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(४) अनेक माहित्यिक और शिलालेखादि सम्बन्धी प्रमाणों द्वारा यह घटना भिद्ध भी होचुकी है। अब प्रश्न यह है कि क्या इससे पूर्व भारतके इस विभागमें जैनधर्मका सर्वथा अभाव था ? दक्षिणभारतके प्रसिद्ध इतिहाससंग्रह 'राजाबली कथा' में उल्लेख है क भद्रबाहुस्वामीके शिष्य विशाखाचार्यने चोल और पाण्ड्य प्रदेशोंमें भ्रमण करते हुए वहांके नि चैत्य लयोंकी वन्दना की और जैन श्रावकों को उपदेश दिया। इसमें स्पष्ट ज्ञात होता है कि 'रानावली कथा' के कर्ताके मतानुमार भद्रबहुम्वामीके आगमनसे पूर्व भी मद्रास प्रान्तमें जैनधर्मका प्रचार था। इस सम्बंधमें प्रोफेसर ए. चक्रवर्तीका अनुमान है कि यदि भद्रबाहुमे पूर्व ही दक्षिण भारतमें जैनध का प्रचार न होता तो भद्रबाट म्वामीको दुर्भिक्षके समयमें बारह हजार शिष्यों को लेकर दक्षिण में आने का साहस कदा चतू न होता। उन्हें अपने वहांके निवासो छ नुयायियों द्वारा अपने शुभागमन किये जानेका विश्वास था इसी में ये एकाएकी वैसा माहा : र सके। इस बातका एक और भी अधिक प्रबल प्रमाण मिला है।
. सिंहलढपके इतिहाससे सम्बंध रखनेवाला सिंहलद्वीपम जैनधर्म।
- 'महावंश' नामका एक पाली भाषाका ग्रंथ है निसे धंतुसेन नामके एक बौद्ध भिक्षुने लिखा है। इस ग्रन्थका रचनाकाल ईसाकी पांचवीं शताव्द अनुमान किया जाता है । इसमें ईस्वी पूर्व ५४३से लगाकर ईस्वी सन् ३०१ त का वर्णन है। इसमें वर्णित घटनायें सिंहलद्वीपके इतिहासके लिये बहुतायतसे प्रमाणभूत मानी जाती हैं । इस ग्रन्थमें सिंहलद्वीपके नरेश 'पनुगाभय के वर्णनमें कहा गया है कि उन्होंने लगभग ४३७ ईस्वी