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प्राचीन जैन स्मारक |
शिला लेख है उसमें लिखा है “यह पेन्नगोडेके बोई सेठीके पुत्र होन्नी सेठी और उसकी स्त्री विरायीकी निषीधिका ( मरण स्मारक ) हैं। कुछ फुट दूर पांच खुदे हुए व लेखसहित पाषाणोंकी कतारें हैं - बांई तरफका पाषाण ४ || फुट ऊँचा हैं उसमें बैठे आसन तीर्थङ्कर हैं, कलशका चिह्न है, पीछे लेख है" उस आचार्यकी निषिधिका जो कुरुमा रिना तीर्थसे सम्बन्ध रखते हैं परोख्य विमय ( एक जाति) के हम्पवेने स्थापित की ।
दूसरे पाषाण में भी बैठे आसन तीर्थङ्कर हैं ।
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तीसरे पाषण के पीछे एक खंडित लेख है । चौथे पाषाण में बैठे हुए तीर्थंकर हैं । लेख यह है "पेन्नुगोंडेके वैश्य विजयन्नाकी पुत्री ममगवेकी निषीधिका" पांचवां तथा अंतिम पाषाण (चित्र नं० ७) सबसे ऊंचा है । यह ६ फुट तीन इंच लम्बा है । इसके तीन भाग सामनेकी तरफ हैं | कलशका चिह्न है । नीचेके भागमें घुड़स1 वार है, बीच में नमस्कार करता हुआ पुजारी है । ऊपरी भाग में बैठे हुए तीर्थङ्कर हैं। दोनों बगल में तथा पीछे लेख हैं । पहले लेखमें है - " महा योद्धा दंडाधिपति ( सेनापति ) श्रीविजय अपने स्वामीकी आज्ञा से ४ समुद्रोंसे वेष्टित पृथ्वीपर राज्य करता था जिसने अपने प्रबल तेजसे शत्रुओं को दबाया व विजय कर लिया था । अनुयम कवि श्री विजयके हाथमें तलवार बड़े बलसे युद्ध में काटती है और घुडसवारोंकी सेना के साथ हाथियोंके बड़े समूहको प्रथम हटा कर भयानक सिपाहियोंकी कतारको खंडित कर विजय प्राप्त करती है । बलि वंशके आभूषण नरेन्द्रमहाराजके दंडाधिपति श्रीविजय जब कोप करते हैं पर्वत पर्वत नहीं रहता, बन बन नहीं रहता, जल जल नहीं रहता - आदि ।