प्राचीन सिद्धपुर है ।
(२) चीतलडुग - होलालकेरी टे० से उत्तरपूर्व २४ मील । यहां पश्चिममें प्राचीन नगर चंद्रावलीके चिह्न हैं । बौद्धोंके सिक्के मिलते हैं । दूसरी शताब्दी के मंत्र या शतवाहनके हैं - पुरानी गुफाएं हैं । कुछ मंदिर ५०० वर्षके पुराने हैं। पंचलिंग गुफा में हो मालवंशका लेख सन् १२८३का है ।
(३) निर्गुड ता० होसदुर्गा - यहांसे ७ मील। यहां ८ वीं शताब्दी में जैनवमी गंगवंशी राजाओंके ३०० प्रांतकी राज्यधानी थी इसको उत्तरके राजा नीलशेषरने सन ई० से १६० पूर्व स्थापित किया था बहुत प्राचीन नगर था !
(४) सिद्धपुर - मैसुर नगरले उत्तर पूर्व ९ मील । ता० मलकालमेरु | यहां अशोकका स्तम्भ पाया गया है । इस जिलेमें सन् १९०१ से पहले जैनी ८३९ थे ।
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मदरास व मैसूर प्रान्त | जैन शिलालेख जो एपिग्राफी करनाटिका जिल्द ११वींसे लिये गये हैं ।
(१) नं० १३ सन् १२७१ नाम बेतुरु ता० दावनगिरि । सिद्धेश्वर मंदिर में यह बेत्तर पांड्य देश के मध्य है । यादववंश महादेव व रामचन्द्र राज्य करते थे उनके आधीन कूचा राजा बेत्तर व अन्य ग्रामोंका स्वामी था । यह वीरसेन व जिनसेनाचार्य के वंशज जिन भट्टारक देवका शिष्य था । इसकी स्त्रीने जो पद्मसेन यतिपकी शिष्या थी ली जिनालय बनवाया । कूची राजाने उसे मूलसंघ, सेणगण पोगरमच्छ के आधीन किया तथा महादेवराजासे हुनिमेयल्ली ग्राम लेकर पद्मसेन भट्टारकके चरण धोकर श्रीपार्श्वनाथ भगवानकी सेवार्थ दान किया |
(२) नं० ९० सन ११२८, ग्राम साबनारु, मादिकहेके दक्षिण । चालुक्य त्रिभुवनमल परमादीदेवके राज्यमें उसका सेवक राजा पांड्य था । उसका मंत्री सूर्यदंडाधिप था, भार्या करियक्क थी । उसने यहां एक जैनमंदिर बनानेका प्रण किया था । इसने श्रीपादेवकी सेवार्थ बोम्बनके शांतिसेन पंडित के हाथोंमें भूमि दान की । यह द्राविलसंघ अरुङ्गलान्वयके अजितसेन भ० के शिष्य मलिषेण व्रतींद्र मलधारीके शिष्य श्रीमाल त्रैविद्यदेवके शिष्य थे ।
ता० मलकालमुरु |
(३) नं० १६ से १९ जैन समाधिके स्मारक सन् १२०० १ (१६) मूलसंघ व गणके माधवदेवके पुत्र वरगन गौडन चक्की गाड़ियाने (१७) मुद्दवेयने (१८) मालवने (१९) मलिसेठीने ।
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प्राचीन जैन स्मारक।
ता. हिदियर । (४) नं० २८ सन् १४ १ ० धर्मचूरामें पुलिस चौकीके सामने । विजयनगरके बोरदेव महाराजके राज्यमें, गोप चामुप निगुडालके पहाड़ी किले में राज्य करते थे । यह मिन शासनका समुद्र था।
(आगेका लेख नहीं है )
(२७) कुग प्रांत। यह दक्षिण भारतमें एक छोटा वृटिश प्रांत है जहां १५८२ वर्गमील स्थान है । इसकी चौहद्दी है-उत्तर पूर्व हासन और मैसूर, दक्षिण पश्चिम मलावार और दक्षिण कनड़ा ।
इतिहास-नौमी और १० मी शतानीके लेखोंसे प्रगट है कि यह गंगवंशमें शामिल था जिसने दूसरीसे ११ वीं शताब्दो तक मैसूरने राज्य किया था।
चंगल्यवंशी राजा-ये गंगवंशी राजाओंके आधीन चंगनादके राजा थे गे पीछेसे नंनराय पाटनके राजा अपनेको कहते थे । यह स्थान कुर्गमें कावेरीके उत्तर है । ये पहले पहल कावेरीके दक्षिण येडाटोर और मेहरमें मिलते हैं। इनका देश मैसूरका हुनमृर ता० व कुगका उत्तर व पूर्व भाग था। इनके शिलालेख येदवनाद तथा वेदियतनादमें पाए गए हैं। ये मूलमें जैनी थे। इनके आचार्य हेनसोगेसे तलकावरी तक जैन मंदिरोंपर स्वतंत्र अधिकार रखते थे They were originally Jains. 1 ११ वीं शताब्दीमें इनमें नन्निचंगल्वराजेन्द्रचोल बहुत प्रसिद्ध राजा होगया है । १२ वीं शताब्दीमें इन्होंने अपना धर्म जैनसे लिंगायत कर लिया। कोंग
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मदरास व मैसूर प्रान्त | ववंशी - यह चंगलवासके उत्तर कोंगाल वामके निवासी थे । ११वीं शताब्दी में मैसूरके अर्कलग्रड ता० में तथा कुर्गके उत्तर येलसिविर देशमें राज्य करते थे । ये भी जैन थे They also were 1 Jains. इनके देशको पहले कोंगलनाद कहते थे ।
होयसाल - लोगोंकी उपाधि मलप्पा थी अर्थात् पहाड़ी सर्दार । सन् ९९७ के कुर्गके लेख ऐसे ४ मलप्पोंका वर्णन करते हैं ।
पर्वतकोटे वेद-मर्करासे उत्तर ९ मील ५३७५ फुट ऊंचा है । एपियैफिका कर्नाटिका जिल्द पहली (by Lewis Rice 1886) में जो कुर्गके शिलालेखों का वर्णन दिया हुआ है उनमें से जैन संबंधी वर्णन नीचे प्रकार है---
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गंगवंश -कुर्ग के शिलालेखोंसे गंगवंशका जो विशेष हाल माम हुआ सो यह है कि इनका प्रथम मुख्य राजा कोंगनी वर्मा धर्म महाराज के झंडे में मोरपिच्छका चिह्न था (नोट- यह बात प्रगट करती है कि ये दि० जैनधर्म के माननेवाले थे) राजा हरिवर्मा २४७ ई० में था । माधवने ४२५ में कादम्बवंशी कृष्णवर्माकी बहन के साथ विवाह किया था । पुन्नाट देशके राजा स्कन्धवर्माकी कन्या के साथ अविनीत ( ४२९ - ४७८ ) ने विवाह किया था जो कादम्बवंशी स्त्रीका पुत्र था । पुन्नाटवंशी राजा काश्यपगोत्री राष्ट्रवंशी राजा उदयादित्य (१०७० - ११०२) भुवनैकवीर बड़ा विद्वान् था इसको नागवर्माने गुणवर्मा कवि लिखा है । इसने हरिवंश, पुप्पदंतपुराण आदि ग्रंथ लिखे हैं (देखो कर्नाटक शब्दानुशासन)
(१) एक ताम्रपत्र जो मर्करा में पाया गया सन् ४६६ ई० । माधव महाराजके पुत्र कोंगनी महाराजने मुनि वंदनंदी भट्टारककी
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३३०] प्राचीन जैन स्मारक । सेवामें ग्राम वदनेग्रप्प, तलवन नगरके श्री विनय जिनमंदिरके लिये दान किया। यह राना सन् ३८८ में अकालवर्षका मंत्री था | कुंद० देशीग में गुणचंद्र भ० थे। उनके शिष्य अभयनंदी भ० थे, उनके शिष्य शीलभद्र भ० थे, उनके शिष्य गुणनंदी भ० थे, उनके शिष्य वदनंदी भ. थे।
(२) शिलालेख विलिथरमें सन् ८८७ ई० । सत्यवाक्य कोंगनीवर्मा धर्म महाराजाधिराज ककलालपुर और नंदगिरिक रानाने, परमानदीके राज्यारुढ़के १४वें वर्ष में पेन्नेकोडंगके सत्यवाक्य जिनमंदिरके लिये शिवनंद सिद्धांत भट्टारकके शिष्य सर्वनदीदेवकी सेवामें पेज्जेर नदीके तटपर विलियूरके १२ ग्राम दान किये। ___ (३) शिलालेख फेग्गर स्थानपर सन् ९७७ या ८९९ शाका । राना सत्यवाक्य कोंगनीवर्माने श्रवणबेलगोलाके वीरसेन सिद्धांतदेवके शिप्य गुणसेन पंडित भट्टारकके शिष्य अनंतवीर्यकी सेवामें पेग्गेडिरा ग्राम भेट किया।
(४) शिलालेख अननगिरि पर सन् १९४४. यह लेख संस्कृत और कनड़ी दोनोंमें है।
श्रीशांतिनाथाय नमः निर्विघ्नमस्तु शुभमस्तु । श्रीमत्परमगंभीरस्याहादामोघलक्षणम् । जीयात त्रैलोक्यनाथस्य शासनम् जिनशासनम् । स्वस्तिश्री मूलसंघ देशीगण पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वय जय गुलेश्वरवरेय श्रीमद बेलगुल सुरपुरवराधीश्वर गुमट्ट जिनेश्वरनाद पद्ममत्तमधुकरायमान राद तात्काल धर्मप्रवर्तक राद धर्माचायर विरुदावली येन्तेनुओ....इत्यादि । भावार्थ यह है कि बल्लालरायके जीवनरक्षक श्रीमत् चारुकीर्ति पंडितदेवके शिष्यके
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मदरास व मैसूर प्रान्त । [ ३३१ शिष्य श्रीमत् अभिनवचारुकीर्ति पंडितदेव थे । इनके सहपाठी श्रीमत् शांतकीर्तिदेव थे । इन्होंने शाका १४६६ में कार्तिक सुदी १५ को नीचेका लेख लिखाया
अभिनव चारुकीर्ति पंडितदेवने अंजनगिरि पर्वतकी शांति - नाथस्वामीकी वस्तीके दर्शन किये तब उन्होंने एक लकड़ीकी वस्ती बनवाकर श्रीशांतिनाथ और अनंतनाथको मूर्तिको जो उन्होंने सुवर्णवती नदी से पाई थी वहां बिराजमान किया जिनकी प्रतिष्ठा उनके भाई कोणसन गुड्डा शांतोपाध्यायने की तथा पाषाणके मंदिर के बनाने का उपदेश दिया । नीचे पाषाणके कामके खर्चका वर्णन है ।
मदरास शहरका अवशेष वर्णन ।
मदरास अजायबघर में जो जैन प्राचीन स्मारक हैं उनका विवरण नीचे प्रकार है---
१ - जैनशासनका पापाण जिसके ऊपर श्रीतीर्थंकर की मूर्ति है व नीचे आधे भाग में जैनाचार्य और उनके शिष्यकी मूर्तियें अंकित हैं। २ - श्रीमहावीर भगवानकी बेटे आसन मूर्ति तीन छत्र व चमरेन्द्र सहित | २||| फुट ऊंची है ।
३ - एक जैन तीर्थंकरकी ४ फुट ऊंची जो टिन्नेवेली जिले के ट्यूटीकोरिन से स १८७८ में लाई गई थी ।
४ - श्री तीर्थंकर पार्श्वनाथजीकी वैटे आसन मूर्ति छत्र व देवसहित । २|| फुट ऊंची जो गोदावरी जिलेसे सन् १९२० में लाई गई । ५ - श्रीशांतिनाथ भगवानकी बहुत ही सुन्दर कायोत्सर्ग मूर्ति, २||| फुट ऊंची । पाषाण कृष्ण चमकीला । इसमें कनड़ी
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३३२ ]
प्राचीन जैन स्मारक |
अक्षरों में संस्कृतका लेख है जिससे प्रगट है कि साहित्यके गाढ़ प्रेमी महाराज सवदेवने शिल्पशास्त्र के अनुसार प्रतिमा बनवाकर प्रतिष्ठा कराई । स्थान अज्ञात है । शायद मैसूर या दक्षिण कनड़ासे सन् १८९९ में यहां लाई गई ।
६- श्रीशांतिनाथकी मूर्ति ४ || फुट ऊंची तीन छत्र प्रभामंडल सहित | आसन में कनड़ी में लेख है कि यह मूर्ति श्री शांतिनाथजीकी है । यह येरग जिनालय में स्थापित थी जिस मंदिरको श्री मूलसंद कुंदकुंदान्वय, कारगण तित्रिणिगच्छके महामंडलाचार्य सकलभद्र भट्टारक के शिष्य श्रावक महाप्रधान वृहदेवनने बनवाया । स्थान अज्ञात है, शायद मैसूर या दक्षिण कनड़ासे सन् १८५९ के पहले लाई गई। ७ - श्रीपाश्र्वनाथकी कायोत्सर्ग मूर्ति सात फण चमरेन्द्र सहित । यह कृष्ण पाषाणकी ३२|| फुट ऊंची है ।
८ - श्रीमहावीरस्वामीकी कायोत्सरी मूर्ति प्रभामंडल सहित जिसमें २४ तीर्थकर बैठे आसन अंकित हैं ।
९- श्रीमहावीरस्वामीकी बेटे आसन मूर्ति || फुट उंची छत्रादि सहित ।
१० - श्री अजितनाथकी वैठे आसन मृर्ति तीन छत्र व चमरेन्द्र सहित २ फुट ऊंची । इसका शिल्प बहुत ही सुन्दर है इसकी मूर्ति बेलारी जिलेके पेड्डातुम्बलम ग्रामसे लाई गई ।
११ - श्रीमहावीरस्वामी की मूर्ति छत्रादि सहित २ फुट, ऊपर के स्थान से लाई गई ।
१२ - श्री पुष्पदंतकी मूर्ति छत्रादि सहित कुछ खंडित २ || फुट ऊंची, उत्तर अर्कटके कीलनर्म ग्रामसे लाई गई ।
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मदरास व मैमूर प्रान्त। [३३३ १३-श्री महावीरस्वामीकी बैठे आसन मूर्ति छत्रादि सहित अनुमान ४ फुट ऊंची। चिगेलपेट जिलेके विल्लिवक्कम ग्रामसे. लाई गई।
१४-श्री महावीरस्वामीकी बैटे आसन मूर्ति छत्रादि सहित ३। फुट अनुमान उत्तर अर्कट सकिरमल्लूर ग्रामसे लाई गई।
१५-श्री पद्मप्रभकी बैठे आसन १७ इंच छत्रादि सहित । १६-श्री सुपार्श्वनाथकी बैटे आसन १७ इंच ,,
१७-१ स्तम्भका ऊपरी भाग बहुत सुन्दर कारीगरी जो २० इंच x १५ इंच x १५ इंच है। चारों तरफ चमरेन्द्र सहित बेटे आमन तीर्थकर हैं।
१५-एक बभा बहुत बढ़िया खुदाई एक तरफ है। यह अनुनान ६ फुट ऊंचा है।
१९--एक खमा कलश सहित ७॥ फुट उंचा । इसके तीन तरफ कनहीके लेख है । चौथी तरफ तीन आले हैं। उपरके आलेमें श्रीमहावीरम्वामी छत्र चमर सहित है, मध्यमें एक स्त्रीकी मृति है,जो नमस्कार कर रही है। सबसे नीचे एक घोडेपर सवार एक गजा खुदे हैं।
२०-श्री सुपार्श्वनाथकी मूर्ति ३। फूट-नीचे जैनाचार्य.. और उनके शिष्यकी मूर्तियां हैं।
२१-श्री महावीरस्वामीकी मूर्ति, नीचे एक स्त्री नमस्कार कर रही है । २||| फुट।
२२-श्री महावीरम्वामी २|| फुट, नीचे एक पुरुष और एक स्त्री पूना कर रहे हैं।
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३३४]
प्राचीन जैन स्मारक |
२३ - श्री चंद्रप्रभु २||| फुट, नीचे एक स्त्री पूज रही है । ये नं० २० से २३ तक स्तंभोंके ऊपरी भाग मालूम होते हैं । २४ - एक तीर्थंकर की मूर्ति, नीचे एक पुरुष पुजारी है । २९ - एक तीर्थंकर की मूर्ति मस्तक रहित ।
२६- श्रीपार्श्वनाथकी कायोत्सर्ग खंडित मूर्ति बड़ी घुटनोंसे ऊपर ६ फुटसे अधिक | कंधोंके पास चौड़ाई २ || फुट | २७- एक पक्षीका खंडित मस्तक ।
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२८ - एक पक्षीकी खंडित मूर्ति |
२९ - एक खुदा पाषाण जिसमें एक तीर्थंकर चमरेन्द्र सहित हैं, नीचे दो मुनि बैठे हैं ।
३० - एक खंभेका ऊपरी भाग खुदाई सहित |
३१ - एक तीर्थंकरका मस्तक ।
३२- एक पक्षीकी मूर्ति बैठे आसन २ || फुट |
३३ - एक खंभेका उपरी भाग, चार तरफ तीर्थंकर हैं ।
३४ - एक खुदा हुआ पाषाण स्तम्भ ५|| फुट अनुमान ऊंचा । ऊपर सामने श्रीमहावीरस्वामी बैठे आसन हैं, नीचे एक बेटे आसन पुरुष पुजारी है। पीछे संस्कृत में दो लेख तेलुगू लिपिमें हैं । पहले में है - शास्त्राभ्यासो निपतिनुतिः, दूसरे में है कि शाका सं० १३१९ में ईश्वर सम्वत फागुण सुदी १ का सेठी की निपीधिका.... (सन् १३९७) । यह कुडापा जिलेके दानबुल पादुसे लाया गया । कुड़ापा जिलेमें भी वर्णन है ।
-DIENAL
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श्रीमान् जैनधर्मभूषण धर्मदिवाकर ब्र० शीतलप्रसादजीकृत
प्राचीन जैन स्मारक ग्रंथ । पूज्य व्र० सीतलप्रसादजी, सरकार गजेटियरों आदिसे खोज करके सारे भारत के प्राचीन जैन मंदिर, स्तम्भ, बडहर, मूर्तिये, शिलालेख, ताम्रपत्र आदिका संग्रह अतीव परिश्रमसे करते रहते है जिससे निम्नलिखित प्राचीन जैन स्मारक ग्रन्थ तैयार होकर लागत मात्र मूल्यसे मिलते हैं जिनकी एक २ प्रति हरएक मंदिर ब गृहमें मंगाकर अवश्य २ संग्रह करने योग्य है । (१) बंगाल, विहार, उड़ीसाके प्राचीन जैनस्मारक ।
- (ए० १६० मूल्य मात्र आठ आने) (२) संयुक्त प्रान्तके प्राचीन जैनस्मारक ।
(ए० १६० मू० मात्र छह आने ) (३) बम्बई प्रान्तके प्राचीन जैनस्मारक ।
___(ए० २५५ व मूल्य मात्र बारह आने ) (४) मध्यप्रान्त, मध्यभारत व राजपूतानाके प्रा० जैनस्मारक
(१० २५० व मूल्य मात्र दश आने ) (५) मदरास प्रान्तके प्राचीन जैन स्मारक ।
(० ३६८ मूल्य एक रुपया ) (६) पंजाव भातके प्राची। जैनस्मारक ( तैयार होरहा है )
मगानेका पतामैनेजर, दिगम्बर जैन पुस्तकालय, चंदावाड़ी-मूरत ।
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ब्र० शीतलप्रसादजी रचित ग्रन्थ ।
१ समयसार टीका (कुंदकुंदाचार्यकृत) ४. २५० ) २ समाधिशतक टीका ( पूज्यपादस्वामीकृत)
211)
१1)
३ गृहस्थधर्म (दूसरीवार छप चुका ८० ३५०) १॥ १॥ )
४ तत्रमाला (७ तत्त्वोंका स्वरूप)
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५ स्वस्मरानंद ( चेतन - कर्म युद्ध )
६ छः ढाला (दौलतरामकृत सान्वयार्थ ) ७ नियम पोथी (हरएक गृहस्थको उपयोगी ) ८ जिनेन्द्रमतदर्पण प्र० भाग ( जैनधर्मका स्वरूप ) ९ आत्म- धर्म (जैन अजैन सबको उपयोगी, दूमरीवार १० नियमसार टीका (कुन्दकुन्दाचार्यकृत) ११ ज्ञानतत्वदीपीका
१२ सुलोचनाचारित्र (सर्वोपयोगी )
१३ अनुभवानंद (आत्मा के अनुभवका स्वरूप) १४ दीपमालिका विधान (महावीर पूजन सहित) १९ सामायिक पाठ (हिन्दी छंद, अर्थ, विधि सहित) १६ इष्टोपदेश टीका ( पूज्यपादस्त. ट २८०) १७ ज्ञेयतत्वदीपिका
१८ चारित्रतत्वदीपिका
१९ पंचास्तिकाय दर्पण अथवा पं नास्तिकाय टीका
२० अध्यात्मिक सोपान
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(११)
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२१ आत्मानन्दका सोपान
२२ मुखशांति की सच्ची कुंजी
मिलने का पता - मैनेजर, दिगम्बर जैन पुस्तकालय - मूरत ।
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________________ वीर सेवा मन्दिर प्रस्तकालय