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प्राचीन जैन स्मारक 1
श्रीमदेशीगणाग्रयः कणकगिरिवरे सिद्धसिंहासनेश: । प्रापद् भट्टाकलंकस्सुमरण विधिनाऽस्मिगिरौ नाकलोकम् ॥ भावार्थ - देशीगणके मुख्य स्वामी श्रीअकलंक मुनिने शाका १७३५ में पौष सुदी १३ को इस कनकगिरिपर स्वर्ग प्राप्त किया । नोट- यह कर्णाटक शब्दानुशासन के कर्ता भट्टाकलंक (सन् १६०४) के वंशमें हुए हैं इसीसे नाम एक ही है ।
(८) नं० १५१ सन् १४०० ई० । इसी पर्वतपर बड़ी चट्टानके पश्चिम । मूलसं० कुंद० इंग्लेश्वर वलि, पुस्तकगच्छ देशीगण के आचार्य श्रुतमुनिके सेवक व शुभचंद्रदेवके शिष्य कोयण निवासी विद्वान चंद्रकीर्तिदेवने श्रीचन्द्रप्रभकी प्रतिमा स्थापित की ।
(९) नं० १५२ ता० १४०० ई० ? इसी पर्वतपर चंद्रकीर्ति मुनिका शब्द कोयल से बढ़िया है ।
(१०) नं ० १५३ सन् १३५५ ई० । बड़ी चट्टानके पूर्व तेलगूमें। श्री मूलसं० कुन्द० देशी ० पुस्तकगच्छ हनसोगे बलिके हेमचंद्र भट्टारकके शिष्य आदिदेवने तथा ललितकीर्ति भट्टारकके शिष्य ललितकीर्तिने कणकगिरिपर विजयदेवकी प्रतिमा स्थापित की । नोट- यह विजयदेव कोई आचार्य होंगे या शायद श्रीअजित तीर्थंकर से प्रयोजन होगा ।
(११) नं० १५४ सन् १८३८ ई० । इसी पर्वतपर चंद्रप्रभु मूर्तिके बगलमें शाका १७६० श्रीवर्द्धमानाब्द २५०१ में देवचंद्र ( राजा वलीकथाके कर्ता ) ने अपनी वंशावली लिखी— सं० नोट - इस लेख में सन् १८३८ में जब वीर सं० २५०१ माना जाता था तब इस हिसाब से आज वीर सं० २५८९ होना