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आश्रम थे । मदुरा जैनियोंका मुख्य केन्द्र था, यह अवस्था ईस्वीकी लगभग दूसरी शताव्दिकी है । आगेकी शताब्दियोंमें जैनधर्मकी उन्नति जारी रही यहांतक कि पांचवीं शताब्दिमें साहित्योन्नतिके लिये जैनियोंने अपना एक स्वतंत्र संघ स्थापित किया जो 'द्राविड़' संघके नामसे प्रसिद्ध हुआ और इसका केन्द्र मदुरामें ही रक्खा गया । इस संघके स्थापक पूज्यपादस्वामीके शिप्य वजनंदि थे।* ऐसे संघोंकी उत्पत्ति उस कालमें राजाश्रयके विना असंभव थी, अतएव सिद्ध होता है कि पांचवीं शताब्दिमें भी जैनियोंको पाण्ड्य नरेशों का प्रबल आश्रय था।
जैनियोंकी यह असाधारण उन्नति उनके समीपवर्ती विपक्ष विश्वका मापात धर्मियोंको महा नहीं हुई और उन्होंने जैनियोंके और कलभ्रों का विरुद्ध अनेक जाल रचना प्रारम्भ किया। इस
आगमन। सम्बन्ध में पहली टक्कर जैनियों को शिवधर्मियोंसे लेनी पड़ी, पर प्रारम्भमें 'कलत्रों' की सहायतासे मैनी अपने विपक्षियोंपर विजय प्राप्त करनेमें सफल हुए। अनेक पांड्य
और पल्लव लेखोंसे सिद्ध होता है कि ईसाकी छठवीं शताब्दिमें तामिल देशपर उत्तरसे कलभ्र वंशियोंका आक्रमण हुआ और उन्होंने जैनधर्मको खूब आश्रय दिया ।x इसी विनयके समय जैनियोंने 'नालदियार' नामक तामिल काव्यकी रचना की । इस
देवसेनकृत दर्शनसारमें इस संघकी स्थापनाका उल्लेख है किन्तु उस उल्लेख से ज्ञात होता है कि इस संघकी.स्थापनाका मूल कारण कुछ आचार्योका धार्मिक मतभेद था। उपर्युक्त मत श्रीयुत् रामस्वामी अय्यन्गारका है ।
___x कलभ्रोंके दक्षिण भारतपर आक्रमणका कुछ विवरण 'मध्यप्रान्त, मध्यभारत व गजपूतानाके जन स्मारककी भूमिका' पृ. ८-९ में देखिये।