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निर्विवाद रूप से समय निर्णय नहीं होसका है, पर अधिकांश विद्वानका मत है कि लगभग ईस्वीसन के प्रारम्भमें ही 'संगम' का प्राबल्य रहा होगा । इस कालका 'कुरल' नामक एक उत्कृष्ट काव्य है ज़ो ' तिरुवल्लुर ' नामक तामिल साधुका बनाया हुआ कहा जाता है । यह ग्रन्थ इतना सुन्दर, इतनी शुद्धिनीतिका उपदेशक और इतना धार्मिक व सामाजिक संकीर्णतासे रहित है कि प्रत्येक धर्मवाले इसे अपने धर्मका ग्रन्थ सिद्ध करनेमें अपना गौरव मानते हैं, पर जिन्होंने निष्पक्ष हृदयसे इस ग्रन्थका अध्ययन किया है उन्होंने इसे एक जैनाचार्यकी कृति ही माना है । अनेक साहित्यिक प्रमाण भी इस बात के मिले हैं कि यह ग्रन्थ एलाचार्य नामके जैनाचार्यका बनाया हुआ है । उन्होंने अपने शिष्य 'तिरुवल्लुवर के द्वारा इसे 'संगम' की स्वीकृति हेतु भेजा था । नीलकेशीकी टीका में इसे स्पष्टरूप से जैनशास्त्र कहा है । हिन्दुओंकी किम्वदन्ती है कि एलासिंह नामक एक शैव साधुके शिप्य तिरुवल्लुवर ने 'कुरल' ग्रन्थ रचा था । इस किम्वदंती से भी परोक्षरूपसे कुरलका एलाचार्यकी कृति होना सिद्ध होता है । ये एलाचार्य अन्य कोई नहीं, दिगम्बर संप्रदाय के भारी म्तम्भ श्री कुन्दकुन्दाचार्य ही माने जाते हैं । इस विषयको बढ़ानेका यहां अवसर नहीं है । जिन्हें इस विषय में रुचि हो उन्हें कुरल ग्रन्थका और इस सम्बंध में प्रकाशित अनेक लेखोंका स्वयं अध्ययन करना चाहिये । *
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कुरल ग्रन्थका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कराना जैनियों का कर्तव्य ही नहीं, उनका महत्वपूर्ण अधिकार था । हाल ही में इसका एक हिन्दी . अनुवाद अजमेर के 'सस्ते साहित्य कार्यालय से प्रकाशित हुआ है । जैनियोंको इसे अवश्य पढ़ना चाहिये ।