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मदरास व मैसूर प्रान्त। [१४७ कणूरगणके आचार्य सिंहनंदि (जैन मुनि ) से भेट हुई। दोनों पुत्रोंने बहुत विनय की तब मुनि महाराजने अपनी मोरपिच्छिका मस्तकपर रखकर आशीर्वाद दी तथा उनको नीचे लिखे वाक्योंमें उपदेश दिया और कहा कि तुम अपनी ध्वनाका चिह्न मोरपिच्छिका रक्खो ।
___“यदि तुम अपनी प्रतिज्ञा भंग करोगे, यदि तुम जिनशासनसे हटोगे, यदि तुम परकी स्त्रीका ग्रहण करोगे, यदि तुम मद्य व मांस खाओगे, यदि तुम अधमोंका संसर्ग करोगे, यदि तुम आवश्यक्ता रखनेवालोंको दान न दोगे, यदि तुम युद्धमें भाग जाओगे तो तुम्हारा वंश नष्ट होजायगा।" ।
इस तरह आशीर्वाद पाकर इन दोनों वीरोंने नंदगिरि (नंदि द्रग) अपना किला, कुवलाल (कोलाल या कोलार ) अपनी राज्यधानी, ९६००० ग्राम अपना राज्य, श्रीजिनेन्द्र अपना देव, श्रीजिनमत अपना धर्म स्थिर रखके पृथ्वीपर राज्य किया जिस राज्यकी चौहद्दी हुई-उत्तरमें मदरकलो, पूर्वमें टोंडनाद, पश्चिममें चेरांकी तरफका समुद्र, दक्षिणमें कोंगु-पेनूर (जिला कड़ापा), श्री इन्द्रभूति आचार्यने अपने समयभूषण ग्रंथमें सिंहनंदीका नाम लिया है। ( See Indian Antiquary XII. 20.)
इन राजाओंका गोत्र कान्वायन था। दूसरी शताब्दीमें मैसुरके भागमें राज्य करने लगे । इनके राज्यको गंगवाड़ी कहते थे। वर्तमानमें जो गंगदिकार लोग पाए जाते हैं वे इसी वंशके हैं, इन्होंने ११ वीं शताब्दीके प्रारम्भ तक मैसूरमें राज्य किया । ये वास्तवमें गंगाकी घाटीके लोग हैं । ग्रीक और रोमके लेखकोंने इन गंग लोगोंको महाराज चंद्रगुप्त मौर्यकी खास प्रजा लिखा है। कलि