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समयतक नहीं टिक सक्ता । शैवधर्मके प्रचारकोंने जैनियोंकी इन दुर्बलताओं से पूरा लाभ उठाया । ये प्रचारक' नामनार ' कहलाते थे, वे free महात्म्यके स्तोत्र बनारकर उनका जनतामें प्रचार करने लगे और स्थानर पर शिव मंदिर निर्माण कराकर उनमें जनसाधारण के चित्तको आकर्षित करनेवाला क्रियाकाण्ड करने लगे । इस समय अर्थात् लगभग सातवीं शताव्दिके मध्यभागमें पांड्य देश में सुन्दर पांड्य नामक राजाका राज्य था । यह राजा पक्का जैनधर्मी था किन्तु इसकी रानी और मंत्री शैवधर्मी थे । इन्होंने पांच देशमें शैवधर्मकी प्रभुता स्थापित करनेका जाल रचा। इस हेतु उन्होंने 'ज्ञान सम्बन्दर' नामक शव साधुको आमन्त्रित किया । कहा जाता है कि इसने कुछ चमत्कार दिखाकर राजाके सन्मुख जैनियोंको परास्त कर दिया जिससे राजाने अपना धर्म परिवर्तन कर लियर और आठ हजार जैनाचार्योंका वध करा डाला ।
ठीक इसी समय पल्लव देशमें भी धर्म विप्लव हुआ । वहां अप्पर नामके एक दूसरे शैव साधुने पल्लव नरेश महेन्द्रवर्माको जैनसे शैव बनाया। कहा जाता है कि स्वयं अप्पर पहले जैनी था किन्तु अपनी भगिनीके प्रयत्नसे वह शैव होगया । इन राजधमों में विहारका वर्णन 'पेरिय प्रराणम्' नामक शैव साधुओंके जीवनचरित्र सम्बंधी ग्रन्थ में कथारूपमें पाया जाता है । इन कथाओंका अधिकांश कल्पनापूर्ण है किन्तु उनमें भी ऐतिहासिक तथ्य छुपा हुआ है । इसी समय वैष्णव अल्वरोंने अपना धर्मप्रचार प्रारम्भ किया और जैनधमको क्षति पहुंचाई। मदुराके मीनाक्षी मंदिरके मंडपकी