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प्राचीन जैन स्मारक |
गया तब उसके पुत्रोंने राज्य किया । इनमें बिट्टिदेव बहुत प्रसिद्ध हुआ है । यह पहले जैनी था जैसे पहलेके राजा थे परंतु इसके दरबार में चोलोंसे कष्ट पाकर एक बड़े सुधारक रामानुज आचार्यने शरण ली । उनके उपदेशके प्रभावसे इसने जैन मत छोड़कर विष्णुमत धारण किया और अपना नाम विष्णुवर्द्धन रक्खा । इसने बहुत से देशोंको विजय किया । सन् १९१६ के अनुमान इसने तलकाद प्रांतको ले लिया फिर इसने मैसूरसे चोलोंको निकाल दिया । इसके राज्यकी हद्दबंदी इस प्रकार थी - पूर्वमें नन्गुलीके निम्न घाट तक (कोलर जिला ), दक्षिण में कोंगू, चेरम्, अनईमलई ( सालेम और कोयम्बटूर जिला ) तक, पश्चिममें कोन्कनके मार्ग में वार्कनूर घाट तक उत्तर में साविमले तक । कहते हैं दक्षिण में रामेश्वर भी इसके राज्यमें शामिल था । इसने अपना निजका देश ब्राह्मणोंको दान कर दिया था और आप अपनी खड़गके बलसे - विजय प्राप्त देशोंपर शासन करता था । इसका मरण धाड़वाड़ जिलेमें बँकापुर में हुआ । इसके पीछे इसका पुत्र नारसिंह राज्यपर "बैठा। इसका पोता वीर वल्लाल सन् १९७२पर गद्दीपर बैठा। यह ऐसा प्रसिद्ध हुआ कि इसके वंशको बल्लालवंश कहने लगे । इसने कलचूरियों और सियनों (देवगिरी यादवों) पर प्रसिद्ध विजय प्राप्त कीं, खासकर सोरातूरपर। इसने होयसाल राज्यको कृष्णा नदीपर पेज्जरेके आगे तक बढ़ाया । अपनी राज्यधानी लक्किगुन्डी (घाड़वाड़ जिलेमें लक्कुंडी) में स्थापित की । इसने तुंगभद्रा नदीके आसपास सब पहाड़ी किलोंको ले लिया, चोलोंके मुख्य किले उच्छंगको भी ले लिया जिसको वे १२ वर्ष से रक्षित करते रहे थे । अन्तमें वे निराश हो छोड़कर चले