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प्राचीन जैन स्मारक |
(२) ६५० ई० । कई मुनियोंने समाधिमरण किया उनमें मुख्य थे - ( १ ) श्रीकनकसेनके शिष्य बलदेव मुनि कट्टारके गुणसेन गुरुवर, वेगृरके सर्वज्ञ भट्टारक, दक्षिण मथुरा (मदुरा ) के अक्षयकीर्ति मुनि जिनको सर्प ने डसा था, गुणदेवसूरी, किटसूरीके पेलमादा के धर्मसेन गुरुके शिष्य बलदेव गुरु |
नं० २७ सन् ७०० पार्श्वनाथ वस्ती । श्रीशांतिसेन मुनि जिन्होंने भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के पीछे जैनधर्मका बहुत प्रकाश किया। नं० ३१ सन् ६५० पार्श्वनाथ वस्ती । वेहदे गुरुके शिष्य सिंहनंदि गुरु ।
नं० ३२ सन् ७०० नागसेन गुरु, रिषभसेन गुरुके शिष्य । नं ० (३४) सन् ७०० - पार्श्व ० वृषभनंदीके शिष्य उपवासपर गुरुनं० ७५ सन् ६५० कट्टले वस्ती बलदेवाचार्य
चंद्रदेवाचार्य नन्नीवंश ।
नं० ८२ ७५०
नं० ८४
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पुष्पनंदी |
नं० ८५ ७५०
नंदिसेन मुनि |
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१)
नं ० ८८ ७०० शासन वस्ती, कट्टर संघ के वीतशोक भट्टारक, नबिलूर संघ इंद्रनंदि आचार्य और पुप्पसेनाचार्य, इसी संघके मौनाचार्य के शिष्य वृषभनंदी, श्री देवाचार्य, मेघनंदि मुनि ।
नीचे लिखी आर्यिकाओंने समाधिमरण किया । नं० ७६ सन् ७०० धन्नेकुट्टादेवी गुरानी शिप्या पेरूमृद्ध गुरुकी, जम्बूनाथगिरि, आदेयरनादमें चित्तरके मौनी गुरुकी शिष्या नागमती, ननगंतियर, शमिति ।
नोट - ७०० एरदूकट्टे वस्ती - नविल्लूर संघकी प्राणगणकी राज्ञीमती, अनंतमती, मयूरग्रामकी आर्या, गुणमती, प्रभावती,
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