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प्राचीन जैन स्मारक |
(२) कायोत्सर्ग १ || हाथ ऊंची श्रीषार्श्वनाथ भगवानकी ।
इधर उधर तीन देव नीचे, १ भक्त बैठे हैं, ऊपर लेख है जो बिगड़ गया है । इनका दर्शन करके बहुत ही आनन्द हुआ । कुछ मंदिर आसपास हैं जिनमें अब शिवलिंग है । ऊपर मुसलमानोंने मसजिद बनाली है । भीतर गुफामें कब बना ली है । इन दोनों पर्वतों को देखकर हमको निश्चय होगया कि अवश्य यहां पर चौथे तथा पंचमकालमें जैनधर्मका खूब प्रचार था । जैन पुराणोंसे प्रगट है इस दक्षिण मथुरा नगर में श्रीयुधिष्ठिरादि पांच पांडवोंने अपने अंतिम जीवनमें राज्य किया था व यहां ही दीक्षा लेकर साधु हुए थे तथा रेवती रानीकी अमूढदृष्टि अंगकी कथासे प्रगट है कि यहां श्रीमहावीरस्वामीके समय लगभग बड़े२ मुनि निवास करते थे । यहां तप करनेवाले श्रीगुप्ताचार्य जीने उत्तर मथुरा में सुव्रतनाम मुनीश्वरको नमस्कार कहला भेजा था । प्रमाण आराधनाकथाकोष ब्र० नेमिदत्त कृत
मेघकूटपुरे राजा नाम्ना चन्द्रप्रभः सुधीः ॥ २ ॥ यात्रां कुर्वजिनेन्द्राणां महातीर्थेषु शर्मदाम् । गत्वा दक्षिणदेशस्थ मथुरायां स्वपुण्यतः ॥ ४ ॥ गुप्ताचार्यमुनेः पार्श्व श्रुत्वा धर्मकथास्ततः । प्रोक्तः परोपकारोत्र महापुण्याय भूतले ॥ ५ ॥ इति ज्ञात्वा तथा तीर्थयात्रार्थ श्रीजिनेशिनाम् काश्विद्विद्यादधानोपि क्षुल्लको भक्तितोऽभवत् ॥ ६ ॥ एकदा तीर्थयात्रार्थमुत्तरां मथुरां प्रति । गन्तुकामेन तेनो गुरुः पृष्टः प्रणम्य च ॥ ७ ॥ किं कस्य कथ्यते देव भवद्भिः करुणापरैः ।
स प्राह परमानन्दाद् गुप्ताचार्यो विचक्षणः ॥ ८ ॥