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प्राचीन जैन स्मारक
देवेन्द्र सिद्धांतदेव हुए ।
चतुर्मुख या वृषमनन्द्याचार्य
| इनके ८४ शिष्य थे । कुछके नाम हैं
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गोपनंदी प्रभाचंद्र माघनंदी दयनंदी गुणचंद्र जिनचन्द्र देवेंद्र मोंडचन्द्र शुभकीर्ति मलधारी
त्रिरत्ननंदी
त्रिमुष्टिदेव गौलदेव या हेमचन्द्र मलधारी, इनके साथी थे । यशकीर्ति, बासवचंद्र, चंद्रनंदि, शुभकीर्ति, मेघचन्द्र, कल्याणकीर्ति, बालचन्द्र ! अंतिम तीन त्रिरत्ननंदीके भी सहपाठी थे ।
इनका विशेष वर्णन यह है
आचार्य चतुर्मुख इसलिये कहलाते थे कि ये वर्षमें चार दफे ८ दिनका उपवास करते थे । तथा कभी १ मास पीछे पारणा करते थे । आचार्य गोपनंदी - बड़े कवि व नैयायिक थे । इन्होंने गंग राजाओंके समय में जैनधर्मका विस्तार किया। इनकी प्रशंसा एपिग्रैफिका कर्णाटिका जिल्द ५ वी में चामराय पाटनके नं ० ९४८ लेखमें है । होयसालराजा एरयंगने इनको १०९४ में दान किया था । आचार्य प्रभाचंद्र - गोपनंदी के साथी धारके राजा भोज द्वारा पूजित थे ।
आचार्य जिनचन्द्र- बड़े विद्वान थे । व्याकरण जैनेन्द्र में पूज्यपाद समान, न्यायमें भट्टाकलंकदेव समान, साहित्य में भैरवी समान थे ।
आ० देवेन्द्र - बंकापुरकी ओर वास करते थे ।
आ० त्रिमुष्टिदेव - इसलिये प्रसिद्ध थे कि वे भोजन के समय पहले तीन ग्रास ही लेते थे ।