Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kartikeya Swami, Mahendrakumar Patni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Catalog link: https://jainqq.org/explore/001842/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaaaaaaaaaaaaahahahaha भगवान श्री कुन्दकुन्द कहान जैन शास्त्रमाला पुष्प नं० १४२ SESamacary श्री स्वामी कार्तिकेय विरचित श्री कार्तिकेयानुप्रेक्षा OSOSOASAAAOanadaHWAAWOWOHÄMAAOMASSAAAAaaAAAAAA! ANAYASATARADEVISITERTA पं० जयचन्दजी छाबड़ा कृत ढढारी भाषा टीका से हिन्दी रूपान्तरकार, सम्पादक एवं अन्वयार्थ लेखकपण्डित महेन्द्रकुमार पाटनी, काव्यतीर्थ - मदनगंज-किशनगढ़ ( राज०) AODDOOVEDA प्रकाशक: श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट सोनगढ (सौराष्ट्र) HONGERA HUHUHHHHHHHHH Dowaingrorary.org Jain Education Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द कहान जैन शास्त्रमाला पुष्प नं० १४२ श्री स्वामी कार्तिकेय विरचित श्री कार्तिकेयानुप्रेक्षा पं० जयचन्दजी छाबड़ा कृत ढूंढारी भाषा टोका से हिन्दी रूपान्तरकार, सम्पादक एवं अन्वयार्थ लेखकपण्डित महेन्द्रकुमार पाटनी, काव्यतीर्थ मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) प्रकाशक :श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ़ ( सौराष्ट्र) मूल्य : ६)५० रुपये Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक प्राप्ति स्थान - * श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ * श्री टोडरमल स्मारक भवन, 4-A, बापूनगर, जयपुर (राज ० ) प्रथमावृत्ति १००० श्री पाटनी दि० जैन ग्रन्थमाला मारोठ, रक्षाबंधन, वीर नि० सं० २४७७ द्वितीयावृत्ति : ५०० श्री वीतराग विज्ञान प्रकाशिनी ग्रन्थमाला, खण्डवा, वीर नि० सं० २५०० तृतीयावृत्ति १३१०० श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ़, वीर नि० सं० २५०५ इस ग्रन्थ की ३१०० प्रति के ३२ फार्म में २० x ३० = १५.५ Kg. का जे. के. मेपलीथो १०३ रोम कागज लगा है । मुद्रक नेमीचन्द बाकलीवाल बाकलीवाल प्रिन्टर्स मदनगंज - किशनगढ़ (राजस्थान ) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ q) - -: आद्य निवेदन :__ आज हमें श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट सोनगढ़ के १४२ वें पुष्पके रूपमें परमपूज्य १०८ श्री स्वामी कार्तिकेय विरचित कार्तिकेयानुप्रेक्षा अर्थात् बारह भावनाओं को आपके समक्ष प्रस्तुत करते हुए अत्यन्त हर्ष है । वर्तमान उपलब्ध आर्ष ग्रन्थों में यह एक उच्चकोटिका बहुत प्राचीन ग्रन्थ है। इस ग्रन्थराजका वीर निर्वाण सं० २४४७ में कलकत्तासे भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था द्वारा प्रकाशन हुआ था। उसके बाद इतने लम्बे समयमें भी कहींसे इसका पुनः प्रकाशन नहीं होनेसे कई वर्षोंसे यह ग्रन्थ अप्राप्य हो रहा था और बहुत से मुमुक्षु इसके स्वाध्यायसे वंचित रहते थे। यह देखकर मेरे भाव इसके पनः प्रकाशन कराने के हए । अतः मैंने यह ग्रन्थ श्रीयुत पं. महेन्द्रकुमारजी पाटनी, काव्यतीर्थ को संशोधन के लिए दिया तब उन्होंने मुझे निम्नलिखित सुझाव दिये। (१) इसकी भाषा टोका श्रीयुत् सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० जयचन्द्रजी छाबड़ा द्वारा ढुढारी भाषा में की हुई है जो बहुत ही प्रामाणिक टीका है परन्तु इसको यदि आधुनिक हिन्दी भाषामें परिवर्तित कर दिया जावे तो अधिकांश भाई लाभ उठा सकेंगे।[पं. जयचन्द्रजी का संक्षिप्त परिचय अष्टपाहुड़में दिया है । ] (२) इसकी मूल भाषा प्राकृत है जो ध्यान देने पर बहुत ही सरल व सरस ज्ञात होती है। ऐसी अवस्थामें यदि अन्वयपूर्वक अर्थ लिख दिया जावे तो मूल गाथाओंको समझने के लिए अधिक उपयोगी होगा । संभव है जैन परीक्षालय इसको सरल व उपयोगी समझ कर इसके दो तीन भाग करके कोर्समें भी रख दें तो विद्याथियों के लिए यह टीका अधिक लाभप्रद हो सकेगी। मुझे ये सुझाव बहुत पसन्द आये और मैंने उन्हीं को यह कार्यभार सौंप दिया। पंडितजीने यह कार्य बड़ी ही लगन एवं परिश्रमपूर्वक अल्प समयमें ही पूरा कर दिया इसके लिए उन्हें हार्दिक धन्यवाद है। भाषा परिवर्तनमें साहित्यिक दृष्टि गौण रखी गई है और टीकाकारके भावोंको जैसाका तैसा द्योतित करनेकी मुख्यता रखी गई है । इस परिवर्तन को मैंने आद्योपान्त भले प्रकारसे जाँच भी लिया है और मुझे विश्वास है कि इसमें टीकाकारके भावोंमें कहीं भी तोड़ मरोड़ नहीं होने दिया गया है फिर भी यदि कहीं कोई भूल हो गई हो तो पाठकोंसे क्षमायाचना पूर्वक प्रार्थना है कि उसे सुधार लेवें और मुझे भी सूचित करनेकी कृपा करें। इस ग्रन्थराजकी विशेषता यह है कि इसमें प्रत्येक अनुप्रेक्षाका वर्णन इतने सुन्दर ढंगसे आया है कि धर्मका यथार्थ स्वरूप समझाते हुए संसार देह भोगोंका स्वरूप एवं उनकी असारता दिखा कर स्वात्मरुचि करानेकी ही मुख्यता है। हर एक विषय का खास करके लोकका स्वरूप एवं धर्मका स्वरूप क्रमशः लोकभावना एवं धर्मभावनामें बहुत हो विस्तृतरूपमें कहते हुए भी मुख्यता स्वात्मरुचिकी ही रही है इस कारण विशेषसे भी यह ग्रन्थ मुमुक्षुओंके लिए बहुत ही उपयोगी है। ग्रन्थके साथ विषय सूची, गाथा सूची आदि भी सुविधाके लिये लगा दिये गये हैं आशा है पाठकगण इस ग्रन्थ राजके स्वाध्यायसे पूरा २ लाभ उठावेंगे। निवेदक : नेमीचन्द पाटनी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयावृत्ति का प्रकाशकीय निवेदन स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रन्थ की जिज्ञासुओं में बहुत मांग है। आज से २३ वर्ष पूर्व श्री पाटनी दि. जैन ग्रन्थमाला, मारोठ से यह प्रथम प्रकाशित हुआ था । श्री नेमीचन्दजी पाटनी की अनुमति से ही इसकी द्वितीय आवृत्ति राष्ट्रीय स्तर पर मनाये जाने वाले २५०० वें वीर निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष्य में प्रकाशित हुई थी। प्रस्तुत ग्रन्थ की तृतीय आवृत्ति श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट सोनगढ़ को ओर से प्रकाशित हो रही है। प्रथमावृत्ति की मूल सामग्री में किसी तरह का परिवर्तन नहीं किया गया है । मुद्रण में यथासम्भव पूर्ण सावधानी रखी गई है । शुद्ध मुद्रण के लिए मैं श्री नेमीचन्दजी बाकलोवाल, बाकलीवाल प्रिन्टर्स, मदनगंज-किशनगढ़ का विशेष आभारी हूं। जे० लालचन्द जैन इन्दौर (म० प्र०) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANAAALE WARNA 2000000000000000000 AWAY DOO ZN awanavar GalaAYAYAYA QAAAA परमपूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजी स्वामी もしもしもし」 Coll (Chouill Clio DO call (2) Chocol duo cugat Chow Cool (la WAAAAC UA Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या पृष्ठ संख्या ४ से ७ १० से ११ १२ से १८ १६ से २० २१ से २२ २३ -: गाथानुक्रम : विषय मगलाचरण बारह अनुप्रेक्षाओंके नाम अध्रु वानुप्रेक्षा अध्र वानुप्रेक्षाका सामान्य स्वरूप बंधुजनोंका संयोग कैसा है ! देह के संयोगकी अस्थिरता लक्ष्मीको अस्थिरता प्राप्त हुई लक्ष्मीका क्या करना चाहिये ? लक्ष्मीको धर्मकार्यमें लगानेवालेकी प्रशंसा मोहका माहात्म्य अशरणानुप्रेक्षा संसारमें कोई शरण नहीं है अशरण होने का दृष्टान्त शरण माननेवाला अज्ञानी है मरण आयुकर्मका क्षय होनेसे होता है निश्चयसे शरण कौन है संसारानुप्रेक्षा संसारका सामान्य स्वरूप नरकगति के दुःखोंका वर्णन तिर्यंचतिके दुःखोंका वर्णन मनुष्यगतिके दुःखोंका वर्णन देवगतिके दुःखोंका वर्णन चारों गतियोंमें कहीं भी सुख नहीं है यह जीव पर्यायबुद्धि है जिस योनिमें उत्पन्न होता है वहीं सुख मान लेता है इस प्राणीके एक ही भवमें अनेक संबंध ( अठारह नाते ) होते हैं एक भवमें अठारह ना होनेकी कथा २४ से २६ २७ २८ से २६ ३० से ३१ ३२ से ३३ ३४ से ३६ ४० से ४४ ४५ से ५७ ५८ से ६१ .२५ ६४ से ६५ २६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या विषय पृष्ठ संख्या २६ HOM mr mr my ७४ से ७९ ८० से ८२ m 20 9 my mr mr 00. m ८५ से ८६ पांच प्रकारके संसारके नाम द्रव्य परिवर्तन क्षेत्र परिवर्तन काल परिवर्तन भव परिवर्तन भाव परिवर्तन यह जीव संसारमें क्यों भ्रमण करता है ? संसारसे छूटनेका उपदेश एकत्वानुप्रेक्षा अन्यत्वानुप्रेक्षा अशुचित्यानुप्रेक्षा देहका स्वरूप देह अन्य सुगंधित वस्तुको भी संयोगसे दुर्गंधित कर देता है अशुचि देहमें अनुराग करना अज्ञान है देहसे विरक्त होनेवालेके अशुचि भावना सफल है आस्रवानुप्रेक्षा आस्रवका स्वरूप मोहके उदय सहित आस्रव हैं पुण्यपापके भेदसे आस्रव दो प्रकारका है मंद तीव्र कषायके दृष्टांत किस जीवके आस्रवका चितवन निष्फल है ? आस्रवानुप्रेक्षा किसके होती है ? संवरानुप्रेक्षा निर्जरानुप्रेक्षा निर्जरा किसके और कैसे होती है ? निर्जरा किसे कहते हैं ? निर्जरा के दो भेद निर्जरा की वृद्धि किससे होती है ? ८७ ४० 0 MM १० ११ से १२ १४ ९५ से १०१ ४४ ४७ GG १०२ १०३ १०४ १०५ . Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ संख्या गाथा संख्या १०६ से १०८ १०६ से ११४ ४६ ५२ ११५ ५७ ५८ ५६ W ११७ ११८ ११६ १२० १२१ १२२ ६० NEEEEEEEEEE - १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८ १२६ से १३० [ ७ ] विषय निर्जराकी वृद्धिके स्थान बहुत निर्जरा किसके होती है ? लोकानुप्रेक्षा लोकाकाशका स्वरूप लोकमें क्या है ? यदि द्रव्य नित्य हैं तो उत्पत्ति व नाश किसका होता है ? लोकका विस्तार दक्षिण उत्तरका विस्तार और ऊंचाई ऊंचाईके भेद लोक शब्दका अर्थ जीवद्रव्य वादर सूक्ष्मादि भेद वादर सूक्ष्म कौन कौन हैं ? साधारण प्रत्येकके सूक्ष्मपना साधारणका स्वरूप सूक्ष्म बादरका स्वरूप प्रत्येक और उसका स्वरूप तथा भेद पंचेन्द्रियके भेद अठयाणवे जीवसमास तथा तिर्यंचके पिच्यासी भेद मनुष्योंके भेद पर्याप्तिका वर्णन शक्तिका कार्य पर्याप्त नित्यपर्याप्तका काल लब्ध्यपप्तिका स्वरूप एकेन्द्रियादि जीवोंके पर्याप्तियों की संख्या प्राणोंका स्वरूप और संख्या एकेन्द्रियादि जीवोंके पर्याप्त अवस्था में प्राणों की संख्या एकेन्द्रियादि जीवोंके अपर्याप्त अवस्थामें प्राणों की संख्या विकलत्रय जीवोंके स्थान له سه س ६४ १३२ से १३३ १३४ ६५ १३५ १३६ ६७ س ६६ ६६ ६६ १३८ १३६ १४० १४१ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ संख्या 1७१ १४६ o Www . ७६ ७७ ७७ [८] गाथा संख्या विषय १४३ ढाई द्वीपके बाहरके तिर्यंचोंकी व्यवस्था हैमवत पर्वतके समान है १४४ जलचर जीवोंके स्थान १४५ भवनवासी व्यंतरोंके स्थान ज्योतिषी, कल्पवासी व नारकियोंके स्थान १४७ तेजवातकायके जीवोंकी संख्या १४८ से १५१ पृथ्वी आदिकी संख्या १५२ सान्तर निरन्तर कथन १५३ से १६० जीवोंका संख्याकी अपेक्षा अल्प बहुत्व कथन १६१ एकेन्द्रियादि जीवोंकी आयु बादर जीवोंकी आयु द्वीन्द्रियादि जीवोंकी आयु सब ही तिर्यंच और मनुष्योंकी जघन्य आयु १६५ देव नारकियोंक १६६ से १६७ एकेन्द्रियादि जीवोंके शरीरकी उत्कृष्ट व जघन्य अवगाहना नारकियोंकी उत्कृष्ट अवगाहना १६६ देवोंकी अवगाहना १७० से १७१ स्वर्गके देवोंकी अवगाहना १७२ भरत ऐरावत क्षेत्रमें कालकी अपेक्षासे मनुष्योंके शरीरकी ऊंचाई १७३ एकेन्द्रिय जीवोंका जघन्य देह १७४ द्वीन्द्रिय आदिकी जघन्य अवगाहना १७५ जघन्य अवगाहनाके धारक द्वीन्द्रिय आदि जीव कौन कौन हैं ? १७६ जीवका लोकप्रमाण और देहप्रमाणपना १७७ से १७८ जीवको सर्वथा सर्वगत माननेका निषेध १७६ जीवको सर्वथा भिन्न मानने में दोष गुण और गुणीके भेद बिना दो नाम होनेका समाधान १८१ से १८२ ज्ञानको पृथ्वी आदिका विकार माननेका निषेध १८३ युक्तिद्वारा जीवका सद्भाव १८४ आत्माका सद्भाव कैसे है ? १८५ जीव देहसे मिला हुआ सब कार्योको करता है ७७ १६८ ७८ m m . . ० ० W १८० 0 mr . Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या पृष्ठ संख्या १८६ १८७ १८८ से १६१ १९२ १६३ १६४ १९५ १६७ १६८ १६६ २००, २०१ २०२ [६] विषय जीवको देहसे भिन्न जाननेके कारण जीव और देहके एकत्व माननेवाला भेदको नहीं जानता है जीवके कर्तृत्व आदिका वर्णन अन्यप्रकारसे जीवके भेद बहिरात्मा कैसा होता है ? अंतरात्माका स्वरूप उत्कृष्ट अन्तरात्मा मध्यम अन्तरात्मा जघन्य अन्तरात्मा परमात्माका स्वरूप परा शब्दका अर्थ जीवको सर्वथा शुद्ध माननेका निषेध अशुद्धता शुद्धताका कारण बंधका स्वरूप सब द्रव्योंमें जीव द्रव्य हो उत्तम परम तत्त्व है जीवहीके उत्तम तत्त्वपणा कैसे है ? पुद्गल द्रव्यका स्वरूप पुद्गल द्रव्यके जीवका उपकारीपणा जीव भी जीवका उपकार करता है पुद्गलके बड़ी शक्ति है धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यका स्वरूप आकाशद्रव्यका स्वरूप सबही द्रव्योंमें आकाशके समान अवकाश देनेकी शक्ति है कालद्रव्यका स्वरूप परिणमन करनेकी शक्ति स्वभावभूत सब द्रव्योंमें है सब द्रव्योंके परस्पर सहकारी कारणभावसे उपकार है द्रव्योंकी स्वभावभूत नाना शक्तियोंका कौन निषेध कर सकता है ? व्यवहरिकालका निरूपण अतीत अनागत वर्तमान पर्यायोंको संख्या 0 WM WWW M० . . MMMMM २०४ २०५ २०६, २०७ २०८, २०६ २१० २११ २१२ २१३ २१४, २१५ 0 0 0 0 २१७ २१८ २१६ २२० 0 0 0 २२१ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या २२२ २२३ २२४ २२५ २२६ २२७ २२८ २२६ २३० २३१ २३२ २३३ २३४ २३५ २३६ २३७ २३८ २३६ २४० २४१ २४२ २४३, २४४ २४५ २४६ २४७ से २४६ २५० से २५२ २५३ [१०] विषय द्रव्यों के कार्यकारणभावका निरूपण वस्तुके तीनों कालमें ही कार्यकारणभावका निश्चय वस्तु अनंतधर्मस्वरूप है अनेकांतात्मक वस्तु अर्थ क्रियाकारी है सर्वथा एकान्त वस्तुके कार्यकारीपणा नहीं है सर्वथा नित्य एकान्त में अर्थक्रियाकारीपणाका अभाव पुनः क्षणस्थायी के कार्यका अभाव अनेकान्तवस्तुके कार्यकारणभाव बनता है। पूर्वोत्तरभावके कारणकार्य्यभावको दृढ़ करते हैं जीवद्रव्यके भी वैसे ही अनादिनिधन कार्यकारण भाव सिद्ध करते हैं जीवद्रव्य अपने द्रव्यक्षेत्रकालभावमें रहता हुआ। ही नवीन पर्यायरूप कार्यको करता है अन्यरूप होकर कार्य करने में दोष सर्वथा एकस्वरूप माननेमें दोष अणुमात्र तत्त्वको माननेमें दोष द्रव्यके एकत्वपणेका निश्चय द्रव्य के गुणपर्यायस्वभावपणा द्रव्यों के व्यय उत्पाद क्या हैं ? द्रव्यके ध्रुवपणाका निश्चय द्रव्यपर्यायका स्वरूप गुणाका स्वरूप गुणभास विशेषरूप से उत्पन्न वा नष्ट होता है गुणपर्यायोंका एकपणा है वही द्रव्य है द्रव्यों में पर्यायें विद्यमान उत्पन्न होती हैं या अविद्यमान ? द्रव्य पर्यायोंके कथंचित् भेद कथंचित् अभेद द्रव्य पर्यायके सर्वथा भेद मानने में दोष विज्ञानको ही अद्वैत कहने और बाह्य पदार्थ न मानने में दोष नास्तित्ववादी महा झूठा है सामान्यज्ञानका स्वरूप पृष्ठ संख्या १०१ १०१ १०१ १०२ १०२ १०२ १०३ १०३ १०३ १०४ १०४ १०५ १०५ १०५ १०६ १०६ १०७ १०७ १०७ १०८ १०८ १०६ ११० ११० ११० १११ ११३ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या ११३ २५४ २५५ २५६ २६१ २६२ ११७ २६५ २६६ २६७ २६८ २६६ २७० २७१ २७२ २७३ २७४ [ ११ ] विषय पृष्ठ संख्या सर्वप्रत्यक्ष केवलज्ञानका स्वरूप ज्ञान सर्वगत भी है ११३ ज्ञान जीवके प्रदेशोंमें रहता हुआ ही सबको जानता है ११४ मनःपर्यय अवधिज्ञान और मति श्रु तज्ञानकी सामर्थ्य ११४ इन्द्रियज्ञान योग्य विषयको जानता है इन्द्रियज्ञानके उपयोगकी प्रवृत्ति अनुक्रमसे है ११५ इन्द्रियोंका ज्ञान एककाल है या नहीं ? वस्तु के अनेकात्मता है तो भी अपेक्षासे एकात्मता भी है श्र नज्ञान परोक्षरूपसे सबका प्रकाशित करता है श्र तज्ञानके भेद नयका स्वरूप ११७ एक धर्मको नय कैसे ग्रहण करता है ? वस्तुके धर्मको, उसके वाचक शब्दको और उसके ज्ञानको नय कहते हैं ११८ वस्तुके एक धर्मही को ग्रहण करनेवाला एक नय मिथ्यात्व कैसे है ? ११८ परोक्षज्ञानमें अनुमान प्रमाण भी है उसका उदाहरणपूर्वक स्वरूप ११६ नयके भेद ११६ द्रव्यनयका स्वरूप ११६ पर्यायाथिक नयका स्वरूप १२० नैगम नय संग्रह नय १२१ व्यवहार नय १२१ ऋजुसूत्र नय १२२ शब्दनय समभिरूढ नय १२३ एवंभूत नय १२३ नयोंके कथनका संकोच तत्त्वार्थको सुनने, जानने, धारणा, भावना करनेवाले विरले हैं जो तत्त्वको सुनकर निश्चल भाव सो भाये सो तत्त्व को जाने । १२५ तत्त्वकी भावना नहीं करनेवाले स्त्री आदिके वशमें कौन नहीं है ? or Mor wr २७५ १२२ २७६ २७७ २७८ १२४ २७६ १२४ २८० २८१ १२५ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] १२६ गाथा संख्या विषय पृष्ठ संख्या २८२ जो तत्त्वज्ञानी सब परिग्रहका त्यागी होता है वह स्त्री आदिके वशमें नहीं होता है १२५ २८३ लोकानुप्रेक्षाके चितवनका माहात्म्य १२६ बोधिदुलभानुप्रेक्षा १२७ २८४ निगोदसे निकलकर स्थावर होना दुर्लभ है १२७ २८५ स्थावरसे निकलकर त्रस होना दुर्लभ है १२७ २८६, २८७ त्रसमें भी पंचेन्द्रिय होना दुर्लभ है १२८ २८८ क्रूर परिणामी नरकमें जाते हैं १२६ २८६ नरकसे निकलकर तिर्यंच हो दुःख सहते हैं २६० मनुष्य होना दुर्लभ है सो भी मिथ्यात्वी होकर पाप करता है १२६ २६१ से २९६ मनुष्य भी हो और आर्यखंडमें भी उत्पन्न हो तो भी उत्तम कुलादिका पाना अति दुर्लभ है १३० २६७ ऐसा मनुष्यत्व दुर्लभ है जिससे रत्नत्रयकी प्राप्ति हो १३१ २६८ ऐसा मनुष्यत्व पाकर शुभ परिणामोंसे देव हो जाता है तो वहाँ चारित्र नहीं पाता है १३१ २६६, ३०० मनुष्यगतिमें ही तपश्चरणादिक है ऐसा नियम है १३२ ३०१ मनुष्यगतिमें रत्नत्रयको पाकर बड़ा आदर करो १३२ धर्मानुप्रेक्षा३०२ धर्मका मूल सर्वज्ञ देव है ३०३, ३०४ सर्वज्ञको न माननेवालेके प्रति उक्ति १३४ ३०५, ३०६ गृहस्थधर्मके बारहभेदोंके नाम १३५ सम्यक्त्वकी उत्पत्तिकी योग्यताका वर्णन १३५ ३०८ उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पत्ति कैसे है ? ३०९ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कैसे होता है ? औपशमिक क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और अनंतानुबंधीका विसंयोजन तथा देशव्रत इनका पाना और छूट जाना १३७ ३११, ३१२ तत्त्वार्थश्रद्धान निरूपण १३७ ३१३ से ३१७ सम्यग्दृष्टिके परिणाम कैसे होते हैं ? १४१ ३१८ मिथ्यादृष्टि कैसा होता है ? १३३ ० mr mr m १३६ ० Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] गाथा संख्या विषय पृष्ठ संख्या ३१६, ३२० व्यन्तर आदि देव लक्ष्मी देते हैं, उपकार करते हैं उनकी पूजा वन्दना करें या नहीं ? ३२१, ३२२ सम्यग्दृष्टिके विचार १४५ ३२३ सर्वज्ञके आगमके प्रतिकूल मिथ्यादृष्टि है १४६ ३२४ जो विशेष तत्त्वको नहीं जानता है और जिनवचनमें आज्ञा मात्र श्रद्धान करता है सो भी श्रद्धावान् है १४६ ३२५ से ३२७ सम्यक्त्वका माहात्म्य १४६ ३२८, ३२६ दार्शनिक श्रावक (पहली प्रतिमा) १४८ व्रत प्रतिमा (दूसरी प्रतिमा) १४६ ३३१, ३३२ पहिला अणुव्रत (अहिंसा) १५० ३३३, ३३४ दूसरा अणुव्रत (सत्य) १५१ ३३५, ३३६ तीसरा अणुव्रत (अचौर्य) १५२ ३३७,३३८ चौथा अणुव्रत (ब्रह्मचर्य) १५३ ३३६, ३४० पांचवां अणुव्रत (परिग्रह परिमाण) १५४ ३४१, ३४२ पहिला गुणव्रत (दिग्व्रत) १५५ दूसरा गुणव्रत (अनर्थदंड) १५५ ३४४ पहिला अनर्थदंड (अपध्यान) १५६ ३४५ दूसरा अनर्थदंड (पापोपदेश) तीसरा अनर्थदंड (प्रमादचरित) १५७ ३४७ चौथा अनर्थदंड (हिंसादान) ३४८ पांचवां अनर्थदंड (दुःश्र ति) १५८ ३४६ अनर्थदंडके कथनका संकोच १५८ ३५०, ३५१ तीसरा गुणव्रत (भोगोपभोग) १५६ ३५२, ३५३ पहिला शिक्षाव्रत (सामायिक) ३५४ सामायिकका काल १६० ३५५ से ३५७ सामायिकमें आसन तथा लय और मन वचन कायको शुद्धता ३५८, ३५६ दूसरा शिक्षाव्रत (प्रोषधोपवास) १६२ ३६०, ३६१ तीसरा शिक्षाव्रत (अतिथिसंविभाग) १६३ ३६२ आहार आदि दानका माहात्म्य १६४ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या ३६३,३६४ १६४ १६५ ३६७, ३६८ ३६६ ३७० ३७१, ३७२ ३७३ से ३७६ ३७७ ३७८ ३७६ से ३८१ ३८२, ३८३ ३८४ ३८५ ३८६, ३८७ ३८८, ३८६ ३९० ३६१ ३६२ [ १४ ] विषय पृष्ठ संख्या आहारदान प्रधान है दानका माहात्म्य चौथा शिक्षाव्रत (देशावकाशिक) १६५ अंत सल्लेखना निरतिचार एक भी व्रत पालनेवाला इंद्र होता है १६७ तीसरी सामायिक प्रतिमा १६७ प्रोषधप्रतिमाका स्वरूप १६८ प्रोषधका माहात्म्य १७० आरंभ आदिके त्याग बिना उपवास करनेसे कर्मनिर्जरा नहीं होती १७० सचित्तत्याग प्रतिमा १७१ रात्रिभोजनत्याग प्रतिमा १७२ ब्रह्मचर्य प्रतिमा १७३ आरंभविरति प्रतिमा १७३ परिग्रहत्याग प्रतिमा १७४ अनुमोदनविरति प्रतिमा उद्दिष्टविरति प्रतिमा १७६ अंतसमयमें आराधना करनेका फल १७६ मुनिधर्मका व्याख्यान १७८ दस प्रकारके धर्मका वर्णन १७६ उत्तम क्षमा उत्तम मार्दव १८० उत्तम आर्जव १८१ उत्तम शौच १८१ उत्तम सत्य १८२ उत्तम संयम १८३ उत्तम तप १८६ उत्तम त्याग १८७ उत्तम आकिंचन्य १८७ उत्तम ब्रह्मचर्य १८८ १७६ ३६४ ३६५ ३६६ ३६७ ३६८ ३६६ ४०० ४०१ ४०२ ४०३ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या ४०४ ४०५, ४०६ ४०७ ४०० से ४१२ ४१३, ४१४ ४१५ ४१६ ४१७ ४१८ ४१६ ४२० ४२१, ४२२ ४२३ ४२४ ४२५ ४२६ ४२७ ४२८, ४२६ ४३० से ४३२ ४३३, ४३४ ४३५ ४३६ ४३७ से ४४० ४४१, ४४२ ४४३ ४४४ ४४५ से ४४७ [ १५ ] विषय दसलक्षणरूप धर्म है, हिंसा धर्म नहीं है भी हिंसा धर्म नहीं है सूक्ष्म उत्तम धर्मका प्राप्त होना दुर्लभ है। उत्तम धर्मको पाकर के केवल पुण्यके ही आशय से सेवन करना उचित नहीं है निःशंकित गुण निःकांक्षित गुण निर्विचिकित्सा गुण अमूढदृष्टि गुण उपगूहन गुण स्थितिकरण गुण वात्सल्य गुण प्रभावना गुण निःशंकित आदि गुण किस पुरुष के होते हैं ? ये आठ गुण जैसे धर्ममें कहे वैसे देव गुरु आदि में भी जानना उत्तम धर्मको करनेवाला तथा जाननेवाला दुर्लभ है धर्मके ग्रहणका दृष्टांतपूर्वक माहात्म्य धर्मके बिना लक्ष्मी नहीं आती है। धर्मात्मा जीवकी प्रवृत्ति धर्मका माहात्म्य धर्मरहित जीवको निन्दा धर्मका आदर करो, पापको छोड़ो द्वादश तप बारह तपका विधान अनशन तप अमोद तप वृत्ति परिसंख्यान तप रसपरित्याग तप विविक्तशय्यासन तप पृष्ठ संख्या १८६ १६० १६१ १९२ १६५ १६६ १६६ १६६ TAG १६७ १६८ १६८ १६६ २०० २०० २०१ २०१ २०२ २०२ २०३ २०४ २०५ २०५ २०५ २०६ २०७ २०८ २०६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] पृष्ठ संख्या २१० . M m २१८ २१९ २२० २२१ गाथा संख्या विषय कायक्लेश तप ४४६ से ४५३ प्रायश्चित्त तप ४५४ से ४५६ विनय तप ४५७, ४५८ वैयावृत्य तप ४५६ से ४६४ स्वाध्याय तप ४६५ से ४६७ व्युत्सर्ग तप ४६८ ध्यान तप ४६६, ४७० शुभ अशुभ ध्यानके नाम व स्वरूप ४७१, ४७२ आर्तध्यान ४७३, ४७४ रौद्रध्यान ४७५ धर्मध्यान ४७६ धर्मका स्वरूप ४७७ से ४८० धर्मध्यान कैसे जीवके होता है ? ४८१ शुक्लध्यान ४८२ पहिला शुक्लध्यान (पृथक्त्ववितर्कवीचार) ४८३ दूसरा शुक्लध्यान (एकत्ववितर्कवीचार) ४८४ तीसरा शुक्लध्यान ( सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति ) चौथा शुक्लध्यान ( व्युपरतक्रियानिवृत्ति ) तपका माहात्म्य ४८७ ग्रंथ रचनेका प्रयोजन ४८८ अनुप्रेक्षाका फल अन्त्य मंगल २२२ २२३ २२३ २२३ २२७ २२७ २२८ २२६ २३० २३० २३१ २३१ ४८६ २३२ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री परमात्मने नमः * श्रीमत् स्वामि कार्तिकेय प्रणीत कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( भाषानुवाद सहित ) भाषाकार का मंगलाचरण * दोहा के प्रथम ऋषभ जिन धर्मकर, सनमति चरम जिनेश । विधनहरन मंगलकरन, भवतमदुरितदिनेश ॥१॥ चानी जिनमुख खिरी, परी गणाधिप कान । अक्षरपदमय विस्तरी, करहि सकल कल्यान ।।२।। गुरु गणधर गुणधर सकल, प्रचुर परम्पर और । व्रततपधर तनुनगनतर, बंदौं वृष शिरमौर ।।३।। स्वामिकार्चिकेय मुनी, बारह भावन भाय । कियो कथन विस्तार करि, प्राकृतछंद बनाय ॥४॥ ताकी टीका संस्कृत, करी सु-धर शुभचन्द्र । सुगमदेशभाषामयी, करू नाम जयचन्द्र ॥ पढहु पढावहु भव्यजन, यथाज्ञान मनधारि । करहु निर्जरा कर्मकी, बार बार सुविचारि ॥६॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा इसप्रकार देव शास्त्र गुरुको नमस्काररूप मंगलाचरण पूर्वक प्रतिज्ञा करके स्वामिकातिके यानुप्रेक्षा नामक ग्रन्थकी देशभाषामय वचनिका की जाती है । सो संस्कृत टीकाके अनुसार मेरी बुद्धि माफिक गाथाका संक्षेप अर्थ लिखूगा उसमें कहीं भूल हो जाय तो विशेष बुद्धिमान् ठीक कर लेवें। श्रीमत्स्वामिकात्तिकेय नामक आचार्य, अपने ज्ञानवैराग्यकी वृद्धि होना, नवीन श्रोताओंके ज्ञानवैराग्यका उत्पन्न होना तथा विशुद्धता होनेसे पापकर्मकी निर्जरा, पूण्यका उत्पन्न होना, शिष्टाचारका पालना, विघ्नरहित शास्त्रकी समाप्ति होना इत्यादि अनेक अच्छे फलोंको चाहते हुए अपने इष्ट देवको नमस्काररूप मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा कर गाथा कहते हैं--- तिहुवणतिलयं देवं, वंदित्ता तिहुवर्णिदपरिपुज्जं । वोच्छं अणुपेहाओ, भवियजणाणंदजणणीओ ॥१॥ अन्वयार्थः-[ तिहवणतिलयं ] तीन भुवनका तिलक [तिहुवणिंदपरिपुज्ज । तीन भुवनके इन्द्रोंसे पूज्य (ऐसे) [ देवं ] देवको ( मैं अर्थात् स्वामि कात्तिकेय ) [वंदिता] नमस्कार करके [ भवियजणाणंदजणणीओ ] भव्य जीवोंको आनन्द उत्पन्न करने वाली [ अणुपेहाओ ] अनुप्रेक्षायें [ वोच्छं ] कहूंगा। भावार्थ:-यहां 'देव' ऐसी सामान्य संज्ञा है सो क्रीड़ा, रति, विजिगीषा, द्य ति, स्तुति, प्रमोद, गति, कान्ति इत्यादि क्रियायें करे उसको देव कहते हैं, सो सामान्यतया तो चार प्रकारके देव वा कल्पित देव भी गिने जाते हैं. उनसे भिन्नता दिखाने के लिये 'तिहुवणतिलयं (त्रिभुवनतिलक)' ऐसा विशेषण दिया इससे अन्य देवका व्यवच्छेद ' (निराकरण) हुआ, परन्तु तीन भुवनके तिलक इन्द्र भी हैं, उनसे भिन्नता दिखाने के लिए 'तिहुअणिदपरिपुज्जं (त्रिभुवनेन्द्रपरिपूज्यं)' ऐसा विशेषण दिया, जिससे तीन भुवनके इन्द्रों द्वारा भी पूज्य ऐसा जो देव है उसको नमस्कार किया। यहां इसप्रकार समझना कि ऊपर कहे अनुसार देवपना अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इन पंचपरमेष्ठियोंमें ही पाया जाता है, क्योंकि परम स्वात्मजनित ॐ इस जगह भाषानुवादक स्वर्गीय पण्डित जयचन्द्रजीने समस्त ग्रन्थकी पीठिका ( कथनकी संक्षिप्त विषय सूची ) लिखी है सो हमने उसको यहां न रखकर आधुनिक प्रथानुसार प्रारम्भमें विस्तृत विषय सूचीके रूपमें लिख दी है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा आनन्द सहित क्रीड़ा, तथा कर्म कलंकको जोतने रूप विजिगीषा, स्वात्मजनित प्रकाशरूप द्य ति, स्वस्वरूपकी स्तुति, स्वरूप में परमप्रमोद, लोकालोकव्याप्तरूप गति, शुद्धस्वरूपकी प्रवृत्तिरूप कान्ति इत्यादि देवपनेकी उत्कृष्ट क्रियायें सब एकदेश वा सर्वदेशरूप इनमें ही पाई जाती हैं, इसलिये सर्वोत्कृष्ट देवपना इनमें ही पाया जाता है, अतः इनको मंगलरूप नमस्कार करना उचित है। (मं पापं गालयति इति मंगलं अथवा मंगं सुखं लाति ददाति इति मंगलं ) 'म' कहिये पाप उसको गाल ( नाश करे ) तथा 'मंग' कहिये सुख, उसको लाति ददाति कहिये दे, उसको मंगल कहते हैं, सो ऐसे देवको नमस्कार करनेसे शुभपरिणाम होते हैं जिससे पापोंका नाश होता है और शान्तस्वभावरूप सुखकी प्राप्ति होती है। अनुप्रेक्षाका सामान्य अर्थ बारम्बार चिन्तवन करना है, वह चितवन अनेक प्रकारका है, उसके करनेवाले अनेक हैं, उनसे भिन्नता दिखाने के लिये 'भवियजणाणंदजणणीओ ( भव्यजनानन्दजननीः )' ऐसा विशेषण दिया है। इसलिये मैं ( स्वामिकार्तिकेय ) जिन भव्यजीवोंके मोक्ष होना निकट आया हो उनको आनन्द उत्पन्न करनेवाली, ऐसो अनुप्रेक्षा कहूंगा। यहां 'अणुपेहाओ ( अनुप्रेक्षाः ) ऐसा बहुवचनांत पद है। अनुप्रक्षा-सामान्य चितवन एक प्रकार है तो भी अनेक प्रकार है, भव्य जीवोंको सुनते ही मोक्षमार्गमें उत्साह उत्पन्न हो, ऐसा चितवन संक्षेपसे बारह प्रकार है, उनके नाम तथा भावनाकी प्रेरणा दो गाथाओंमें कहते हैं: अधुव असरण भणिया, संसारामेगमण्णमसुइत्तं । आसव संवरणामा, णिज्जरलोयाणुपेहाओ ॥२॥ इय जाणिऊण भावह, दुल्लह-धम्माणुभावणाणिच्च । मन-वयण-कायसुद्धी, एदा दस दोय भणिया हु ॥३॥ अन्वयार्थः-[ एदा ] ये [ अर्द्धव ] अध्रुव (अनित्य) [ असरण ] अशरण [ संसारामेगमण्णमसुइत्तं ] संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व [ आसव ] आस्रव [ संवरणामा ] संवर [ गिजरलोयाणुपेहाओ ] निर्जरा, लोक अनुप्रक्षायें [ दुल्लह ] बोधि दुर्लभ [ धम्माणभावणा ] धर्म भावना यह [ दस दोय ] बारह भावना [ मणिया ] कही Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा गई हैं [ इय जाणिऊण ] इन्हें जानकर [ मणवयणकायसुद्धी ] मनवचनकाय शुद्ध कर [णिच्चं ] निरन्तर [ भावह ] भावो। भावार्थ:-ये बारह भावनाओंके नाम कहे गये हैं, इनका विशेष अर्थरूप कथन तो यथास्थान होगा ही परन्तु ये नाम भी सार्थक हैं, इनका अर्थ किस प्रकार है ? –अध्र व तो अनित्यको कहते हैं। जहां कोई शरण नहीं सो अशरण । भ्रमणको संसार । जहां कोई दूसरा नहीं सो एकत्व । जहां सबसे भिन्नता सो अन्यत्व । मलिनताको अशुचित्व । कर्मके आनेको आस्रव । कर्मके आनेको रोके सो संवर । कर्मका झरना सो निर्जरा। जिसमें छह द्रव्य पाये जांय सो लोक । अतिकठिनतासे प्राप्त होय सो दुर्लभ । संसारसे उद्धार करे सो वस्तुस्वरूपादिकधर्म । इसप्रकार इनका अर्थ है । अध्र व-अनुप्रेक्षा पहले अध्रुव अनुप्रेक्षाका सामान्य स्वरूप कहते हैं: जं किंचिवि उप्पण्णं, तस्स विणासो हवेइ णियमेण । परिणामसरूवेण वि, ण य किंचि वि सासयं अस्थि ॥४॥ अन्वयार्थः-[ जं किंचिवि उप्पण्णं ] जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है [ तस्स णियमेण विणासो हवेइ ] उसका नियमसे नाश होता है [ परिणामसरूवेणवि ] परिणामस्वरूपसे तो [ किंचिवि सासयं ण अस्थि ] कुछ भी नित्य नहीं है । भावार्थ:-सब वस्तुए सामान्य विशेषस्वरूप हैं। सामान्य तो द्रव्यको और विशेष गुणपर्यायको कहते हैं सो द्रव्यरूपसे तो वस्तु नित्य ही है तथा गुण भी नित्य ही है और पर्याय है बह अनित्य है इसको परिणाम भी कहते हैं; यह प्राणी पर्यायबुद्धि है सो पर्यायको उत्पन्न होते व नष्ट होते देखकर हर्ष विषाद करता है तथा उसको नित्य रखना चाहता है इसप्रकारके अज्ञानसे दुखी होता है उसको इस भावनाका चितवन इसप्रकार करना योग्य है कि: Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्र व-अनुप्रेक्षा मैं द्रव्यरूपसे नित्य जीवद्रव्य हैं, उत्पन्न होती है तथा नाश होती है यह पर्यायका स्वभाव है, इसमें हर्ष विषाद कैसा ? यह शरीर, जीव पुद्गलकी संयोगजनित पर्याय है। धन धान्यादिक, पुद्गलपरमाणुओंकी स्कन्धपर्याय हैं। इनके संयोग और वियोग नियमसे अवश्य है, स्थिरताकी बुद्धि करता है सो मोहजनित भाव है इसलिये वस्तुस्वरूपको समझकर हर्ष विषादादिकरूप नहीं होना चाहिए। आगे इसहीको विशेषरूपसे कहते हैं: जम्मं मरणेण समं, संपज्जइ जोव्वणं जरासहियं । लच्छी विणास सहिया, इय सव्वं भंगुरं मुणह ॥५॥ अन्वयार्थः-[ जम्मं मरणेण समं] यह जन्म है सो मरण सहित है [ जवणं जरासहियं संपजइ ] यौवन है सो जरा सहित उत्पन्न होता है [ लच्छी विणाससहिया ] लक्ष्मी है सो विनाश सहित उत्पन्न होती है [ इयसव्वं भंगुरं मुणह ] इसप्रकारसे सब वस्तुओंको क्षणभंगुर जानो। भावार्थ:-जितनी अवस्थायें संसार में हैं वे सब ही विरोधी भावको लिये हुए हैं । यह प्राणी जन्म होता है तब उसको स्थिर मानकर हर्ष करता है, मरण होनेपर नाश मानकर शोक करता है। इसीप्रकारसे इष्ट की प्राप्तिमें हर्ष, अप्राप्तिमें विषाद तथा अनिष्टकी प्राप्तिमें विषाद, अप्राप्तिमें हर्ष करता है सो यह मोहका माहात्म्य है । ( नित्य पूर्ण ज्ञायकभावके आलम्बनके बल द्वारा ) ज्ञानियोंको समभावरूपसे रहना चाहिये। अथिरं परियण-सयणं, पुत्त-कलत्तं सुमित्त-लावण्णं । गिह-गोहणाइ सव्वं, णव-घण-विंदण सारिच्छं ॥६॥ अन्वयार्थः-[परियणसयणं] परिवार, बन्धुवर्ग [ पुत्तकल] पुत्र, स्त्री [ सुमित्त ] अच्छे मित्र [ लावण्णं ] शरीरको सुन्दरता [ गिहगोहणाइ सव्वं ] गृह गोधन इत्यादि समस्त वस्तुएं [ णवघणविदेण सारिच्छं ] नवीन मेघके समूहके समान [अथिरं] अस्थिर हैं। भावार्थ:-ये सबही वस्तुएं नाशवान् जानकर (नित्य ज्ञानस्वभावमेंही एकत्व द्वारा) हर्षविषाद नहीं करना चाहिये । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा सुरधणु-तडि व्व चवला, इंदिय-विसया सुभिच्च वग्गा य । सव्वे, तुरय-गया रहवरादी य 119 11 दिट्ठ-पट्ठा अन्वयार्थः - [ इंदियविसया ] इन्द्रियोंके विषय [सुभिचवग्गा ] अच्छे सेवकोंका समूह [य] और [ तुरयगयारहवरादीया ] घोड़े, हाथी, रथ आदिक [ सव्वे ] ये सब ही [ सुरधणुत डिव्वचवला ] इन्द्रधनुष तथा बिजली के समान चंचल हैं [ दिडपणड्डा ] दिखाई देकर नष्ट हो जानेवाले हैं । भावार्थ::- यह प्राणी, श्रेष्ठ इन्द्रियोंके विषय, अच्छे नौकर, घोड़े, हाथी, रथादिककी प्राप्तिसे सुख मानता है सो ये सब क्षणविनश्वर हैं इसलिये (निज आत्मासे ही उत्पन्न अतीन्द्रिय) अविनाशी सुखको प्राप्त करनेका उपाय करना ही योग्य है । अब बन्धुजनों का संयोग कैसा है सो दृष्टान्तपूर्वक कहते हैंपंथे पहिय - जणां, जह संजोओ हवेइ खणमित्तं । बंधुजणाणं च तहा, संजोओ अधुओ होई ॥८॥ अन्वयार्थः – [ जह ] जैसे [ पंथे ] मार्ग में [ पहियजणाणं ] पथिक जनोंका [ संजोओ ] संयोग [ खणमित्तं ] क्षणमात्र [ हवेह ] होता है [ तहा ] वैसे ही ( संसार में ) [ बंधुजणाणं ] बंधुजनोंका [ संजोओ ] सयोग [ अधुओ ] अस्थिर [ होइ ] होता है । भावार्थ:: - यह प्राणी बहुत कुटुम्ब परिवार पाता है तब अभिमान करके सुख • मानता है, इस मद से अपने स्वरूपको भूल जाता है । यह बन्धुवर्गका संयोग, मार्ग के पथिकजनोंके समान है जिसका शीघ्र ही वियोग होता है । इसमें सन्तुष्ट होकर अपने असली स्वरूपको नहीं भूलना चाहिये । अब देहसंयोगको अस्थिर दिखाते हैं: अइलालियो विदेहो, रहाण सुगंधेहिं विविह-भक्खेहिं । स्वमित्ते वि विडइ, जल-भरियो आम घडओ व्व ॥६॥ अन्वयार्थः - [ देहो ] यह देह [ ण्हाणसुगंधेहि ] स्नान तथा सुगन्धित पदार्थों से सजाया हुआ भी ( तथा ) [ विविहभक्खेहिं ] अनेक प्रकारके भोजनादि भक्ष्य Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्र व-अनुप्रेक्षा पदार्थोंसे [ अइलालिओ वि ] अत्यन्त लालन पालन किया हुआ भी [ जलभरिओ ] जलसे भरे हुए [ आमघडओव्व ] कच्चे घड़ेकी तरह [खणमित्तण वि ] क्षणमात्रमें हो [ विहडइ ] नष्ट हो जाता है । भावार्थ:-ऐसे शरीरमें स्थिर बुद्धि करना बड़ी भूल है। अब लक्ष्मीकी अस्थिरता दिखाते हैं जा सासया ण लच्छी, चकहराणं पि पुण्णवंताणं । सा किं बधेइ रई, इयर-जणाणं अपुण्णाणं ॥१०॥ अन्वयार्थः-[ जा लच्छी ] जो लक्ष्मी ( सम्पदा ) [ पुण्णवंताणं चकहराणं पि ] पुण्यके उदय सहित चक्रवर्तियोंके भी [ सासया ण ] नित्य नहीं है [सा ] वह ( लक्ष्मी ) [ अपुण्णाणं इयरजणाणं] पुण्यहीन अथवा अल्प पुण्यवाले अन्य लोगोंसे [किं रइं बंधेइ ] कैसे प्रेम करे ? अर्थात् नहीं करे । भावार्थः-(अपने त्रैकालिक पूर्ण ज्ञानानन्दमय आत्मलक्ष्मीको भूल जाना ही बड़ा दुःख है । अतः) इस लक्ष्मीका अभिमान कर यह प्राणी प्रेम करता है सो वृथा है । आगे इसी अर्थको विशेषरूपसे कहते हैं: कत्थ वि ण रमइ लच्छी, कुलीण-धीरे वि पंडिए सूरे । पुज्जे धम्मिटे वि य, सुवत्त-सुयणे महासत्ते ॥११॥ अन्वयार्थः-[ लच्छी ] यह लक्ष्मी [ कुलीणधीरे वि पंडिए सूरे ] कुलवान्, धैर्यवान्, पण्डित, सुभट [ पुज्जे धम्मि? वि य ] पूज्य, धर्मात्मा [ सुवत्त-सुयणे महासत्ते] रूपवान्, सुजन, महापराक्रमी इत्यादि [ कत्थवि ण रमइ ] किसी भी पुरुषसे प्रेम नहीं करती है। भावार्थः-कोई समझे कि मैं बड़ा कुलवान् हैं, मेरे बड़ोंकी सम्पत्ति है, वो कहाँ जाती है ? तथा मैं धैर्यवान हूँ, कैसे गमाऊंगा? तथा पण्डित हूँ, विद्वान हूँ, मेरी कौन लेगा? उलटा मुझको तो देवेहीगा तथा मैं सुभट हूं, कैसे किसीको लेने दूंगा? तथा मैं पूजनीक हूं मेरी कौन लेवे है ? तथा मैं धर्मात्मा हूँ, धर्मसे तो आती है, आई हुई कहां जाती है ? तथा मैं बड़ा रूपवान् हूँ, मेरा रूप देखकर ही जगत प्रसन्न है, लक्ष्मी कहां जाती है ? तथा मैं Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा सज्जन हूँ, परोपकारी हूँ, कहां जायगी ? तथा मैं बड़ा पराक्रमी हूँ, लक्ष्मीको बढ़ाऊंगा, जाने कहाँ दंगा ? ये सब विचार मिथ्या हैं । यह लक्ष्मी देखते देखते नष्ट हो जाती है। किसीके रक्षा करनेसे नहीं रहती। ___ अब कहते हैं कि जो लक्ष्मी मिली है उसका क्या करना चाहिये ? सो बतलाते ता भुजिज्जउ लच्छी, दिजउ दाणे दया-पहाणेण । जा जल-तरंगचवला, दो तिगिण दिणाणि चिठेइ ॥१२॥ अन्वयार्थः- [जा लच्छी ] जो लक्ष्मी [जलतरंगचवला ] पानीकी लहरके समान चंचल है [दो तिण्णिदिणाणि चिट्ठई ] दो तीन दिन तक चेष्टा करती है अर्थात् विद्यमान है तब तक [ता भुजिजउ ] उसको भोगो [ दयापहाणेण दाणं दिजउ ] दयाप्रधान होकर दान दो। भावार्थः-कोई कृपणबुद्धि इस लक्ष्मीको इकट्ठी करके स्थिर रखना चाहता हो उसको उपदेश है कि-यह लक्ष्मी चंचल है, रहनेवाली नहीं है, जो थोड़े दिन विद्यमान है तो भगवानकी भक्तिनिमित्त तथा परोपकारनिमित्त दानमें खरचो और विवेक सहित भोगो। यहां प्रश्न-भोगवे में तो पाप होता है फिर भोगने का उपदेश क्यों दिया ? उसका समाधान-इकट्ठी करके रखने में पहिले तो ममत्व बहुत होता है तथा किसी कारणसे नाश हो जाय तब बड़ा ही दुःख होता है। आसक्तपनेसे कषाय तीव्र तथा परिणाम मलिन सदा रहते हैं। भोगनेसे परिणाम उदार रहते हैं मलिन नहीं रहते। उदारतासे भोग सामग्रीमें खर्च करे तो संसारमें यश फैलता है और मन भी उज्ज्वलप्रसन्न रहता है । यदि किसी अन्य कारणसे नाश भी हो जाय तो दुःख बहुत नहीं होता है इत्यादि भोगने में भी गुण होते हैं । कृपणके तो कुछ भी गुण नहीं होता । केवल मनकी मलिनताका ही कारण है । यदि कोई सर्वथा त्याग ही करे तो उसको भोगनेका उपदेश नहीं है। जो पुण लच्छि संचदि, ण य भुजदि णेय देदि पत्तेसु । सो अप्पाणं वंचदि, मणुयत्तं णिप्फलं तस्स ॥१३॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्र व-अनुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ पुण ] और [ जो लच्छि संचदि ] जो लक्ष्मीको इकट्ठी करता है [ण य भुजदि ] न तो भोगता है [ पत्तेसु णेय देदि ] और न पात्रोंके निमित्त दान करता है [ सो अप्पाणं वंचदि] वह अपनी आत्माको ठगता है [ तस्स मणुयत्वं णिप्फलं ] उसका मनुष्यपना निष्फल है।। ___ भावार्थ:-जिस पुरुषने लक्ष्मीको पा करके संचय ही किया, दान तथा भोगमें खर्च नहीं की, उसने मनुष्यभव पा करके क्या किया ? निष्फल ही खोया, केवल अपनी आत्माको ठगा। जो संचिऊण लच्छि, धरणियले संठवेदि अइदूरे । सो पुरिसो तं लच्छि, पाहाण-समाणियं कुणइ ॥१४॥ अन्वयार्थः-[ जो लच्छि संचिऊण ] जो पुरुष लक्ष्मीको संचय करके [ अइद्रे धरणियले संठवेदि ] बहुत नीचे जमीनमें गाड़ता है [ सो पुरिसो तं लच्छि ] वह पुरुष उस लक्ष्मीको [ पाहाणसमाणियं कुणइ ] पत्थरके समान करता है। भावार्थ:-जैसे मकानकी नींवमें पत्थर रखा जाता है वैसे ही इसने लक्ष्मीको गाडी तब वह पत्थरके समान हुई। अणवरयं जो संचदि, लच्छि ण य देदि णेय भुदि । अप्पणिया वि य लच्छी, पर-लच्छिसमाणिया तस्स ॥१५॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो पुरुष [ लच्छि ] लक्ष्मी को [ अणवरयं ] निरंतर सिंचदि] संचित करता है [ ण य देदि ] न दान करता है [णेय भुजेदि ] न भोगता है [ तस्स अप्पणिया वि य लच्छी ] उसके अपनी लक्ष्मी भी [ पर लन्छिसमाणिया ] परको लक्ष्मीके समान है । भावार्थ:-जो लक्ष्मीको पाकर दान भोग नहीं करता है, उसके वह लक्ष्मी. दूसरे की है । आप तो रखवाला (चौकीदार) है, लक्ष्मीको कोई दूसरा ही भोगेगा। लच्छी-संसत्तमणो, जो अप्पाणं धरेदि कट्ठण । सो रोइ-दाइयाणं, कज्जं साहेहि मूढप्पा ॥१६॥ अन्वयार्थः-[ जो] जो पुरुष [ लच्छीसंसत्तमणो ] लक्ष्मीमें आसक्त चित्त होकर [ अप्पाणं कट्ठण धरेदि ] अपनी आत्माको कष्ट सहित रखता है [ सो मृढप्पा ] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा वह मूढ़ात्मा [ राइदाइयाणं ] राजा तथा कुटुम्बियोंका [ कज्ज साहेहि ] कार्य सिद्ध करता है। भावार्थ:-लक्ष्मीमें आसक्तचित्त होकर इसको पैदा करनेके लिये तथा रक्षा करनेके लिये अनेक कष्ट सहता है, सो उस पुरुषको तो केवल कष्ट ही फल होता है । लक्ष्मीको तो कुटुम्ब भोगेगा या राजा लेवेगा। जो वड्ढारदि लच्छि, बहु-विह-बुद्धीहि णेय तिप्पेदि । सवारंभं कुव्वदि, रत्ति-दिणं तं पि चिंतेइ ॥१७॥ ण य भुजदि वेलाए, चिंतावत्थो ण सुवदि रयणीए । सो दासत्तं कुब्वदि, विमोहिदो लच्छि-तरुणीए॥१८॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो पुरुष [ बहुविहबुद्धीहिं ] अनेक प्रकारकी कला चतुराई और बुद्धिके द्वारा [लच्छि वड्ढारदि ] लक्ष्मीको बढ़ाता है [णेय तिप्पेदि] तृप्त नहीं होता है [ सव्वारंभ कुव्वदि ] इसके लिये असिमसिकृषि आदिक सब आरंभ करता है [रतिदिणं तं पि चिंतेइ ] रात दिन इसीके आरंभका चितवन करता है [ वेलाए ण य भुजदि ] समय पर भोजन नहीं करता है [चिंतावत्थो रयणीए ण सुवदि] चिंतित होता हुआ रातमें सोता भी नहीं है [सो] वह पुरुष [लच्छि-तरुणीए विमोहिदो] लक्ष्मीरूपी युवतीसे मोहित होकर [ दासत्तं कुव्वदि ] उसका 'किंकरपना करता है । भावार्थ:- जो स्त्रीका किंकर होता है उसको संसार में 'मोहल्या' ऐसे निंद्यनामसे पुकारते हैं। जो पुरुष निरन्तर लक्ष्मीके निमित्त हो प्रयास करता है सो लक्ष्मीरूपी स्त्रीका मोहल्या है। अब जो लक्ष्मीको धर्मकार्य में लगाता है उसकी प्रशंसा करते हैं: जो वड्ढमाण लच्छि, अणवरयं देदि धम्मकज्जेसु । सो पण्डिएहिं थुव्वदि, तस्स वि सहला हवे लच्छी ॥१६॥ अन्वयार्थः- [जो] जो पुरुष (पुण्यके उदयसे) [ वड्डमाण लच्छि ] बढ़ती हुई लक्ष्मीको [ अणवरयं ] निरन्तर [ धम्मकज्जेसु देदि ] धर्मके कार्यों में देता है [ सो १-किंकरपना=दासता; नौकरी । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्रुव-अनुप्रेक्षा पंडिएहिं थुबदि ] वह पुरुष पंडितों द्वारा स्तुति करने योग्य है [वि तम्स लच्छी सहला हवे ] और उसीकी लक्ष्मी सफल है ।। भावार्थ:-लक्ष्मी, पूजा, प्रतिष्ठा, यात्रा, पात्रदान, परोपकार इत्यादि धर्मकार्यों में खर्च की गई ही सफल है, पंडित लोग भी उसकी प्रशंसा करते हैं । एवं जो जाणित्ता, विहलिय-लोयाण धम्म-जुत्ताणं । हिरवेक्खो तं देदि, हु तस्त हवे जीवियं सहलं ॥२०॥ अन्वयार्थः-[ जो एवं जाणित्ता ] जो पुरुष ऐसा जानकर [ धम्मजुत्ताणं विहलियलोयाण ] धर्मयुक्त ऐसे निर्धन लोगोंके लिये [णिरवेक्खो] प्रत्युपकारकी इच्छासे रहित होकर [तं देदि ] उस लक्ष्मीको देता है [ हु तस्स जीवियं सहलं हवे] निश्चयसे उसीका जन्म सफल होता है । भावार्थ:-अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिए तो दान देनेवाले संसार में बहुत हैं । जो प्रत्युपकारकी इच्छासे रहित होकर धर्मात्मा तथा दुखी दरिद्री पुरुषोंको धन देते हैं, ऐसे विरले हैं उनका जीवन सफल है । अब मोहका माहात्म्य दिखाते हैं :जल बुब्बुय-सारिच्छं धणजोव्वण जीवियं पि पेच्छंता । मण्णंति तो वि णिच्चं, इह-बलिओ मोह-माहप्पो॥२१॥ अन्वयार्थः-( यह प्राणो ) [ धणजव्यणजीवियं ] धन, यौवन, जीवनको [जलबुब्बुय-सारिच्छं ] जलके बुदबुदेके समान (तुरंत नष्ट होते) [ पेच्छंता पि] देखते हए भी [ णिच्चं मण्णंति ] नित्य मानता है (यह बड़े ही आश्चर्यकी बात है) [मोहमाहप्पो अइबलिओ ] मोहका माहात्म्य बड़ा बलवान है । भावार्थ:-वस्तुस्वरूपका अन्यथा ज्ञान कराने में मदिरा पीना, ज्वरादिक रोग, नेत्र विकार, अन्धकार इत्यादि अनेक कारण हैं परन्तु यह मोह भाव सबसे बलवान है, वस्तुको प्रत्यक्ष विनाशीक देखता है तो भी नित्य ही मान्य कराता है तथा मिथ्यात्व, काम, क्रोध, शोक इत्यादिक हैं वे सब मोह ही के भेद हैं, ये सब ही वस्तु स्वरूप में अन्यथाबुद्धि कराते हैं । www.jainelibrary.orba Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब इस कथनका संकोच करते हैं: चइऊण महामोहं, विसऐ मुणिऊण भंगुरे सव्वे । णिव्विसयं कुणह मणं, जेण सुहं उत्तमं लहइ ॥२२॥ अन्वयार्थः- ( हे भव्यजीवों ! ) [ सव्वे विसऐ भंगुरे मुणिऊण ] समस्त विषयोंको विनाशीक जानकर [ महामोहं चइऊण] महामोहको छोड़कर [मणं णिबिसयं कुणह ] अपने मनको विषयों से रहित करो। [जेण उत्तमं सुहं लहइ ] जिससे उत्तम सुखको प्राप्त करो। भावार्थ:-पूर्वोक्त प्रकारसे संसार, देह, भोग, लक्ष्मी इत्यादिकको अस्थिररूप दिखाये, उनको सुनकर जो अपने मनको विषयोंसे छुड़ाकर (अपनेको नित्य ज्ञानानन्दमय और) उनको अस्थिररूप भावेगा सो भव्यजीव सिद्धपदके सुखको पावेगा। इति अध्र वानुप्रेक्षा समाप्ता ॥१॥ अशरण-अनुप्रेक्षा तत्थ भवे किं सरणं, जत्थ सुरिंदाण दीसदे विलो। हरिहरबंभादीया, कालेण य कवलिया जत्थ ॥२३॥ - अन्वयार्थः-[ जत्थ सुरिंदाण विलओ दीसदे ] जिस संसार में देवोंके इन्द्रका नाश देखा जाता है [जत्थ हरिहरबंभादीया कालेण य कवलिया] जहां हरि कहिये नारायण, हर कहिये रुद्र, ब्रह्मा कहिये विधाता आदि शब्दसे बड़े २ पदवीधारक सब ही काल द्वारा ग्रसे गये [ तत्थ किं सरणं भवे ] उस संसारमें कौन शरण होवे ? कोई भी नहीं होवे । भावार्थः-शरण उसको कहते हैं जहां अपनी रक्षा हो सो संसारमें जिनका शरण विचार जाता है वे ही काल-पाकर नष्ट हो जाते हैं वहां कैसा शरण । अब इसका दृष्टान्त कहते हैं Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशरण-अनुप्रेक्षा सिंहस्स कमे पडिदं, सारंगं जह ण रक्खदे को वि। तह मिच्चुणा य गहिदं, जीवं पि ण रक्खदे को वि ॥२४॥ अन्वयार्थः- [जह सिंहस्स कमे पडिदं ] जैसे ( वनमें ) सिंहके पैर नीचे पड़े हुए [ सारंगं को वि ण रक्खदे] हिरणकी कोई भी रक्षा करने वाला नहीं [ तह मिच्चुणा य गहिदं जीवं पि] वैसे ही ( संसारमें ) मृत्युके द्वारा ग्रहण किये हुए जीवकी [ को वि ण रक्खदे ] कोई भी रक्षा नहीं कर सकता है। भावार्थ:- वनमें सिंह मृगको पैर नीचे दाब ले तब रक्षा कौन करे ? वैसे ही यह कालका दृष्टान्त जानना चाहिये । आगे इसी अर्थको दृढ़ करते हैं____ जइ देवो वि य रक्खदि, मंतो तंतो य खेत्तपालो य । मियमाणं पि मणुस्सं, तो मणुया अक्खया होंति ॥२५॥ अन्वयार्थः-[ जइ मियमाणं पि मणस्सं ] यदि मरते हुए मनुष्यको [ देवो वि य मंतो तंतो य खेतपालो य रक्खदि ] कोई देव, मंत्र, तंत्र, क्षेत्रपाल उपलक्षणसे संसार जिनको रक्षक मानता है सो सब ही रक्षा करने वाले होंय [ तो मणुया अक्खया होंति ] तो मनुष्य अक्षय होवें, कोई भी मरे नहीं । भावार्थ:-( नित्य निर्मोही पूर्ण ज्ञानानंद स्व को भूलकर ) लोग जोवित रहने के निमित्त (मोह वश होकर) देवपूजा, मंत्रतंत्र, औषधि आदि अनेक उपाय करते हैं परन्तु निश्चयसे विचार करें तो कोई जीवित दीखता नहीं है, वृथा ही मोहसे विकल्प पैदा करते हैं। आगे इसी अर्थको और दृढ़ करते हैंअइ-बलिओ वि रउद्दो मरण-विहीणो ण दीसए को वि। रक्खिजंतो वि सया रक्ख-पयारेहिं विविहेहिं ॥२६॥ अन्वयार्थः-( इस संसार में ) [ अइबलिओ वि रउद्दो] अत्यंत बलवान् तथा अत्यन्त रौद्र (भयानक) [ विविहेहिं रक्खपयारेहिं रक्खिजंतो वि सया ] और अनेक रक्षाके प्रकार उनसे निरन्तर रक्षा किया हुआ भी [ मरणविहीणो को वि ण दीसए ] मरणरहित कोई भी नहीं दीखता है । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा भावार्थ:- ( अपने को तो भूलते ही हैं और परमें इष्ट अनिष्ट मान कर ) अनेक रक्षाके प्रकार गढ़, कोट, सुभट, शस्त्रादिक को शरण मानकर कोटि उपाय करो परन्तु मरणसे कोई बचता नहीं । सब उपाय विफल जाते हैं । १४ अब शरणकी कल्पना करे उसको अज्ञान बताते हैं एवं पेच्छतो वि हु, गह भूय- पिसाय जोइणी - जक्खं । सरणं मरणइ मूढो, सुगाढ- मिच्छत्त-भावादो ||२७|| अन्वयार्थः – [ एवं पेच्छतो वि हु ] ऐसे ( पूर्वोक्तप्रकार अशरण ) प्रत्यक्ष देखता हुआ भी [ मूढो ] मूढ प्राणी [ सुगाढमिच्छत्तभावादो ] तीव्रमिथ्यात्वभावसे [ गहय पिसाय जोड़णी जक्खं ] सूर्यादि ग्रह, भूत, व्यंतर, पिशाच, योगिनी, चडिकादिक, यक्ष, मणिभद्रादिकको [ सरणं मण्णइ ] शरण मानता है । भावार्थ:- यह प्राणी प्रत्यक्ष जानता है कि मरणसे बचानेवाला कोई भी नहीं है तो भी ग्रहादिकको शरण मानता है सो यह तीव्रमिथ्यात्वका माहात्म्य है । अब मरण है सो आयुके क्षयसे होता है यह कहते हैंआयुक्खयेण मरणं, आउं दाऊण सक्कदे को वि । तह्मा देविंदो विय, मरणाउ रक्खदे को वि ॥ २८ ॥ अन्वयार्थः - [ आयुक्खयेण मरणं ] आयुकर्मके क्षयसे दाऊण सकदे को वि ] और आयुकर्म किसीको कोई देने में समर्थ ] इसलिये देवोंका इन्द्र भी [ मरणाउ को विण रक्खदे ] नहीं कर सकता है | भावार्थ: :-मरण आयुके पूर्ण होनेसे होता है और आयु कोई किसीको देने में समर्थ नहीं, तब रक्षा करनेवाला कौन ? इसका विचार करो ! मरण होता है [ आउं नहीं [तमा देविंदो वि मरनेसे किसीकी रक्षा आगे इसी अर्थको दृढ़ करते हैं अप्पा पि चतं, जह सक्कदि रक्खिदु सुरिदोषि । सव्वुत्तम भोय-संजुत्तं ॥ २६ ॥ तो किं ठंडदि सग्गं, अन्वयार्थः - [ जइ सुरिंदो वि] यदि देवोंका इन्द्र भी [ अप्पाणं पि चतं ] अपनेको चयते (सरते) हुए [ रक्खिदुं सकदि ] रोकने में समर्थ होता [ तो सब्बुचम Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ अशरण-अनुप्रेक्षा भोयसंजुत् ] तो सर्वोत्तम भोगोंसे संयुक्त [ सग्गं किं छंडदि ] स्वर्गको क्यों छोड़ता ? भावार्थ:-सर्व भोगोंका निवास स्थान अपना वश चलते कौन छोड़े ? अब परमार्थ शरण दिखाते हैं दंसण-णाण-चरितं, सरणं सेवेहि परम-सद्धाए । अण्णं कि पि ण सरणं, संसारे संसरंताणं ॥३०॥ अन्वयार्थः- (हे भव्य ! ) [ परमसद्धाए ] परम श्रद्धासे [दसणणाणचरितं ] दर्शन ज्ञान चारित्र स्वरूप [ सरणं सेवेहि ] शरणका सेवन कर। [ संसारे संसरंताणं ] इस संसार में भ्रमण करते हुए जीवोंको [अण्णं किं पि ण सरणं ] अन्य कुछ भी शरण नहीं है। भावार्थ:-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र अपना स्वरूप है सो यह ही परमार्थरूप (वास्तवमें) शरण है । अन्य सब अशरण है (सम्यग्दर्शनका विषय अपना त्रैकालिक निश्चय परमात्मा है ऐसा) निश्चयश्रद्धापूर्वक यह ही शरण ग्रहण करो, ऐसा उपदेश है। आगे इसीको दृढ़ करते हैं अप्पाणं पि य सरणं, खमादि-भावेहिं परिणदं होदि । तिव्व-कषायाविट्ठो, अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥३१॥ अन्वयार्थः- [य अप्पाणं खमादिभावेहिं परिणदं होदि सरणं ] जो अपनेको क्षमादि दशलक्षणरूप परिणत करता है सो शरण है [तिव्वकषायाविट्ठो अप्पेण अप्पाणं हणदि ] और जो तीनकषाययुक्त होता है सो अपने ही द्वारा अपनेको हनता है । भावार्थः-परमार्थसे विचार करें तो (स्वयं अपना गुरु-शिष्य, उपास्य-उपासक, भक्त-भगवान और स्वयं ही शत्रु व मित्र है)। आपही अपनी रक्षा करनेवाला है तथा आपही घातनेवाला है । (ज्ञातास्वभावकी अरुचि ही क्रोध है और रागादि करने योग्य है, मेरे है वह रागादि की रुचि है उसीका नाम निश्चयसे क्रोध है)। क्रोधादिरूप परिणाम करता है तब शुद्ध चैतन्यका घात होता है और क्षमादि परिणाम करता है तब अपनी रक्षा होती है । इन ही भावोंसे जन्ममरणसे रहित होकर अविनाशीपद प्राप्त होता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा * दोहा * वस्तुस्वभाव विचारतें, शरण आपकू आप। व्यवहारे पंच परमगुरु, अवर सकल संताप ॥२॥ इति अशरणानुप्रेक्षा समाप्ता ॥२॥ संसार-अनुप्रेक्षा पहले दो गाथाओं में संसारका सामान्य स्वरूप कहते हैं एक चयदि शरीरं, अण्णं गिण्हेदि णवणवं जीवो। पुणु पुणु अण्णं अण्णं, गिराह दि मुचेदि बहुवारं ॥३२॥ एक्कं जं संसरणं, णाणादेहेसु हवदि जीवस्त । सो संसारो भएणदि, मिच्छकसाएहिं जुत्तस्य ॥३३॥ अन्वयार्थः-[ मिच्छकसायेहि जुत्तम्स जीवस्स ] मिथ्यात्व कहिये सर्वथा एकान्तरूप वस्तुको श्रद्धा में लाना और कषाय कहिये क्रोध, मान, माया, लोभ इनसे युक्त इस जीवका [जं णाणादेहेसु संसरणं हवदि ] जो अनेक शरीरों में संसरण कहिये भ्रमण होता है [ सो संसारो भण्णदि] वह संसार कहलाता है । वह किस तरह ? सो ही कहते हैं। [जीवो एक्कं शरीरं चयदि ] यह जीव एक शरीरको छोड़ता है [पुण णवणवं गिण्हेदि ] फिर नवीन (शरीर) को ग्रहण करता है [ पुण अण्णं अण्णं बहुवारं गिण्हदि मुंचेदि ] फिर अन्य अन्य शरीरको कई बार ग्रहण करता है और छोड़ता है [ सो संसारो भण्णदि ] वह ही संसार कहलाता है। भावार्थ:-( निश्चयसे अपनेको भूल जाना रूप मिथ्यात्व ही संसार है और व्यवहारसे ) एक शरीरसे अन्य शरीरको प्राप्ति होते रहना सो संसार है। अब ऐसे संसार में संक्षेपसे चार गतियां हैं तथा अनेक प्रकारके दुःख हैं। सो प्रथम ही नरकगतिमें दुःख हैं यह छह गाथाओंमें कहते हैं Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार-अनुप्रेक्षा पावोदयेण णरए, जायदि जीवो सहेदि बहुदुक्खं । पंच-पयारं विविहं, अणोवमं अण्ण-दुक्खेहि ॥३४॥ अन्वयार्थः-[ जीवो पावोदयेण णरए जायदि ] यह जीव पापके उदयसे नरकमें उत्पन्न होता है [ विविहं अण्णदुक्खेहि पंचपयारं अणोवमं बहुदुक्खं सहेदि] वहां कई तरहके, पंचप्रकारसे, उपमारहित ऐसे बहुतसे दुःख सहता है ।। भावार्थः-जो जीवोंकी हिंसा करता है, झूठ बोलता है, परधन हरता है, परस्त्री तकता' है, बहुत आरंभ करता है, परिग्रहमें आसक्त होता है, बहुत क्रोधी, प्रचुर मानी, अति कपटी, अति कठोर भाषी, पापी, चुगल, कृपण, देवशास्त्रगुरुका निंदक, अधम, दुर्बुद्धि, कृतघ्नी और बहुत शोक दुःख करने ही की जिसकी प्रकृति हो ऐसा जो जीव होता है सो मर कर नरकमें उत्पन्न होता है, अनेक प्रकारके दुःखको सहता है । * अब पांच प्रकारके दुःखोंको कहते हैं-- असुरोदीरिय-दुक्खं, सारीरं माणसं तहा विविहं । खित्तुब्भवं च तिव्वं, अण्णोण्ण-कयं च पंचविहं ॥३५॥ अन्वयार्थः-[ असुरोदीरियदुक्खं ] १ असुरकुमार देवों द्वारा उत्पन्न किया हुआ दुःख, [ सारीरं माणसं ] २ शरीरसे उत्पन्न हुआ और ३ मनसे हुआ [ तहा विविह खित्त ब्भवं ] तथा ४ अनेकप्रकार क्षेत्रसे उत्पन्न हुआ [च अण्णोणकयं पंचविह] और ५ परस्परमें किया हुआ ऐसे पाँच प्रकारके दुःख हैं। भावार्थ:-तीसरे नरक तक तो १ असुरकुमार देव कुतूहलमात्र जाते हैं, वे नारकियोंको देखकर आपसमें लड़ाते हैं, अनेक प्रकारसे दुःखी करते हैं। नारकियोंका २ शरीर ही पापके उदयसे स्वयमेव अनेक रोगों सहित, बुरा, घिनावना, दुःखमयी होता है । उनका ३ चित्त भी महाक्रू र दुःखरूप ही होता है। नरकका ४ क्षेत्र महाशीत, उष्ण, दुर्गन्ध और अनेक उपद्रव सहित होता है । नारकी जीव ५ आपसमें बैरके १ तकता है = कामयुक्त दृष्टिसे देखता है । * [संयोगका दुःख नहीं है किन्तु देहादिमें जितना ममत्व है उतना ही दुःख समझना चाहिये ।] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा संस्कारसे छेदन, भेदन, मारन, ताड़न, और कुम्भीपाक आदि करते हैं । वहांका दुःख उपमा रहित है । १८ आगे इसी दुःखको विशेष रूपसे कहते हैं— छिनइ तिल तिलमित्तं, भिंदिजड़ तिल तिलंतरं सयलं । वजग्गिए कढिज्जइ, णिहिप्पए पूयकुडम्हि ॥ ३६ ॥ अन्वयार्थः - ( नरक में ) [ तिलतिलमित्तं छिजइ ] तिल तिलमात्र छेद देते हैं [ सयलं तिलतिलं भिंदिजइ ] शकल कहिये खण्डको भी तिल तिलमात्र भेद देते हैं [ वञ्जग्गिए कटिज ] वज्राग्निमें पकाते हैं [ पूयकुण्ड म्हि णिहिप्पए ] राधके कुण्ड में फेंक देते हैं । इच्चे माइ- दुक्खं, जं गरए सहदि एयसमयहि | तं सयलं वण्णेदु ं, ण सक्कदे सहज-जीहो वि ||३७|| अन्वयार्थः – [ इच्चेवमाइ जं दुक्खं ] इति कहिये ऐसे एवमादि कहिये पूर्व गाथा में कहे गए उनको आदि लेकर जो दुःख उनको [ णरए एयसमयम्हि सहदि ] नरकमें एकसमयमें जीव सहता है [ तं सयलं वण्णेदुं ] उन सबका वर्णन करने के लिये [ सहसजीहो वि ण सक्कदे ] हजार जीभवाला भी समर्थ नहीं होता है । भावार्थ:- : - इस गाथा में नरकके दुःख वचन द्वारा अवर्णनीय हैं ऐसा कहा है । अब कहते हैं कि नरकका क्षेत्र तथा नारकियोंके परिणाम दुःखमयी ही हैंसव्वं पि होदि रये, खित्तसहावेण दुक्खदं असुहं । कुविदा वि सव्वकालं अणोरणं होंति गेरइया ||३८|| अन्वयार्थः - [ णरये खित्तसहावेण सव्वं पि दुक्खदं अतुहं होदि ] नरक में क्षेत्रस्वभावसे सब ही कारण दुःखदायक तथा अशुभ हैं । [ खेरइया सव्वकालं अण्णोणं कुविदा होंति ] नारकी जीव सदा काल परस्पर में क्रोधित होते रहते हैं । भावार्थ:- क्षेत्र तो [ उपचार के ] स्वभाव से दुःखरूप है [ किन्तु तीव्र क्रोधादिवश नारकी जीव ही ] आपसमें क्रोधित होते हुए वह उसको मारता है, वह उसको मारता है इस तरह निरन्तर दुखी ही रहते हैं । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार-अनुप्रेक्षा अण्ण-भवे जो सुयणो, सो विय गरये हणेइ अइ-कुविदो । एवं तिव्व- विवागं, बहु-कालं विसहदे दुःखं ॥३६॥ अन्वयार्थः - [ अण्णभवे जो सुयणो ] पूर्वभव में जो सज्जन कुटुम्बका था [ सोविय णरये अइकुविदो हणे ] वह भी नरकमें क्रोधित होकर घात करता है [ एवं तिब्बविवागं दुःखं बहुकालं विसहदे ] इसप्रकार तीव्र है विपाक जिसका ऐसा दुःख बहुत काल तक नारकी सहता है । भावार्थ:- ऐसे दुःख कई सागरों तक सहता है, आयु पूरी हुए बिना वहां से निकलना नहीं होता है । अब तिर्यंचगति सम्बन्धी दुःखोंको साढ़े चार गाथाओं में कहते हैंतत्तोगीसरिदूणं, जायदि तिरएसु बहुवियप्पेसु । तत्थ व पावद दुःखं, गब्भे वि य छेयणादीयं ॥ ४० ॥ अन्वयार्थः – [ तत्वो णीसरिदुणं ] उस नरकसे निकल कर [ बहुवियप्पेसु तिरसु जायदि ] अनेक भेदवाले तिर्यंचोंमें उत्पन्न होता है [तत्थ वि गब्भे दुःखं पावदि ] वहां भी गर्भ में दुःख पाता है [ वि य छेयणादीयं ] अपि शब्दसे सम्मूर्च्छन होकर छेदनादिकका दुःख पाता है । तिरिएहिंखज्जमाणो, दुट्ठमगुस्सेहिं हरणमाणो त्रि । सव्वत्थवि संतो, भय- दुक्खं विसहदे भीमं ॥ ४१ ॥ १६ अन्वयार्थः - ( उस तिर्यंचगतिमें यह जीव ) [ तिरिएहिं खजमाणो ] सिंहव्याघ्रादिकसे खाये जानेका [ विदुट्ठमगुस्सेहिं हण्णमाणो ] तथा दुष्ट मनुष्य, म्लेच्छ व्याध धीवरादिकसे मारे जानेका [ सव्वत्थ वि संतट्टो ] सब जगह दुःखी होता हुआ [ भीमं भयदुक्खं विसहदे ] रौद्र भयानक दुःखको विशेषरूपसे सहता है । अणोरणं खज्जंता, तिरिया पावंति दारुणं दुक्खं । माया वित्थ भक्खदि, अण्णो को तत्थ रक्खेदि ॥ ४२ ॥ अन्वयार्थ :- ( जिस तिर्यंचगति में ) [ तिरिया अण्णोष्णं खज्जंता ] यह तिर्यंच ( जीव ) परस्पर में खाये जानेका [ दारुणं दुक्खं पावंति ] उत्कृष्ट दुःख पाता है * [ यहाँ एक समयकी भूल के फलरूप महान दुःख दंडको ] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा [जत्थ माया वि भक्खदि ] जहां जिसके गर्भमें उत्पन्न हआ ऐसी माता भी भक्षण कर जाती है [ तत्थ अण्णो को रक्खेदि ] वहां दूसरा कौन रक्षा करे ? तिव्व-तिसाए तिसिदो, तिव्व-विभुक्खाइ भुक्खिदो संतो। तिव्वं पावदि दुक्खं, उयर-हुयासेण डझतो ॥४३॥ अन्वयार्थः- ( उस तिर्यंचगतिमें यह जीव ) [ तिब्बतिसाए तिसिदो] तीव्र प्याससे प्यासा [तिब्बविभुक्खाइ भुक्खिदो संतो] तीव्र भूखसे भूखा होता हुआ [ उयरहुयासेण डझंतो ] उदराग्निसे जलता हुआ [ तिव्वं दुक्खं पावदि ] तीव्र दुःख पाता है। अब इसका संकोच करते हैं एवं बहुप्पयारं, दुक्खं विसहेदि तिरियजोणीसु। तत्तो णीसरदूणं, लद्धि-अपुण्णो णरो होदि ॥४४॥ अन्वयार्थः-[ एवं ] ऐसे ( पूर्वोक्तप्रकार ) [ तिरियजोणीसु ] तिर्यंचयोनिमें (जीव ) [ बहुप्पयारं दुक्खं विसहेदि ] अनेक प्रकारके दुःख सहता है [ततो णीसरदूणं] उस तिर्यंचगतिसे निकल कर [ लद्धिअपुण्णो णरो होदि ] लब्धि-अपर्याप्त (जहां पर्याप्ति पूरी ही नहीं होती) मनुष्य होता है ।। अब मनुष्यगतिके दुःख बारह गाथाओंमें कहते हैं सो प्रथम ही गर्भमें उत्पन्न होने की अवस्था बतलाते हैं। अह गब्भे वि य जायदि, तत्थ वि णिवडीकयंगपच्चंगो। विसहदि तिव्वं दुक्खं, णिग्गममाणो वि जोणीदो ॥४५॥ अन्वयार्थः-[ अह गम्भे वि य जायदि ] अथवा गर्भ में भी उत्पन्न होता है तो [तस्थ वि णिवड़ीकयंगपच्चंगो] वहां भी सिकुड़ रहे हैं हाथ, पैर आदि अंग तथा उगली आदि प्रत्यंग जिसके, ऐसा होता हुआ तथा [ जोणीदो णिग्गममाणो वि ] योनिसे निकलते समय भी [ तिव्वं दुक्खं विसहदि ] तीव्र दुःखको सहता है । फिर कैसा होता है सो कहते हैं बालोपि पियरचत्तो, परउच्छि?ण बड्ढदे दुहिदो। एवं जायण-सीलो, गमेदि कालं महादुक्खं ॥४६॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार-अनुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ बालोपि पियरचत्तो परउन्छि?ण बढदे दुहिदो ] ( गर्भसे निकलनेके बादमें ) बाल अवस्थामें ही माता पिता मर जांय तब दूसरोंकी झूठनसे बड़ा हुआ [ एवं जायणसीलो महादुक्खं कालं गमेदि ] इस तरह भीख मांग मांग कर उदरपूर्ति करके महादुःखी होता हुआ काल बिताता है ।। अब कहते हैं कि यह पापका फल है पावेण जणो एसो, दुकम्म-वसेन जायदे सव्यो। पुणरवि करेदि पावं, ण य पुगणं को वि अज्जेदि ॥४७॥ अन्वयार्थः-[ एसो सब्यो जणो पावेण दुकम्मवसेन जायदे ] ये लौकिक जन सबही पापके उदयसे असाता वेदनीय, नीच गोत्र, अशुभनाम आयु आदि दुष्कर्मके वशसे ऐसे दुःख सहता है [ पुणरवि पावं करेदि ] तो भी फिर पाप ही करता है [ण य पुण्णं को वि अज्जेदि ] पूजा, दान, व्रत, तप ध्यानादि लक्षण पुण्यको पैदा नहीं करता है, यह बड़ा अज्ञान है । विरलो अज्जदि पुण्णं, सम्मादिट्ठी वएहि संजुत्तो। उवसमभावे सहियो, जिंदणगरहाहि संजुत्तो ॥४८॥ अन्वयार्थ:-[ सम्मादिट्ठी वरहिं संजुत्तो ] सम्यग्दृष्टि कहिये यथार्थश्रद्धावान् और मुनि श्रावकके व्रतोंसे संयुक्त [उवसमभावे सहियो] उपशम भाव कहिये मन्द कषायरूप परिणाम सहित [णिंदणगरहाहि संजुत्तो ] निंदन कहिये अपने दोष याद कर पश्चात्ताप करना, गर्हण कहिये अपने दोष गुरुके पास जाकर प्रकट करना इन दोनोंसे युक्त [विरलो पुण्णं अजदि ] विरला ही ऐसा जीव है जो पुण्य प्रकृतियोंका बन्ध करता है। अब कहते हैं कि पुण्यवान्के भी इष्ट वियोगादि देखे जाते हैं पुण्णजुदस्स वि दीसइ, इट्टविनोयं अणिडसंजोयं । भरहो वि साहिमाणो, परिजिओ लहुय-भायेण ॥४६॥ अन्वयार्थ:-[ पुण्णजुदस्स वि इट्ठविओयं अणिट्ठसंजोयं दीसइ ] पुण्य उदय सहित पुरुषके भी इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग देखा जाता है [ साहिमाणो भरहो वि लहुयभायेणे परिजिओ ] अभिमान सहित भरत चक्रवर्ती भी छोटे भाई बाहुबलीसे पराजित हुआ। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा भावार्थ:-कोई समझता होगा कि जिनके बड़ा पुण्यका उदय है उनके तो सुख है सो संसारमें तो सुख किसीके भी नहीं है । भरत चक्रवर्ती जैसे भी अपमानादिसे दुःखी ही हुए तो औरोंकी क्या बात ? आगे इसी अर्थको दृढ़ करते हैंसयलट्ठ विसह-जोओं, बहुपुराणस्स वि ण सव्वहा होदि । तं पुण्णं पि ण कस्स वि, सव्वं जेणिच्छिदं लहदि ॥५०॥ अन्वयार्थः-( इस संसार में ) [ सयलट्ठविसहजोमओ ] समस्त जो पदार्थ, वे ही हुए विषय कहिये भोग्य वस्तु, उनका योग [ बहुपुण्णस्स वि ण सव्वहा होदि ] बड़े पुण्यवानोंको भी पूर्णरूपसे नहीं मिलता है [तं पुण्णं पि ण कस्स वि ] ऐसा पुण्य किसीके भी नहीं है [ जे सव्वं णिच्छिदं लहदि ] जिससे सब हो मनवांछित मिल जाय । __ भावार्थ:-बड़े पुण्यवान्के भी वांछित वस्तुमें कुछ कमी रह ही जाती है, सब मनोरथ तो किसीके भी पूरे नहीं होते हैं तब सर्वसुखी कैसे होवे ? कस्स वि णस्थि कलत्तं, अहव कलत्तं ण पुत्त-संपत्ती । अह तेसिं संपत्ती, तह वि सरोओ हवे देहो ॥५१॥ अन्वयार्थः-[ कस्स वि कलत्तं णत्थि ] किसी मनुष्यके तो स्त्री नहीं है [ अहव कलत्तं पुत्तसंपची ण ] किसीके यदि स्त्री है तो पुत्रकी प्राप्ति नहीं है [ अह तेसिं संपत्ती । किसीके पुत्रकी प्राप्ति है [ तह वि सरोओ हवे देहो ] तो शरीर रोग सहित है । अह णीरोओ देहो, तो धण-धण्णाण णेय सम्पत्ति । अह धण-धण्णं होदि हु, तो मदणं झत्ति दुक्केइ ॥५२॥ अन्वयार्थ:-[अह णीरोओ देहो ] यदि किसीके नीरोग शरीर भी हो तो धणधण्णाण णेय सम्पत्ति ] तो धनधान्यकी प्राप्ति नहीं है [ अह धणधण्णं होदि हु] यदि धन धान्यकी भी प्राप्ति हो जाय [ तो मरणं झत्ति ढुक्केइ ] तो शीघ्र मरण हो जाता है। कस्स वि दुट्ठ-कलत्तं, कस्स वि दुव्वसण-वसणिो पुत्तो। कस्स वि अरिसमबंधू, कस्स वि दुहिदा वि दुच्चरिया ॥५३॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार-अनुप्रेक्षा २३ अन्वयार्थः- ( इस मनुष्यभवमें ) [ कस्स वि दुट्ठकलत्वं ] किसीके तो स्त्री दुराचारिणी है [ कस्स वि दुव्बसणवसणिओ पुत्तो ] किसीका पुत्र जुआ आदि दुर्व्यसनोंमें रत है [ कस्स वि अरिसमबंधू ] किसीके शत्रुके समान कलही* भाई है [ कस्स वि दुहिदा वि दुचरिया ] किसीके पुत्री दुराचारिणी है । कस्स वि मरदि सुपुत्तो, कस्स वि महिला विणस्सदे इट्ठा । कस्स वि अग्गिपलित्तं, गिहं कुडंबं च डझेइ ॥५४॥ अन्वयार्थः-[ कस्स वि सुपुत्तो मरदि ] किसीका सुपुत्र मर जाता है [ कस्स वि इट्ठा महिला विणस्सदे ] किसीके इष्ट ( प्यारी ) स्त्री मर जाती है [ कस्स वि अग्गिपलित्तं गिहं च कुडंवं डज्मेइ ] किसीके घर और कुटुम्ब सब ही अग्नि से जल जाते हैं। एवं मणुयगदीए णाणा दुक्खाई विसहमाणो वि । ण वि धम्मे कुणदि मई, आरम्भं णेय परिचयइ ॥५५।। अन्वयार्थः-[ एवं मणुयगदीए ] इस तरह मनुष्यगतिमें [ णाणा दुक्खाई ] अनेक प्रकारके दुःखोंको [ विसहमाणो वि ] सहता हुआ भी ( यह जीव ) [धम्ने मई ण वि कुणदि ] धर्माचरणमें बुद्धि नहीं करता है [ आरंभं णेय परिचयइ ] ( और ) पापारंभको नहीं छोड़ता है ।। सधणो वि होदि णिधणो, धण-हीणो तह य ईसरो होदि। राया वि होदि भिच्चो, भिच्चो वि य होदि णर णाहो ॥५६॥ । अन्वयार्थः-[सधणो वि होदि गिधणो] धन सहित तो निर्धन हो जाता है [ तह य धणहीणो ईसरो होदि ] वैसे ही जो धन रहित होता है सो ईश्वर ( धनी ) हो जाता है [ राया वि भिच्चो होदि ] राजा भी किंकर ( नौकर ) हो जाता है [ य भिचो वि णरणाहो होदि ] और जो किंकर होता है सो राजा हो जाता है । सत्तू वि होदि मित्तो, मित्तो वि य जायदे तहा सत्तू । कम्म-विवाय-वसादो, एसो संसार-सब्भावो ॥५७॥ * कलही - कलह ( लड़ाई ) करनेवाला । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा ___ अन्वयार्थः-[ कम्मविवायवसादो ] कर्म विपाकके वशसे [ सत्त वि मिचो होदि ] शत्रु भी मित्र हो जाता है [ तहा मित्तो वि य सत्तू जायदे ] और मित्र भी शत्रु हो जाता है [ एसो संसारसब्भावो ] ऐसा संसारका स्वभाव है । भावार्थः-पुण्यकर्मके उदयसे शत्रु भी मित्र हो जाता है और पाप कर्मके उदयसे मित्र भी शत्रु हो जाता है । अब देवगतिका स्वरूप कहते हैं अह कहवि हवदि देवो, तस्स य जायेदि माणसं दुक्खं । दण महद्धीणं, देवाणं रिद्धिसंपत्ती ॥५८।। अन्वयार्थः-[ अह कहवि देवो हवदि ] अथवा बड़े कष्ट से देव भी होता है तो [ तस्स ] उसके [ महद्धीणं देवाणं ] बड़े ऋद्धिधारक देवोंकी [ रिद्धिसंपत्तीदट्ट ण ] ऋद्धि सम्पत्तिको देखकर [ माणसं दुक्खं जायेदि ] मानसिक दुःख उत्पन्न होता है । इट्ठविश्रोगं दुक्खं, होदि महद्धीण विसय-तण्हादो। विसयवसादो सुक्खं, जेसिं तेसिं कुतो तित्ती ॥५६॥ अन्वयार्थः-[ विसयतण्हादो] विषयोंको तृष्णासे [ महद्धीण ] महद्धिक देवोंको भी [ इट्ट विओगं दुक्खं होदि ] इष्ट ( ऋद्धि, देवांगना आदि ) वियोगका दुःख होता है [ जेसिं विसयवसादो सुक्खं ] जिनके विषयोंके आधीन सुख है [तेसिं कुतो तिची] उनके कैसे तृप्ति होवे ? तृष्णा बंधती ही रहे । अब शारीरिक दुःखसे मानसिक दुःख बड़ा है ऐसा कहते हैं-- ___ सारीरियदुक्खादो, माणसदुक्खं हवेइ अइपउरं । माणसदुक्खजुदस्स हि, विसया वि दुहावहा हुँति ॥६०॥ अन्वयार्थः--( कोई समझता होगा कि शरीरसम्बन्धी दुःख बड़ा है, मानसिक दुःख तुच्छ है, उसको समझाते हैं) [सारीरियदुक्खादो] शारीरिक दुःखसे [माणसदुक्खं ] मानसिक दुःख [ अइपउरं हवेइ ] अतिप्रचुर ( बहुत ज्यादा ) है ( कई गुना बढ़कर होता है ) [ माणसदुक्खजुदस्स हि ] ( देखो! ) मानसिक दुःख सहित Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार- अनुप्रेक्षा पुरुषके [ विसया विदुहावहा हुँति ] अन्य विषय बहुत भी होवें तो भी वे उसको दुःखदाई ही दिखते हैं । भावार्थ:- मानसिक चिन्ता होती है तब सब ही सामग्री दुःखरूप दिखाई देती है । देवापि य सुक्खं, मणहरविसएहिं कीरदे जदि ही । विषयवसं जं सुक्खं, दुक्खस्स वि कारणं तं पि ॥ ६१ ॥ अन्वयार्थः - [ जदि ही देवाणं पिय मणहर विसएहिं सुक्खं कीरदे ] यदि देवोंके मनोहर विषयोंसे सुख समझा जावे तो सुख नहीं है [ जं विषयवसं सुक्खं ] जो विषयोंके आधीन सुख है [ तं पि दुक्खस्स वि कारणं ] वह दुःखहीका कारण है । भावार्थ:- अन्य निमित्तसे सुख मानते हैं सो भ्रम है, जिस वस्तुको सुखका कारण मानते हैं वह ही वस्तु कालान्तर में ( कुछ समय बाद ) दुःखका कारण हो जाती है । अब कहते हैं कि इस तरह विचार करने पर कहीं भी सुख नहीं हैएवं सुट्ठ-असारे, संसारे दुक्खसारे घोरे | किं कथविथ सुहं, वियारमाणं सुणिच्चयदो ॥ ६२ ॥ २५ अन्वयार्थः – [ एवं सुट्ठ-असारे ] इस तरह सब प्रकार से असार [ दुक्खसायरे घोरे संसारे ] दुःख के सागर भयानक संसार में [ सुणिच्चयदो वियारमाणं ] निश्चयसे विचार किया जाय तो [ किं कत्थ वि सुहं अस्थि ] क्या कहीं भी कुछ सुख है ? अर्थात् नहीं है । भावार्थ:- चारगतिरूप संसार है और चारों ही गतियां दुःखरूप हैं तब सुख कहां ? अब कहते हैं कि यह जीव पर्यायबुद्धि है जिस योनिमें उत्पन्न होता है वहीं सुख मान लेता है- दुक्कियकम्मवसादो, राया वि य असुइकीडओ होदि । तत्थेव य कुणइ रई, पेक्खद मोहस्स माहप्पं ॥ ६३ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ मोहस्स माहप्पं पेक्खह ] ( हे प्राणियों ! तुम ) मोहके माहात्म्यको देखो कि [ दुक्कियकम्मवसादो ] पापकर्मके वशसे [ राया वि य असुइकीडओ होदि ] राजा भी (मरकर) विष्ठाका कीड़ा हो जाता है [ य तत्थेव रई कुणइ ] और वहीं पर रति ( प्रेम ) मानता है, क्रीड़ा करता है। अब कहते हैं कि इस प्राणीके एक ही भवमें अनेक सम्बन्ध हो जाते हैंपुत्तो वि भाो जाओ, सो वि य भाो वि देवरो होदि । माया होइ सवत्ती, जणणो वि य होइ भत्तारो ॥६४॥ एयम्मि भवे एदे, सम्बन्धा होंति एय जीवस्स । अण्णभवे किं भण्णइ, जीवाणं धम्मरहिदाणं ॥६५॥ अन्वयार्थः-[ एयजीवस्स ] एक जीवके [ एयम्मि भवे ] एक भवमें [ एदे सम्बन्धा होति ] इतने सम्बन्धी होते हैं तो [धम्मरहिदाणं जीवाणं ] धर्मरहित जीवोंके [ अण्णभवे किं भण्णइ ] अन्यभव में क्या कहना ? ( वे सम्बन्धी कौन कौन ? सो कहते हैं ) [ पुत्तो वि भाओ जाओ ] पुत्र तो भाई हुआ [ य सो वि भाओ देवरो होदि ] और जो भाई था वह ही देवर हुआ । [माया होइ सवत्ती ] माता थी वह सौत हुई [य जणणो वि भत्तारो होइ ] और पिता था सो पति हुआ। ___ ये सब सम्बन्ध वसन्ततिलका वेश्या, धनदेव, कमला और वरुणके हुए । इनकी कथा दूसरे ग्रन्थसे लिखी जाती है: एक भवमें अठारह नातेकी कथा मालवदेशकी उज्जयिनो नगरोमें राजा विश्वसेन राज्य करता था। वहां सुदत्त नामका सेठ रहता था। वह सोलह करोड़ द्रव्यका स्वामी था । वह सेठ वसन्ततिलका नामको वेश्यामें आसक्त हो गया और उसने उसको अपने घर में रख ली। जब वह गर्भवती हुई तब उसका शरीर रोगसहित हो गया इसलिये सेठने उस वेश्याको अपने घरमें से निकाल दिया। वसन्ततिलका ने अपने घर में ही पुत्र पुत्रीके युगलको जन्म दिया । उसने खेद खिन्न होकर उन दोनों बालकोंको अलग अलग रत्न कम्बल में लपेट कर पुत्रीको तो दक्षिण दरवाजे पर छोड़ दी। वहांसे उस कन्याको प्रयाग निवासी बिणजारेने लेकर अपनी स्त्रीको सौंप दी और उसका नाम कमला रखा । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार-अनुप्रक्षा २७ पुत्रको उत्तर दिशाके दरवाजे पर छोड़ दिया। वहांसे उसको साकेतपुर के एक सुभद्र नामके बिणजारेने उठाकर अपनी सुव्रताको सौंप दिया और उसका नाम धनदेव रक्खा । पूर्वोपार्जित कर्मके वशसे धनदेवका कमलाके साथ विवाह हुआ । पति पत्नि हुए। बाद में धनदेव व्यापारके लिये उज्जयनी नगरीमें गया । वह वहां वसन्ततिलका वेश्या पर मोहित हो गया । उसके संयोगसे वसन्ततिलकाके पुत्र हुआ, जिसका नाम 'वरुण' रक्खा गया । फिर एक दिन कमलाने सम्बन्ध पूछे । मुनिराजने इनके सब सम्बन्ध बतलाये | इनके पूर्वभवका वर्णन इसी उज्जयनी नगरीमें सोमशर्मा नामका ब्राह्मण रहता था । उसके काश्यपी नामकी स्त्री थी । उनके अग्निभूत सोमभूत नामके दो पुत्र हुए । वे दोनों कहीं से पढ़कर आते थे । उन्होंने मार्ग में जिनदत्तमुनिसे उनकी माताको जो जिनमती नामकी आर्यिका थी, उनका शरीर समाधान ( कुशलता ) पूछते हुए देखो और जिनभद्र नामक मुनिको सुभद्रा नामक आर्यिका जो उनकी पुत्रवधु थी सो शरीर समाधान पूछती देखी । वहाँ उन दोनों भाइयोंने हंसी की कि तरुणके तो वृद्धा स्त्री और वृद्धके तरुणी स्त्री है परमेश्वरने विपरीत योग मिलाया । इसप्रकारकी हंसीके पापसे सोमशर्मा तो वसन्ततिलका हुई और अग्निभूत सोमभूत दोनों भाई मरकर वसन्ततिलकाके पुत्र पुत्री युगल हुए । उनके कमला और धनदेव नाम रक्खे गये । काश्यपी ब्राह्मणी, वसन्ततिलकाके धनदेवके संयोगसे वरुण नामका पुत्र हुआ । इस तरह सब सम्बन्धों को सुनने से कमलाको जातिस्मरण हो गया । तब वह उज्जयिनी नगरी में वसन्ततिलक के घर गई । वहां वरुण पालने ( भूले ) में झूल रहा था । उसे देखकर कमला कहने लगी कि हे बालक ! तेरे साथ मेरे छह नाते हैं सो सुन १–मेरा पति धनदेव, उसके संयोग से तू हुआ इसलिये मेरा भी तू ( सौतेला) पुत्र है । २-- धनदेव मेरा सगा भाई है, उसका तू पुत्र है इसलिये मेरा भतीजा भी है । ३ -- तेरी माता वसंततिलका, वह ही मेरी माता है इसलिये तू मेरा भाई भी है । ४- - तू मेरे पति धनदेवका छोटा भाई है इसलिये मेरा देवर भी / Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा ५ -- धनदेव, मेरी माता वसंततिलकाका पति है इसलिये धनदेव मेरा पिता हुआ, उसका तू छोटा भाई है इसलिये तू मेरा काका ( चाचा ) भी है । - मैं वसन्ततिलकाकी सौत इसलिये धनदेव मेरा ( सोतेला) पुत्र हुआ उसका तू पुत्र इसलिये मेरा पोता भी है । इसप्रकार वह वरुण के साथ छह नाते कह रही थी कि वहां वसन्ततिलका आ गई और कमलासे बोली कि तू कौन है जो मेरे पुत्रको इस तरह छह नाते सुनाती है ? तब कमला बोली कि तेरे साथ भी मेरे छह नाते हैं सो सुन- क्योंकि धनदेवके साथ तेरे ही उदरसे ( पेटसे) १ -- पहिले तो तू मेरी माता है उत्पन्न हुई हूँ | २ -- धनदेव मेरा भाई है । तू उसकी स्त्री है इसलिये मेरी भावज ( भोजाई ) है । ३ -- तू मेरी माता है । तेरा पति धनदेव मेरा पिता हुआ । उसकी तू माता है । इसलिये मेरी दादी है | ४ -- मेरा पति धनदेव है । तू उसकी स्त्री है । इसलिये मेरी सौत भी है । ५--धनदेव तेरा पुत्र सो मेरा भी ( सोतेला ) पुत्र हुआ । तू उसकी स्त्री है इसलिये तू मेरी पुत्रवधू भी है । ६ - मैं धनदेवकी स्त्री हूँ । तू धनदेवकी माता है । इसलिये तू मेरी सास भो है । इस प्रकार वेश्या छह नाते सुनकर चिन्तामें धनदेव आ गया । उसको देखकर कमला बोली कि हैं सो सुनिये: विचार कर रही थी कि वहां तुम्हारे साथ भो हमारे छह नाते १ - पहिले तो तू और मैं इसी वेश्याके उदरसे साथ साथ उत्पन्न हुए सो तू मेरा भाई है । २-- बाद में तेरा मेरा विवाह हो गया सो तू मेरा पति है । ३ - वसन्ततिलका मेरी माता है, उसका तू पति है इसलिये मेरा पिता भी है । पिता है इसलिये उसका ४ - वरुण तेरा छोटा भाई सो मेरा काका हुआ । काका का पिता होनेसे मेरा तू दादा भी हुआ । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार-अनुप्रेक्षा २६ ५--मैं वसंततिलकाकी सौत और तू मेरी सौतका पुत्र इसलिये मेरा भी तू पुत्र है । ६-तू मेरा पति है इसलिये तेरी माता वेश्या मेरी सास हुई । तुम सासके पति हो इसलिये मेरे ससुर भी हुए। * इस तरह एक ही भवमें एक ही प्राणीके अठारह नाते हुए। उसका उदाहरण कहा गया है। यह संसारकी विचित्र विडम्बना है । इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। अब पांच प्रकारके संसारके नाम कहते हैं संसारो पंचविहो, दव्वे खत्ते तहेव काले य । भवभमणो य चउत्थो, पंचमश्रो भावसंसारो ॥६६॥ अन्वयार्थः-[ संसारो पंचविहो ] संसार ( परिभ्रमण ) पांच प्रकारका है [ दवे ] १ द्रव्य ( पुद्गल द्रव्यमें ग्रहणत्यजनरूप परिभ्रमण ) [खचे ] २ क्षेत्र ( आकाशके प्रदेशोंमें स्पर्श करने रूप परिभ्रमण) [ य तहेव काले ] ३ काल (कालके समयों में उत्पन्न होने नष्ट होने रूप परिभ्रमण ) [ भवभमणो य चउत्थो ] ४ भव ( नारकादि भवका ग्रहण त्यजनरूप परिभ्रमण ) [पंचमओ भावसंसारो] ५ भाव ( अपने कषाययोगोंके स्थानकरूप जे भेद उनका पलटनेरूप परिभ्रमण ) इस तरह पांच प्रकारका संसार जानना चाहिये ।। अब इनका स्वप्न कहते हैं, पहिले द्रव्यपरिवर्तनको बतलाते हैंबंधदि मुचदि जीवो, पडिसमयं कम्मपुग्गला विविहा । णोकम्मपुग्गला वि य, मिच्छत्तकषायसंजुत्तो ॥६७॥ ____* यह अठारह नातेकी कथा ग्रन्थान्तरसे लिखी गई है यथा बालय हि सुणि सुवयणं, तुज्झ सरिसा हि अट्ठ दहणत्ता । पुत्तु भतिज्जउ भायउ, देवरु पत्तिय हु पौतज्ज ॥१॥ तुहु पियरो मुहुपियरो, पियामहो तहय हवइ भत्तारो। ___ भायउ तहावि पुत्तो, ससुरो हवइ बालयो मज्झ ।।२।। तुहु जणणी हुइ भज्जा, पियामही तह य मायरी सबई। हवइ बहू तह सासू, ए कहिया अट्ठदहणत्ता ॥३॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० कार्तिकेयानुप्रेक्षा __ अन्वयार्थः-[ जीवो ] यह जीव [ विविहा कम्मपुग्गला णोकम्मपुग्गला वि य ] ( इस लोकमें भरे हुए ) अनेक प्रकारके पुद्गल जो ज्ञानावरणादि कर्मरूप तथा औदारिकादि शरीर नोकर्मरूप हैं उनको [पडिसमयं ] समय समय प्रति [मिच्छत्तकषायसंजुत्तो ] मिथ्यात्व कषाय सहित होता हुआ [ बंधदि मुंचदि ] बांधता है और छोड़ता है। भावार्थ:-मिथ्यात्व कषायके वशसे, ज्ञानावरणादि कर्मोंका समयप्रबद्धअभव्यराशिसे अनन्तगुणा सिद्धराशिके अनन्तवें भाग पुद्गलपरमाणुओंका स्कन्धरूप कार्माणवर्गणाको समयसमयप्रति ग्रहण करता है। जो पहिले ग्रहण किये थे वे सत्तामें हैं, उनमें से इतने ही समयसमय नष्ट होते हैं । वैसे ही औदारिकादि शरीरोंका समयप्रबद्ध', शरीरग्रहणके समयसे लगाकर आयुकी स्थितिपर्यंत ग्रहण करता है वा छोड़ता है। इस तरह अनादि कालसे लेकर अनन्तबार ग्रहण करना और छोड़ना होता है। वहां एक परिवर्तनके प्रारम्भमें प्रथमसमयके समयप्रबद्ध में जितने जितने पुद्गल परमाणु जैसे स्निग्ध रूक्ष वर्ण गन्ध रूप रस तीव्र मन्द मध्यम भावसे ग्रहण किये हों उतने ही वैसे ही कोई समयमें फिरसे ग्रहण करने में आवें तब एक कर्म परावर्तन तथा नोकर्मपरावर्तन होता है । मध्यमें अनन्तबार और भांतिके परमाणु ग्रहण होते हैं वे नहीं गिने जाते हैं । वैसेके वैसे फिरसे ग्रहण करनेको अनन्तकाल बीत जाय उसको एक द्रव्य परावर्तन कहते हैं । इस तरहके इस जीवने इस लोकमें अनन्त परावर्तन किये हैं । अब क्षेत्रपरिवर्तनको कहते हैं सो को वि णस्थि देसो, लोयायासस्स णिरवसेसस्स । जत्थ ण सव्वो जीवो, जादो मरिदो य बहुवारं ॥६८।। अन्वयार्थः-[ गिरवसेसस्स लोयायासम्स ] समस्त लोकाकाशके प्रदेशों में [सो को वि देसो पत्थि ] ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है [ जत्थ सव्वो जीवो] जिसमें ये सब ही संसारी जीव [ बहुवारं जादो य मरिदो ण ] कई बार उत्पन्न न हुए हों तथा मरे न हों। १ समयप्रबद्ध =एक समय में जितने कर्मपरमाणु और नोकर्म परमाणु बंधे, उन सबको समय प्रबद्ध कहते हैं। . Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार-अनुप्रेक्षा ३१ भावार्थ:-समस्त लोकाकाशके प्रदेशों में यह जीव अनन्तबार तो उत्पन्न हुआ और अनन्तबार ही मरणको प्राप्त हुआ। ऐसा प्रदेश रहा ही नहीं जिसमें उत्पन्न नहीं हुआ हो और मरा भी न हो । लोकाकाशके असंख्यात प्रदेश हैं। उसके मध्यके आठ प्रदेशोंको बीचमें देकर, सूक्ष्मनिगोदलब्धिअपर्याप्तक जघन्य अवगाहनका धारी वहां उत्पन्न होता है। उसकी अवगाहना भी असंख्यात प्रदेश है इस तरह जितने प्रदेश उतनी बार तो वह ही अवगाहना वहां ही पाता है। मध्यमें और जगह अन्य अवगाहनासे उत्पन्न होता है उसकी तो गिनती ही नहीं है। बादमें एक एक प्रदेश क्रमसे बढ़ती हुई अवगाहना पाता है सो गिनतीमें है, इस तरह महामच्छ तकको उत्कृष्ट अवगाहनाको पूरी करता है। वैसे ही क्रमसे लोकाकाशके प्रदेशोंका स्पर्श करता है तब एक क्षेत्र परावर्तन होता है। अब काल परिवर्तनको कहते हैं उवसप्पिणिअवसप्पिणि, पढमसमयादिचरमसमयंतं । जीवो कमेण जम्मदि, मरदि य सव्वेसु कालेसु ॥६६॥ अन्वयार्थः-[ उवसप्पिणिअवसप्पिणि ] उत्सर्पिणी अवपिणी कालके [ पढमसमयादिचरमसमयंतं ] पहिले समयसे लगाकार अन्तके समय तक [ जीवो कमेण ] यह जीव अनुक्रमसे [ सव्वेसु कालेसु ] सबही कालोंमें [ जम्मदि य मरदि ] उत्पन्न होता है तथा मरता है। भावार्थः-कोई जीव दस कोडाकोड़ी सागरके उत्सर्पिणी कालके पहिले समयमें जन्म पावे, बादमें दूसरे उत्सर्पिणोके दूसरे समयमें जन्म पावे, इसी तरह तीसरेके तीसरे समयमें जन्म पावे, ऐसे ही अनुक्रमसे अन्तके समयतक जन्म पाता रहे, बीचबीचमें अन्यसमयोंमें बिना अनुक्रमके जन्म पावे सो गिनती में नहीं है। इसी तरह अवसर्पिणीके दस कोड़ाकोड़ी सागरके समय पूरे करे तथा ऐसे ही मरे । इस तरह यह अनन्तकाल होता है उसको एक कालपरावर्त्तन कहते हैंअब भव परिवर्तनको कहते हैं-- णेरइयादिगदीणं, अवर-ट्ठिदो वरट्ठिदी जाव । सव्वढिदिसु वि जम्मदि, जीवो गेवेज्जपज्जतं ॥७॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ जीवो ] संसारी जीव [णेरइयादिगदीणं] नरकादि चार गतियोंकी [ अवरद्विदो] जघन्य स्थितिसे लगाकर [ वरद्विदी जाव ] उत्कृष्ट स्थिति पर्यंत ( तक ) [ सव्वढिदिसु ] सब अवस्थाओंमें [गेवेज्जपज्जतं ] ग्रं वेयक पर्यन्त [ जम्मदि ] जन्म पाता है । भावार्थः-नरकगतिकी जघन्य स्थिति दस हजार वर्षकी है इसके जितने समय हैं उतनी बार तो जघन्यस्थितिकी आयु लेकर जन्म पावे, बादमें एक समय अधिक आयु लेकर जन्म पावे। बादमें दो समय अधिक आयु लेकर जन्म पावे । ऐसे ही अनुक्रमसे तेतीस सागर पर्यन्त आयु पूर्ण करे, बीचबीचमें घट बढ़कर आयु लेकर जन्म पावे वह गिनतीमें नहीं है। इस तरह तिर्यंच गतिकी जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त, उसके जितने समय हैं उतनी बार जघन्य आयुका धारक होवे बादमें एक समय अधिक क्रमसे तीन पल्य पूर्ण करे, बीचमें घट बढ़कर आयु लेकर जन्म पावे वह गिनतीमें नहीं हैं। इसी तरह मनुष्यको जघन्यसे लगाकर उत्कृष्ट तीन पल्य पूर्ण करे । इसी तरह देवगतिकी जघन्य दस हजार वर्षसे लगाकर ग्रं वेयकके उत्कृष्ट इकतीस सागर तक समय-अधिक-क्रमसे पूर्ण करे । ग्रं वेयकके आगे उत्पन्न होनेवाला एक दो भव लेकर मोक्ष ही जावे इसलिये उसको गिनती में नहीं लाये । इस तरह इस भवपरावर्तनका अनन्त काल है। अब भावपरिवर्तनको कहते हैंपरिणमदि सण्णिजीवो, विविहकसाएहि ट्ठिदिणिमित्तेहिं। अणुभागणिमित्तेहिं य, वहतो भावसंसारे ॥७१॥ अन्वयार्थ:-[ भावसंसारे वट्टन्तो] भावसंसारमें वर्तता हुआ जीव [ द्विदिणिमित्तेहि ] अनेक प्रकार कर्मकी स्थितिबन्धको कारण [य अणुभागणिमित्तेहिं ] और अनुभागबन्धको कारण [विविहकसाएहिं] अनेक प्रकारके कषायोंसे [ सण्णिजीवो ] सैनी पंचेन्द्रिय जीव [ परिणमदि ] परिणमता है। भावार्थ:-कर्मकी एक स्थितिबन्धको कारण कषायोंके स्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं, उसमें एक स्थितिबन्धस्थानमें अनुभागबन्धको कारण कषायोंके स्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं । जो योग्य स्थान हैं वे जगत्श्रेणीके असंख्यातवें भाग हैं । यह जीव उनका परिवर्तन करता है। सो किसतरह ? कोई सैनी मिथ्यादृष्टि : Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार-अनुप्रेक्षा ३३ पर्याप्तकजीव स्वयोग्य सर्व जघन्य ज्ञानावरण प्रकृतिकी स्थिति अन्तःकोटाकोटीसागर प्रमाण बांधता है । उसके कषायोंके स्थान असंख्यात लोकमात्र हैं। उसमें सब जघन्यस्थान एकरूप परिणमते हैं, उसमें उस एक स्थान में अनुभागबन्धके कारण स्थान ऐसे असंख्यातलोकप्रमाण हैं। उनमें से एक सर्वजघन्यरूप परिणमता है, वहां उस योग्य सर्वजघन्य ही योगस्थानरूप परिणमते हैं, तब जगत्श्रेणीके असंख्यातवें भाग योगस्थान अनुक्रमसे पूर्ण करता है। बीचमें अन्य योगस्थानरूप परिणमता है वह गिनती में नहीं है । इस तरह योगस्थान पूर्ण होने पर अनुभागका स्थान दूसरारूप परिणमता है, वहां भी वैसे ही योगस्थान सब पूर्ण करता है। तीसरा अनुभागस्थान होता है वहां भी उतने ही योगस्थान भोगे। इस तरह असंख्यातलोकप्रमाण अनुभागस्थान अनुक्रमसे पूर्ण करे तब दूसरा कषायस्थान लेना चाहिए । वहां भी वैसे ही क्रमसे असंख्यातलोकप्रमाण अनुभागस्थान तथा जगत्श्रेणीके असंख्यातवें भाग योगस्थान पूर्वोक्त क्रमसे भोगे तब तीसरा कषायस्थान लेना चाहिये । इस तरहसे ही चतुर्थादि असंख्यात लोकप्रमाण कषायस्थान पूर्वोक्त क्रमसे पूर्ण करे, तब एकसमय अधिक जघन्यस्थिति स्थान लेना चाहिये, उसमें भी कषायस्थान अनुभागस्थान योगस्थान पूर्वोक्त क्रमसे भोगे। इस तरह दो समय अधिक जघन्यस्थितिसे लगाकर तीस कोड़ाकोड़ीसागर पर्यंत ज्ञानावरणकर्मको स्थिति पूर्ण करे । इस तरहसे ही सब मूलकर्मप्रकृति तथा उत्तरकर्मप्रकृतियोंका क्रम जानना चाहिये। इस तरह परिणमन करते हुए अनन्तकाल व्यतीत हो जाता है, उस सबको इकट्ठा करने पर एक भावपरिवर्तन होता है । इस तरहके अनन्त परावर्तन यह जीव* भोगता आया है। अब पंचपरावर्तनके कथनका संकोच करते हैं एवं अणाइकाले, पंचपयारे भमेइ संसारे। णाणादुक्खणिहाणो, जीवो मिच्छत्त-दोसेण ।।७२।। अन्वयार्थः-[ एवं ] इस तरह [ णाणादुक्खणिहाणो] अनेक प्रकारके दुःखोंके ॐ [ अपनी मूर्खताको ] | Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा निधान [ पंचपयारे ] पांच प्रकार [ संसारे ] संसार में [ जीवो ] यह जोव [ अणाइकालं ] अनादिकाल से [ मिच्छत्तदोसेण ] मिथ्यात्वके दोषसे [ भमेइ ] भ्रमण करता है । ३४ अब संसारसे छूटने का उपदेश करते हैं— इय संसारं जाणिय मोहं सव्वायरेण चइऊण | तं झायह स-सरूवं, संसरणं जेण गासेइ ॥७३॥ अन्वयार्थः- [ इय संसारं जाणिय ] इस तरह ( पहिले कहे अनुसार ) संसारको जानकर [ सव्वायरेण ] सब तरह के प्रयत्नपूर्वक [ मोहं ] मोहको [ चइऊण ] छोड़कर ( हे भव्यों ! ) [ तं ससरूवं झायह ] उस आत्मस्वरूपका ध्यान करो [ जेण ] जिससे [ संसरणं ] संसार परिभ्रमण [ णासेह ] नष्ट हो जावे । दोहा पंचपरावर्त्तनमयी, दुःखरूप संसार । मिथ्याकर्म उदै वशे, भरमै जीव अपार || ३ || इति संसारानुप्रेक्षा समाप्ता ||३|| एकत्वानुप्रेक्षा इक्को जीवो जायदि, इक्को गन्भम्मि गिहृदे देहं । इक्को बाल जुवाणो, इको वुट्ठो जरागहिओ ॥७४॥ अन्वयार्थः - [ जीवो ] जीव [ इको ] एक ही [ जायदि ] उत्पन्न होता है [ इको ] वह ही एक [ गब्भम्मि ] गर्भ में [ देहं ] देहको [ गिदे ] ग्रहण करता Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्वानुप्रेक्षा है [ इको बाल जुवाणो ] वह ही एक बालक होता है, वह ही एक जवान होता है [ इको जरागहिओ वुढ्ढो ] वह ही एक जरासे-बुढ़ापेसे गृहीत वृद्ध होता है । भावार्थ:-* एक ही जीव इस नाना पर्यायोंको धारण करता है। इको रोई सोई, इको तप्पेइ माणसे दुक्खे । इक्को मरदि वरात्रो, णरयदुहं सहदि इक्को वि ॥७॥ अन्वयार्थः- [इको रोई सोई ] एक ही जीव रोगी होता है, वह ही एक जीव शोक सहित होता है [ इको ] वह ही एक जीव [ माणसे दुक्खे ] मानसिक दुःखसे [ तप्पेइ ] तप्तायमान होता है [ इक्को मरदि ] वह ही एक जीव मरता है [ इको वि ] वह ही एक जीव [ वराओ णरयदुहं सहदि ] दीन होकर नरकके दुःख सहता है। भावार्थः-+जीव अकेला ही अनेक अनेक ( खोटी ) अवस्थाओंको धारण करता है। इक्को संचदि पुण्णं, इक्को भुञ्ज दि विविहसुरसोक्खं । इक्को खवेदि कम्म, इक्को वि य पावए मोक्खं ॥७६॥ अन्वयार्थः- [इको ] एक ही जीव [ पुण्णं ] पुण्यको [ संचदि ] संचित करता है [ इको] वह ही एक जीव [विविहसुरसोक्खं ] नाना प्रकारके देवगतिके सुख [ भुजेदि ] भोगता है [ इक्को ] वह ही एक जीव [ कम्मं ] कर्मको [खवेदि ] नष्ट करता है [इक्को वि य] वह ही एक जीव [ मोक्खं ] मोक्षको [ पावए ] पाता है। भावार्थः-वह ही जीव पुण्य करके स्वर्ग जाता है, वह ही जीव कर्मोका नाश करके मोक्ष जाता है । __ सुयणो पिच्छंतो वि हु, ण दुक्खलेसंपि सक्कदे गहिदु। एवं जाणंतो वि हु, तो वि ममत्तं ण छंडेइ ॥७७॥ * [निज एकत्व निश्चयस्वपदको भूलकर ही ] । + [ निर्मल विज्ञानघनस्वरूपको भूलकर ] । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ :- [ सुयणो ] स्वजन ( कुटुम्बी ) भी ( जब यह जीव दुःख में फंस जाता है तब उसको ) [ पिच्छंतो वि हु] देखता हुआ भी [ दुक्खले संपि] दुःखका लेश भी [गहिंदु ] ग्रहण करनेको [ ण सक्कदे] समर्थ नहीं होता है [ एवं जाणंतो वि हु ] इस तरह प्रत्यक्षरूपसे जानता हुआ भी [ ममचं ण छंडेई ] कुटुम्बसे ममत्व नहीं छोड़ता है । भावार्थ: :- अपना दुःख आप ही भोगता है, कोई बटा नहीं सकता है, यह जीव ऐसा अज्ञानी है कि दुःख सहता हुआ भी परके ममत्वको नहीं छोड़ता है । अब कहते हैं कि इस जीवके निश्चयसे धर्म ही स्वजन है जीवस्स च्चियादो, धम्मो दहलक्खणी हवे सुयणो । सोइ देवलोए, सो चिय दुक्खक्खयं कुणइ ||७८ || ३६ अन्वयार्थ : - [ जीवस ] इस जीवके [ यणो ] अपना हितू [ णिच्चयादो ] निश्चयसे [ दहलक्खणो ] एक उत्तम क्षमादि दशलक्षण [ धम्मो ] धर्म ही [हवे ] है [ सो ] क्योंकि वह धर्म हो [ देवलोए ] देवलोक ( स्वर्ग ) में [ ई ] ले जाता है [ सो चिय ] वह धर्म ही [ दुक्खक्खयं कुणइ ] दुःखों का क्षय (मोक्ष) करता है । भावार्थ:- धर्म के सिवाय और कोई भी हितू नहीं है । अब कहते हैं कि इस तरहसे अकेले जीवको शरीर से भिन्न जानना चाहिये -- सव्वायरेण जाणह, इक्कं जीवं सरीरदो भिरणं । जहि दु मुणिदे जीवो, होदि असेसं खणे हेयं ॥ ७६ ॥ अन्वयार्थः - हे भव्यजीवों ! [ इक्कं जीवं सरीरदो भिण्णं ] अकेले जीवको शरीर से भिन्न ( अलग ) [ सव्वायरेण जाणह ] सब प्रकारके प्रयत्न करके जानो [ जहि दु जीवो मुणिदे] जिस जीवके जान लेने पर [ असेसं खणे हेयं होदि ] अवशेष ( बाकी बचे ) सब परद्रव्य क्षणमात्रमें त्यागने योग्य होते हैं । भावार्थ:- जब जीव अपने + स्वरूपको जानता है तब ही परद्रव्य हेय ही भासते हैं, इसलिये अपने स्वरूपहीके जाननेका महान् उपदेश है । * [ स्व को समझता नहीं और ] + [ नित्यज्ञायक ] | Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यत्वानुप्रेक्षा * दोहा * एक जीव परजाय बहु, धारे स्वपर निदान । पर तजि आपा जानिके, करौ भव्य कल्यान || ४ || -:: इति एकत्वानुप्रेक्षा ÷ समाप्ता :: V अन्यत्वानुप्रेक्षा अरणं देहं गिहृदि, जाणी अण्णा य होदि कम्मादो । अणं होदि कलत्तं, अण्णो वि य जायदे पुत्तो ॥ ८० ॥ अन्वयार्थः- -यह जीव संसार में [ देहं गिहृदि ] देहको ग्रहण करता है [ अण्णं ] सो अपने से अन्य ( भिन्न ) है [ य ] और [ जणणी अण्णा ] माता भी अन्य है [ कलत्तं अण्णं होदि ] स्त्री भी अन्य होती है [ पुतो वि य अण्णो जायदे ] पुत्र भी अन्य ही उत्पन्न होता है [ कम्मादो होदि ] ये सब कर्म संयोग से होते हैं । ३७ ÷ [ सभी तीर्थंकर अपने दीक्षा कल्याणकके समय यह पावन - बारह भावना भाते हैं वह कैसी होगी ? श्री समयसारजी शास्त्रमें गा० ३ द्वारा “एकत्व निश्चय गत समय, सर्वत्र सुन्दर लोकमें" पश्चात् गाथा ४ में उस एकत्वकी असुलभता दिखाकर गाथा ५ में कहते हैं कि उससे ही जीवोंको यह भिन्न आत्माका एकत्व हम दिखाते हैं । उनमें आगमका सेवन, युक्तिका अवलम्बन, परापरगुरुका उपदेश और स्वसंवेदन - यह चार प्रमाणके द्वारा उत्पन्न अपने ज्ञानका विभवसे--- स्वसे एकत्व और परसे विभक्त शुद्ध आत्माका स्वरूप दिखाते हैं । ( वहां से मनन कर लेना) बारह सम्यक्भावना द्वारा अपनी निश्चय आत्मामें ही एकत्व - निश्चयकी भावना - एकाग्रता - कर्तव्य है । (जैसा आलम्बन वैसा अनुभव ) ज्ञानी आत्मकल्याणेच्छुकको तो बाह्यमें रस नहीं है, यदि बाह्यमें भूमिकानुसार उपयोग लग जाय तो भारी लज्जा-शर्म होती है । अतः अन्तरङ्गमें भी कोई विकल्प - गुण भेदके व्यवहार या निश्चयनय के विकल्प आदि सभी - किसी भी विकल्प जालमें रहना नहीं चाहते, निरन्तर स्वाश्रय के बल द्वारा निःशंक दृढ़ता के अस्तित्वमें सभी विषमताओंका नकार-निषेध ही है और अपना नित्य एकत्व भूतार्थ स्वभाव सन्मुख रहना ही उत्तम समझते हैं- यदि यह बात है तो अन्यको गौण - सहचर हेतु व्यवहार - साधन आदि कहा जाता है । ] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा एवं वाहिरदव्वं, जाणदि रूवादु अप्पणो भिगणं । जाणंतो वि हु जीवो, तत्थेव य रच्चदे मूढो ॥८१॥ अन्वयार्थः-[ एवं ] इस तरह पहिले कहे अनुसार [ वाहिरदव्वं ] सब बाह्य वस्तुओंको [ अप्पणो ] अपने ( आत्म ) [रूवादु ] स्वरूपसे [भिण्णं ] भिन्न [ जाणदि ] जानता है [ जाणतो वि हु] तो भी प्रत्यक्षरूपसे जानता हुआ भी [ मूढो ] यह मूढ ( मोही) [जीवो ] जीव [ तत्थेव य रचदे ] उन परद्रव्यों में ही राग करता है । सो यह बड़ी मूर्खता है। जो जाणिऊण देहं, जीवसरूवादु तच्चदो भिरणं । अप्पाणं पि य सेवदि, कजकरं तस्स अण्णत्त ॥८२॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो जीव [ जीवसरूवादु ] अपने स्वरूपसे [ देहं ] देहको [तच्चदो भिण्णं ] परमार्थसे भिन्न [जाणिऊण ] जानकर [अप्पाणं पि य सेवदि ] आत्मस्वरूपको सेता है ( ध्यान करता है ) [ तस्स अण्णत्तं कजकरं ] उसके अन्यत्वभावना कार्यकारिणी है। भावार्थ:-जो देहादिक परद्रव्योंको भिन्न जानकर अपने नित्यज्ञानानन्द स्वरूपका सेवन करता है उसके अन्यत्वभावना कार्यकारिणी है । * दोहा * निज आतमतें भिन्न पर, जानै जे नर दक्ष । निजमें रमैं वमैं अपर, ते शिव लखें प्रत्यक्ष ।।५।। इति अन्यत्वानुप्रेक्षा समाप्ता ॥५॥ के रूवादु इत्यादि पाठः। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुचित्वानुप्रेक्षा अशुचित्वानुप्रेक्षा सयलकुहियाण पिंडं, किमिकुलकलियं अउव्वदुग्गंधं । मलमुत्ताणं य गेहं, देहं जाणेहि असुइमयं ॥३॥ अन्वयार्थ:-हे भव्य ! तू [ देहं ] इस देहको [ असुइमयं] अपवित्रमयी [ जाणेहि ] जान । कैसा है देह ? [ सयलकुहियाण पिंडं ] १ सकल ( सब ) कुत्सित (निंदनीय) पदार्थोंका पिंड (समूह) है [ किमिकुलकलियं] २ कृमि ( पेटमें रहनेवाले लट आदि ) तथा अनेकप्रकारके निगोदादिक जीवोंसे भरा है [ अउव्वदुग्गंधं ] ३ अत्यन्त दुर्गन्धमय है [ मलमुत्ताणं य गेहं ] ४ जो मलमूत्रका घर है। भावार्थः-इस शरीरको सब अपवित्र वस्तुओंका समूह जानना चाहिये । * अब कहते हैं कि यह देह अन्य सुगन्धित वस्तुओंको भी अपने संयोगसे दुर्गधित करता है सुट्ठ पवित्त दवं, सरस-सुगंधं मणोहरं जं पि । देह-णिहित जाय दि, घिणावणं सुट्ठु-दुग्गंधं ॥८४॥ अन्वयार्थः-[ देहणिहित्तं ] इस शरीरमें लगाये गये [ सुट्ठपवित्वं ] अत्यन्त पवित्र [ सरससुगंधं ] सरस और सुगन्धित [ मणोहरं जं पि ] मनको हरनेवाले [ दव्वं ] द्रव्य भी [ घिणावणं ] घिनावने [ सुट्ठदुग्गंधं ] तथा अत्यन्त दुर्गन्धित [ जायदि ] हो जाते हैं। भावार्थ:-इस शरीरके चन्दन, कपूर आदि ( सुगन्धित पदार्थ ) लगानेसे दुर्गंधित हो जाते हैं । रससहित उत्तम मिष्ठान्नादि खिलानेसे मलादिकरूप परिणम जाते हैं । अन्य भी वस्तुएं इस शरोरके स्पर्शसे अस्पृश्य हो जाती हैं । * [ मिथ्यात्वादि तथा शुभाशुभ भाव भी अचेतन-अनात्मा होनेसे अपवित्र और चेतनस्वरूपसे सदा भिन्न हो जानो। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० कार्तिकेयानुप्रेक्षा और भी इस शरीरको अशुचि दिखाते हैं मणुयाणं असुइमयं, विहिणा देहं विणिम्मियं जाण । तेसिं विरमण- कज्जे, ते पुण तत्थेव अगुरता ॥८५॥ [ अन्वयार्थ :- हे भव्य ! [ मणुयाणं यह मनुष्यों का [ देहं ] देह कर्मके द्वारा [ असुइमयं ] अशुचि [ विणिम्मियं जाण ] रचा गया जान । उत्प्रेक्षा ( सम्भावना ) करते हैं कि [ तेसिं विरमणकज्जे ] यह देह इन वैराग्य उत्पन्न होनेके लिये ही ऐसा बनाया है [ ते पुण तत्थेव अणुरचा मनुष्य उसमें भी अनुरागी होते हैं सो यह अज्ञान है । ] और भी इसी अर्थको दृढ़ करते हैं— एवं विहं पि देहं पिच्छंता वि य कुणंति अणुरायं । सेवंति आयरेण य, अलद्धपुत्रं त्ति मराणंता ॥ ८६ ॥ - अन्वयार्थः [ एवं विहं पि देहं ] इस तरह पहिले कहे अनुसार अशुचि शरीरको [ पिच्छंता वि य ] प्रत्यक्ष देखता हुआ भी यह मनुष्य उसमें [ अणुरायं ] अनुराग [ कुणंति ] करता है [ अलद्धपुव्वं त्ति मण्णंता ] जैसे ऐसा शरीर कभी पहिले न पाया हो ऐसा मानता हुआ [ आयरेण य सेवंति ] आदरपूर्वक इसकी सेवा करता है सो यह बड़ा अज्ञान है । विहिणा ] यहाँ ऐसी मनुष्यों को परन्तु ये अब कहते हैं कि इस शरीर से विरक्त होनेवाले के अशुचिभावना सफल है जो परदेहविरत्तो, णिय देहे ग य करेदि अणुरायं । अप्पसरूव सुरतो, असुइत्ते भावणा तस्स ||७|| अन्वयार्थः - [ जो ] जो भव्य [ परदेहविरतो ] परदेह ( स्त्री आदिककी देह) से विरक्त होकर [ णियदेहे ] अपने शरीर में [ अणुरायं ] अनुराग [ ण य करेदि ] नहीं करता है [ अप्पसरूव सरतो ] अपने आत्मस्वरूपसे अनुरक्त रहता है [ तस्स ] उसके [ असुइत्ते भावणा ] अशुचि भावना सफल है । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्रवानुप्रेक्षा भावार्थ:: - ( देहादिके) केवल विचारहीसे जिसको वैराग्य प्रगट होता हो तो उसके यह भावना सत्यार्थ कहलाती है । * दोहा * स्वपर देहकू अशुचि लखि, तजै तास अनुराग । ताकै सांची भावना, सो कहिये बड़भाग || ६ ॥ -:: इति अशुचित्वानुप्रेक्षा समाप्ता :: आस्रवानुप्रेक्षा मणवयणकायजोया, जीवपयेसाणफंद विसेसा । जुत्ता, विजुदा वि य आसवा होंति ॥८८॥ मोहोद अन्वयार्थः–[ मणवयणकायजोया ] मन वचन काय योग हैं [ आसवा होंति ] वे ही आस्रव हैं । कैसे हैं ? [ जीवपयेसाणफंदणविसेसा ] १ जीवके प्रदेशोंका स्पंदन ( चलायमान होना, कांपना ) विशेष है वह ही योग है [ मोहोदएण जुत्ता विदा य] २ मोहके उदय ( मिथ्यात्व कषाय ) सहित हैं ओर ३ मोहके उदय रहित भी हैं । ÷ ४१ भावार्थ:- - मन वचन कायका निमित्त पाकर जीवके प्रदेशोंका चलाचल होना सो योग है उसीको आस्रव कहते हैं । वे गुणस्थानकी परिपाटीमें सूक्ष्मसांपराय दसवें गुणस्थान तक तो मोहके उदयरूप यथासंभव मिथ्यात्व कषाय सहित होते हैं उसको सांपरायिक आस्रव कहते हैं और ऊपर तेरहवें गुणस्थान तक मोह उदयसे रहित होते * [ भेदविज्ञान सहित अक्षय अविनाशी निजात्माके आश्रय करने द्वारा ] । [ प्रथम तो मिथ्यात्व ही आस्रव है ] । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा हैं उसको ईयपथ आस्रव कहते हैं । जो पुद्गल वर्गणा कर्मरूप परिणमती है उसको द्रव्यास्रव कहते हैं और जीवके प्रदेश चंचल होते हैं उसको भावास्रव कहते हैं । अब मोहके उदयसहित आस्रव हैं ऐसा विशेषरूपसे कहते हैं -- मोहविवागवसादो, जे परिणामा हवंति जीवस्स । सवा मुणिज्जसु मिच्छत्ताई अय-विहा ॥ ८६ ॥ अन्वयार्थः - [ मोहविवागवसादो ] मोहके उदयसे [ जे परिणामा ] जो परिणाम [ जीवस्स ] इस जीवके [ हवंति ] होते हैं [ ते आसवा ] वे ही आस्रव हैं [ मुणिञ्जसु ] हे भव्य ! तू प्रत्यक्षरूपसे ऐसे जान । [ मिच्छताई अणेयविहा ] वे परिणाम मिथ्यात्वको आदि लेकर अनेक प्रकारके हैं । भावार्थ:- कर्मबन्धके कारण आस्रव हैं । वे मिथ्यात्व अविरत, प्रमाद, कषाय और योगके भेदसे पांच प्रकारके हैं । उनमें स्थिति अनुभागरूप बन्धके कारण मिथ्यात्वादिक चार ही हैं सो ये मोहके उदयसे होते हैं और जो योग हैं वे समयमात्र बन्धको करते हैं, कुछ भी स्थिति अनुभागको नहीं करते हैं इसलिये बन्धके कारण में प्रधान नहीं हैं । अब पुण्यपापके भेदसे आसवको दो प्रकारका कहते हैं- कम्मं पुराणं पावं, हेउ तेसिं च होंति सच्छिदरा । मंदकसाया सच्छा, तिव्वकसाया अच्छा हु ||०|| अन्वयार्थः - [ कम्मं पुण्णं पावं ] कर्म पुण्य, पापके भेदसे दो प्रकारका है [ च तेर्सि हेउ सच्छिदरा होंति ] और उनके कारण भी सत् ( प्रशस्त ) इतर ( अप्रशस्त ) दो ही होते हैं [ मंदकसाया सच्छा ] उनमें मन्दकषाय परिणाम तो प्रशस्त ( शुभ ) हैं [ तिव्वकसाया असच्छाहु ] और तीव्र कषाय परिणाम अप्रशस्त (अशुभ) हैं । भावार्थ:- सातावेदनीय, शुभ आयु, उच्च गौत्र और शुभ नाम ये चार प्रकृतियें तो पुण्यरूप हैं बाकी चार घातियाकर्म असातावेदनीय, नरकायु, नीचगोत्र और Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्रवानुप्रेक्षा अशुभनाम ये चार प्रकृतियें पापरूप हैं। उनके कारण आस्रव भी दो प्रकारके हैं । मंदकषायरूप परिणाम तो पुण्यास्रव हैं और तीव्र कषायरूप परिणाम पापास्रव हैं । अब मन्द तीवकषायको प्रगट दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं-- सव्वत्थ वि पियवयणं, दुव्वयणे दुजणे वि खमकरणं । सव्वेसिं गुणगहणं, मंदकसायाण दिट्ठता ॥१॥ अन्वयार्थः-[ सव्वत्थ वि पियवयणं ] १ सब जगह शत्रु तथा मित्र आदिमें तो प्रिय हितरूप वचन [ दुव्बयणे दुजणे वि खमकरणं ] २ दुर्वचन सुनकर दुर्जन में भी क्षमा करना [ सव्वेसिं गुणगहणं ] ३ सब जीवोंके गुण ही ग्रहण करना [ मंदकसायाण दिट्ठता ] ये मन्दकषायके दृष्टान्त हैं । अप्पपसंसणकरणं पुज्जेसु वि दोसगहणसीलतं । वेरधरणं च सुइरं, तिव्वकसायाण लिंगाणि ॥१२॥ अन्वयार्थः-[ अप्पपसंसण करणं ] १ अपनी प्रशंसा करना [ पुज्जेसु वि दोसगहणसील ] २ पूज्य पुरुषों में भी दोष ग्रहण करनेका स्वभाव [च सुइरं वेरधरणं ] ३ और बहुत समय तक बैर धारण करना [ तिव्वकसायाण लिंगाणि ] ये तीव्रकषायके चिह्न हैं। अब कहते हैं कि ऐसे जीवके आस्रवका चितवन निष्फल है-- एवं जाणंतो वि हु, परिचयणीये वि जो ण परिहरइ । तस्सासवाणुवेक्खा, सव्वा वि णिरत्थया होदि ॥१३॥ अन्वयार्थः-[एवं जाणतो वि हु] इस प्रकारसे प्रत्यक्षरूपसे जानता हुआ भी [ परिचयणीये वि जो ण परिहरइ ] जो त्यागने योग्य परिणामोंको नही छोड़ता है [ तस्स ] उसके [ सव्वा वि ] सब ही [ आसवाणुवेक्खा ] आस्रवका चितवन [णिरत्थया होदि ] निरर्थक है । कार्यकारी नहीं होता। भावार्थ:-आस्रवानुप्रेक्षाको चिन्तवन करके पहिले तो ( १ ) *तोवकषाय छोड़ना चाहिये फिर ( २ ) - शुद्ध आत्मस्वरूपका ध्यान करना चाहिये, ( ३ ) सब कषाय छोड़ने चाहिये तब तो यह चितवन सफल है केवल वार्ता करना मात्र ही सफल नहीं है। * [कालिक अकषाय ज्ञायकके आश्रय द्वारा ही] ।: [स्वरूपके उग्र आलम्बन द्वारा] । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा एदे मोहय-भावा, जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो । हेयं ति मण्णमाणो, आसव अणुपेहणं तस्स ।।६४॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो पुरुष [ उवसमे लीणो ] उपशम परिणामोंमें ( वीतराग भावोंमें ) लीन होकर [एदे] पे पहिले कहे अनुसार [ मोहयभावा ] मोहसे उत्पन्न हुए मिथ्यात्वादिक परिणामोंको [ हेयं ति मण्णमाणो ] हेय ( त्यागने योग्य ) मानता हुआ [ परिवज्जेइ ] छोड़ता है [ तस्स ] उसके [ आसव अणुपेहणं ] आस्रवानुप्रेक्षा होती है। * दोहा के आस्रव पंचप्रकारकू, चिंत4 तजै विकार । ते पार्दै निजरूपकू', यहै भावना सार ॥७॥ -:: इति आस्रवानुप्रेक्षा समाप्ता ॥७॥:: संवरानुप्रेक्षा सम्मत्तं देसवयं, महव्वयं तह जो कसायाणां । एदे संवरणामा, जोगाभावो तहा चेव ॥६५॥ अन्वयार्थः-[ सम्मत् ] सम्यक्त्व [ देशवयं ] देशवत [ महव्वयं ] महाव्रत [ तह ] तथा [ कसायाणं ] कषायोंका [जओ ] जीतना [जोगाभावो तहा चेव ] तथा योगोंका अभाव [ एदे संवरणामा ] ये संवरके नाम हैं । ___ भावार्थः-पहिले मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, और योगरूप पांच प्रकारका आस्रव कहा था, उनका * अनुक्रमसे रोकना ही संवर है । सो कैसे ? मिथ्यात्वका अभाव तो चतुर्थगुणस्थानमें हुआ वहां अविरतका संवर हुआ । अविरतका अभाव एक देश तो देशविरतमें हुआ और सर्वदेश प्रमत्तगुणस्थानमें हुआ वहां अविरतका संवर हुआ । अप्रमत्त गुणस्थान में प्रमादका अभाव हुआ वहां के [ स्वबल द्वारा ] । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवरानुप्रेक्षा उसका संवर हुआ । अयोगिजिनमें योगोंका अभाव हुआ, वहां उनका संवर हुआ । इस तरह संवरका क्रम है । ra इसीको विशेषरूपसे कहते हैं गुत्ती समिदी धम्मो, अणुक्खा तह परीसहजओ वि । उक्किट्ठ चारितं, चारितं संवरहेदू विसेसेण 112811 अन्वयार्थः - [ गुची ] मन वचन कायकी गुप्ति [ समिदी ] ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापना इस तरह पांच समिति [ धम्मो ] उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्म [ अणुवेक्खा ] अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षा [ तह परीसहजओ वि ] तथा क्षुधा आदि बाईस परीषहका जीतना [ उक्किङ्कं चारितं ] सामायिक आदि उत्कृष्ट पाँच प्रकारका चारित्र ये [ विसेसेण ] विशेषरूपसे [ संवर हेदू ] संवरके कारण हैं । अब इनको स्पष्टरूप से कहते हैं गुत्ती जोगणिरोहो, समिदी य पमाद-वजणं चेत्र । धम्मो दयापहाणो, सुतत्त- चिंता अप्पेहा ॥६७॥ ४५ अन्वयार्थः - [ जोगणिरोहो ] योगोंका निरोध [ गुती ] गुप्ति है [ समिदी य पमादवजणं चैव ] प्रमादका वर्जन, यत्नपूर्वक प्रवृत्ति समिति है [ दयापहाणो ] दयाप्रधान [धम्मो] धर्म है [ सुतच चिंता अणुप्पेहा ] जीवादिक तत्त्व तथा निजस्वरूपका चितवन अनुप्रेक्षा है । सोवि परीसह विज, छुहादि- पीडाण अइउाणं । सवणाणं च मुणीणं, उवसमभावेण जं सहणं ॥ ६८ ॥ अन्वयार्थः – [ जं ] जो [ अइरउद्दाणं ] अति रौद्र ( भयानक ) [ छुहादिपीडाण ] क्षुधा आदि पीड़ाओंको [ उवसमभावेण सहणं ] उपशमभावों ( वीतरागभावों) से सहना [ सो ] सो [ सवणाणं च मुणीणं ] ज्ञानी महामुनियोंके [ परीसह विजओ ] परीषहोंका जीतना कहलाता है । अप्पसरूत्रं वत्थु ं, चत्तं रायादि एहिं दोसेहिं | सज्झाणम्मि णिलीणं, तं जाणसु उत्तमं चरणं ॥ ६६ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ:-हे भव्य ! जो [ अप्पसरूवं वत्थु ] आत्मस्वरूप वस्तु है उसका [चत्तं रायादिएहिं दोसेहिं ] रागादि दोषोंसे रहित [सज्झाणम्मि णिलीणं ] धर्म शुक्ल ध्यानमें लीन होना है [तं ] उसको [ उत्तम चरणं] तू उत्तम चारित्र [ जाणसु] जान । अब कहते हैं कि जो ऐसे संवरका आचरण नहीं करता है वह संसार में भटकता है एदे संवरहेदु, वियारमाणो वि जो ण आयरइ । सो भमइ चिरं कालं, संसारे दुक्खसंतत्तो ॥१०॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो पुरुष [ एदे ] इन ( पहिले कहे अनुसार ) [ संवरहेk ] संवरके कारणोंको [ वियारमाणो वि ] विचारता हुआ भी [ण आयरइ ] आचरण नहीं करता है [ सो ] वह [ दुक्खसंततो ] दुःखोंसे तप्तायमान होकर [चि कालं] बहुत समय तक [ संसारे ] संसार में [ भमइ ] भ्रमण करता है । अब कहते हैं कि संवर कैसे पुरुषके होता है-- जो पुण विसय विरत्तो, अप्पाणं सव्वदा वि संवरइ । मणहरविसएहितो तस्स फुडं संवरो होदि ॥१०१॥ अन्वयार्थः-[ जो] जो मुनि [ विसयविरत्तो ] इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होता हुआ [ मणहरविसएहितो ] मनको प्रिय लगनेवाले विषयोंसे [ अप्पाणं ] आत्माको [ सबदा] सदाकाल ( हमेशा ) [ संवरइ ] संवररूप करता है [ तस्स फुडं संवरो होदि ] उसके प्रगटरूपसे संवर होता है । भावार्थ:-* इन्द्रिय तथा मनको विषयोंसे रोके और अपने शुद्ध स्वरूप में रमण करावे उसके सवर होता है। * [ स्वाश्रय के बल द्वारा सम्यग्दर्शनादिकी प्राप्ति ही संवर है । ] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जरानुप्रेक्षा * दोहा गुप्ति समिति वृष भावना, जयन परीसहकार | चारित धारै संग तजि, सो मुनि संवरधार ||८|| इति संवरानुप्रेक्षा समाप्ता ॥८॥ 濃 निर्जरानुप्रेक्षा वारसविहेण तवसा, गियाणरहियस्स णिज्जरा होदि । वेगभावणादो, गिरहंकारस्स गाणिस्स ॥ १०२ ॥ अन्वयार्थः - [ नियाणरहियस्स ] निदान ( इन्द्रियविषयोंकी इच्छा ) रहित [ णिरहंकारस्स ] अहंकार ( अभिमान ) रहित [ णाणिस्स ] ज्ञानीके [वारसविण तवसा ] बारह प्रकारके तपसे तथा [वेरग्गभावणादो] वैराग्यभावना ( संसार देहभोग से विरक्त परिणाम ) से [ णिञ्जरा होदि ] निर्जरा होती है । भावार्थ : - जो ज्ञानसहित तप करता है उसके तपसे निर्जरा होती है । अज्ञानी विपर्यय तप करता है उसमें हिंसादिक दोष होते हैं, ऐसे तपसे तो उलटे कर्मका बन्ध ही होता है । तप करके मद करता है, दूसरेको न्यून ( हीन ) गिनता है, कोई पूजादिक ( सत्कार विशेष ) नहीं करता है तो उससे क्रोध करता है ऐसे तपसे बन्ध हो होता । गर्वरहित तपसे निर्जरा होती है । जो तप करके इस लोक या परलोक में ख्याति, लाभ, पूजा और इन्द्रियोंके विषयभोग चाहता है उसके बन्ध हो होता है । निदान रहित तपसे निर्जरा होती है । जो संसार देहभोग में आसक्त होकर तप करता है उसका आशय ( हृदय ) शुद्ध नहीं होता है उसके निर्जरा नहीं होती है । वैराग्यभावना से ही निर्जरा होती है ऐसा जानना चाहिये । अब निर्जराका स्वरूप कहते हैं सव्वेसि कम्माणं, सत्तिविवाओ हवेइ अणुभाश्रो । तद्ांतरं तु सडणं, कम्माणं णिज्जरा जाण ॥ १०३ ॥ ४७ -- Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ:-[ सव्वेसि कम्माणं ] समस्त ज्ञानावरणादिक अष्टकर्मोंकी [ सत्तिविवाओ ] शक्ति ( फल देनेकी सामर्थ्य ) विपाक ( पकना-उदय होना ) [ अणुभाओ] अनुभाग [ हवेइ ] कहलाता है [ तदणंतरं तु सडणं ] उदय आनेके अनन्तर ही झड़ जानेको [ कम्माणं णिजरा जाण ] कर्मोंकी निर्जरा जानना चाहिये । भावार्थः-* कर्मोके उदयमें आकर झड़ जानेको निर्जरा कहते हैं । अब कहते हैं कि यह निर्जरा दो प्रकारकी है सा पुण दुविहा णेया, सकालपत्ता तवेण कयमाणा । चादुगदीणं पढमा, वयजुत्ताणं हवे बिदिया ॥१०४॥ अन्वयार्थः-[ सा पुण दुविहा णेया ] वह पहिले कही हुई निर्जरा दो प्रकारको है [ सकालपचा ] एक तो स्वकाल प्राप्त [ तवेण कयमाणा ] दूसरी तप द्वारा की गई [ चादुगदीणं पढमा ] उनमें पहिली स्वकालप्राप्त निर्जरा तो चारों ही गतिके जीवोंके होती है [ वयजुत्ताणं हवे बिदिया] व्रतसहित जीवोंके दूसरी तप द्वारा की गई होती है । भावार्थ:-निर्जरा दो प्रकार है । कर्म अपनी स्थितिको पूर्ण कर उदय होकर रस देकर खिर जाते हैं सो सविपाक निर्जरा कहलाती है, यह निर्जरा तो सब ही जीवोंके होती है और तपके कारण कर्म स्थिति पूर्ण हुए बिना ही खिर जाते हैं वह अविपाक निर्जरा कहलाती है, यह व्रतधारियोंके होती है। अब निर्जरा किससे बढ़ती हुई होती है सो कहते हैंउवसमभावतवाणं, जह जह वड्ढी हवेइ साहूणं । तह तह णिज्जरवड्डी, विसेसदो धम्मसुक्कादो ॥१०५॥ अन्वयार्थः-[ साहूणं ] मुनियोंके [ जह जह ] जैसे जैसे [ उवसमभावतवाणं ] उपशमभाव तथा तपकी [ वड्ढी हवेइ ] बढ़वारी होती है [ तह तह गिजर वड्ढी ] वैसे वैसे ही निजराको बढ़वारी होती है [ धम्मसुक्कादो] धर्मध्यान और शुक्लध्यानसे [ विसेसदो ] विशेषतासे बढ़वारी होती है । [ निश्चयसे स्वाश्रयके द्वारा आंशिक शुद्धिकी वृद्धि और अशुद्धिकी हानिको निर्जरा कही है ] । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जरानुप्रेक्षा अब इस वृद्धिके स्थानोंको बतलाते हैं— मिच्छादो सद्दिट्ठी, असंखगुणकम्मणिज्जरा हादि । तत्तो अणुवयधारी, तत्तो य महव्वई गाणी ॥ १०६ ॥ पढमकसायचउराहं, विनोजओ तह य खवयसीलोय । दंसणमोहतियस्स य, तत्तो उवसमग चत्तारि ॥ १०७॥ खवगो य खीणमोहों, सजोइगाहो तहा अजोईया । एदे उवरिं उवरिं, असंखगुणकम्म णिज्जरया ॥ १०८ ॥ अन्वयार्थः --- [ मिच्छादो ] प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें करणत्रयवर्ती विशुद्ध परिणामयुक्त मिथ्यादृष्टिसे [सद्दिट्ठी ] असंयत सम्यग्दृष्टिके [असंखगुणकम्मणिञ्जरा होदि ] असंख्यातगुणी कर्मोंकी निर्जरा होती है [ तत्तो अणुवयधारी ] उससे देशव्रती श्रावकके असंख्यात गुणी होती है [ तत्तो य महव्वई णाणी ] उससे महाव्रती मुनियोंके असंख्यात गुणी होती है [ पढमकसायचउन्हं विजोजओ ] उससे अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन ( अप्रत्याख्यानादिकरूप परिणमाना ) करनेवालेके असंख्यात गुणी होती य दंसणमोहतियस्स य खवयसीलो ] उससे दर्शनमोहके क्षय करनेवालेके असंख्यात गुणी होती है [ तत्तो उवसमगचचारि ] उससे उपशम श्रेणीवाले तीन गुणस्थानों में असंख्यातगुणी होती है [ खवगो य ] उससे उपशान्तमोह ग्यारहवें गुणस्थानवाले के असंख्यातगुणी होती है, उससे क्षपकश्रेणीवाले तीन गुणस्थानों में असंख्यात गुणी होती है [ खीणमोहो ] उससे क्षीणमोह बारहवें गुणस्थानमें असंख्यातगुणी होती है [ सजोइणाहो ] उससे सयोगकेवलीके असंख्यात गुणी होती है [ तहा अजोईया ] उससे अयोगकेवलीके असंख्यात गुणी होती है [ एदे उवरिं उवरिं असंखगुणकम्मणिञ्जरया ] ये ऊपर ऊपर असंख्यात गुणाकार हैं इसलिये इनको गुणश्रेणी निर्जरा कहते हैं । अब गुणाकाररहित अधिकरूप निर्जरा जिससे होय सो कहते हैंजो विसहृदि दुव्वयणं, साहम्मिय-हीलणं च उवसगं । जिऊण कसायरिडं, तस्स हवे णिज्जरा विउला ॥ १०६ ॥ ૪૨ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः- [जो ] जो मुनि [ दुव्वयणं] दुर्वचन [ सहदि ] सहता है [ साहम्मियहीलणं ] साधर्मी जो अन्य मुनि आदिक उनसे किये गए अनादरको सहता है [च उवसग्गं ] तथा देवादिकोंसे किये गये उपसर्गको सहता है [कसायरिउ ] कषायरूप बैरीको [ जिणऊण ] जीतकर जो ऐसे करता है [ तस्स ] उसके [ विउला ] विपुल ( बड़ी ) [ णिजरा ] निर्जरा [ हवे ] होती है । भावार्थ:-कोई कुवचन कहे तो उससे कषाय न करे तथा अपनेको अतीचारादिक ( दोष ) लगे तब आचार्यादि कठोर वचन कह कर प्रायश्चित्त देवें, निरादर करें तो उसको कषायरहित होकर सहे तथा कोई उपसर्ग करे तो उससे कषाय न करे उसके बड़ी निर्जरा होती है । रिणमोयणं व मण्णइ, जो उवसग्गं परीसहं तिव्वं । पावफलं मे एदं, मया वि जं संचिदं पुव्वं ॥११०॥ अन्वयार्थः- [जो] जो मुनि [ उवसग्गं ] उपसर्गको तथा [ तिव्वं ] तीव्र [ परीसह ] परिषहको [ रिणमोयणं व मण्णइ ] ऋण ( कर्ज ) की तरह मानता है कि [एदे ] ये ( उपसर्ग और परिषह ) [ मया वि जं पुव्वं संचिदं ] मेरे द्वारा पूर्वजन्ममें संचित किये गये [ पावफलं ] पापकर्मों का फल है सो भोगना चाहिए इस समय व्याकुल नहीं होना चाहिए। भावार्थ:-जैसे किसीको ऋणके रुपये देने होवे तो जब वह मांगे तब देना पड़े उसमें व्याकुलता कैसी ? ऐसा विचार कर जो उपसर्ग और परिषहको शान्त परिणामोंसे सह लेता है उसके बहुत निर्जरा होती है । जो चिंतेइ सरीरं, ममत्तजणयं विणस्सरं असुई । दंसणणाणचरितं, सुहजणयं णिम्मलं णिच्चं ॥१११॥ अन्वयार्थः-[ जो] जो मुनि [ सरीरं ] शरीरको [ ममत्वजणयं ] ममत्व ( मोह ) को उत्पन्न करानेवाला [विणस्सरं] विनाशीक [ असुई ] तथा अपवित्र [चिंतेइ ] मानता है और [ सुहजणयं ] सुखको उत्पन्न करनेवाले [णिम्मलं ] निर्मल [णिच्चं ] तथा नित्य [दसणणाणचरित्वं ] दर्शनज्ञान-चारित्ररूपो आत्माका [चिंतेइ] चितवन ( ध्यान ) करता है उसके बहुत निर्जरा होती है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ निर्जर।नुप्रेक्षा भावार्थ:-शरीरको मोहका कारण, अस्थिर तथा अशुचि माने तब इसकी चिन्ता नहीं रहती। अपने स्वरूप में लगे तब निर्जरा होवे ही होवे । अप्पाणं जो जिंदइ, गुणवंताणं करेदि बहुमाणं । मणई दियाण विजई, स सरूवपरायणो होउ ॥११२॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो साधु [ अप्पाणं जिंदइ ] अपने किए हुए दुष्कृतको निंदा करता है [ गुणवंताणं बहुमाणं करेदि ] गुणवान् पुरुषोंका प्रत्यक्ष परोक्ष बड़ा आदर करता है [ मणइंदियाण विजई ] अपने मन व इन्द्रियोंको जीतनेवाला होता है [ स सरूवपरायणो होउ ] वह अपने स्वरूप में तत्पर होता है। उसीके बहुत निर्जरा होती है। __ भावार्थ:-* मिथ्यात्वादि दोषों का निरादर करे तब वे क्यों रहें ? नष्ट हो हो जावें। तस्त य सहलो जम्मो, तस्स वि पावस्स णिजरा होदि । तस्स वि पुण्णं वड्ढदि, तस्स वि सोक्खं परं होदि ॥११३॥ अन्वयार्थ:-जो साधू ऐसे ( पहिले कहे अनुसार ) निर्जराके कारणों में प्रवृत्ति करता है [ तस्स य सहलो जम्मो ] उसीका जन्म सफल है [ तस्स वि पावस्स णिजरा होदि ] उसहीके पापकर्मकी निर्जरा होती है [ तस्स वि पुण्णं वड्ढदि ] उसहीके पुण्यकर्मका अनुभाग बढ़ता है [ तस्स वि सोक्खं परं होदि ] और उसीको उत्कृष्ट सुख ( मोक्ष ) प्राप्त होता है। ___ भावार्थ:-जो निर्जराके कारणोंमें प्रवृत्ति करता है उसके मिथ्यात्वादि पापोंका नाश होता है, पुण्यकी वृद्धि होती है और वह ही ४ स्वर्गादिकके सुखोंको भोगकर +मोक्षको प्राप्त होता है। अब उत्कृष्ट निर्जरा कहकर उसके कथनको पूर्ण करते हैं जो समसोक्खणिलीणो, वारंवारं सरेइ अप्पाणं । इंदियकसायविजई, तस्स हवे णिजरा परमा ॥११४॥ * [निज शुद्धात्माका ही आदर द्वारा] । - [परम्परा] । + [पूर्ण स्वाश्रय द्वारा] । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः - [ जो ] जो मुनि [ समसोक्खणिलीणो ] वीतराग भावरूपसाम्यरूप - सुख में लीन ( तन्मय ) होकर [ वारंवारं अप्पाणं सरेइ ] बार बार आत्माका स्मरण ( ध्यान ) करता है [ इंदियकसायविजई ] तथा इन्द्रिय और कषायोंको जीतता है [ तस्स परमाणिञ्जरा हवे ] उसके उत्कृष्ट निर्जरा होती है । भावार्थ: - * जो इन्द्रियोंका और कषायोंका निग्रह करके परम वीतराग भावरूप आत्मध्यानमें लीन होता है उसके उत्कृष्ट निर्जरा होती है । * दोहा * ५२ पूरब बांधे कर्म जे, क्षरें तपोबल पाय । सो निर्जरा कहा है, धारें ते शिव जाय ॥९॥ इति निर्जरानुप्रेक्षा समाप्ता ॥ ॥ 業 लोकानुप्रेक्षा अब लोकानुप्रेक्षाका वर्णन करते हैं । पहिले लोकका आकारादिक कहेंगे । यहां कुछ गणित प्रयोजनकारी जानकर संक्षेपसे कहते हैं । - भावार्थ : – गणितको अन्य ग्रन्थों के अनुसार लिखते हैं । पहिले तो परिकर्माष्टक है उसमें संकलन ( जोड़ देना ) जैसे आठमें सात जोड़ देने से पन्द्रह होते हैं । व्यवकलन ( बाकी काढ़ना ) - जैसे आठमेंसे तीन घटाने पर पाँच रहते हैं । गुणाकार - जैसे आठको सातसे गुणा करने पर छप्पन होते हैं । भागाकार- -जैसे आठ में दोका भाग देनेसे चार आते हैं । वर्ग – दो समान राशियोंको गुणा करने पर जितने आते हैं उसको वर्ग कहते हैं जैसे आठका वर्ग चौसठ होता है । वर्गमूल -- जैसे चौसठका वर्गमूल आठ होता है । घन - तीन समान राशियोंके गुणा करने पर जो आवे सो घन कहलाता है जैसे आठका घन पांच सौ बारह | घनमूल -- जैसे पांच सौ बारहका घनमूल आठ । इस तरह परिकर्माष्टक जानना चाहिये । * [ अपने त्रैकालिक भूतार्थ ज्ञायकस्वरूपके परिग्रहण द्वारा ही ] । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ लोकानुप्रेक्षा अब त्रैराशिक बतलाते हैं इसमें एक प्रमाणराशि, एक फलराशि और एक इच्छाराशि ऐसे तीन राशियां होती हैं। जैसे दो रुपयोंकी कोई वस्तु सोलह सेर आती है तो आठ रुपयोंकी कितनी आवेगी? यहां प्रमाण राशि दो, फलराशि सोलह और इच्छाराशि आठ हुई । फलराशिको इच्छाराशिसे गुणा करने पर एकसौ अट्ठाईस होते हैं, उनमें प्रमाणराशि दोका भाग देने पर चौसठ सेर आते हैं, इस तरह जानना चाहिये। क्षेत्रफल:-जहां बराबरके खण्ड किये जाते हैं, उसको क्षेत्रफल कहते हैं । जब खेत डोरीसे मापा जाता है तब कचवांसी, विसवांसी और बीघा किये जाते हैं उसकी क्षेत्रफल संज्ञा है। जैसे अस्सो हाथकी डोरी होती है उसके बीस गढ़ कहलाते हैं । चार हाथका एक गट्ठा होता है । ऐसे खेतमें जो एक डोरी लम्बा चौड़ा खेत होवे उसके चार हाथके लम्बे चौड़े खण्ड करो, तब बीसको बीससे गुणा करने पर चारसौ हुए ये ही कचवांसी कहलाती हैं, इसके बीस बिसवे होते हैं उनका एक बीघा होता है । ऐसे ही जहां चौखूटा, तिखूटा, गोल आदि खेत होवे तो उसके बराबरके खण्ड करके माप कर क्षेत्रफल ले आते हैं। वैसे ही लोकके क्षेत्रकी योजनादिककी संख्यासे जैसा क्षेत्र होवे वैसे ही विधानसे क्षेत्रफल लानेका विधान गणित शास्त्रसे जान लेना चाहिये। यहां लोकके क्षेत्रमें तथा द्रव्योंकी गणनामें अलौकिक गणित इक्कीस हैं तथा उपमा गणित आठ हैं। उसमें संख्यातके तीन भेद-जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट । असंख्यातके नौ भेद--परीतासंख्यात जघन्य, मध्य, उत्कृष्ट । युक्तासंख्यात जघन्य, मध्य, उत्कृष्ट । असंख्याता संख्यात जघन्य, मध्य, उत्कृष्ट इस तरह नो भेद हुए । अनन्तके नौ भेद--परीतानन्त, युक्तानन्त, अनन्तानन्त, वे जघन्य, मध्य, उत्कृष्टके भेदसे नो हुए । इस तरह संख्यातके तीन, असंख्यातके नौ और अनन्तके नौ सब मिलाकर इक्कीस भेद हुए। जघन्य परीत असंख्यात लानेके लिये लाख लाख योजनके जम्बूद्वीपप्रमाण व्यासवाले हजार हजार योजन ऊंडे ( गहरे ) चार कुण्ड करो। एकका नाम अनवस्था, दूसरा शलाका, तीसरा प्रतिशलाका, चोथा महाशलाका। उनमें से अनवस्था कुण्डको सरसोंसे सिंघाऊ भरो, उसमें छियालीस अंकप्रमाण सरसों आवेगी। उनका संकल्प मात्र लेकर चलो। एक द्वीपमें एक समुद्र में इस क्रमसे गिराते जाओ। जहां वे सरसों समाप्त हो जाय उस द्वीप वा समुद्रकी सूची प्रमाण अनवस्था कुण्ड करो । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा उसमें सरसों भरो और शलाका कुण्ड में एक दूसरी सरसों लाकर गिराओ। फिर वैसे ही उस दूसरे अनवस्था कुण्डकी एक सरसों एक द्वीपमें एक समुद्र में गिराते जाओ। इस तरह करते हुए उस अनवस्था कुण्डको सरसों जहां समाप्त हो जाय वहां उस द्वीप वा समुद्रकी सूची प्रमाण फिर अनवस्थाकुण्ड करके वैसे ही सरसों भरो। फिर एक दूसरी सरसों शलाका कुण्ड में लाकर गिराओ, इस तरह करते हुए छियालीस अंक प्रमाण अनवस्था कुण्ड हो जाय तब एक शलाका कुण्ड भरे । तब एक सरसों प्रतिशलाका कुण्डमें गिराओ। वैसे ही ( पहिले कहे अनुसार ) अनवस्था होती जाय, शलाका होती जाय ऐसे करते हुए छियालीस अंक प्रमाण शलाका कुण्ड भर चुके तब एक प्रतिशलाका भरे। इसी तरह अनवस्था कुण्ड होता जाय, शलाका भरते जाय, प्रतिशलाका भरते जाय जब छियालीस अंक प्रमाण प्रतिशलाका कुण्ड भर जाय तब एक महाशलाका कुण्ड भरे । इस तरह करते हुए छियालीस अंकोंके धन प्रमाण अनवस्था कुण्ड हुए। उनमें अन्तका अनवस्थाका जिस द्वीप तथा समुद्रकी सूची प्रमाण बना उसमें जितनी सरसों आवे उतना प्रमाण जघन्य परीतासंख्यातका है। इसमें एक सरसों घटानेसे उत्कृष्टसंख्यात कहलाता है। दो सरसों प्रमाण जघन्य संख्यात कहलाता है, बीचके सब मध्य संख्यातके भेद हैं। जघन्य परीतासंख्यातकी सरसोंकी राशिको एक एक बखेर ( फैला ) कर एक एक पर उस ही राशिको रखकर परस्परमें गुणा करनेसे अन्तमें जो राशि आती है उसको जघन्य युक्तासंख्यात कहते हैं । इसमें एक रूप घटाने पर उत्कृष्टपरीतासंख्यात कहलाता है। मध्यके अनेक भेद जानने चाहिये । जघन्य युक्तासंख्यातको जघन्ययुक्तासंख्यातसे एक बार परस्परमें गुणा करनेसे जो परिमाण आता है वह जघन्य अंसख्यातासंख्यात जानना चाहिये। इसमें से एक घटाने पर उत्कृष्ट युक्तासंख्यात हो जाता है। मध्य युक्त असंख्यात बीचके अनेक भेद जानने चाहिये। * अब इस जघन्य असंख्यातासंख्यातप्रमाण तीन राशि करनो। एक शलाका एक विरलन एक देय । तहां विरलन राशिकूबखेरि एक एक जुदा जुदा करना, एक एककै ऊपरि एक एक देय राशि धरना तिनकूपरस्पर गुणिये जब सर्व गुणकार होय चुकै तब एक रूप शलाका राशिमेंसू घटावना, बहुरि जो राशि भया तिस प्रमाण * यह विषय स्व० पं० जयचन्द्रजी सा० की भाषामें ही ज्योंका त्यों रख दिया है । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा विरलन देय राशि करना, तहां विरलनकू बखेरि एक एककू जुदा करि एक एक परि देय राशि देना, तिनकू परस्पर गुणन करना जो राशि निपजै तब एक शलाकाराशि में सू फेरि घटावना, बहुरि जो राशि निपज्या ताकै परिमाण विरलन देय राशि करना । विरलनकू' बखेरि देयकू एक एक पर स्थापि परस्पर गुणन करना, एकरूप शलाका सू घटावना, ऐसें विरलन देय राशिकरि गुणाकार करता जाना, शलाकामेंसू घटाता जाना, जब शलाका राशि निःशेष हो जाय तब जो किछू परिमाण आया सो मध्य असंख्यातासंख्यातका भेद है, बहुरि तितने २ परिमाण शलाका, विरलन, देय, तीन राशि फेरि करना । तिनकू पूर्ववत् करते शलाका राशि निःशेष होय जाय, तब जो महाराशि परिमाण आया सो भी मध्य असंख्याता संख्यातका भेद है, बहुरि तिस राशि परिमाणके फेरि शलाका विरलन देय राशि करना, तिनकू पूर्वोक्त विधानकरि गुणने तें जो महाराशि भया सो यह भी मध्य असंख्याता संख्यातका भेद भया, अर शलाकात्रयनिष्ठापन एक बार भया, बहुरि इस राशि मैं असंख्याता संख्यात प्रमाण छह राशि और मिलावणी | लोकप्रमाण धर्मद्रव्य के प्रदेश, अधर्मद्रव्य के प्रदेश, एक जीवके प्रदेश, लोकाकाश के प्रदेश बहुरि उस लोकतैं असंख्यातगुणे अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति जीवनीका परमाण, बहुरि तिसतें असंख्यातगुणे सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति जीवोंका परिमाण ये छह राशि मिलाय पूर्वोक्त प्रकार शलाका विरलन देयराशिके विधानकरि शलाकात्रय निष्ठापन करना, तब जो महाराशि निपज्या सो भी मध्य असंख्याता संख्यातका भेद है, तामें च्यारि राशि और मिलावने -कल्प काल बीस कोड़ाकोड़ी सागर के समय बहुरि स्थितिबंधकू' कारण कषायनिके स्थान, अनुभाग बंधकू कारण कषायतिके स्थान, योगनिके अविभाग प्रतिच्छेद, ऐसी च्यारि राशि मिलाय अर पूर्वोक्त विधानकरि शलाकात्रय निष्ठापन करना ऐसें करतें जो परिमाण होय सो जघन्यपरीतान्तराशि भया, यामैंसू एकरूप घटाये उत्कृष्ट असंख्याता संख्यात होय है, बीचिमें मध्यके नाना भेद हैं, बहुरि जघन्य परीतानन्त राशि विरलनकरि एक एक परि एक एक जघन्य परीतानन्त स्थापनकरि परस्पर गुणें जो परिमाण होय सो जघन्ययुक्तानन्त जानना । तामें एक घटाये उत्कृष्ट परीतानन्त है । मध्य परीतानन्त के बीचिमें नाना भेद हैं । बहुरि जघन्य युक्तानन्तकू जघन्य युक्तानन्तर्कारि एकबार परस्पर गुणे जघन्य अनन्तानन्त है । यामेंसू एक घटाये उत्कृष्ट युक्तानन्त होय है । मध्य युक्तानन्त के बीच में नाना भेद हैं । अब उत्कृष्ट अनन्तानन्तकू ल्यावनेका उपाय कहै हैं । तहां जघन्य अनन्तानन्त परिमाण शलाका विरलन देय । इन तीन राशिकरि अनुक्रमतें पहले कह्या तैसें शलाकात्रय - ५५ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा निष्ठापन करै । तब मध्य अनन्तानन्तका भेदरूप राशिमें निपज है, ताविले छह राशि मिलावै सिद्धराशि, निगोदराशि, प्रत्येक वनस्पतिसहित निगोदराशि, पुद्गलराशि, कालके समय, आकाशके प्रदेश ये छह राशि मध्य अनन्तानन्तके भेदरूप मिलाय शलाकात्रयनिष्ठापन पूर्ववत् विधानकरि करना तब मध्य अनन्तानन्तका भेदरूप राशि निपजै, ताविषै फेरि धर्मद्रव्यके अधर्मद्रव्यके अगुरुलघु गुणके अविभागप्रतिच्छेद मिलाय जो महाराशि परिमाण राशि भया, ताकू फेरि पूर्वोक्त विधानकरि शलाकात्रयनिष्ठापन करिये तब जो कोई मध्य अनन्तानन्तका भेदरूप राशि भया, ताकू केवलज्ञानके अविभागप्रतिच्छेदनका समूह परिमाणविष घटाय फेरि मिलाइये तब केवलज्ञानके अविभागप्रतिच्छेदरूप उत्कृष्ट अनन्तानन्त परिमाण राशि होय है। उपमा प्रमाण आठ प्रकारका कहा गया है-१ पल्य, २ सागर, ३ सूच्यंगुल, ४ प्रतरांगुल, ५ घनांगुल, ६ जगत्श्रेणी, ७ जगतप्रतर, ८ जगतघन । पल्य तीन प्रकारका है--१ व्यवहारपल्य, २ उद्धारपल्य, ३ अद्धापल्य । इनमें से व्यवहारपल्य तो रोमोंकी संख्या मात्र ही है तथा उद्धारपल्यसे द्वीपसमुद्रोंकी संख्या गिनते हैं और अद्धापल्यसे कर्मोंकी स्थिति देवादिककी आयु स्थिति गिनते हैं। अब इनका परिमाण जाननेके लिये परिभाषा कहते हैं। अनन्त पुद्गलके परमाणुओंके स्कन्धको एक अवसन्नासन्न कहते हैं उससे आठ आठ गुणे क्रमसे १ सन्नासन्न, २ तृटरेणु, ३ त्रसरेणु, ४ रथरेणु, ५ उत्तमभोगभूमिका बाल का अग्रभाग, ६ मध्यम भोगभूमिका, ७ जघन्य भोगभूमिका, ८ कर्मभूमिका ( बाल का अग्रभाग ), १ लीख, १० सरसों, ११ यव, १२ अंगुल ये बारह स्थान होते हैं। इस तरहसे अंगुल हुआ सो उत्सेध अंगुल है । इससे नारकी, तिर्यंच, देव और मनुष्योंके शरीरके प्रमाणका वर्णन किया जाता है तथा देवोंके नगर व मन्दिरोंका वर्णन किया जाता है। उत्सेध अंगुलसे पांचसौ गुणा प्रमाणांगुल है । इससे द्वीप, समुद्र, पर्वत आदिके परिमाणका वर्णन होता है । आत्मांगुल जहां जैसे मनुष्यका हो उसी परिमाणका जानना। छह अंगुलका एक पाद, दो पादका एक विलस्त, दो विलस्तका एक हाथ, दो हाथका एक भीष, दो भीषका एक धनुष, दो हजार धनुषका एक कोस और चार कोसका एक योजन होता है । सो यहाँ प्रमाणांगुलसे उत्पन्न एक योजन प्रमाण ऊडा ( गहरा ) व चौड़ा एक गड्ढा करना, उसको-उत्तमभोगभूमिमें उत्पन्न हुए जन्मसे लगाकर सात दिन तकके मीठेके बालोंके अग्रभागसे-भूमिके समान अत्यन्त ठोस भरना, उसमें रोम पैंतालीस अंकप्रमाण समावें, उस एक एक रोमखण्डको सौ सौ बरस बीतने पर काढे ( निकाले )। जितने वर्षों में Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा पूरे हों सो व्यवहार पल्य है । उन वर्षों के असंख्यात समय होते हैं। उन रोमों में से एक एक रोमको, असंख्यात कोडि वर्षके जितने समय हों, उतने उतने खण्ड करने पर उद्धारपल्यके रोम खण्ड होते हैं, उतने समय उद्धारपल्यके हैं । ___इन उद्धारपल्यके एक एक रोम खण्डके असंख्यात वर्ष के जितने समय हों उतने खण्ड करने पर अद्धापल्यके रोमखण्ड होते हैं उसके समय भी इतने ही हैं । दस कोडाकोड़ी पल्यका एक सागर होता है। एक प्रमाणांगुल प्रमाण लम्बे एकप्रदेश प्रमाण चौड़े ऊँचे क्षेत्रको सूच्यंगुल कहते हैं। अद्धापल्यके अर्द्ध छेदोंको विरलनकर एक एक अद्धापल्य उन पर स्थापित कर परस्पर गुणा करने पर जो परिमाण आवे उतने इसके प्रदेश हैं इसके वर्गको प्रतरांगुल कहते हैं । सूच्यंगुलके घनको घनांगुल कहते हैं ( एक अंगुल चौड़ा इतना हो लम्बा और ऊँचा इसको घन अंगुल कहते हैं ) । सात राजू लम्बे एक प्रदेश प्रमाण चौड़े ऊँचे क्षेत्रको जगतश्रेणी कहते हैं । इसकी उत्पत्ति इस तरह कि अद्धापल्यके अद्ध छेदोंके असंख्यातवें भागके प्रमाणको विरलनकर एक एक पर घनांगुल दे परस्पर गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो सो जगतश्रेणी है, जगतश्रेणीके वर्गको जगत प्रतर कहते हैं । जगतश्रेणीके घनको जगतघन कहते हैं । सात राजू चौड़े लम्बे ऊँचेको जगतघन कहते हैं । यह लोकके प्रदेशोंका प्रमाण है सो भी मध्य असख्यातका भेद है। ऐसे यह गणितसंक्षेपसे कही है । गणितका विशेष कथन गोम्मटसार त्रिलोकसारसे जानना चाहिये । द्रव्यमें तो सूक्ष्म पुद्गल परमाणु क्षेत्र में आकाशके प्रदेश, काल में समय और भाव में अविभागप्रतिच्छेद इन चारों ही को परस्पर प्रमाण संज्ञा है। कमसे कम तो ये हैं और अधिकसे अधिक द्रव्य में तो महास्कन्ध, क्षेत्रमें आकाश, कालमें तीनों काल भऔर भावमें केवलज्ञान जानना चाहिये । काल में एक आवलीके जघन्य युक्तासंख्यात समय हैं। असंख्यात आवलीका मुहूर्त, तीस मुहर्त्तका दिनरात, तीस दिनरातका एक मास और बारह मासका एक वर्ष होता है, इत्यादि जानना चाहिये। अब लोकाकाश स्वरूप कहते हैंसवायासमणंतं, तस्स य बहुमज्झसंठिो लोओ। सो केण विणेय को, ण य धरिओ हरिहरादीहिं ॥११५। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ सव्यायासमणतं ] आकाश द्रव्यका क्षेत्र ( प्रदेश ) अनन्त है [ तस्स य बहुमज्झसंठिओ लोओ ] उसके बहुमध्यदेश ( ठीक बीचका क्षेत्र ) में स्थित लोक है [ सो केण वि णेय कओ] वह किसी के द्वारा बनाया हुआ नहीं है [ण य धरिओ हरिहरादीहिं ] तथा किसी हरिहरादिके द्वारा धारण ( रक्षा ) किया हुआ नहीं है। ___ भावार्थः-केई अन्यमतमें कहते हैं कि लोककी रचना ब्रह्मा करता है, नारायण ( विष्णु ) रक्षा करता है, शिव संहार ( नाश ) करता है तथा कछुआ और शेषनाग इसको धारण किये हुए हैं, जब प्रलय होती है तब सब शून्य हो जाता है, ब्रह्मकी सत्ता मात्र रह जाती है । फिर ब्रह्मको सत्तामेंसे सृष्टिकी रचना होत इत्यादि अनेक कल्पित कहते हैं उस सबका निषेध इस गाथासे जान लेना चाहिये । लोक किसीके द्वारा बनाया हुआ नहीं है, धारण किया हुआ नहीं है, किसी के द्वारा इसका नाश भी नहीं होता है जैसा है वैसा ही सर्वज्ञने देखा है वह ही वस्तुस्वरूप है। अण्णोण्णपवेसेण य, दव्वाणं अच्छणं भवे लोओ। दव्वाणं णिच्चत्तो, लोयस्स वि मुणह णिच्चत्तं ॥११६॥ अन्वयार्थः- [दव्याणं अच्छणं ] जीवादिक द्रव्योंका [ अण्णोणपवेसेण य ] परस्पर एक क्षेत्रावगाह प्रवेश ( मिलापरूप अवस्थान ) [ लोओ ] लोक [ भवे ] है [ दव्वाणं णिच्चत्तो ] द्रव्य हैं वे नित्य हैं [ लोयस्स वि णिच्चत्तं मुणह ] इसलिये लोक भी नित्य है ऐसा जानना । भावार्थ:-* छह द्रव्योंके समुदायको लोक कहते हैं। हरेक द्रव्य+ नित्य हैं इसलिये लोक भी नित्य ही है । अब यदि कोई तर्क करे कि जो नित्य है तो फिर उत्पत्ति व नाश किसका होता है ? उसका समाधान करने के लिये गाथा कहते हैं परिणामसहावादो, पडिसमयं परिणमंति दव्वाणि । तेसिं परिणामादो, लोयस्स वि मुणह परिणामं ॥११७॥ *[ छह जातिके ]। +[ सामान्यविशेषरूप ] । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ दव्वाणि ] द्रव्य [ परिणामसहावादो ] परिणामस्वभावी हैं इसलिये [ पडिसमयं ] प्रतिसमय [ परिणमंति ] परिणमते हैं [ तेसिं परिणामादो] उनके परिणमनके कारण [ लोयस्स वि परिणामं मुणह ] लोकको भी परिणामी जानो। भावार्थ:-द्रव्य हैं, वे परिणामी हैं । लोक है, सो-द्रव्योंका समुदाय है इसलिये द्रव्योंके परिणामी होनेके कारण लोक भी परिणामी हुआ । कोई पूछे परिणाम क्या ? उसका उत्तर-परिणाम नाम पर्यायका है । एक अवस्थारूप द्रव्यका पलट ( बदल ) कर दूसरी अवस्थारूप होना उसको पर्याय कहते हैं, जैसे-मिट्टी पिंड अवस्थारूप थी सो पलटकर घड़ा बनी। इस तरह परिणामका स्वरूप जानना चाहिये। लोकका आकार तो नित्य है और द्रव्योंकी पर्यायें पलटती हैं इस अपेक्षासे इसको परिणामी कहते हैं। अब लोकका विस्तार कहते हैं सत्तेक्क पंच इक्का, मूले मज्झे तहेव बंभंते । लोयन्ते रज्जूत्रो, पुवावरदो य वित्थारो ॥११८॥ अन्वयार्थः- [ पुव्वावरदो य ] लोकका पूर्व पश्चिम दिशामें [ मूले मज्झे ] मल ( नीचे ) और मध्य ( बीच ) में क्रमसे [ सत्तेक ] सात राजू और एक राजका विस्तार है [ तहेव बंभंते पंच इक्का लोयन्ते रज्जओ वित्थारो ] ऊपर ब्रह्मस्वर्गके अन्त में पाँच राजूका विस्तार है और लोकके अन्त में एक राजूका विस्तार है। भावार्थ:-लोक, पूर्व पश्चिम दिशामें नीचेके भागमें सात राजू चौड़ा है। वहांसे अनुक्रमसे घटता घटता मध्यलोकमें एक राजू रह जाता है । फिर ऊपर अनुक्रमसे बढ़ता २ ब्रह्मस्वर्गतक पाँच राजू चौड़ा हो जाता है । बादमें घटते घटते अन्त में एक राजू रह जाता है इस तरह होते हुए खड़े किये गये डेढ़ मृदंग की तरह लोकका आकार हुआ। अब दक्षिण उत्तरके विस्तार व ऊँचाईको कहते हैंदक्खिणउत्तरदो पुण, सत्त वि रज्ज हवेदि सव्वत्थ । उड्ढं चउदहरज्जू सत्त वि रज्जूघणो लोओ ॥११६॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० कार्तिकेयानुप्रेक्षा __ अन्वयार्थः-[ दक्खिणउत्तरदो पुण सव्वत्थ सत्त वि रज्जू हवेदि ] लोकका दक्षिण उत्तर दिशामें सब ऊँचाई पर्यन्त सात राजूका विस्तार है । [ उदं चउदहरज्जू] ऊँचा चौदह राजू है [ सत्त वि रज्जघणो लोओ ] और सात राजूका घनप्रमाण है । भावार्थ:-दक्षिण उत्तर में सब जगह सात राजू चौड़ा है । ऊँचा चौदह राजू है । इस तरह लोकका घनफल करने पर तीनसो तियालीस ( ३४३ ) राजू होता है । समान क्षेत्र खण्ड कर एक राजू चौड़ा, लम्बा, ऊँचा खण्ड करनेको घनफल कहते हैं। अब ऊँचाईके भेद कहते हैमेरुस्त हिट्ठभाये, सत्त वि रज्जू हवेइ अहलोओ। उद्बुम्हि, उढलोओ, मेस्समो मज्झिमो लोभो ॥१२०॥ अन्वयार्थः- [ मेरुस्स हिट्ठभाये ] मेरुके नीचेके भागमें [ सत्त वि रज्ज ] सात राजू [ अहलोओ ] अधोलोक [हवेइ ] है [ उढ्ढम्हि उढ्ढलोओ ] ऊपर सात राजू ऊर्ध्वलोक है । [ मेरुसमो मनिझमो लोगो] मेरु समान मध्य लोक है । ___ भावार्थ:- मेरुके नीचे सात राजू अधोलोक है । ऊपर सात राजू ऊर्ध्वलोक है । बीच में मेरु समान लाख योजनका मध्य लोक है। इस तरह तोन लोकका विभाग जानना चाहिये। अब लोक शब्द का अर्थ कहते हैंदंसंति जत्थ अस्था, जीवादीया स भएणदे लोश्रो । तस्स सिहरम्मि सिद्धा, अंतविहीणा विरायते ॥१२१॥ अन्वयार्थ:-[ जत्थ ] जहाँ [ जीवादीया ] जीवादिक [ अत्था ] पदार्थ [ दंगंति ] देखे जाते हैं [ स लोओ भण्णदे ] वह लोक कहलाता है [ तस्स सिहरम्हि ] उसके शिखर पर [ अंतविहीणा ] अन्तरहित ( अनन्त ) [ सिद्धा ] सिद्ध [ विरागते ] विराजमान हैं। भावार्थ:-'लोक-दर्शने' व्याकरणमें धातु है उसके आश्रयार्थ में अकार प्रत्ययसे लोक शब्द बनता है । इसलिये जिसमें जीवादिक द्रव्य देखे जाते हैं उसको लोक कहते हैं। उसके ऊपर अन्त में कर्मरहित*शुद्धजीव अपने अनन्त गुण सहित अविनाशी अनन्त सुखमय सदा विराजमान हैं। * [ संख्या अपेक्षा अनन्त ] । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा अब लोकके जीवादिक छह द्रव्योंका वर्णन करेंगे । पहिले जीवद्रव्यको कहते हैं एइंदियेहिं भरिदो, पंचपयारेहिं सव्वदो लोश्रो । तसनाडीए वि तसा, ण बाहिरा होंति सव्वत्थ ॥ १२२ ॥ अन्वयार्थः -- [ लोओ ] यह लोक [ पंचपयारेहिं ] पृथ्वी, अप् तेज, वायु, वनस्पति पंचप्रकार कायके धारक [ एइंदियेहिं ] एकेन्द्रिय जीवोंसे [ सव्वदो ] सब जगह [ भरिदो ] भरा हुआ है [ तसनाडीए वि तसा ] त्रसजीव त्रसनाड़ी में हो है [ सव्वत्थ बाहिरा ण होंति ] बाहर नहीं हैं । भावार्थ:-- जीव द्रव्य उपयोग लक्षणवाला समान परिणामकी अपेक्षा सामान्य रूपसे एक है । तथापि वस्तु भिन्न प्रदेश से अपने अपने स्वरूपको लिये भिन्न भिन्न अनन्त हैं । उनमें जो एकेन्द्रिय हैं वे तो सब लोकमें हैं और दोइन्द्रिय, तेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय स हैं वे सनाड़ी में ही हैं । अब बादर सूक्ष्मादि भेद कहते हैं । पुराणावि पुराणावि य, थूला जीवा हवंति साहारा । छविहा सुहमा जीवा, लोयायासे वि सव्वत्थ ॥ १२३ ॥ ६१ अन्वयार्थः - [ साहारा ] आधारसहित [ जीवा ] जीव [ धूला ] स्थूल ( बादर ) [ हवंति ] होते हैं [ पुण्णा त्रि अपुण्णा वि य ] वे पर्याप्त हैं और अपर्याप्त भी हैं [ लोयायासे वि सव्वत्थ सुहमा जीवा छविहा ] लोकाकाशमें सब जगह अन्य आधाररहित हैं वे सूक्ष्म जीव हैं और छह प्रकार के हैं । अब बादर सूक्ष्म कौन कौन हैं सो कहते हैं पुढवीजल ग्गिवाऊ, चत्तारि वि होंति बायरा सुहमा । सादारणपत्तेया, वणफदी पंचमा दुविहा ॥ १२४॥ अन्वयार्थः - [ पुढवीजलग्गिवाऊ चचारि वि बायरा सुहमा होति ] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, ये चार तो बादर भी होते हैं तथा सूक्ष्म भी होते हैं [ पंचमा वणफदी साहारणपत्रोया दुविहा ] पांचवीं वनस्पति साधारण और प्रत्येकके भेदसे दो प्रकारकी है । * [ सब लोक में पृथ्वीकायादिक स्थूल तथा सकायिक नहीं हैं ] । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब साधारण प्रत्येकके सूक्ष्मता कहते हैंसाहारणा वि दुविहा, अणाइकाला य साइकाला य । ते वि य बादरसुहमा, सेसा पुण बायरा सव्वे ॥१२५॥ अन्वयार्थः-[ साहारणा वि दुविहा ] साधारण जीव दो प्रकार के हैं [ अणाइकाला य साइकाला य ] १ अनादिकाला (नित्यनिगोद) २ सादिकाला (इतर निगोद) [ ते वि य बादरसुहमा ] वे दोनों ही बादर भी हैं और सूक्ष्म भी हैं [ पुण सेसा सव्वे बायरा ] और शेष सब ( प्रत्येक वनस्पति वा त्रस ) बादर ही हैं । भावार्थः-पहिले कहे जो सूक्ष्मजीव छह प्रकारके हैं उनमें से पृथ्वी, जल, तेज, वायु तो पहिली गाथामें कह चुके हैं इन ही चारोंमें नित्यनिगोद और इतरनिगोद इन दोनोंको मिलानेसे छह प्रकारके सूक्ष्मजीव होते हैं और बाकी सब बादर होते हैं । अब साधारणका स्वरूप कहते हैं साहारणाणि जेसिं, आहारुस्सासकायाऊणि । ते साहारणजीवा, णंताणंतप्पमाणाणं ॥१२६॥ अन्वयार्थ:-[जेसिं ] जिन [ णताणंतप्पमाणाणं ] अनन्तानन्त प्रमाण जीवों के [ आहारुस्सासकायआऊणि ] आहार, उच्छ्वास, काय, आयु [ साहारणाणि ] साधारण ( समान ) हैं [ ते साहारणजीवा ] वे साधारण जोव हैं। उक्त च गोम्मटसारे: "जत्थेक्कु मरइ जीवो, तत्थ दु मरणं हवे अणंताणं । चंकमइ जत्थ एक्को, चंकमणं तत्थ णताणं ।।" अन्वयार्थः-[ जत्थ एक्को चंकमइ ] जहां एक साधारण निगोदिया जीव उत्पन्न होता है [ तत्थ ताण चंकमणं] वहां उसके साथ ही अनन्तानन्त जीव उत्पन्न होते हैं [ जत्थेक्कु जीवो मरइ ] और जहां एक निगोदिया जीव मरता है [तत्थ दु मरणं हवे अणंताणं] वहां उसके साथ ही अनन्तानन्त समान आयुवाले मरते हैं । भावार्थ:-~एक जीव आहार करे वह हो अनन्तानन्त जीवोंका आहार, एक जीव स्वासोस्वास ले वह ही अनन्तानन्त जीवोंका स्वासोस्वास, एक जीवका शरीर वह Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा हो अनन्तानन्त जीवोंका शरीर, एक जीवकी आयु वह ही अनन्तानन्त जीवोंकी आयु, इस तरहसे समानता है इसीलिये साधारण नाम जानना चाहिये । अब सूक्ष्म और बादरका स्वरूप कहते हैं___ण य जेसिं पडिखलणं, पुढवीतोएहिं अग्गिवाएहिं । ते जाण सुहुमकाया, इयरा पुण थूलकाया य ॥१२७॥ अन्वयार्थः-[ जेसि ] जिन जीवोंका [ पुढवीतोएहिं अग्गिवाएहिं ] पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन इनसे [ पडिखलणं ण य ] रुकना नहीं होता है [ ते सुहुमकाया जाण ] उनको सूक्ष्म जीव जानो [ इयरा पुण थूलकाया य ] और जो इनसे रुक जाते हैं उनको बादर जानो।। अब प्रत्येक और त्रसको कहते हैं पत्तेया वि य दुविहा, णिगोदसहिदा तहेव रहिया य । दुविहा होंति तसा वि य, वि-तिचउरक्खा तहेव पंचक्खा ॥१२८॥ अन्वयार्थः-[ पत्तेया वि य दुविहा ] प्रत्येक वनस्पति भी दो प्रकार की है [णिगोदसहिदा तहेव रहिया य ] १ निगोदसहित और २ निगोदरहित [ तसा वि य * मूलग्गपोरबीजा कंदा तह खंदबीज बोजरुहा । सम्मुच्छिमा य भणिया, पत्तेयाणंतकाया य ॥१॥ अन्वयार्थः-[मूलग्गपोरबीजा कंदा तह खंदधीज बोजरुहा ] जो वनस्पतियाँ मूल, अग्र, पर्व, कंद, स्कन्ध तथा बीजसे पैदा होती हैं [ सम्मुच्छिमा य ] तथा जो सम्मूर्छन हैं [ पत्तेयाणंतकाया स] बे वनस्पतियाँ सप्रतिष्ठित हैं तथा अप्रतिष्ठित भी हैं। भावार्थः-बहुत सी वनस्पतियाँ मूलसे पैदा होती हैं जैसे अदरक, हल्दी आदि । कोई वनस्पति अग्र भागसे उत्पन्न होती है जैसे गुलाब । किसी वनस्पतिकी उत्पत्ति पर्व ( पंगोली ) से होती है जैसे ईख, बेंत आदि । कोई वनस्पति कन्दसे पैदा होती है जैसे सूरण आदि । कोई वनस्पति स्कन्धसे पेदा होती है जैसे ढाक । बहुत सी वनस्पतियाँ बीजोंसे पैदा होती हैं जैसे चना, गेहूँ आदि । कई वनस्पतियाँ पृथ्वी, जल आदिके सम्बन्धसे पैदा हो जाती हैं वे सम्मूर्छन हैं जैसे घास आदि । ये सभी वनस्पतियां सप्रतिष्ठित तथा अप्रतिष्ठित दोनों प्रकारकी हैं ॥१॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा दुवा होंति ] स भी दो प्रकारके हैं [ वितिचउरक्खा तहेव पंचक्खा ] १ विकलत्रय ( दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, ) तथा २ पंचेन्द्रिय | भावार्थ:- जिस वनस्पति के आश्रित निगोद पाई जाती है वह साधारण है इसको सप्रतिष्ठित भी कहते हैं और जिसके आश्रित निगोद नहीं पाई जाती है वह प्रत्येक है इसको अप्रतिष्ठित भी कहते हैं । दोइन्द्रिय आदिको त्रस कहते हैं । अब पंचेन्द्रियोंके भेद कहते हैं पंचक्खा वियतिविहा, जलथलप्रायासगामिणो तिरिया । पत्तेयं ते दुबिहा मणेण जुत्ता अजुत्ता य ।। १२६ ।। गूढसिर संधिपव्वं समभंग महीरुहं च छिण्णरुहं । साहारणं सरीर, तव्विवरीयं च पत्तेयं ॥ २ ॥ अन्वयार्थ:-- [ गूढ सिरसंधिपव्वं समभंगमहीरुहं च छिण्णरुहं ] जिन वनस्पतियोंके शिरा ( तोरई आदि में ) संधि ( खांपों के चिह्न खरबूजे आदि में ) पर्व ( पंगोली गन्ने आदिमें ) प्रगट न हों और जिनमें तन्तु पैदा न हुआ हो ( भिंडी आदिमें ) तथा जो काटने पर फिर बढ़ जांय [साहारणं सरीरं ] त्रे प्रतिष्ठित वनस्पति हैं [ तव्विवरीयं च पत्तेयं ] इनसे उलटी अप्रतिष्ठित समझनी चाहिये ||२|| मूले कंदे छल्ली, पवालसालदल कुसुमफलबीजे । समभंगे सदिगंता, असमे सदि होंति पत्तेया ॥३॥ श्रन्वयार्थ:-[ मूले कंदे छल्ली पवालसालदलकुसुमफलबीजे ] जिन वनस्पतियोंके मूल (हल्दी, अदरक आदि ) कन्द ( सूरण आदि ) छाल, नई कोंपल, टहनी, फूल, फल तथा, बीज [ समभंगे सदि ता ] तोड़ने पर बराबर टूट जाँय वे सप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं । [ असमे सदि होंति पत्तेया ] तथा जो बराबर न टूटें वे अप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं ॥३॥ कंदस्स व मूलस्स व, सालाखंधस्स वा वि बहुलतरी । छल्ली सा णंतजिया, पत्तेयजिया तु तणुकदरी ॥४॥ अन्वयार्थ:- [ कंदस्स व मूलस्स व सालाखंधस्स वा वि बहुलतरी छल्ली सा णंतजिया ] जिन वनस्पतियोंके कन्द, मूल, टहनी, स्कन्धकी छाल मोटी होती है वे सप्रतिष्ठित प्रत्येक ( अनन्त जीवोंका जानना [ तु तणुकदरी पत्तेयजिया ] और जिनकी छाल पतली होती है वे अप्रतिष्ठित प्रत्येक मानना चाहिये । स्थान Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[पंचक्खा तिरिया विय ] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च भी [ जलथलआयासगामिणो ] जलचर, थलचर, नभचरके भेदसे [ तिविहा ] तीन प्रकारके हैं [ ते पत्तेयं दुविहा ] वे प्रत्येक ( तीनों ही ) दो दो प्रकारके हैं [ मणेण जुत्ता अजत्ता य ] १ मनसहित ( सैनी ) और २ मनरहित ( असैनी )। अब इनके भेद कहते हैं-- ते वि पुणो वि य दुविहा, गब्भजजम्मा तहेव संमुच्छा। भोगभुवा गब्भभुवा, थलयर णहगामिणो सरणी ॥१३०॥ अन्वयार्थ:- ते वि पुणो वि य दुविहा, गब्भजजम्मा तहव सम्मुच्छा ] वे छह प्रकारके तिर्यंच गर्भज और सम्मूर्च्छनके भेदसे दो दो प्रकारके हैं [ भोगभुवा गम्भभवा थलयरणहगामिणो सण्णी ] इनमें जो भोगभूमिके तिर्यंच हैं वे थलचर नभचर ही हैं. जलचर नहीं हैं और सैनी ही हैं, असैनी नहीं हैं । अब अठ्याणवे जीवसमासोंको तथा तिर्यंचोंके पिच्चासी भेदोंको कहते हैंअट्ट वि गब्भज दुविहा, तिविहो सम्मुच्छिणो वि तेवीसा। इदि पणसीदी भेया, सव्वेसिं होति तिरियाणं ॥१३१॥ अन्वयार्थः- [ अट्ठ वि गन्भज दुविहा ] गर्भजके आठ भेद, ये पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे सोलह हुए [ तेवीसा सम्मुच्छिणो वि तिविहा ] सम्मूर्च्छनके तेईस भेद, ये पर्याप्त, अपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्तके भेदसे उनहत्तर हुए [ इदि सम्वेसिं तिरियाणं पणसीदी भेया होति ] इसप्रकारसे सब तिर्यंचोंके पिच्यासी भेद होते हैं। भावार्थः-पहिले कर्मभूमिके गर्भज जीवोंके जलचर, थलचर, नभचर तीन भेद कहे हैं वे सैनी, असैनीके भेदसे छह हुए। इनमें भोगभूमिके सैनी थलचर और नभचर इन दोनोंको मिलानेसे आठ हुए । ये आठों ही पर्याप्त, अपर्याप्तके भेदसे सोलह हो गये । सम्मूर्च्छनके पृथ्वी, अप, तेज, वायु, नित्यनिगोद सूक्ष्म और नित्यनिगो वादरके भेदसे बारह हुए। इनमें वनस्पतिके दो भेद सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित मिलानेसे एकेन्द्रियके चौदह भेद हुए। इनमें विकलत्रयके तीन भेद मिलानेसे सतर हुए । पंचेन्द्रिय कर्मभूमिके जलचर, थलचर और नभचर ये सैनी असैनीके भेद से Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा छह हुए । सत्रह और छह मिलाने से तेईस हुए । ये पर्याप्त, अपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्तके भेदसे उनहत्तर हुए। इस तरह सोलह और उनहत्तर मिलानेसे कुल पिच्यासी भेद होते हैं । अब मनुष्योंके भेद कहते हैं अज्जव मिलेच्छखंडे, भोगभूमीसु वि कुभोगभूमीसु । मणुआ हवंति दुविहा, णिवित्ति अपुण्णगा पुण्णा ॥१३२॥ अन्वयार्थः- [ मणुआ ] मनुष्य [ अजव मिलेच्छखंडै ] आर्यखंड में, म्लेच्छखंडमें [ भोगभूमीसु वि कुभोगभूमीसु ] भोगभूमिमें तथा कुभोगभूमिमें [ हवंति ] हैं ये चारों ही [ पुण्णा ] पर्याप्त [णिबित्ति अपुण्णगा ] और निवृत्ति अपर्याप्तके भेदसे [ दुविहा ] दो दो प्रकारके होकर सब आठ भेद होते हैं । सम्मुच्छणा मणुस्सा, अज्जवखंडेसु होंति णियमेण । ते पुण लद्धि अपुण्णा, णारय देवा वि ते दुविहा ॥१३३॥ अन्वयार्थः-[ सम्मुच्छणा मणुस्सा ] सम्मूर्छन मनुष्य [ अज्जवखंडेसु ] आर्यखंडमें ही [ णियमेण ] नियमसे [ होति ] होते हैं [ ते पुण लद्धिअपुण्णा ] वे लब्ध्यपर्याप्तक ही हैं [ णारय देवा वि ते दुविहा ] नारकी तथा देव, पर्याप्त और नित्यपर्याप्तके भेदसे चार प्रकारके हैं । भावार्थः-इस तरह तिर्यंचोंके पिच्यासी भेद, मनुष्योंके नौ और नारकी तथा देवोंके चार, सब मिलाकर अठयाणवे भेद हुए । बहुतोंको समानतासे एकत्रित करके कहने ( संग्रह करके संक्षेपसे कहने ) को समास कहते हैं । यहां पर बहुतसे जीवोंको संक्षेपसे कहनेको जीव समास जानना चाहिये । इस तरह जोवसमासका वर्णन किया । अब पर्याप्तिका वर्णन करते हैं आहारसरीरिदियणिस्सासुस्सासभास-मणसाणं । परिणइ वावारेसु य, जाओ छच्चेव सत्तीओ ॥१३४।। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा अन्वयार्थ:-[ आहारसरीरिंदियणिस्सासुस्सासभासमणसाणं ] आहार, शरीर, इन्द्रिय, स्वासोस्वास, भाषा और मन [ परिणइ वावारेसु य जाओ छच्चेव सत्तीओ ] इनकी परिणमनकी प्रवृत्तिमें सामर्थ्य सो छह प्रकारकी पर्याप्ति है। भावार्थ:-आत्माके यथायोग्य कर्मका उदय होनेपर आहारादिक ग्रहणकी शक्तिका होना सो शक्तिरूप पर्याप्ति है वह छह प्रकारको है । अब शक्तिका कार्य कहते हैं तस्सेव कारणाणं, पुग्गलखंधाण जा हु णिप्पत्ति । सा पज्जत्ती भरणदि, छब्भेया जिणवरिंदेहिं ॥१३५॥ अन्वयार्थः-[ तस्सेव कारणाणं ] उस शक्ति प्रवृत्तिको पूर्णताको कारण जो [ पुग्गलखंधाण जा हु णिप्पचि ] पुद्गल स्कन्धों की निष्पत्ति ( पूर्णता होना ) [ सा ] वह [ जिणवरिंदेहिं ] जिनेन्द्र भगवान के द्वारा [ छब्भेया ] छह भेद वाली [ पजत्ती ] पर्याप्ति [ भण्णदि ] कही गई है। अब पर्याप्त नित्यपर्याप्तके काल को कहते हैं पज्जत्तिं गिह्नतो, मणुपज्जत्तिं ण जाव समणोदि । ता णिव्वत्ति अपुण्णो, मणपुगणो भएणदे पुण्णो ॥१३६॥ *पज्जत्तस्स य उदये, णिय णिय पज्जत्ति णिविदो होदि । जाव सरीरमपुण्णं, णिव्वत्तियपुण्णगो ताव ॥१॥ अन्वयार्थः-[ पज्जत्तस्स य उदये ] पर्याप्ति नामक नामकर्मके उदयसे [ णिय णिय पज्जत्ति गिट्टिदो होदि ] अपनी अपनी पर्याप्ति बनाता है [ जाव सरीरमपुण्णं ] जबतक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है [ ताव णिव्वत्तियपुण्णगो ] तबतक निर्वृत्त्यपर्याप्तक कहलाता है । भावार्थ:-जो पर्याप्ति कर्मके उदय होनेसे लब्धि ( शक्ति ) की अपेक्षासे पर्याप्त है किन्तु निर्वृत्ति ( शरीरपर्याप्ति बनने ) की अपेक्षा पूर्ण नहीं है वह निर्वृत्त्यपर्याप्तक कहलाता है । तिण्णसया छत्तीसा, छावठ्ठीसहस्सगाणि मरणानि । अन्तोमुहुत्तकाले, तावदिया चेव खुद्दभवा ।।२।। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ कातिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ पज्जत्ति गिहतो ] यह जीव पर्याप्तिको ग्रहण करता हुआ [ जाव ] जबतक [ मणुपज्जत्ति ] मनपर्याप्तिको [ समणोदि ण ] पूर्ण नहीं करता है [ ता णिव्यत्ति अपुण्णो ] तबतक निर्वृत्यपर्याप्तक कहलाता है [ मणपुण्णो पुण्णो भण्णदे ] जब मनपर्याप्ति पूर्ण हो जाती है तब पर्याप्तक कहलाता है । भावार्थः–यहां सैनी पंचेन्द्रिय जीवकी अपेक्षा मनमें रख कर ऐसा कथन किया है । अन्य ग्रन्थों में जबतक शरीर पयाप्ति पूर्ण नहीं होती है तबतक निर्वृत्यपर्याप्तक है, ऐसा कथन सब जीवोंका कहा है । अन्वयार्थः-[अंतोमुहुत्तकाले] लब्ध्यपर्याप्तक जीवके एक अंतर्मुहूर्तमें [ तिण्णसया छत्तीसा छावठ्ठीसहस्सगाणि मरणानि ] ६६३३६ क्षुद्रमरण होते हैं [ तावदिया चेव खुद्दभवा ] और उतने ही क्षुद्र जन्म होते हैं। सोदोसठ्ठातालं, वियले चउवास होंति पंचक्खे । छावठ्ठि च सहस्सा, सयं च बत्तीसमेयक्खे ॥ ३॥ अन्वयार्थः-[ वियले सीदीसठ्ठातालं ] अन्तर्मुहूर्तकालमें द्वींद्रिय लब्ध्यपर्याप्तक ८०, त्रींद्रिय लब्ध्यपर्याप्तक ६०, चतुरिंद्रिय लब्ध्यपर्याप्नक ४०, [ पंचक्खे चउवास ] पंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तक २४ [ एयक्खे छावठ्ठि च सहस्सा सयं च बत्तीसं ] और एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक ६६१३२ [ होंति ] जन्म मरण करते हैं। ___ भावार्थः-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रियके समस्त भवोंको मिलानेसे ६६३३६ क्षुद्रभव होते हैं। पुढविदगागणिमारुदसाहारणथूलसुहमपत्तेया। एदेसु अपुण्णेसु य, एक्केक्के वारखं छक्कं ॥ ४ ॥ अन्वयार्थः--[पुढविदगागणिमारुवसाहारणथूलसुहमपत्तेया] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु ये चारों ही वादर और सूक्ष्म इसप्रकार आठ भेद हुए तथा वादरसाधारण, सूक्ष्मसाधारण और प्रत्येक इसप्रकार तीन भेद वनस्पतिके हुए [ एदेसु अपुण्णेसु य एक्केक्के वारखं छक्कं ] इन ग्यारह प्रकारके एकेन्द्रिय जीवोंमें हर एक जीवके एक अन्तर्मुहूर्तमें ६०१२ जन्म मरण होते हैं । इसप्रकार सबका योग करनेसे एकेन्द्रिय जीवोंके ६६१३२ भव होते हैं। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा अब लब्ध्यपर्याप्तका स्वरूप कहते हैं उस्सासट्टारसमे, भागे जो मरदि ण य समाणेदि। एका वि य पज्जत्ती, लद्धि-अपुण्ण हवे सो दु ॥१३७॥ अन्वयार्थः- [ जो उस्सासद्वारसमे भागे मरदि ] जो जीव स्वासके अठारहवें भागमें मरता है [ एका वि य पज्जती ण य समाणेदि ] एक भी पर्याप्तिको पूर्ण नहीं करता है [ सो दु लद्धिअपुण्णो हवे ] वह जीव लब्ध्यपर्याप्तक कहलाता है । अब एकेन्द्रियादि जीवोंके पर्याप्तियोंकी संख्या कहते हैं लद्धियपुगणे पुगणं, पज्जत्ती एयक्ववियलसण्णीणं । चदु पण छक्कं कमसो, पज्जत्तीए वियाणेह ॥१३८॥ अन्वयार्थ:-[ एयक्खवियलसण्णीणं ] एकेन्द्रिय, विकलत्रय तथा संज्ञी जीवके [ कमसो ] क्रमसे [ चदु पण छक्कं ] चार, पांच, छह [ पज्जत्तीए वियाणेह ] पर्याप्तियां जानो [ लद्धियपुण्ण पुण्णं ] लब्ध्यपर्याप्तक अपर्याप्तक है इसके पर्याप्तियां नहीं होती। भावार्थः-एकेन्द्रियादिके क्रमसे पर्याप्तियां कही हैं। यहां असैनीका नाम लिया नहीं सो सैनीके छह, तो असैनीके पांच जानना चाहिये । नित्यपर्याप्तक ग्रहण किये ही हैं. पूर्ण होंगे ही, इसलिये जो संख्या कही है सो ही है । लब्ध्यपर्याप्तक यद्यपि ग्रहण किया है तथापि पूर्ण हो सका नहीं इसलिये उसको अपूर्ण ही कहा ऐसा सूचित होता है । इस तरह पर्याप्तिका वर्णन किया । __अब प्राणोंका वर्णन करते हैं । पहिले प्राणोंका स्वरूप वा संख्या कहते हैं मणवयणकायइंदियणिस्सासुस्सासआउ उदयाणं । जेसिं जोए जम्मदि, मरदि विप्रोगम्मि ते वि दह पाणा॥१३६।। अन्वयार्थ:-[ मणवयणकायइंदियणिस्सासुस्सासमाउ उदयार्ण ] जो मन, वचन काय, इन्द्रिय, स्वासोस्वास और आयु [जेसि जोए जम्मदि ] इनके संयोगसे उत्पन्न हो जीवे [ विओगम्मि मरदि ] वियोगसे मरे [ ते पाणा दह ] वे प्राण हैं और वे दस होते हैं । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० कार्तिकेयानुप्रेक्षा भावार्थ:-जीवका अर्थ प्राण धारण करना है । व्यवहारनयसे दस प्राण होते हैं । उनमें यथायोग्य प्राणसहित जीवे उसकी जीवसंज्ञा है। अब एकेन्द्रियादि जोवोंके प्राणोंको संख्या कहते हैंएयक्खे चदुपाणा, बितिचउरिदिय असएिणसण्णीणं । छह सत्त अट्ठ णवयं, दह पुण्णाणं कमे पाणा ॥१४०॥ अन्वयार्थ:-[ एयक्खेचदुपाणा ] एकेन्द्रियके चार प्राण हैं [ वितिचउरिंदिय असण्णिसण्णीणं पुण्णाणं कमे छह सत्त अट्ठ णवयं दह पाणा ] दोइन्द्रिय, तेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असैनी पंचेन्द्रिय, सैनी पंचेन्द्रियके, पर्याप्तोंके अनुक्रमसे छह, सात, आठ, नो, दस प्राण हैं । ये प्राण पर्याप्त अवस्थामें कहे गये हैं। अब इन ही जीवोंके अपर्याप्त अवस्थामें कहते हैंदुविहाणमपुराणाणं, इगिवितिचउरक्ख अंतिमदुगाणं । तिय चउ पण छह सत्त य, कमेण पाणा मुणेयव्वा ॥१४१॥ अन्वयार्थ:-[ दुविहाणमपुण्णाणं इगिवितिचउरक्ख अंतिमद्गाणं ] दो प्रकारके अपर्याप्त जो एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय असैनी तथा सैनी पंचेन्द्रियों के [तिय चउ पण छह सत्त य कमेण पाणा मुणेयव्वा ] तीन, चार, पाँच, छह, सात ऐसे अनुक्रमसे प्राण जानना चाहिये । भावार्थ:-निवृत्त्यपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त एकेन्द्रियके तीन, द्वीन्द्रियके चार, तेइन्द्रियके पाँच, चतुरिन्द्रियके छह, असैनी सैनी पंचेन्द्रियके सात प्राण जानना चाहिये। अब विकलत्रय जीवोंका ठिकाना ( स्थान ) कहते हैंवितिचउरक्खा जीवा, हवंति णियमेण कम्मभूमीसु । चरमे दीवे अद्धे, चरमसमुद्दे वि सव्वेसु ॥१४२॥ अन्वयार्थः-[ वितिचउरक्खा जीवा ] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ( विकलत्रय ) जीव [ णियमेण कम्मभूमीसु हवंति ] नियमसे कर्मभूमिमें ही होते हैं [ चरमे दीवे अद्धे ] तथा अन्तके आधे द्वीपमें [ चरमसमुद्दे वि सम्वेसु ] और अन्तके सम्पूर्ण समुद्र में होते हैं। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा ७१ भावार्थ:- पाँच भरत, पाँच ऐरावत, पाँच विदेह ये कर्मभूमिके क्षेत्र हैं तथा अन्तके स्वयंप्रभ द्वीपके मध्य स्वयंप्रभ पर्वत है उससे आगे आधा द्वीप तथा अन्तका स्वयंभूरमण पूरा समुद्र इन स्थानों में विकलत्रय हैं और स्थानोंमें नहीं हैं । अब अढाई द्वीप के बाहर तिर्यंच हैं उनकी व्यवस्था हैमवत क्षेत्रके समान है ऐसा कहते हैं माणुसखिस्स वहिं चरमे दीवस्स अद्धयं जाव | सव्वत्थे वितिरिच्छा, हिमवद तिरिएहिं सारिच्छा ॥१४३॥ अन्वयार्थः- [ माणुसखित्तस्स बर्हि ] मनुष्यक्षेत्र से बाहर मानुषोत्तर पर्वतसे आगे [ चरमे दीवस अद्वयं जाव ] अन्तके स्वयंप्रभ द्वोपके आधे भाग तक [ सव्वत्थे वि तिरिच्छा ] बीचके सब द्वीप समुद्रोंके तिर्यंच [ हिमवदतिरिएहिं सारिच्छा ] हैमवत क्षेत्र के तिर्यंचोंके समान हैं । भावार्थ:- हैमवतक्षेत्र में जघन्य भोगभूमि है । मानुषोत्तर पर्वत से आगे असंख्यात द्वीप समुद्र अर्थात् आधे स्वयंप्रभ नामक अन्तिम द्वीप तक सब स्थानों में जघन्य भोगभूमिकी रचना है बहाँके तिर्यंचोंकी आयु काय हैमवत क्षेत्रके तिर्यंचोंके समान है । अब जलचर जीवोंके स्थान कहते हैं लवणोए कालोए, अंतिमजल हिम्मि जलयरा संति । सेससमुद्द ेसु पुणो, ण जलयरा संति खियमेण ॥१४४॥ अन्वयार्थः - [ लवणोए कालोए ] लवणोदधि समुद्र में, कालोदधि समुद्र में [ अंतिम जलहिम्मि जलयरा संति ] अन्तके स्वयंभूरमण समुद्र में जलचर जीव हैं [ ससमुदे पुणो ] और अवशेष बीचके समुद्रों में [ नियमेण जलयरा ण संति ] नियमसे जलचर जीव नहीं हैं । अब देवोंके स्थान कहेंगे । पहिले भवनवासी व्यन्तरोंके कहते हैंखरभायपंकभाए, भावणदेवाण होंति भवणाणि । वितरदेवाण तद्दा, दुह पि य तिरिय लोयम्मि ॥ १४५ ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ खरभायपंकमाए ] खरभाग पंकभागमें [ भावणदेवाण ] भवनवासियों के [ भवणाणि ] भवन [ तहा ] तथा [वितरदेवाण ] व्यन्तर देवोंके निवास [ होंति ] हैं [दुहपि य तिरियलोयम्मि] और इन दोनोंके तिर्यग्लोकमें भी निवास हैं । भावार्थ:-पहिली पृथ्वी रत्नप्रभा एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है । उसके तीन भाग हैं, उनमें खरभाग सोलह हजार योजनका है। उसमें असुरकुमार बिना नौ कुमार भवनवासियोंके भवन हैं तथा राक्षसकुल बिना सात कुल व्यन्त रोंके निवास हैं। दूसरा पंकभाग चौरासी हजार योजनका है उसमें असुरकुमार भवनवासी तथा राक्षसकुल व्यन्तर रहते हैं । तिर्यग्लोक (मध्यलोक) के असख्याते द्वीप समुद्रों में भवनवासियों के भी भवन हैं और व्यन्तरोंके भी निवास हैं । अब ज्योतिषी, कल्पवासी तथा नारकियोंके स्थान कहते हैं जोइसियाण विमाणा, रज्जूमित्ते वि तिरियलोए वि । कप्पसुरा उड्ढह्मि य, अहलोए होंति णेरइया ॥१४६।। अन्वयार्थः- [जोइसियाण विमाणा ] ज्योतिषो देवोंके विमान [ रज्जमित्ते वि तिरियलोए वि] एक राजू प्रमाण तिर्यग्लोक के असंख्यात द्वीप समुद्रोंके ऊपर हैं [ कप्पसुरा उड़ढमि य ] कल्पवासी ऊर्ध्वलोकमें है [ णेरइया अहलोए होंति ] नारकी अधोलोकमें हैं। अब जीवोंकी संख्या कहेंगे । पहिले तेजवातकायके जीवोंकी संख्या कहते iho वादरपज्जत्तिजुदा, घणावलिया असंख-भागा दु। किंचूणलोयमित्ता, तेऊ वाऊ जहाकमसो ॥१४७॥ अन्वयार्थः-[ तेऊ वाऊ ] अग्निकाय, वातकायके [ बादरपजत्तिजुदा ] वादरपर्याप्तसहित जीव [ घणआवलिया असंखभागा दु] धन आवलीके असंख्यातवें भाग [किंचणलोयमिचा ] तथा कुछ कम लोकके प्रदेशप्रमाण [ जहाकमसो ] यथा अनुक्रम जानना चाहिये। भावार्थ:-अग्निकायके जीव घनआवलोके असंख्यातवें भाग, वात कायके कुछ कम लोकप्रदेशप्रमाण हैं । , Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा अब पृथ्वी आदिकी संख्या कहते हैं पुढवीतोयसरीरा, पत्तेया वि य पइट्ठिया इयरा । होति असंखा सेढी, पुण्णापुण्णा यत ह य तसा॥१४८।। ___ अन्वयार्थः- [ पुढवीतोयसरीरा ] पृथ्वीकायिक, अप्कायिक [ पत्तेया वि य पइट्रिया इयरा ] प्रत्येक वनस्पतिकायिक सप्रतिष्ठित वा अप्रतिष्ठित [ तह य तसा ] तथा बस ये सब [ पुण्णापुण्णा ] पर्याप्त अपर्याप्त जीव हैं [ असंखा सेढी होंति ] वे जुदे जुदे . असंख्यात जगतश्रेणीप्रमाण हैं । वादरद्धि अपुण्णा, असंखलोया हवंति पत्तेया। तह य अपुण्णा सुहुमा, पुण्णा वि य संखगुणगणिया॥१४६।। अन्वयार्थः-[ परोया ] प्रत्येक वनस्पति तथा [ वादरलद्धिअपुण्णा ] वादर लब्ध्यपर्याप्तक जीव [ असंखलोया हवंति ] असंख्यात लोकप्रमाण हैं [तह य अपुण्णा सुहुमा ] इसी तहर सूक्ष्मअपर्याप्त असंख्यात लोकप्रमाण हैं [पुण्णा वि य संखगुणगणिया] और सूक्ष्मपर्याप्तक जीव संख्यातगुणे हैं । सिद्धा संति अणंता, सिद्धाहितो अणंतगुणगणिया। होंति णिगोदा जीवा, भाग अणंता अभव्वा य ॥१५०॥ अन्वयार्थः- [ सिद्धा अणंता संति ] सिद्ध जीव अनन्त हैं [ सिद्धाहितो अणंतगुणगणिया णिगोदा जीवा होति ] सिद्धोंसे अनन्तगुणे निगोदिया जीव हैं [ भाग अणंता अभव्या य ] और सिद्धोंके अनन्तवें भाग अभव्य जीव हैं । सम्मुच्छिमा हुमणुया, सेढियसंखिज्ज भागमित्ता हु। गब्भजमणुया सव्वे, संखिज्जा होति णियमेण ॥१५१॥ अन्वयार्थः-[ सम्मुच्छिा हु मणुया ] सम्मूर्छन मनुष्य [ सेढियसंखिज भागामिचा हु] जगतश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र हैं [ गब्भजमणुया सव्वे ] और सब गर्भज मनुष्य [णियमेण संखिज्जा होंति ] नियमसे संख्यात ही हैं। अब सान्तर निरन्तरको कहते हैंदेवा वि णारया वि य, लद्धियपुण्णा हु संतरा होति । सम्मुच्छिया वि मणुया, सेसा सव्वे णिरंतरया ।।१५२॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ :- [ देवाविणारया वि य लद्धियपुण्णा हु ] देव, नारकी, लब्ध्यपर्याप्त [ सम्मुच्छिया वि मणुया ] और सम्मूर्छन मनुष्य [ संतरा होंति ] ये तो सान्तर ( अन्तर सहित ) हैं [ सेसा सव्वे निरंतरया ] अवशेष सब जीव निरन्तर हैं । ७४ भावार्थ:- पर्यायसे अन्य पर्याय पावे, फिर उसी पर्यायको पावे, जबतक बीच में अन्तर रहे उसको सान्तर कहते हैं । यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर कहा है । जो देव, नारकी मनुष्य तथा लब्ध्यपर्याप्तक जीवकी उत्पत्ति किसी कालमें न होय सो अन्तर कहलाता है और अन्तर न पड़े सो निरन्तर कहलाता है । वह वैक्रियकमिश्र काययोगी जो देव नारकी उनका तो बारह मुहूर्त्तका कहा है । कोई ही उत्पन्न न हो तो बारह मुहूर्त्त तक उत्पन्न नहीं होता है और सम्मूर्च्छन मनुष्य कोई ही न होय तो पल्यके असंख्यातवें भाग काल तक न होय । ऐसा अन्य ग्रन्थों में कहा है । अवशेष सब जीव निरन्तर उत्पन्न होते हैं । अब जीवोंकी संख्या कर अल्प बहुत्व कहते हैं यादो रइया, सव्वे हवंति देवा, रइयादो असंखगुणगणिया । पत्तेयवणफदी तत्तो ॥ १५३॥ अन्वयार्थः– [ मणुयादो रइया ] मनुष्योंसे नारकी [ असंखगुणगणिया हवंति ] असंख्यात गुणे हैं [ शेरइयादो सव्वे देवा ] नारकियोंसे सब देव असंख्यात गुणे हैं [ तचो पत्तेयवणफदी ] देवोंसे प्रत्येक वनस्पति जीव असंख्यात गुणे हैं । पंचक्खा चउरक्खा, लद्धिपुयण्णा तहेव तेयक्खा । वेक्खाविकमसो, विसेससहिदा हु सव्व संखाए ॥१५४॥ अन्वयार्थः – [ पंचक्खा चउरक्खा ] पंचेन्द्रिय, चौइन्द्रिय [ तहेव तेयक्खा ] तेइन्द्रिय [ वेक्खावि य ] द्वीन्द्रिय [ सव्व लद्भियपुण्णा ] ये सब लब्ध्यपर्याप्तक जीव [ संखाए विसेससहिदा ] संख्या में विशेषाधिक हैं । कुछ अधिकको विशेषाधिक कहते हैं सो ये अनुक्रमसे बढ़ते बढ़ते हैं । चउरक्खा पंचक्खा, वेयक्खा, तह य जाण तेयक्खा | एदे पज्जचिजुदा, अहिया अहिया कमेणेव ॥ १५५ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा ७५ अन्वयार्थः - [ चउरक्खा पंचक्खा ] चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय [ वैयक्खा तह य जाण तेयक्खा ] द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, [ एदे पजशिजुदा ] ये पर्याप्तिसहित जीव [कमेव ] अनुक्रमसे [ अहिया अहिया ] अधिक अधिक जानो । परिवज्जिय सुहुमाणं, सेसतिरिक्खाण पुराणदेहाणं । इक्को भागो होदि हु, संखातीदा अपुराणं ॥। १५६ ।। अन्वार्थः – [ सुहुमाणं परिवज्जिय ] सूक्ष्म जीवोंको छोड़कर [ सेसतिरिक्खाण पुण्णदेहाणं ] अवशेष पर्याप्तितिर्यंच हैं [ इक्को भागो होदि हु ] उनका एक भाग तो पर्याप्त है [ संखातीदा अपुण्णाणं ] और बहुभाग असंख्याते अपर्याप्त हैं । भावार्थ:-वादर जीवों में पर्याप्त थोड़े हैं, अपर्याप्त बहुत हैं । सुहुमापज्जत्ताणं, इक्को भागो हवेइ यि मेण । संखिज्जा खलु भागा, तेसिं पज्जत्तिदेहाणं ॥ १५७॥ अन्वयार्थः – [ सुहुमापजत्ताणं ] सूक्ष्म पर्याप्तक जीव [ संखिञ्जा खलु भागा ] संख्यात भाग हैं [ तेसिं पञ्जचिदेहाणं ] उनमें अपर्याप्तक जीव [ नियमेण ] नियमसे [ इक्को भागो हवे ] एक भाग हैं । भावार्थ:- सूक्ष्म जीवोंमें पर्याप्त बहुत हैं अपर्याप्त थोड़े हैं । संखिज्जगुणा देवा, अंतिमपटलादु आणदं जाव । तत्तों संखगुणिदा, सोहम्मं जाव पडि पडलं ॥ १५८ ॥ अन्वयार्थः - [ देवा अंतिमपटलादु आणदं जाव ] देव अन्तिमपटल ( अनुत्तर विमान ) से लेकर नीचे आनत स्वर्गके पटलपर्यंत [ संखिञ्जगुणा ] संख्यातगुणे हैं [ तत्तो ] उसके बाद नीचे [ सोहम्मं जाव ] सौधर्मपर्यंत [ असंखगुणिदा ] असंख्यातगुणे [ पडिपडलं ] पटलपटलप्रति हैं । सत्तमरणारयहिंतो, असंखगुणिदा हांति रइया | जावय पढमं णरयं, बहुदुक्खा होंति हेट्ठिट्ठा ||१५६ ।। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः- [ सत्तमणारयहितो ] सातवें नरकसे लेकर ऊपर [ जावय पढमं णरयं ] पहिले नरक तक जीव [ असंखगुणिदा हवंति ] असंख्यात २ गुणे हैं [ णेरइया ] पहिले नरकसे लेकर [ हेडिट्ठा ] नीचे २ [ बहुदुक्खा होंति ] बहुत दुःख हैं । कप्पसुरा भावणया, वितरदेवा तहेव जोइसिया । बे होंति असंखगुणा, संखगुणा होति जोइसिया ॥१६॥ अन्वयार्थः-[कप्पसुरा भावणया वितरदेवा ] कल्पवासी देवोंसे भवनवासी देव व्यन्तरदेव [बे असंखगुणा होति ] ये दो राशि तो असंख्यातगुणौ है [जोइसिया संखगुणा होंति ] और ज्योतिषी देव व्यन्तरोंसे संख्यातगुणे हैं । अब एकेन्द्रियादिक जीवोंकी आयु कहते हैं पत्तेयाणं आऊ, वाससहस्साणि दह हवे परमं । अन्तोमुत्तमाऊ, साहारणसव्वसुहमाणं ।।१६१।। अन्वयार्थ:-[ पत्तेयाणं ] प्रत्येक वनस्पतिकी [ परमं ] उत्कृष्ट [ आऊ ] आयु [ दह ] दस [ वाससहस्साणि ] हजार वर्षकी [ हवे ] है [ साहारणसव्वसुहुमाणं ] साधारणनित्य, इतरनिगोद सूक्ष्म वादर तथा सब ही सूक्ष्म पृथ्वी, अप, तेज, वातकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट [ आऊ ] आयु [ अंतोमुहुत् ] अंतर्मुहूर्त की है । अब बादर जीवोंकी आयु कहते हैंबावीस सत्तसहसा, पुढवीतोयाण आउर्स होदि । अग्गीणं तिरिण दिणा, तिगिण सहस्साणि वाऊणं ॥१६२॥ अन्वयार्थः- [पुढवीतोयाण आउसं ] पृथ्वीकायिक और अप्कायिक जीवोंकी उत्कृष्ट आयु क्रमसे [बावीस सत्तसहसा ] बाईस हजार वर्ष और सात हजार वर्षको [ होदि ] है [ अग्गीणं तिण्णि दिणा ] अग्निकायिक जीवोंको उत्कृष्ट आयु तीन दिनकी है [ तिण्णि सहस्साणि वाऊणं ] वायुकायिक जीवोंको उत्कृष्ट आयु तीन हजार वर्य की है। अब द्वीन्द्रिय आदिककी उत्कृष्ट आयु कहते हैंवारसवास वियक्खे एगुणवण्णा दिणाणि तेयक्खे । चउरक्खे छम्मासा, पंचक्खे तिरिण पल्लाणि ॥१६३॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ लोकानुप्रेक्षा अन्वयार्थ:-[ वारसवास वियक्खे ] द्वीन्द्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट आयु बारह वर्ष को है [ एगुणवण्णा दिणाणि तेयक्खे ] त्रीन्द्रिय जीवोंकी उत्कृष्ट आयु उनचास (४९) 'दिनकी है [ चउरक्खे छम्मासा ] चतुरिन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयु छह मासकी है [ पंचक्खे तिण्णि पल्लामि ] पचेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयु भोगभूमिकी अपेक्षा तीन पल्यकी है। अब सब ही तिर्यंच और मनुष्यों की जघन्य आयु कहते है सब्बजहणणं आऊ, लद्धिअपुण्णाण सव्वजीवाणं । मज्झिमहीणमुहुत्तं, पज्जत्तिजुदाण णिक्किट्ठ॥१६४॥ अन्वयार्थः-[ लद्धिअपुष्णाण सव्वजीवाणं ] लब्ध्यपर्याप्तक सब जीवोंकी [ सव्वजहण्णं आऊ ] जघन्य आयु [ मज्झिमहीणमुहुत्तं ] मध्यमहीन मुहूर्त है ( यह क्षुद्रभवमात्र जानना चाहिये एक उस्बासके अठारहवें भाग मात्र है ) [ पजत्तिजदाण णिक्किटुं ] लब्ध्य पर्याप्तक ( कर्मभूभि के तिर्यंच मनुष्य सबही पर्याप्त ) जीवोंकी जघन्य आयु भी मध्यमहीन मुहूर्त है ( यह पहिलेसे बड़ा मध्यअन्तर्मुहूर्त है )। अब देवनारकियोंकी आयु कहते हैं-- देवाण णारयाणं, सायरसंवा हवंति तेत्तीसा। उक्किट्ठच जहणणं, वासाणं दस सहस्साणि ।।१६५॥ अन्वयार्थ:-[ देवाण णारयाणं ] देवोंकी तथा नारकी जीवों की [ उक्कि₹1 उत्कृष्ट आयु [ तेतीसा ] तेतीस [ सायरसंखा हवंति ] सागरको है [ जहण्णं वासाणं दस सहस्साणि ] और जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है । भावार्थ:-यह सामान्य देवोंकी अपेक्षा कथन है विशेष त्रिलोकसार आदि ग्रन्थोंसे जानना चाहिये। अब एकेन्द्रिय आदि जीवोंकी शरीरकी अवगाहना उत्कृष्ट व जघन्य दस गाथाओं में कहते हैं--- अंगुलअसंखभागो, एयक्खचउक्कदेहपरिमाणं । जोयणसहस्समहियं, पउमं उक्कस्सयं जाण ॥१६६॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ एयक्खचउक्कदेहपरिमाणं ] एकेन्द्रिय चतुष्क ( पृथ्वी, अप, तेज, वायुकायके ) जीवोंकी अवगाहना [ उक्कसयं ] जघन्य तथा उत्कृष्ट [ अंगुलअसंखभागो ] घन अंगुलके असंख्यातवें भाग [ जाण ] जानो ( यहां सूक्ष्म तथा वादर पर्याप्तक अपर्याप्तकका शरीर छोटा बड़ा है तो भी घनांगुलके असंख्यातवें भाग ही सामान्यरूपसे कहा है । विशेष गोम्मटसारसे जानना चाहिये और अंगल उत्सेधअंगल आठ यव प्रमाण लेना, प्रमाणांगुल न लेना ) [जोयणसहस्सम हियं पउमं] प्रत्येक वनस्पति कायमें उत्कृष्ट अवगाहनायुक्त कमल है उसकी अवगाहना कुछ अधिक हजार योजन है। बायसजोयण संखो, कोसतियं गोब्भिया समुद्दिट्टा । भमरो जोयणमेगं, सहस्स सम्मुच्छिमो मच्छो ॥१६७॥ अन्वयार्थ:-[ वायसजोयण संखो ] द्वीन्द्रियोंमें शंख बड़ा है उसकी उत्कृष्ट अवगाहना बारह योजन लम्बी है [ कोसतियं गोब्भिया समुदिट्ठा ] त्रीन्द्रियोंमें गोभिका ( कानखिजूरा ) बड़ा है उसकी उत्कृष्ट अवगाहना तीन कोस लम्बी है [ भमरो जोयणमेगं ] चतुरिन्द्रियों में बड़ा भ्रमर है उसकी उत्कृष्ट अवगाहना एक योजन लम्बी है [ सहस्स सम्मुच्छिमो मच्छो ] पंचेन्द्रियों में बड़ा मच्छ है उसकी उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन लम्बी है ( ये जीव अन्तके स्वयंभूरमण द्वीप तथा समुद्र में जानने )। अब नारकियोंकी उत्कृष्ट अवगाहना कहते हैं:पंचसयाधणुछेहा, सत्तमणरए हवंति णारइया । तत्तो उस्सेहेण य, अद्धद्धा होंति उवरुवरि ॥१६८।। अन्वयार्थः-[ सत्तमणरए ] सातवें नरकमें [णारइया ] नारकी जीवोंका शरीर [पंचसयाधणुछेहा ] पाँचसौ धनुष ऊँचा [ हवंति ] है [ ततो उस्सेहेण य उवरुवरि अद्वद्धा होंति ] उसके ऊपर शरीरकी ऊँचाई आधी आधी है ( छठ्ठ में दोसौ पचास धनुष, पांचवेंमें एकसौ पञ्चीस धनुष, चौथेमें साढ़े बासठ धनुष, तीसरेमें सवा इकतीस धनुष, दूसरे में पन्द्रह धनुष दस आना, पहिले में सात धनुष तेरह आना इस तरह जानना चाहिये । इनमें गुणचास पटल है उनमें न्यारी न्यारी ( भिन्न भिन्न ) विशेष अवगाहना त्रिलोकसारसे जानना चाहिये ) । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा अब देवोंकी अवगाहना कहते हैं ससुराणं पणवीस, सेसं गवभावणाय दहदंडं । वितरदेवाण तहा, जोइसिया सत्तधगुदेहा ॥ १६६ ॥ अन्वयार्थः - [ असुराणं पणवीसं ] भवनवासियोंमें असुरकुमारोंके शरीरकी ऊँचाई पच्चीस धनुष [ सेसं णवभावणा य दहदंडं ] बाकी नौ भवनवासियोंकी दश धनुष [ वितरदेवाण तहा ] व्यन्तरोंके शरीरकी ऊँचाई दस धनुष [ जोइसिया साधणुदेहा ] और ज्योतिषी देवोंके शरीरकी ऊँचाई सात धनुष है अब स्वर्गके देवों की कहते हैं दुगदुगचदुचदुदुगदुगकप्पसुराणं सरीरपरिमाणं । सत्तछह पंचहत्था, चउरो अद्धद्ध होगा य ॥ १७० ॥ हिहिममज्झिमउवरिमगेवज्भे तह विमाणचउदसए । अजुदा वे हत्था, होणं अद्धद्धयं उवरिं ॥ १७१ ॥ अन्वयार्थः–[ दुगदुगचदुचदुदुगदुगकप्पसुराणं सरीरपरिमाणं ] दो ( सौधर्म, ईशान ) दो ( सानत्कुमार, माहेन्द्र ) चार ( ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ ) चार ( शुक्र, महाशुक्र, सतार, सहस्रार ) दो ( आनत, प्राणत ) दो ( आरण, अच्युत ) युगलोंके देवोंका शरीर क्रमसे [ सत्तछहपंचहत्था चउरो अद्धद्ध हीणा य ] सात हाथ, छह हाथ, पाँच हाथ, चार हाथ, साढ़े तीन हाथ, तीन हाथ ऊँचा है [ हिडिममज्झिमउवरिमवज्मे तह विमाणचउदस ] अधोन बेयक में, मध्यमग्र वेयक में, ऊपर के ग्रैवेयक में, नव ( 8 ) अनुदिश तथा पाँच अनुत्तरमें क्रमसे [ अद्धजुदा वे हत्था हीणं श्रद्धद्वयं उचरिं TET आधा हाथ हीन अर्थात् ढाई हाथ, दो हाथ, डेढ हाथ और एक हाथ देवोंके शरीर की ऊँचाई है । अब भरत ऐरावत क्षेत्र में कालकी अपेक्षासे मनुष्योंके शरीरकी ऊँचाई कहते हैं E अवसपिणिए पढमे, काले मण्या तिकोसउच्छे हो । छवि अवसाणे, हत्थपमाणा विवत्थाय ॥ १७२॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ:1:- [ अवसप्पिणिए पढमे काले मणुया तिकोसउच्छेहा ] अवसर्पिणी के प्रथम कालकी आदिमें मनुष्यों का शरीर तीन कोस ऊँचा होता है [ छस्स वि अवसाणे हत्थाणा वित्थाय ] छठे कालके अन्तमें मनुष्योंका शरीर एक हाथ ऊँचा होता है और छठे कालके जीव वस्त्रादि रहित होते हैं । अब एकेन्द्रिय जीवोंका जघन्य शरीर कहते हैं ८० सव्वजण देहो, लद्धिपुराणाण सव्वजीवाणं । हवे सो वि ॥१७३॥ अंगुलप्रसंखभागो, अयभे अन्वयार्थः – [ लद्धिअपुण्णाण सव्वजीवाणं ] लब्ध्यपर्याप्तक सब जीवोंका [देहो ] शरीर [ अंगुलअसंखभागो ] घनअंगुलके असंख्यातवें भाग है [ सव्वजहण्णो ] यह सब जघन्य है अय हवे सो वि ] इसमें भी अनेक भेद हैं । भावार्थ:- एकेन्द्रिय जीवोंका जघन्य शरीर भी छोटा बड़ा है सो घनांगुल के असंख्यातवें भाग में भी अनेक भेद हैं । इन अवगाहना के चौसठ भेदोंका वर्णन गोम्मटसारमें है वहाँ से जानना चाहिये । अब द्वीन्द्रिय आदिकी जघन्य अवगाहना कहते हैं विति चउपंचक्खाणं, जहगणदेहो हवेइ पुराणाणं । अंगुल असंभागो, संखगुणो सो वि उवरुवरिं ॥ १७४ ॥ अन्वयार्थः - [ विति चउपचक्खाणं ] द्वीन्द्रिय, त्रोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय [ पुण्णाणं ] पर्याप्त जीवोंका [ जहण्णदेहो ] जघन्य शरीर [ अंगुल असंखभागो ] घन अंगुलके असंख्यातवें भाग [ सो वि उवरुवरिं ] वह भी ऊपर ऊपर [ संखगुणो ] संख्यातगुणा है | 1 भावार्थ:- द्वीन्द्रिय के शरीर से संख्यातगुणा त्रीन्द्रियका शरीर है । त्रीन्द्रियसे संख्यातगुणा चतुरिन्द्रियका शरीर है। उससे संख्यातगुणा पंचेन्द्रियका है । अब जघन्य अवगाहनाके धारक द्वीन्द्रिय आदि जीव कौन कौन हैं सो कहते हैं आधरीयं कुन्थो, मच्छीकाणा य सालिसित्थो य । पज्जत्ताण तसाणं, जहरणदेहो विणिद्दिट्ठो ॥ १७५ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा ८१ अन्वयार्थः-[ आणुधरीयं कुन्थं ] द्वीन्द्रियोंमें अणुद्धरी जीव, त्रीन्द्रियोंमें कुन्थु जीव [ मच्छीकाणा य सालिसित्थो य ] चतुरिन्द्रियोंमें काणमक्षिका, पंचेन्द्रियों में शालिसिक्थक नामक मच्छ इन [ तसाणं ] त्रस [ पजत्ताण ] पर्याप्त जीवोंके [ जहण्णदेहो विणिहिट्ठो ] जघन्य शरीर कहा गया है । अब जीवके लोकप्रमाण और देहप्रमाणपना कहते हैंलोयपमाणो जीवो, देहपमाणो वि अस्थिदे खेत्ते । ओगाहणसत्तोदो, संहरणविसप्पधम्मादो ॥१७६॥ अन्वयार्थः-[ जीवो ] जीव [ संहारणविसप्पधम्मादो ] संकोच, विस्तार, धर्म तथा [ ओगाहणसत्तीदो] अवगाहनाकी शक्ति होने से [ लोयपमाणो ] लोकप्रमाण है [ देहपमाणो वि अस्थिदे खेते ] और देह प्रमाण भी है। भावार्थः–लोकाकाशके असंख्यात प्रदेश हैं इसलिये जीवके भी इतने ही प्रदेश हैं । केवल समूद्घात करता है उस समय लोकपूरण होता है । जीवमें संकोचविस्तारशक्ति है इसलिये जैसा शरीर पाता है उसीके प्रमाण रहता है और समुद्घात करता है तब शरीरके बाहर भी प्रदेश निकलते हैं । __अब कोई अन्यमती, जीवको सर्वथा सर्वगत ही कहते हैं उनका निषेध करते हैं सव्वगो जदि जीवो, सव्वत्थ वि दुक्खसुक्खसंपत्ती । जाइज्ज ण सा दिट्टी, णियतणुमाणो तदो जीवो ॥१७७॥ अन्वयार्थ:-[ जदि जीवो सव्वगओ] यदि जीव सर्वगत ही होवे तो [ सव्वत्थ वि दुक्खसुक्खसंपत्ती] सब क्षेत्रसम्बन्धी सुखदुःखकी प्राप्ति इसको [ जाइज ] होवे [ सा ण दिट्ठी ] परन्तु ऐसा तो दिखाई देता नहीं है [ तदो जीवो ] इसलिये जीव [णियतणुमाणो ] अपने शरीर प्रमाण ही है।। जीवो णाणसहाबो, जह अग्गी उलओ सहावेण । अत्यंतरभूदेण हि, णाणेण ण सो हवे णाणी ॥१७॥ अन्वयार्थः- [जह अग्गी ] जैसे अग्नि [ सहावेण ] स्वभावसे [ उलओ ] उष्ण है [ जीवो णाणसहावो ] वैसे ही जीव ज्ञानस्वभाव है [ अत्यंतरभूदेण हि ] इसलिये Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अर्थान्तरभूत ( अपनेसे प्रदेशरूप जुदा ) [णाणेण ण सो हवै णाणी ] ज्ञान से ज्ञानी नहीं है। भावार्थ:-नैयायिक आदि, जीव और ज्ञानको प्रदेशभेद मानकर कहते हैं कि आत्मासे ज्ञान भिन्न है परन्तु समवाय तथा संसर्गसे एक हो गया है इसलिये ज्ञानी कहलाता है जैसे कि धनसे धनी कहलाता है । ऐसा मानना असत्य है। जैसे अग्नि और उष्णताके अभेदभाव है वैसे हो आत्मा और ज्ञानके तादात्म्यभाव है । अब भिन्न मानने में दूषण दिखाते हैं जदि जीवादो भिरणं, सव्वपयारेण हवदि तं णाणं । गुणगुणिभावो य तदा, दूरेण प्पणस्सदे दुण्हं ॥१७६।। अन्वयार्थः- [जदि जीवादो भिण्णं सव्वपयारेण हवदि तं गाणं ] यदि जीवसे ज्ञान सर्वथा भिन्न ही माना जाय तो [गुणगुणिभावो य तदा दुरेण प्पणस्सदे दुण्हं ] उन दोनोंके गुणगुणिभाव दूरसे ही नष्ट हो जावें । भावार्थ:-यह जीव द्रव्य है, यह इसका ज्ञान गुण है ऐसा भाव नहीं रहे । अब कोई पूछे कि गुण और गुणीके भेद बिना दो नाम कैसे कहे जाते हैं उसका समाधा जीवस्स वि णाणस्स वि, गुणगुणिभावेण कीरए भेो। जं जाणदि तं णाणं, एवं भेो कहं होदि ।।१८०॥ अन्वयार्थ:-[ जीवस्स वि णाणस्स वि ] जीव और ज्ञानके [गुणगुणिभावेण ] गुणगुणिभावसे [ भेओ ] कथंचित् भेद [ कीरए ] किया जाता है [ जं जाणदि णाणं ] 'जो जानता है वह ही आत्माका ज्ञान है' [ एवं भेओ कहं होदि ] ऐसा भेद कैसे होता है। मावार्थ:-सर्वथा भेद होवे तो 'जो जानता है वह ज्ञान है' ऐसा अभेद कैसे कहा जाता है इसलिये कथंचित् गुणगुणीभावसे भेद कहा जाता है, प्रदेशभेद नहीं है । इस तरह कई अन्यमती गुणगुणी में सर्वथा भेद मानकर जीव और ज्ञानके सर्वथा अर्थान्तर भेद मानते हैं उनके मतका निषेध किया। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा अब चार्वाकमती ज्ञानको पृथ्वी आदिका विकार मानते हैं उसका निषेध करते हैं णाणं भूयवियारं, जो मण्णदि सो वि भूदगहिदव्वो। जीवेण विणा णाणं, किं केण वि दीसए कत्थ ॥१८१॥ अन्वयार्थ:-[ जो ] जो चार्वाकमती [ णाणं भूयवियारं मण्णदि ] ज्ञानको . पृथ्वी आदि पंच भूतोंका विकार मानता है [ सो वि भूदगहिदव्यो ] वह चार्वाक, भूत ( पिशाच ) द्वारा ग्रहण किया हुआ है [ जीवेण विणा णाणं ] क्योंकि बिना ज्ञानके जीव [ किं केण वि कत्थ दीसए ] क्या किसीसे कहीं देखा जाता है ? अर्थात् कहीं भी ऐसा दिखाई नहीं देता है । अब इसको दूषण ( दोष ) बताते हैंके सच्चेयण पच्चपखं, जो जीवं णेय मण्णदे मूढी। सो जीवं ण मुणंतो, जीवाभावं कहं कुणदि ॥१८२।। अन्वयार्थः--[ सच्चेयण पञ्चक्खं ] यह जीव सत्रूप और चैतन्यस्वरूप स्वसंवेदन प्रत्यक्ष प्रमाणसे प्रसिद्ध है [ जो जीवं णेय मण्णदे ] जो चार्वाक जीवको ऐसा नहीं मानता है [ सो मूढो ] वह मूर्ख है [ जो जीवं ण मुणंतो ] और जो जीवको नहीं जानता है नहीं मानता है तो वह [ जीवाभावं कहं कुणदि ] जीवका अभाव कैसे करता है। भावार्थ:-जो जीवको जानता ही नहीं है वह उसका अभाव भी नहीं कह सकता है । अभावका कहनेवाला भी तो जीव ही है क्योंकि सद्भाव बिना अभाव कहा नहीं जा सकता। अब इसी मतवालेको युक्तिसे जीवका सद्भाव दिखाते हैं जदि ण य हवेदि जीओ, ता को वेदेदि सुक्खदुक्खाणि । इन्दियविसया सब्बे, को वा जाणदि विसेसेण ॥१८३॥ अन्वयार्थः--[ जदि जीओ ण य हवेदि ] यदि जीव नहीं होवे तो [ सुक्खदुक्खाणि ] अपने सुखदुःखको [ को वेदेदि ] कौन जानता है और [ ई दियविसया सव्वे ] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा इन्द्रियोंके स्पर्श आदि सब विषयोंको [ विसेसेण ] विशेषरूपसे [ को वा जाणदि ] कौन जानता है। भावार्थ:-चार्वाक प्रत्यक्षप्रमाण मानता है वह अपने सुखदुःखको तथा इन्द्रियोंके विषयोंको जानता है सो प्रत्यक्ष है । जीवके बिना प्रत्यक्षप्रमाण किसके होता है ? इसलिये जीवका सद्भाव अवश्य सिद्ध होता है। अब आत्माका सद्भाव जैसे बनता है वैसे कहते हैंसंकप्पमओ जीवो, सुहदुक्खमयं हवेइ संकप्पो । तं चिय वेददि जीवो, देहे मिलिदो वि सव्वत्थ ॥१८४॥ अन्वयार्थः-[ जीवो संकप्पमओ ] जीव संकल्पमयी है [ संकप्पो सुहदुक्खमयं हवेइ ] संकल्प सुखदुःखमय है [ तं चिय वेददि जीवो ] उस सुखदुःखमयी संकल्पको जानता है वह जीव है [ देहे मिलिदो वि सव्वत्थ ] वह देहमें सब जगह मिल रहा है तो भी जाननेवाला जीव है । अब जीव देहमें मिला हआ सब कार्यों को करता है यह कहते हैंदेहमिलिदो वि जीवो, सव्वकम्माणि कुव्वदे जम्हा । तम्हा पयट्टमाणो, एयत्तं बुज्झदे दोण्हं ॥१८५॥ अन्वयार्थः-[ जम्हा ] क्योंकि [ जीवो ] जीव [ देहमिलिदो वि ] देहसे मिला हुआ ही [ सव्वकम्माणि कुव्वदे ] ( कर्म नोकर्मरूप ) सब कार्योंको करता है [ तम्हा पयट्टमाणो ] इसलिए उन कार्यों में प्रवृत्ति करते हुए लोगोंको [ दोण्हं एय बुज्झदे] दोनों ( देह और जीव ) के एकत्व दिखाई देता है। भावार्थ:-लोगोंको देह और जीव न्यारे ( जुदे ) तो दिखाई देते नहीं हैं दोनों मिले हुए दिखाई देते हैं । संयोगसे ही कार्यों की प्रवृत्ति दिखाई देती है इसलिये दोनोंको एक ही मानते हैं । अब जीवको देहसे भिन्न जानने के लिये लक्षण दिखाते हैंदेहमिलिद वि पिच्छदि, देहमिलिदो वि णिसुण्णदे सद्द। देहमिलिदो वि भुजदि, देह मिलिदो वि गच्छेदि ॥१८६॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ लोकानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ देहमिलिदो वि पिच्छदि ] जीव देहसे मिला हुआ ही आँखोंसे पदार्थोंको देखता है [ देहमिलिदो वि णिसुण्णदे सदं ] देहसे मिला हुआ ही कानों से शब्दोंको सुनता है [ देहमिलिदो वि भुजदि ] देहसे मिला हुआ ही मुखसे खाता है जीभसे स्वाद लेता है [ देहमिलिदो वि गच्छेदि ] देहसे मिला हुआ ही पैरोंसे गमन करता है। भावार्थ:-देहमें जीव न होय तो जड़रूप केवल देह ही के देखना, स्वाद लेना, सुनना, गमन करना ये क्रियायें नहीं होवें इसलिये जाना जाता है कि देहसे न्यारा जीव है और वह ही इन क्रियाओंको करता है । अब इस तरह जीवको मिला हुवा मानने वाले लोग भेदको नहीं जानते हैं ऐसा कहते हैं राओ हं भिच्चो हं, सिट्ठी हं चेव दुव्वलो बलिओ। इदि एयत्ताविट्ठो दोण्हं भेयं ण बुज्झदि ॥१८॥ ___ अन्वयार्थः-[ एयत्ताविट्ठो ] देह और जीवके एकत्वको मान्यता वाले लोग ऐसा मानते हैं कि [ राओ हं ] मैं राजा हूँ [भिच्चो हं ] मैं भृत्य ( नौकर ) हैं | सिदी हं ] मैं सेठ ( धनी ) हूँ [चेव दुव्वलो ] मैं दुर्बल हूँ, मैं दरिद्र हैं, मैं निर्बल हैं बलिओ ] मैं बलवान हूँ [ इदि ] इसप्रकारसे [ दोण्ह भयं ण बुज्झदि ] देह और जीवके ( दोनोंके ) भेदको नहीं जानते हैं । अब जीवके कत्तत्व आदिको चार गाथाओंसे कहते है जीवो हवेइ कत्ता, सव्वं कम्माणि कुव्वद जम्हा । कालाइलद्धिजुत्तो, संसारं कुणइ मोक्खं च ॥१८॥ अन्वयार्थः-[ जम्हा ] क्योंकि [ जीवो ] यह जीव [ सव्वं कम्माणि कुव्वदे ] सब कर्म नोकर्मों को करता हुआ अपना कर्त्तव्य मानता है इसलिये [ कत्ता हवेइ ] कर्ता Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा भी है [ संसारं कुणइ ] सो अपने संसारको करता है [ कालाइलद्धिजत्तो ] और *काल आदि लब्धिसे युक्त होता हुवा [ मोक्खं च ] अपने मोक्षको भी आप ही करता है। भावार्थ:-कोई जानते हैं कि इस जीवके सुखदुःख आदि कार्योंको ईश्वर आदि कोई अन्य करता है परन्तु ऐसा नहीं है, आप ही कर्ता है । सब कार्यों को स्वयं ही करता है, संसारको भी आप ही करता है, कालादि लब्धिसे युक्त होता हुवा मोक्षको भी आप ही करता है । सब कार्यों के प्रति द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप सामग्री निमित्त है ही। जीवो वि हवइ भुत्ता, कम्मफलं सो वि भुजदे जम्हा । कम्मविवायं विविहं, सो वि य भुजेदि संसारे ॥१८॥ जहाँ २ काललब्धि शब्द आवे वहाँ मोक्षमार्गप्रकाश अ० ६ पत्र ४६२ के अनुसार ऐसा अर्थ लगाना चाहिये प्रश्र-मोक्षका उपाय काललब्धि आने पर भवितव्यतानुसार बनता है या मोहादिकका उपशमादि होने पर बनता है अथवा अपने पुरुषार्थसे उद्यम करने पर बनता है ? यदि पहिले दो कारण मिलने पर बनता है तो हमको उपदेश क्यों दिया जाता है ? यदि पुरुषार्थसे बनता है तो उपदेश सब ही सुनते हैं तो उनमें कोई तो उपाय कर सकता है, कोई नहीं कर सकता है सो क्या कारण है ? इसका समाधान एक कार्य होने में अनेक कारण मिलते हैं इसलिये जहाँ मोक्षका उपाय बनता है वहाँ तो पूर्वोक्त तोनों ही कारण मिलते हैं और नहीं बनता है वहाँ तीनोंही कारण नहीं मिलते हैं। पूर्वोक्त तीनों कारणोंमें काललब्धि या होनहार तो कुछ वस्तु नहीं है। जिस काल में कार्य बनता है वह हो काललब्धि और जो कार्य हुवा सो ही होनहार । कर्मके उपशमादि पुद्गलकी शक्ति है उसका कर्ता हर्ता आत्मा नहीं है । पुरुषार्थसे उद्यम करते हैं यह आत्माका कार्य है, इसलिये आत्माको पुरुषार्थसे उद्यम करनेका उपदेश दिया जाता है । जब यह आत्मा, जिस कारणसे कार्यसिद्धि अवश्य हो उस कारणरूप उद्यम करता है तो अन्य कारण मिलते ही मिलते हैं और कार्यकी भो सिद्धि होवे ही होवे । जिस कारणसे कार्यसिद्धि हो अथवा नहीं भी हो, उस कारणरूप उद्यम करे, वहाँ अन्य कारण मिलें तो कार्यसिद्धि हो जाती है, नहीं मिलें तो सिद्धि नहीं होती है । इसलिये जिनमतमें जो मोक्षका उपाय कहा गया है उससे मोक्ष होवे ही होवे । अतः जो जीव पुरुषार्थपूर्वक जिनेश्वर के उपदेश अनुसार मोक्षका उपाय करता है उसके काललब्धि या होनहार भी हुआ और कर्मका उपशमादि भी हुआ है तो यह ऐसा उपाय करता है इसलिये जो पुरुषार्थसे मोक्षका उपाय करता है उसको सब कारण मिलते हैं ऐसा निश्चय करना और उसको अवश्य मोक्षकी प्राप्ति होती है । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा अन्वयार्थः - [ जम्हा ] क्योंकि [ जीवो वि कम्मफलं भुजदे ] जीव कर्मफलको संसार में भोगता है [ सो विभुत्ता हवइ ] इसलिये भोक्ता भी यही है और [ सोविय संसारे ] वह ही संसार में [ विविहं कम्मविवायं भुजेदि ] सुखदुःखरूप अनेक प्रकारके कर्मों के विपाकको भोगता है । जीवो वि हवइ पावं, अइतिव्वकषायपरिणदो णिच्चं । जीवो वि हवेइ पुराणं, उवसमभावेण संजुत्तो ॥ १६०॥ अन्वयार्थः - [ जीवो वि अतिव्यकषायपरिणदो णिच्चं पावं हवइ ] जब यह जीव अति तीव्र कषाय सहित होता है तब यह ही जोव पाप होता है और [ उवसमभावेण संजुतो ] उपशम भाव ( मन्द कषाय ) सहित होता है तब [ जीवो वि पुण्णं हवे ] यह ही जीव पुण्य होता है । भावार्थः— क्रोध मान माया लोभकी अति तीव्रतासे तो पाप परिणाम होते हैं और इनकी मन्दतासे पुण्य परिणाम होते हैं । इन परिणामों सहित पुण्यजीव पापजीव कहलाते हैं । एक ही जीव, दोनों प्रकारके परिणामों सहितको पुण्यजीव पापजीव कहते हैं । सो सिद्धान्तको अपेक्षा इसप्रकार है, सम्यक्त्व सहित जीव होवे उसकेतो तीव्रकषायों की जड़ कट जाने से पुण्यजीव कहलाता है और मिथ्यादृष्टि जीवके भेदज्ञान बिना कषायों की जड़ कटती नहीं है इसलिये बाह्य में कदाचित् उपशम परिणाम भी दिखाई दें तो भी उसको पापजीव ही कहते हैं ऐसा जानना चाहिये । * इस बारेमें श्री गोम्मटसारमें भी कहा है कि: ८७ जीवदुगं उत्तट्ठ जोवा पुण्णा हु सम्मगुणसहिदा । यदसहिदावि य पावा तव्विवरिया हवंतित्ति ।। ६२२ ॥ मिच्छाइट्ठी पावा, गंताणंता य सासणगुणावि । पल्ला सखेज्जदिमा अणश्रण्णदरुदयमिच्छ्रगुणा ।। ६२३ ।। अर्थ - जीव और अजीव पदार्थ तो पूर्व जीवसमास अधिकार में अथवा यहाँ छह द्रव्याधिकारमें कहे हैं । फिर जो सम्यक्त्व गुण सहित होवे तथा जो व्रत सहित हो उसका पुण्यजीव कहते हैं, इनसे Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा रयणत्तयसंजुत्तो, जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं । संसारं तरइ जदो रयणत्तयदिव्वणावाए ॥१६१॥ अन्वयार्थः- [जदो ] जब यह जीव [ रयणत्तयदिव्वणावाए ] रत्नत्रयरूप सुन्दर नावके द्वारा [ संसारं तरइ ] संसारसे तिरता है पार होता है तब [ जीवो वि ] यह ही जीव [ रयणचयसंजुचो ] रत्नत्रय सहित होता हुवा [ उत्तमं तित्थं हवेइ ] उत्तम तीर्थ है। भावार्थः-जो तैरता है तथा जिससे तैरा जाता है उसको तीर्थ कहते हैं। यह जीव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र अर्थात् रत्नत्रयरूपी नावके द्वारा तैरता है तथा दूसरोंके तैरनेको निमित्त है इसलिये यह जीव ही तीर्थ है। अब अन्य प्रकार जीवके भेद कहते हैंजीवा हवंति तिविहा, बहिरप्पा तह य अन्तरप्पा य । परमप्पा वि य दुविहा, अरहंता तह य सिद्धा य ॥१६२।। अन्वयार्थः- [ जीवा बहिरप्पा तहय अन्तरप्पा य परमप्पा तिविहा हवंति ] जीव बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा इस तरह तीन प्रकारके होते हैं [ परमप्पा वि य दुविहा अरहता तह य सिद्धा य ] और परमात्मा भी अरहन्त तथा सिद्ध इस तरह दो प्रकारके होते हैं। अब इनका स्वरूप कहेंगे । पहिले बहिरात्मा कैसा है सो कहते हैंमिच्छत्तपरिणदप्पा, तिव्वकसाएण सुटु आविट्ठो। जीवं देहं एक्कं, मण्णंतो होदि बहिरप्पा ॥१६३॥ जो विपरीत है अर्थात् सम्यक्त्व रहित; व्रतरहित जीव नियमसे पाप जीव जानना, वे अनन्तानन्त हैं। सब संसार राशिमेंसे अन्य गुणस्थान वालोंका प्रमाण कम करने पर मिथ्या दृष्टिओंका प्रमाण आता है, सासादन गुणस्थान वाले जीव भी पापजीव हैं कारण कि अनन्तानुबन्धी चार कषायोंमेंसे किसी एक कषायका इसके उदय हो रहा है अतः यह भी मिथ्यात्व गुणको प्राप्त होता है। और वह पल्यके असंख्यभाग प्रमाण है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा अन्वयार्थः – [ मिच्छत्तपरिणदप्पा ] जो जीव मिथ्यात्वरूप परिणमा हो [ तिव्वकसारण सुठु आविट्ठो ] और तीव्र कषाय ( अनन्तानुबन्धी ) से अतिशय आविष्ठ अर्थात् युक्त हो इस निमित्तसे [ जीवं देहं एक्कं मण्णंतो ] जोव और देहको एक मानता हो वह जीव [ बहिरप्पा होदि ] बहिरात्मा है । भावार्थः – जो बाह्य परद्रव्यको आत्मा मानता है वह बहिरात्मा है । ऐसी मान्यता मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी कषायके' होती है इसलिये वह भेदज्ञानसे रहित होता हुआ देह आदि समस्त परद्रव्यों में अहंकार ममकार युक्त होता हुआ बहिरात्मा कहलाता है । अब अन्तरात्माका स्वरूप तीन गाथाओं में कहते हैंजे जिवणे कुसलो, भेयं जाणंति जीवदेहाणं । रिज्जियदुट्ठट्ठमया, अन्तरअप्पा य ते तिविहा ॥१६४॥ अन्वयार्थः - [ जे जिणवयणे कुसलो ] जो जीव जिनवचनमें प्रवीण हैं [ जीवदेहाणं भेयं जाणंति ] जीव और देहके भेदको जानते हैं [ णिजियदुमया ] और जिन्होंने आठमदों को जीत लिये हैं [ अंतरअप्पा य ते तिविहा ] वे अन्तरात्मा हैं और उत्कृष्ट ( उत्तम ) मध्यम जघन्य के भेदसे तीन प्रकारके हैं । भावार्थः – जो जीव जिनवाणीका भले प्रकार से अभ्यास करके जीव और देहके स्वरूपका भिन्न भिन्न जानते हैं वे अतरात्मा हैं । उनके जाति, लाभ, कुल, रूप, तप, बल, विद्या और ऐश्वर्य ये आठ मदके कारण हैं इनमें अहंकार ममकार उत्पन्न नहीं होता है क्योंकि ये परद्रव्यके संयोगजनित हैं। इनमें गर्व नहीं करते हैं, वे ( अन्तरात्मा ) तीन प्रकारके हैं । अब इन तीनों में उत्कृष्टको कहते हैं पंचमहव्वयजुत्ता, धम्मे सुक्के वि संठिदा णिच्चं । णिज्जियसयलपमाया, उक्किट्ठा अन्तरा होंति ।। १६५ ।। १ [ अनुसरण करे तो ] । २ [ स्वाश्रयके बल सहित ] | ३ [ अतः त्रैकालिक ज्ञान हूं ऐसी दृढ़ता होनेसे ] | ८६ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ पंचमहव्वयजत्ता ] जो जीव पांच महाव्रतोंसे युक्त हों [ णिच्चं धम्मे सुक्के वि संठिदा ] नित्य ही धर्मध्यान शुक्लध्यानमें स्थित रहते हों [ णिजियसयलपमाया ] और जिन्होंने निद्रा आदि सब प्रमादोंको जीत लिया हो [ उक्किट्ठा अंतरा होंति ] वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा होते हैं । अब मध्यम अन्तरात्माको कहते हैं सावयगुणेहिं जुत्ता, पमत्तविरदा य मज्झिमा होति। जिणवयणे अणुरत्ता, उवसमसीला महासत्ता ॥१६६॥ अन्वयार्थः- [ जिणवयणे अणुरत्ता ] जो जिनवचनोंमें अनुरक्त हों [ उवसमसीला ] उपशमभाव ( मन्द कषाय ) रूप जिनका स्वभाव हो [ महासत्ता ] महा पराक्रमी हों, परीषहादिकके सहन करने में दृढ़ हों, उपसर्ग आने पर प्रतिज्ञासे चलायमान नहीं होते हों ऐसे [ सावयगुणेहिं जत्ता] श्रावकके व्रत सहित तथा [पमराविरदा य मज्झिमा होंति ] प्रमत्तगुणस्थानवर्ती मुनि मध्यम अंतरात्मा होते हैं । अब जघन्य अन्तरात्मको कहते हैं अविरयसम्मदिट्ठी, होति जहरण जिणंदपयभत्ता । अप्पाणं णिदंता, गुणगहणे सुट्ठुअणुरत्ता ॥१७॥ अन्वयार्थ:-[ जिणंदपयभत्ता ] जो जीव जिनेन्द्र भगवान के चरणों के भक्त हैं। ( जिनेन्द्र, उनकी वाणी तथा उसके अनुसार वर्तनवाले निर्ग्रन्थ गुरु, उनकी भक्ति में तत्पर हैं ) [ अप्पाणं णिदंता ] अपने आत्माको निन्दा करते रहते हैं ( चारित्रमोहसे व्रत धारण नहीं किये जाते लेकिन उनकी भावना निरन्तर बनी हो रहती है इसलिये अपने विभाव परिणामोंकी निन्दा करते ही रहते हैं ) [ गुणगहणे सुठ्ठअणुरत्ता ] और गुणोंके ग्रहण करनेमें भलेप्रकार अनुरागी हैं ( जिनमें सम्यग्दर्शन आदि गुण देखते हैं उनसे अत्यन्त अनुरागरूप प्रवृत्ति करते हैं गुणोंसे अपना और परका हित जाना है इसलिये गुणोंसे अनुराग ही होता है ) ऐसे [ अविरयसम्मद्दिट्ठी ] अविरतसम्यग्दृष्टिजीव ( सम्यग्दर्शन तो जिनके पाया जाता है परन्तु चारित्रमोहकी युक्ततासे व्रत धारण नहीं कर सकते हैं ) [ जहण्णा होंति ] जघन्य अन्तरात्मा हैं । इसप्रकार तीन प्रकारके अन्तरात्मा कहे सो गुणस्थानोंकी अपेक्षासे जानना चाहिये । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा भावार्थः-चौथे गुणस्थानवर्ती तो जघन्य अन्तरात्मा, पांचवें छठे गुणस्थानवर्ती मध्यम अन्तरात्मा और सातवें गुणस्थानसे बारहवें गुणस्थान तक उत्कृष्ट अन्तरात्मा जानना चाहिये । अब परमात्माका स्वरूप कहते हैं स-सरीरा अरहंता, केवलणाणेण मुणियसयलत्था । णाणसरीरा सिद्धा, सव्वुत्तम सुक्खसंपत्ता ॥१६८।। अन्वयार्थः- [ केवलणाणेण मुणियसयलत्था ] केवलज्ञानसे जान लिये हैं सकल पदार्थ जिन्होंने ऐसे [ ससरीरा अरहता ] शरीरसहित अरहन्त परमात्मा हैं [ सव्वुत्तम सुक्खसंपत्ता ] सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति जिनको हो गई है तथा [ णाणसरीरा सिद्धा ] ज्ञान ही है शरीर जिनके ऐसे शरीररहित सिद्ध परमात्मा हैं । __ भावार्थः-तेरहवें चौदहवें गुणस्थानवर्ती अरहन्त शरीर सहित परमात्मा हैं और सिद्ध परमेष्ठी शरीर रहित परमात्मा हैं । अब परा शब्दके अर्थको कहते हैंहिस्सेसकम्मणासे, अप्पसहावेण जा समुप्पत्ती । कम्मजभावखए वि य, सा वि य पत्ती परा होदि ॥१६॥ अन्वयार्थः-[ जो णिस्से पकम्मणासे ] जो समस्त कर्मों के नाश होने पर [ अप्पसहावेण समुप्पत्ती ] अपने स्वभावसे उत्पन्न हो और [ कम्मनभावखए वि य ] जो कर्मोंसे उत्पन्न हुए औदयिक आदि भावोंका नाश होने पर उत्पन्न हो [ सा वि य पत्ती परा होदि ] वह भी परा कहलाती है । भावार्थ:-परा कहिये उत्कृष्ट और मा कहिये लक्ष्मी जिसके हो ऐसे आत्माको परमात्मा कहते हैं । समस्त कर्मोके नाशसे स्वभावरूप लक्ष्मीको प्राप्त हुए वे सिद्ध परमात्मा हैं और घातियाकर्मोके नाशसे अनन्त चतुष्टयरूप लक्ष्मीको प्राप्त हुए वे अरहंत भी परमात्मा हैं तथा वे ही औदयिक आदि भावोंके नाशसे भी परमात्मा हए कहलाते हैं। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब कोई, जीवोंको सर्वथा शुद्ध ही कहते हैं उनके मतका निषेध करते हैं जइ पुण सुद्धसहावा, सव्वेजीवा अणाइकाले वि। तो तवचरणविहाणं, सव्वेसि णिप्फलं होदि ॥२००॥ अन्वयार्थः-[ जइ ] यदि [ सव्वे जीवा अणाइकाले वि ] सब जीव अनादिकालसे [ सुद्धसहावा ] शुद्धस्वभाव हैं [ तो सव्वेसि ] तो सबहीको [ तवचरणविहाणं ] तपश्चरण विधान [णिप्फलं होदि ] निष्फल होता है। ता किह गिण्हदि देहं, णाणाकम्माणि ता कहं कुणदि । सुहिदा वि य दुहिदा वि य, णाणारूवा कहं होंति ॥२०१॥ अन्वयार्थः-जो जीव सर्वथा शुद्ध है [ ता किह गिण्हदि देहं ] तो देहको कैसे ग्रहण करता है ? [ णाणाकम्माणि ता कहं कुणदि ] नाना प्रकारके कर्मों को कैसे करता है ? [ सुहिदा वि य दुविहा वि य ] कोई सुखी है कोई दुःखी है [ णाणारूवा कहं होंति ] ऐसे नानारूप कैसे होते हैं ? इसलिये सर्वथा शुद्ध नहीं है । अब अशुद्धताका कारण कहते हैं सव्वे कम्म-णिबद्धा, संसरमाणा अणाइ-काल म्हि । पच्छा तोडिय बंधं, सुद्धा सिद्धा धुवं होति ॥२०२॥ अन्वयार्थः- [ सव्वे ] सब ससारी जीव [ अणाइकालम्हि ] अनादिकालसे [ कम्माणबद्धा ] कर्मोंसे बँधे हुए हैं [ संसरमाणा ] इसलिये संसार में भ्रमण करते हैं [ पच्छा तोडिय बधं सिद्धा ] फिर कर्मोंके बन्धनको तोड़कर सिद्ध होते हैं [ सुद्धा धुवं होति ] तब शूद्ध और निश्चल होते हैं । अब जिस बंधसे जीव बँधते हैं उस बंधका स्वरूप कहते हैं जो अण्णोएणपवेसो, जीवपएसाण कम्मखधाणं । सव्वबंधाण वि लो, सो बंधो होदि जीवस्स ॥२०३।। अन्वयार्थः- [ जो ] जो [ जीवपएमाण कम्मखंधाणं ] जीवके प्रदेशोंका और कर्मोके स्कन्धका [ अण्णोण्णपवेसो ] परस्पर प्रवेश होना (एक क्षेत्ररूप सम्बन्ध होना) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ लोकानुप्रेक्षा और [ सव्वबंधाण वि लओ ] प्रकृति स्थिति अनुभाग सब बन्धोंका लय ( एकरूप होना ) [ सो] सो [ जीवस्स ] जीवके [ बंधो होदि ] प्रदेशबंध होता अब सब द्रव्योंमें जीवद्रव्य ही उत्तम परमतत्त्व है ऐसा कहते हैं उत्तमगुणाण धामं, सव्वदव्वाण उत्तमं दव्वं । तच्चाण परमतच्चं, जीवं जाणेह णिच्छयदो ॥२०४॥ अन्वयार्थः-[ उत्तमगुणाण धामं ] जीवद्रव्य उत्तम गुणोंका धाम ( स्थान ) : है, ज्ञान आदि उत्तमगुण इसी में हैं [ सव्वदव्याण उत्तमं दव्व ] सब द्रव्योंमें यह ही द्रव्य प्रधान है, सब द्रव्योंको जीव ही प्रकाशित करता है [ तच्चाण परमतच्चं जीवं ] सब तत्त्वोंमें परमतत्त्व जीव ही है, अनन्तज्ञान सुख आदिका भोक्ता यह ही है [ णिच्छयदो जाणेह ] इस तरहसे हे भव्य ! तू निश्चयसे जान । अब जीव ही के उत्तम तत्त्वपना कैसे है सो कहते हैं अंतरतच्चं जीवो, बाहिरतच्चं हवंति सेसाणि । णाणविहीणं दव्वं, हियाहियं णेय जाणेदि ॥२०५॥ __ अन्वयार्थः-[ जीवो अंतरतच्चं ] जीव अतंरतत्त्व है [ सेसाणि बाहिरतच्चं हवंति ] बाकीके सब द्रव्य बाह्यतत्त्व हैं [ णाणविहीणं दव्वं ] वे द्रव्य ज्ञानरहित हैं [हियाहियं णेय जाणेदि ] और हेय-उपादेयरूप वस्तुको नहीं जानते हैं। भावार्थ:-जीवतत्त्वके बिना सब शून्य हैं इसलिये सबका जाननेवाला तथा हेय-उपादेयका जाननेवाला जीव ही परम तत्त्व है । अब पुद्गल द्रव्यका स्वरूप कहते हैं सव्वो लोयायासो, पुग्गलदव्वेहिं सव्वदो भरिदो। सुहमेहिं बायरेहिं य, णाणाविहसत्तिजुत्तेहिं ॥२०६॥ अन्वयार्थः-[ सव्वो लोयायासो ] सब लोकाकाश [ णाणाविहसत्तिजरोहिं ] नाना प्रकारकी शक्तिवाले [ सुहमेहिं बायरेहिं य ] सूक्ष्म और बादर [ पुग्गलदव्वेहि सव्वदो भरिदो ] पुद्गलद्रव्योंसे सब जगह भरा हुआ है। भावार्थ:-शरीर आदि अनेकप्रकारको परिणमन शक्ति युक्त सूक्ष्म बादर पुद्गलों से सब लोकाकाश भरा हुआ है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा जे इन्दिएहिं गिझं, रूवरसगंधफासपरिणामं । तं चिय पुग्गलदव्वं, अणंतगुणं जीवरासीदो॥२०७॥ अन्वयार्थ:-[ जे ] जो [ रूवरसगंधफासपरिणामं ] रूप, रस, गंध, स्पर्श परिणाम स्वरूपसे [ इंदिएहिं गिझं ] इन्द्रियोंके ग्रहण करने योग्य हैं [तं चिय पुग्गलदव्वं ] वे सब पुद्गलद्रव्य हैं [ अणतगुणं जीवरासीदो ] वे संख्यामें जीवराशिसे अनन्तगुणे द्रव्य हैं। अब पुद्गलद्रव्यके जीवके उपकारीपनेको कहते हैं जीवस्स बहुपयारं, उवयारं कुणदि पुग्गलं दव्वं । देहं च इन्दियाणि य, वाणी उस्सासणिस्सासं ॥२०८॥ अन्वयार्थः-[ पुग्गलं दव्यं ] पुद्गल द्रव्य [ जीवस्स ] जीवके [ देहं च इंदियाणि य ] देह, इन्द्रिय [ वाणी उस्सासणिस्सासं] वचन उस्वास, निस्वास [बहुपयारं उवयारं कुणदि ] बहुत प्रकार उपकार करता है । भावार्थ:-संसारी जीवके देहादिक पुद्गल द्रव्यसे रचे गये हैं इनसे जोवका जीवितव्य है यह उपकार है ।* अण्णं पि एवमाई, उवयारं कुणदि जाव संसारं । मोह अणाणमयं पि य, परिणामं कुणदि जीवस्स ।।२०६॥ अन्वयार्थः-[ जीवस्स ] पुद्गल द्रव्य जीवके [अण्णं पि एवमाई] पूर्वोक्तको आदि लेकर अन्य भी [ उवयारं कुणदि ] उपकार करता है [ जाय संसारं ] जब तक इस जीवको संसार है तब तक [मोह अणाणमयं पि य परिणामं कुणदि] मोह परिणाम ( पर द्रव्योंसे ममत्त्व परिणाम ) अज्ञानमयो परिणाम ऐसे सुख दुःख, जीवन, मरण आदि अनेक प्रकार करता है । यहां उपकार शब्दका अर्थ जब उपादान कार्य करै तब संयोगको निमित्त कारणपनेका आरोप है ऐसा सर्वत्र समझना चाहिये । * [ अर्थात् निमित्तमात्र है ] । [संयोगदृष्टि उपचरित कथनका प्रयोजन अनुपचार-उपादानका व्यंजक बताने वाला ही है ] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा अब उसी प्रकार जीव भी जीवका उपकार करता है ऐसा कहते हैं जीवा वि दु जीवाणं, उवयारं कुणदि सव्वपच्चक्खं । तत्थ वि पहाणहेऊ, पुण्णं पावं च णियमेण ॥२१॥ अन्वयार्थः-[ जीवा वि दु जीवाणं उवयारं कुणदि ] जीव भी जीवोंके परस्पर उपकार करते हैं [ सव्व पञ्चक्खं ] यह सबके प्रत्यक्ष ही है। स्वामी सेवकका, सेवक स्वामीका; आचार्य शिष्यका, शिष्य आचार्यका; पितामाता पुत्रका, पुत्र पितामाताका: मित्र मित्रका, स्त्री पतिका इत्यादि प्रत्यक्ष माने जाते हैं। [ तत्थ वि ] उस परस्पर उपकार में भी [ पुण्णं पावं च णियमेण ] पुण्यपापकर्म नियमसे [ पहाणहेऊ ] प्रधान कारण हैं । अब पुद्गलके बड़ी शक्ति है ऐसा कहते हैं का वि अपुव्वा दीसदि, पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती । केवलणाणसहाओ, विणासिदो जाइ जीवस्स ॥२११॥ अन्वयार्थः-[पुग्गलदव्वस्स] पुद्गल द्रव्यकी [ का वि ] कोई [ एरिसी । ऐसी [ अपुव्वा ] अपूर्व [ सत्ती ] शक्ति [ दीसदि ] दिखाई देती है | जाइ जीव जिससे जीवका [ केवलणाणसहाओ विणासिदो ] केवलज्ञान स्वभाव नष्ट हो रहा है। भावार्थ:-जीवमें अनन्त शक्ति है । उसमें केवलज्ञानशक्ति ऐसी है कि जिसके प्रगट होने पर यह जीव सब पदार्थों को एक समय में जान लेता है। ऐसे प्रकाशको पुद्गल नष्ट कर रहा है, नहीं होने देता है तो यह अपूर्व शक्ति है । ऐसे पुद्गल द्रव्यका वर्णन किया । [निश्चय उपादानकी बातको गौण करके निमित्तकी ओरका यह कथन है, आवरणका अर्थ आच्छादन है-जीवमें जो शक्ति है उसे जीव स्वयं व्यक्त नहीं करता वहाँ तक निमित्तकी ओर झुकावका कथन है ] । -+-[ यदि जड़कर्म जीवके ज्ञानादिकका घात निमित्तकी ओरसे करता हो, तो प्रश्न केवलज्ञान आपके पास कब प्रगट था ? जो उसका कर्मोने घात किया ? ] । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यका स्वरूप कहते हैं धम्ममधम्मं दव्वं, गमणट्ठाणाण कारणं कमसो। जीवाण पुग्गलाणं, बिगिण वि लोगप्पमाणाणि ॥२१२॥ अन्वयार्थः-[ जीवाण पुग्गलाणं ] जीव और पुद्गल इन दोनों द्रव्योंको [ गमणट्ठाणाण कारणं कमसो ] गमन और अवस्थान ( ठहरना ) में सहकारी अनुक्रमसे कारण [धम्ममधम्मं दव्वं ] धर्म और अधर्मद्रव्य हैं [ विणि वि लोगप्पमाणाणि ] ये दोनों ही लोकाकाश परिमाण प्रदेशोंको धारण करते हैं । भावार्थ:-जीव पुद्गलको गमन सहकारी कारण तो धर्मद्रव्य है और स्थिति सहकारी कारण अधर्मद्रव्य है । ये दोनों लोकाकाशप्रमाण हैं । अब आकाशद्रव्यका स्वरूप कहते हैं सयलाणं दव्वाणं, जं दादु सक्कदे हि अवगासं । तं आयासं, दुविहं, लोयालोयाण भेयेण ॥२१३।। अन्वयार्थः-[ ] जो [ सयलाणं दवाणं ] सब द्रव्योंको [ अवगासं ] अवकाश [ दादु सक्कदे ] देनेको समर्थ है [तं आयासं ] उसको आकाश द्रव्य कहते हैं [लोयालोयाण मेयेण दुविहं] वह लोक अलोकके भेदसे दो प्रकारका है। भावार्थ:-जिसमें सब द्रव्य रहते हैं ऐसे अवगाहन गुणको धारण करता है वह आकाशद्रव्य है। जिसमें पांच द्रव्य पाये जाते हैं सो तो लोकाकाश है और जिसमें अन्य द्रव्य नहीं पाये जाते सो अलोकाकाश है ऐसे दो भेद हैं। __अब आकाशमें सब द्रव्योंको अवगाहन देने की शक्ति है वैसी अवकाश देने की शक्ति सब ही द्रव्योंमें है ऐसा कहते हैं सव्वाणं व्वाणं, अवगाहणसत्ति अस्थि परमत्थं। जह भसमपाणियाणं, जीवपएसाण जाण बहुयाणं ॥२१४॥ अन्वयार्थ:-[ सव्वाणं दवाणं] सब ही द्रव्योंके परस्पर [ परमत्थं ] परमार्थ से ( निश्चयसे ) [ अवगाहणसत्ति अत्थि ] अवगाहना देने की शक्ति है [ जह भसमपाणियाणं ] जैसे भस्म और जलके अवगाहन शक्ति है [ जीवपएसाण जाण बहुआणं] वैसे ही जीवके असंख्यात प्रदेशोंके जानना चाहिये । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा भावार्थ:-जैस जलको पात्रमें भरकर उसमें भस्म डालते हैं सो समा जाती है, उसमें मिश्री डालते हैं तो वह भी समा जाती है और उसमें सूई घुसाई जाती है तो वह भी समा जाती है वैसे अवगाहन शक्तिको जानना चाहिये । यहां कोई प्रश्न करता है कि सब ही द्रव्यों में अवगाहनशक्ति है तो आकाशका असाधारण गुण कैसे है ? उसका उत्तर जो परस्पर तो अवगाह सब ही देते हैं तथापि आकाशद्रव्य सबसे बड़ा है। इसलिये इसमें सब ही समाते हैं यह असाधारणता है। जदि ण हवदि सा सत्ती, सहावभूदा हि सव्वदव्वाणं । एक्केकास पएसे, कह ता सव्वाणि वति ॥२१५॥ अन्वयार्थः-[ जदि ] यदि [सम्बदव्याणं ] सब द्रव्योंके [ सहावभूदा ] स्वभावभूत [ सा सत्ती ] वह अवगाहनशक्ति [ण हवदि ] न होवे तो [एक्केकासपएसे एक एक आकाशके प्रदेशमें [ कह ता सव्वाणि वट्ठति ] सब द्रव्य कैसे रहते हैं । भावार्थ:-एक आकाशके प्रदेशमें अनन्त पुद्गलके परमाणु द्रव्य रहते हैं । एक जीवका प्रदेश, एक धर्मद्रव्यका प्रदेश, एक अधर्मद्रव्यका प्रदेश. एक कालाणुद्रव्य ऐसे सब रहते हैं, वह आकाशका प्रदेश एक पुद्गलके परमाणु बराबर है, यदि अवगाहनशक्ति न होवे तो कैसे रहे ?* *[ तीनों कालके समयोंसे अलोकाकाशके प्रदेश अनन्तानन्त गुणे हैं, सब दिशाओंमें चारों ओर अमर्यादित अनन्तप्रदेशी आकाशको सर्वज्ञ भगवान भी अनन्तप्रदेशी ही जानता है । वृद्ध विद्वानोंसे सुना है कि 'सुदर्शन मेरुके बराबर एक लाख योजन लम्बा, चौड़ा, लोहेका गोला वह प्रत्येक समयमें एक राजूकी गति अनुसार यदि पतन करे तो भी पूर्ण भविष्य कालके अनन्तानन्त समयोंमें भी अलोकाकाशके तल तक नहीं पहुंच पायगा । इस दृष्टान्तको सुनकर अब निर्णीत दृष्टान्तको यों समझियेकि जम्बूद्वीपके बराबर गढ लिया गया लोहेका गोला प्रतिसमय यदि अनन्त राजू भी पतन करे अथव एक समय में अनन्त राज चलकर दूसरे समयमें उस अनन्तसे अनन्तगुणे अनन्तानन्त राजू गमन करे, यों तीसरे आदि समयोंमें पूर्व पूर्वसे अनन्तगुणा चलता जाय फिर भी भविष्यकालके अनन्तानन्त समयोंमें अलोकाकाशकी सड़क ( एक श्रेणीको भी ) पूरा नहीं कर सकेगा, कारणकि "तिबिह जहण्णाणंतं पगासला दलबिदी सगादि पदं। जीवो पोग्गलकाला सेढी आगास तप्पदरम् "नि० सारकी इस गाथा अनुसार कालके समय राशिसे तो अनन्त स्थान ऊपर जाकर आकाश श्रेणिके अर्धच्छेद निकलते हैं । उनसे अनन्त स्थान ऊपर Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब कालद्रव्यका स्वरूप कहते हैं सव्वाणं दव्वाणं, परिणामं जो करेदि सो कालो । एक्केकासपएसे, सो वट्टदि एक्किको चेव ॥२१६॥ अन्वयार्थः- [जो ] जो [ सव्वाणं दव्याणं परिणामं ] सब द्रव्योंके परिणाम ( परिणमन-बदलाव ) [ करेदि सो कालो ] करता है सो कालद्रव्य है [ सो] वह [ एक्कासपएसे ] एक एक आकाशके प्रदेश पर [ एकिको चेव वदि ] एक एक कालाणुद्रव्य वर्तता है। भावार्थ:-सब द्रव्योंको पर्यायें प्रतिसमय उत्पन्न व नष्ट होती रहती हैं इसप्रकारके परिणमन में निमित्त कालद्रव्य है । लोकाकाशके एक एक प्रदेश पर एक २ कालाणु रत्नोंकी राशिवत् रहता है, यह निश्चय काल है । अब कहते हैं कि परिणमनेकी शक्ति स्वभावभूत सब द्रव्यों में है, अन्यद्रव्य निमित्तमात्र हैं णियणियपरिणामाणं, णियणियदव्वं पि कारणं होदि । अण्णं बाहिरदव्वं, णिमित्तमित्तं वियाणेह ॥२१७।। अन्वयार्थः- [णियणियपरिणामाणं णियणियदव्वं पि कारणं होदि ] सब द्रव्य अपने अपने परिणमनके उपादान कारण है [ अण्णं बाहिरदव्यं ] अन्य बाह्य द्रव्य हैं वे अन्यके [ णिमित्तमि वियाणेह ] निमित्तमात्र जानों । श्रेणी आकाशकी संख्या आती है ( जो मध्यम अनन्तकी उत्कृष्टताके समीप है ) जो श्रेणी आकाशके घनप्रमाण सम्पूर्ण आकाश प्रदेश है। तीनों कालके समयोंसे भी आकाशप्रदेश अनन्तानन्त गुणे हैं इसप्रकार श्री केवलज्ञानी भगवान श्री महावीरने प्रतिपादन किया है । “व्यय-सद्भावे सत्यपि नवीन वृद्ध रभाववत्वं चेत् । यस्य क्षयो न नियतः सोऽनंतो जिनमते भणितः" यह है एक समय में-प्रत्येक समय में अखिल विश्वका अत्यन्त स्पष्ट पूर्ण ज्ञाता सर्वज्ञकी वास्तविकता और महिमा इसलिये ही जैनधर्म में धर्मका मूल सर्वज्ञ और ( जाति अपेक्षा छह ही है ) छहों द्रव्योंकी सर्वदा सर्व प्रकार स्वतन्त्रता स्वयमेव प्रकाशमान है । [ तत्वार्थ श्लोकवातिक पु० नं० ६ पृष्ठ १४३ से उद्धृत ] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा भावार्थ:-* जैसे घड़े आदिमें मिट्टी उपादान कारण है और चाक दण्डादि निमित्तकारण हैं । वैसे ही सब द्रव्य अपनी पर्यायोंको उपादान कारण हैं। तब कालद्रव्य तो निमित्तमात्र कारण है । अब कहते हैं कि सब ही द्रव्योंके परस्पर उपकार है सो सहकारी निमित्तमात्र कारणभावसे है सव्वाणं दव्वाणं, जो उवयारो हवेइ अण्णोणं । सो चिय कारणभावो, हवदि हु सहयारिभावेण ॥२१८॥ अन्वयार्थः-[ सव्वाणं दव्याणं जो ] सब ही द्रव्योंके जो [ अण्णोणं ] परस्पर [ उवयारो हवेइ ] उपकार है [ सो चिय ] वह [ सहयारिभावेण ] सहकारीभावसे [ कारणभावो हवदि हु ] कारणभाव होता है, यह प्रगट है । अब द्रव्योंके स्वभावभूत अनेक शक्तियाँ हैं उनका निषेध कौन कर सकता है ऐसा कहते हैं कालाइलद्धिजुत्ता, णाणासत्तीहि संजुदा अत्था । परिणममाणा हि सयं, ण सक्कदे को वि वारेदु ॥२१६॥ अन्वयार्थः-[ अत्था ] सब ही पदार्थ [ कालाइलद्धिजत्ता] काल: आदि लब्धि सहित [ णाणासचीहि संजुदा ] अनेक प्रकारकी शक्ति सहित हैं [हि सयं परिणममाणा ] स्वयं परिणमन करते हैं [ को वि वारेदुं ण सक्कदे ] उनको परिणमन करते हुए कोई निवारण करने में समर्थ नहीं है। भावार्थः- सब द्रव्य अपने अपने परिणामरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल सामग्रीको पाकर आप ही भावरूप परिणमन करते हैं। उनका कोई निवारण नहीं कर सकता है। * [ जो स्वयं कार्य रूप परिणमन करे वह उपादान कारण है ] | काल आदि लब्धि=काल लब्धिका अर्थ 'स्वकाल' की प्राप्ति होना है यही आचार्यश्रीने यहाँ स्पष्ट किया है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब व्यवहारकालका निरूपण करते हैं जीवाण पुग्गलाणं, जे सुहुमा बादरा य पज्जाया । तीदाणागदभूदा, सो ववहारो हवे कालो ॥२२०॥ अन्वयार्थः-[जीवाण पुग्गलाणं, ] जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्यके [ सुहुमा बादरा य पजाया ] सूक्ष्म तथा बादर पर्याय हैं [जे ] वे [ तीदाणागदभूदा ] अतीत हो चुके हैं, अनागत आगामी होयेंगे, भूत वर्तमान हैं [ सो ववहारो कालो हवे ] सो ऐसा व्यवहार काल होता है। मावार्थ:-जो जीव पुद्गलके स्थूल सूक्ष्म पर्याय हैं वे जो हो चुके अतीत कहलाए, जो आगामी होयेंगे उनको अनागत कहते हैं, जो वर्त रहे हैं सो वर्तमान कहलाते हैं। इनको जितना काल लगता है उसही को व्यवहारकाल नामसे कहते हैं सो जघन्य तो पर्यायकी स्थिति एक समयमात्र है और मध्यम, उत्कृष्ट अनेक प्रकार है । आकाशके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेश तक पुद्गलका परमाणु मन्दगतिसे जाता है उतने कालको समय कहते हैं, ऐसे जघन्ययुक्ताऽसंख्यात समयकी एक आवली होती है । संख्यात आवलीके समूहको एक उस्वास कहते हैं सात उस्वासका एक स्तोक होता है । सात स्तोकका एक लव होता है । साढ़े अड़तीस लवकी एक घड़ी होती है। वो घड़ीका एक मुहूर्ण होता है । तीस मुहूर्त्तका रातदिन होता है । पन्द्रह रातदिनका पक्ष होता है। दो पक्षका मास होता है। दो मासकी ऋतु होती है । तीन ऋतुका अयन होता है । दो अयनका वर्ष होता है इत्यादि पल्य, सागर, कल्प आदि व्यवहार काल अनेक प्रकार है। अब अतीत, अनागत, वर्तमान पर्यायोंकी संख्या कहते हैंतेसु अतीदा णता, अांतगुणिदा य भाविपज्जाया। एक्को वि वढमाणो, एत्तियमित्तो वि सो कालो ॥२२१॥ अन्वयार्थः-[ तेसु अतीदा पंता ] उन द्रव्योंकी पर्यायोंमें अतीतपर्याय अनन्त हैं [ य भाविपजाया अणंतगुणिदा] और अनागत पर्यायें उनसे अनन्तगुणी हैं [ एको वि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा १०१ घट्टमाणो ] वर्त्तमान पर्याय एक ही है : [ एत्तियमित्तो वि सो कालो ] सो जितनी पर्यायें हैं उतना ही व्यवहारकाल है । इस तरह द्रव्यों का वर्णन किया । + अ द्रव्यों के कार्यकारणभावका निरूपण करते हैं पुव्वपरिणाम जुत्तं, कारणभावेण वदे दव्वं । उत्तरपरिणामजुदं, तं चिय कज्जं हवे खियमा ॥ २२२॥ अन्वयार्थः– [ पुव्त्रपरिणामजरां ] पूर्व परिणाम युक्त [ दव्वं ] द्रव्य [ कारणभावेण वट्टदे ] कारणरूप है [ उचरपरिणामजुदं तं चिय ] और उत्तरपरिणामयुक्त द्रव्य [णियमा ] नियम से [ कज्जं हवे ] कार्यरूप है । अब वस्तुके तीनों कालों में ही कार्यकारणभाव निश्चय करते हैंकारणकज्जविसेसा, तिस्सु वि कालेसु होंति वत्थूणं । एक्केक्कम्मिय समए, पुव्युत्तरभावमासिज्ज ॥२२३॥ अन्वयार्थः – [ वत्थूणं ] वस्तुओंके [ पुष्बुतरभावमासिज ] पूर्व और उत्तर परिणामको पाकर [ तिस्सु वि कालेसु ] तीनों ही कालों में [ एक्केकम्मि य समए ] एक एक समय में [ कारणकजविसेसा ] कारण कार्यके विशेष [ होंति ] होते हैं । भावार्थ:-वर्त्तमान समय में जो पर्याय है सो पूर्वसमय सहित वस्तुका कार्य है । ऐसे ही सब पर्यायें जानना चाहिये । ऐसे समय २ कार्यकारणभावरूप है । वस्तु है सो अनन्त धर्मस्वरूप है ऐसा निर्णय करते हैंसंति अताता, तीसु वि कालेसु सव्वदव्वाणि । सव्वं पि अणेयंतं, तत्तो भणिदं जिणेंदेहि ॥२२४॥ अन्वयार्थः – [ सव्वदव्वाणि ] सब द्रव्य [ तीसु वि कालेसु ] तीनों ही कालों में [ अणताणता ] अनन्तानन्त [ संति ] हैं, अनन्त पर्यायों सहित हैं [ तो ] इसलिये ÷ [ देखो गाथा ३०२ की टीका ] । + [ भावार्थ:-संसार पर्यायका अन्त किसी जीवको आताही है किन्तु संसार-पर्यायोंसे मोक्ष की पर्यायें अनन्तगुणी हैं और भाविपर्यायोंका काल भूतपर्यायोंसे अनन्तगुना है। कभी भी भविष्यकालका अन्त नहीं होगा ( श्वे० मतमें विरुद्ध कथन है ) ] | Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा [जिणेदेहिं ] जिनेन्द्रदेवने [ सव्वं पि अणेयंत ] सब ही वस्तुओंको अनेकान्त ( अनन्त धर्मस्वरूप [ भणिदं ] कहा है। अब कहते हैं कि जो अनेकान्तात्मक वस्तु है सो अर्थक्रियाकारी है जं वत्थु अणेयंतं तं चिय कज्जं करेदि णियमेण । बहुधम्मजुदं अत्थं, कज्जकरं दीसदे लोए ॥२२५॥ अन्वयार्थ:-[ जंवत्थ अणेयंत ] जो वस्तु अनेकान्त है-अनेक धर्मस्वरूप है [तं चिय ] सो हो [ णियमेण ] नियमसे [ कज्ज करेदि ] कार्य करती है [ लोए ] लोकमें [ बहुधम्मजुदं अत्थं ] बहुत धर्मोसे युक्त पदार्थ ही [ कज्जकरं दीसदे ] कार्य करनेवाले देखे जाते हैं। ___ भावार्थ:-लोक में नित्य, अनित्य, एक, अनेक भेद इत्यादि अनेक धर्मयुक्त वस्तुएँ हैं सो कार्यकारिणी दिखाई देती है जैसे मिट्टी के घड़े आदि अनेक कार्य बनते हैं सो सर्वथा मिट्टी एकरूप, नित्यरूप तथा अनेक अनित्य रूप ही होवे तो घड़े आदि कार्य बनते नहीं हैं, ऐसे ही सब वस्तुओंको जानना चाहिये। अब सर्वथा एकान्त वस्तुके कार्यकारीपना नहीं है ऐसा कहते हैं एयंतं पुणु दव्वं, कज्जं ण करदि लेसमेत्तं पि । ज पुणु ण करदि कज्जं, तं वुच्चदि केरिसं दव्वं ॥२२६॥ अन्वयार्थः-[ एयंतं पुणु दव्वं ] एकान्तस्वरूप द्रव्य [ लेसमेत् पि ] लेशमात्र भी [ कज्ज ण करदि ] कार्यको नहीं करता है [जं पुणु ण करदि कज्ज ] और जो कार्य ही नहीं करता है [ तं बुच्चदि केरिसं दव्वं ] वह कैसा द्रव्य है, वह करता है तो शून्यरूपसा है। भावार्थ:-जो अर्थक्रियास्वरूप होवे सो ही परमार्थरूप वस्तु कही है और जो अर्थक्रियारूप नहीं है सो आकाशके फूलके समान शून्यरूप है । अब सर्वथा नित्य एकान्तमें अर्थक्रियाकारीपनेका अभाव दिखाते हैंपरिणामेण विहीणं, णिच्चं दव्वं विणस्सदे णेव । णो उप्पज्जेदि सया, एवं कज्जं कहं कुणदि ।।२२७॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा __ अन्वयार्थः-[ परिणामेण विहीणं ] परिणाम रहित [णिचं दव्वं णेव घिणस्सदे ] नित्य द्रव्य नष्ट नहीं होता है [ णो उप्पजदि य ] और उत्पन्न भी नहीं होता है [ कज्जं कहं कुणदि ] तब कार्य कैसे करता है [ एवं सया ] और यदि उत्पन्न व नष्ट होवे तो नित्यपना नहीं ठहरे । इस तरह जो कार्य नहीं करता है वह द्रव्य नहीं है। अब फिर क्षणस्थायीके कार्यका अभाव दिखाते हैंपज्जयमित्तं तच्चं, विणस्सरं खणे खणे वि अण्णगणं । अण्णइदव्वविहीणं, ण य कज्जं किं पि साहेदि ॥२२८॥ अन्वयार्थः- [विणस्सरं ] जो क्षणस्थायी [ पञ्जयमित्तच्चं ] पर्यायमात्र तत्त्व [खणे खणे वि अण्णण्णं ] क्षण क्षण में अन्य अन्य होवे ऐसे विनश्वर मानें तो [ अण्णइदाविहीणं ] अन्वयीद्रव्यसे रहित होता हुआ [ किं पि कज्ज ण य साहेदि ] कुछ भी कार्यको सिद्ध नहीं करता है । क्षणस्थायी विनश्वरके कैसा कार्य ? अब अनेकान्तवस्तुके ही कार्यकारणभाव बनता है सो दिखाते हैं णवणवकज्जविसेसा, तीसु वि कालेसु होंति वत्थूणं । एक्केकम्मि य समये, पुव्वुत्तरभावमासिज्ज ॥२२६॥ __ अन्वयार्थः- [ वत्थूणं ] जीवादिक वस्तुओंके [ तीसु वि कालेसु ] तीनों ही कालोमें [एक्केक्कम्मि य समये ] एक एक समय में [ पुव्युत्तरभावमासिज्ज ] पूर्वउत्तरपरिणामके आश्रय करके [ णवणवकजपिसेसा ] नवीन नवीन कार्य विशेष [ होति । होते हैं, नवीन नवीन पर्यायें उत्पन्न होती हैं। अब पूर्वोत्तरभावके कारणकार्यभावको दृढ़ करते हैंपुवपरिणामजुत्तं, कारणभावेण वहृदे दव्यं । उत्तरपरिणामजुदं, तं चिय कज्ज हवे णियमा ॥२०३॥ अन्वयार्थः-[ पुव्वपरिणामजुत् ] पूर्वपरिणामयुक्त [ दव्यं ] द्रव्य [ कारणभावेण वट्टदे ] कारणभावसे वर्तता है [ तं चिय ] और वह ही द्रव्य [ उत्तरपरिणामजुदं ] उत्तरपरिणामयुक्त होवे तब [ कज्ज हवे ] कार्य होता है [ णियमा ] ऐसा नियम है । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा भावार्थ:-जैसे मिटीका पिंड तो कारण है और उसका घट बना सो कार्य है। ऐसे ही पहिले पर्यायके स्वरूपको कहकर अब जीव पिछली पर्याय सहित हुवा तब वह ही कार्यरूप हुआ, ऐसे नियम है । इस तरह वस्तुका स्वरूप कहा जाता है । अब जीव द्रव्यके भी वैसे ही अनादिनिधन कार्यकारणभाव सिद्ध करते हैंजीवो अणाइ णिहणो, परिणयमाणो हु णवणवं भावं । सामग्गीसु पवट्ठदि, कज्जाणि समासदे पच्छा ॥२३१॥ अन्वयार्थः-[ जीवो अणाइणिहणो ] जीव द्रव्य अनादिनिधन है [ णवणवं भावं परिणयमाणो हु] वह नवीन नवीन पर्यायरूप प्रगट परिणमता है [ [सामग्गीसु पवढदि] वह ही पहिले द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी सामग्रीमें प्रवृत्त होता है [ पच्छा कजाणि समासदे ] और बादमें कार्योंको-पर्यायोंको प्राप्त होता है। भावार्थ:-जैसे कोई जीव पहिले शुभ परिणामरूप प्रवृत्ति करे तब स्वर्ग पावे और पहिले अशुभ परिणामरूप प्रवृत्ति करे तब नरक आदि पर्याय पावे ऐसे जानना चाहिये। __अब जीवद्रव्य अपने द्रव्यक्षेत्रकालभावमें रहता हुआ ही ( अपनेमें ही ) नवीन पर्यायरूप कार्यको करता है ऐसा कहते हैं ससरूवत्थो जीवो, कज्जं साहेदि वट्टमाणं पि । खित्ते एकम्मि ठिदो, णियदव्वे संठिदो चेव ॥२३२॥ अन्वयार्थः-[ जीवो ] जीवद्रव्य [ ससरूवत्थो वट्टमाणं पि ] अपने चैतन्यस्वरूपमें स्थित होता हुआ [ खिरो एकम्मि ठिदो ] अपने ही क्षेत्रमें स्थित रहकर [णियदव्वे संठिदो चेव ] अपने ही द्रव्योंमें रहता हुआ [कज साहेदि] अपने परिणमनरूप समय में अपने पर्यायस्वरूप कार्यको सिद्ध करता है । भावार्थ:-* परमार्थसे विचार करें तो अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव स्वरूप होता हुआ जीव पर्यायस्वरूप-कार्यरूप परिणमन करता है, पर द्रव्य क्षेत्रकाल भाव है सो तो निमित्तमात्र हैं। * [ ऐसा अनेकान्त स्वरूप है अतः ] । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ लोकानुप्रेक्षा अब यदि अन्यस्वरूप होकर कार्य करे तो उसमें दोष दिखाते हैंससरूवत्थो जीवो, अण्णसरूवम्मि गच्छदे जदि हि। अण्णोण्णमेलणादो, एक्क-सरूवं हवे सव्वं ॥२३३॥ अन्वयार्थः-[ जदि हि ] यदि [ जीवो ] जीव [ ससरूवत्थो ] अपने स्वरूप में रहता हुआ [ अण्णसरूवम्मि गच्छदे ] पर स्वरूप में जाय तो [अण्णोण्णमेलणादो] परस्पर मिलनेसे-एकत्व हो जाने से [ सव्वं ] सब द्रव्य [ एकसरूवं हवे ] एक स्वरूप हो जांय । तब तो बड़ा दोष आवे परन्तु एकस्वरूप कभी भी नही होता है यह प्रगट है। अब सर्वथा एकस्वरूप मानने में दोष दिखाते हैं अहवा बंभलरूवं, एक्कं सव्वं पि मण्णदे जदि हि । चंडालबंभणाणं, तो ण विसेसो हवे को वि ॥२३४॥ अन्वयार्थः-[ जदि हि अहवा बभसरूवं एक्कं सव्वं पि मण्णदे ] यदि सर्वथा एक ही वस्तु मानकर ब्रह्मका स्वरूप रूप सर्व माना जाय तो [ चंडालबंभणाणं तो ण विसेसो हवे कोई ] ब्राह्मण और चांडाल में कुछ भी विशेषता ( भेद ) न ठहरे । भावार्थः-एक ब्रह्मस्वरूप सब जगतको माना जाय तो अनेकरूप न ठहरे । यदि अविद्यासे अनेकरूप दिखाई देता हुआ माना जाय तो अविद्या उत्पन्न किससे हुई । यदि ब्रह्मसे हुई तो उससे भिन्न हुई या अभिन्न हुई, अथवा सत्रूप है या असत्रूप है, एक रूप है या अनेकरूप है इस तरह विचार करने पर कहीं भी अन्त नहीं आता है इसलिये वस्तुका स्वरूप अनेकान्त ही सिद्ध होता है और वह ही सत्यार्थ है ।। अब अणुमात्र तत्त्वको मानने में दोष दिखाते हैं अणुपरिमाणं तच्चं, अंसविहीणं च मण्णदे जदि हि । तो संबंधाभावो, तत्तो वि ण कज्जसंसिद्धि ॥२३५॥ - [अर्थात् परका कुछ कर सकता है ऐसा माना जाये तो ] । + [ प्रत्येक वस्तुका स्वरूप अपने ही द्रव्य-क्षेत्र काल और भावस्वरूपसे है-परस्वरूपसे कभी भी नहीं है ऐसा सम्यक् अनेकान्त ही प्रत्येक वस्तुको बनाये रखता है ] । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः- [जदि हि अंसविहीणं अणुपरिमाणं तच्चं मण्णदे ] यदि एक वस्तु सर्वगत व्यापक न मानी जाय और अंशरहित अणुपरिमाण तत्त्व माना जाय [ तो संबंधाभावो ततो वि ण कजसंसिद्धि ] तो दो अंशके तथा पूर्वोत्तर अंशके सम्बन्धके अभावसे अणुमात्र वस्तुसे कार्य की सिद्धी नहीं होती है । भावार्थः-निरंश क्षणिक निरन्वयी वस्तुके अर्थक्रिया नहीं होती है, इसलिये सांश नित्य अन्वयी वस्तु कथंचित् मानना योग्य है । अब द्रव्यके एकत्वपनेका निश्चय करते हैं-.. सवाणं दवाणं, दवसरूवेण होदि एयत्तं । णियणियगुणभेएण हि, सव्वाणि वि होंति भिण्णाणि ॥२३६।। अन्वयार्थः-[ सव्वाणं दव्याणं दव्वसरूवेण एयत् होदि ] सब ही द्रव्यों के द्रव्यस्वरूपसे तो एकत्व होता है [ णियणियगुणमेएण हि सव्वाणि वि भिण्णाणि होति ] और अपने अपने गुणके भेदसे सब द्रव्य भिन्न भिन्न हैं। भावार्थ:-द्रव्यका लक्षण उत्पाद व्यय धोव्यस्वरूप सत् है इस स्वरूपसे तो सबके एकत्व है और अपने अपने गुण चेतनत्व जड़त्व आदि भेदरूप हैं इसलिये गुणों के भेदसे सब द्रव्य भिन्न भिन्न हैं तथा एक द्रव्यको त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायें हैं सो सब पर्यायों में द्रव्य स्वरूपसे तो एकता ही है जैसे चेतनकी पर्यायें सब ही चेतन स्वरूप हैं, पर्यायें अपने अपने स्वरूपसे भिन्न भी हैं, भिन्न कालवर्ती भी हैं, इसलिये भिन्न भिन्न भी कहते हैं। किन्तु उनके प्रदेश-भेद तो कभी भी नहीं है इसलिये एक ही द्रव्यकी अनेक पर्यायें होती हैं इसमें विरोध नहीं आता। अब द्रव्यके गुणपर्यायस्वभावपना दिखाते हैं जो अत्थो पडिसमयं, उप्पादव्वयधुवत्तसम्भावो । गुणपज्जयपरिणामो, सो सत्तो भएणदे समये ॥२३७॥ अन्वयार्थः- [जो अस्थो पडिसमयं उप्पादयधुवत्तसब्भावो] जो अर्थ (वस्तु) समय समय उत्पाद व्यय ध्र वत्वके स्वभावरूप है [ सो गुणपजयपरिणामो सचो समये भण्णदे ] सो गुणपर्यायपरिणामस्वरूप सत्त्व सिद्धान्त में कहते हैं । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ लोकानुप्रेक्षा भावार्थः-जो जीव आदि वस्तुएं हैं वे उत्पन्न होना, नष्ट होना और स्थिर रहना इन तीनों भावमयी हैं और जो वस्तु गुणपर्याय परिणामस्वरूप है सो ही सत् है जैसे जीव द्रव्यका चेतना गुण है उसका स्वभाव विभावरूप परिणमन है इसी तरह समय समय परिणमे ( बदले ) सो पर्याय है । ऐसे ही पुद्गलके स्पर्श रस गंध वर्ण गुण हैं वे स्वभाव-विभावरूप समय समय परिणमते हैं सो पर्यायें हैं । इस तरहसे सब द्रव्य, गुणपर्यायपरिणामस्वरूप प्रगट हैं । अब द्रव्योंके व्यय उत्पाद क्या हैं सो कहते हैं पडिसमयं परिणामो, पुवोणस्सेदि जायदे अण्णो । वत्थुविणासो पढमो, उववादो भएणदे विदिओ ॥२३८॥ अन्वयार्थः-[ परिणामो ] जो वस्तु का परिणाम [ पडिसमयं ] समयसमयप्रति [ पुव्वो णस्सेदि अण्णो जायदे ] पहिला तो नष्ट होता है और दूसरा उत्पन्न होता है [ पढमो वत्थुविणासो ] सो पहिले परिणामरूप वस्तुका तो नाश ( व्यय ) है [विदिओ उववादो भण्णदे ] और दूसरा परिणाम जो उत्पन्न हुआ उसको उत्पाद कहते हैं। इस तहर व्यय और उत्पाद होते हैं । अब द्रव्यके ध्र वत्वका निश्चय कहते हैं णो उप्पज्जदि जीवो, दवसरूवेण णेय णस्सेदि । तं चेव दव्वमित्तं, णिच्चत्तं जाण जीवस्स ॥२३६।। अन्वयार्थ:-[ जीवो दव्वसरूवेण णेय णम्सेदि णो उप्पजदि ] जीवद्रव्य द्रव्यस्वरूपसे न नष्ट होता है ओर न उत्पन्न होता है [ तं चेव दव्वमित्तं जीवस्स णिच्चतं जाण ] अतः द्रव्यमात्रसे जीवके नित्यत्व जानना चाहिये। भावार्थ:-जीव सत्ता और चेतनतासे उत्पन्न व नष्ट नहीं होता है, न तो नवीन जीव कोई उत्पन्न ही होता है और न नष्ट ही होता है यह ही ध्र वत्व कहलाता है। अब द्रव्यपर्यायका स्वरूप कहते हैं अण्णइरूवं दव्वं, विसेसरूवो हवेइ पज्जाओ। दव्वं पि विसेसेण हि, उप्पज्जदि णस्सदे सददं ॥२४०॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ कार्तिकैयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ:-[ अण्णइरूवं दव्वं ] जीवादिक वस्तु अन्वयरूपसे द्रव्य है [विसेसरूवो पज्जाओ हवे ] वह ही विशेषरूपसे पर्याय है [ विसेसेण हि दव्यं पि सददं उप्पजदि णस्सदे ] और विशेषरूपसे द्रव्य भी निरन्तर उत्पन्न व नष्ट होता है । भावार्थः-अन्वयरूप पर्यायोंमें नित्य सामान्य भावको द्रव्य कहते हैं और जो अनित्य विशेष भाव हैं वे पर्यायें हैं । सो विशेषरूपसे द्रव्य भी उत्पादव्ययस्वरूप कहा जाता है । किन्तु ऐसा नहीं कि पर्याय द्रव्यसे भिन्न हो उत्पन्न व नष्ट होती है किन्तु अभेदविवक्षासे द्रव्य ही उत्पन्न व नष्ट होता है । भेदविवक्षासे भिन्न भी कहा जाता है। अब गुणका स्वरूप कहते हैंसरिसो जो परिणामो, अणाइणिहणो हवे गुणो सो हि । सो सामण्णसरूवो, उप्पज्जदि णस्सदे णेय ॥२४१॥ अन्वयार्थः- [जो परिणामो सरिसो अणाइणिहणो सो हि गुणो हवे ] जो द्रव्यका परिणाम सदृश ( पूर्व उत्तर सब पर्यायों में समान ) होता है अनादिनिधन होता है वह ही गुण है [ सो सामण्णसरूवो उप्पञ्जदि णस्सदे णेय ] वह सामान्यस्वरूपसे उत्पन्न व नष्ट भी नहीं होता है । भावार्थ:-जैसे जीवद्रव्यका चैतन्य गुण सब पर्यायों में विद्यमान है, अनारिदनिधन है,वह सामान्यस्वरूपसे उत्पन्न व नष्ट नहीं होता है, विशेषरूपसे पर्यायों में व्यक्तरूप होता ही है, ऐसा गुण है । ऐसा ही अपने अपने साधारण असाधारण गुण सब द्रव्यों में जानना चाहिये। अब कहते हैं कि गुणाभास विशेषस्वरूपसे उत्पन्न व नष्ट होता है, गुणपर्यायोंका एकत्व है सो ही द्रव्य है सो वि विणस्सदि जायदि, विसेसरूवेण सव्वदव्वेसु । दव्वगुणपज्जयाणं, एयत्तं वत्थु परमत्थं ॥२४२।। अन्वयार्थः- [ सो वि सव्वदव्वेसु विसेसरूवैण विणस्सदि जायदि ] गुण भी द्रव्योंमें विशेषरूपसे उत्पन्न व नष्ट होता है [ दव्यगुणपजयाणं एयचं ] इस तरहसे द्रव्यगुणपर्यायोंका एकत्व है [ परमत्थं वत्थु ] वह हो परमार्थभूत वस्तु है । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा १०६ भावार्थ:- गुणका स्वरूप वस्तुसे भिन्न ही नहीं है, नित्य रूप सदा रहता है, गुणगुणीके कथंचित् अभेदपना है इसलिये जो पर्यायें उत्पन्न व नष्ट होती हैं वे गुणगुणी विकार हैं इसलिये गुण उत्पन्न होते हैं व नष्ट होते हैं ऐसा भी कहा जाता है । इस तरह ही नित्यानित्यात्मक वस्तुका स्वरूप है, ऐसे द्रव्यपर्यायों की एकता ही परमार्थरूप वस्तु है । अब आशंका उत्पन्न होती है कि द्रव्यों में पर्यायें विद्यमान उत्पन्न होती हैं या अविद्यमान उत्पन्न होती हैं ? ऐसी आशंकाको दूर करते हैं— जदि दब्वे पज्जाया, वि विज्जमाणा सिरोहिदा संति । ता उप्पत्ती विहला, पडिपिहिदे देवदत्तेव्व ॥ २४३ ॥ अन्वयार्थः - [ जदि दब्वे पञ्जाया ] जो द्रव्यों में पर्यायें हैं वे [ वि विजमाणा तिरोहिदा संति ] विद्यमान और तिरोहित ढकी हुई हैं ऐसा माना जाय ता उप्पत्ती बिहला ] तो उत्पत्ति कहना विफल है [ पडिपिहिदे देवदत्शेव्व ] जैसे देवदत्त कपड़े से ढका हुआ था, कपड़े को हटा देने पर यह कहा जाय कि यह उत्पन्न हुआ इस तरह से उत्पत्ति कहना परमार्थ ( सत्य ) नहीं, विफल है । इसी तरह ढकी हुई द्रव्यपर्यायके प्रगट होने पर उसकी उत्पत्ति कहना परमार्थ नहीं है इसलिये अविद्यमान पर्यायकी ही उत्पत्ति कही जाती है । सव्वाण पज्जया, अविज्जमारणाण होदि उत्पत्ती । कालाईलदीए, अणाइहिणम्मि दव्वम्मि ॥ २४४ ॥ अन्वयार्थः– [ अणाइणिहणम्मि दव्वम्मि ] अनादिनिधन द्रव्यों में [ कालाईaate ] कालादि लब्धि से [ सव्वाण ] सब [ अविजमाणाण ] अविद्यमान [ पजयाणं ] पर्यायोंकी [ उत्पत्ती ] उत्पत्ति [ होदि ] होती है । भावार्थ:- अनादिनिधन द्रव्यमें काल आदि लब्धिसे पर्यायें अविद्यमान उत्पन्न होती हैं, ऐसा नहीं है कि सब पर्यायें एक ही समय में विद्यमान हो और वे ढकती जाती हैं, समय समय क्रमसे नवीन नवीन ही उत्पन्न होती हैं । द्रव्य त्रिकालवर्ती सब पर्यायोंका समुदाय है, कालभेदसे क्रमसे पर्यायें होती हैं । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब द्रव्य पर्यायोंके कथंचित् भेद कथंचित् अभेद दिखाते हैंव्वाणपज्जया, धम्मविवक्खाइ कीरए भेो । वत्थुसरूत्रेण पुणो, ण हि भेओ सक्कदे काउं ॥ २४५ ॥ अन्वयार्थः – [ दव्वाणपञ्जयाणं ] द्रव्य और पर्यायोंके [ धम्मविवक्खाइ ] धर्म धर्मीकी विवक्षासे [ भेओ कोरए ] भेद किया जाता है [ वत्थुसरूवेण पुणो ] वस्तुस्वरूप से [ भेओ काउ ण हि सकदे ] भेद करनेको समर्थ नहीं है । भावार्थ:- द्रव्य पर्यायके धर्म धर्मीको विवक्षासे भेद किया जाता है । द्रव्य धर्मी है, पर्याय धर्म है और वस्तुसे अभेद ही है । केई नैयायिकादि धर्म धर्मी के सर्वथा भेद मानते हैं उनका मत प्रमाण बाधित है । ११० अब द्रव्य पर्यायके सर्वथा भेद मानते हैं उनको दोष दिखाते हैं पज्जय दव्वाण मरण से मूढ 1 जदि वत्थुदो विभेदो, at farखा सिद्धी, दोराहं पि य पावदे खियमा || २४६ ॥ अन्वयार्थः- - द्रव्य पर्यायके भेद मानता है उसको कहते हैं कि [ मूढ ] हे मूढ़ ! [ जदि ] यदि [ पञ्जयदव्वाण ] द्रव्य और पर्यायके [ वत्थदो विभेदो ] वस्तुसे भी भेद [ मण्णसे ] मानता है [ तो ] तो [ दोहं पि य ] द्रव्य और पर्याय दोनों के [ णिवेक्खा सिद्धी ] निरपेक्षा सिद्धी [ णियमा ] नियमसे [ पावदे ] प्राप्त होती है । भावार्थः — द्रव्यपर्याय भिन्न भिन्न वस्तुएँ सिद्ध होती हैं । धर्म धर्मीपणा सिद्ध नहीं होता है । अब जो विज्ञानको ही अद्वैत कहते हैं और बाह्य पदार्थको नहीं मानते हैं उनको दोष बताते हैं जदि सव्वमेव गाणं, गाणारूवेहि संठिदं एक्कं । तो व किंपि विशेयं, णेयेण विणा कहं णा ||२४७ || अन्वयार्थः - [ जंदि सव्वमेव एक्कं णाणं ] जो सब वस्तुएँ एक ज्ञान ही हैं : [ णाणारूवेहि संठिदं ] वह ही अनेक रूपों में स्थित है [ तो ण वि किं पि विशेयं ] यदि ऐसा माना जाय तो ज्ञेय कुछ भी सिद्ध नहीं होता है [ येण विणा कहूं णाणं ] और ज्ञेयके बिना ज्ञान कैसे सिद्ध होवे । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा भावार्थः-विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धमती कहते हैं कि ज्ञानमात्र ही तत्त्व है वह ही अनेकरूप स्थित है, उसको कहते हैं कि यदि ज्ञानमात्र ही है तो ज्ञेय कुछ भी नहीं है और ज्ञेय नहीं है तब ज्ञान कैसे कहा जावे ? ज्ञेयको जानता है वह ज्ञान कहलाता है। ज्ञेयके बिना ज्ञान नहीं होता है । घड़पड़जड़दव्वाणि हि, णेयसरूवाणि सुप्पसिद्धाणि । णाणं जाणेदि जदो, अप्पादो भिण्णरूवाणि ॥२४८।। अन्वयार्थः-[ घड़पड़जड़दव्वाणि हि ] घट पट आदि समस्त जड़द्रव्य [णेयसरूवाणि सुप्पसिद्धाणि ] ज्ञेय स्वरूप से भलेप्रकार प्रसिद्ध हैं [ जदो गाणं जाणेदि ] क्योंकि ज्ञान उसको जानता है [ अप्पादो भिण्णरूवाणि ] इसलिये वे आत्मासे-ज्ञानसे भिन्नरूप रहते हैं। भावार्थ:-ज्ञेयपदार्थ, जड़द्रव्य भिन्न भिन्न, आत्मासे भिन्नरूप प्रसिद्ध हैं उनका लोप कैसे किया जावे ? यदि न मानें तो ज्ञान भी सिद्ध नहीं होवे, जाने बिना ज्ञान किसका ? जं सव्वलोयसिद्धं, देहं गेहादिबाहिरं अत्थं । जोतं पिणाण मण्णदि, ण मुणदि सो णाणणामं पि ॥२४६॥ अन्वयार्थः- [जं ] जो [ देहं गेहादिबाहिरं अथं ] देह गेह आदि बाह्य पदार्थ [ सव्वलोयसिद्धं ] सर्व लोकप्रसिद्ध हैं उनको भी ज्ञान ही माने तो [ सो णाणणामपि ] वह वादी ज्ञानका नाम भी [ ण मुणदि ] नहीं जानता है । भावार्थ:-बाह्य पदार्थको भी ज्ञान ही माननेवाला, ज्ञानके स्वरूपको नहीं जानता है सो तो दूर ही रहो, ज्ञानका नाम भी नहीं जानता है। अब नास्तित्ववादीके प्रति कहते हैं अच्छीहिं पिच्छमाणो, जीवाजीवादि बहुविहं अत्यं । जो भणदि स्थि किंचि वि, सो झुट्ठाण महामुट्ठो ॥२५०॥ अन्वयार्थ:-[ जीवाजीवादि बहुविहं अत्थं ] जो नास्तिकवादी जीव अजीव आदि बहुत प्रकारके पदार्थों को [ अच्छीहिं पिच्छमाणो ] प्रत्यक्ष नेत्रोंसे देखता हुआ भी Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा जो भणदि ] जो कहता है कि [ किंचि वि णत्थि ] कुछ भी नहीं है [ सो झुट्टा महाझुट्टो ] वह असत्यवादियों में महा असत्यवादी है । भावार्थ:- दीखती हुई वस्तुको भी नहीं बताता है वह महाझूठा है । जं सव्वं पिय संतं, ता सो वि असंतत्र कहं होदि । स्थित्ति किंचि तत्तो, अहवा सुराणं कहं मुखदि ॥ २५९ ॥ अन्वयार्थः - [ जं सव्वं पिय संतं ] जो सब वस्तुएँ सत्रूप हैं - विद्यमान है [ तासो वि असंतओ कहं होदि ] वे वस्तुएँ असत्रूप - अविद्यमान कैसे हो सकती हैं णत्थिचि किंचि तत्तो अहवा सुण्णं कहं मुणदि ] अथवा कुछ भी नहीं है ऐसा तो शून्य है ऐसा भी किस प्रकार मान सकते हैं । भावार्थ:- विद्यमान वस्तु अविद्यमान कैसे हो सकती है तथा कुछ भी नहीं है ( यदि ऐसा कहा जाय तो ऐसा कहनेवाला जाननेवाला भी सिद्ध नहीं होता है तब शून्य है ऐसा भी कौन जाने । अब इस ही गाथाका पाठान्तर है वह इसप्रकार है जदि सव्वं पि असतं, ता सो विय संतत्र कहं भणदि । स्थिति किं पि तच्चं अहवा सुराणं कहं मुखदि ॥ २५९ ॥ अन्वयार्थ ::- [ जं सव्वं पि असतं ता सो वि य संतओ कहं भणदि ] जो सब ही वस्तुएँ असत् हैं तो वह ऐसा कहनेवाला नास्तिकवादी भी असत्रूप सिद्ध हुआ [ णत्थि - सि किं पि तच्चं अहवा सुण्णं कहं मुणदि ] तब कुछ भी तत्त्व नहीं है इसप्रकार कैसे कहता है, अथवा नहीं भी कहता वह शून्य है ऐसा कैसे जानता है । भावार्थ:1:- आप उपस्थित है और कहता है कि कुछ भी नहीं है सो यह कहना तो बड़ा अज्ञानयुक्त है तथा शून्यतत्त्व कहना तो प्रलाप ही है, कहनेवाला हो नहीं तब कहे कौन ? अतः नास्तित्ववादी प्रलापी है । किं बहुगा उत्ते य, जेत्तियमेत्ताणि संति णामाणि । तित्तियमेत्ता अस्था, संति हि शियमेण परमत्था ॥ २५२ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा अन्वयार्थः - [ किं बहुणा उत्तेण य ] बहुत कहने से क्या ? [ जेचियमेचाणि णामाणि संति ] जितने नाम हैं [ तिचियमेत्ता ] उतने [ हि ] ही [ नियमेण ] नियमसे [ अत्था ] पदार्थ [ परमत्था ] परमार्थ रूप [ संति ] हैं । भावार्थ:- जितने नाम हैं उतने ही सत्यार्थ पदार्थ हैं, बहुत कहने से क्या | ऐसे पदार्थोंके स्वरूपका वर्णन किया । अब उन पदार्थोंको जाननेवाला ज्ञान है उसका स्वरूप कहते हैंगाणाधम्मेहिं जुदं, अप्पाणं तह परं पिच्छियदो | जं जादि सजोगं, तं गाणं भरणदे समये || २५३ || अन्वयार्थः–[ जं ] जो [ णाणाधम्मेहिं जुदं अप्पाणं तह परं पि ] अनेक धर्मयुक्त आत्मा तथा परद्रव्योंको [ सजोगं जाणेदि ] अपने योग्यको जानता है [ तं ] उसको [ णिच्छयदो ] निश्चयसे [ समये ] सिद्धान्त में [ णाणं भण्णदे ] ज्ञान कहते हैं। अपने आवरणके क्षयोपशम तथा क्षय के ज्ञान है । यह सामान्य ज्ञानका स्वरूप भावार्थः – जो आपको तथा परको अनुसार जानने योग्य पदार्थको जानता है वह कहा गया है । अब सकलप्रत्यक्ष केवलज्ञानका स्वरूप कहते हैं जं सव्वं पि पयासदि, दव्वपज्जायसंजुदं लोयं । तह य अलोयं सव्वं, तं गाणं सव्वपच्चक्खं ॥ २५४ ॥ ११३ अन्वयार्थः - [ जं ] जो ज्ञान [ दव्वपज्जायसंजुदं ] द्रव्यपर्याय संयुक्त [ सव्वं षि ] सब ही [ लोयं ] लोकको [ तह य सव्वं अलोयं ] तथा सब अलोकको [ पयासदि ] प्रकाशित करता है ( जानता है ) [ तं सव्वपच्चक्खं गाणं ] वह सर्वप्रत्यक्ष केलवज्ञान है | अब ज्ञानको सर्वगत कहते हैं सव्वं जाणदि जम्हा, सव्वगयं तं पि बुच्चदे तम्हा | पु विसरदि गाणं, जीवं चइऊण अण्णत्थ ॥२५५ ।। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ जम्हा सब्र्व्वं जाणदि ] क्योंकि ज्ञान सब लोकालोकको जानता है [ तम्हा तं पि सव्वगयं बुच्चदे ] इसलिये ज्ञानको सर्वगत भी कहते हैं [ पुण ] और [ णाणं जीवं चऊण अण्णत्थ ] ज्ञान जीवको छोड़कर अन्य ज्ञेय पदार्थों में [ ण य विसरदि ] नहीं जाता है । ११४ भावार्थ:- : -- ज्ञान सब लोकालोकको जानता है इस अपेक्षा ज्ञान सर्वगत तथा सर्वव्यापक कहलाता है परन्तु ज्ञान तो जीवद्रव्यका गुण है इसलिये जीवको छोड़कर अन्य पदार्थों में नहीं जाता है । अब ज्ञान जीवके प्रदेशों में रहता हुआ ही सबको जानता है ऐसा कहते हैंयं पि ण जादि गाणदेसम्म । , गाणं ण जादि यं यियिदे सठियाणं ववहारो गणणेयाणं ॥ २५६॥ " अन्वयार्थः - [ णाणं णेयं ण जादि ] ज्ञान ज्ञेयमें नहीं जाता है [ यं पि देसम्म ण जादि ] और ज्ञेयभी ज्ञानके प्रदेशों में नहीं जाता है [णियणियदे सठियाणं ] अपने अपने प्रदेशोंमें रहते हैं तो भी ज्ञान और ज्ञेयके ज्ञेयज्ञायक व्यवहार है । भावार्थ:- जैसे दर्पण अपने स्थान पर है, घटादिक वस्तुएँ अपने स्थान पर हैं । तो भी दर्पण की स्वच्छता ऐसी है मोनों कि दर्पण में घट आकर ही बैठा है ऐसे ही ज्ञानज्ञेयका व्यवहार जानना चाहिये । अब मन:पर्यय अवधिज्ञान और मति श्रुतज्ञानकी सामर्थ्य कहते हैंमज्जयविरणा, ओहीणाां च देसपच्चक्खं । मइया कमसो, विसदपरोक्खं परोक्खंच ॥ २५७ ॥ अन्वयार्थः - [ मणपञ्जयविण्णाणं ओहीणाणं च देसपच्चक्खं ] मन:पर्ययज्ञान और अवधिज्ञान ये दोनों तो देशप्रत्यक्ष है [ महसुयणाणं कमसो विसदपरोक्खं परोक्खं च ] मतिज्ञान और श्रुतज्ञान क्रमसे प्रत्यक्षपरोक्ष और परोक्ष हैं । भावार्थ:- मन:पर्ययज्ञान, अवधिज्ञान एकदेशप्रत्यक्ष हैं क्योंकि जितना इनका विषय है उतना विशद ( स्पष्ट ) जानते हैं, सबको नहीं जानते हैं, इसलिये एकदेश कहलाते हैं । मतिज्ञान इन्द्रिय व मनसे उत्पन्न होता है इसलिये व्यवहारसे ( इन्द्रियों के Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा सम्बन्धसे ) विशद भी कहा जाता है इस कारणसे प्रत्यक्ष भी है, परमार्थसे (निश्चयसे ) परोक्ष ही है । श्रुतज्ञान परोक्ष ही है क्योंकि यह विशद ( स्पष्ट ) नहीं जानता है। अब इन्द्रियज्ञान, योग्य विषयको जानता है ऐसा कहते हैं इन्दियजं मदिणाणां, जोग्गं जाणेदि पुग्गलं दव्वं । माणसणाणं च पुणो, सुयविसयं अक्वविसयं च ॥२५८॥ अन्वयार्थः- [इंदियजं मदिणाणं ] इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ मतिज्ञान [जोग्गं पुग्गलं दव्यं जाणेदि ] अपना योग्य विषय जो पुद्गल द्रव्य उसको जानता है । जिस इन्द्रियका जैसा विषय है वैसा ही जानता है। [ माणसणाणं च पुणो ] और मनसम्बन्धी ज्ञान [ सुयविसयंअक्खविसयं च ] श्रुतविषय ( शास्त्रका वचन सुनकर उसके अर्थको जानता है ) और इन्द्रियोंसे जानने योग्य विषयको भी जानता है। अब इन्द्रियज्ञानके उपयोगकी प्रवृत्ति अनुक्रमसे है ऐसा कहते हैंपंचेदियणाणाणं, मज्झे एगं च होदि उवजुत्तं । मणणाणे उवजुत्ते, इंदियणाणं ण जाणेदि ॥२५६॥ अन्वयार्थ:-[पंचेदियणाणाणं मज्झे एगं च उवजुत्तं होदि ] पांचों ही इन्द्रियोंसे ज्ञान होता है लेकिन एक काल एकेन्द्रियद्वारसे ज्ञान उपयुक्त होता है । पाँचो ही एक काल उपयुक्त नहीं होते हैं । [ मणणाणे उवजुत्ते ] और जब मन ज्ञानसे उपयुक्त हो [इंदियणाणं ण जाणेदि ] तब इन्द्रियज्ञान उत्पन्न नहीं होता है। भावार्थ:-इन्द्रियमनसम्बन्धी ज्ञानी प्रवृत्ति युगपत् ( एक साथ ) नहीं होती है, एकसमयमें एक ही से ज्ञान उपयुक्त होता है । जब यह जीव घटको जानता है उससमय पट ( वस्त्र ) को नहीं जानता है, इस तरह ज्ञान क्रमपूर्वक है। उपर इन्द्रियमनसम्बन्धी ज्ञानकी क्रमसे प्रवृत्ति कही है, यहाँ आशंका उत्पन्न होती है कि इन्द्रियोंका ज्ञान एककाल है या नहीं ? इस आशंकाको दूर करनेको कहते हैं एक्के काले एगं, णा जीवस्स होदि उवजुत्तं । णाणाणाणाणि पुणो, लद्धि-सहावेणा वुच्चंति ॥२६०॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा ___ अन्वयार्थः-[ जीवस्स एक्के काले एगं गाणं उवजुरा होदि ] जीवके एक कालमें एक ही ज्ञान उपयुक्त ( उपयोगकी प्रवृत्ति ) होता है [ पुणो लद्धिसहावेण णाणाणाणाणि वुच्चंति ] और लब्धिस्वभावसे एककालमें अनेक ज्ञान कहे गये हैं। भावार्थः-भाव इन्द्रिय दो प्रकारकी कही गई है, १ लब्धिरूप, २ उपयोगरूप । ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे आत्माके जाननेको शक्ति होती है सो लब्धि कहलाती है वह तो पाँच इन्द्रिय और मन द्वारा जाननेकी शक्ति एककाल ही रहती है और उनकी व्यक्तिरूप उपयोगकी प्रवृत्ति ज्ञेयसे उपयुक्त होती है तब एक काल एकहीसे होती है ऐसी ही क्षयोपशमकी योग्यता है । - अब वस्तुके अनेकात्मता है तो भी अपेक्षासे एकात्मता भी है ऐसा दिखाते हैं जं वत्थु अणेयंतं, एयंतं तं पि होदि सविपेक्खं । सुयणाणेण णयेहि य, णिरवेक्खं दीसदे णेव ॥२६१॥ अन्वयार्थ:-[जं वत्थु अणेयंत ] जो वस्तु अनेकान्त है [ तं सविपेक्खं एयंतं पि होदि ] वह अपेक्षासहित एकान्त भी है [ सुयणाणेण णयेहि य णिरवेक्खं दीसदे णेव ] श्रुतज्ञान प्रमाणसे सिद्ध किया जाय तो अनेकान्त ही है और श्रुतज्ञान प्रमाणके अंश नयोंसे सिद्ध किया जाय तब एकान्त भी है, वह अपेक्षारहित नहीं है क्योंकि निरपेक्ष नय मिथ्या हैं, निरपेक्षासे वस्तुका रूप नहीं देखा जाता है। भावार्थः-प्रमाण तो वस्तुके सब धर्मोंको एक काल सिद्ध करता है और नय एक एक धर्म ही को ग्रहण करते हैं इसलिये एकनयके दूसरे नयकी सापेक्षा होय तो वस्तु सिद्ध होवे और अपेक्षा रहित नय वस्तुको सिद्ध नहीं करता है इसलिये अपेक्षासे वस्तु अनेकान्त भी है ऐसा जानना ही सम्यग्ज्ञान है। अब श्रुतज्ञान परोक्षरूपसे सबको प्रकाशित करता है यह कहते हैं सव्वं पि अणेयंतं, परोक्खरूवेण जं पयासेदि । तं सुयणाणं भएणदि, संसयपहुदीहि परिचत्तं ॥२६२॥ अन्वयार्थः-[जं सव्वं पि अणेयंत परोक्खरूवेण पयासेदि ] जो ज्ञान सब वस्तुओंको अनेकान्त, परोक्षरूपसे प्रकाशित करता है-जानता है-कहता है और जो Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा ११७ [ संयहुदीहि परिचरां ] संशय विपर्यय अनध्यवसायसे रहित है [ तं सुयणाणं भण्णदि ] उसको श्रुतज्ञान कहते हैं । ऐसा सिद्धान्त में कथन है । भावार्थ:- जो सब वस्तुओंको परोक्षरूपसे 'अनेकान्त' प्रकाशित करता है वह श्रुतज्ञान है । शास्त्र के वचनको सुनकर अर्थकों जानता है वह परोक्ष ही जानता है और शास्त्रमें सब ही वस्तुओं का स्वरूप अनेकान्तात्मकरूप कहा गया है सो सब ही वस्तुओंको जानता है । तथा गुरुओंके उपदेशपूर्वक जानता है तब संशयादिक भी नहीं रहते हैं । अब श्रुतज्ञानके विकल्प ( भेद ) वे नय हैं, उनका स्वरूप कहते हैंलोयाणं ववहारं, धम्मविवक्खाइ जो पसाहेदि । सुयणाणस्स वियप्पो, सो वि णत्र लिंगसंमृदो ॥ २६३ ॥ अन्वयार्थः - [ जो लोयाणं ववहारं ] जो लोकव्यवहारको [ धम्मविवक्खाइ पसादि ] वस्तुके एक धर्मकी विवक्षासे सिद्ध करता है [ सुयणाणस्स वियप्पो ] श्रुतज्ञानका विकल्प ( भेद ) है [ लिंगसंभूदो ] लिंगसे उत्पन्न हुआ है [ सो वि णओ ] वह नय है । भावार्थ:-वस्तु के एक धर्मकी विवक्षा लेकर लोकव्यवहारको साधता है वह श्रुतज्ञानका अंश नय है । वह साध्य धर्मको हेतुसे सिद्ध करता है जैसे वस्तुके सत् धर्मको ग्रहण कर इसको हेतुसे सिद्ध करता है कि 'अपने द्रव्यक्षेत्र काल भावसे वस्तु सरूप है' ऐसे नय, हेतुसे उत्पन्न होता है । अब एक धर्मको नय कैसे ग्रहण करता है सो कहते हैं णाणाधम्मजुदं पि य, एयं धम्मं पिबुच्चदे अत्थं । तस्यविवक्खादो, त्थि विक्खा हु सेसाणं ॥ २६४ ॥ अन्वयार्थः – [ णाणधम्मजुदं पि य एवं धम्मं पिबुच्चदे अत्थं ] अनेक धर्मोसे युक्त पदार्थ हैं तो भी एक धर्मरूप पदार्थको कहता है [ तस्सेयविवक्खादो हु सेसाणं featar for ] क्योंकि जहाँ एक धर्मकी विवक्षा करते हैं वहाँ उस ही धर्मको कहते हैं अबशेष ( बाको ) सब धर्मोकी विवक्षा नहीं करते हैं । भावार्थ:- जैसे जीव वस्तु में अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व, चेतनत्व, अमूर्त्तत्व आदि अनेक धर्म हैं उनमें एक धर्मकी विवक्षासे कहता है Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा कि जीव चेतन स्वरूप ही है इत्यादि, वहाँ अन्य धर्मकी विवक्षा नहीं करता है इसलिये ऐसा नहीं जानना कि अन्यधर्मोंका अभाव है किन्तु प्रयोजनके आश्रयसे एक धर्मको मुख्य करके कहता है, अतः विवक्षितको मुख्य कहा है । अन्यकी विवक्षा नहीं है । अब वस्तुके धर्मको, उसके वाचक शब्दको और उसके ज्ञानको, नय कहते हैं सो चिय इक्को धम्मो, वाचयस विदो तस्स धम्मस्स । तं जाणदि तं णाणं, ते तिगिण वि णयविसेसा य ॥२६५॥ अन्वयार्थः-[ सो चिय इक्को धम्मो ] जो वस्तुका एक धर्म [ तस्स धम्मस्स वाचयसद्दो वि ] उस धर्मका वाचक शब्द [ तं जाणदि तं गाणं ] और उस धर्मको जाननेवाला ज्ञान [ ते तिणि वि णयविसेसा य ] ये तीनों ही नयके विशेष हैं । भावार्थ:-वस्तुका ग्राहक ज्ञान, उसका वाचक शब्द और वस्तु इनको जैसे प्रमाणस्वरूप कहते हैं वैसे ही नय भी कहते हैं। अब पूछते हैं कि वस्तुका एक धर्म ही ग्रहण करता है ऐसा जो एक नय उसको मिथ्यात्व कैसे कहा है, उसका उत्तर कहते हैं ते सावेक्खा सुणया, हिरवेक्खा ते वि दुग्णया होति । सयलववहारसिद्धी, सुणयादो होदि णियमेण ॥२६६।। अन्वयार्थः-[ ते सावेक्खा सुणय ] वे पहिले कहे हुए तीन प्रकारके नय परस्परमें अपेक्षासहित होते हैं तब तो सुनय हैं [ णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होति ] और वे ही जब अपेक्षारहित सर्वथा एक एक ग्रहण किये जाते हैं तब दुर्नय हैं [ सुणयादो सयलववहारसिद्धी एियमेण होदि ] और सुनयोंसे सर्व व्यवहार वस्तुके स्वरूपको सिद्धि नियमसे होती है। भावार्थः-नय सब ही, सापेक्ष तो सुनय हैं और निरपेक्ष कुनय हैं । सापेक्षसे सर्व वस्तु व्यवहारकी सिद्धी है, सम्यग्ज्ञानस्वरूप है और कुनयोंसे सर्व लोक व्यवहारका लोप होता है, मिथ्याज्ञानरूप है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं लोकानुप्रेक्षा ११६ अब परोक्षज्ञानमें अनुमान प्रमाण भी है उसका उदाहरण पूर्वक स्वरूप जं जाणिज्जइ जीवो, इन्दियवावारकायचिट्ठाहिं | - तं प्रमाणं भरणदि, तं पि णयं बहुविहं जाण ॥२६७॥ अन्वयार्थः – [ जं इंदियवावारकायचिट्ठाहिं जीवो जाणिजइ ] जो इन्द्रियों के व्यापार और कायकी चेष्टाओंसे शरीरमें जीवको जानते हैं [ तं अणुमाणं भण्णदि ] उसको अनुमान प्रमाण कहते हैं [ तं पिणयं बहुविहं जाण ] वह अनुमान ज्ञान भी नय है और अनेक प्रकारका है । भावार्थ:- पहिले श्रुतज्ञानके विकल्प नय कहे थे, यहाँ अनुमानका स्वरूप कहा कि शरोर में रहता हुआ जीव प्रत्यक्ष ग्रहण में नहीं आता है इसलिये इन्द्रियों का व्यापार-स्पर्श करन, स्वाद लेना, बोलना, सूंघना, सुनना, देखना चेष्टा तथा गमन आदिक चिह्नोंसे जाना जाता है कि शरीरमें जीव है सो यह अनुमान है क्योंकि साधनसे साध्यका ज्ञान होता है वह अनुमान कहलाता है । यह भी नय ही है । परोक्षप्रमाणके भेदोंमें कहा है सो परमार्थ से नय ही है । वह स्वार्थ तथा परार्थ के भेदसे और हेतु तथा चिह्नोंके भेदसे अनेक प्रकारका कहा गया है । अब नयके भेदोंको कहते हैं सो संग एक्को, दुविहो वि य दव्वपज्जएहिंतो । तेसिं च विसेसादो, णइगमपहूदी हवे गाणं ॥ २६८ ॥ अन्वयार्थः - [ सो संगहेण एको ] वह नय संग्रह करके कहिये तो ( सामान्यतया ) एक है [ य दव्वपजएहिंतो दुविहो वि ] और द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक के भेदसे दो प्रकारका है [ तेसिं च विसेसादो णइगमपहूदी णाणं हवे ] और विशेषकर उन दोनोंकी विशेषतासे नैगमनयको आदि देकर हैं सो नय हैं और वे ज्ञान ही हैं । अब द्रव्यार्थिकनयका स्वरूप कहते हैं— जो साइदि सामर, अविणाभूदं विसेसरूवेहिं । गाणाजुत्तिबलादो, दव्वत्थो सो होदि ॥ २६६॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ जो ] जो नय वस्तुको [ विसेसरूवेहिं ] विशेषरूपसे [ अविणाभूदं ] अविनाभूत [ सामण्णं] सामान्य स्वरूपको [ णाणाजत्तिवलादो] अनेक प्रकारकी युक्तिके बलसे [ साहदि ] सिद्ध करता है [ सो दव्वत्थो णओ होदि ] वह द्रव्याथिक नय है। अब पर्यायार्थिक नयको कहते हैं । जो साहेदि विसेसे, बहुविह-सामण्ण संजुदे सव्वे । साहणलिंगवसादो, पज्जयविसयो णो होदि ॥२७०।। अन्वयार्थः- [ जो] जो नय [ बहुविहसामण्ण संजदे सव्वे विसेसे ] अनेक प्रकार सामान्य सहित सर्व विशेषको [ साहणलिंगवसादो साहेदि ] उनके साधनके लिंगके वशसे सिद्ध करता है [ पजयविसयो "ओ होदि ] वह पर्यायाथिक नय है । भावार्थः-सामान्य सहित विशेषोंको हेतुसे सिथ करता है वह पर्यायाथिक नय है जैसे सत् सामान्यसहित चेतन अचेतनत्व विशेष है, चित् सामान्यसे संसारी सिद्ध जीवत्व विशेष है, संसारीत्व सामान्यसहित त्रस स्थावर जीवत्व विशेष है, इत्यादि । अचेतन सामान्यसहित पुद्गल आदि पाँच द्रव्यविशेष हैं । पुद्गल सामान्य सहित अणु स्कन्ध घट पट आदि विशेष हैं इत्यादि पर्यायाथिक नय हेतुसे सिद्ध करता है। अब द्रव्याथिक नयके भेदोंको कहेंगे । पहिले नैगमनयको कहते हैं जो साहेदि अदीदं, वियप्परूवं भविस्सम च । संपडिकालाविढे सो हु णो णेगमो यो ॥२७१॥ अन्वयार्थः- [जो ] जो नय ] अदीदं ] अतीत [ भविस्समट्ठच ] भविष्यत [ संपडिकालाविट्ठ ] तथा वर्तमानको [ वियप्परूवं साहदि ] संकल्पमात्र सिद्ध करता है [ सो हु णओणेगमो णेयो ] वह नैगम नय है । भावार्थः-द्रव्य तीनकालकी पर्यायोंसे अन्वयरूप है उसको अपना विषयकर अतीतकाल पर्यायको वर्तमानवत् संकल्पमें ले, आगामी पर्यायको भी वर्तमानवत् संकल्पमें ले, वर्तमानमें निष्पन्नको तथा अनिष्पन्नको निष्पन्न रूप संकल्पमें ले, ऐसे ज्ञानको तथा वचनको नैगम नय कहते हैं । इसके भेद अनेक हैं । सब नयोंके विषयको Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा मुख्य गौण कर अपना संकल्परूप विषय करता है । उदाहरण-जैसे, इस मनुष्य नामक जोवद्रव्यके संसार पर्याय है, सिद्ध पर्याय है, और यह मनुष्य पर्याय है ऐसा कहें तो संसार अतीत, अनागत, वर्तमान तीन काल सम्बन्धी भी है, सिद्धत्व अनागत ही है, मनुष्यत्व वर्तमान ही है परन्तु इस नयके वचनसे अभिप्रायमें विद्यमान संकल्प करके परोक्ष अनुभवमें लेकर कहते हैं कि इस द्रव्यमें मेरे ज्ञानमें अभी यह पर्याय भासती है ऐसे संकल्पको नैगमनयका विषय कहते हैं। इनमें से मुख्य गौण किसीको कहते हैं । अब संग्रहनय को कहते हैं जो संगहेदि सव्वं, देसं वा विविहदव्वपज्जायं । अणुगमलिंगविसिटु, सो वि णयो संगहो होदि ॥२७२॥ अन्वयार्थ:-[ जो ] जो नय [ सव्वं ] सब वस्तुओंको [ वा ] तथा [ देशं ] देश अर्थात् एक वस्तुके भेदोंको [ विविहदव्वपञ्जायं ] अनेक प्रकार द्रव्यपर्यायसहित [ अणुगमलिंगविसिटुं ] अवन्य लिंगसे विशिष्ट [ संगहेदि ] संग्रह करता है-एक स्वरूप कहता है [ सो वि गयो संगहो होदि ] वह संग्रह नय है । भावार्थः-सब वस्तुएँ, उत्पादव्यय ध्रौव्य लक्षण सत्के द्वारा द्रव्यपर्यायोंसे अन्वयरूप एक सत्मात्र है, सामान्य सत्स्वरूप द्रव्य मात्र है, विशेष सत्रूप पर्यायमात्र हैं, जीव वस्तु (द्रव्य ) चित् सामान्य से एक है, सिद्धत्व सामान्यसे सब सिद्ध एक हैं, संसारित्व सामान्यसे सब संसारी जीव एक हैं इत्यादि । अजीव सामान्यसे पुद्गलादि पाँच द्रव्य एक अजीव द्रव्य हैं, पुद्गलत्व सामान्यसे अणु स्कन्ध घटपटादि एक द्रव्य है इत्यादि संग्रहरूप कहता है सो संग्रह नय है। अब व्यवहारनयको कहते हैं जो संगहेण गहिदं, विसेसरहिदं पि भेददे सददं । परमाणूपज्जंतं, ववहारणो हवे सो हु ॥२७३॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जिस नयने [ संगहेण ] संग्रह नयसे [ विसेसरहिदं पि ] विशेषरहित वस्तुको [ गहिदं ] ग्रहण किया था उसको [ परमारगूपज्जतं ] परमाणु पर्यन्त [ सददं ] निरन्तर [ भेददे ] भेदता है [ सो हु ववहारणओ हवे ] वह व्यवहार नय है। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा भावार्थ:- संग्रहनय सर्व सत् सबको कहा, उसमें व्यवहार भेद करता है सौ सत् द्रव्यपर्याय है | संग्रहनय द्रव्य सामान्यको ग्रहण करे उसमें व्यवहार नय भेद करता है । द्रव्य जीव अजीव दो भेदरूप है । संग्रहनय जीव सामान्यको ग्रहण करता है उसमें व्यवहार भेद करता है । जीव संसारी सिद्ध दो भेदरूप है इत्यदि । संग्रह पर्याय - सामान्यको संग्रहण करता है । उसमें व्यवहार भेद करता है । पर्याय- अर्थपर्याय व्यंजनपर्याय दो भेदरूप है, ऐसे ही संग्रह अजीव सामान्यको ग्रहण करे उसमें व्यवहारनय भेद करके अजीव पुद्गलादि पाँच द्रव्य भेद रूप है । संग्रह पुद्गल सामान्यको ग्रहण करता है उसमें व्यवहारनय अणु स्कन्ध घट पट आदि भेद रूप कहता है । इस तरह जिसको संग्रह ग्रहण करे उसमें जहाँ तक भेद हो सके करता चला जाय वहाँ तक संग्रह व्यवहारका विषय है । इस तरह तीन द्रव्यार्थिक नयके भेदोंका वर्णन किया । १२२ अब पर्यायार्थिक के भेद कहेंगे । पहिले ही ऋजुसूत्रनयको कहते हैंजो वट्टमाणकाले, अत्थपज्जायपरिषद् अत्थं । संतं साहदि सव्वं, तं वि णयं रिजुण्यं जाण || २७४ || अन्वयार्थः - [ जो वट्टमाणकाले ] जो नय वर्तमान काल में [ अत्थपजायपरिणदं अस्थं ] अर्थ पर्यायरूप परिणत पदार्थको [ सव्वं संतं साहदि ] सबको सत्रूप सिद्ध करता है [ तं विणयं रिजुणयं जाण ] वह ऋजुसूत्र नय है । भावार्थ:- वस्तु समय समय परिणमन करती है । अतः एक समयकी वर्तमान पर्याको अर्थ पर्याय कहते हैं, यह इस ऋजुसूत्रनयका विषय है, यह नय इतनी मात्र ही वस्तुको कहता है । घड़ी मुहूर्रा आदि कालको भी व्यवहारमें वर्तमान कहते हैं वह उस वर्त्तमान कालस्थायी पर्यायको भी सिद्ध करता है इसलिये स्थूल ऋजुसूत्र संज्ञा है । इस तरह तीन तो पूर्वोक्त द्रव्याथिक और एक ऋजुसूत्र नय ये चार नय तो अर्थनय कहलाते हैं । अब तीन शब्दनय कहेंगे । पहिले शब्दनयको कहते हैं सव्वेसिं वत्थूणं, संखालिंगादि बहुपयारेहिं । जो साहदि गाणत्तं सद्दणयं तं वियाह ॥ २७५ ॥ " Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा १२३ अन्वयार्थः-[ जो सव्वेसि वत्थूणं ] जो नय सब वस्तुओंके [ संखालिंगादिबहुपयारेहिं ] संख्या लिंग आदि अनेक प्रकारसे [ णाण ] अनेकत्वको [ साहदि ] सिद्ध करता है [तं सद्दणयं वियाणेह ] उसको शब्दनय जानना चाहिये ।। भावार्थ:-संख्या-एकवचन द्विवचन बहुवचन, लिंग-स्त्री पुरुष नपुंसक आदि शब्दसे काल, कारक, पुरुष, उपसर्ग लेने चाहिये । इनके द्वारा व्याकरणके प्रयोग पदार्थको भेदरूपसे कहते हैं वह शब्दनय है । जैसे-पुष्य, तारका नक्षत्र–एक ज्योतिषी विमानके तीनों लिंग कहे लेकिन व्यवहार में विरोध दिखाई देता है क्योंकि वह ही पुरुष लिंग और वह ही स्त्री नपुसकलिंग किस प्रकार होता है । तथापि शब्द नयका यह ही विषय है जो जैसे शब्द कहता है वैसे ही अर्थको भेदरूप मानना । अब समभिरूढनयको कहते हैं जो एगेगं अत्थं, परिणदिभेदेण साहदे णाणं । मुक्वत्थं वा भासदि, अहिरूढं तं णयं जाण ॥२७६॥ अन्वयार्थः- [ जो अत्थं ] जो नय वस्तुको [ परिणदिभेदेण एगेगं साहदे ] परिणामके भेदसे एक एक भिन्न भिन्न भेद रूप सिद्ध करता है [ वा मुक्खत्थं भासदि ] अथवा उनमें मुख्य अर्थ ग्रहण कर सिद्ध करता है [ तं अहिरूढं णयं जाण] उसको समभिरूढ नय जानना चाहिये । भावार्थ:-शब्दनय वस्तुके पर्याय नामसे भेद नहीं करता है और यह समभिरूढ नय-एक वस्तुके पर्याय नाम हैं उनके भेदरूप भिन्न भिन्न पदार्थ ग्रहण करता है, जिसको मुख्यकर ग्रहण करता है उसको सदा वैसा ही कहता है जैसे-गो शब्दके अनेक अर्थ हैं तथा गौ पदार्थके अनेक नाम हैं उन सबको यह नय भिन्न भिन्न पदार्थ मानता है, उनमेंसे मुख्यकर गौ को ग्रहण करता है, उसको चलते, बैठते, और सोते समय गौ ही कहा करता है, ऐसा समभिरूढ नय है । अब एवंभूत नयको कहते हैं जेण सहावेण जदा, परिणदरूवम्मि तम्मयत्तादो। तप्परिणामं साहदि, जो वि णो सो हु परमत्थो ।।२७७।। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ जदा जेण सहावेण ] वस्तु जिससमय जिस स्वभावसे [ परिणदरूवम्मि तम्मयत्तादो ] परिणमनरूप होती है उस समय उस परिणामसे तन्मय होती है [ तप्परिणाम साहदि ] इसलिये उस हो परिणामरूप सिद्ध करतो है-कहतो है [ जो वि णओ ] वह एवंभूत नय है [ सो हु परमत्थो ] यह नय परमार्थरूप है। भावार्थ:-वस्तुका जिस धर्मकी मुख्यतासे नाम होता है उसही अर्थके परिणमनरूप जिससमय परिणमन करती है उसको उस नामसे कहना वह एवंभूत नय है, इसको निश्रय भी कहते हैं जैसे-गौको चलते समय गौ कहना और समय कुछ नहीं कहना। अब नयोंके कथनका संकोच करते हैं एवं विविहणएहिं, जो वत्थू ववहरेदि लोयम्मि । दसणणाणचरितं, सो साहदि सग्गमोक्खं च ॥२७८।। __ अन्वयार्थः-[ जो ] जो पुरुष [ लोयम्मि ] लोक में [ एवं विविहणएहिं ] इस तरह अनेक नयोंसे [ वत्थू ववहरेदि ] वस्तुको व्यवहाररूप कहता है, सिद्ध करता है और प्रवृत्ति कराता है [ सो ] वह पुरुष [दसणणाणचरितं ] दर्शन ज्ञान चारित्रको [च ] और [ सग्गमोक्खं ] स्वर्ग मोक्षको [ साहदि ] सिद्ध करता है-प्राप्त करता है। भावार्थ:-प्रमाण और नयों से वस्तुका स्वरूप यथार्थ सिद्ध होता है । जो पुरुष प्रमाण और नयोंका स्वरूप जानकर वस्तुको यथार्थ व्यवहाररूप प्रवृत्ति कराता है उसके सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी और उसके फल स्वर्ग मोक्ष की सिद्धी होतो है। अब कहते हैं कि तत्त्वार्थको सुनने, जानने, धारण और भावना करनेवाले विरले हैं विरला णिसुणहि तच्चं, विरला जाणंति तच्चदो तच्चं । विरला भावहिं तच्चं, विरलाणं धारण होदि ॥२७॥ अन्वयार्थः-[ विरला तच्चं णिसुणहि ] संसार में विरले पुरुष तत्त्वको सुनते हैं [ तच्च तच्चदो विरला जाणंति ] सुनकर भी तत्त्वको यथार्थ विरले ही जानते हैं [ विरला तचं भावहिं ] जानकर भी विरले ही तत्त्वकी भावना ( बारम्बार अभ्यास ) करते हैं [विरलाणं धारणा होदि ] अभ्यास करने पर भी तत्त्वकी धारणा विरलोंके ही होती है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकानुप्रेक्षा १२५ भावार्थ:- तत्त्वार्थका यथार्थ स्वरूप सुनना, जानना, भावना करना और धारणा करना उत्तरोत्तर दुर्लभ है । इस पंचमकालमें तत्त्वके यथार्थ कहनेवाले दुर्लभ हैं और धारण करनेवाले भी दुर्लभ हैं । __ अब कहते हैं कि जो कहे हुए तत्त्वको सुनकर निश्चल भावोंसे भाता है वह तत्त्वको जानता है। तच्चं कहिज्जमाणं, णिच्चलभावेण गिरहदे जो हि । तं चिय भावेदि सया, सो वि य तच्चं वियाणेइ ॥२८०॥ अन्वयार्थः- [जो ] जो पुरुष [ कहिजमाणं तच्चं ] गुरुओंके द्वारा कहे हुए तत्त्वोंके स्वरूपको [ णिच्चलभावेण गिण्हदे ] निश्चलभावसे ग्रहण करता है [तं चिय भावेदि सया ] अन्य भावनाओंको छोड़कर उसीकी निरन्तर भावना करता है [ सो वि य तच्चवियाणेए ] बह ही पुरुष तत्त्वको जानता है। अब कहते हैं कि जो तत्वको भावना नहीं करता है, वह स्त्री आदिके वशमें कौन नहीं है ? अर्थात् सब लोक है को ण सो इत्थि-जणे, कस्स ण मयणेण खंडियं माणं । को इन्दिएहिं ण जिओ, को ण कसाएहिं संतत्तो ॥२८॥ अन्वयार्थ:-[ इत्थिजणे वसो को ण ] इस लोक में स्त्रीजनके वश कौन नहीं है ? [ कस्स ण मयणेण खंडियं माणं ] कामसे जिसका मन खण्डित न हुआ हो ऐसा कौन है ? [को इंदिएहिं ण जिओ] जो इन्द्रियोंसे न जीता गया हो ऐसा कौन है ? [को ण कसाएहिं संतचो ] और कषायोंसे सप्तायमान हो ऐसा कौन है ? भावार्थ:-विषय कषायोंके वशमें सब लोक हैं और तत्त्वोंकी भावना करनेवाले विरले ही हैं। अब कहते हैं कि जो तत्त्वज्ञानी सब परिग्रहका त्यागी होता है वह स्त्री आदिके बश नहीं होता है सो ण वसो इत्थिजणे, सो ण जिओ इन्दिएहिं मोहेण । जो ण य गिराह दि गंथं, अभंतर बाहिरं सव्वं ॥२८२॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ जो ] जो पुरुष तत्त्वका स्वरूप जानकर [ अब्भंतर बाहिरं सव्वं गंथं ण य गिण्हदि ] बाह्य और अभ्यन्तर सब परिग्रहको ग्रहण नहीं करता है [ सो ण वसो इत्थिजणे ] वह पुरुष स्त्रीजनके वशमें नहीं होता है [ सो ण जियो इंदिएहिं मोहेण ] वह ही पुरुष इन्द्रियोंसे और मोह ( मिथ्यात्व ) कर्मसे पराजित नहीं होता है । भावार्थ:-संसारका बन्धन परिग्रह है । इसलिये जो सब परिग्रहको छोड़ता है वह ही स्त्री इद्रिय कषायादिकके वशीभूत नहीं होता है । सर्वत्यागी होकर शरीरका ममत्व नहीं रखता है तब निजस्वरूपमें ही लीन होता है । अब लोकानुप्रेक्षाके चितवनका माहात्म्य प्रगट करते हैं एवं लोयसहावं, जो भायदि उवसमेक्कसब्भाओ। सो खविय कम्मपुज, तस्सेव सिहामणी होदि ॥२८३॥ अन्वयार्थ:-[जो] जो पुरुष [एवं लोयसहावं ] इसप्रकार लोकके स्वरूपको [उसमेकसब्भावो ] उपशमसे एक स्वभावरूप होता हुआ [ झायदि ] ध्याता हैचितवन करता है [ सो कम्मपुंज खविय ] वह पुरुष कर्मसमूहका नाश करके [ तस्सेव सिहामणी होदि ] उस ही लोकका शिखामणि होता है। भावार्थ:-इस तरह जो पुरुष साम्यभावसे लोकानुप्रेक्षाका चितवन करता है वह पुरुष कर्मोंका नाश करके लोकशिखर पर जा विराजमाक हो जाता है । वहाँ अनन्त. अनुपम, बाधारहित, स्वाधीन, ज्ञानानन्दस्वरूप सुखको भोगता है । यहाँ लोकभावनाका कथन विस्तारसे करनेका आशय यह है कि जो अन्यमतवाले लोकका स्वरूप, जीवका स्वरूप तथा हिताहितका स्वरूप अनेक प्रकारसे अन्यथा असत्यार्थ प्रमाणविरुद्ध कहते हैं सो कोई जीव तो सुनकर विपरीत श्रद्धा करते हैं, कोई संशयरूप होते हैं और कोई अनध्यवसायरूप होते हैं उनके विपरीतश्रद्धासे चित्त स्थिरताको नहीं पाता है और चित्त स्थिर ( निश्चित ) हुए बिना यथार्थ ध्यानको सिद्धि नहीं होती है । ध्यान के बिना कर्मोंका नाश नहीं होता है इसलिये विपरीत श्रद्धानको दूर करनेके लिए यथार्थ लोकका तथा जीवादि पदार्थोंका स्वरूप जाननेके लिए विस्तारसे कथन किया है, उसको जानकर, जीवादिकका स्वरूप पहचानकर, अपने स्वरूपमें निश्चल चित्त कर, कर्मकलंकका नाश कर भव्यजीव मोक्षको प्राप्त होओ, ऐसा श्री गुरुओंका उपदेश है । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ लोकानुप्रेक्षा कुण्डलिया। लोकालोक विचारिक, सिद्धस्वरूपचितारि । रागविरोध विडारिक, आतमरूपसंवारि ।। आतमरूपसंवारि, मोक्षपुर बसो सदा ही । आधिष्याधिजरमरन, आदि दुख ह न कदाही ।। श्रीगुरु शिक्षा धारि, टारि, अभिमान कुशोका। मनथिरकारन, यह विचारि निजरूप.सुलोका ॥१०॥ इति लोकानुप्रेक्षा समाता ॥१०॥ ★ बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा जीवो अर्णतकालं, वसइ णिगोएसु आइपरिहोणो। तत्तो णीस्सरिऊणं, पुढवीकायादिओ होदि ॥२८४॥ अन्वयार्थ:-[ जीवो आइपरिहीणो अणंतकालं गिगोएसु वसइ ] यह जीव अनादिकालसे लेकर संसारमें अनन्तकाल तक तो निगोदमें रहता है [ तत्वो णीस्सरिऊगं पुढेवीकायादिभो होदि ] वहाँसे निकलकर पृथ्वीकामादिक पर्यायको धारण करता है। भावार्थ:--अनादिसे अनन्तकालपर्यन्त तो नित्यनिगोदमें जीघका निवास है। वहां एक शरीरमें अनन्तानन्त जीवोंका माहार, स्वासोच्छवास, जीवन, मरण समान है। स्वासके अठारहवें भाग आयु है । वहांसे निकलकर कदाचित् पृथिवी, अप, तेज, पायुकाय पर्याय पाता है सो यह पाना दुर्लभ है । अब कहते हैं कि इससे निकलकर संपर्याय पाना दुर्लभ है-- तत्थ वि असंखकालं, बायरसुहमेसु कुणइ परियतं । चिंतामणि व दुलह, तसत्तणं लहदि कट्ठण ॥२८॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः- [ तत्थ वि बायरसुहमेसु असंखकालं परियत्तं कुणइ ] वहाँ पृथिवीकाय आदिमें सूक्ष्म तथा बादरोंमें असंख्यात काल तक भ्रमण करता है [ तमत्तण चिंतामणि व्व कट्ठण दुलह लहदि वहांसे निकलकर सपर्याय पाना चिंतामणि रत्नके समान बड़े कष्टसे दुर्लभ है। भावार्थ:--पृथिवी आदि स्थावरकायसे निकलकर चिन्तामणि रत्नके समान असपर्याय पाना दुर्लभ है। अब कहते हैं कि त्रसों में भी पंचेन्द्रियपना दुर्लभ हैवियलिदिए जायदि, तत्थ वि अच्छेदि पुवकोडीओ। तत्तो णीसरिदूणं, कहमवि पंचिंदिओ होदि ॥२८६॥ अन्वयार्थः-[ वियलिदिएसु जायदि ] स्थावरसे निकल कर त्रस होय तब बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय. चौइन्द्रिय शरीर पाता है [ तत्थ वि पुव्वोकोडियो अच्छेदि ] वहाँ भी कोटिपूर्व समय तक रहता है [ ततो णीसरिदणं कहमवि पंचिंदिओ होदि ] वहाँसे भी निकल कर पंचेन्द्रिय शरीर पाना बड़े कष्ट से दुर्लभ है । भावार्थ:-विकलत्रयसे पंचेन्द्रियपना पाना दुर्लभ है। यदि विकलत्रयसे फिर स्थावर कायमें जा उत्पन्न हो तो फिर बहुत काल बिताता है, इसलिये पंचेन्द्रियपना पाना अत्यन्त दुर्लभ है। सो वि मणेण विहीणो, ण य अप्पाणं परं पिजाणेदि । अह मणसहिदोहोदि हु, तह वि तिरिक्खो हवे रु हो ॥२८७॥ अन्वयार्थः-[सो वि मणेण विहीणो] विकलत्रयसे निकलकर पंचेन्द्रिय भी होवे तो असैनी ( मन रहित ) होता है [ अप्पाणं परं पि ण य जाणेदि ] आप और परका भेद नहीं जानता है [ अह मणसहिदो होदि हु ] यदि मनसहित ( सैनी ) भी होवे तो [ तह वि तिरिक्खो हवे ] तिर्यंच होता है [रुद्दो] रौद्र र परिणामी बिलाव, घूघू ( उल्लू ) सर्प, सिंह, मच्छ आदि होता है । ___भावार्थ -कदाचित् पंचेन्द्रिय भी होवे तो असैनो होता है, सैनी होना दुर्लभ है । यदि सैनी भी हो जाय तो क्रूर तिर्यंच होवे जिसके परिणाम निरन्तर पापरूप ही रहते हैं। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा अब कहते हैं कि ऐसे क्रूर परिणामी जीव नरकमें जाते हैं सो तिव्वअसुहलेसो, णरये णिवडेइ दुक्खदे भीमे । तत्थ वि दुक्खं भुजदि, सारीरं माणसं पउरं ॥२८॥ अन्वयार्थः-[ सो तिव्वअसुहलेसो दुक्खदे भीमे गरये णिवडेइ ] वह क्रूर तिर्यंच तीव्र अशुभ परिणाम और अशुभ लेश्या सहित मरकर दुःखदायक भयानक नरक में गिरता है [ तत्थ वि सारीरं माणसं पउरं दुक्खं भुजदि ] वहाँ शरीरसम्बन्धी तथा मनसम्बन्धी प्रचुर दुःख भोगता है । अब कहते हैं कि उस नरकसे निकल तिर्यंच होकर दुःख सहता है तत्तो णीसरिद्रणं, पुणरवि तिरिएसु जायदे पावो । तत्थ वि दुक्खमणंतं, विसहदि जीवो अणेय विहं ॥२८६॥ अन्वयार्थः-[तत्तो णीसरिदूणं पुणरवि तिरिएसु जायदे] उस नरकसे निकलकर फिर भी तिर्यंचगति में उत्पन्न होता है [ तत्थ वि पावो जीवो अणेयविहं अणंतं दुक्खं विसहदि ] वहाँ भी पापरूप जैसे हो वैसे यह जीव अनेकप्रकारका अनन्त दुःख विशेषरूप से सहता है। अब कहते हैं कि मनुष्यपना पाना दुर्लभ है सो भी मिथ्यात्वी होकर पाप उत्पन्न करता है रयणं चउप्पहे पिव, मणुअत्तं सुट्ठ दुल्लहं लहिय । मिच्छो हवेइ जीवो, तत्थ वि पावं समज्जेदि ॥२६॥ अन्वयार्थः- [ रयणं चउप्पहे पिव मणुअरा सुट्ठ दुल्लहं लहिय ] जैसे चौराहेमें पड़ा हुआ रत्न बड़े भाग्यसे हाथ लगता है वैसे ही तिर्यंचसे निकलकर मनुष्यगति पाना अत्यन्त दुर्लभ है [ तत्थ वि जीवो मिच्छो हवेइ पावं समज्जेदि ] ऐसा दुर्लभ मनुष्यशरीर पाकर भी मिथ्या दृष्टि हो पाप ही करता है । भावार्थः-मनुष्य भी होकर, म्लेच्छखंड आदिमें तथा मिथ्या दृष्टियोंकी संगति में उत्पन्न होकर पाप ही करता है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब कहते हैं कि मनुष्य भी होवे और आर्यखण्डमें भी उत्पन्न हो तो भी उत्तम कुल आदिका पाना अत्यन्त दुर्लभ है अह लहदि अज्जवंतं, तह ण वि पावेइ उत्तम गोतं । उत्तम कुले वि पत्ते, धणहीणो जायदे जीवो ॥२६१॥ अन्वयार्थ:-[ अह लहदि अजवंत ] मनुष्यपर्याय पाकर यदि आर्यखण्डमें भी जन्म पावे तो [ तह वि उत्तम गोत्तं ण पावेइ ] उत्तम गोत्र ( ऊँच कुल ) नहीं पाता है [ उत्तम कुले वि पत्ते ] यदि ऊँच कुल भी प्राप्त हो जाय तो [ जीवो धणहीणो जायदे ] यह जीव धनहीन दरिद्री हो जाता है उससे कुछ सुकृत नहीं बनता है, पापही में लीन रहता है। अह धन सहिओ होदि हु, इंदियपरिपुण्णदा तदो दुलहा । अह इंदि य संपुराणो, तह वि सरोश्रो हवे देहो ॥२६२॥ अन्वयार्थः- [ अह धनसहिओ होदि हु] यदि धन सहित भी होवे [ तदो इन्दियपरिपुण्णदा दुलहा ] तो इन्द्रियोंकी परिपूर्णता पाना अत्यन्त के दुर्लभ है [ अह इन्दिय संपुण्णो ] यदि इन्द्रियोंकी सम्पूर्णता भी पावे [ तह वि देहो सरोओ हवे ] तो देह रोगसहित पाता है, निरोग होना दुर्लभ है। अह णीरोपो होदि हु, तह वि ण पावेइ जीवियं सुइरं । अह चिरकालं जीवदि, तो सोलं णेव पावेइ ॥२६३॥ अन्वयार्थः- [ अह णीरोओ होदि हु ] यदि निरोग भी हो जाय [ तह वि सहरं जीवियं ण पावेइ ] तो दीर्घ जीवन ( आयु ) नहीं पाता है, इसका पाना दुर्लभ है [ अह चिरकालं जीवदि ] यदि चिरकाल तक जीता है [ तो सीलं णेव पावेइ ] तो शील ( उत्तम प्रकृति-भद्र परिणाम ) नहीं पाता है क्योंकि उत्तम स्वभाव पाना दुर्लभ है । अह होदि सीलजुत्तो, तह वि ण पावेइ साहुसंसग्गं । अह तं पि कह वि पावदि, सम्मत्तं तह वि अइदुलहं ॥२६४॥ अन्वयार्थ:-[ अह सीलजत्तो होदि ] यदि शील ( उत्तम ) स्वभाव सहित भी हो जाता है [ तह वि साहुसंमग्गं ण पावेइ ] तो साधु पुरुषोंका संसर्ग ( संगति ) नहीं पाता है [ अह तं पि कह वि पावदि ] यदि वह भी पा जाता है [ तह वि सम्मत्वं अइदुलह ] तो सम्यक्त्व पाना ( श्रद्धान होना ) अत्यन्त दुर्लभ है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिदुर्लभानुक्षा सम्मत्ते वि य लद्धे, चारित्तं णेव गिण्हदे जीवो। अह कह वि तं पि गिराह दि, तो पालेदुण सक्केदि ॥२६५॥ अन्वयार्थः-[सम्मत्रो वि य लद्धे ] यदि सम्यक्त्व भी प्राप्त हो जाय तो [ जीवो चारित्तं णेव गिण्हदे ] यह जीव चारित्र ग्रहण नहीं करता है [ अह कह वि तं पि गिण्हदि ] यदि चारित्र भी ग्रहण करले [ तो पालेदु ण सक्केदि ] तो उसको पाल नहीं सकता है। रयणत्तये वि लद्धे, तिव्वकसायं करेदि जइ जीवो। तो दुग्गईसु गच्छदि, पण?रयणत्तो होऊ ॥२६६।। अन्वयार्थः -[जइ जीवो] यदि यह जोव [रयणतये वि लद्धे रत्नत्रय भी पाता है। तिब्धकसायं करेदि ] और तीव्रकषाय करता है [ तो] तो [ पणदुरयणतओ होऊ ] रत्नत्रय का नाश करके [ दुग्गईसु गच्छदि ] दुर्गतियों में जाता है । अब कहते हैं कि ऐसा मनुष्य पना दुर्लभ है जिससे रत्नत्रयकी प्राप्ति होरयणु व्व जल हि-पडियं मणुयत्तं तं पि होदि अइदुलहं । एवं सुणिच्छइत्ता, मिच्छकसाये य वज्जेह ॥२६७॥ ___ अन्वयार्थः-[ जलहि पडियं रयणु व्व मणुयत्तं तं पि होदि अइदुलहं होइ ] समुद्र में गिरे हुए रत्नको प्राप्तिके समान मनुष्यत्वकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है [ एवं सुणिच्छइत्ता ] ऐसा निश्चय करके हे भव्यजीवो ! [ मिच्छाकसाये य वज्जेह ] मिथ्यात्व और कषायोंको छोड़ो ऐसा श्रीगुरुओंका उपदेश है । अब कहते हैं कि यदि ऐसा मनुष्यत्व पाकर शुभपरिणामोंसे देवत्व पावे तो वहाँ चारित्र नहीं पाता है अहवा देवो होदि हु, तत्थ वि पावेदि कह व सम्मत्तं । तो तवचरणं ण लहदि, देसजमं सील लेसं पि ॥२६॥ अन्वयार्थः- [ अहवा देवो होदि हु ] अथवा मनुष्यत्व में कदाचित् शुभपरिणाम होनेसे देव भी हो जाय [ तत्थ वि कह व सम्मत्तं पावेदि ] और वहाँ कदाचित् सम्यक्त्व भी पा लेवे [ तो तवचरणं ण लहदि ] तो वहाँ तपश्चरण चारित्र नहीं पाता है Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा [ देसजम सीललेसं पि ] देशव्रत (श्रावकव्रत) शीलवत (ब्रह्मचर्य अथवा सप्तशील) का लेश भी नहीं पाता है । अब कहते हैं कि इस मनुष्यगतिमें ही तपश्चरणादिक हैं ऐसा नियम हैमणुवगईए वि तो, मणुवुगईए महव्वदं सयलं । मणुवगईए झाणं, मणुवगईए वि णिवाणं ।।२६६॥ अन्वयार्थः-[ मणुवगईए वि तओ ] हे भव्यजीवो ! इस मनुष्यगतिमें ही तपका आचरण होता है [ मणुवुगईए सयलं महव्वदं ] इस मनुष्य गति में ही समस्त महाव्रत होते हैं [ मणुवगईए झाणं ] इस मनुष्यगतिमें ही धर्मशुक्लध्यान होते हैं [ मणुवगईए वि णिवाणं] और इस मनुष्यगति में ही निर्वाण ( मोक्ष ) की प्राप्ति होती है। इय दुलहं मणुयत्तं, लहिऊणं जे रमन्ति विसएसु । ते लहिय दिव्वरयणं, भूइणिमित्तं पजालंति ॥३००। अन्वयार्थः- [इय दुलहं मणुय लहिऊणं जे विसएसु रमन्ति ] ऐसा यह दुर्लभ मनुष्यत्व पाकर भी जो इन्द्रियोंके विषयोंमें रमण करते हैं [ ते दिव्यरयणं लहिय भूइणिमित्तं पजालंति ] वे दिव्य ( अमूल्य ) रत्नको पाकर, भस्मके लिये दग्ध करते हैं-जलाते हैं। भावार्थ:-अत्यन्त कठिनाईसे पाने योग्य यह मनुष्यपर्याय अमूल्य रत्नके समान है, उसको विषयोंमें रमणकर वृथा खोना उचित ( योग्य ) नहीं है । अब कहते हैं कि इस मनुष्यपर्याय में रत्नत्रयको पाकर बड़ा आदर करो इय सव्वदुलहदुलहं, दसण णाणं तहा चरित्तं च । मुणिउण य संसारे, महायरं कुणह तिण्हं पि ॥३०१॥ अन्वयार्थः- [इय ] इसप्रकार [ संसारे ] संसारमें [ देसण गाणं तहा चरित्र च ] दर्शन ज्ञान और चारित्रको [ सव्वदुलहदुलहं ] सब दुर्लभसे भी दुर्लभ ( अत्यन्त दुर्लभ ) [ मणिउण य ] जानकर [तिण्हं ति ] दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों में हे भव्यजीवो ! [ महायरं कुणह ] बड़ा आदर करो। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १३३ भावार्थ:-निगोदसे निकल कर पहिले कहे अनुक्रमसे दुर्लभसे दुर्लभ जानो, उसमें भी सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ जानो, उसको पाकर भव्यजीवोंको महान् आदर करना योग्य है। छप्पय । बसि निगोदचिर निकसि खेद सहि धरनि तरुनि बहु । पवनवोद जल अगि निगोद लहि जरन मरन सहु ।। लट गिंडोल उटकण मकोड तन भमर भमणकर । जलविलोलपशु तन सुकोल, नभचर सर उरपर । फिरि नरकपात अति कष्टसहि, कष्टकष्ट नरतन महत । तहँ पाय रत्नत्रय चिगद जे, ते दुर्लभ अवसर लहत ।।११।। इति बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा समाप्ता ।।११।। धर्मानुप्रेक्षा अब धर्मानुप्रेक्षाका निरूपण करते हैं । पहिले धर्मके मूल सर्वज्ञ देव हैं उनको प्रगट करते हैं जो जाणदि पच्चक्खं, तियालगुणपज्जएहि संजुरी । लोयालोयं सयलं, सो सव्वण्हू हवे देओ ॥३०२॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो [ सयलं ] समस्त [ लोयालोयं ] लोक और अलोकको [ तियालगुणपजएहि संजुत्तं ] तीनकालगोचर समस्त गुण पर्यायोंसे संयुक्त [ पञ्चक्खं ] प्रत्यक्ष [ जाणदि ] जानता है [ सो सव्वण्हू देओ हवे ] वह सर्वज्ञ देव है। भावार्थ:-इस लोकमें जीव द्रव्य अनन्तानन्त हैं। उनसे अनन्तानन्तगुणे पुद्गल द्रव्य हैं । एक एक आकाश, धर्म, अधर्म द्रव्य हैं । असंख्यात कालाणु द्रव्य हैं । लोकके बाहर अनन्तप्रदेशी आकाशद्रव्य अलोक है । इन सब द्रव्योंके अतीत काल अनन्त Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा समयरूप, आगामी काल उनसे अनन्तगुणा समयरूप है, उस कालके समयसमयवर्ती एक द्रव्यको अनन्त अनन्त पर्यायें हैं । उन सब द्रव्यपर्यायोंको युगपत् एक समय में प्रत्यक्ष स्पष्ट भिन्न भिन्न जैसे हैं वैसे जाननेवाला ज्ञान जिसके है, वह सर्वज्ञ है। वह ही देव है । औरोंको देव कहते हैं सो कहनेमात्र हैं । यहाँ कहने का तात्पर्य ऐसा है कि अब धर्मका वरूप कहेंगे, सोधर्मका स्वरूप यथार्थ इन्द्रियगोचर नहीं, अतीन्द्रिय है । उसका फल स्वर्ग मोक्ष है, वे भी अतीन्द्रिय हैं । छद्मस्थके इन्द्रियज्ञान होता है, परोक्ष इसके गोचर नहीं होता है । जो सब पदार्थोंको प्रत्यक्ष देखता है वह धर्मके स्वरूपको भी प्रत्यक्ष देखता है, इसलिये धर्मका स्वरूप सर्वज्ञके वचनहीसे प्रमाण है । अन्य छद्मस्थका कहा हुआ प्रमाण नहीं है । अतः सर्वज्ञके वचनकी परम्परासे जो छद्मस्थ कहता है सो प्रमाण है इसलिये धर्मका स्वरूप कहने के लिये प्रारम्भमें सर्वज्ञको स्थापन किया गया। अब जो सर्वज्ञको नहीं मानते हैं उनके प्रति कहते हैं - जदि ण हवदि सबगहू, ता को जाणदि अदिदियं अत्थं । इन्दियणाणं ण मुणदि, थूलं पि असेस पज्जायं ॥३०३।। अन्वयार्थ:-[ जदि सव्वण्हू ण हवदि ] हे सर्वज्ञके अभाववादियों ! यदि सर्वज्ञ नहीं होवे [ ता अदिदियं अत्थं को जाणदि ] तो अतीन्द्रिय पदार्थ ( जो इन्द्रियगोचर नहीं है ) को कौन जानता ? [ इंदियणाणं ] इन्द्रियज्ञान तो [थूलं ] स्थूलपदार्थ ( इन्द्रियोंसे सम्बन्धरूप वर्तमान ) को जानता है [ असेस पजायं पिण मुणदि ] उसकी समस्त पर्यायोंको भी नहीं जानता । भावार्थ:-सर्वज्ञका अभाव मीमांसक और नास्तिक कहते हैं उनका निषेध किया है कि यदि सर्वज्ञ न होवे तो अतीन्द्रिय पदार्थको कौन जाने ? क्योंकि धर्म और अधर्मका फल अतीन्द्रिय है उसको सर्वज्ञके बिना कोई नहीं जानता इसलिये धर्म अधर्म के फलको चाहनेवाले पुरुष सर्वज्ञको मानकर, उसके वचनसे धर्मके स्वरूपका निश्चय कर अंगीकार करो। तेणुवइट्ठो धम्मो, संगासत्ताण तह असंगाणं । पढमो बारहभेश्रो, दसभेो भासिओ बिदिओ ॥३०४॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १३५ अन्वयार्थः-[ तेणुवइट्ठो धम्मो ] उस सर्वज्ञके द्वारा उपदेश किया हुआ धर्म दो प्रकारका है [ संगासत्ताण तह असगाणं ] १ संगासक्त ( गृहस्थ ) का और २ असंग ( मुनि ) का [ पढमो बारहमेमो ] पहिला गृहस्थका धर्म तो बारह भेदरूप है [विदिभो दसभेओ ] दूसरा मुनिका धर्म दस भेदरूप है । अब गृहस्थ धर्मके बारह भेदोंके नाम दो गाथाओंमें कहते हैं सम्मदंसणसुद्धो, रहिओ मज्जाइथूलदोसेहिं । वयधारी सामइउ, पववई पासुयाहारी ॥३०५।। राईभोयणविरओ, मेहुणसारं भसंगचत्तो य । कज्जाणुमोयविरदो, उहिट्ठारविरदो य ॥३०६॥ अन्वयार्थः-[ सम्मदंसणसुद्धो मजाइलदोसेहिं रहिओ ] १ शुद्ध सम्यग्दृष्टि, २ मद्य आदि स्थूल दोषोंसे रहित दर्शन प्रतिमाका धारी [ वयधारी ] ३ व्रतधारी ( पांच अगुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षावत इन बारह व्रत सहित ) [ सामइउ ] ४ सामायिक प्रती [ पावई ] ५ पर्ववती [ पासुयाहारी ] ६ प्रासुकाहारी [ राईभोयणविरओ ] ७ रात्रिभोजनत्यागी [ मेहुणसारंभसंगचत्तो य ] ८ मैथुनत्यागी ६ आरम्भत्यागी १० परिग्रहत्यागी [ कजाणुमोयविरदो ] ११ कार्यानुमोदविरत [ उद्दिवाहारविरदो य ] और १२ उद्दिष्टाहारविरत इसप्रकार श्रावकधर्मके १२ भेद हैं। भावार्थ:-पहिला भेद तो पच्चीस मल दोष रहित शुद्धअविरतसम्यग्दृष्टि है और ग्यारह भेद व्रत सहित प्रतिमाओंके होते हैं वह व्रतो श्रावक है । ___ अब इन बारहके स्वरूप आदिका व्याख्यान करेंगे । पहिले अविरतसम्यग्दृष्टिको कहेंगे । उसमें भी पहिले सम्यक्त्वको उत्पत्तिकी योग्यताका निरूपण करते हैं चउगदिभवो सरणी, सुविसुद्धो जग्गमाणपज्जत्तो । संसारतडे, नियडो, णाणी पावेइ सम्मत्तं ॥३०७॥ अन्वयार्थः-[ चउगदिभवो सण्णी ] पहिले तो भव्यजीव होवे क्योंकि अभव्यके सम्यक्त्व नहीं होता है, चारों ही गतियोंमें सम्यक्त्व उत्पन्न होता है परन्तु Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा मन सहित ( सैनी ) के हो उत्पन्न हो सकता है, असैनी के उत्पन्न नहीं होता है [सुविसुद्धो ] उस में भी विशुद्ध परिणामी हो, शुभ लेश्या सहित हो, अशुभ लेश्यामें भी शुभ लेश्याके समान कषायोंके स्थान होते हैं उनको उपचारसे विशुद्ध कहते हैं, संक्लेश परिणामोंमें सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है [ जग्गमाणपजतो ] जगते हुएके होता है, सोये हुएके नहीं होता है, पर्याप्त ( पूर्ण ) के होता है, अपर्याप्त अवस्था में नहीं होता है [ संसारतडे नियडो] संसारका तट जिसके निकट आगया हो (जो निकट भव्य हो) जिसका अर्द्धपुद्गल परावर्तन कालसे अधिक संसारभ्रमण शेष हो उसको सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है [ णाणी ] ज्ञानी हो अर्थात् साकार उपयोगवान् हो, निराकार दर्शनोपयोगमें सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है [ सम्म पावे ] ऐसे जीवके सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होती है । अब सम्यक्त्व तीन प्रकारका है, उनमें उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति कैसे है सो कहते हैं सत्तण्हं पयडीणं, उवसमदो होदि उवसमं सम्मं । खयदो य होदि खइयं, केवलिमूले मणूसस्स ॥३०८॥ अन्वयार्थः-[ सत्तण्हं पयडीणं उबसमदो उत्सम सम्मं होदि ] मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात मोहनीयकर्मको प्रकृतियोंके उपशम होनेसे उपशम सम्यक्त्व होता है [ य खयदो खइयं होदि ] और इन सातों मोहनोय कर्मको प्रकृतियों के क्षय होनेसे क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है [ केवलिमूले मणूसस्स ] यह क्षायिक सम्यक्त्व केवलज्ञानी तथा श्रुतकेवलोके निकट कर्मभूमिके मनुष्य के हो उत्पन्न होता है।। भावार्थ:-यहाँ ऐसा जानना चाहिये कि क्षायिक सम्यक्त्वका प्रारम्भ तो केवली श्रुतकेवलोके निकट मनुष्य के ही होता है और निष्ठापन अन्य गति में भी होता है। अब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कैसे होता है सो कहते हैं अणउदयादो छण्हं, सजाइरूवेण उदयमाणाणं । सम्मत्तकम्म उदए, खयउवसमियं हवे सम्मं ॥३०६।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ धर्मानुप्रेक्षा अन्वयार्थः- [ अणउदयादो छण्ह ] पूर्वोक्त सात प्रकृतियों में से छह प्रकृतियोंका उदय न हो [ सजाइरूवेण उदयमाणाणं ] सजाति ( समान जातीय ) प्रकृतिसे उदयरूप हो [ सम्मत्तकम्मउदए ] सम्यक् कर्मप्रकृतिका उदय होने पर [ खयउवसमियं सम्म हवे ] क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है । भावार्थ:-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्वके उदयका अभाव हो, सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय हो, अनन्तानुबन्धो क्रोध मान माया लोभके उदयका अभाव हो अथवा उनका विसंयोजन करके अप्रत्याख्यानावरण आदिक रूपसे उदयमान हो तब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । इन तीनों ही सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका विशेष कथन गोम्मटसार लब्धिसारसे जानना। अब औपशमिक-क्षायोपशमिक सम्यक्त्व तथा अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन और देशव्रत इनका पाना और छूट जाना उत्कृष्टतासे कहते हैं गिरहदि मुञ्चदि जीवो, वे सम्मत्ते असंखवाराओ। पढमकसायविणासं, देसवय कुणदि उक्किटुं ॥३१०॥ अन्वयार्थः- [जीवो ] यह जीव [ वे सम्म ] औपशमिक क्षायोपशमिक ये दो तो सम्यक्त्व [ पढमकसायविणासं ] अनन्तानुबन्धीका विनाश अर्थात् विसंयोजनरूप, अप्रत्याख्यानादिकरूप परिणमाना [ देसवयं ] और देशव्रत इन चारोंको [असंखवाराओ] असंख्यातबार [ गिण्हदि मुंचदि ] ग्रहण करता है और छोड़ता है [ उकिट्ठ ] यह उत्कृष्टतासे कहा है। भावार्थ:-पल्यके असंख्यातवें भाग परिमाण जो असंख्यात उतनी बार उत्कृष्टतासे ग्रहण करता है और छोड़ता है, बादमें भी मोक्षकी प्राप्ति होती है। अब, सात प्रकृतियोंके उपशम, क्षय, क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ सम्यक्त्व किसप्रकार जाना जाता है ऐसे तत्त्वार्थश्रद्धानको नौ गाथाओंमें कहते हैं जो तच्चमणेयंतं, णियमा सद्दहदि सत्तभंगेहिं । लोयाण पण्हवसदो, ववहारपवत्तण? च ॥३११॥ जो आयरेण मण्णदि, जीवाजीवादि णवविहं अत्थं । सुदणाणेण णएहि य, सो सद्दिट्ठी हवे सुद्धो ॥३१२॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ कार्तिकेयानुप्रक्षा अन्वयार्थ:-[जो सत्तभंगेहिं अणेयंतं तच्चं णियमा सद्द हदि ] जो पुरुष सात भंगोंसे अनेकान्त तत्त्वोंका नियमसे श्रद्धान करता है [ लोयाण पण्हवसदो ववहारपवत्तणटुं च] क्योंकि लोगोंके प्रश्नके वशसे विधिनिषेध वचनके सात ही भंग होते हैं इसलिये व्यवहारकी प्रवृत्तिके लिए भी सात भंगोंके वचनकी प्रवृत्ति होती है [ जो जीवाजीवादि णवविहं अत्थं ] जो जीव अजीव आदि नौ प्रकारके पदार्थोंको [ सुदणाणेण णएहि य ] श्रुतज्ञान प्रमाणसे तथा उसके भेदरूप नयोंसे [ आयरेण मण्णदि ] अपने आदर-यत्नउद्यमसे मानता है-श्रद्धान करता है [ सो सुद्धो सहिट्ठी हवे ] वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है। भावार्थ:-वस्तुका स्वरूप अनेकान्त है। जिसमें अनेक अन्त ( धर्म ) होते हैं उसको अनेकान्त कहते हैं । वे धर्म अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, अपेक्षत्व, दैवसाध्यत्व, पौरुषसाध्यत्व हेतुसाध्यत्व, आगमसाध्यत्व, अन्तरङ्गत्व, बहिरङ्गत्व इत्यादि तो सामान्य हैं । और द्रव्यत्व, पर्यायत्व, जीवत्व, अजीवत्व, स्पर्शत्व, रसत्व, गन्धत्व, वर्णत्व, शब्दत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व, मूर्त्तत्व, अमूर्त्तत्व, संसारित्व, सिद्धत्व, अवगाहनत्व, गतिहेतुत्व स्थिति हेतुत्व, वर्त्तनाहेतुत्व इत्यादि विशेष धर्म हैं । सो उनके प्रश्नके वशसे विधिनिषेधरूप वचनके सात भंग होते हैं । उनके 'स्यात्' पद लगाना चाहिये । स्यात् पद कथंचित् (कोई प्रकार) ऐसे अर्थ में आता है। उससे वस्तुको अनेकान्तरूप सिद्ध करना चाहिये । वस्तु 'स्यात् अस्तित्वरूप' है, ऐसे किसी तरह अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावसे अस्तित्वरूप हैं । वही वस्तु 'स्यात् नास्तित्वरूप' है, ऐसे पर वस्तुके द्रव्य क्षेत्र काल भावसे नास्तित्वरूप हैं। वस्तु 'स्यात् अस्तित्व नास्तित्व रूप' है, इस तरह वस्तुमें दोनों हो धर्म पाये जाते हैं और वचनसे क्रमपूर्वक कहे जाते हैं । वस्तु 'स्यात् अवक्तव्य' है, इस तरह वस्तुमें दोनों ही धर्म एक कालमें पाये जाते हैं तथापि एक कालमें वचनसे नहीं कहे जाते हैं इसलिये किसीप्रकार अवक्तव्य है । अस्तित्वसे कहा जाता है, दोनों एक काल हैं इसलिये एक साथ कहा नहीं जाता है, इस तरह वक्तव्य भी है और अवक्तव्य भो है इसलिये 'स्यात् अस्तित्व अवक्तव्य' है । ऐसे ही नास्तित्व अवक्तव्य है, दोनों धर्म क्रमसे कहे जाते हैं, एक साथ नहीं कहे जाते हैं इसलिये 'स्यात् अस्तित्व नास्तित्व अवक्तव्य' है । ऐसे सात ही भंग किसी तरह सम्भव होते हैं। ऐसे ही एकत्व अनेकत्व आदि सामान्य धर्मों पर सात भंग विधिनिषेधसे लगा लेना चाहिये । जैसी २ जहाँ अपेक्षा सम्भव हो सो लगा Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १३६ लेना चाहिये । ऐसे ही विशेषत्व धर्म जीवत्व आदिमें लगा लेना चाहिये, जैसे-जीव नामक वस्तु है उसमें स्यात् जीवत्व स्यात् अजीवत्व इत्यादि लगा लेना चाहिये । यहाँ अपेक्षा ऐसे-जो अपना जीवत्व धर्म आपमें है इसलिये जीवत्व है, पर अजीवका अजीवत्व धर्म इसमें नहीं है तथा अपने अन्यधर्मको मुख्य कर कहता है उसकी अपेक्षा अजीवत्व है इत्यादि लगा लेना चाहिये । जीव अनन्त हैं उसकी अपेक्षा अपना जीवत्व आपमें है, परका जीवत्व इसमें नहीं है, इसलिये उसकी अपेक्षा अजीवत्व है ऐसे भी सिद्ध होता है । इत्यादि अनादि निधन अनन्त जीव अजीव वस्तुएँ हैं, उनमें अपने अपने द्रव्यत्व पर्यायत्व अनन्त धर्म हैं उन सहित सात भंगसे सिद्ध कर लेना चाहिये, तथा उनकी स्थूल पर्यायें हैं वे भी चिरकालस्थायी अनेक धर्मरूप होती हैं जैसे-जीव, संसारी सिद्ध, संसारीमें बस स्थावर, उनमें मनुष्य तिर्यंच इत्यादि । पुद्गल में अणु स्कन्ध तथा घट पट आदि, सो इनके भी कथंचित् वस्तुत्व सम्भव है, वह भी वैसे ही सात भंगोंसे सिद्ध कर लेना चाहिये । ऐसे हो जीव पुद्गलके संयोगसे हुए आस्रव बन्ध संवर निर्जरा पुण्य पाप मोक्ष आदि भाव उनमें भी बहु धर्मत्वको अपेक्षा तथा परस्पर विधिनिषेधसे अनेक धर्मरूप कथंचित् वस्तुत्व सम्भव है, सो सात भंगोंसे सिद्ध कर लेना चाहिये। जैसे एक पुरुषमें पिता पुत्र मामा भाणजा काका भतीजापणा आदि धर्म सम्भवते हैं, उनको अपनी अपनी अपेक्षासे विधिनिषेध द्वारा सात भंगोंसे सिद्ध कर लेना चाहिये । ऐसा नियमसे जानना कि वस्तुमात्र अनेक धर्मस्वरूप है सो सबको अनेकान्त जानकर श्रद्धान करता है और वैसे ही लोकमें व्यवहार प्रवर्ताता है । वह सम्यग्दृष्टि है । जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, पुण्य-पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये नौ पदार्थ हैं उनको वैसे ही सात भंगोंसे सिद्ध कर लेना चाहिये, उनका साधन श्रुतज्ञान प्रमाण है और उसके भेद द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक, उनके भी भेद नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय हैं । उनके भी उत्तरोत्तर भेद जितने वचनके प्रकार हैं उतने हैं, उनको प्रमाणसप्तभंगी और न यसप्तभंगीके विधानसे सिद्ध करते हैं । उनका वर्णन पहिले लोकभावनामें कर चुके हैं । उनका विशेष वर्णन तत्त्वार्थसूत्रकी टीकासे जानना चाहिये । ऐसे प्रमाण और नयोंसे जीवादि पदार्थोंको जानकर श्रद्धान करता है वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है। ___ यहाँ यह विशेष जानना चाहिये कि जो नय हैं वे वस्तुके एक २ धर्मको ग्रहण करने वाले हैं, वे अपने अपने विषयरूप धर्मको ग्रहण करने में समान हैं तो भी पुरुष Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० कार्तिकेयानुप्रेक्षा अपने प्रयोजनके वशसे उनको मुख्य गौण कर कहते हैं जैसे जीव नामक वस्तु है उसमें अनेक धर्म हैं, तो भी चेतनत्व आदि प्राणधारणत्व अजीवोंसे असाधारण देख उन अजीवोंसे भिन्न दिखानेके प्रयोजनके वशसे मुख्यकर वस्तुका जीव नाम रक्खा, ऐसे हो मुख्य गौण करनेका सब धर्मों के प्रयोजनके वशसे जानना चाहिये । यहाँ इस ही आशयसे अध्यात्म प्रकरण में मुख्यको तो निश्चय कहा है और गोणको व्यवहार कहा है। उसमें अभेद धर्म तो प्रधानतासे निश्चय का विषय कहा है और भेद नयको गौणतासे व्यवहार कहा है सो द्रव्य तो अभेद है इसलिये निश्चयका आश्रय द्रव्य है । और पर्याय भेदरूप है इसलिये व्यवहारका आश्रय पर्याय है। यहाँ प्रयोजन यह है कि भेदरूप वस्तुको सबलोक ( संसार ) जानता है इसलिये जो जानता है वह ही प्रसिद्ध है इसी कारण लोक पर्यायबुद्धि है । जोवके नर नारक आदि पर्यायें हैं राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि पर्याय हैं तथा ज्ञानके भेदरूप मतिज्ञानादिक पर्यायें हैं इन पर्यायोंहीको लोक जीव जानता है । इसलिये इन पर्यायोंमें अभेदरूप अनादि अनन्त एक भाव जो चेतना धर्म उसको ग्रहण कर, निश्चयनय का विषय कहकर जीव द्रव्य का ज्ञान कराया है, पर्यायाश्रित जो भेदनय उसको गौण किया है तथा अभेददृष्टि में यह दिखाई नहीं देता इसलिये अभेदनयका दृढ़ श्रद्धान करानेके लिये कहा है कि जो पर्याय नय है वह व्यवहार है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । सो भेद बुद्धिका एकान्त निराकरण करने के लिये यह कथन जानना, ऐसा नहीं कि यह भेद है सो असत्यार्थ कहा है यह वस्तुका स्वरूप नहीं है, जो ऐसे सर्वथा मानता है वह अनेकान्त में समझा नहीं, सर्वथा एकान्त श्रद्धानसे मिथ्यादृष्टि होता है । जहाँ अध्यात्मशास्त्रों में निश्चय-व्यवहार नय कहे हैं वहाँ भो उन दोनोंके परस्पर विधिनिषेधसे सात भंगोंसे वस्तु सिद्ध कर लेना चाहिये । एकको सर्वथा सत्यार्थ माने और एकको सर्वथा असत्यार्थ माने तो मिथ्याश्रद्धान होता है इसलिये वहां भो कथंचित् जानना चाहिये । ___ अन्य वस्तुका अन्य वस्तुमें आरोपण करके प्रयोजन सिद्ध किया जाता है वहाँ उपचार नय कहलाता है यह भी व्यवहारमें ही गभित है ऐसे कहा है । जहाँ जो प्रयोजन निमित्त होता है वहाँ उपचार प्रवर्तता है। जैसे घृतका घट-यहाँ मिट्टोके घड़े के आश्रित घृत भरा हुआ होता है सो व्यवहारी लोगोंको आधार आधेय भाव दिखाई देता है उसको प्रधान करके कहते हैं । घृतका घट ( घड़ा ) कहने पर ही लोग समझते हैं और घृतका घड़ा मंगाने पर उसको ले आते हैं इसलिये उपचार में भी Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १४१ प्रयोजन सम्भवता है । इसी तरह अभेद नयको मुख्य करने पर अभेद दृष्टि में भेद दिखाई नहीं देता तब उसमें ही भेद कहता है सो असत्यार्थ है वहाँ भो उपचार सिद्ध होता है इस मुख्य गौणके भेदको सम्यग्दृष्टि जानता है । मिथ्यादृष्टि अनेकान्त वस्तुको नहीं जानता है और सर्वथा एक धर्म पर दृष्टि पड़ती है तब उसहीको सर्वथा वस्तु मानकर अन्य धर्मको या तो सर्वथा गौण कर असत्यार्थ मानता है, या सर्वथा अन्य धर्मका अभाव हो मानता है उससे मिथ्यात्व दृढ़ होता है सो यह मिथ्यात्व नामक कर्मकी प्रकृतिके उदय में यथार्थ श्रद्धा नहीं होती है इसलिये उस प्रकृतिका कार्य भी मिथ्यात्व ही कहलाता है। उस प्रकृतिका अभाव होने पर तत्त्वार्थका यथार्थ श्रद्धान होता है सो यह अनेकान्त वस्तु में प्रमाण नयसे सात भंगोंके द्वारा सिद्ध किया हुआ सम्यक्त्वका कार्य है इसलिये इसको भी सम्यक्त्व ही कहते हैं ऐसा जानना चाहिये । जैनमतमें कथन अनेक प्रकारका है सो अनेकान्तरूप समझना और इसका फल अज्ञानका नाश होकर उपादेयकी बुद्धि और वीतरागताकी प्राप्ति है । इस कथनका मर्म ( रहस्य ) जानना बड़े भाग्यसे होता है । इस पंचम काल में इससमय इस कथनोके गुरुका निमित्त सुलभ नहीं है इसलिये शास्त्र समझनेका निरन्तर उद्यम रखकर समझना योग्य है क्योंकि इसके आश्रयसे मुख्यतया सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है । यद्यपि जिनेन्द्रकी प्रतिमाके दर्शन तथा प्रभावना अंगका देखना इत्यादि सम्यक्त्वकी प्राप्तिके कारण हैं तथापि शास्त्रका श्रवण करना, पढ़ना, भावना करना, धारणा, हेतुयुक्तिसे स्वमत परमतका भेद जानकर नयविवक्षाको समझना, वस्तुका अनेकान्त स्वरूप निश्चय करना मुख्य कारण हैं, इसलिये भव्य जीवोंको इसका उपाय निरन्तर रखना योग्य है । अब कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि होने पर अनन्तानुबन्धी कषायका अभाव होता है, उसके निर्मद-मृदु परिणाम कैसे होते हैं जो ण य कुव्वदि गव्वं, पुत्त कलत्ताइसव्वअत्थेसु । उवसमभावे भावदि, अप्पाणं मुणदि तिणमित्तं ॥३१३॥ अन्वयार्थः- [जो ] जो सम्यग्दृष्टि होता है वह [ पुत्तकलत्ताइसब्बअत्थेसु ] पुत्र कलत्र आदि सब परद्रव्य तथा परद्रव्योंके भावों में [ गव्वं ण य कुब्वदि ] गर्व नहीं करता है, परद्रव्यों से आपके बड़प्पन माने तो सम्यक्त्व कैसा ? [ उवसमभावे भावदि ] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ कातिकेयानुप्रेक्षा उपशम भावोंको भाता है, अनन्तानुबन्धीसम्बन्धी तीव्र रागद्वेष परिणामके अभावसे उपशम भावोंकी भावना निरन्तर रखता है [ अप्पाणं तिणमित्तं मणदि ] अपनी आत्माको तृणके समान हीन मानता है क्योंकि अपना स्वरूप तो अनन्त ज्ञानादिरूप है इसलिये जबतक उसकी प्राप्ति नहीं होती है तबतक अपनेको वर्तमान पर्याय में तृणतुल्य मानता है, किसी में गर्व नहीं करता है । अब द्रव्य-दृष्टिका बल दिखाते हैंविसयासत्तो वि सया, सव्वारं भेसु वट्टमाणो वि । मोह विलासो एसो, इदि सव्वं मण्णदे हेयं ॥३१४॥ अन्वयार्थ:-[ विसयासतो वि सया] अवरित सम्यग्दृष्टि यद्यपि इन्द्रियविषयोंमें आसक्त है [ सवारंभसु वट्टमाणो वि] त्रस स्थावर जीवोंका घात जिनमें होता है ऐसे सब आरम्भोंमें वर्तमान है, अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायोंके तीव्र उदयसे विरक्त नहीं हुआ है [ इदि सव्वं हेयं मण्णदे ] तो भी सबको हेय ( त्यागने योग्य ) मानता है और ऐसा जानता है कि [ एसो मोहविलासो ] यह मोहका विलास है, नेरे स्वभावमें नहीं है, उपाधि है, रोगवत् है, त्यागने योग्य है, वर्तमान कषायोंकी पीड़ा सही नहीं जाती है इसलिये असमर्थ होकर विषयों के सेवन तथा बहु आरम्भमें प्रवृत्ति होती है ऐसा मानता है। उत्तमगुणगहणरओ, उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहम्मियअणुराई, सो सद्दिट्ठी हवे परमो ॥३१५॥ अन्वयार्थ:-[ उत्तमगुणगहणरओ ] सम्यग्दृष्टि कैसे होता है-उत्तम गुण सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप आदिके ग्रहण करने में अनुरागी होता है [ उत्तमसाहूण विणयसंजत्तो ] उन गुणोंके धारक उत्तम साधुओंमें विनय संयुक्त होता है [ साहम्मिय अणुराई ] अपने समान सम्यग्दृष्टि साधर्मियों में अनुरागी होता है, वात्सल्य गुणसहित होता है [ सो परमो सद्दिट्ठी हवे ] वह उत्तम सम्यग्दृष्टि होता है । यदि ये तीनों भाव नहीं होते हैं तो जाना जाता कि इसके सम्यक्त्वका यथार्थपना नहीं है। देहमिलियं पि जीवं, णियणाणगुणेण मुणदि जो भिगणं । जीवमिलियं पि देहं, कंचुवसरिसं वियाणेई ॥३१६॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १४३ अन्वयार्थः-[ देहमिलियं पि जीवं ] यह जीव देहसे मिल रहा है [णियणाणगुणेण जो भिण्णं मणदि ] तो भी अपना ज्ञानगुण है इसलिये अपनेको देहसे भिन्न ही जानता है [ जीव मिलियं पि देहं ] देह जीवसे मिल रहा है [ कंचुवसरिसं वियाणेई ] तो भी उसको कंचुक ( कपड़ेका जामा ) समान जानता है जैसे देहसे जामा भिन्न है वैसे जीवसे देह भिन्न है ऐसे जानता है। णिज्जियदोसं देवं, सव्वजिवाणं दया वरं धम्मं । वज्जियगंथं च गुरु, जो मरणदि सो हु सद्दिट्ठी ॥३१७॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो जीव [ णिजियदोसं देवं ] दोषरहित को तो देव [ सव्वजिवाणं दया वरं धम्म ] सब जीवोंको दयाको श्रेष्ठ धर्म [ वजियगंथं च गुरुं] निर्ग्रन्थको गुरु [ मण्णदि ] मानता है [ सो हु सद्दिट्टो ] वह प्रगटरूपसे सम्यग्दृष्टि है । भावार्थ:--सर्वज्ञ वीतराग अठारह दोष रहित देवको माने, अन्य दोषसहित देवोंको संसारो जाने, वे मोक्षमार्गी नहीं हैं, ऐसा जानकर उनको वन्दना पूजा नहीं करे । अहिंसारूप धर्म जाने, जो यज्ञादि देवताओंके लिये पशुघात कर चढ़ानेको धर्म मानते हैं उसको पाप ही जानकर आप उसमें प्रवृत्ति नहीं करे । जो ग्रन्थ ( परिग्रह) सहित अनेक भेष अन्यमतवालोंके हैं तथा कालदोषसे जैनमतमें भी भेष होगये हैं उन सबको भेषी पाखंडी जाने, उनकी वन्दना पूजा नहीं करे । सब परिग्रहसे रहित हों उनही को गुरु मानकर वन्दना पूजा करे क्योंकि देव गुरु धर्मके आश्रयसे ही मिथ्या सम्यक् उपदेश प्रवर्तता है इसलिये कुदेव कुधर्म कुगुरुको वन्दना पूजना तो दूर हो रहो उनके संसर्गहीसे श्रद्धान बिगड़ता है इस कारण सम्यग्दृष्टि उनको संगति भो नहीं करता है । स्वामी समन्तभद्र आचार्यने रत्नकरन्ड श्रावकाचार में ऐसे कहा है कि "सम्यग्दृष्टि कुदेव कुत्सित आगम और कुलिंगी भेषोको भयसे आशासे तथा लोभसे भी प्रणाम और उनका विनय नहीं करता है" इनके संसर्गसे श्रद्धान बिगड़ता है, धर्म की प्राप्ति तो दूर ही रही, ऐसा जानना चाहिये । अब मिथ्यादृष्टि कैसा होता है सो कहते हैं दोससहियं पि देवं, जीवहिंसाइसंजुदं धम्म । गंथासत्तं च गुरूं, जो मण्णदि सो हु कुद्दिट्ठी ॥३१॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ जो ] जो जीव [ दोससहियं पि देवं ] दोषसहित देवको तो देव [ जीवहिंसाइसंजदं धम्म ] जीव हिंसादि सहितको धर्म [ गंथासत्तं च गुरु ] परिग्रहमें आसक्तको गुरु [ मण्णदि ] मानता है [ सो हु कुद्दिट्टी ] वह प्रगटरूपसे मिथ्यादृष्टि है । भावार्थ:-भाव मिथ्यादृष्टि तो अदृष्ट छिपा हुआ मिथ्यात्वी है । जो कुदेव राग द्वेष मोह आदि अठारह दोष सहितको देव मानकर पूजा वन्दना करता है, हिंसा जीवघातसे धर्म मानता है और परिग्रहमें आसक्त भेषियों को ( पाखण्डियोंको ) गुरु मानता है वह प्रगटरूपसे प्रसिद्ध मिथ्यादृष्टि है । अब कोई प्रश्न करता है कि व्यन्तर आदि देव लक्ष्मी देते हैं, उपकार करते हैं उनकी पूजा वन्दना करें या नहीं ? उसको उत्तर देते हैं ण य को वि देदि लच्छी, ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं । उवयारं अवयारं, कम्मं पि सुहासुहं कुणदि ॥३१६॥ अन्वयार्थः-[को वि लच्छी ण य देदि ] इस जीवको कोई व्यन्तर आदि देव लक्ष्मी नहीं देते हैं [जीवस्स को वि उवयारं ण कुणदि] इस जीवका कोई अन्य उपकार भी नहीं करता है [ सुहासुहं कम्म पि उबयारं अवयारं कुणदि ] जीवके पूर्व संचित शुभ अशुभ कर्म ही उपकार तथा अपकार करते हैं। भावार्थ:-कोई ऐसा मानते हैं कि व्यन्तर आदि देव हमको लक्ष्मी देते हैं, हमारा उपकार करते हैं इसलिये हम उनकी पूजा वंदना करते हैं सो यह मिथ्याबुद्धि है। पहले तो इस पंचम कालमें प्रत्यक्ष कोई व्यन्तर आदि आप देता हुआ देखा नहीं, उपकार करता हुआ भी दिखाई नहीं देता, यदि ऐसा होता तो पूजनेवाले दरिद्री रोगी दुःखी क्यों रहते ? इसलिये वृथा कल्पना करते हैं। परोक्ष में भी ऐसा नियमरूप सम्बन्ध दिखाई नहीं देता है कि जो उनकी पूजा करते हैं उनके अवश्य उपकारादिक होवें ही, इसलिये यह मोही जीव वृथा ही विकल्प उत्पन्न करता है, जो पूर्वसंचित शुभाशुभ कर्म हैं वे ही इस प्राणीके सुख दुःख धन दरिद्र जीवन मरणको करते हैं। भत्तीए पुज्जमाणो, वितरदेवो वि देदि जदि लच्छी । तो किं धम्मं कीरदि, एवं चिंतेइ सहिट्ठी ॥३२०॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १४५ अन्वयार्थः- [ मदिदी एवं चिंतेड ] सम्यग्दृष्टि ऐसा विचार करता है कि [ जदि भनीए पुजमाणो वितरदेवो वि लच्छी देदि ] यदि भक्तिसे पूजा हुआ व्यन्तर देव हो लक्ष्मीको देता है [ तो धम्म कि कीरदि ] तो धर्म क्यों किया जाता है ? भावार्थ:-कार्य तो लक्ष्मोसे है सो व्यन्तर देव ही पूजा करनेसे लक्ष्मी दे देवे तो धर्म सेवन क्यों करना ? मोक्षमार्गके प्रकरण में संसारको लक्ष्मीका अधिकार भी नहीं है इसलिये सम्यग्दृष्टि तो मोक्षमार्गी है. संसारको लक्ष्मीको हेय जानता है, उसको बांछा ही नहीं करता है। यदि पुण्यके उदयसे मिले तो मिलो और न मिले तो मत मिलो, मोक्षसिद्धिको ही भावना करता है इसलिये संसारी देवादिकको पूजा वन्दना क्यों करे ? कभी भी पूजा वन्दना नहीं करता है । अब सम्यग्दृष्टि के विचार कहते हैं जं जस्स जम्मिदेसे,जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि । णादं जिणेण णियदं, जम्मंवा अहव मरणं वा ॥३२१॥ तं तस्स तम्मि देसे, तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि । को सक्कदिवारेदु, इंदो वा तह जिणिंदो वा ॥३२२।। अन्वयार्थः-[ जं जस्म जम्मिदेसे ] जो जिस जीवके जिस देश में [ जम्मि कालम्मि ] जिस काल में [जेण विहाणेण ] जिस विधानसे [ जम्मं वा अहव मरणं वा ] जन्म तथा मरण उपलक्षणसे दुःख सुख रोग दारिद्रय आदि [ जिणेण ] सर्वज्ञ देवके द्वारा [ णादं ] जाना गया है [ णियदं ] वह वैसे ही नियमसे होगा [तं तस्स तम्मि देसे ] वह हो उस प्राणीके उस ही देश में [ तम्मि कालम्मि ] उस हो कालमें [ तेण विहाणेण ] उसही विधानसे नियमसे होता है [ इदो वा तह जिणिंदो वा को वारेदं सक्कदि ] उसका इन्द्र, जिनेन्द्र, तीर्थंकर देव कोई भी निवारण नहीं कर सकते । भावार्थः-सर्वज्ञदेव सब द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अवस्था जानते हैं इसलिये जो सर्वज्ञके ज्ञान में झलका है ( जाना गया है ) वह नियमसे होता है उसमें हीनादिक कुछ भी नहीं होता है, सम्यग्दृष्टि ऐसा विचारता है । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब कहते हैं कि ऐसा निश्चय करते हैं वे तो सम्यग्दृष्टि हैं और इसमें संशय करते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं १४६ एवं जो णिच्चयदो, जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए । सो सद्दिट्ठी सुद्धो, जो संकदि सो हु कुदिट्ठी ॥ ३२३॥ अन्वयार्थः - [ जो एवं णिच्चयदो ] जो इसप्रकार के निश्चयसे [ दव्त्राणि सव्वपञ्जा जाणदि ] सब द्रव्य जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काल इनको और इन द्रव्यों को सब पर्यायोंको सर्वज्ञके आगमके अनुसार जानता है- -श्रद्धान करता है [ सो सुद्ध सट्ठी ] वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है [ जो संकदि सो हु कुद्दिट्ठी ] जो ऐसा श्रद्धान नहीं करता है शंका ( संदेह ) करता है वह सर्वज्ञके आगमसे प्रतिकूल है, प्रगटरूपसे मिथ्यादृष्टि है । अब कहते हैं कि जो विशेष तत्त्वको नहीं जानता है और जिनवचनों में आज्ञामात्र श्रद्धान करता है वह भी श्रद्धावान् कहलाता है । जो ण विजाणइ तच्चं सो जिणवयणे करेदि सहणं । जंजिरणवरेहि भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि ॥ ३२४ ॥ " अन्वयार्थः–[ जो तच्चं ण विजाणइ ] जो जीव अपने ज्ञानके विशिष्ट क्षयोपशम बिना तथा विशिष्ट गुरुके संयोग बिना तत्त्वार्थ को नहीं जान पाता है [ सो जिणवय सदहणं करेदि ] वह जीव जिनवचनों में ऐसा श्रद्धान करता है कि [ जं जिणवरेहि भणियं ] जो जिनेश्वर देवने तत्त्व कहा है [ तं सव्वमहं समिच्छामि ] उस सबहोको मैं भले प्रकार इष्ट ( स्वीकार ) करता हूँ इस तरह भी श्रद्धावान् होता है । भावार्थः – जो जिनेश्वर के वचनोंकी श्रद्धा करता है कि जो सर्वज्ञ देवने कहा है वह सब ही मेरे इष्ट है, ऐसी सामान्य श्रद्धासे भी आज्ञा सम्यक्त्व कहा गया है । अब सम्यक्त्वका माहात्म्य तीन गाथाओंमें कहते हैं रयणाण महारयणं, सव्वजोयाण उत्तमं जोयं । रिद्धी महा रिद्धि, सम्मत्तं सव्वसिद्धियरं ॥ ३२५॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा : अन्वयार्थः - [ रयणाण महारयणं ] सम्यक्त्व रत्नोंमें तो महारत्न है [ सव्वजोयाण उत्तमं जोयं ] सब योगों में ( वस्तुकी सिद्धि करनेके उपाय, मंत्र, ध्यान आदिमें ) उत्तम योग है क्योंकि सम्यक्त्व से मोक्षकी सिद्धि होती है [ रिद्धीण महारिद्धि] अणिमादिक ऋद्धियों में सबसे बड़ी ऋद्धि है [ सव्वसिद्धियरं सम्म ] अधिक क्या कहें, सब सिद्धियों को करनेवाला यह सम्यक्त्व ही है । सम्मत्तगुणप्पाणी, देविंदररिंदबंदिश्रो होदि । चत्तवयोविय पावइ, सग्गसुहं उत्तमं विविहं ॥ ३२६ ॥ अन्वयार्थ :- [ सम्मतगुणप्पहाणो ] सम्यक्त्व गुण सहित जो पुरुष प्रधान है वह [ देविंदणरिंदवंदिओ होदि ] देवोंके इन्द्र तथा मनुष्यों के इन्द्र चक्रवर्ती आदिसे वन्दनीय होता है [ चचत्रयो वि य उत्तमं विविहं सग्गसुहं पावइ ] व्रत रहित होने पर भी उत्तम अनेक प्रकारके स्वर्गके सुख पाता है । भावार्थ:- जिसमें सम्यक्त्व गुण होता है वह प्रधान पुरुष है, वह देवेन्द्रादिकसे पूज्य होता है, सम्यक्त्व में देवहीको आयु बँधती है इसलिये व्रतरहित के भी स्वर्गहीका जाना मुख्य रूप से कहा है । सम्यक्त्वगुणप्रधानका ऐसा भी अर्थ होता है कि जो सम्यक्त्व पच्चीस मल दोषोंसे रहित हो अपने निःशंकितआदि गुणों सहित हो तथा संवेगादि गुण सहित हो ऐसे सम्यक्त्वके गुणोंसे प्रधान पुरुष होता है वह देवेन्द्रादिसे पूज्य होता है और स्वर्गको प्राप्त करता है । १४७ सम्माइट्ठी जीवो, दुग्गदिहेदु ण बंधदे कम्मं । जं बभवे बद्धं, दुक्कम्मं तं पि खादि ॥ ३२७॥ अन्वयार्थः – [ सम्माइट्ठी जीवो ] सम्यग्दृष्टि जीव [ दुग्गदिहेतुं कम्मं ण बंधदे ] दुर्गतिके कारण अशुभकर्मको नहीं बांधता है [ जं बहुभवेसु बद्धं दुकम्म तं पिणासेदि ] और जो अनेक पूर्वभवों में बाँधे हुए पापकर्म हैं उनका भी नाश करता है । भावार्थ:- सम्यग्दृष्टि मरकर द्वितीयादिक नरकों में नहीं जाता है, ज्योतिषी व्यन्तर भवनवासी देव नहीं होता है, स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता है, पांच स्थावर, विकलत्रय, असैनो निगोद, म्लेच्छ, कुभोगभूमि इन सबमें उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि इसके अनन्तानुबन्धीके उदय के अभावसे दुर्गति के कारण कषायोंके स्थानकरूप परिणाम Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा नहीं हैं । यहाँ तात्पर्य यह है कि तीन काल और तीनलोकमें सम्यक्त्वके समान कल्याणरूप अन्य पदार्थ नहीं है और मिथ्यात्वके समान शत्रु नहीं है इसलिये श्रीगुरुओंका यह उपदेश है कि अपने सर्वस्व उद्यम उपाय यत्न द्वारा मिथ्यात्वका नाश कर सम्यक्त्वको अंगीकार करना चाहिये । इस तरह गृहस्थधर्म के बारह भेदों में पहिला भेद सम्यक्त्वसहितपनां है उसका वर्णन किया । अब प्रतिमाके ग्यारह भेदोंके स्वरूप कहेंगे । पहिले दार्शनिक श्रावकको कहते हैं १४८ बहुतससमणिदं जं, मज्जं मंसादि सिंदिदं दव्वं । जय सेवदि दिं, सो दंसणसावओ होदि ॥ ३२८ ॥ अन्वयार्थः - [ बहुतससमणिदं जं मज्जं मंसादि णिंदिदं दव्वं ] बहुतसे त्रस जीवोंके घातसे उत्पन्न तथा उन सहित मदिराका और अति निन्दनीय मांस आदि द्रव्यका [ जो यिदं ण य सेवदि ] जो नियमसे सेवन नहीं करता है - भक्षण नहीं करता है [ सो दंसणसावओ होदि ] वह दार्शनिक श्रावक है । भावार्थ:- मदिरा और मांस तथा आदि शब्दसे मधु और पंच उदम्बर फल ये वस्तुएँ बहुत स जीवोंके घात सहित हैं इसलिये दार्शनिक श्रावक इनका भक्षण नहीं करता है । मद्य तो मनको मोहित करता है तब धर्मको भूल जाता है । मांस सघात के बिना होता ही नहीं है । मधुको उत्पत्ति प्रसिद्ध है वह भी त्रसघातका स्थान ही है । पीपल बड़ पीलू फलों में प्रत्यक्ष त्रस जीव उड़ते हुए दिखाई देते हैं । अन्य ग्रन्थों में कहा है कि ये श्रावकके आठ मूलगुण है और इनको त्रसहिंसा के उपलक्षण कहे हैं इसलिये जिन वस्तुओं में त्रसहिंसा बहुत होती है वे श्रावकके लिये अभक्ष्य हैं इस कारण उनका भक्षण करना योग्य नहीं है । सात व्यसन अन्याय प्रवृत्तिके मूल ( जड़ ) हैं उनका भी यहाँ त्याग कहा है | जुआ मांस मद्य वेश्या शिकार चोरी परस्त्री ये सात व्यसन कहे गये हैं । व्यसन नाम आपत्ति वा कष्टका है इनके सेवन करने वालों पर आपत्तियाँ आती हैं राजासे पञ्चोंसे दण्ड योग्य होते हैं तथा इनका सेवन भी आपत्ति वा कष्टरूप है, श्रावक ऐसे अन्यायके कार्य नहीं करता है । यहाँ दर्शन नाम सम्यक्त्वका है तथा धर्मकी मूर्ति सबके Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १४६ देखनेमें आती है उसका भी नाम दर्शन है सो सम्यग्दृष्टि होकर जिनमतका सेवन करे और अभक्ष्य तथा अन्याय अंगीकार करे तो सम्यक्त्वको तथा जिनमतको लज्जित करे - मलिन करे इसलिए इनको नियमपूर्वक छोड़ने पर ही दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक होता है । दिढचित्तो जो कीरदि, एवं पि वयं शियाण परिहीणो । वेरग्भावियमणो, सो वि य दंसणगुणो होदि ॥ ३२६ ॥ अन्वयार्थः– [ एवं पि वयं ] ऐसे व्रतको [दिढचित्तो] दृढ़चित्त हो [ णियाणपरिहीणो ] निदान ( इस लोक परलोकके भोगोंकी वांछा ) से रहित हो [ वेरग्गभावियमणो ] वैराग्य से भावित ( गीला ) मन वाला होता हुआ [ जो कीरदि ] जो सम्यग्दृष्टि पुरुष करता है [ सोविय दंसणगुणो होदि ] वह दार्शनिक श्रावक होता है । भावार्थ:- पहिली गाथा में श्रावकका स्वरूप कहा था उसीके ये तीन विशेषण और जानना चाहिये । पहिले तो दृढ़चित्त हो, परीषह आदि कष्ट आवे तो व्रतकी प्रतिज्ञासे चलायमान नहीं हो । निदान रहित हो, इस लोक सम्बन्धी यश सुख सम्पत्ति वा परलोकसम्बन्धी शुभगतिकी वांछा रहित हो । वैराग्य भावनासे जिसका चित्त सिंचित हो । अभक्ष्य तथा अन्यायको अत्यन्त अनर्थ जानकर त्याग करे ऐसा नहीं कि ये शास्त्रमें त्यागने योग्य कहे हैं इसलिये छोड़ना चाहिये और परिणामों में राग मिटे नहीं । त्यागके अनेक आशय होते हैं सो इसके अन्य आशय नहीं होता, केवल तीव्र कषायके निमित्त महा पाप जानकर त्याग करता है । इनका त्याग करने पर ही आगामी प्रतिमाके उपदेश योग्य होता है । व्रती निःशल्य कहा गया है इसलिये शल्यरहित त्याग होता है इस तरह दर्शनप्रतिमाधारी श्रावकके स्वरूपका वर्णन किया । अब दूसरी व्रतप्रतिमाका स्वरूप कहते हैं पंचान्वयधारी, गुणवयसिकाएहिं संजुत्तो । दिढचित्तो समजुत्तो, गाणी वयसावओो होदि ॥ ३३० ॥ अन्वयार्थः - [ पंचाणुव्वयधारी ] जो पाँच अरपुव्रतोंका धारक हो [ गुणवयसिक्खावहिं संजुत्तो ] तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत सहित हो [दिढचित्तो समजुत्तो ] Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० कार्तिकेयानुप्रेक्षा दृढ़चित्त हो और समताभाव सहित हो [णाणी वयसावओ होदि ] ज्ञानवान हो, वह व्रतप्रतिमाका धारक श्रावक है । भावार्थ:-यहाँ अणु शब्द अल्पका वाचक है जो पाँचों पापोंमें स्थूल पाप हैं उनका त्याग है इसलिये अणुव्रत संज्ञा है । गुणव्रत और शिक्षाव्रत उन अणुव्रतोंको रक्षा करनेवाले हैं इसलिये अणुव्रती उनको भी धारण करता है । इसके प्रतिज्ञा व्रतकी है सो दृढ़चित्त है, कष्ट उपसर्ग परिषह आने पर भी शिथिल नहीं होता है । अप्रत्याख्यानावरण कषायके अभावसे ये व्रत होते हैं और प्रत्याख्यानावरण कषायके मन्द उदयसे होते हैं इसलिये उपशमभाव सहित विशेषण दिया है । यद्यपि दर्शनप्रतिमा धारीके भी अप्रत्याख्यानावरणका अभाव तो हो गया है परन्तु प्रत्याख्यानावरण कषायके तीव्र स्थानोंके उदयसे अतीचार रहित पाँच अणुव्रत नहीं होते हैं इसलिये अणुव्रत संज्ञा नहीं आती है और स्थूल अपेक्षा अणुव्रत उसके भी त्रसके भक्षणके त्यागसे अणुत्व है । व्यसनोंमें चोरीका त्याग है इसलिये असत्य भी इसमें गभित है । परस्त्रीका त्याग है, वैराग्य भावना है इसलिये परिग्रहके भी मूर्छाके स्थान घटते हैं परिमाण भी करता है परन्तु निरतिचार नहीं होते इसीलिये व्रत प्रतिमा नाम नहीं पाता है । ज्ञानी विशेषण भी उचित हो है, सम्यग्दृष्टि हो, व्रतका स्वरूप जान गुरुओंकी दी हुई प्रतिज्ञा लेता है वह ज्ञानी ही है ऐसा जानना चाहिये । अब पाँच अणुव्रतोंमेंसे पहिले अणुव्रतको कहते हैं जो वावरइ सदओ, अप्पाणसमं परं पि मण्णंतो। निंदणगरहणजुत्तो, परिहरमाणो महारंभे ॥३३१॥ तसघादं जो ण करदि, मणवयकाएहि णेव कारयदि । कुवंतं पि ण इच्छदि, पढमवयं जायदे तस्स ॥३३२॥ अन्वयार्थः- [ तसघादं जो ण करदि मणवयकाएहि णेव कारयदि ] जो श्रावक त्रसजीव दोइन्द्रिय तेन्द्रिय चौइन्द्रिय पंचेन्द्रियका घात मन वचन कायसे आप नहीं करे, दूसरेसे नहीं करावे [ कुवंतं पि ण इच्छदि ] और अन्यको करते हुएको इष्ट (अच्छा) नहीं माने [ तस्स पढमवयं जायदे ] उसके पहिला अहिंसाणुव्रत होता है । कैसा है श्रावक ? [ जो सदओ वावरइ ] जो दयासहित तो व्यापार कार्यमें प्रवृत्ति करता है [ अप्पाणसमं परं पि मण्णतो ] सब प्राणियोंको अपने समान मानता है [ निंदणगर Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १५१ हणजत्तो ] निंदा और गहरे सहित है । ( व्यापारादि कार्यों में हिंसा होती है उसकी अपने मन में ( अपनी ) निंदा करता है, गुरुओंके पास अपने पापोंको कहता है सो गर्हा सहित है, जो पाप लगते हैं उनकी गुरुओंकी आज्ञाप्रमाण आलोचना प्रतिक्रमण आदि प्रायश्चित्त लेता है ) [ महारंभे परिहरमाणो ] जिनमें त्रस हिंसा बहुत होती हो ऐसे बड़े व्यापार आदिके कार्य महारम्भोंको छोड़ता हुआ प्रवृत्ति करता है । भावार्थ:-वस घात स्वयं नहीं करता है. दूसरेसे नहीं कराता है, करते हुएको अच्छा नहीं मानता है। पर जीवोंको अपने समान जाने तब परघात नहीं करे । बड़े आरम्भ जिनमें सघात बहुत हो उनको छोड़े और अल्प आरम्भमें त्रसघात हो उससे अपनी निन्दा गर्दा करे, आलोचन प्रतिक्रमणादि प्रायश्चित करे । इनके अतिचार अन्य ग्रन्थों में कहे हैं उनको टाले ( न लगने दे ) इस गाथा में अन्य जीवको अपने समान जानना कहा है उसमें अतिचार टालना भी आ गया । परके वध बंधन अतिभारारोपण अन्नपाननिरोधमें दुःख होता है सो आप समान परको जाने तब क्यों करे । अब दूसरे अणुव्रतको कहते हैंहिंसावयणं ण वयदि, ककसवयणं पि जो ण भासेदि । णिठुरवयणं पि तहा, ण भासदे गुज्झवयणं पि ॥३३३॥ हिदमिदवयणं भासदि, संतोसकरं तु सव्वजीवाणं । धम्मपयासणवयणं, अणुव्वदि होदि सो बिदिओ ॥३३४॥ अन्वयार्थः- [ जो हिंसावयणं ण वयदि ] जो हिंसाके वचन नहीं कहता है [ कक्कसवयणं पि ण भासेदि ] कर्कश वचन भी नहीं कहता है [णिठुरवयणं पि तहा ] तथा निष्ठुर वचन भी नहीं कहता है [ गुज्झवयणं पि ण भासदे ] और परका गुह्य ( गुप्त ) वचन भी नहीं कहता है । तो कैसे वचन कहे ? [ हिदमिदवयणं भासदि ] परके हित रूप तथा प्रमाणरूप वचन कहता है [ तु सव्वजीवाणं संतोसकर ] सब जीवोंको सन्तोष करनेवाले वचन कहता है [ धम्मपयासणवयणं ] धर्मका प्रकाश करनेवाले वचन कहता है [ सो बिदिओ अणुव्वदि होदि ] वह पुरुष दूसरे अणुव्रतका धारी होता है। भावार्थः-असत्य वचन अनेक प्रकार का है उनका पूर्ण त्याग तो सकल चारित्रके धारक मुनियोंके ही होता है और अणुव्रतोंमें तो स्थूलका हो त्याग है इसलिये Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा जिस वचनसे परजीवका घात हो ऐसे हिंसाके वचन नहीं कहता है । जो बचन दूसरेको कटु लगते हों, सुनते हो क्रोधादिक उत्पन्न हो जाय ऐसे कर्कश वचन नहीं कहता है । दूसरेके उद्वेग उत्पन्न हो जाय, भय उत्पन्न हो जाय, शोक उत्पन्न हो जाय, कलह उत्पन्न हो जाय ऐसे निष्ठुर वचन नहीं कहता है । दूसरेके गुप्त मर्मका प्रकाश करने वाले वचन नहीं कहता है । उपलक्षणसे और भी ऐसे वचन जिनसे दूसरोंका बुरा होता हो ऐसे वचन नहीं कहता है । यदि कहता है तो हितमित वचन कहता है । सब जीवोंको सन्तोष उत्पन्न हो ऐसे वचन कहता है । जिनसे धर्मका प्रकाश हो ऐसे वचन कहता है। इसके अतीचार अन्य ग्रन्थोंमें मिथ्या उपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार, साकारमंत्रभेद कहे हैं सो गाथामें विशेषण कहे उनमें सब गभित हो गये । यहाँ तात्पर्य यह है कि जिससे परजीवका बुरा हो जाय, अपने ऊपर आपत्ति आ जाय तथा वृथा प्रलापके वचनोंसे अपने प्रमाद बढ़े ऐसा स्थूल असत्यवचन अणुव्रती नहीं कहता है, दूसरेसे नहीं कहलाता है और कहने वालेको अच्छा नहीं मानता है उसके दूसरा अणुव्रत होता है । अब तीसरे अणुव्रत को कहते हैं जो बहुमुल्लं वत्थु, अप्पमुल्लेण णेय गिरहेदि । वीसरियं पि ण गिणहदि, लाहे थोये वि तूसे दि ॥३३५॥ जो परदव्वं ण हरइ, मायालोहेण कोहमाणेण । दिढचित्तो सुद्धमई, अणुब्बई सो हवे तिदिओ ॥३३६॥ अन्वयार्थः-[ जो बहुमुल्ल वत्थु अप्पमुलेण णेय गिण्हेदि ] जो श्रावक बहुमूल्य वस्तुको अल्पमूल्यमें नहीं लेता है [ वीसरियं पि ण गिण्हदि लाहे थोये वि तूसेदि ] किसीकी भूलो हुई वस्तुको नहीं लेता है, व्यापार में थोड़े ही लाभसे सन्तोष करता है [ जो मायालोहेण कोहमाणेण परदव्यं ण हरइ ] जो कपटसे लोभसे क्रोधसे मानसे दूसरेके द्रव्यका हरण नहीं करता है [ दिढचित्तो ] जो दृढ़ चित्त है ( कारण पाकर प्रतिज्ञाका भंग नहीं करता है ) [सुद्धमई] शुद्ध बुद्धिवाला होता है [ सो तिदिओ अणुव्बई हवे] वह तीसरे अणुव्रतका धारक श्रावक होता है । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा भावार्थः-सात व्यसनोंके त्याग में चोरीका त्याग तो होता ही है उसमें यहाँ इतनी विशेषता है कि बहुमूल्य वस्तुको अल्प मूल्यमें लेनेसे झगड़ा उत्पन्न होता है न मालुम किस कारणसे दूसरा ( देनेवाला ) अल्पमूल्य में देता है । दूसरेको भूली हुई वस्तृको तथा मार्ग में पड़ी हुई वस्तुको भी नहीं लेता है यह नहीं सोचता है कि दूसरा नहीं जानता है इसलिये किसका डर है ? व्यापारमें थोड़े ही लाभ पर सन्तोष करता है, बहुत लोभसे अनर्थ उत्पन्न होते हैं । कपटपूर्वक किसीका धन नहीं लेता है । किसोने अपने पास रक्खा हो तो उसको न देनेके भाव नहीं रखता है । लोभ तथा क्रोधसे दूसरेके धनको बलात् ( जबरदस्ती ) नहीं लेता है और घमण्ड में आकर यह भी नहीं कहता है कि हम बहादुर हैं हमने लिया तो लिया, हमारा कोई क्या कर सकता है आदि । इस तरह दूसरोंका धन स्वयं नहीं लेता है, न दूसरोंके द्वारा लिवाता है और इस तरह लेने वालोंको अच्छा भी नहीं मानता है । अन्य ग्रन्थों में इस व्रतके पाँच अतिचार कहे गये हैं, चोरको चोरीके लिये प्रेरणा करना, उसका लाया हुआ धन लेना, राज्यविरुद्ध कार्य करना, व्यापारके तोल बाट हीनाधिक रखना, अल्पमूल्यकी वस्तुको बहुमूल्य वाली वस्तु बताकर व्यापार करना ये पाँच अतिचार हैं सो गाथा में दिये गये विशेषणों में गभित हैं । इस तरह निरतिचार स्तेयत्यागवतका पालन करता है वह तीसरे अणुव्रतका धारक श्रावक होता है। अब ब्रह्मचर्यव्रतका स्वरूप कहते हैं असुइमयं दुग्गंधं, महिलादेहं विरच्चमाणो जो । रूवं लावणणं पि य, मणमोहणकारणं मुणइ ॥३३७॥ जो मण्णदि परमहिलं, जणणीबहिणीसुप्राइसारिच्छं । मणवयणे कायेण वि, बंभवई सो हवे थूलो ॥३३८॥ अन्वयार्थः-[ जो महिलादेहं असुइमयं दुग्गंधं ] जो श्रावक स्त्रीके शरीरको अशुचिमयो दुर्गन्धयुक्त जानता हुआ [ रूवं लावण्णं पि य मणमोहणकारणं मुणइ ] उसके रूप तथा लावण्यको भी मनमें मोह उत्पन्न करनेका कारण जानता है [ विरच्चमाणो] इसलिये विरक्त होता हुआ प्रवर्तता है [ जो परमहिलं जणण बहिणीसुआइसारिच्छं मणवयणे कायेण विमण्णदि ] जोपरस्त्रोको, बड़ीको माताके समान, बराबरकीको बहिनके समान, Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा छोटोको पुत्री के समान मन वचन कायसे जानता है [ सो धूलो बंभवई हवे ] वह स्थूल ब्रह्मचर्यका धारक श्रावक है । भावार्थ:-इस व्रतका धारी परस्त्रीका तो मनवचनकाय कृतकारित अनुमोदनासे त्याग करता है और स्वस्त्रीमें सन्तोष रखता है । तीवकामके विनोद क्रीड़ारूप प्रवृत्ति नहीं करता है क्योंकि स्त्रीके शरीरको अपवित्र दुर्गन्धयुक्त जानकर वैराग्य भावनारूप भाव रखता है और कामकी तीव्र वेदना इस स्त्रीके निमित्तसे होती है इसलिये उसके रूप लावण्य आदि चेष्टाको मनको मोहनेका, ज्ञानको भुलानेका, कामको उत्पन्न करानेका कारण जानकर विरक्त रहता है वह चतुर्थ अणुव्रतका धारक होता है । इसके अति वार परविवाह करना, दूसरे विवाहित अविवाहित स्त्रीका संसर्ग, कामको क्रीड़ा, कामका तीव्र अभिप्राय ये कहे गये हैं ये 'स्त्रीके शरीर से विरक्त रहना' इस विशेषणमें गभित हैं । परस्त्रीका त्याग तो पहिली प्रतिमा सात व्यसनोंके त्यागमें आ चुका है यहाँ पर अति तीव्र कामकी वासनाका भी त्याग है इसलिये अतिचार रहित व्रत पालन करता है, अपनी स्त्रीमें भी तीव्र रागी नहीं होता है । ऐसे ब्रह्मचर्य व्रतका वर्णन किया । अब परिग्रहपरिमाण नामक पाँचवें अणुव्रतका स्वरूप कहते हैं जो लोहं णिहणित्ता, संतोसरसायणेण संतुट्ठो । णिहणदि तिराहा दुट्ठा, मण्णंतो विणस्सरं सव्वं ।।३३६॥ जो परिमाणं कुवदि, धणधाणसुवरणखित्तमाईणं । उवोगं जाणित्ता, अणुव्वदं पंचमं तस्स ॥३४०॥ अन्वयार्थः-[ जो लोहं णिहणित्ता सतोसरसायणेण संतुट्ठो ] जो पुरुष लोभ कषायको होन कर संतोष रूप रसायनसे संतुष्ट होकर [ सव्वं ] सब [ धणधाणसुवण्णखित्तमाईणं ] धन धान्य सुवर्ण क्षेत्र आदि परिग्रहको [ विणस्सरं मण्णतो] विनाशीक मानता हुआ [ दुट्ठा तिण्हा णिहणदि ] दुष्ट तृष्णाको अतिशयरूपसे नाश करता है [ उवओगं जाणित्ता ] धन धान्य सुवर्ण क्षेत्र आदि परिग्रहका अपना उपयोग ( आवश्यकता एवं सामर्थ्य ) जानकर उसके अनुसार [ जो परिमाणं कुव्वदि ] जो परिमाण करता है [ तस्स पंचमं अणुव्वदं ] उसके पाँचवाँ अणुव्रत होता है । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ धर्मानुप्रेक्षा भावार्थः-अन्तरंगका परिग्रह तो लोभ तृष्णा है उसको क्षीण करता है तथा बाह्य का परिग्रह परिमाण करता है और दृढ़चित्तसे प्रतिज्ञा भंग नहीं करता है वह अतिचार रहित पंचम अणुव्रती होता है इस तरह पांच अणुव्रतोंका निरतिचार पालन करता है वह व्रत प्रतिमाधारी श्रावक है, ऐसे पाँच अणुव्रतोंका वर्णन किया। __ अब इन व्रतोंकी रक्षा करनेवाले सात शील हैं उनका वर्णन करेंगे । उनमें पहिले तीन गुण व्रत हैं उसमें पहिले गुणवतको कहते हैं । जह लोहणासण?, संगपमाणं हवेइ जीवस्स । सव्वं दिसिसु पमाणं, तह लोहं णासए णियमा ॥३४१॥ जं परिमाणं कीरदि, दिसाण सव्वाणं सुप्पसिद्धाणं । उवोगं जाणित्ता, गुणव्वदं जाण तं पढमं ।।३४२।। अन्वयार्थः-[जह लोहणासणटुं जीवस्स संगपमाणं हवेइ ] जैसे लोभका नाश करनेके लिये जीवके परिग्रहका परिमाण होता है [ तह सव्वं दिसिसु पमाणं णियमा लोहं णासए ] वैसे ही सब दिशाओं में परिमाण किया हुआ भो नियमसे लोभका नाश करता है [ सव्वाण सुप्पसिद्धाणं दिसाण ] इसलिये सब ही पूर्व आदि प्रसिद्ध दस दिशाओंका [उवमोगं जाणिचा ] अपना उपयोग ( प्रयोजन कार्य ) जानकर [जं परिमाणं कीरदि] जो परिमाण करता है [ तं पढमं गुणव्वदं जाण ] वह पहिला गुणव्रत है। ___ भावार्थः-पहिले पांच अणव्रत कहे गये हैं उनके ये गुणव्रत उपकारी हैं। यहाँ गुण शब्द उपकारवाचक लेना चाहिये सो लोभका नाश करने के लिये जैसे परिग्रहका परिमाण करता है वैसे ही लोभका नाश करनेके लिये दिशाका भी परिमाण करता है । जहाँ तकका परिमाण किया है उससे आगे यदि द्रव्य आदिको प्राप्ति होतो हो तो भी वहाँ नहीं जाता है, इस तरहसे लोभ घटा ( कम हुआ ) और हिंसाका पाप भी परिमाणसे आगे न जानेके कारण वहाँ सम्बन्धी नहीं लगता है इसलिये परिमाण ( मर्यादा ) के बाहर महाव्रत समान हुआ। अब दूसरे गुणव्रत अनर्थदण्ड विरतिको कहते हैं कज्जं किंपि साहदि, णिच्चं पावं करेदि जो अत्थो । सो खलु हवे अणत्थो, पंचपयारो वि सो विविहो ॥३४३।। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ कातिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ:-[जो अत्थो कज्ज किंपि ण साहदि णिच्चं पावं करेदि ] जो कार्य प्रयोजन तो अपना कुछ सिद्ध करता नहीं है और केवल पापही को उत्पन्न करता है [ सो खलु अणत्थो हवे ] वह अनर्थ कहलाता है [ सो पंचपयारो विविहो वि ] वह पांच प्रकारका है तथा अनेक प्रकारका भी है। ___ भावार्थः-निःप्रयोजन पाप लगाना अनर्थदण्ड है वह पाँच प्रकारका कहा गया है । अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसाप्रदान, दुःश्रुतश्रवणादि और अनेक प्रकारका भी है। अब पहिले भेदको कहते हैंपरदोसाण वि गहणं, परलच्छीणं समीहणं जं च । परइत्थीअवलोओ, परकलहालोय पढमं ॥३४४॥ अन्वयार्थः- [ परदोसाणं वि गहणं ] दूसरेके दोषोंको ग्रहण करना [ परलच्छी समीहणं जंच ] दूसरेकी लक्ष्मो ( धन सम्पदा ) की वांछा करना [ परइत्थीअवलोओ ] दूसरेकी स्त्रीको रागसहित देखना [ परकलहालोयणं ] दूसरेकी कलहको देखना इत्यादि कार्योंको करना [ पढमं ] सो पहिला अनर्थदण्ड है। भावार्थः -दूसरेके दोषोंको ग्रहण करनेसे अपने भाव तो बिगड़ते हैं और अपना प्रयोजन कुछ सिद्ध होता नहीं है, दूसरेका बुरा होवे और अपनी दुष्टता सिद्ध होती है। दूसरेको सम्पदा देखकर आप उसकी इच्छा करे तो आपके कुछ आ नहीं जाती, बिना प्रयोजनके भाव ही बिगड़ते हैं । दूसरेको स्त्रीको रागसहित देखने में भी आप त्यागी होकर बिना प्रयोजन भाव क्यों बिगाड़े ? दूसरेकी कलह देखने में भी कुछ अपना कार्य सिद्ध नहीं होता किन्तु अपने पर भी कुछ आपत्ति आ पड़नेकी सम्भावना बन सकती है ऐसे और भी काम जिनमें अपने भाव बिगड़ते हों वहाँ अपध्यान नामका पहिला अनर्थदण्ड होता है सो अणुव्रतोंके भंगका कारण है इसके छोड़ने पर व्रत दृढ़ रहते हैं। अब दूसरे पापोपदेश नामक अनर्थदण्डको कहते हैंजो उवएसो दिज्जइ, किसिपसुपालणवणिज्जपमुहेसु । पुरिसित्थीसंजोए, अणत्थदंडो हवे बिदिओ ॥३४५॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १५७ अन्वयार्थः-[ जो किसिपसुपालणवणिजपमुहेसु ] खेती करना पशुओंका पालना वाणिज्य करना इत्यादि पापसहित कार्य तथा [ पुरिसित्थीसंजोए ] पुरुष स्त्रीका संयोग जैसे हो वैसे करने आदि कार्योंका [ उवएसो दिजइ ] दूसरोंको उपदेश देना इनका विधान बताना जिनमें अपना प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता हो केवल पाप ही उत्पन्न होता हो [विदिओ अणत्थदडो हवे ] सो दूसरा पापोपदेश नामका अर्नथदण्ड है ।। भावार्थ:-दूसरेको पापका उपदेश देने में अपने केवल पाप ही बँधता है इसलिये व्रतभंग होता है इस कारण इसको छोड़नेसे व्रतोंकी रक्षा होती है व्रतों पर गुण करता है उपकार करता है इसीलिये इसका नाम गुणव्रत है। अब तीसरे प्रमादचरित नामक अनर्थदण्डके भेदको कहते हैंविहलो जो वावारो, पुढवीतोयाण अग्गिवाऊणं । तह वि वणप्फदिछेदो, अणत्थदंडो हवे तिदिओ ॥३४६॥ अन्वयार्थः- [ जो पुढवीतोयाण अग्गिवाऊणं विहलो वावारो ] जो पृथ्वी जल अग्नि पवन इनके व्यापारमें विफल ( बिना प्रयोजन ) प्रवृत्ति करना [ तह वि वणप्फदिछेदो] तथा बिना प्रयोजन वनस्पति ( हरितकाय ) का छेदन भेदन करना [तिदिओ अणत्थदंडो हवे ] सो तीसरा प्रमादचरित नामक अनर्थदण्ड है। - भावार्थः-जो प्रमादके वश होकर पृथ्वी जल अग्नि पवन हरितकायकी बिना प्रयोजन विराधना करता है वहाँ त्रस स्थावरोंका घात ही होता है, अपना कार्य कुछ सिद्ध नहीं होता है इसलिये इसके करनेसे व्रत भंग होता है और छोड़ने पर व्रतकी रक्षा होती है। अब चौथे हिंसादान नामक अनर्थदण्डको कहते हैं मज्जारपहुदिधरणं, आयुहलोहादि विक्कणं जं च । लक्वाखलादिगहणं, अणत्थदंडो हवे तुरिभो ॥३४७॥ अन्वयार्थः- [ मजारपहुदिधरणं ] जो बिलाव आदि हिंसक जीवोंका पालना [ आयुहलोहादि विकणं जं च ] लोहेका तथा लोहे आदिके आयुधोंका व्यापार करना देना लेना [ लक्खाखलादिगहणं ] लाख खल आदि शब्दसे विष वस्तु आदिका देना लेना व्यापार करना [ तुरिओ अणत्थदडो हवे ] चौथा हिंसादान नामक अनर्थदण्ड है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा भावार्थ:-हिंसक जीवोंका पालन तो निःप्रयोजन और पाप प्रसिद्ध ही है। बहुत हिंसाके कारण शस्त्र लोह लाख आदिका व्यापार करना देना लेना करने में भी फल अल्प और पाप बहुत है । इसलिये अनर्थदण्ड ही है इसमें प्रवृत्ति करनेसे व्रतभंग होता है, छोड़ने पर व्रतकी रक्षा होती है । अब दुःश्रुति नामक पाँचवें अनर्थदण्डको कहते हैं जं सवणं सत्थाणं, भंडणवसियरणकामसत्थाणं । परदोसाणं च तहा, अणत्थदंडो हवे चरमो ॥३४८॥ अन्वयार्थः-[ जं सत्थाणं भंडणवसियरणकामसत्थाणं सवणं ] जो सर्वथा एकान्तमतवालोंके बनाये हुए कुशास्त्र तथा भांडक्रिया हास्य कौतूहल के कथनके शास्त्र, वशीकरण मंत्र प्रयोगके शास्त्र तथा स्त्रियोंकी चेष्टाके वर्णनरूप कामशास्त्र आदिका सुनना सुनाना पढना पढाना [ परदोसाणं च तहा ] दूसरे के दोषों को कथा करना सुनना [ चरमो अणत्थदंडो हवे ] दुःश्रुतिश्रवण नामक अन्तिम पाँचवाँ अनर्थदण्ड है। भावार्थः-खोटे शास्त्र सुनने सुनाने पढ़ने बनानेसे कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, केवल पापही होता है और आजीविका निमित्त भी इनका व्यापार करना श्रावकको योग्य नहीं है । व्यापार आदिकी योग्य आजीविका ही श्रेष्ठ है। जिससे व्रतभंग होता हो सो क्यों करे ? व्रतकी रक्षा करना ही उचित है। अब इस अनर्थदण्डके कथनका संकोच करते हैं एवं पंचपयारं, अणत्थदंडं दुहावहं णिच्चं । जो परिहरेदि णाणी, गुणव्वदी सो हवे बिदिओ ॥३४६॥ अन्वयार्थः-[ जो णाणी ] जो ज्ञानी श्रावक [ एवं पंचपयारं अणत्थदंड दुहावहं णिच्चं परिहरेदि ] इसप्रकार पाँच प्रकारके अनर्थदण्डको निरन्तर दुःखोंका उत्पन्न करनेवाला जानकर छोड़ता है [ सो विदिओ गुणव्यदी हवे ] वह दूसरे गुणव्रत का धारक श्रावक होता है। भावार्थ:-यह अनर्थदण्डत्याग नामक गुणवत अणुव्रतोंका बड़ा उपकारी है इसलिये श्रावकोंको अवश्य पालन करना योग्य है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ धर्मानुप्रेक्षा अब भोगोपभोग नामक तीसरे गुणव्रत को कहते हैं जाणित्ता संपत्ती, भोयणतंबोलवत्थमादिणं । जं परिमाणं कीरदि, भोउवभोयं वयं तस्त ॥३५०॥ अन्वयार्थः- [ संपत्ती जाणिवा ] जो अपनी सम्पदा सामर्थ्य जानकर [ भोयणतंबोलवत्थमादिणं] भोजन ताम्बूल वस्त्र आदिका [जं परिमाणं कीरदि ] परिमाण ( मर्यादा ) करता है [ तस्स भोउवभोयं वयं ] उस श्रावकके भोगोपभोग नामक गुणव्रत होता है । भावार्थः-भोजन ताम्बूल आदि एक बार भोगने योग्य पदार्थों को भोग कहते हैं और वस्त्र आभूषण आदि बारबार भोगने योग्य पदार्थों को उपभोग कहते हैं । इनका परिमाण यमरूप ( यावज्जीवन ) भी होता है और नित्य नियमरूप भी होता है सो यथाशक्ति अपनी सामग्रीका विचार कर यमरूप कर लेवे तथा नियमरूप भी जो कहे हैं उनका नित्य प्रयोजनके अनुसार नियम कर लिया करे । यह अणुव्रतका बड़ा उपकारी है। अब भोगोपभोगकी उपस्थित वस्तुको छोड़ता है उसकी प्रशंसा करते हैं जो परिहरेइ संतं, तस्स वयं थुव्वदे सुरिंदो वि । जोमणलड्डु व भक्खदि, तस्स वयं अप्पसिद्धियरं॥३५१॥ अन्वयार्थः-[ जो संतं परिहरेइ ] जो पुरुष, होतो हुई वस्तुको छोड़ता है [ तस्स वयं सुरिंदो वि थुम्बदे ] उसके व्रतकी सुरेन्द्र भी प्रशंसा करता है [ जो मणलड्ड व भक्खदि तस्स वयं अप्पसिद्धियरं ] और अनुपस्थित वस्तुका छोड़ना तो ऐसा है जैसे लड्डू तो हों नहीं और संकल्पमात्र मनमें लडडूकी कल्पना कर लड्डू खावे वैसा है। इसलिये अनुपस्थित वस्तुको तो संकल्प मात्र छोड़ना है, इस प्रकारसे छोड़ना व्रत तो है परन्तु अल्पसिद्धि करने वाला है, उसका फल थोड़ा है । यहाँ कोई प्रश्न करे कि भोगोपभोग परिमाणको तीसरा गुणव्रत कहा है परन्तु तत्वार्थसूत्र में तो तीसरा गुणव्रत देशव्रतको कहा है, भोगोपभोग परिमाणको तीसरा शिक्षाव्रत कहा है सो यह कैसे ? Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा समाधान-यह आचार्यों की विवक्षाकी विचित्रता है। स्वामी समन्तभद्र आचार्यने भी रत्नकरण्डश्रावकाचारमें यहांके अनुसार ही कहा है इसलिये इसमें विरोध नहीं है । यहाँ तो अणुव्रतके उपकारीकी अपेक्षा ली है और वहाँ सचित्तादि भोग छोड़नेकी अपेक्षा मुनिव्रतकी शिक्षा देनेकी अपेक्षा ली है, कुछ विरोध नहीं है। ऐसे तीन गुणवतोंका वर्णन किया । अब चार शिक्षाव्रतोंका व्याख्यान करेंगे । पहिले सामायिक शिक्षाव्रतको कहते हैं सामाइयस्स करणं, खेत्तं कालं च आसणं विलो। मणवयणकायसुद्धी, णायव्वा हुति सत्तेव ॥३५२॥ अन्वयार्थः-[ सामाइयस्स करणं ] प्रथम ही सामायिकके करने में [ खेतं कालं च आसणं विलओ ] क्षेत्र काल आसन और लय [ मणवयणकायसुद्धी] मनवचनकायको शुद्धता [ सत्तेव गायव्वा हुति ] ये सात सामग्री जानने योग्य है । अब सामायिकके क्षेत्रको कहते हैंजत्थ ण कलयलसद्दो, बहुजणसंघट्टणं ण जत्थस्थि । जत्थ ण दंसादीया, एस पसत्थो हवे देसो ॥३५३॥ अन्वयार्थः-[ जत्थ ण कलयलसदो] जहाँ कलकलाट ( कोलाहल ) शब्द नहीं हो [ बहुजणसंघट्टणं ण जत्थत्थि ] जहाँ बहुत लोगोंके संघट्ट ( समूह ) का आना जाना न हो [ जत्थ ण दंसादीया ] जहाँ डाँस मच्छर चिउंटी आदि शरीरको बाधा पहुँचानेवाले जीव न हों [एस पसत्थो हवे देसो ] ऐसा क्षेत्र सामायिक करनेके योग्य है। भावार्थ:-जहाँ चित्तको कोई क्षोभ उत्पन्न करानेके कारण न हों वहाँ सामायिक करना चाहिये। अब सामायिकके कालको कहते हैं--- पुव्वण्हे, मज्झण्हे, अवरगहे तिहि वि णालिया छक्को । सामाइयस्स कालो, सविणयणिस्सेस-णिहिट्ठो ॥३५४॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[पुचण्हे मज्झण्हे] सबेरे दोपहर [अवरण्हे तिहि वि णालियालको] और शामको इन तीनों कालों में छह छह घड़ीका काल [सामाइयस्स कालो] सामायिक का काल है [ सविणयणिम्सेमणिदिट्ठो ] यह विनय सहित गणधरदेवोंने कहा है। भावार्थ:-सूर्योदयके तीन घड़ी पहिलेसे तीन घड़ी बाद तक छह घड़ी पूर्वाह्नकाल है । दोपहर ( बारह बजे ) के तोन घड़ी पहिलेसे तीन घड़ो बाद तक छह घड़ो मध्याह्न काल है । सूर्यास्तके तीन घड़ी पहिलेसे तोन घड़ी बाद तक छह घड़ी अपराह्नकाल है । यह सामायिकका काल उत्कृष्ट काल है । मध्यम चार घड़ी और जघन्य दो घड़ो का काल कहा गया है । एक घड़ी चौबीस मिनिट की होती है । अब आसन तथा लय और मनवचनकायको शुद्धताको कहते हैंबंधित्ता पज्जंकं, अहवा उड्ढेण उभो ठिच्चा । कालपमाणं किच्चा, इंदियवावारवज्जिदो होउं ॥३५५॥ जिणवयणेयग्गमणो, संवुडकाओ य अंजलिं किच्चा । ससरूवे संलीणो, वंदणअत्थं विचिंतंतो ॥३५६॥ किच्चा देसपमाणं, सव्वं सावज्जवज्जिदो होउं । जो कुवदि सामइयं सो मुणिसरिसो हवे ताव ॥३५७॥ अन्वयार्थः- [ जो पज्जंकं बंधित्ता] जो पर्यंक आसन बाँधकर [ अहवा उड्ढेण उभओ ठिच्चा ] अथवा खड्गासनसे स्थित होकर ( खड़े होकर ) [कालपमाणं किच्चा] कालका प्रमाण कर [ इंदियवावारवञ्जिदो होउ ] इन्द्रियोंका व्यापार विषयों में न होनेके लिये [ जिणवयणेयग्गमणो ] जिन वचनमें एकाग्र मन कर [संपुडकाओ य अंजलिं किच्चा] कायको संकोचकर हाथों से अंजुलि बनाकर [ ससरूवे संलीणो ] अपने स्वरूप में लीन होकर (वंदणअत्थं विचितंतो अथवा सामायिकके वन्दनाके पाठके अर्थका चितवन करता हुआ प्रवृत्ति करता है [ देसपमाणं किच्चा ] क्षेत्रका परिमाण कर [ सव्वं सावजवजिदो होउ] सर्व सावद्ययोग ( गृह व्यापारादि पापयोग ) का त्यागकर सर्व पापयोगसे रहित होकर [ सामइयं कुव्वदि ] सामायिक करता है [ सो ताव मुणिसरिसो हवे ] वह श्रावक उससमय मुनिके समान है । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा भावार्थ:-यह शिक्षाव्रत है, यह इस अर्थको सूचित करता है कि सामायिकमें सब रागद्वेषसे रहित हो, सब बाह्यकी पापयोग क्रियाओंसे रहित हो अपने आत्मस्वरूप में लीन हुआ मुनि प्रवर्त्त रहा है, यह सामायिक चारित्र मुनिका धर्म है । यह ही शिक्षा श्रावकको दी जाती है कि सामायिक कालको मर्यादा कर उस कालमें मुनिकी तरह प्रवर्तता है क्योंकि मुनि होने पर इसी तरह सदा रहना होगा, इसो अपेक्षासे उस काल मुनिके समान श्रावकको कहा है । अब दूसरे शिक्षाव्रत प्रोषधोपवासको कहते हैं रहाणविलेवणभूसण,-इत्थीसंसग्गगंधधूपदीवादि । जो परिहरेदि णाणी, वेरग्गाभरणभूसणं किच्चा ॥३५८॥ दोसु वि पव्वेसु सया, उवासं एयभत्त णिव्वियडी । जो कुणइ एवमाई, तस्स वयं पोसहं बिदियं ॥३५६।। अन्वयार्थः-[ जो णाणी ] जो ज्ञानी श्रावक [ दोसु वि पव्वेसु सया ] एक पक्ष में दो पर्व अष्टमी चतुर्दशीके दिन [ ण्हाणविलेवणभूसणइत्थीसंसग्गगंधधूपदीवादि परिहरेदि ] स्नान, विलेपन, आभूषण, स्त्रीका ससर्ग, सुगन्ध, धूप, दीप आदि भोगोपभोग वस्तुओंको छोड़ता है [ वेरग्गाभरणभूसणं किच्चा ] और वैराग्य भावनाके आभरणसे आत्माको शोभायमान कर [ उबवास एयभत्त णिब्धियडी जो एवमाई कुणइ ] उपवास, एक वक्त, नीरस आहार करता है तथा आदि शब्दसे कांजी करता है ( केवल भात और जल ही ग्रहण करता है [ तस्स पोसहं वयं बिदियं ] उसके प्रोषधोपवासवत नामक शिक्षावत होता है । भावार्थ:-जैसे सामायिक करनेको कालका नियम कर सब पापयोगोंसे निवृत्त हो एकान्त स्थानमें धर्मध्यान करता हुआ बैठता है वैसे ही सब गृहकार्यका त्याग कर, समस्त भोग उपभोग सामग्रीको छोड़कर सप्तमी तेरसके दोपहर दिनके बाद एकान्त स्थानमें बैठे, धर्मध्यान करता हुआ सोलह पहर तक मुनिकी तरह रहे, नौमी पूर्णमासीको दोपहर में प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर गृहकार्यमें लगे उसके प्रोषधवत होता है। अष्टमी चतुर्दशीके दिन उपवासकी सामर्थ्य न हो तो एक बार भोजन करे, नीरस भोजन कांजी आदि अल्प आहार करले, समय धर्मध्यानमें बितावे, सोलह पहर आगे Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १६३ प्रोषध प्रतिमामें कहेंगे वैसे ही करे परन्तु यहाँ गाथा में न कही इसलिये सोलह पहरका नियम नहीं है । यह भी मुनिव्रतकी शिक्षा ही है । अब अतिथिसंविभाग नामक तीसरे शिक्षाव्रतको कहते हैं तिविपत्तम्मि सया, साइगुणेहिं संजुदो णाणी । दाणं जो देदि सयं, एवदारणविहीहिं संजुत्तो ॥ ३६० ॥ सिक्खावयं च तदियं, तस्स हवे सव्वसोक्खसिद्धियरं । दाणं चउव्विहं पिय, सव्वे दागाण सारयरं ॥ ३६१ ॥ अन्वयार्थः - [ जो णाणी] जो ज्ञानी श्रावक [तिविहे पचम्मि सया साइगुणेहिं संजुदो ] उत्तम, मध्यम, जघन्य तीन प्रकारके पात्रोंके लिए दाताके श्रद्धा आदि गुणोंसे युक्त होकर [णवदाणविहीहिं संजतो सयं दाणं देदि ] नवधाभक्तिसे संयुक्त होता हुआ नित्यप्रति अपने हाथसे दान देता है [ तस्स तदियं सिक्खावयं हवे ] उस श्रावक के तीसरा शिक्षाव्रत होता है । वह दान कैसा है ? [ दाणं चउव्विहं पि य ] आहार, अभय, औषध, शास्त्रदान के भेदसे चार प्रकारका है [ सव्वे दाणाण सारयरं ] अन्य लौकिक धनादिकके दानों में अतिशयरूप से सार है, उत्तम है [ सव्वसोक्खसिद्धियरं ] सब सिद्धि और सुखको करनेवाला है । भावार्थ:- तीन प्रकारके पात्रों में उत्कृष्ट तो मुनि, मध्यम अणुव्रती श्रावक, जघन्य अविरत सम्यग्दृष्टि है । दाताके सात गुण श्रद्धा तुष्टि, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा, शक्ति ये सात हैं तथा अन्य प्रकार भी कहे गये हैं जैसे -इ -इस लोकके फलकी वांछा न करे, क्षमावान् हो, कपट रहित हो, अन्यदाता से ईर्षा न करे, दिए हुए का विषाद न करे, देकर हर्ष करे, गर्व न करे इस तरह भी सात कहे गये हैं । प्रतिग्रह, उच्च स्थान, पादप्रक्षालन, पूजा करना, प्रमाण करना, मनकी शुद्धता, वचनकी शुद्धता, कायकी शुद्धता, आहारकी शुद्धता ये नवधाभक्ति हैं । ऐसे दाताके गुण सहित पात्रको नवधाभक्तिसे नित्य चार प्रकारका दान देता है उसके तीसरा शिक्षाव्रत होता है । यह भी मुferent शिक्षा के लिये है कि देना सीखे क्योंकि वैसे ही अपनेको मुनि होने पर लेना होगा । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ कातिकेयामुप्रेक्षा अब आहार आदि दानोंका माहात्म्य कहते हैं-- भोयणदाणेण सोखं, अोसहदाणेण सत्थदाणं च । जीवाण अभयदाणं, सुदुल्लहं सव्वदाणेसु ॥३६२॥ अन्वयार्थः--[ भोयणदाणेण सोक्खं ] भोजनदानसे सबको सुख होता है [ ओसहदाणेण सत्थदाणं च ] औषधदान सहित शास्त्रदान [ जीवाण अभयदाणं ] और जीवोंको अभयदान [ सव्वदाणेसु सुदुल्लहं ] सब दानोंमें दुर्लभ है, उत्तम दान है । भावार्थ:-यहाँ अभयदानको सबसे श्रेष्ठ कहा है । अब आहारदानको प्रधान करके कहते हैं--- भोयणदाणे दिण्णे, तिगिण वि दाणाणि होति दि गणाणि । भुक्खतिसाएवाही, दिणे दिणे होति देहीणं ॥३६३॥ भोयणबलेण साहू, सत्थं संवेदि रत्तिदिवसं पि। भोयणदाणे दिरणे, पाणा वि य रक्खिया होति ॥३६४॥ अन्वयार्थः- [ भोयणदाणे दिण्णे तिणि वि दाणाणि होति दिण्णाणि ] भोजन दान देने पर तीनों ही दान दिये हुए हो जाते हैं [ भुक्खतिसाएवाही देहीणं दिणे दिण होति ] क्योंकि भूख प्यास नामके रोग प्राणियोंके दिन प्रतिदिन होते हैं [ भोयणबलेण साहू रचिदिवसं पि सत्थं संवेदि ] भोजनके बलसे साधु रात दिन शास्त्रका अभ्यास करता है [ भोयणदाणे दिण्णे पाणा वि य रक्खिया होंति ] भोजनके देनेसे प्राणोंकी भी रक्षा होती है । इस तरह भोजनदान में औषध शास्त्र अभयदान ये तीनों ही दिये हुए जानना लाहिये। भावार्थ:-भूख तृषा ( प्यास ) रोग मिटानेसे तो आहारदानं ही औषधदान हुआ । आहारके बलसे शास्त्राभ्यास सुखसे होनेके कारण ज्ञानदान भी यही हुआ । आहार ही से प्राणोंकी रक्षा होती है इसलिये यहो अभयदान हुआ । इस तरह इस दान में तीनों ही गभित हो गये । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ धर्मानुप्रेक्षा अब दानके माहात्म्य ही को फिर कहते हैं इहपरलोयणिरीहो, दाणं जो देदि परमभत्तीए । रयणत्तये सुठविदो, संघो सयलो हवे तेण ॥३६५।। उत्तमपत्तविसेसे, उत्तमभत्तीए उत्तमं दाणं । एयदिणे वि य दिगण, इंदसुहं उत्तमं देदि ॥३६६॥ अन्वयार्थः-[जो इहपरलोयणिरीहो परमभत्तीए दाणं देदि] जो पुरुष (श्रावक) इस लोक परलोकके फलकी वांछासे रहित होकर परम भक्तिसे संघके लिये दान देता है [ तेण सयलो संघो रयणतये सुठविदो हवे ] उस पुरुषके सकग संघको रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ) में स्थापित किया [ उत्तमपच विसेसे उत्तमभत्तीए उत्तम दाणं ] उत्तम पात्र विशेष के लिये उत्तम भक्तिले उत्तम दान [ एयदिणे त्रि य दिण्णं इंदसुहं उत्तमं देदि ] एक दिन भी दिया हुआ उत्तम इन्द्रपदके सुखको देता है। भावार्थ:-दानके देने से चतुविध संघकी स्थिरता होती है इसलिये दानके देनेवालेने मोक्षमार्ग हो चलाया ऐसा कहना चाहिए । उत्तम ही पात्र, उत्तम ही दाताकी भक्ति और उत्तम ही दान, सब ऐसी विधि मिले तो उसका उत्तमही फल होता है । इन्द्रादि पदका सुख मिलता है। अब चौथे देशावकाशिक शिक्षाबतको कहते हैंपुवपमाणकदाणं, सवदिसीणं पुणो वि संवरणं । इंदियविसयाण तहा, पुणो वि जो कुणदि संवरणं ॥३६७॥ वासादिकयपमाणं, दिणे दिणे लोहकामसमण8 । सावज्जवज्जण?', तस्स चउत्थं वयं होदि ॥३६८॥ अन्वयार्थः--[ पुव्वपमाणकदाणं सव्वदिसीणं पुणो वि संवरणं ] श्रावकने जो पहिले सब दिशाओंका परिमाण किया था उसका और भी संवरण करे (संकोच करे) [इदियविसयाण तहा पुणो वि जो संवरणं कुणदि ] और वैसे ही पहिले इन्द्रियों के विषयोंका परिमाण भोगोपभोग परिमाणमें किया था उसका और संकोच करे । किस तरहे ? सो कहते हैं-[वासादिकयपमाणं दिणे दिणे लोहकामसमण8 ] वर्ष आदि Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा तथा दिन दिन प्रति कालकी मर्यादा लेकर करे, इसका प्रयोजन यह है कि अन्तरंग में तो लोभ कषाय और काम ( इच्छा ) के शमन करने ( घटाने ) के लिये [ सावज - जण तस्स चत्थं वयं होदि ] तथा बाह्य में पाप हिंसादिकके वर्जने ( रोकने ) लिये करता है उस श्रावकके चौथा देशावकाशिक नामका शिक्षाव्रत होता है । । भावार्थ:- पहिले दिग्व्रतमें मर्यादा की थी वह तो नियमरूप थी । अब यहाँ उसमें भी कालकी मर्यादा लेकर घर हाट ( बाजार ) गाँव आदि तककी गमनागमनकी मर्यादा करे तथा भोगोपभोगव्रत में यमरूप इन्द्रियविषयोंकी मर्यादा की थी उसमें भी कालकी मर्यादा लेकर नियम करे इस व्रत में सत्रह नियम कहे गये हैं उनका पालन करना चाहिये । प्रतिदिन मर्यादा करते रहना चाहिये । इससे लोभका तथा तृष्णा ( वांछा ) का संकोच होता है बाह्यमें हिंसादि पापोंकी हानि होती है । ऐसे चार शिक्षाव्रतों का वर्णन किया । ये चारों ही श्रावकको अणुव्रत यत्न से पालनेकी तथा महाव्रत के पालने की शिक्षारूप हैं । अब अंतसल्लेखनाको संक्षेपसे कहते हैं— वारसवएहिं जुत्तो, जो संलेहणं करेदि उसंतो । सो सुरसोक्खं पाविय, कमेण सोक्खं परं लहदि ॥ ३६६ ॥ अन्वयार्थः - [ जो ] जो श्रावक [ वारसवएहिं जुतो ] बारह व्रत सहित [ उवसंतो संलेहणं करेदि ] अन्त समय में उपशम भावोंसे युक्त होकर सल्लेखना करता है [ सो सुरसोक्खं पाविय ] वह स्वर्गके सुख पाकर [कमेण परं सोक्खं लहदि] अनुक्रमसे उत्कृष्ट सुख ( मोक्ष ) को पाता है । भावार्थ:- सल्लेखना नाम कषायोंको और कायको क्षीण करनेका है | श्रावक बारह व्रतों का पालन करे और मरणका समय जाने तब सावधान हो सब वस्तुओं से ममत्व छोड़ कषायोंको क्षीण कर उपशमभाव ( मन्द कषाय ) रूप होकर रहे और कायको अनुक्रमसे ऊनोदर नीरस आदि तपोंसे क्षीण करे । इस तरह कायको क्षीण करने से शरीर में मलमूत्रके निमित्तसे जो रोग होते हैं वे रोग उत्पन्न नहीं होते हैं । अन्त समय असावधान नहीं होता है । ऐसे सल्लेखना करे, अन्त समय सावधान हो अपने स्वरूप में तथा अरहन्त सिद्ध परमेष्ठी के स्वरूपके चितवनमें लोन हो और व्रतरूप Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १६७ ( संवररूप ) परिणाम सहित होता हुआ पर्यायको छोड़ता है तो स्वर्गके सुखों को पाता है, वहाँ भी यह वांछा रहती है कि मनुष्य होकर व्रतोंका पालन करूं । इस तरह अनुक्रम से मोक्षसुख की प्राप्ति होती है । एक पि वयं विमलं, सद्दिट्ठी जइ कुणेदि दिढचित्तो । तो विविहरिद्धिजुत्तं इंदत्तं पावए यिमा ॥ ३७० ॥ अन्वयार्थः–[ सद्दिड्डी ] सम्यग्दृष्टि जीव [ दिढचित्तो ] दृढ़चित्त होकर [ज] यदि [ एक पि वयं विमलं कुणेदि ] एक भी व्रतका अतिचाररहित निर्मल पालन करता है [ तो विहिरिद्धिजुरां इंदरां णियमा पावए ] तो अनेक प्रकारकी ऋद्धियों सहित इन्द्रपदको नियमसे पाता है । भावार्थ:- यहाँ एक भी व्रत अतिचाररहित पालन करनेका फल इन्द्रपद नियमसे कहा है । सो ऐसा आशय सूचित होता है कि व्रतोंके पालनेके परिणाम सबके समानजाति के हैं । जहाँ एक व्रतको दृढ़चित्तसे पालता है वहाँ अन्य उसके समानजातीय व्रत पालने के लिये अविनाभावीपना है इसलिये सब हो व्रत पाले हुए कहलाते हैं । ऐसा भी है कि एक आखड़ी ( त्याग ) को अन्तसमय दृढ़चित्तसे पकड़ उसमें लीन परिणाम होते हुए पर्याय छूटती है तो उस समय अन्य उपयोगके अभाव से बड़े धर्मध्यान सहित परगतिको गमन होता है तब उच्चगति ही पाता है, यह नियम है । ऐसे आशय से एक व्रतका ऐमा माहात्म्य कहा है । यहाँ ऐसा नहीं जानना चाहिये कि 'एक व्रतका तो पालन करे और अन्य पाप सेवन किया करे, उसका भी ऊँचा फल होता है' इस तरह तो चोरी छोड़ दे और परस्त्री सेवन किया करे, हिंसादिक करता रहे उसका भी उच्च फल हो, सो ऐसा नहीं । इस तरह दूसरी व्रत प्रतिमाका वर्णन किया । बारह भेदोंकी अपेक्षा यह तीसरा भेद हुआ । अब तीसरी सामायिक प्रतिमाका निरूपण करते हैंजो कुदि काउसग्गं, वारसप्रावत्तसंजदो धीरो । मणदुगं पि कुतो, चदुप्पणामो पसण्णप्पा ||३७१ ॥ चिंततो सरूवं, जिणबिंबं हव अक्खरं परमं । ज्झायदि कम्मविवार्य, तस्स वयं होदि सामइयं || ३७२ || Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ:-जो] जो सम्यग्दृष्टि श्रावक वारसआवत्तसंजदो] बारह आवर्त्त सहित [ चदुप्पणामो] चार प्रणाम सहित [ णमणमदुर्ग पि कुणतो ] दो नमस्कार करता हुआ [ पसण्णप्पा ] प्रसन्न है आत्मा जिसकी [ धीरो] धीर ( दृढ़चित्त ) होकर [ काउसग्गं कुणदि ] कायोत्सर्ग करता है [ ससरूवं चिंतंतो ] उससमय अपने चैतन्यमात्र शुद्ध स्वरूपका ध्यान चितवन करता हुआ रहे [ जिणबिंब अहव अक्खरं परमं ] अथवा जिनबिंबका चितवन करता रहे अथवा परमेष्ठीके वाचक पंच नमस्कार मन्त्रका चितवन करता रहे [ कम्मविवायं ज्झायदि ] अथवा कर्मके उदयके रसकी जातिका चितवन करता रहे [ तस्स सामइयं वयं होदि ] उसके सामायिक व्रत होता है । भावार्थः-सामायिकका वर्णन तो पहिले शिक्षाव्रतमें किया था कि 'राग द्वेष छोड़ समभाव सहित क्षेत्र काल आसन ध्यान मन वचन कायकी शुद्धतासे कालकी मर्यादा कर एकान्त स्थानमें बैठे और सर्व सावद्ययागका त्याग कर धर्मध्यानरूप प्रवर्ते' ऐसा कहा था। यहां विशेष कहा कि कायसे ममत्व छोड़ कायोत्सर्ग करे, आदि अंत में दो नमस्कार करे और चारों दिशाओं में सन्मुख होकर चार शिरोनति करे, एक एक शिरोनतिमें मन वचन कायकी शुद्धताकी सूचनारूप तीन तीन आवर्त करे ( इस तरह बारह आवर्त्त हुए ) ऐसे कर कायसे ममत्व छोड़ निजस्वरूपमें लीन हो जिनप्रतिमामें उपयोग लोन करे, पंच परमेष्टोके वाचक अक्षरों का ध्यान करे, यदि उपयोग किसी बाधाकी तरफ जाय तो उससमय कर्मके उदयकी जातिका चितवन करे कि यह साता वेदनीयका फल है, यह असाताके उदयकी जाति है, यह अन्तरायके उदयको जाति है इत्यादि कर्मके उदयका चितवन करे यह विशेष कहा है। इतना विशेष जानना चाहिये कि शिक्षाबतमें तो मन वचन काय सम्बन्धो कोई अतिचार भी लगता है और कालकी मर्यादा आदि क्रिया में हीनाधिक भी होता है परन्तु यहाँ प्रतिमाकी प्रतिज्ञा है सो अतिचार रहित शुद्ध पालन करता है, उपसर्ग आदिके निमित्तसे टलता नहीं है ऐसा जानना चाहिये । इसके पाँच अतिचार हैं । मन वचन कायका चलायमान करना, अनादर करना, भूल जाना ये अतिचार नहीं लगाता है । ऐसे सामायिक प्रतिमाका बारह भेदकी अपेक्षा चौथे भेदका वर्णन हुआ। अब प्रोषधप्रतिमाका स्वरूप कहते हैं सत्तमितेरसिदिवसे, अवररहे जाइऊण जिणभवणे । किरियाकम्मं किच्चा, उवासं चउविहं गहिय ॥३७३॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १६९ गिहवावारं चत्ता, रत्तिं गमिऊण धम्मचिंताए । पच्चूसे उद्वित्ता, किरियाकम्मं च कादूण ॥३७४॥ सत्थठभासेण पुणो, दिवसं गमिऊण वंदणं किच्चा । रत्तिं णेदुण तहा, पच्चूहे वंदणं किच्चा ॥३७५॥ पुज्जणविहिं च किच्चा, पत्तं गहिऊण णवरि तिविहं पि । भुजाविऊण पत्तं, भुजंतो पोसहो होदि ॥३७६॥ अन्वयार्थः-[ सत्तमितेरसिदिवसे अवरण्हे जिणभवणे जाइऊण ] सप्तमी त्रयोदशीके दिन दोपहर के बाद जिन चैत्यालय में जाकर [ किरियाकम्मं किच्चा उववासं चउविहं गहिय ] अपरालके समय सामायिक आदि क्रिया कर्म कर चार प्रकारके आहारका त्याग कर उपवास ग्रहण करता है [ गिहवावारं चत्ता धम्मचिंताए रति गमिऊण ] घरके समस्त व्यापारको छोड़कर धर्मध्यानपूर्वक तेरस और सप्तमीकी रात्रि बिताता है [ पच्चहे उद्वित्ता किरियाकम्मं च कादण ] सबेरे उठकर सामायिक आदि क्रिया कर्म करता है [ सत्थव्भासेण पुणो दिवसं गमिऊण वंदणं किच्चा ] अष्टमी चौदसका दिन शास्त्राभ्यास धर्मध्यानपूर्वक बिताकर अपरालके समय सामायिक आदि क्रिया कर्म कर [ रत्ति णेदण तहा पच्चसे वंदणं किच्चा ] रात्रि वैसे ही धर्मध्यानपूर्वक बिताकर नौमो पूर्णमासीके सबेरेके समय सामायिक वन्दना कर [ पुज्जणविहिं च किच्चा पत्तं गहिऊण णवरि तिविहं पि] पूजन विधान कर तीन प्रकारके पात्रोंको पडगाह कर [ मुजाविऊण पत्तं भुजतो पोसहो होदि ] उन पात्रोंको भोजन कराकर आप भोजन करता है उसके प्रोषध होता है। ___भावार्थः-पहिले शिक्षाव्रतमें प्रोषधकी विधि कही थी सो यहाँ भी जानना चाहिये । गृहव्यापार भोग उपभोगकी सामग्री सबका त्याग कर एकान्तमें जा बैठे और सोलह पहर धर्मध्यानमें बितावे । यहाँ विशेष इतना जानना चाहिये कि वहाँ व्रतमें सोलह पहरके कालका नियम नहीं कहा था और अतिचार भी लगते थे परन्तु यहाँ प्रतिमाकी प्रतिज्ञा है इसमें सोलह पहरका उपवास नियमपूर्वक अतिचार रहित करता है। इसके पाँच अतिचार हैं-जो वस्तु जिस स्थान पर रक्खी हो उसका उठाना, रखन तथा सोने बैठनेका संथारा करना ( आसन आदि बिछाना ) सो बिना देखे बिना Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० कार्तिकेयानुप्रेक्षा जाने बिना यत्न करे इस तरह तीन अतिचार तो ये, तथा उपवास में अनादर करना, प्रीति नहीं रखना और क्रिया कर्मको भूल जाना ये पाँच अतिचार नहीं लगाता है । अब प्रोषधका माहात्म्य कहते हैं एक्कं पि गिरारंभं, उववासं जो करेदि उवसंतो । बहुभवसंचियकम्मं, सो गाणी खवदि लीलाए ॥ ३७७ ॥ अन्वयार्थः - [ जो ] जो [ णाणी ] ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि ) [ णिरारंभ ] आरम्भरहित [ उवसंतो ] उपशमभाव ( मन्द कषाय ) सहित होता हुआ [ एक्कं पि उवासं करेदि ] एक भी उपवास करता है [ सो बहुभवसंचियकम्मं लीलाए खवदि ] वह अनेक भवों में संचित किये ( बाँधे ) हुए कर्मोंको लीलामात्रमें क्षय करता है । भावार्थ:- :- कषाय विषय आहारका त्याग कर, इस लोक परलोकके भोगोंकी आशा छोड़ एक भी उपवास करता है वह बहुत कर्मोकी निर्जरा करता है तो जो प्रोषध प्रतिमा धारण करके पक्षमें दो उपवास करता है उसका क्या कहना ? स्वर्ग सुख भोग कर मोक्षको पाता है । अब आरम्भ आदिके त्याग बिना उपवास करता है उसके कर्मनिर्जरा नहीं होती है, ऐसा कहते हैं उववासं कुव्वतो, आरंभं जो करेदि मोहादो | सो यिदेहं सोसदि, ण झाडए कम्मलेसं पि ॥ ३७८ ॥ अन्वयार्थः - [ जो उपवासं कुब्वंतो ] जो उपवास करता हुआ [ मोहादो आरंभ करेदि ] गृहकार्य के मोहसे घरका आरम्भ करता है [ सो णियदेहं सोसदि ] वह अपने देहको क्षीण करता है [ कम्मलेसं पि ण झाडए ] कर्मनिर्जरा तो लेशमात्र भी उसके नहीं होती है । भावार्थ:- जो विषय कषाय छोड़े बिना, केवल आहार मात्र ही छोड़ता है। घरके सब कार्य करता है वह पुरुष देहहीका केवल शोषण करता है उसके कर्मनिर्जरा लेशमात्र भी नहीं होती है । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ धर्मानुप्रेक्षा अब सचित्तत्याग प्रतिमाको कहते हैं सच्चित्तं पत्तफलं, छल्लीमूलं च किसलयं बीयं । जो ण य भक्खदि णाणी, सचित्तविरदो हवे सो दु॥३७६॥ अन्वयार्थः- [ जो ] जो [ णाणी ] ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि ) श्रावक [ पत्तफलं छल्लीमूलं च किसलयं बीयं सच्चिर ] पत्र फल त्वक् छाल मूल कोंपल और बीज इन सचित्त वस्तुओंको [ण य भक्खदि ] नहीं खाता है [ सो दु सचित्तवरिदो हवे ] वह सचित्तविरत श्रावक होता है । भावार्थ:-जीवसहितको सचित्त कहते हैं । इसलिये जो पत्र फल छाल मूल बीज कोंपल इत्यादि हरी वनस्पति सचित्तको नहीं खाता है वह सचित्तविरत प्रतिमाका धारक श्रावक होता है * । जो ण य भक्खेदि सयं, तस्स ण अण्णस्स जुज्जदे दाउं । भुत्तस्स भोजिदस्सहि, णत्थि विसेसो तदो को वि ॥३८०॥ अन्वयार्थः-[ जो सयं ण य भक्खेदि ] जिस वस्तुको आप नहीं खाता है [ तस्स अण्णस्स दाउण जज्जदे ] उसको अन्यको देना योग्य नहीं है [ भुत्तस्स भोजिदस्सहि ] क्योंकि खानेवाले और खिलानेवाले में [ तदो को वि विसेसो णत्थि ] कुछ विशेषता नहीं है। भावार्थ:-कृत और कारितका फल समान है इसलिये जो वस्तु आप नहीं खाता है वह अन्यको भी नहीं खिलाता है तब सचित्त त्याग प्रतिमाका पालन होता है । * सुक्कं पक्कं तत्तं, अंविललवणेहि मिस्सियं दव्वं । जं जंतेण य छिण्णं, तं सव्वं फासुयं भणियं ॥१॥ अन्वयार्थ:-[ सुक्कं पक्कं तत्तं ] सूखा हुआ, पका हुआ, गरम किया हुआ [ अंविललवणेहि मिस्सियं दध्वं ] खटाई और नमकसे मिला हुआ [ जं जंतेण य छिण्णं ] तथा जो यन्त्रसे छिन्नभिन्न किया हुआ अर्थात् शोधा हुआ हो [ तं सव्वं फासुयं भणियं ] ऐसा सब हरितकाय प्रासुक (जीवरहितअचित्त ) होता है। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा जो वज्जेदि सचित्तं, दुज्जय जोहा विणिज्जिया ते । दयभावो होदि किओ, जिणवयां पालियं तेण ॥ ३८१ ॥ अन्वयार्थः – [ जो सचिशं वज्जेदि ] जो श्रावक सचित्तका त्याग करता है [ तेण दुज्जय जीहा विणिज्जिया ] उसने दुर्जय जिह्वा इन्द्रियको भी जीत ली तथा [ दयाभावो किओ होदि ] दयाभाव प्रगट किया [ तेण जिणवयणं पालियं ] और उसीने जिनदेव के वचनों का पालन किया । १७२ भावार्थ:- सचित्तके त्यागमें बड़े गुण हैं । जिह्वा इन्द्रियका जीतना होता है । प्राणियोंकी दयाका पालन होता है । भगवानके वचनों का पालन होता । क्योंकि हरित कायादिक सचित्तमें भगवानने जीव कहे हैं सो आज्ञाका पालन हुआ । इसके अतिचार सचित्तसे मिली वस्तु तथा सचित्त से सम्बन्धरूप इत्यादिक हैं । इन अतिचारों को नहीं लगावे तब शुद्व त्याग होता है, तब ही प्रतिमाको प्रतिज्ञाका पालन होता है । भोगोपभोग व्रतमें तथा देशावकाशिक व्रत में भी सचित्तका त्याग कहा है परन्तु निरतिचार नियमरूप नहीं है । इस प्रतिमा में नियमरूप निरतिचार त्याग होता है । ऐसे सचित्त त्याग पाँचवीं प्रतिमा और बारहभेदों में छट्ठ भेदका वर्णन किया । अब रात्रिभोजनत्याग प्रतिमाको कहते हैं जो चउविपि भोज्जं, रयणीए व भुजदे गाणी | भुंजावइ अरणं, णिसिविरम्रो सो हवे भोज्जो ||३८२ ॥ अन्वयार्थः – [ जो ] जो [ णाणी ] ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि ) श्रावक [ रयणीए ] रात्रि [ चउवि पि भोज्जं ] अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य चार प्रकारके आहारको [ णेव भुजदे ] नहीं भोगता है— नहीं खाता है [ अण्णं ण य भुंजावई ] दूसरे को भी भोजन नहीं कराता है [ सो णिसिविरओ भोजो हवे ] वह श्रावक रात्रिभोजनका त्यागी होता है । भावार्थ:- रात्रिभोजनका तो मांसके दोषकी अपेक्षा तथा रात्रिमें बहुत आरम्भसे त्रसघातको अपेक्षा पहिली दूसरी प्रतिमा में ही त्याग कराया गया है परन्तु वहाँ कृत कारित अनुमोदना और मन वचन कायके कुछ दोष लग जाते हैं इसलिये शुद्ध त्याग नहीं है । यहाँ इस प्रतिमाकी प्रतिज्ञामें शुद्ध त्याग होता है । इसलिये प्रतिमा कही गई है । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ धर्मानुप्रेक्षा जो णिसिभुतिं वज्जदि, सो उववासं करेदि छम्मासं । संवच्छरस्स मज्झे, आरंभं मुयदि रयणीए ॥३८३॥ अन्वयार्थः- [ जो णिसिभुत्ति वजदि ] जो पुरुष रात्रि भोजनको छोड़ता है [ सो] वह [ संवच्छरस्स मज्झे ] एक वर्ष में [ छम्मासं उवासं करेदि ] छह महिनेका उपवास करता है [ रयणीए आरंभ मुयदि ] रात्रिभोजनका त्याग होनेके कारण भोजन सम्बन्धी आरम्भका भी त्याग करता है और व्यापार आदिकका भी आरम्भ छोड़ता है सो महा दयाका पालन करता है। भावार्थ:-जो रात्रिभोजनका त्याग करता है वह बरस दिनमें छह महिनेका उपवास करता है । अन्य आरम्भका भी रात्रिमें त्याग करता है । अन्य ग्रन्थोंमें इस प्रतिमामें दिनमें स्त्री सेवनका भी मनवचनकाय कृत-कारित अनुमोदनासे त्याग कहा है । ऐसे रात्रिभुक्तत्यागप्रतिमाका वर्णन किया । यह छट्टो प्रतिमा बारह भेदों में सातवाँ भेद हुआ। अब ब्रह्मचर्य प्रतिमाका निरूपण करते हैं सव्वेसिं इत्थीणं, जो अहिलासं ण कुव्वदेणाणी । मण वाया कायेण य, बंभवई सो हवे सदओ ॥३८४॥ अन्वयार्थः-- [ जो ] जो [ गाणी ] ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि ) श्रावक [ सव्वेसि इत्थीणं अहिलास ] सब ही चार प्रकारको स्त्री देवांगना, मनुष्यणी, तिर्यंचणी, चित्रामकी इत्यादि स्त्रियोंकी अभिलाषा [ मण वाया कायेण य] मन वचन कायसे [ण कुव्वदे] नहीं करता है [ सो सदओ बंभवई हवे ] वह दयाका पालन करनेवाला ब्रह्मचर्य प्रतिमाका धारक होता है। भावार्थ:-सब स्त्रियोंका मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनासे सर्वथा त्याग करना ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। अब आरम्भविरति प्रतिमाको कहते हैंजो आरंभं ण कुणदि, अण्णं कारयदि णेय अणुमण्णे । हिंसासंतट्ठमणो, चत्तारंभो हवे सो हु ॥३८५।। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः- [ जो आरंभं ण कुणदि ] जो श्रावक गृहकार्यसम्बन्धी कुछ भा आरम्भ नहीं करता है [ अण्णं कारयदि णेय अणुमण्णे ] दूसरेसे भी नहीं कराता है, करते हुएको अच्छा भी नहीं मानता है [ हिंसासतट्ठमणो ] हिंसासे भयभीत मनवाला [ सो हु चतारंभो हवे ] वह निश्चयसे आरम्भका त्यागी होता है । भावार्थ:-जो गृहकार्य के आरम्भका मन वचन काय कृत कारित अनुमोदनासे त्याग करता है वह आरम्भ त्यागप्रतिमाधारक श्रावक होता है । यह प्रतिमा आठवीं है और बारह भेदोंमें नवमाँ भेद है । अब परिग्रहत्याग प्रतिमाको कहते हैं जो परिवज्जइ गंथं, अभंतर बाहिरं च साणंदो। पावं ति मण्णमाणो, णिग्गंथो सो हवे णाणी ॥३८६॥ अन्वयार्थ:-[जो] जो [ णाणी ] ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि ) श्रावक [ अब्भंतर बाहिरं च गंथं ] अभ्यन्तर और बाह्य दो प्रकारके परिग्रहको [ पावं ति मण्णमाणो ] पापका कारण मानता हुआ [ साणंदो] आनन्द सहित [ परिवजइ ] छोड़ता है [ सो णिग्गंथो हवे ] वह परिग्रहका त्यागी श्रावक होता है। भावार्थः-अभ्यन्तर परिग्रहमें मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानावरण कषाय तो पहिले ही छूट चुके हैं । अब प्रत्याख्यानावरण और उसहोके साथ लगे हुए हास्यादिक और वेदोंको घटाता है और बाह्यके धनधान्य आदि सबका त्याग करता है । परिग्रहके त्यागमें बड़ा आनन्द मानता है क्योंकि जिनको सच्चा वैराग्य हो जाता है उनको परिग्रह पापरूप और बड़ी आपत्तिरूप दिखाई देता है इसलिये त्याग करने में बड़ा सुख मानते हैं । बाहिरगंथविहीणा, दलिद्दमणुा सहावदो होति । अब्भतरगंथंपुण, ण सक्कदे को वि छंडेदु ॥३८७॥ अन्वयार्थः-[ बाहिरगंथविहीणा दलिद मणुआ सहावदो होंति ] बाह्य परिग्रहसे रहित तो दरिद्रो मनुष्य स्वभाव ही से होते हैं, इसके त्यागमें आश्चर्य नहीं है [अभंतरगंथं पुण ण सक्कदे को वि इंडेदं ] अभ्यन्तर परिग्रहको कोई भी छोड़ने में समर्थ नहीं होता है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १७५ भावार्थः-जो अभ्यन्तर परिग्रहको छोड़ता है उसकी महिमा है । अभ्यन्तर परिग्रह सामान्यरूपसे ममत्व परिणाम है इसलिये जो इसका त्याग करता है वही परिग्रह त्यागी कहलाता है । इस तरह परिग्रहत्याग प्रतिमाका स्वरूप कहा । प्रतिमा नवमी है बारह भेदों में दशा भेद है । अब अनुमोदनविरति प्रतिमाको कहते हैंजो अणुमणणं ण कुणदि, गिहत्यकज्जेसु पावमूलेसु । भवियव्वं भावंतो, अणुमणविरओ हवे सो दु ॥३८॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो श्रावक [ पावमुलेसु ] पापके मूल [ गिहत्थकज्जेसु ] गृहस्थके कार्यों में [ भवियव्यं भावंतो ] 'जो भवितव्य है सो होता है' ऐसी भावना करता हुआ [ अणुमणणं ण कुणदि ] अनुमोदना नहीं करता है [ सो दु अणुमणविरओ हवे ] बह अनुमोदनविरति प्रतिमाधारी श्रावक है । भावार्थ:-गृहस्थके कार्य, आहारके निमित्त आरम्भादिककी भी अनुमोदना नहीं करता है। उदासीन होकर घरमें या बाहर चैत्यालय मठ मंडपमें रहता है । भोजनके लिये घरवाला या अन्य कोई श्रावक जो बुलाता है उसके भोजन कर आता है । ऐसा भी नहीं कहता है कि मेरे लिए अमुक पदार्थ तैयार करना । जो कुछ गृहस्थ जिमाता है ( खिलाता है ) बही जीम आता है सो दशमी प्रतिमाका धारी श्रावक होता है। जो पुण चिंतदि कज्ज, सुहासुहं रायदोससंजुत्तो । उवओगेण विहीणं, स कुणदि पावं विणा कज्जं ॥३८६॥ अन्वयार्थः- [जो पुण ] जो [ उवओगेण विहीणं ] बिना प्रयोजन [रायदोससंजतो ] रागद्वेष संयुक्त हो [ सुहासुहं कज्जं चिंतदि ] शुभ अशुभ कार्यका चिन्तवन करता है [ स विणा कज्ज पावं कुणदि ] वह पुरुष बिना कार्य पाप उत्पन्न करता है। ___ भावार्थः-आप तो त्यागी हो गया फिर विना प्रयोजन गृहस्थके शुभकार्य पुत्रजन्मप्राप्ति, विवाहादिक और अशुभकार्य किसीको पीड़ा देना, मारना, बाँधना इत्यादि शुभाशुभ कार्योंका चितवन कर, रागद्वेष परिणाम करके निरर्थक पाप उपजाता है उसके दशमी प्रतिमा कैसे हो? इसलिये ऐसी बुद्धि रहनी चाहिए कि 'जैसा Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा भवितव्य है वैसा होगा यदि आहार मिलना है तो मिलकर रहेगा' ऐसे परिणाम रहनेसे अनुमतित्याग प्रतिमाका पालन होता है । ऐसे बारह भेदोंमें ग्यारहवें भेदका वर्णन किया। अब उद्दिष्टविरतिप्रतिमाका स्वरूप कहते हैंजो णव कोडिविसुद्ध, भिक्खायरणेण भुजदे भोज्जं । जायणरहियं जोग्गं, उद्दिट्ठाहारविरदो सो ॥३६०।। अन्वयार्थः-[ जो ] जो श्रावक [णव कोडि विशुद्ध ] नव कोटि विशुद्ध ( मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनाके दोष रहित ) [ भिक्खायरणेण ] भिक्षाचरणपूर्वक [ जायणरहियं ] याचना रहित ( बिना माँगे ) [ जोग्गं ] योग्य ( सचित्तादिक अयोग्य न हो ) [ भोज्ज भुजदे ] आहारको ग्रहण करता है [ सो उद्दिट्ठाहारविरदो ] वह उद्दिष्ट आहारका त्यागी है। भावार्थ:-घर छोड़कर मठ या मंडप में रहता है, भिक्षा-द्वारा आहार लेता है, जो इसके निमित्त कोई आहार बनावे तो उस आहारको नहीं लेता है, माँग कर नहीं लेता है, अयोग्य मांसादिक तथा सचित्त आहार नहीं लेता है, ऐसा उद्दिष्टविरत श्रावक होता है। अब अंत समय में श्रावक आराधना करै ऐसा कहते हैंजो सावयवयसुद्धो, अंते आराहणं परं कुणदि । सो अच्चुदम्मि सग्गे, इन्दो सुरसेविदो होदि ॥३६१॥ अन्वयार्थः- [ जो सावयवयसुद्धो ] जो श्रावक व्रतोंसे शुद्ध है [ अंते आराहणं परं कुणदि ] और अंतसमय में उत्कृष्ट आराधना (दर्शन ज्ञान चारित्र तपका आराधन) करता है [ सो अच्चुदम्मि सग्गे ] वह अच्युत स्वर्गमें [ सुरसेविदो इन्दो होदि ] देवोंसे सेवनीय इन्द्र होता है। ____ भावार्थः-जो सम्यग्दृष्टि श्रावक ग्यारहवीं प्रतिमाका निरतिचार शुद्ध व्रत पालता है और अंत समय ( मरणकाल ) में दर्शन ज्ञान चरित्र तप आराधनाको आराधता है वह अच्युन स्वर्गमें इन्द्र होता है । यह उत्कृष्ट श्रावकके व्रतका उत्कृष्ट फल है । ऐसे ग्यारहवीं प्रति माका स्वरूप कहा । अन्य ग्रन्थों में इसके दो भेद कहे हैं Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १७७ पहिले भेदवाला (क्षुल्लक ) तो एक वस्त्र रखता है, बालोंको कैंची या उस्तरेसे कटाता है, प्रतिलेखन हस्तादिकसे करता है, भोजन बैठकर, अपने हाथसे भी तथा पात्रमें भी करता है । दूसरा ( ऐलक ) बालोंका लोंच करता है, प्रतिलेखन पीछेसे करता है, अपने हाथही में भोजन करता है, कोपोन ( लँगोट ) धारण करता है, इत्यादि इसको विधि अन्य ग्रन्थोंसे जानना चाहिये । ऐसे प्रतिमा तो ग्यारहवीं हुई और बारह भेद कहे थे उनमें यह बारहवाँ भेद श्रावकका हुआ । अब यहाँ संस्कृत टीकाकारने अन्य ग्रन्थों के अनुसार कुछ श्रावकका कथन लिखा है वह भी संक्षेपसे लिखा जाता है । छठी प्रतिमा तक तो जघन्य श्रावक कहा है । सातवीं, आठवी, नवमी प्रतिमाके धारकको मध्यम श्रावक कहा है और दशवीं, ग्यारहवीं प्रतिमावालेको उत्कृष्ट श्रावक कहा है और कहा है कि जो समिति सहित प्रवृत्ति करे तो अणुव्रत सफल है और समितिरहित प्रवृत्ति करे तो व्रत पालते हुए भी अव्रती है । जो गृहस्थके असि मसि कृषि वाणिज्यके आरम्भमें त्रस स्थावरकी हिंसा होती है सो त्रसहिंसाका त्याग इसके कैसे बनता है ? इसके समाधानके लिये कहते हैं पक्ष, चर्या, साधकता तीन प्रवृत्तियाँ श्रावककी कही गई हैं। पक्षका धारक तो पाक्षिक श्रावक कहलाता है, चर्याका धारक नैष्ठिक श्रावक कहलाता है और साधकताका धारक साधक श्रावक कहलाता है । पक्ष तो ऐसा-जो मार्गमें त्रसहिंसाका त्यागी श्रावक कहा गया है सो मैं त्रसजीवोंको मेरे प्रयोजनके लिये तथा दूसरेके प्रयोजनके लिये नहीं मारू । धर्मके लिये, देवता के लिये, मन्त्र साधनके लिये, औषधि लिये, आहारके लिये और अन्य भोगके लिये नहीं मारू ऐसा पक्ष जिसके होता है सो पाक्षिक है । इसलिये इसके असि मसि कृषि वाणिज्य आदि कार्यों में हिंसा होती है तो भी मारनेका अभिमत नहीं है । कार्यका अभिप्राय है, वहाँ घात होता है उसकी अपनी निन्दा करता है इस तरह त्रसहिंसा न करनेकी पक्षमात्रसे पाक्षिक कहलाता है। ये अप्रत्याख्यानावरण कषायके मन्द उदयके परिणाम हैं इसलिये अवती ही है । व्रत पालनेकी इच्छा है परन्तु निरतिचार व्रतोंका पालन नहीं होता इसलिये पाक्षिक ही कहलाता है। __नैष्ठिक होता है तब अनुक्रमसे प्रतिमाकी प्रतिज्ञाका पालन होता है। इसके अप्रत्याख्यानावरण कषायका अभाव होनेसे पांचवें गुणस्थानकी प्रतिज्ञाका निरतिचार Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा पालन होता है । प्रत्याख्यानावरण कषायके तीव्र मन्द भेदोंसे ग्यारह प्रतिमाके भेद हैं । ज्यों ज्यों कषाय मन्द होती जाती है त्यों त्यों आगेकी प्रतिमाको प्रतिज्ञा होती जाती है । यहाँ ऐसा कहा है कि घरका स्वामित्व छोड़कर गृहकार्य तो पुत्रादिकको सौंपे और आप यथाकषाय प्रतिमाकी प्रतिज्ञा ग्रहण करता जावे, जबतक सकल संयम ग्रहण नहीं करता है तब तक ग्यारहवीं प्रतिमा तक नैष्ठिक श्रावक कहलाता है । मृत्यु समय आया जाने तब आराधना सहित हो एकाग्रचित्तसे परमेष्ठी के ध्यान में ठहरकर समाधिपूर्वक प्राण छोड़ता है वह साधक कहलाता है, ऐसा कथन है । १७८ गृहस्थ जो द्रव्यका उपार्जन करे, उसके छह भाग करे । उसमें से एक भाग तो धर्म के लिये दे, एक भाग कुटुम्बके पोषण में दे, एक भाग अपने भोगके लिये खर्च करे, एक अपने स्वजन समूहके लिये व्यवहार में खर्च करे, बाकी दो भाग रहे वे अमानत भण्डार में रक्खे, यह द्रव्य बड़ी पूजन अथवा प्रभावना तथा काल दुकालमें काम आवे । ऐसा करने से गृहस्थ के आकुलता उत्पन्न नहीं होती है, धर्मका पालन होता है | यहाँ पर संस्कृत टीकाकारने बहुत कथन किया है । पहिले गाथाके कथनमें अन्य ग्रन्थोंका कथन सिद्ध होता है ऐसा कथन बहुत किया है सो सस्कृत टीकासे जानना चाहिये । यहाँ तो गाथाका ही अर्थ संक्षेपसे लिखा है । विशेष जानने की इच्छा हो तो रयणसार, वसुनन्दिकृतश्रावकाचार, रत्नकरण्डश्रावकाचार, पुरुषार्थ सिद्धय पाय, अमितगतिश्रावकाचार, प्राकृतदोहाबन्ध श्रावकाचार इत्यादि ग्रन्थोंसे जानना । यहाँ संक्षिप्त कथन है । ऐसे बारह भेदरूप श्रावकधर्मका कथन किया । अब मुनिधर्मका व्याख्यान करते हैं— जो रयणात्तयजुत्तो, खमादिभावेहिं परिणदो खिचौं । सव्वत्थ वि मज्झत्थो, सो साहू भण्णदे धम्मो ॥३६२॥ अन्वयार्थः – [ जो रयणत्तयजुत्तो ] जो पुरुष रत्नत्रय ( निश्चय व्यवहाररूप सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र ) सहित हो [ खमादिभावेहिं णिच्च परिणदो ] क्षमादिभाव ( उत्तम क्षमाको आदि देकर दस प्रकारका धर्म ) से नित्य ( निरन्तर ) परिणत हो [ सव्वत्थ विमज्झत्थो ] सब जगह सुख दुःख, तृण कचन, लाभ अलाभ, शत्रु मित्र, निन्दा प्रशंसा, जीवन मरण आदि में समभावरूप रहे, रागद्व ेष रहित रहे [ सो साहू धम्मो दे ] वह साधु है और उसीको धर्म कहते हैं, धर्मकी मूर्ति है, वह ही धर्म है । क्योंकि जिसमें धर्म है, वही Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १७६ भावार्थ:- यहाँ रत्नत्रय सहित चारित्र तेरह प्रकारका है सो मुनिका धर्म महाव्रत आदि है उसका वर्णन करना चाहिये परन्तु यहाँ दस प्रकारके धर्मका विशेष वर्णन है उसी में महाव्रत आदिका वर्णन गर्भित जानना चाहिये । अब दस प्रकारके धर्मका वर्णन करते हैं सो चैत्र दहप्पयारो, खमादि भावेहिं सुक्खसारेहिं । ते पुग्ण भणिज्जमाणा मुणियव्वा परमभत्तीए ॥ ३६३ ॥ अन्वयार्थः – [ सो चेव खमादि भावेहिं दहप्पयारो सुक्खसारेहिं ] वह मुनिधर्म क्षमादि भावोंसे दस प्रकारका है, कैसा है ? सौख्यसार कहिये सुख इससे होता है या सुख इसमें है अथवा सुखसे सार है - प्रसिद्ध है - ऐसा है [ ते पुण भणिजमाणा परममत्तीए मुणियव्वा वह दस प्रकारका धर्म ( जिसका वर्णन अब करेंगे ) भक्ति से ( उत्तम धर्मानुरागसे ) जानने योग्य है । भावार्थ:- उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य ऐसे दस प्रकारका मुनि धर्म है सो इसका भिन्न भिन्न व्याख्यान आगे करते हैं सो जानना चाहिये । अब पहिले उत्तमक्षमाधर्मको कहते हैं कोण जो ण तप्पदि, सुरणरतिरिएहिं कीरमाणे वि । उवसग्गे विरउद्दे, तस्स खिमा गिम्मला होदि ॥ ३६४ ॥ अन्वयार्थः - [ जो ] जो मुनि [ सुरणरतिरिएहिं ] देव मनुष्य तिर्यंच आदिसे [ रउद्दे उवसग्गे कीरमाणे वि ] रौद्र ( भयानक घोर ) उपसर्ग करने पर भी [ कोहेण ण तपदि ] क्रोधसे तप्तायमान नहीं होता है [ तस्स णिम्मला खिमा होदि ] उस मुनिके निर्मल क्षमा होती है । भावार्थ:- जैसे श्रीदत्त मुनि व्यन्तरदेवकृत उपसर्गको जीत केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गये, चिलातोपुत्र मुनि व्यन्तरकृत उपसर्गको जीतकर सर्वार्थसिद्धि गये, स्वामिकार्तिकेय मुनि कोंचराजाकृत उपसर्गको जीतकर देवलोक गये, गुरुदत्त मुनि कपिल ब्राह्मणकृत उपसर्ग जीतकर मोक्ष गये, श्रीधन्यमुनि चक्रराजकृत उपसर्गको जीत केवलज्ञान Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० कार्तिकेयानुप्रेक्षा प्राप्त कर मोक्ष गये, पाँचसौ मुनि दण्डक राजाकृत उपसर्ग जीत कर सिद्ध हुए, राजकुमारमुनिने पांशुलश्रेष्ठीकृत उपसर्ग जीतकर सिद्धि पाई, चाणक्य आदि पाँचसो मुनि मंत्रीकृत उपसर्गको जीतकर मोक्ष गये, सुकुमालमुनि स्यालिनीकृत उपसर्ग सहकर देव हुए, श्रेष्ठीके बाईस पुत्र नदीके प्रवाहमें पद्मासन शुभ ध्यानसे मरकर देव हुए, सुकौशल मुनि व्याघोकृत उपसर्ग जीतकर सर्वार्थसिद्धि गये और श्रीपणि कमुनि जलका उपसर्ग सहकर मोक्ष गये। इस तरह देव मनुष्य पशु अचेतन कृत उपसर्ग सहे और क्रोध नहीं किया उनके उत्तम क्षमा हुई । ऐसे उपसर्ग करनेवाले पर क्रोध उत्पन्न नहीं होता है तब उत्तम क्षमा होती है। उससमय क्रोधका निमित्त आवे तो ऐसा चिन्तवन करे कि जो कोई मेरे दोष कहता है वे मेरे में विद्यमान हैं तो यह क्या मिथ्या कहता है ? ऐसा विचार कर क्षमा करना । यदि मेरेमें दोष नहीं हैं तो यह बिना जाने कहता है इसलिये अज्ञानी पर कैसा क्रोध ? ऐसा विचार कर क्षमा करना । अज्ञानीके बालस्वभाव चिन्तवन करना कि बालक तो प्रत्यक्ष भी कहता है यह तो परोक्ष ही कहता है, यह ही अच्छा है । यदि प्रत्यक्ष भी कुवचन कहे तो यह विचार करे कि बालक तो ताड़न भी करता है यह तो कुवचन ही कहता है, मारता नहीं है, यह ही अच्छा है । यदि ताड़न करे तो यह विचार करे कि बालक अज्ञानी तो प्राणघात भी करता है, यह तो ताड़ता ही है, प्राणघात तो नहीं करता है, यह ही अच्छा है । यदि प्राणघात करे तो यह विचार करे कि अज्ञानी तो धर्मका भी विध्वंस करता है यह तो प्राणघात ही करता है, धर्मका विध्वंस तो नहीं करता है और यह विचार करे कि मैंने पूर्वजन्ममें पापकर्म किये थे उनका यह दुर्वचनादिक उपसर्ग फल है, मेरा ही अपराध है पर तो निमित्तमात्र है इत्यादि चितवनसे उपसर्ग आदिकके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न नहीं होता है तब उत्तम क्षमाधर्म होता है । अब उत्तममार्दवधर्मको कहते हैं उत्तमणाणपहाणो, उत्तमतवयरणकरणसीलो वि । अप्पाणं जो हील दि, मद्दवरयणं भवे तस्स ॥३६५॥ अन्वयार्थः-[ उत्तमणाणपहाणो ] जो मुनि उत्तम ज्ञानसे तो प्रधान हो [ उत्तमतवयरणकरणसीलो वि ] उत्तम तपश्चरण करनेका जिसका स्वभाव हो [जो Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १८१ अप्पाणं हीलदि ] जो अपने आत्माको मदरहित करे-अनादररूप करे [ तस्स मद्दवरयणं भवे ] उस मुनिके मार्दव नामक धर्मरत्न होता है । भावार्थ:-सब शास्त्रोंका जाननेवाला पण्डित हो तो भी ज्ञान मद नहीं करे । यह विचारे कि मेरेसे बड़े अवधि मनःपर्यय ज्ञानी हैं, केवलज्ञानी सर्वोत्कृष्ट ज्ञानी हैं, मैं क्या हूँ, अल्पज्ञ हूँ । उत्तम तप करे तो भी उसका मद नहीं करे । आप सब जाति कुल बल विद्या ऐश्वर्य तप रूप आदिसे सबसे बड़े हैं तो भी परकृत अपमानको भी सहते हैं उस समय गर्व कर कषाय उत्पन्न नहीं करते हैं वहाँ उत्तम मार्दव धर्म होता है। अब उत्तम आर्जवधर्मको कहते हैं जो चिंतेइ ण वंक, कुणदि ण वंकं ण जंपदे वंकं । ण य गोवदि णियदोसं, अज्जवधम्मो हवे तस्स ॥३६६॥ अन्वयार्थः-[ जो वकं ण चिंतेइ ] जो मुनि मनमें वक्रतारूप चिन्तवन नहीं करे [वंक ण कुणदि ] कायसे वक्रता नहीं करे [बक ण जंपदे ] वचनसे वक्ररूप नहीं बोले [ य णियदोस ण गोवदि ] और अपने दोषोंको नहीं छिपावे [ तस्सअजवधम्मो हवे ] उस मुनिके उत्तम आर्जव धर्म होता है । भावार्थ:-मनवचनकायमें सरलता हो, जो मन में विचारे सो ही वचनसे कहे, सो ही कायसे करे । मनमें तो दूसरेको भुलावा देने ( ठगने ) के लिये विचार तो कुछ करे, वचनसे और ही कुछ कहे, कायसे और ही कुछ करे, ऐसा करनेसे माया कषाय प्रबल होती है इसलिये ऐसा नहीं करे । निष्कपट हो प्रवृत्ति करे । अपने दोषोंको नहीं छिपावे, जैसेके तैसे बालककी तरह गुरुओंके पास कहे, वहां उत्तम आर्जव धर्म होता है। अब उत्तम शौचधर्मको कहते हैंसमसंतोसजलेणं य, जो धोवदि तिव्वलोहमलपुंज । भोयणगिद्धिविहीणो, तस्स सउच्च हवे विमलं ॥३६७॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो मुनि [ समसंतोसजलेणं य ] समभाव ( रागद्वेष रहित परिणाम ) और सन्तोष ( सन्तुष्ट भाव ) रूपो जलसे [ तिव्वलोहमलपुंजं ] Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा तीव्र तृष्णा और लोभरूपी मलके समूहको [ धोवदि ] धोवे ( नाश करे ) [ भोयणगिद्धविहीण ] भोजनकी गृद्धि ( अति चाह ) से रहित हो [ तस्स सउच्च त्रिमलं हवे ] उस मुनिका चित्त निर्मल होता है अतः उसके उत्तम शौच धर्म होता है । भावार्थ::- समभाव ( तृण कंचनको समान जानना ) और सन्तोष ( संतुष्टपना, तृप्तिभाव, अपने स्वरूप ही में सुख मानना ) भावरूप जलसे तृष्णा ( आगामी मिलनेकी चाह ) और लोभ पाए हुए द्रव्यादिक में अति लिप्त रहना, उसके त्यागमें अति खेद करना ) रूप मलके धोनेसे मन पवित्र होता है । मुनिके अन्य त्याग तो होता ही है केवल आहारका ग्रहण है उसमें भी तीव्र चाह नहीं रखता है, लाभ अलाभ सरस नीरस में समबुद्धि रहता है, तब उत्तम शौच धर्म होता है । लोभकी चार प्रकारकी प्रवृत्ति है— जीवितका लोभ, आरोग्य रहनेका लोभ, इन्द्रिय बनी रहने का लोभ, उपयोगका लोभ । ये चारों अपने और अपने सम्बन्धी स्वजन मित्र आदिके दोनोंके चाहने से आठ भेदरूप प्रवृत्ति है इसलिये जहाँ सबहीका लोभ नहीं होता है वहीं शौचधर्म है । अब उत्तम सत्यधर्मको कहते हैं जिवयमेव भासदि, तं पालेदु असकमाणोवि । ववहारेण वि अलियं, ण वददि जो सच्चवाई सो ॥ ३६८ ॥ अन्वयार्थ - [ जिणत्रयणमेव भासदि ] जो मुनि जिनसूत्रही के वचनको कहे [ तं पाले असकमाणो वि ] उसमें जो आचार आदि कहा गया है उसका पालन करने में असमर्थ हो तो भी अन्यथा नहीं कहे [ जो ववहारेण वि अलियं ण वददि ] और जो व्यवहारसे भी अलीक ( असत्य ) नहीं कहे [ सो सच्चाई ] वह मुनि सत्यवादी है, उसके उत्तम सत्यधर्म होता है । भावार्थ:- जो जिनसिद्धान्त में आचार आदिका जैसा स्वरूप कहा हो वैसा ही कहे । ऐसा नहीं कि जब आपसे पालन न किया जाय तब अन्यप्रकार कहे, यथावत् न कहे, अपना अपमान हो इसलिये जैसे तैसे कहे । व्यवहार जो भोजन आदिका व्यापार तथा पूजा प्रभावना आदिका व्यवहार उसमें भी जिनसूत्र के अनुसार वचन कहे, अपनी इच्छासे जैसे तैसे न कहे । यहाँ दस प्रकारके सत्यका वर्णन है नामसत्य, रूपसत्य, स्थापनासत्य, प्रतीत्यसत्य, संवृतिसत्य, संयोजनासत्य, जनपदसत्य, देशसत्य भावसत्य, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १८३ समयसत्य । मुनियोंका मुनियोंसे तथा श्रावकोंसे वचनालापका व्यवहार है। यदि बहुत भी वचनालाप हो तब भी सूत्रसिद्धान्त अनुसार इस दस प्रकारके सत्यरूप वचनकी प्रवृत्ति होती है। १-अर्थ और गुणके न होने पर भी वक्ताकी इच्छासे किसी वस्तुका नाम ( संज्ञा ) रक्खा जाय सो नाम सत्य है । २-जो रूपमात्रसे कहा जाय जैसे चित्र में किसोका रूप लिख कर कहे कि यह सफेद रंगका अमुक व्यक्ति है सो रूप सत्य है । ३-किसी प्रयोजनके लिये किसीकी मूर्ति स्थापित कर कहे सो स्थापना सत्य है । ४-किसो प्रतीतिके लिये किसीको आश्रय करके कहना सो प्रतीतिसत्य है, जैसे ताल-यह परिमाण विशेष है उसको आश्रय करके कहे 'यह पुरुषताल है' अथवा लम्बा कहे तो छोटेको प्रतीत्य ( आश्रय ) कर कहे । ५-लोकव्यवहारके आश्रयसे कहे सो संवृतिसत्य है, जैसे कमलके उत्पन्न होने में अनेक कारण हैं तो भी पंकमें हुआ इसलिये पंकज कहते हैं । ६-वस्तुओंको अनुक्रमसे ( क्रमपूर्वक ) स्थापित करने का वचन कहे सो संयोजना सत्य है, जैसे दशलक्षण का मण्डल बनावे उसमें अनुक्रमसे चूर्णके कोठे करे और कहे कि यह उत्तम क्षमाका है, इत्यादि जोडरूप नाम कहे, अथवा दूसरा उदाहरण-जैसे जौहरी मोतियोंकी लड़ियाँ करता है उनमें मोतियोंकी संज्ञा स्थापित कर रक्खो है सो जहाँ जो चाहिये उसही अनुक्रमसे मोती पिरोता है । ७-जिस देशमें जैसी भाषा हो वैसी कहे सो जनपदसत्य है । ८-ग्राम नगर आदिका उपदेशक वचन सो देशसत्य है जैसे, जिसके चारों तरफ बाड़ हो उसको ग्राम कहना । - छद्मस्थके ज्ञान अगोचर और संयमादिक पालने के लिये जो वचन सो भावसत्य है जैसे किसी वस्तुमें छद्मस्थके ज्ञानके अगोचर जीव हों तो भी अपनी दृष्टि में जीव न देखकर आगमके अनुसार कहे कि यह प्रासुक है । १०-जो आगमगोचर वस्तु है उसको आगमके वचनानुसार कहना सो समयसत्य है जैसे पल्य सागर इत्यादि कहना । दसप्रकारके सत्यका कथन गोम्मटसारमें है वहाँ सात नाम तो ये ही हैं और तीनके नाम यहाँ तो देश, संयोजना, समय हैं और वहाँ सम्भावना, व्यवहार, उपमा ये हैं । उदाहरण अन्य प्रकार हैं सो विवक्षाका भेद जानना विरोध नहीं है । ऐसे सत्य की प्रवृत्ति होती है सो जिनसूत्रानुसार वचन प्रवृत्ति करे उसके सत्य धर्म होता है । अब उत्तम संयमधर्मको कहते हैं जो जीवरक्खणपरो, गमणागमणादिसव्वकज्जेसु । तणछेदं पि ण इच्छदि, संजमधम्मो हवे तस्स ॥३६६।। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ जो जीवरक्खणपरो] जो मुनि जीवोंकी रक्षामें तत्पर होता हुआ [ गमणागमणादिसबकज्जेसु ] गमन आगमन आदि सब कार्यों में [ तणछेदं पिण इच्छदि ] तृणका छेदमात्र भो नहीं चाहता है, नहीं करता है [ तस्य संजयधम्मो हवे ] उस मुनिके संयमधर्म होता है। भावार्थ:-संयम दो प्रकारका कहा गया है-इन्द्रिय मनका वश करना और छहकायके जीवोंकी रक्षा करना । सो यहाँ मुनिके आहार विहार करने में गमन आगमन आदिका काम पड़ता है तो उन कार्यों में ऐसे परिणाम रहते हैं कि मैं तृणमात्रका भी छेद नहीं करूं, मेरे निमित्तमे किसीका अहित न हो, ऐसे यत्नरूप प्रवर्तता है, जीवदयामें ही तत्पर रहता है। यहाँ टीकाकारने अन्य ग्रन्थोंसे संयमका विशेष वर्णन किया है, उसका संक्षेप-संयम दो प्रकारका है १ उपेक्षा संयम २ अपहृत संयम । जो स्वभाव ही से रागद्वषको छोड़कर गुप्ति धर्म में कायोत्सर्ग ध्यान द्वारा स्थिर हो वहाँ उसके उपेक्षा संयम है, उपेक्षाका अर्थ उदासीनता या वीतरागता है । अपहृत संयमके तीन भेद हैं-उत्कृष्ट मध्यम जघन्य । चलते या बैठते समय जो जीव दिखाई दे उससे आप बच जाय जीवको नहीं हटावे सो उत्कृष्ट है, कोमल मयूरपंखकी पीछीसे जीवको हटाना सो मध्यम है और अन्य तृणादिकसे हटाना सो जघन्य है । यहाँ अपहृत-संयमीको पंच समितिका उपदेश है । आहार बिहारके लिये गमन करे सो प्रासुक मार्ग देख जूड़ा प्रमाण ( चार हाथ ) भूमिको देखते हुए मन्द मन्द अति यत्नसे गमन करना सो ईर्यासमिति है । धर्मोपदेश आदिके निमित्त वचन कहे सो हितरूप मर्यादापूर्वक सन्देह रहित स्पष्ट अक्षररूप वचन कहे, बहु प्रलाप आदि वचनके दोष हैं उनसे रहित बोले सो भाषासमिति है । कायकी स्थितिके लिये आहार करे सो मन-वचन-काय कृत कारित अनुमोदनाके दोष जिसमें नहीं लगें, ऐसा दूसरेसे दिया हुआ, छियालीस दोष बत्तीस अन्तराय टाल कर चौदह मल रहित अपने हाथमें खड़े होकर अति यत्नसे शुद्ध आहार करना सो एषणा समिति है । धर्मके उपकरणोंको अति-यत्नसे भूमिको देख कर उठाना धरना सो आदाननिक्षेपण समिति है । अंगके मल मूत्रादिकको, त्रस स्थावर जीवोंको देख, टाल ( बचा ) कर यत्नपूर्वक क्षेपण करना सो प्रतिष्ठापना समिति है, ऐसे पांच समिति पाले उसके संयमका पालन होता है क्योंकि ऐसा कहा है कि जो यत्नाचारसे प्रवर्तता है उसके बाह्यमें जीवको बाधा होने पर भी बंध नहीं है और यत्नहित प्रवृत्ति करता है उसके बाह्यमें जीव मरे या न मरे बंध अवश्य होता है । अपहृत संयमके Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १८५ पालनके लिये आठ शुद्धियोंका उपदेश है, १ भावशुद्धि २ कायशुद्धि ३ विनय शुद्धि ४ ईर्यापथशुद्धि ५ भिक्षाशुद्धि ६ प्रतिष्ठापना शुद्धि ७ शयनासन शुद्धि ८ वाक्यशुद्धि । भावशुद्धि तो, जैसे शुद्ध (उज्ज्वल) भोंति ( दिवार ) में चित्र शोभायमान दिखाई देता है वैसे-ही कर्मके क्षयोपशम जनित है इसलिये उसके बिना तो आचार ही प्रगट नहीं होता है । दिगम्बररूप सब विकारोंसे रहित यत्नरूप जिसमें प्रवृत्ति है, शान्त मुद्रा जिसको देखकर दूसरोंको भय उत्पन्न नहीं होता है तथा आप भी निर्भय रहता है, ऐसी कायशुद्धि है । अरहन्त आदिमें भक्ति, गुरुओंके अनुकूल रहना सो विनयशुद्धि है । मुनि जीवोंके सब स्थान जानते हैं इसलिये अपने ज्ञानसे, सूर्य के प्रकाशसे, नेत्र इन्द्रियसे मार्गको अतियत्नसे देखकर गमन करते हैं सो र्यापथशुद्धि है। भोजनके लिये गमन करे तब पहिले तो अपने मलमूत्रकी बाधाको परीक्षा करे, अपने अंगका अच्छी तरह प्रतिलेखन करे, आचारसूत्र में कहे अनुसार देश काल स्वभावको विचारे और इतनी जगह आहारके लिये नहीं जावे-जिनके गीत नृत्य वादित्रकी आजीविका हो उनके घर पर नहीं जावे, जहाँ प्रसूति हुई हो वहाँ नहीं जावे, जहाँ मृत्यु हुई हो वहाँ नहीं जावे, वेश्याके नहीं जावे, पापकर्म हिंसाकर्म जहाँ हो वहाँ नहीं जावे, दीनके घर, अनाथके घर, दानशाला, यज्ञशाला, यज्ञ, पूजनशाला, विवाह आदि मंगल जहाँ हो रहे हों, इन सबके आहारके लिये नहीं जावे । धनवानके जाना या निर्धनके जाना ऐसा विचार न करे, लोकनिंद्यकुलके घर नहीं जावे, दीनवृत्ति नहीं करे, प्रासुक आहार ले, आगमके अनुसार दोष अन्तराय टालकर निर्दोष आहारले, सो भिक्षाशुद्धि है । यहाँ लाभ अलाभ सरस नीरसमें समानबुद्धि रखता है । भिक्षा पांच प्रकारकी कही है १ गोचर २ अक्षम्रक्षण ३ उदराग्निप्रशमन ४ भ्रमराहार ५ गर्तपूरण । गो की जैसे दातारको सम्पदादिककी तरफ न देखे, जैसा पावे वैसा आहार लेनेहीमें चित्त रक्खे सो गोचरीवृत्ति है । जैसे गाड़ीको वांगि ( पहियोंमें तेल देकर ) ग्राम पहुँचे वैसे संयमके साधक कायको निर्दोष आहार देकर संयम साधे सो अक्षम्रक्षण है। आग लगने पर जैसे तैसे जलसे बुझा कर घरको बचावे वैसे ही क्षुधा अग्निको सरस नीरस आहारसे बुझा कर अपने परिणाम उज्ज्वल रक्खे सो उदराग्नि प्रशमन है । भौंरा जैसे फूलको बाधा नहीं करता है और वासना ( गंध ) लेता है वैसे ही मुनि दातारको बाधा न पहुँचा कर आहार ले सो भ्रमराहार है । जैसे गर्त ( गड्ढा ) को जैसे तैसे भरतसे भरते हैं वैसे ही मुनि स्वादु निःस्वादु आहारसे उदर भरें सो गर्त्तपूरण है, ऐसे भिक्षाशुद्धि होती है । मल मूत्र श्लेष्म थूक आदिका जीवोंको देखकर यत्नपूर्वक Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा क्षेपण करना सो प्रतिष्ठापना शुद्धि है । जहाँ स्त्री, दुष्ट जीव, नपुंसक, चोर, मद्यपायो, जीव-बध करनेवाले, नीच लोग रहते हों वहां न रहना सो शयनासनशुद्धि है, शृङ्गार विकार आभूषण सुन्दरवेश ऐसी वेश्यादिककी क्रीडा जहां होती हो, सुन्दर गीत नृत्य वादित्र जहाँ होते हों, जहां विकारके कारण नग्न गुह्यप्रदेश जिनमें दिखाई दे ऐसे चित्र हों, जहां हास्य महोत्सव घोड़े आदिको शिक्षा देनेका स्थान तथा व्यायामभूमि हो, वहां मुनि न रहे, जहां क्रोधादिक उत्पन्न हो ऐसे स्थान पर न रहे सो शयनासनशुद्धि है, जब तक कायोत्सर्ग खड़े रहनेको शक्ति हो तबतक स्वरूपमें लोन होकर खड़े रहें बाद में बैठे तथा खेदको दूर करने के लिये अल्पकाल सोवे । जहाँ आरम्भ की प्रेरणारहित वचन प्रवर्ते, युद्ध, काम, कर्कश, प्रलाप, पैशुन्य, कठोर, परपीड़ा करनेवाले वाक्य न प्रवर्ते, विकथाके अनेक भेद हैं वैसे वचन नहीं प्रवर्ते, जिनमें व्रत शीलका उपदेश हो, अपना परका हित हो, मीठे, मनोहर, वैराग्यके कारण, अपनी प्रशंसा दूसरेकी निन्दासे रहित, संयमी योग्य वचन प्रवर्तं सो वाक्य शुद्धि है । ऐसा संयम धर्म है, संयमके पाँच भेद कहे हैं-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात ऐसे पांच भेद हैं, इनका विशेष वर्णन अन्य ग्रन्थोंसे जानना। अब तपधर्मको कहते हैंइहपरलोयसुहाणं, हिरवेक्खो जो करेदि समभावो । विविहं कायकिलेसं, तबधम्मो हिम्मलो तस्स ॥४००॥ अन्वयार्थः-[जो ] जो मुनि [ इहपरलोयसुहाणं णिरवेक्खो ] इसलोक परलोकके सुख की अपेक्षासे रहित होता हुआ [ समभावो ] सुखदुःख शत्रु मित्र तृण कंचन निन्दा प्रशंसा आदिमें रागद्वेष रहित समभावी होता हुआ [ विविहं कायकिलेसं ] अनेक प्रकार कायक्लेश [ करेदि ] करता है [ तस्स णिम्मलो तवधम्मो ] उस मुनिके निर्मल तपधर्म होता है । भावार्थः-चारित्रके लिये जो उद्यम और उपयोग करता है सो तप कहा है। वह कायक्लेश सहित ही होता है इसलिये आत्माको विभावपरिणतिके संस्कारको मिटानेके लिए उद्यम करता है । अपने शुद्धस्वरूप उपयोगको चारित्रमें रोकता है, बड़े बलपूर्वक रोकता है ऐसा बल करना ही तप है । वह बाह्य आभ्यन्त रके भेदसे बारह Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १८७ प्रकारका कहा गया है । उसका वर्णन आगे चूलिकामें होगा, ऐसे तपधर्मका वर्णन किया। अब त्यागधर्मको कहते हैं जो चयदि मिट्ठभोज्जं, उवयरणं रायदोससंजणयं । वसर्दि ममत्तहेदु, चायगुणो सो हवे तस्स ॥४०१॥ अन्वयार्थः-[ जो मिट्ठभोज्जं चयदि ] जो मुनि मिष्ट भोजनको छोड़ता है [ रायदोससंजणयं उवयरणं ] रागद्वेष उत्पन्न करनेवाले उपकरणको छोड़ता है [ ममचहेदूं वसदिं ] ममत्वका कारण वसतिकाको छोड़ता है [ तस्स चायगुणो हवे ] उस मुनिके त्याग नामका धर्म होता है । __ भावार्थः-मुनिके संसार देह भोगके ममत्वका त्याग तो पहिले हो है । जिन वस्तुओंसे काम पड़ता है उनको मुख्यरूपसे कहा है । आहारसे काम पड़े तो सरस नीरसका ममत्व नहीं करे, धर्मोपकरण पुस्तक पीछी कमण्डलु जिनसे राग तीव्र बँधे ऐसे न रक्खे, जो गृहस्थजनके काम न आवे, बड़ो वसतिका रहनेकी जगहसे काम पड़े तो ऐसी जगह न रहे जिससे ममत्व उत्पन्न हो, ऐसे त्याग धर्मका वर्णन किया । अब आकिंचन्य धर्मको कहते हैंतिविहेण जो विवज्जदि, चेयणमियरं च सव्वहा संगं। लोयववहारविरदो, णिग्गंथत्तं हवे तस्स ॥४०२॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो मुनि [ लोयववहारविरदो ] लोक व्यवहारसे विरक्त होकर [ चेयणमियरं च सव्वहा संगं ] चेतन अचेतन परिग्रहको सर्वथा [ तिविहेण विवजदि ] मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनासे छोड़ता है [ तस्स णिग्गंथ हवे ] उस मुनिके निर्ग्रन्थत्व होता है। भावार्थः-मुनि अन्य परिग्रह तो छोड़ता ही है परन्तु मुनित्वके योग्य ऐसे चेतन तो शिष्य संघ और अचेतन पुस्तक पिच्छिका कमण्डलु धर्मोपकरण और आहार वसतिका देह ये अचेतन इनसे भी सर्वथा ममत्व छोड़े ऐसा विचारे कि मैं तो आत्मा ही हूँ अन्य मेरा कुछ भी नहीं है मैं अकिंचन है ऐसा निर्ममत्व हो उसके आकिंचन्य धर्म होता है। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब ब्रह्मचर्य धर्मको कहते हैं जो परिहरेदि संगं, महिलाणं णेव पस्सदे रूवं । कामकहादिणिरीहो, णव विह बंभं हवे तस्स ॥४०३॥ अन्वयार्थः-[जो महिलाणं संगं परिहरेदि ] जो मुनि स्त्रियोंकी संगति नहीं करता है [रूवं णेच पस्सदे] उनके रूपको नहीं देखता है [ कामकहादिणिरीहो ] कामकी कथा आदि शब्दसे, स्मरणादिकसे रहित हो [ णव विह ] ऐसा नवधा कहिये मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदना और तीनों कालसे-नव कोटिसे करता है [ तस्स बंभं हवे ] उस मुनिके ब्रह्मचर्य धर्म होता है । भावार्थः-ब्रह्म आत्मा है उसमें लीन होना सो ब्रह्मचर्य है । परद्रव्यों में आत्मा लीन हो उनमें स्त्री में लीन होना प्रधान है क्योंकि काम मन में उत्पन्न होता है इसलिये यह अन्य कषायोंसे भी प्रधान है और इस कामका आलम्बन स्त्री है सो इसका संसर्ग छोड़नेपर अपने स्वरूपमें लीन होता है । इसलिये स्त्रीकी संगति करना, रूप निरखना, कथा करना, स्मरण करना जो छोड़ता है उसके ब्रह्मचर्य होता है । यहाँ टीकामें शीलके अठारह हजार भेद ऐसे लिखे है अचेतन स्त्री-काष्ठ पाषाण और लेपकृत इन तीनोंको मनवचनकाय और कृतकारितअनुमोदना इन छहसे गुणा करने पर अठारह हुए । इनको पाँच इन्द्रियोंसे गुणा करने पर नव्वे ( ६० ) हुए । द्रव्य और भावसे गुणा करने पर एकसौ अस्सी ( १८० ) हुए । क्रोध मान माया लोभ इन चारोंसे गुणा करने पर सातसौ बोस ( ७२० ) हुए। __ चेतन स्त्री-देवांगना मनुष्यणो इनको कृत कारित अनुमोदनासे गुणा करने पर नौ (९) हुए । इनको मन वचन काय इन तीनसे गुणा करने पर सत्ताईस ( २७ ) हुए । पाँच इन्द्रियों से गुणा करने पर एकसौ पैंतीस ( १३५ ) हुए । द्रव्य और भावसे गुणा करने पर दो सौ सत्तर ( २७० ) हुए। इनको चार संज्ञा आहार भय मैथुन परिग्रहसे गुणा करने पर एक हजार अस्सी ( १०८० ) हुए । इनको अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण संज्वलन क्रोध मान माया लोभ रूप सोलह कषायोंसे गुणा करने पर सत्रह हजार दोसौ अस्सी ( १७२८० ) हुए । इनमें अचेतन स्त्रीके सातसौ बीस ( ७२० ) भेद मिलाने पर अठारह हजार ( १८००० ) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १८९ भेद हो जाते हैं। इन भेदोंको अन्य प्रकार से भी किये हैं सो अन्य ग्रन्थोंसे जानना' । ये आत्माकी परिणतिके विकारके भेद हैं सो सबही को छोड़कर अपने स्वरूपमें रमण करे तब ब्रह्मचर्य धर्म उत्तम होता है। , अब शीलवानकी बड़ाई कहते हैं, उक्त चजो ण वि जादि वियारं, तरुणियणकडक्खवाणविद्धो वि । सो चेव सूरसूरो, रणसूरो' णो हवे सूरो ॥१॥ ___ अन्वयार्थः- [जो ] जो पुरुष [ तरुणियणकडक्खबाणविद्धो वि ] स्त्रियोंके कटाक्षरूपी बाणोंसे आहत होकर भी [वियारं ण वि जादि ] विकारको प्राप्त नहीं होता है [ सो चेव सूरमरो ] वह शूरवीरों में प्रधान है [ रणसूरो सूरो णो हवे ] और जो रणमें शूरवीर है वह शूरवीर नहीं है । भावार्थ:-युद्ध में सामना करके मरनेवाले शूरवीर तो बहुत हैं परन्तु जो स्त्रियोंके वशमें नहीं होते हैं ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हैं ऐसे विरले ही हैं वे ही बड़े साहसी हैं, शूरवीर हैं, कामको जीतनेवाले ही बड़े सुभट हैं। ऐसे दस प्रकारके धर्मका वर्णन किया। अब इसको संकोच करते हैं एसो दहप्पयारो, धम्मो दहलक्खणो हवे णियमा । अण्णोण हवदि धम्मो, हिंसा सुहमा वि जत्थत्थि ॥४०४॥ अन्वयार्थ:-[ एसो दहप्पयारो धम्मो णियमा दहलक्खणो हवे ] यह दस प्रकारका धर्म ही नियमसे दस लक्षण स्वरूप धर्म है [ अण्णो जत्थत्थि सुहमा वि हिंसा धम्मो ण हवदि ] और अन्य जहाँ सूक्ष्म भी हिंसा होय सो धर्म नहीं है । १ अशुभ मन-वचन-कायको त्रिगुप्ति द्वारा घात करे वह शीलके नौ भेद उनको आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाओंसे गुणा करनेसे ६४ ४=३६ उनको पंचेन्द्रिजयसे गुणनेसे १८० भेद उसे पृथ्वी आदि पाँच स्थावर और त्रसकायिकोंमें दो-तीन-चार संज्ञी पंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचन्द्रिय यह १० भेदसे गुणने पर १८०० हुए । उसको उत्तम क्षमादि १० धर्मोसे गुणने पर १८००० भेद हुए । षट् प्राभृतादि संग्रह पृ० २६७। ___२ मुद्रित प्रतिमें "रणसूणो', पाठ है । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० कार्तिकेयानुप्रेक्षा भावार्थ:-जहाँ हिंसा हो और उसको कोई अन्यमती धर्म मानता हो तो उसको धर्म नहीं कहते हैं । यह दस लक्षण स्वरूप धर्म कहा है सो ही धर्म नियमसे है। इस गाथामें कहा है कि जहाँ सूक्ष्म भी हिंसा पाई जाय सो धर्म नहीं है इसी अर्थको अब स्पष्ट कहते हैं हिंसारंभो ण सुहो, देवणिमित्तं गुरूण कज्जेसु । हिंसा पावं ति मदो, दयापहाणो जदो धम्मो ॥४०५॥ अन्वयार्थः-[ हिंसा पावं ति मदो जदो धम्मो दयापहाणो ] जिससे हिंसा हो वह पाप है, धर्म है सो दयाप्रधान है ऐसा कहा गया है [ देवणिमित्तं गुरूण कज्जेसु हिसारंभो सुहो ण ] इसलिये देवके निमित्त तथा गुरुके कायके निमित्त हिंसा आरम्भ शुभ नहीं है। .... भावार्थ:-अन्यमती हिंसामें धर्म मानते हैं। मीमांसक तो यज्ञ करते हैं उसमें पशुओंको होमते हैं और उसका फल शुभ कहते हैं । देवी और भैरों ( भैरव) के उपासक बकरे आदि मार कर देवी और भैरोंके चढ़ाते हैं और उसका शुभ फल मानते हैं । बौद्ध मती हिंसा सहित मांसादिक आहारको शुभ कहते हैं । श्वेताम्बरोंके कई सूत्रों में ऐसा कहा है कि देव गुरु धर्म के निमित्त चक्रवर्तीको सेनाका नाश कर देना चाहिये, जो साधु ऐसा नहीं करता है वो अनन्तसंसारी होता है, कहीं मद्यमांसका आहार भी लिखा है । इन सबका निषेध इस गाथासे जानना चाहिये । जो देवगुरुके कार्यनिमित्त हिंसाका आरम्भ करता है सो शुभ नहीं है, धर्म तो दयाप्रधान ही है । पूजा, प्रतिष्ठा, चैत्यालयका निर्मापण, संघयात्रा तथा वसतिकाका निर्मापण ये गृहस्थोंके कार्य हैं इनको भी मुनि न आप करता है, न कराता है, अनुमोदना करता है। यह धर्म गृहस्थोंका है सो जैसे इनका सूत्र में विधान लिखा है वैसे गृहस्थ करता है । यदि गृहस्थ मुनि से इनके सम्बन्धमें प्रश्न करे तो मुनि उत्तर देवे कि जैन सिद्धान्त में गृहस्थका धर्म पूजा प्रतिष्ठा आदि लिखा है वैसे करो । ऐसा कहने में हिंसाका दोष तो गृहस्थके हो है। इसमें जो श्रद्धा, भक्ति धर्मकी प्रधानता हुई उस सम्बन्धो पुण्य हुआ उसके साथी मुनि भी हैं । हिंसा गृहस्थको है, उसके साथी नहीं है । गृहस्थ भी हिंसा करनेका अभिप्राय रक्खे ( करे ) तो अशुभ ही है । पूजा प्रतिष्ठा यत्नपूर्वक करता है, कार्य में Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १६१ हिंसा होती है उससे गृहस्थ कैसे बचे ? सिद्धान्त में ऐसा भी कहा है कि जिस कार्यके करने में पाप अल्प हो और पुण्य अधिक हो तो ऐसा कार्य गृहस्थको करना योग्य है। गृहस्थ जिसमें लाभ समझता है सो कार्य करता है । थोड़ा द्रव्य देने पर अधिक द्रव्य आवे सो कार्य करता है किन्तु मुनियोंके ऐसा कार्य नहीं होता है उनके तो सर्वथा यत्न ही है ऐसा जानना चाहिये । देवगुरूण णिमित्तं, हिंसासहिदो वि होदि जदि धम्मो। हिंसारहिदो धम्मो, इदि जिणवयणं हवे अलियं ॥४०६॥ अन्वयार्थः-[ जदि देवगुरूण णिमितं हिंसासहिदो वि धम्मो होदि ] यदि देव गुरुके निमित्त हिंसाका आरम्भ भी यतिका धर्म हो तो [ धम्मो हिंसारहिदो इदि जिणवयणं अलियं हवे ] "धर्म हिंसा रहित है" ऐसा जिनेन्द्र भगवानका वचन अलीक ( झूठा ) सिद्ध होवे । भावार्थ:-क्योंकि भगवानने धर्म हिंसारहित कहा है इसलिये देव गुरुके कार्य के निमित्त भी मुनि हिंसाका आरम्भ नहीं करते हैं, जो श्वेताम्बर कहते हैं सो मिथ्या है। अब इस धर्मको दुर्लभता दिखाते हैंइदि एसो जिणधम्मो, अलद्धपुवो अणाइकाले वि । मिछत्तसंजुदाणं, जीवाणं लद्धिहीणाणं ॥४०७॥ अन्वयार्थः- [इदि एसो जिणधम्मो ] इसप्रकारसे यह जिनेश्वर देवका धर्म [ अणाइकाले वि ] अनादिकाल में [ लद्धिहीणाणं ] जिनको स्व-काल आदिकी प्राप्ति नहीं हुई है ऐसे [मिछत्तसंजदाणं जीवाणं ] मिथ्यात्व सहित जीवोंके [ अलद्धपुयो] अलब्धपूर्व है अर्थात् पहिले कभी नहीं पाया । भावार्थः -अनादिकालसे मिथ्यात्वके कारण जोवोंको जीव अजीवादि तत्त्वार्थका श्रद्धान कभी नहीं हुआ, बिना तत्त्वार्थश्रद्धानके अहिंसाधर्म की प्राप्ति कैसे हो? १ मुद्रित "प्रति में "णिम्मित" पाठ है । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब कहते हैं कि अलब्धपूर्व धर्मको पाकर केवल पुण्यके ही आशय से सेवन नहीं करना - १६२ एदे दहप्पयारा, पावकम्मस्स गासिया भणिया । पावकम्मस्स पुराणस्स य संजणया, पर पुराणत्थं ण कायव्वा ॥ ४०८ ॥ अन्वयार्थः - [ एदे दहप्पयारा ] ये दस प्रकार के धर्म के भेद णासिया ] पाप कर्मका तो नाश करने वाले [ य पुण्णस्स संजणया ] और पुण्यकर्मको उत्पन्न करनेवाले [ भणिया ] कहे गये हैं [ पर पुण्णत्थं ण कायव्या ] परन्तु केवल पुण्यही के प्रयोजनसे इनको अंगीकार करना उचित नहीं है । 1 भावार्थ: - सातावेदनीय, शुभआयु, शुभनाम, शुभगोत्र तो पुण्यकर्म कहे गये हैं । चार घातिया कर्म, असातावेदनीय, अशुभनाम, अशुभआयु और अशुभगोत्र ये पापकर्म कहे गये हैं । दस लक्षण धर्मको पापका नाश करनेवाला और पुण्यको उत्पन्न करनेवाला कहा है सो केवल पुण्योपार्जनका अभिप्राय रखकर इनका सेवन उचित नहीं है क्योंकि पुण्य भी बंध ही है । ये धर्म तो पाप जो घातियाकर्म उसका नाश करनेवाले हैं और अघातियों में अशुभ प्रकृतियोंका नाश करते हैं । पुण्यकर्म संसारके अभ्युदयको देते हैं इसलिये इनसे ( दशधर्मसे ) पुण्यका भी व्यवहार अपेक्षा बन्ध होता है सो स्वयमेव होता ही है, उसकी वांछा करना तो संसारकी वांछा करना है और ऐसा करना तो निदान हुआ, मोक्षार्थीके यह होता नहीं है । जैसे किसान खेती अनाजके लिये करता है उसके घास स्वयमेव होता है उसकी वांछा क्यों करे ? वैसे ही मोक्षार्थीको पुण्यबन्धकी वांछा करना योग्य नहीं है । पुराणं पि जो समच्छदि, संसारो तेण ईहिदो होदि । पुराणं सुग्गई हेदु, पुराणखएव निव्वाणं ॥ ४०६॥ अन्वयार्थः – [ जो पुण्णं पि समच्छदि ] जो पुण्यको भी चाहता है [ तेण [ संसारो ईहिदो होदि ] वह पुरुष संसार ही को चाहता है [ पुण्णं सुग्गई हेदुं ] क्योंकि पुण्य सुगतिके बन्धका कारण है [ णिव्वाणं पुण्णखएणेव ] और मोक्ष पुण्यके भी क्षय से होता है । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ धर्मानुप्रेक्षा भावार्थ:-पुण्यसे सुगति होती है इसलिये जिसने पुण्यको चाहा उसने संसार ही को चाहा क्योंकि सुगति है सो संसार ही हैं । मोक्ष तो पुण्यका भी नाश होने पर होता है इसलिये मोक्षार्थीको पुण्यकी वांछा करना योग्य नहीं है । जो अहिलसेदि पुण्णं, सकसाओ विसयलोक्खतबहाए । दूरे तस्स विसोही, विसोहिमूलाणि पुण्णाणि ॥४१०॥ अन्वयार्थः-[ जो सकसामो विसयसोक्खतण्हाए पुण्णं अहिलसेदि ] जो कषाय सहित होता हुआ विषयसुखको तृष्णासे पुण्यकी अभिलाषा करता है [ तस्स विसोही दूरे ] उसके ( मन्दकषायके अभावके कारण ) विशुद्धता दूर है [ पुण्णाणि विसोहिमूलाणि ] और विशुद्धता है मूल कारण जिसका ऐसा पुण्यकर्म है। भावार्थ:-विषयोंकी तृष्णासे पुण्यको चाहना तीव्र कषाय है । पुण्यका बन्ध मन्दकषायरूप विशुद्धतासे होता है इसलिये जो पुण्य चाहता है उसके आगामी पुण्यबन्ध भी नहीं होता है, निदानमात्र फल हो तो हो । पुण्णासाए ण पुण्णं, जदो णिरीहस्स पुण्णसंपत्ती । इय जाणिऊण, जइणो, पुण्णे वि म आयरं कुणह ॥४११॥ अन्वयार्थः-[ जदो पुण्णासाए पुण्णं ण ] क्योंकि पुण्यकी वांछासे तो पुण्यबन्ध होता नहीं है [ णिरीहस्स पुण्णसंपत्ती ] और वांछारहित पुरुषके पुण्यका बन्ध होता [जइणो इय जाणिऊण] इसलिये भो हे यतीश्वरो ! ऐमा जानकर [ पुण्णे वि म आयरं कुणह ] पुण्यमें भी आदर ( वांछा ) मत करो। भावार्थ:- यहाँ मुनिराजको उपदेश है कि पुण्य की वांछासे पुण्यबन्ध नहीं होता है आशा मिटने पर होता है इसलिये आशा पुण्यकी भी मत करो, अपने स्वरूपकी प्राप्तिकी आशा करो। पुण्णं बंधदि जीवो, मंदकसाएहि परिणदो संतो। तम्हा मंदकसाया, हेऊ पुण्णस्स ण हि वंछा ॥४१२॥ अन्वयार्थः-[ जीवो मंदकसाएहि परिणदो संतो पुण्णं बंधदि ] जीव मन्दकषायरूप परिणमता हुआ पुण्यबन्ध करता है [ तमा पुण्णस्स हेऊ मंदकसाया ] Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा इसलिये पुण्यबन्धका कारण मन्दकषाय है [ वंछा ण हि ] वांछा पुण्यबन्धका कारण नहीं है। ___ भावार्थः-पुण्यबन्ध मन्दकषायसे होता है और इसकी वांछा है सो तीव्र कषाय है इसलिये वांछा नहीं करना चाहिये । निर्वांछक पुरुषके पुण्य बन्ध होता है। यह लोकमें भी प्रसिद्ध है कि जो चाह करता है उसको कुछ नहीं मिलता है, बिना चाहवालेको बहुत मिलता है इसलिये वांछाका तो निषेध ही है। यहाँ कोई प्रश्न करता है कि अध्यात्म ग्रन्थों में तो पुण्यका निषेध बहुत किया और पुराणों में पुण्यहीका अधिकार है इसलिये हम तो यह जानते हैं कि संसारमें पुण्य ही बड़ा है, इसीसे तो यहाँ इन्द्रियोंके सुख मिलते हैं और इसीसे मनुष्य पर्याय, उत्तम संगति, उत्तम शरीर मोक्षसिद्धिके उपाय मिलते हैं, पापसे नरक निगोदमें जावे तब मोक्षका भी साधन कहाँ मिले ? इसलिये ऐसे पुण्यकी वांछा क्यों नहीं करना चाहिये ? इसका समाधान __ यह कहा सो तो सत्य है परन्तु भोगोंके लिये पुण्यकी वांछाका अत्यन्त निषेव है । जो भोगनेके लिये पुण्य की वांछा करता है उसके पहिले तो सातिशय पुण्यबन्ध ही नहीं होता है और यहाँ तपश्चरणादिकसे कुछ पुण्य बाँध कर भोग पाता है तो अति तृष्णासे भोगोंको भोगता है तब नरक निगोद ही पाता है । बन्ध मोक्षके स्वरूप साधने के लिये पुण्य पाता है उसका निषेध नहीं है । पुण्यसे मोक्ष साधनेकी सामग्री मिले ऐसा उपाय रक्खे तो परम्परासे मोक्षही की वांछा हुई, पुण्य की वांछा तो नहीं हई । जैसे कोई पुरुष भोजन करनेकी वांछासे रसोईकी सामग्री इकट्ठी करता है उनको वांछा पहिले होवे तो भोजन ही की वांछा कहना चाहिये और भोजनको वांछाके बिना केवल सामग्रीहीकी वांछा करे तो सामग्री मिलने पर भी प्रयास मात्र ही हुआ, कुछ फल तो नहीं हुआ ऐसा जानना चाहिये । पुराणों में पुण्यका अधिकार भी मोक्ष ही के लिये है संसारका तो वहां भी निषेध ही है । दशलक्षण धर्म दयाप्रधान है और दया सम्यक्त्वका मुख्य चिह्न है क्योंकि सम्यक्त्व जीव अजीव आश्रव बन्ध संवर निर्जरा मोक्ष इस तत्त्वार्थके ज्ञानपूर्वक श्रद्धान स्वरूप है । इसके यह होवे तब सब जीवोंको अपने समान ही जानता है, उनको दुःख होता है तो अपने समान जानता है तब उनकी करुणा होवे ही और अपना शुद्ध स्वरूप Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ धर्मानुप्रेक्षा जाने, कषायोंको अपराध ( दुःख ) रूप जाने इनसे अपना घात जाने तब अपनी दया कषाय भावके अभावको मानता है इस तरह अहिंसाको धर्म जानता है हिंसाको अधर्म जानता है ऐसा श्रद्धान ही सम्यक्त्व है। उसके निःशंकित आदि आठ अंग हैं, उनको जीवदया हो पर लगाकर कहते हैं, पहिले निःशंकित अंगको कहते हैं किं जीवदया धम्मो, जगणे हिंसा वि होदि किं धम्मो। इच्चेवमादिसंका, तदकरणं जाण णिस्संका ॥४१३॥ अन्वयार्थः-[ किं जीवदया धम्मो ] यह विचार करना कि क्या जीवदया धर्म है ? [ जण्णे हिंसा वि होदि किं धम्मो ] अथवा यज्ञमें पशुओंके वधरूप हिंसा होती है सो धर्म है ? [ इच्चेवमादिसंका ] इत्यादि धर्ममें संशय होना सो शंका है [ तदकरणं णिस्संका जाण ] इसका नहीं करना सो निःशंका है ऐसा जान । भावार्थ:-यहाँ आदि शब्दसे क्या दिगम्बर यतीश्वरोंको ही मोक्ष है अथवा तापस पंचाग्नि आदि तप करते हैं उनको भी है । क्या दिगम्बरको ही मोक्ष है या श्वेताम्बरको भी है ? केवली कवलाहार करते हैं या नहीं करते हैं ? स्त्रियोंको मोक्ष है या नहीं ? जिनदेवने वस्तुको अनेकान्त कहा है सो सत्य है या असत्य है ? ऐसी आशंकाएं नहीं करना सो निःशंकित अंग है। दयभावो वि य धम्मो, हिंसाभावो ण भण्णदे धम्मो । इदि संदेहाभावो, णिस्संका णिम्मला होदि ॥४१४॥ अन्वयार्थः-[ दयभावो वि य धम्मो ] निश्चयसे दया भाव ही धर्म है [हिंसाभावो धम्मो ण भण्णदे ] हिंसाभाव धर्म नहीं कहलाता है [ इदि ] ऐसा निश्चय होने पर [ संदेहाभावो ] सन्देहका अभाव होता है [णिम्मला णिस्संका होदि ] वह ही निर्मल निःशंकित गुण है । ___ भावार्थः-अन्यमतवालोंके माने हुए देव धर्म गुरु तथा तत्त्वके विपरीत स्वरूपका सर्वथा निषेध करके जैनमतमें कहे हुएका श्रद्धान करना सो निःशंकित गुण है, जबतक शंका रहती है तबतक श्रद्धान निर्मल नहीं होता है । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब नि:कांक्षित गुणको कहते हैं जो सग्गसुहणिमित्तं, धम्मं णायरदि दूसद्दतवेहिं । मोक्खं समीक्षमाणो, णिक्खंखा जायदे तस्स ॥ ४१५ ॥ अन्वयार्थः–[ जो ] जो सम्यग्दृष्टि [ दूसहतवेर्हि ] दुद्धर तपसे भो [ मोक्खं समहमाण ] मोक्ष की ही वांछा करता हुआ [ सग्गसुहणिमित्तं धम्मं णायरदि] स्वर्गसुख के लिये धर्मका आचरण नहीं करता है [ तस्स णिक्खखा जायदे ] उसके निःकांक्षित गुण होता है । १६६ भावार्थः – जो धर्मका आचरण तथा दुद्धर तप मोक्षही के लिये करता है, स्वर्गादिके सुख नहीं चाहता है उसके निःकांक्षित गुण होता है । अब निर्विचिकित्सा गुणको कहते हैं दह विहधम्मजदाणं, सहावदुग्गंध असुइदेहेसु । जं गिंदणं ण कीरइ, णिब्वि दिगिंडा गुणो सो हु ॥ ४१६॥ अन्वयार्थः– [ दहविहधम्मजुदाणं ] दस प्रकारके धर्म सहित [ सहावदुग्गंधअसुदे ] मुनिराजका शरीर पहिले तो जो स्वभावसे ही दुर्गन्धित और अशुचि है और स्नानादि संस्कारके अभाव से बाह्य में विशेष अशुचि और दुर्गन्धित दिखाई देता है उसकी [ जं निंदणं ण कीरइ ] जो निन्दा ( अवज्ञा ) नहीं करना [ सो हु विदिगिळा गुणो ] सो निर्विचिकित्सा गुण है । भावार्थ:-सम्यग्दृष्टि पुरुषकी प्रधान दृष्टि सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र गुणों पर पड़ती है, देह तो स्वभाव ही से अशुचि और दुर्गन्धित है इसलिये मुनिराजकी देहकी तरफ क्या देखे ? उनके रत्नत्रयकी तरफ देखे तब ग्लानि क्यों आवे ? ऐसी ग्लानिका उत्पन्न न होना ही निर्विचिकित्सा गुण है । जिसके सम्यक्त्व गुण प्रधान नहीं होता है उसकी दृष्टि पहिले देह पर पड़ती है तब ग्लानि उत्पन्न होती है वहाँ यह गुण नहीं होता है । अब अमूढदृष्टि गुणको कहते हैं भयलज्जालाहादो, हिंसारं भो ण मरणदे धम्मो । जो जिरवणे लीणो, अमूढदिट्ठी हवे सो दु ॥४१७॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा १९७ अन्वयार्थः-[जो ] जो [ भयलजालाहादो हिसारंभो धम्मो ण मण्णदे 1 भय, लज्जा और लाभसे हिंसाके आरम्भको धर्म नहीं मानता है [जिणक्यणे लीणो ] और जिनवचनोंमें लीन है, भगवानने धर्म अहिंसा हो कहा है ऐसी दृढ़ श्रद्धा युक्त है [ सो दु अमूढदिट्ठी हवे ] वह पुरुष अमूढदृष्टिगुण संयुक्त है । भावार्थ:-अन्यमतवाले यज्ञादिक हिंसामें धर्म मानते हैं उसको राजाके भयसे, किसी व्यन्तरके भयसे, लोकलाजसे और कुछ धनादिकके लाभसे इत्यादि अनेक कारणोंसे धर्म न माने ऐसी श्रद्धा रखे कि धर्म तो भगवानने अहिंसा ही कहा है सो अमूढ़दृष्टि गुण है । यहाँ हिंसारभके कहने में हिंसाके प्ररूपक देव शास्त्र गुरु आदिमें भी मूढदृष्टि नहीं होता है । ऐसा जानना । अब उपगृहनगुणको कहते हैंजो परदोसं गोवदि, णियसुकयं जो ण पयासदे लोए। भवियव्वभावणरओ, उवगृहणकारओ सो हु ॥४१८॥ अन्वयार्थः- [ जो परदोसं गोवदि ] जो सम्यग्दृष्टि दूसरेके दोषोंको छिपाता है । [णियसुकयं लोए जो ण पयासदे ] अपने सुकृत ( पुण्य ) को लोकमें प्रकाशित नहीं करता फिरता है [ भवियव्वभावणरओ ] ऐसी भावनामें लीन रहता है कि जो भवितव्य है सो होता है तथा होगा [ सो हु उवगृहणकारओ ] सो उपगूहन गुण करनेवाला है। भावार्थ:-सम्यग्दृष्टिके ऐसी भावना रहती है कि कर्मके उदयके अनुसार मेरी लोकमें प्रवृत्ति है सो होनी है सो होती है, ऐसी भावनासे अपने गुणोंको प्रकाशित नहीं करता फिरता है, दूसरों के दोष प्रगट नहीं करता है, साधर्मी जन तथा पूज्य पुरुषों में किसी कर्मके उदयसे दोष लगे तो उसको छिपावे, उपदेशादिसे दोषको छुड़ावे, ऐसा न करे जिससे उनकी निन्दा हो, धर्मको निन्दा हो, धर्म धर्मात्मामेंसे दोषका अभाव करना है सो दोषका छिपाना भी अभाव ही करना है क्योंकि जिसको लोग न जाने सो अभाव तुल्य ही है, ऐसे उपगूहन गुण होता है। अब स्थितिकरण गुणको कहते हैंधम्मादो चलमाणं, जो अण्णं संठवेदि धम्मम्मि । अप्पाणं सुदिढयदि, ठिदिकरणं होदि तस्सेव ॥४१६॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ जो धम्मादो चलमाणं अण्णं धम्मम्मि संठवेदि ] जो धर्मसे चलायमान होते हुए दूसरेको धर्ममें स्थापित करता है [ अप्पाणं सुदिढयदि ] और अपने आत्माको भी चलायमान होनेसे दृढ़ करता है [ तस्सेव ठिदिकरणं होदि ] उसके निश्चयसे स्थितिकरण गुण होता है । भावार्थ:-धर्मसे चिगने ( चलायमान होने ) के अनेक कारण हैं इसलिये निश्चय व्यवहाररूप धर्मसे दूसरेको तथा अपनेको चलायमान होता जानकर उपदेशसे तथा जैसे बने वैसे दृढ़ करे उसके स्थितिकरण गुण होता है । अब वात्सल्य गुणको कहते हैं जो धम्मिएसु भत्तो, अणुचरणं कुणदि परमसद्धाए । पियवयणं जंपतो, वच्छल्लं तस्स भव्वस्स ॥४२०॥ अन्वयार्थः-[जो धम्मिएसु भत्तो ] जो सम्यग्दृष्टि जीव धार्मिक अर्थात् सम्यग्दृष्टि श्रावकों तथा मुनियों में भक्तिवान् हो [अणुचरणं कुणदि ] उनके अनुसार प्रवृत्ति करता हो [ परमसद्धाए पियवयणं जपतो] परम श्रद्धासे प्रिय वचन बोलता हो [ तस्स भव्वस्स वच्छल्ल] उस भव्यके वात्सल्य गुण होता है । भावार्थ:-वात्सल्य गुणमें धर्मानुराग प्रधान है, विशेषकर धर्मात्मा पुरुषोंसे जिसके भक्ति अनुराग हो, उनसे प्रिय वचन सहित बोले, उनका भोजन गमन आगमन आदिकी क्रिया में अनुचर होकर प्रवृत्ति करे, गाय बछड़ेकासा प्रेम रक्खे उसके वात्सल्य गुण होता है । अब प्रभावना गुणको कहते हैं जो दसभेयं धम्म, भव्वजणाणं पयासदे विमलं । अप्पाणं पि पयासदि, णाणेण पहावणा तस्स ॥४२१॥ अन्वयार्थः- [जो दसभेयं धम्म भव्वजणाणं ] जो सम्यग्दृष्टि दसभेदरूप धर्मको भव्यजीवोंके निकट [णाणेण ] अपने ज्ञानसे [ विमलं पयासदे] निर्मल प्रगट करे [ अप्पाणं पि पयासदि ] तथा अपनी आत्माको दसप्रकारके धर्म से प्रकाशित करे [ तस्स पहावणा ] उसके प्रभावना गुण होता है । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ धर्मानुप्रेक्षा भावार्थ:-धर्मको विख्यात करना प्रभावना गुण है। इसलिये उपदेशादिसे तो दूसरोंमें धर्मको प्रगट करे और अपनो आत्माको दस प्रकारका धर्म अंगीकार कर कर्मकलकसे रहित करके प्रगट करे उसके प्रभावना गुण होता है । जिणसासणमाहप्पं, बहुविहजुत्तीहि जो पयासेदि । तह तिव्वेण तवेण य, पहावणा णिम्मला तस्स ॥४२२॥ __अन्वयार्थः-[ जो बहुविहजुत्तीहि ] जो सम्यग्दृष्टि पुरुष अपने ज्ञानके बलसे, अनेक प्रकार की युक्तियोंसे वादियोंका निराकरण कर तथा न्याय व्याकरण छन्द अलंकार साहित्य विद्यासे उपदेश वा शास्त्रों की रचना कर [ तह तिव्वेण तवेण य ] तथा अनेक अतिशय चमत्कार पूजा प्रतिष्ठा और महान् दुद्धर तपश्चरणसे [ जिणसासणमाहप्पं ] जिनशासनके माहात्म्यको [ पयासेदि ] प्रगट करे [ तस्स पहावणा णिम्मला] उसके प्रभावना गुण निर्मल होता है । भावार्थ:-यह प्रभावना गुण बड़ा गुण है इससे अनेकानेक जीवोंके धर्मकी रुचि श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है इसलिये सम्यग्दृष्टि पुरुषोंके अवश्य होता है । अब निःशंकित आदि गुण किस पुरुषके होते हैं सो कहते हैंजो ण कुणदि परतत्ति, पुणु पुणु भावेदि सुद्धमप्पाणं । इंदियसुहणिवेक्खो, णिस्संकाईगुणा तस्स ॥४२३॥ अन्वयार्थः-[ जो परतत्ति ण कुणदि ] जो पुरुष दूसरोंकी निन्दा नहीं करता है [ सुद्धमप्पाणं पुणु पुणु भावेदि ] शुद्ध आत्माको बार बार भाता (भावना करता) है [ इंदियसुहणिरवेक्खो ] और इन्द्रिय सुखकी अपेक्षा ( वांछा ) रहित होता है [तस्स णिस्संकाईगुणा ] उसके निःशंकित आदि अष्ट गुण अहिंसा धर्मरूप सम्यक्त्व होता है। भावार्थ:- यहां तीन विशेषण हैं उनका तात्पर्य यह है कि जो दूसरोंकी निन्दा करता है उसके निविचिकित्सा, उपगूहन, स्थितिकरण और वात्सल्य गुण कैसे हो ? इसलिये दूसरोंकी निन्दा न करे तब ये चार गुण होवें । जिसको अपनी आत्माके वस्तु स्वरूपमें शंका (सन्देह) हो तथा मूढदृष्टि हो सो अपनी आत्माको बारम्बार शुद्ध कैसे भावे ? इसलिये जो आपको शुद्ध भावे उसीके निःशंकित तथा अमूढ़द्दष्टि गुण होते हैं Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० कार्तिकेयानुप्रेक्षा और प्रभावना गुण भी उसीके होता है। जिसके इन्द्रियसुखकी वांछा हो उसके नि:कांक्षित गुण नहीं होता है, इन्द्रियसुखकी वांछासे रहित होने पर ही निःकांक्षित मुण होता है। ऐसे आठ गुण संभव होनेके तीन विशेषण हैं। अब यह कहते हैं कि ये आठ गुण जैसे धर्म में कहे वैसे देव गुरु आदिके लिये भी जानने हिस्संकापहुडिगुणा, जह धम्मे तह य देवगुरुतच्चे । जाणेहि जिणमयादो, सम्मत्तविसोहया एदे ॥४२४॥ अन्वयार्थ:-[णिस्संकापहुडिगुणा जह धम्मे तह य देवगुरुतच्चे ] ये निःशंकित आदि आठ गुण जैसे धर्ममें प्रगट होते कहे गये हैं वैसे ही देवके स्वरूपमें तथा गुरुके स्वरूपमें और षडद्रव्य पंचास्तिकाय सप्त तत्त्व नव पदार्थों के स्वरूप में होते हैं [ जिणमयादो जाणेहि ] इनको प्रवचन सिद्धान्तसे जानना चाहिये [एदे सम्मतविसोहया] ये आठ गुण सम्यक्त्वको निरतिचार विशुद्ध करनेवाले हैं । भावार्थ:-देव गुरु तत्त्वमें शंका न करना, इनकी यथार्थ श्रद्धासे इन्द्रियसुखकी वांछारूप कांक्षा न करना, इनमें ग्लानि न लाना, इनमें मूढदृष्टि न रखना, इनके दोषोंका अभाव करना तथा उनको छिपाना, इनका श्रद्धान दृढ़ करना, इनमें वात्सल्य विशेष अनुराग करना, इनकी महिमा प्रगट करना ऐसे आठ गुण इनमें जानना चाहिये । इनकी कथाएँ पहिले जो सम्यग्दृष्टि हुए हैं उनको जैन शास्त्रोंसे जानना । ये आठों गुण सम्यक्त्वके अतिचार दूर कर उसको निर्मल करनेवाले हैं। अब इस धर्मको करनेवाला तथा जाननेवाला दुर्लभ है ऐसा कहते हैंधम्मं ण मुणदि जीवो, अहवा जाणेइ कह व कट्ठण । काउं तो वि ण सक्कदि, मोहपिसाएण भोलविदो ॥४२५॥ अन्वयार्थ:-[ जीवो धम्म ण मुणदि ] इस संसार में पहिले तो जीव धर्मको जानता ही नहीं है [ अहवा कह ब कढण जाणेइ ] अथवा किसी बड़े कष्टसे जान भी जाता है तो [ मोहपिसाएण भोलविदो ] मोह पिशाचसे भ्रमित किया हुआ [ का तो वि ण सकदि ] करनेको समर्थ नहीं होता है। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा २०१ भावार्थ:- अनादिसंसारसे मिथ्यात्व द्वारा भ्रमित यह प्राणी पहिले तो धर्मको जानता ही नहीं है और किसी काललब्धिसे गुरुके संयोगसे ज्ञानावरणी के क्षयोपशमसे जान भी जाय तो उसका करना दुर्लभ है । अब धर्म ग्रहणका माहात्म्य दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं जह जीवो कुणइ रई, पुत्तकलत्तेसु कामभोगे । तह जड़ जिणिदधम्मे, तो लीलाए सुहं लहदि ॥ ४२६ ॥ अन्वयार्थः - [ जह जीवो पुत्तकलत्तेसु कामभोगेसु रई कुणइ ] जैसे यह जीव पुत्रकलत्र में तथा काम भोग में रति ( प्रीति ) करता है [ तह जड़ जिणिदधम्मे तो लीलाए सुहं हदि ] वैसे ही यदि जिनेन्द्र के वीतरागधर्म में करे तो लीलामात्र (शीघ्र काल) में ही सुखको प्राप्त हो जाता है । भावार्थ:- जैसी इस प्राणीके संसार में तथा इन्द्रियों के विषयों में प्रीति है वैसी यदि जिनेश्वर के दसलक्षण धर्म स्वरूप वीतराग धर्म में प्रीति होवे तो थोड़े ही समय में मोक्षको पावे | अब कहते हैं कि जो जीव लक्ष्मो चाहता है सो धर्म बिना कैसे हो ? लच्छि छेइ रो, व सुधम्मेसु प्रयरं कुणइ । बीएणविणा कत्थवि, किं दोसदि सस्सप्पित्ती ॥ ४२७ ॥ अन्वयार्थः – [ णरो लच्छि वंछेई ] यह जीव लक्ष्मीको चाहता है [ सुधम्मेसु आयरं व कुणइ ] और जिनभाषित मुनि श्रावक धर्म में आदर ( प्रीति ) नहीं करता है सो लक्ष्मीका कारण तो धर्म है, उसके बिना कैसे आवे ? [ बीएण विणा सरसनिष्पत्ती कत्थवि किं दीसदि ] जैसे बीजके बिना धान्यकी उत्पत्ति क्या कहीं दिखाई देती है ? नहीं दिखाई देती है | भावार्थ:- जैसे बीजके बिना धान्य नहीं होता है वैसे धर्मके बिना सम्पत्ति नहीं होती है यह प्रसिद्ध है । * स्वकालकी प्राप्ति से; Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब धर्मात्मा जीवकी प्रवृत्ति कहते हैंजो धम्मत्थो जीवो, सो रिउवग्गे वि कुणदि खमभावं । ता परदव्वं वज्जइ, जणणिसमं गणइ परदारं ॥४२८॥ अन्वयार्थः- [ जो जीवो धम्मत्थो ] जो जीव धर्म में स्थित है [ लो रिउवग्गे वि खमभावं कुणदि ] वह शत्रुओंके समूह पर भी क्षमा भाव करता है [ ता परदव्वं वजइ ] दूसरेके द्रव्यको त्यागता है, ग्रहण नहीं करता है [ परदारं जणणिसमं गणइ ] परस्त्रीको माता बहिन कन्याके समान समझता है । ता सव्वत्थ वि कित्ती, ता सव्वस्स वि हवेइ वीसासो। ता सव्वं पिय भासइ, ता शुद्धं माणसं कुणई ॥४२६॥ अन्वयार्थः-[ता सव्वत्थ वि कित्ती ] जो जीव धर्म में स्थित है तो उसकी सब लोकमें कीत्ति होती है [ता सव्वस्स वि वीसासो हवे ] उसका सब लोक विश्वास करता है [ ता सव्वं पिय भासइ ] वह पुरुष सबको प्रियवचन कहता है जिससे कोई दुःख नहीं पाता है [ ता सुद्धं माणसं कुणई ] और वह पुरुष अपने तथा दूसरेके मनको शुद्ध ( उज्ज्वल ) करता है, किसीको इससे कालिमा नहीं रहती है वैसे ही इसको भी किसीसे कालिमा ( मानसिक कुटिलता ) नहीं रहती है । भावार्थ:-धर्म सब प्रकारसे सुखदाई है । अब धर्मका माहात्म्य कहते हैं उत्तमधम्मेण जुदो, होदि तिरक्खो वि उत्तमो देवो । चंडालो वि सुरिंदो, उत्तमधम्मेण संभवदि ॥४३०॥ अन्वयार्थः-[ उत्तमधम्मेण जुदो तिरक्खो वि उत्तमो देवो होदि ] सम्यक्त्व सहित उत्तम धर्मसे युक्त तिथंच भी उत्तम देव होता है [ उत्तमधम्मेण चंडालो वि सुरिंदो संभवदि ] सम्यक्त्व सहित उत्तम धर्मसे चांडाल भी देवोंका इन्द्र हो जाता है। अग्गी वि य होदि हिमं, होदि भुयंगो वि उत्तमं रयणं । जीवस्स सुधम्मादो, देवा वि य किंकरा होति ॥४३१॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मानुप्रेक्षा २०३ अन्वयार्थः-[ जीवस्स सुधम्मादो] इस जीवके उत्तमधर्मके प्रभावसे [ अग्गी वि य हिमं होदि ] अग्नि तो हिम ( शीतल पाला ) हो जाती है [ भुयंगो वि उत्तम रयणं होदि ] सांप भी उत्तम रत्नोंकी माला हो जाता है [ देवा वि य किंकरा होति ] देव भी किंकर हो जाते हैं । उक्त च गाथातिक्खं खग्गं माला, दुज्जयरिउणो सुहंकरा सुयणा । हालाहलं पि अमिय, महापया संपया होदि ॥१॥ अन्वयार्थः- [ तिक्खं खग्गं माला ] उत्तम धर्मसहित जीवके तीक्ष्ण खड्ग फूलमाला हो जाती है [ दुजयरिउणो सुहंकरा सुयणा ] दुर्जय शत्रु भी सुख देनेवाला मित्र हो जाता है [ हालाहलं पि अमियं ] हालाहल विष भी अमृत हो जाता है [ महापया संपया होदि ] अधिक कहाँ तक कहें बड़ी आपत्ति भी सम्पत्ति हो जाती है । अलियवयणं पि सच्चं, उज्जमरहिए वि लच्छिसंपत्ती । धम्मपहावेण गरो, अणो वि सुहंकरो होदि ॥४३२॥ अन्वयार्थः-[ धम्मपहावेण णरो] धर्मके प्रभावसे जीवके [ अलियवयणं पि सच्चं ] झूठ वचन भी सत्य वचन हो जाते हैं [ उजमरहिए वि लच्छिसंपत्ती ] उद्यम रहितको भी लक्ष्मीकी प्राप्ति हो जाती है [ अणओ वि सुहंकरो होदि ] और अन्यान्य कार्य भी सुखके करनेवाले हो जाते हैं । भावार्थ:-यहाँ ऐसा अर्थ समझना चाहिये कि यदि पहिले धर्मसेवन किया हो तो उसके प्रभावसे यहाँ झूठ बोले सो भी सच हो जाय, उद्यम बिना भो संपत्ति मिल जाय, अन्यायरूप प्रवृत्ति करे तो भी सुखी रहे । अब धर्मरहित जीवकी निन्दा करते हैं देवो वि धम्मचत्तो, मिच्छत्तवसेण तरुवरो होदि । चक्की वि धम्मरहिमओ, शिवडइ, णरए ण संदेहो ॥४३३॥ अन्वयार्थ:- [धम्मचत्तो मिच्छत्तवसेण देवो वि तरुवरो होदि ] धर्मरहित मिथ्यात्वके वशसे देव भी वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीव हो जाता है [ धम्मरहिओ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा चक्की वि णरए णिवडइ ] धर्मरहित चक्रवर्ती भी नरक में जा पड़ता है [ ण संदेहो ] संपत्ति की प्राप्ति नहीं होती उसमें भी कोई सन्देह नहीं है । धम्मविहीणो जीवो, कुणइ असक्कं पि साहसं जइ वि । तो ण वि पाव दि इ8, सुठु अणि? परं लहदि ॥४३४॥ अन्वयार्थ:-[ धम्मविहीणो जीवो जइ वि असक साहसं पि कुणइ ] धर्मरहित जीव यद्यपि बड़ा असह्य साहस ( पराक्रम ) भी करता है [ तो इ8 सुठु ण वि पावदि ] तो भी उसको इष्ट वस्तुकी प्राप्ति नहीं होती है [ परं अणिटुं लहदि ] केवल उल्टी उत्कट अनिष्टकी प्राप्ति होती है । भावार्थ:-पापके उदयसे अच्छा करते हुए भी बुरा होता है यह जगत्प्रसिद्ध है। इय पञ्चक्खं पेच्छह धम्माहम्माण विविहमाहप्पं । धम्मं आयरह सया, पावं दूरेण परिहरह ॥४३५॥ अन्वयार्थः-[ इय धम्माहम्माण विविहमाहप्पं पञ्चक्खं पेच्छह ] हे प्राणियों ! इस प्रकारसे धर्म और अधर्मका अनेक प्रकारका माहात्म्य प्रत्यक्ष देखकर [ सया धम्म आयरह ] तुम सदा धर्मका आदर करो [पावं दूरेण परिहरह ] और पापको दूर ही से छोड़ो। भावार्थ:-आचार्यने दसप्रकारके धर्मका स्वरूप कहकर अधर्मका फल दिखाया । यहाँ यह उपदेश दिया है कि प्राणियों ! प्रत्यक्ष धर्म अधर्मका फल लोकमें देखकर धर्मका आदर (पालन) करो और पापका त्याग करो। आचार्य बड़े उपकारी हैं अकारण ही जिनको कुछ चाह नहीं है निस्पृह होते हुए जीवोंके कल्याण ही के लिये बारबार कहकर प्राणियोंको चेत ( ज्ञान ) कराते हैं, ऐसे श्रीगुरु वन्दने पूजने योग्य हैं । ऐसे यतिधर्मका वर्णन किया। दोहा। मुनिश्रावकके भेदतें, धर्म दोय परकार । ताकू सुनिचितवो सतत, गहि पावौ भवपार ।।१२।। इति धर्मानुप्रेक्षा समाप्ता ।।१२।। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश तप २०५ द्वादश तप अब धर्मानुप्रेक्षाकी चूलिकाको कहते हुए आचार्य बारह प्रकार तपके विधान का निरूपण करते हैं बारसभेप्रो भणिो , णिज्जरहेऊ तवो समासेण । तस्स पयारा एदे, भणिज्जमाणा मुणेयव्वा ॥४३६॥ अन्वयार्थः-[णिजरहेऊ तवो बारसभेओ समासेण भणिओ ] कर्म निर्जराका कारण तप बारह प्रकारका संक्षेपसे जिनागममें कहा गया है [ तस्स पयारा एदे भणिजमाणा मुणेयव्या ] उसके भेद जो अब कहेंगे सो जानना चाहिये । भावार्थ:-निर्जराका कारण तप है, यह बारह प्रकार है । अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश यह छह प्रकारका बाह्य तप है । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान यह छह प्रकारका अन्तरंग तप है । इनका व्याख्यान अब करेंगे। पहिले अनशन तपको चार गाथाओंसे कहते हैंउसमणं अक्खाणं, उववासो वरिणदो मुर्णिदेहि । तम्हा भुजुता वि य जिदिदिया होंति उववासा ॥४३७॥ अन्वयार्थः-[मुणिंदेहि अक्खाणं उवसमण उववासा वण्णिदो ] मुनीन्द्रोंने संक्षेपमें इन्द्रियोंको विषयों में न जाने देनेको, मनको अपने आत्मस्वरूपमें लगानेको उपवास कहा है [ तम्हा जिदिदिया मुंजता वि य उववासा होंति ] इसलिये जितेन्द्रिय आहार करते हुए भी उपवास सहित हो होते हैं । भावार्थ:-~-इन्द्रियोंको जीतना उपवास है इसलिये यतिगण भोजन करते हुए भी उपवास सहित ही हैं क्योंकि वे इन्द्रियोंको वश में कर प्रवर्तते हैं । जो मणइंदियविजई, इहभवपरलोयसोकावणिरवेक्खो । अप्पाणे विय णिवसइ, सज्झायपरायणो होदि ॥४३८।। कम्माणणिज्जर8, आहारं परिहरेइ लीलाए । एगदिणादिपमाणं, तस्स तवं अणसणं होदि ॥४३६॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[जो मणइंदियविजई ] जो मन और इन्द्रियों को जीतनेवाला है [ इहभवपरलोयसोक्खणिरवेक्खो ] इस भव और परभवके विषयसुखोंमें अपेक्षा रहित है, वांछा नहीं करता है [ अप्पाणे विय णिवसइ ] अपने आत्मस्वरूप में ही रहता है [ सज्झायपरायणो होदि ] तथा स्वाध्यायमें तत्पर है [ एगदिणादिपमाणं ] और एक दिनकी मर्यादासे [ कम्माण णिजर8 ] कर्मोंकी निर्जराके लिये [लीलाए आहारं परिहरेइ] लीलामात्र ही क्लेशरहित हर्षसे आहारको छोड़ता है [ तस्स अणसणं तवं होदि ] उसके अनशन तप होता है। भावार्थ:-इन्द्रिय और मन विषयोंमें प्रवृत्तिसे रहित होकर आत्मामें वसे ( निवास करें ) वह उपवास है। इन्द्रियोंको जीतना, इसलोक परलोक सम्बन्धी विषयोंकी वांछा न करना, या तो आत्मस्वरूपमें लीन रहना, या शास्त्रके अभ्यास स्वाध्यायमें मन लगाना उपवासमें ये कार्य प्रधान हैं और क्लेश उत्पन्न न हो जैसे क्रीडामात्र, एक दिनकी मर्यादारूप आहारका त्याग करना सो उपवास है । ऐसे उपवास नामक अनशन तप होता है। उववासं कुव्वाणो, आरंभं जो करेदि मोहादो। तस्स किलेसो अवरं, कम्माणं णेव णिज्जरणं ॥४४०॥ अन्वयार्थ:-[ जो उबवासं कुव्वाणो मोहादो आरंभं करेदि ] जो उपवास करता हुआ मोहसे आरम्भ ( गृहकार्यादि ) को करता है [ तस्स अवरं किलेसो ] उसके पहिले तो गृहकार्यका क्लेश था ही और दूसरा भोजनके बिना क्षुधा तृषाका और क्लेश हो गया [ कम्माण णिजरणं णेव ] कर्मोंका निर्जरण तो नहीं हुआ। भावार्थ:-आहारको तो छोड़े और विषय कषाय आरम्भको न छोड़े उसके पहिले तो क्लेश था ही और दूसरा क्लेश भूख प्यासका और हो गया ऐसे उपवासमें कर्मकी निर्जरा कैसे हो ? कर्मकी निर्जरा तो सब क्लेश छोड़कर साम्यभाव करनेसे होती है। अब अवमोदर्य तपको दो गाथाओंसे कहते हैं आहारगिद्धिरहिओ, चरियामग्गेण पासुगं जोग्गं । अप्पयरं जो भुञ्जइ, अवमोदरियं तवं तस्स ॥४४१॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश तप २०७ अन्वयार्थः-[जो आहारगिद्धिरहियो ] जो तपस्वी आहारकी अतिचाहसे रहित होकर [ चरियामग्गेण जोग्गं पासुगं] शास्त्रोक्त चर्याकी विधिसे योग्य प्रासुक आहार [ अप्पयरं भुजइ ] अति अल्प लेता है [ तस्स अवमोदरियं तवं ] उसके अवमौदर्य तप होता है। भावार्थ:-मुनि आहारके छियालीस दोष, बत्तीस अन्तराय टालकर चौदह मल रहित प्रासुक, योग्य भोजन लेते हैं तो भी ऊनोदर तप करते हैं, अपने आहारके प्रमाणसे थोड़ा लेते हैं । एक ग्राससे बत्तीस ग्रास तक आहारका प्रमाण कहा गया है उसमें इच्छानुसार घटाकर लेना सो अवमौदर्य तप है । जो पुण कित्तिणिमित्तं, मायाए मिट्ठभिक्खलाहटु । अप्पं भुजदि भोज्जं, तस्स तवं णिप्फलं बिदियं ॥४४२॥ __ अन्वयार्थः-[जो पुण कितिणिमित्र ] जो मुनि कीर्तिके निमित्त तथा [ मायाए मिट्ठभिक्खलाहटु] माया ( कपट ) से और मिष्ट भोजनके लाभके लिए [ अप्पं भोज्जं भुजदि ] अल्प भोजन करता है (तपका नाम करता है) [ तस्स बिदियं तवं णिप्फलं ] उसके दूसरा अवमौदर्य वप निष्फल है । भावार्थ:-जो ऐसा विचार करे कि अल्प भोजन करनेसे मेरी कीर्ति होगी तथा कपटसे लोगोंको धोखा देकर कुछ प्रयोजन सिद्ध कर लूंगा और थोड़ा भोजन करने पर भोजन मिष्ट रससहित मिलेगा ऐसे अभिप्रायोंसे ऊमोदर तप करे तो वह निष्फल है । यह तप नहीं, पाखण्ड है। अब वृत्तिपरिसंख्यान तपको कहते हैं एगादिगिहपमाणं, किं वा संकप्पकप्पियं विरसं। भोज्ज पसु व्व भुजदि, वित्तिपमाणं तवो तस्स ॥४४३॥ अन्वयार्थ:-[एगादिगिहपमाणं ] जब मुनि आहारके लिये चले तब पहिले मनमें ऐसी प्रतिज्ञा करे कि आज एक ही घर आहार मिलेगा तो लेंगे, नहीं तो लौट आवेंगे तथा दो घर तक जायेंगे [ किं वा संकप्पकप्पियं विरसं ] एक रसको, देनेवालेकी, पात्रकी प्रतिज्ञा करे कि ऐसा दातार ऐसी रीतिसे ऐसे पात्रमें लेकर देगा तो लेंगे तथा आहारकी प्रतिज्ञा करे कि सरस नीरस या अमुक अन्न मिलेगा तो लेंगे इत्यादि वृत्तिकी Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा संख्या ( गणना ) प्रतिज्ञा मनमें विचार कर चले वैसी ही विधि मिले तो आहार ले अन्यथा न ले [भोज्जं पसु व्व भुजदि] और आहार पशु गौ आदि की तरह करे (जैसे गौ इधर उधर नहीं देखती है चरने हो की तरफ देखतो है ) [तस्स वित्तिपमाणं तवो] उसके वृत्तिपरिसंख्यान तप है । भावार्थः-भोजनको आशाको निराश करनेके लिये यह तप है । संकल्प माफिक विधि मिलना दैवयोग है, यह बड़ा कठिन तप महामुनि करते हैं । अब रसपरित्याग तपको कहते हैंसंसारदुक्खतट्ठो, विससमविसयं विचिंतमाणो जो। णीरसभोज्जं भुजइ, रसचाओ तस्स सुविसुद्धो ॥४४४॥ अन्वयार्थ:-[ जो संसारदुक्खतट्ठो विससमविसयं विचिंतमाणो ] जो मुनि संसारके दुःखसे तप्तायमान होकर ऐसे विचार करता है कि इन्द्रियों के विषय विषसमान हैं विष खाने पर तो एक ही बार मरता है और विषय सेवन करने पर बहुत जन्म मरण होते हैं ऐसा विचार कर [ णीरसभोज्जं भुजइ ] नीरस भोजन करता है [ तस्स रसचाओ सुविसुद्धो ] उसके रसपरित्याग तप निर्मल होता है। भावार्थ:-रस छह प्रकारके हैं-घृत, तैल, दधि ( दही ) मिष्ट ( मीठा) लवण ( नमक ) दुग्ध ( दूध ) और खट्टा, खारा, मीठा, कडुआ, तीखा, कसायला ये भी रस* कहे गये हैं इनका दृढ़तानुसार त्याग करना, एक दो या सब रसोंको छोड़ना रसपरित्याग है । यहाँ कोई पूछता है कि मनहीमें त्याग करनेके कारण रसपरित्यागको कोई नहीं जानता है और ऐसे ही वृत्तिपरिसंख्यान होता है तब इसमें और उसमें क्या विशेषता है ? इसका समाधान वृत्तिपरिसंख्यानमें तो अनेक प्रकारका त्याग है यहाँ केवल रसहीका त्याग है यह विशेषता है । दूसरी विशेषता यह है कि रसपरित्याग तो बहुत दिनका भी होता है उसको श्रावक जान भी जाता है और वृत्तिपरिसंख्यान बहुत दिनका नहीं होता है । * मूलाचार पंचाचाराधिकार गा० १५५ । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश तप अब विविक्तशय्यासन तपको कहते हैं जो रायदोहेदू सणसिज्जादियं परिच्चयइ | अा णिव्विसय सया, तस्स तवो पंचमो परमो ॥ ४४५ ।। २०६ अन्वयार्थः – [ जो रायदोसहेद् आसण सिञ्जादियं परिच्चयइ ] जो मुनि रागद्व ेषके कारण आसन शय्या आदिको छोड़ता है [ अप्पा णिव्विसय सया ] तथा सदा अपने आत्मस्वरूपमें रहता है और इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होता है [ तस्स पंचमो तवो परमो ] उस मुनि पाँचवाँ तप विविक्तशय्यासन उत्कृष्ट होता है । भावार्थ:-आसन ( बैठनेका स्थान ) और शय्या ( सोनेका स्थान ) आदि शब्दसे मलमूत्रादि क्षेपण करनेका स्थान ऐसा हो जहाँ रागद्वेष उत्पन्न न हो और वीतरागता बढ़े ऐसे एकान्त स्थान में सोवे बैठे क्योंकि मुनियोंको अपना आत्मस्वरूप साधना है, इन्द्रियविषय नहीं सेवन करने हैं इसलिये एकान्त स्थान कहा गया है । पूजादिसुरिवेक्खो, संसारसरीरभोगणिब्विण्णो । अब्भंतर तवकुसलो, उवसमसीलो महासंतो ॥४४६ ॥ जो विसेदि मसाणे, वणगहणे खिज्जणे महाभीमे । अणत्थवि एयंते, तस्स वि एदं तवं होदि ॥ ४४७॥ अन्वयार्थः - [ जो पूजादिसु णिरवेक्खो ] जो महामुनि पूजा आदिमें निरपेक्ष है, अपनी पूजा महिमादि नहीं चाहता है [ संसारसरीर भोगणिव्विण्णो ] संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त है [ अब्भंतरतवकुसलो ] स्वाध्याय ध्यान आदि अन्तरंग तपों में प्रवीण है, ध्यानाध्ययनका निरन्तर अभ्यास रखता है [ उवसमसीलो ] उपशमशील मन्दकषायरूप शान्तपरिणाम ही है स्वभाव जिसका ऐसा है तथा [ महासंतो ] महा पराक्रमी है, क्षमादिपरिणाम युक्त है [ मसाणे वणगहणे णिञ्जणे महाभीमे अण्णत्थ एयंते णिवसेदि ] श्मशानभूमिमें, गहन वनमें, निर्जन स्थानमें, महाभयानक उद्यान में और अन्य भी ऐसे एकान्त स्थानों में रहता है [ तस्स वि एदं तवं होदि ] उसके निश्चयसे यह विविक्तशय्यासन तप होता है । भावार्थ:- महामुनि विविक्तशय्यासन तप करते हैं । वे ऐसे एकान्त स्थानों में सोते बैठते हैं जहाँ चित्तमें क्षोभ करनेवाले कोई भी पदार्थ नहीं होते हैं जैसे शून्य गृह, Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० कार्तिकेयानुप्रेक्षा गिरिकी गुफा, वृक्षके मूल तथा स्वयमेव गृहस्थोंके बनाये हुए उद्यान में वसतिकादि देवमन्दिर और श्मशानभूमि इत्यादि एकान्त स्थानों में ध्यानाध्ययन करते हैं क्योंकि शरीरसे तो निर्ममत्व हैं, विषयोंसे विरक्त हैं और अपने आत्मस्वरूपमें अनुरक्त हैं वे ही मुनि विविक्तशय्यासनतपसंयुक्त हैं। अब कायक्लेश तपको कहते हैंदुस्सहउवसग्गजई, आतावणसीयवायखिएणो वि । जो ण वि खेदं गच्छदि, कायकिलेसो तवो तस्स ॥४४८॥ अन्वयार्थ:-[ जो दुस्सहउवसग्गजई ] जो मुनि दुःसह उपसर्गको जीतने वाला है [ आतावणसीयवायखिण्णो वि ] आताप शीत वात पीड़ित होकर भी खेदको प्राप्त नहीं होता है [ खेदं वि ण गच्छदि ] चित्त में क्षोभ ( क्लेश ) भी नहीं करता है [ तस्स कायकिलेसो तवो ] उस मुनिके कायक्लेश नामक तप होता है । भावार्थः -महामुनि ग्रीष्मकालमें तो पर्वतके शिखर आदि पर जहाँ सूर्यकी किरणोंका अत्यन्त आताप होता है, नीचे भूमि शिलादिक तप्तायमान होती है वहाँ आतापनयोग धारण करते हैं । शीतकालमें नदी आदिके किनारे पर खुले मैदानोंमें जहाँ अत्यन्त शीत पड़ती है डाहेसे वृक्ष भी जल जाते हैं वहां खड़े रहते हैं और चातुर्मास में वर्षा बरसती है, प्रचण्ड पवन चलता है, दंशमशक काटते हैं ऐसे समयमें वृक्षके नीचे योग धारण करते हैं, अनेक विकट आसन करते हैं ऐसे अनेक कायक्लेशके कारण मिलाते हैं और साम्यभावसे चलायमान नहीं होते हैं क्योंकि अनेकप्रकारके उपसर्गके जीतनेवाले हैं इसलिये जिनके चित्तमें खेद उत्पन्न नहीं होता है, अपने स्वरूपके ध्यानमें लगे रहते हैं उनके कायक्लेश नामका तप होता है । जिनके काय तथा इन्द्रियोंमें ममत्व होता है उनके चित्तमें क्षोभ होता है। ये मुनि सबसे निस्पृह रहते हैं इनको किसका खेद हो ? ऐसे छह प्रकारके बाह्य तपका वर्णन किया । अब छहप्रकारके अन्तरंग तपका व्याख्यान करेंगे । पहिले प्रायश्चित्त नामक तपको कहते हैं दोसं ण करेदि सयं, अण्णं पि ण कारएदि जो तिविहं । कुव्वाणं पि ण इच्छदि, तस्स विसोही परा होदि ॥४४६॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश तप २११ अन्वयार्थ : - [ जो तिविहं सयं दोसं ण करेदि अण्णं पि ण कारएदि ] जो मुनि मनवचनकायसे स्वयं दोष नहीं करता है, दूसरे से भी दोष नहीं कराता है और [ कुत्राणं पण इच्छदि ] करते हुएको भी अच्छा नहीं मानता है [ तस्प परा विसोही होदि ] उसके उत्कृष्ट विशुद्धि होती है । भावार्थ:- यहाँ विशुद्धि नाम प्रायश्चित्तका है क्योंकि 'प्रायः' शब्दसे तो प्रकृष्ट चारित्रका ग्रहण है ऐसा चारित्र जिसके होता है सो 'प्रायः' कहिये साधु लोक ; उसका चित्त जिस कार्य में होता है उसको प्रायश्चित्त कहते हैं इसलिये जो आत्माकी विशुद्धि करता है सो प्रायश्चित्त है । दूसरा अर्थ ऐसा भी है कि प्रायः नाम अपराधका है उसका चित्त कहिये शुद्ध करना सो प्रायश्चित्त कहलाता है । इस तरह पहिले किये हुए अपराधोंकी शुद्धता जिससे होती है सो प्रायश्चित्त है । ऐसे जो मुनि मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनासे दोष नहीं लगाता है उसके उत्कृष्ट विशुद्धता होती है । यही प्रायश्चित x नामका तप है । अह कह वि पमादेण य, दोसो जदि एदि तं पि पयडेदि । णिद्दोससाहुमूले, दसदोस विवज्जिदो होदु ॥ ४५० ॥ अन्वयार्थः – [ अह कह वि पमादेण य दोसो जदि एदि तं पि ] अथवा किसी प्रमादसे अपने चारित्रमें दोष आया हो तो उसको [ णिदोससाहुमूले दसदोस विवज्जिदो होढुं पयडेदि ] निर्दोष आचार्य के पास दस दोषोंसे रहित होकर प्रकट करे, आलोचना करे | भावार्थ:- अपने चारित्र में दोष प्रमादसे लग गया हो तो आचार्य के पास जाकर दसदोषरहित आलोचना करे | +प्रमाद - ५ इन्द्रिय, १ निद्रा, ४ कषाय, ४ विकथा, १ स्नेह ये पाँच इनके पन्द्रह भेद हैं । भगोंकी अपेक्षा बहुत भेद होते हैं X यत्याचारोक्त ं दशप्रकारं प्रायश्चित्तं । मूलाचार-पंचाचार तवछदा मूलं पिय, आलोय पडिकमणं, उभय विवेगो तहा विओसग्गो । परिहारारा चेव सद्दहणं ।। १६५ ।। इन्दिय णिद्दा तहेव पणओ य । + विकहा तहा कषाया, चउ चउ पण मेगेग, होदि पमादा हु पण्णरसा || गो० जी० ३४ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा उनसे दोष लगते हैं आलोचनाके दस दोष हैं-१ आकम्पित, २ अनुमानित, ३ बादर, ४ सूक्ष्म, ५ दृष्ट, ६ प्रच्छन्न, ७ शब्दाकुलित, ८ बहुजन, ९ अव्यक्त, १० तत्सेवो । आचार्यको उपकरणादि देकर, अपने प्रति करुणा उत्पन्न कर आलोचना करे कि ऐसा करनेसे थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे, ऐसा विचार करना आकम्पितदोष है । वचनहीसे आचार्योंकी बड़ाई आदि कर आलोचना करे, अभिप्राय ऐसा रक्खे कि आचार्य मुझसे प्रसन्न रहेंगे तो थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे, यह अनुमानितदोष है। प्रत्यक्ष दृष्टिदोष हो सो कहे, अदृष्ट न कहे यह दृष्टदोष है । स्थूल ( बड़ा ) दोष तो कहे सूक्ष्म न कहे सो वादरदोष है । सूक्ष्म दोष ही कहे, वादर न कहे यह बतावे कि इसने सूक्ष्म ही कह दिया सो वादर क्यों छिपाता यह सूक्ष्मदोष है । छिपाकर ही कहे, कोई दूसरा अपना दोष कहे तब कहे कि ऐसा ही दोष मेरे लगा है उसका नाम प्रगट न करे सो प्रच्छन्नदोष है । बहुत शब्दके कोलाहल में दोष कहे, अभिप्राय ऐसा रक्खे कि कोई और न सुने सो शब्दाकुलितदोष है । एक गुरुके पास आलोचना कर फिर अन्यगुरुके पास आलोचना करे अभिप्राय ऐसा रक्खे कि इसका प्रायश्चित्त अन्य गुरु क्या बतावें सो बहुजनदोष है । जो दोष व्यक्त हो सो कहे, अभिप्राय ऐसा रक्खे कि यह दोष छिपानेसे नहीं छिपेगा अतः कहना ही चाहिये सो अव्यक्तदोष है । अन्य मुनिको लगे हुए दोष की गुरुके पास आलोचना कर प्रायश्चित्त लिए हुए देखकर उसके समान अपनेको दोष लगा हो तो उसको प्रगट न करनेके अभिप्रायसे उसकी आलोचना गुरुके पास न करे आप ही प्रायश्चित्त ले लेवे सो तत्सेवीदोष है । इस तरह दस दोषरहित सरलचित्त होकर बालकके समान आलोचना करे ।। जं कि पि तेण दिएणं, तं सव्वं सो करेदि सद्धाए । णो पुण हियए संकदि, किं थोवं किं पि वहुयं वा ॥४५१॥ अन्वयार्थः-[जं किं पि तेण दिण्णं तं सव्वं सो सद्धाए करेदि ] दोषोंकी आलोचना करनेके बादमें जो कुछ आचार्यने प्रायश्चित्त दिया हो उस सबही को श्रद्धापूर्वक करे [ पुण हियए णो संकदि किं थोवं किमु वहुयं वा ] और हृदयमें ऐसी शंका न करे कि यह प्रायश्चित्त दिया सो थोड़ा है या बहुत है। : आकम्पिय अणुमाणिय, जं दिट्ठ वादर च सुहमं च। छण्णं सद्दाउलियं, बहुजणमव्वत्त तस्सेवी ॥ ( भगवती आरा० पृ० २५७ तथा मूला० भा० २ शीलगुणाधिकार गा० १५) Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश तप २१३ भावार्थः—तत्त्वार्थसूत्रमें प्रायश्चित्तके नो भेद कहे हैं - १ आलोचन, २ प्रतिक्रमण, ३ तदुभय, ४ विवेक, ५ व्युत्सर्ग, ६ तप, ७ छेद, ८ परिहार, ६ उपस्थापना | दोषका यथावत् कहना आलोचना है । दोषका मिथ्या कराना प्रतिक्रमण है । आलोचन प्रतिक्रमण दोनों कराना तदुभय है । आगामी त्याग कराना विवेक है । कायोत्सर्ग कराना व्युत्सर्ग है । अनशनादि तप कराना तप है । दीक्षा छेदन - बहुत दिन दीक्षितको थोड़े दिनका करना छेद है । संघके बाहर करना परिहार है । फिरसे नवीन दीक्षा देना उपस्थापना है । इनके भी अनेक भेद हैं । इसलिये देश, काल, अवस्था, सामर्थ्य, दोषका विधान देखकर यथाविधि आचार्य प्रायश्चित्त देते हैं उसको श्रद्धासे स्वीकार करे, उसमें संशय न करे । पुरवि काउं च्छदि, तं दोसं जइ वि जाइ सयखंडं । एवं णिच्चयसहिदो, पायच्छित्तं तवो होदि ॥ ४५२ ॥ अन्वयार्थः - [ पुणरवि तं दोसं काउ च्छदि जइ वि सयखंडं जाइ ] लगे हुए दोषका प्रायश्चित्त लेकर उस दोषको करना न चाहे, यदि अपने सौ टुकड़े भी हो जाँय तो भी न करे [ एवं णिच्चयसहिदो पायच्छिरां तवो होदि ] ऐसे निश्चयसहित प्रायश्चित्त नामक तप होता है । भावार्थ:- ऐसा दृढ़चित्त करे कि अपने शरीर के सौ टुकड़े भी हो जांय तो भी लगे हुए दोषको फिर न लगावे सो प्रायश्चित्त तप है । जो चिंत अप्पा, पाणसरूवं पुणो पुणो गाणी | विकहादिविरत्तमणो, पायच्छित्तं वरं तस्स ॥ ४५३ ॥ - अन्वयार्थः – [ जो णाणी अप्पाणं णाणसरूवं पुणो पुणो चिंता ] जो ज्ञानी मुनि आत्माको ज्ञानस्वरूप बारम्बार चितवन करता है [ विकहादिविरत्तमणो ] और विकथादिक प्रमादों से विरक्त होता हुआ ज्ञान ही का निरन्तर सेवन करता है [ तस्स वरं पायच्छिi ] उसके श्रेष्ठ प्रायश्चित्त होता है । भावार्थ: - निश्चय प्रायश्चित्त यह है जिसमें सब प्रायश्चित्तके भेद गर्भित हैं। कि प्रमादसे रहित होकर अपना शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्माका ध्यान करना जिससे सब पापों का प्रलय ( नाश ) होता है । इस तरह प्रायश्चित्त नामक अभ्यन्तर तपके भेदका वर्णन किया । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब विनय तपको तीन गाथाओंमें कहते हैंविणयो पंचपयारो, दंसणणाणे तहा चरित्ते य । वारसभेयम्मि तवे, उवयारो बहुविहो णेप्रो ॥४५४॥ अन्वयार्थः- [विणयो पंचपयारो ] विनय पाँच प्रकारका है [ दंसणणाणे तहा चरिते य ] दर्शन में, ज्ञान में तथा चारित्रमें और [ वारसभेयम्मि तवे ] बारह प्रकारके तपमें विनय [उवयारो बहुविहो णेओ] और उपचार विनय इसप्रकार यह अनेकप्रकारका जानना चाहिये। दसणणाणचरित्ते, सुविसुद्धो जो हवेइ परिणामो । वारसभेदे वि तवे, सो च्चिय विणो हवे तेसिं ॥४५५॥ अन्वयार्थः- [दसणणाणचरिते ] दर्शनज्ञानचारित्रमें [ वारसभेदे वि तवे ] और बारहप्रकारके तपमें [ जो सुविसुद्धो परिणामो हवेइ ] जो विशुद्ध परिणाम होते हैं [ सो चिय तेसि विणओ हवे ] वह ही उनका विनय है। भावार्थः-सम्यग्दर्शनके शंकादिक अतिचाररहित परिणाम सो दर्शन विनय है । ज्ञानका संशयादिरहित परिणामसे अष्टांग अभ्यास करना सो ज्ञानविनय है । चारित्रको अहिंसादिक परिणामसे अतिचाररहित पालना सो चारित्रविनय है । तपके भेदोंका देखभालकर दोषरहित पालन करना सो तपविनय है । रयणत्तयजुत्ताणं, अणुकूलं जो चरेदि भत्तीए । भिच्चो जह रायाणं, उवयारो सो हवे विणो ॥४५६॥ अन्वयार्थः- [जह रायाणं भिचो ] जैसे राजाके नौकर राजाके अनुकूल प्रवृत्ति करते हैं वैसे ही [ जो रयणचयजचाणं अणुकलं भत्तीए चरेदि ] जो रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ) के धारक मुनियों के अनुकूल भक्तिपूर्वक आचरण ( प्रवृत्ति ) करता है [ सो उवयारो विणओ हवे ] सो उपचार विनय है । भावार्थः-जैसे राजाके नौकर लोग राजाके अनुकूल प्रवृत्ति करते हैं, उसकी आज्ञा मानते हैं, प्रत्यक्षमें देखकर उठ खड़े हो जाते हैं. सामने जाकर हाथ जोड़ते हैं, प्रणाम करते हैं, चले तब पीछे २ चलते हैं, उसकी पोशाक आदि उपकरण सजाते हैं Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश तप २१५ वैसे ही मुनियोंकी भक्ति करना, विनय करना, उनकी आज्ञा मानना, प्रत्यक्षमें देखे तब उठकर सम्मुख हो हाथ जोड़ प्रणाम करे, चले तब पीछे पीछे चले, उपकरण संभाले इत्यादिक उनका विनय करे सो उपचार विनय है । अब वैयावृत्य तपको दो गाथाओंमें कहते हैं जो उवयरदि जदीणं, उवसग्गजराइखीणकायाणं । पूजादिसु गिरवेक्खं, वेज्जावच्चं तवो तस्स ॥४५७॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो [ पूजादिसु णिरवेक्खं ] अपनी पूजा ( महिमा ) आदिमें अपेक्षा ( वांछा ) रहित होकर [ उपसग्गजराइखीणकायाणं जदीणं उवयरदि] उपसर्गपीडित तथा जरा रोगादिसे क्षीणकाय यातियोंका अपनी चेष्टासे, उपदेशसे और अल्प वस्तुसे उपकार करता है [ तस्स वेजावच्चं तवो ] उसके वैयावृत्य नामक तप होता है। भावार्थ:-निस्पह होकर मुनियों की सेवा करना वैयावृत्य है। आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु, मनोज्ञ ये दस प्रकारके यति वैयावृत्य करने योग्य कहे गये हैं । इनका यथायोग्य अपनी शक्ति अनुसार वैयावृत्य करना चाहिये। जो वावरइ सरूवे, समदम भावम्मि सुद्धिउवजुत्तो । लोयववहारविरदो, वेज्जावच्चं परं तस्स ॥४५८॥ अन्वयार्थः- [जो समदम भावम्मि वावरइ सरूवे सुद्धिउवजुत्तो ] जो मुनि शमदमभावरूप अपने आत्मस्वरूप में शुद्धोपयोगमय प्रवृत्ति करता है और [ लोयववहारविरदो ] लोकव्यवहार ( बाह्य वैयावृत्य ) से विरक्त होता है [ तस्स परं वेजावच्चं ] उसके उत्कृष्ट ( निश्चय ) वैयावृत्य होता है। भावार्थ:-जो मुनि सम (रागद्वेषरहित साम्यभाव) और दम ( इन्द्रियोंको विषयों में न जाने देना ) भावरूप अपने आत्मस्वरूपमें लीन होता है उसके लोकव्यवहाररूप बाह्य वैयावृत्य किस लिये हो ? उसके तो निश्चय वैयावृत्य ही होता है । शुद्धोपयोगी मुनियोंकी यह रीति है । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब स्वाध्याय तपको छह गाथाओंसे कहते हैं परततीरिवेक्खो, दुवियप्पाण वासरास मत्थो । तच्च विच्छियहेदू, सज्झायो ज्मा सिद्धियरो ||४५६ ॥ अन्वयार्थः – [ परततीणिरवेक्खो ] जो मुनि दूसरेकी निन्दामें निरपेक्ष ( वांछारहित ) होता है [ दुट्ठवियप्पाण णासणसमत्थो ] मनके दुष्ट विकल्पों का नाश करने में समर्थ होता है [ तच्चविणिच्छयहेदू ] उसके तत्त्वके निश्चय करनेका कारण और [ ज्झाणसिद्धियरो ] ध्यानकी सिद्धि करनेवाला [ सज्झाओ ] स्वाध्याय नामक तप होता है । २१६ भावार्थ:- जो परकी निन्दा करनेमें परिणाम रखता है और आर्त्तरौद्रध्यानरूप खोटे विकल्प मनमें चितवन किया करता है उसके शास्त्रोंका अभ्यासरूप स्वाध्याय कैसे हो ? इसलिये इनको छोड़कर जो स्वाध्याय करता है उसके तत्त्वका निश्चय होता है और धर्म शुक्ल ध्यानकी सिद्धि होती है, ऐसा स्वाध्याय तप है । पूयादिसु रिवेक्खो, जिणसत्थं जो पढेइ भत्तीए । कम्ममलसोहणट्टं, सुयलाही सुहयरो तस्स ॥४६०॥ अन्वयार्थः - [ जो पूयादिसु णिरवेक्खो ] जो मुनि अपनी पूजा आदिमें निरपेक्ष ( वांछारहित ) होता है और [कम्ममलसोहण ] कर्मरूपी मैलका नाश करनेके लिए [ भी जिणसत्थं पढेइ ] भक्तिपूर्वक जिनशास्त्रको पढ़ता है [ तस्स सुयलाहो सुहयरो ] उसको श्रुतका लाभ सुखकारी होता है । भावार्थ:- जो पूजा महिमा आदिके लिये शास्त्रको पढ़ता है उसको शास्त्रका पढ़ना सुखकारी नहीं है । अपने कर्मक्षयके निमित्त जिन - शास्त्रोंको पढ़े उसको ही सुखकारी है । जो जि सत्थं सेवदि, पंडियमाणी फलं समीहंतो । साहम्मियपडिकूलो, सत्थं पि विसं हवे तस्स ॥४६१॥ अन्वयार्थः– [ जो जिणसत्थं सेवदि फलं समीहंतो ] जो पुरुष जिनशास्त्र तो पढ़ता है और अपनी पूजा लाभ और सत्कारको चाहता है [ साहम्मियपडिकूलो ] तथा Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश तप २१७ साधर्मी-सम्यग्दृष्टि जैनियोके प्रतिकूल ( विपरीत ) है [पंडियमाणी] सो, पंडितमन्य है ( जो पण्डित तो होता नहीं है और अपनेको पण्डित मानता है उसको पण्डितमन्य कहते हैं ) [ तस्स सत्थं पि विसं हवे ] उसके वह ही शास्त्र विषरूप परिणमता है । भावार्थ:-जैनशास्त्र पढ़कर भी तीवकषायी भोगाभिलाषी हो जैनियोंसे प्रतिकूल रहे ऐसे पण्डितमन्यके शास्त्र ही विष हुआ कहना चाहिये, यदि यह मुनि भी होवे तो भेषी पाखण्डी ही कहलाता है। जो जुद्धकामसत्थं, रायदोसेहिं परिणदो पढइ । लोयावंचणहेदु, सज्झाओ णिप्फलो तस्स ॥४६२॥ ___ अन्वयार्थः-[ जो जुद्धकामसत्थं रायदोसेहिं परिणदो ] जो पुरुष युद्धके शास्त्र कामकथाके शास्त्र रागद्वेषपरिणामसे [ लोयावंचणहेतुं पढइ ] लोगोंको ठगने के लिये पढ़ता है [ तस्स सज्झाओ णिप्फलो ] उसका स्वाध्याय निष्फल है । भावार्थ:-जो पुरुष युद्धके, कामकौतूहलके, मन्त्र ज्योतिष वैद्यक आदिके लौकिक शास्त्र लोगोंको ठगनेके लिये पढ़ता है उसके कैसा स्वायाय है ? यहाँ कोई पूछता है कि मुनि और पण्डित तो सब ही शास्त्र पढ़ते हैं वे किसलिए पढ़ते हैं इसका समाधान रागद्वषसे अपने विषय आजीविका पुष्ट करनेको, लोगोंको ठगनेको पढ़नेका निषेध है । जो धर्मार्थी होकर कुछ प्रयोजन जान इन शास्त्रोंको पढ़े, ज्ञान बढ़ाना, परोपकार करना, पुण्यपापका विशेष निर्णय करना, स्व पर मतकी चर्चा जानना, पण्डित हो तो धर्मकी प्रभावना हो कि जैनमतमें ऐसे पण्डित हैं इत्यादि प्रयोजन हैं उसका निषेध नहीं है । दुष्ट अभिप्राय से पढ़नेका निषेध है ।। जो अप्पाणं जाणदि, असुइसरीरादु तच्चदो भिण्णं । जाणगरूवसरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं ॥४६३॥ अन्वयार्थः-[ नो अप्पाणं असुइसरीरादु तच्चदो भिण्णं ] जो मुनि अपनी आत्माको इस अपवित्रशरीरसे भिन्न [ जाणगरूवसरूवं जाणदि ] ज्ञायकरूप स्वरूप जानता है [ सो सव्वं सत्थं जाणदे] वह सब शास्त्रोंको जानता है । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा भावार्थ:- जो मुनि शास्त्र अभ्यास अल्प भी करता है और अपनी आत्माका रूप ज्ञायक - देखने जानने वाला, इस अशुचि शरीरसे भिन्न, शुद्ध उपयोगरूप होकर जानता है वह सबही शास्त्र जानता है । अपना स्वरूप न जाना और बहुत शास्त्र पढ़े तो क्या साध्य है ? २१८ जो वि जादि अप्पं, पाणसरूवं सरीरदो भिरणं । सो वि जादि सत्थं, आगमपाढं कुणंतो वि ॥ ४६४ ॥ अन्वयार्थः - [ जो अप्पं णाणसरूवं सरीरदो भिण्णं णवि जाणदि ] जो मुनि अपनी आत्माको ज्ञानस्वरूपी, शरीर से भिन्न नहीं जानता है [ सो आगमपाढं कुणंतो वि सत्थं वि जाणदि ] सो आगमका पाठ करे तो भी शास्त्रको नहीं जानता है । भावार्थ:- - जो मुनि शरीरसे भिन्न ज्ञानस्वरूप आत्माको नहीं जानता है वह बहुत शास्त्र पढ़ता है तो भी बिना पढ़ा ही है । शास्त्र के पढ़नेका सार तो अपना स्वरूप जानकर रागद्वेष रहित होना था सो पढ़कर भी ऐसा नहीं हुआ तो क्या पढ़ा ? अपना स्वरूप जानकर उसमें स्थिर होना सो निश्चय - स्वाध्यायतप है । वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ऐसे पाँच प्रकारका व्यवहारस्वाध्याय है सो यह व्यवहार निश्चयके लिये हो तो वह व्यवहार भी सत्यार्थ है और बिना निश्चयके व्यवहार सारहीन ( थोथा ) है | अब व्युत्सर्ग तपको कहते हैं जल्ल मल लित्तगत्तो, दुस्सहवाहीसु गिप्पडीयारो । मुद्दधोरणादिविरो, भोयणसेज्जादिणिरवेक्खो ॥४६५ ॥ ससरूवचिंतणो, दुज्जणसुयाण जो हु मज्झत्थो । देहे विम्मित्तो, काओसग्गो तवो तस्स ॥४६६ ॥ अन्वयार्थः:- [ जो जल्ल मल लित्तगतो ] जो मुनि जल्ल ( प सेव ) और मलसे तो लिप्त शरीर हो [ दुस्सहवाहीसु णिप्पडीयारो ] असह्य तीव्र रोग आने पर भी उसका प्रतीकार ( इलाज ) न करता हो [ मुहधोवणादिविरओ ] मुँह धोना आदि शरीर के संस्कारसे विरक्त हो [ भोयणसेजादिणिरवेक्खो ] भोजन और शय्या आदिकी वांछा Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश तप २१६ रहित हो [ ससरूवचितणरभ ] अपने स्वरूपके चितवनमें रत ( लीन ) हो दुजणसुयणाण हु मज्झत्थो ] दुर्जन सज्जन में मध्यस्थ हो ( शत्रु मित्र बराबर जानता हो ) [ देहे वि णिम्ममत्तो ] अधिक क्या कहें, देहमें भी ममत्वरहित हो [ तस्स काओसग्गो तवो ] उसके कायोत्सर्ग नामक तप होता है । भावार्थ: - जब मुनि कायोत्सर्ग करता है तब सब बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह त्याग कर, सब बाह्य आहारविहारादिक क्रियासे रहित हो, कायसे ममत्व छोड़, अपने ज्ञानस्वरूप आत्मामें रागद्व ेषरहित, शुद्धोपयोगरूप हो लीन होता है उस समय यदि अनेक उपसर्ग आवे, रोग आवे, कोई शरीरको काट ही डाले तो भी अपने स्वरूपसे चलायमान नहीं होता है, किसीसे रागद्वेष नहीं करता है उसके कायोत्सर्ग तप होता है । 3 जो देहधारणपरो, उवयरणादिविसेससंसत्तो । बाहिरखवहाररओ, काओसग्गो कुदो तस्स ||४६७।। अन्वयार्थः - [ जो देहधारणपरो] जो मुनि देहका पालन करनेमें तत्पर हो [ उवयरणादीविसेससंसतो ] उपकरणादिक में विशेष संसक्त हो [ बाहिरववहाररओ ] और बाह्य व्यवहार ( लोकरंजन ) करनेमें रत हो ( तत्पर हो ) [ तस्स काओसग्गो कुदो] उसके कायोत्सर्ग तप कैसे हो ? भावार्थ:- जो मुनि बाह्य व्यवहार पूजा प्रतिष्ठा आदि तथा ईर्यासमिति आदि क्रियाओं में ( जिनसे लोग जानें कि यह मुनि है ) तत्पर हो, देहका आहारादिकसे पालन करना, उपकरणादिकका विशेष सँवारना ( सजाना ), शिष्यजनोंसे बहुत ममत्व रखकर प्रसन्न होना इत्यादिमें लीन हो और अपने स्वरूपका यथार्थ अनुभव जिसके नहीं है, उसमें कभी लीन होता ही नहीं है यदि कायोत्सर्ग भी करता है तो खड़े रहना आदि बाह्य विधान कर लेता है उसके कायोत्सर्ग तप नहीं होता है, निश्चयके बिना बाह्यव्यवहार निरर्थक है । अंतो मुहुत्तमेत्तं, लीणं वत्थुम्मि माणसं जाणं । ज्झाणं भण्णदि समए, असुहं च सुहं च तं दुविहं ॥ ४६८ || Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ::- [ माणसं गाणं वत्थुम्मि अन्तो मुहुत्तमेरा लीणं ] जो मनसम्बन्धी ज्ञान वस्तु में अन्तर्मुहूर्तमात्र लीन होता है ( एकाग्र होता है ) सो [ समए ज्झाणं भदि ] सिद्धान्त में ध्यान कहा गया है [ तं च असुहं सुहं च दुविहं ] और वह शुभ अशुभ भेदसे दो प्रकारका है । २२० भावार्थ:- - ध्यान परमार्थसे ज्ञानका उपयोग ही है । जो ज्ञानका उपयोग एक ज्ञेय वस्तु में अन्तर्मुहूर्त्तमात्र एकाग्र ठहरता है सो ध्यान है वह शुभ भी है और अशुभ भी है ऐसे दो प्रकारका है । अब शुभ अशुभध्यानके नाम व स्वरूप कहते हैं असुहं अट्ट रउद्द, धम्मं सुकं च सुद्दयरं होदि । अ तिव्वकषायं तिव्वतमकसायदो रुह ं ॥४६६॥ " अन्वयार्थः – [ अट्ट रउद्दं अमुहं ] आर्तध्यान रौद्रध्यान ये दोनों तो अशुभ ध्यान [ धम्मं सुक्कं च सुहयरं होदि ] और धर्म ध्यान शुक्लध्यान ये दोनों शुभ और शुभतर हैं [ अट्टं तिव्वकषायं ] इनमें आदिका आर्त्तध्यान तो तीव्र कषायसे होता है [ रुद्द तिब्बतमकसायदो ] और रोद्रध्यान अति तीव्र कषायसे होता है । मंदकषायं धम्मं, मंदतमक सायदो हवे सुक्कं । अकसाए वि सुयड्ढे, केवलणाणे वि तं होदि ॥ ४७० ॥ अन्वयार्थः – [ धम्मं मंदकषायं ] धर्मध्यान मन्दकषायसे होता है [ सुक्कं मंदतमसायद हवे ] शुक्लध्यान अत्यन्त मन्दकषायमें होता है, श्रेणी चढ़नेवाले महामुनि होता है [ अकसाए वि सुयड्ढे केवलणाणे वि तं होदि ] और वह शुक्लध्यान कषायका अभाव होनेपर श्रुतज्ञानी, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, केवलज्ञानी, सयोगी तथा अयोगी जिनके भी होता है । - भावार्थः — धर्मध्यानमें तो व्यक्तरागसहित पंच परमेष्ठी तथा दसलक्षणस्वरूप इसलिये इसको मन्दकषाय सहित है व्यक्तराग तो नहीं होता और अपने धर्म और आत्मस्वरूप में उपयोग एकाग्र होता है ऐसा कहा है । शुक्लध्यानके समय उपयोग में अनुभव में न आवे ऐसे सूक्ष्मराग सहित श्रेणी चढ़ता है वहाँ आत्मपरिणाम उज्ज्वल Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश तप २२१ होते हैं अतः शुचि गुणके योगसे शुक्ल कहा है । इसको मन्दतम कषाय अर्थात् अत्यन्त मन्दकषायसे होता है, ऐसा कहा है तथा कषायका अभाव होनेपर होता है ऐसा भी कहा है। अब आर्त्तध्यानको कहते हैंदुक्खयर-विसयजोए, केम इमं चयदि इदि विचिंतंतो। चे?दि जो विक्खित्तो, अ ज्झाणं हवे तस्स ॥४७१।। मणहरविसयपिओगे, कह तं पावेमि इहि वियप्पो जो । संतावेण पयहो, सो च्चिय अट्ट हवे उझाणं ॥४७२॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो पुरुष [ दुक्खयरविसयजोए ] दुःखकारी विषयका संयोग होने पर [ इदि विचितंतो ] ऐसा चिन्तवन करे कि [ इमं कम चयदि ] यह मेरे कैसे दूर हो ? [विक्खित्तो चेदि ] और उसके संयोगसे विक्षिप्तचित्त होकर चेष्टा करे, रुदनादि करे [ तस्स अट्टं ज्झाणं हवे ] उसके आर्त्तध्यान होता है [जो मणहरविसयविओगे ] जो मनोहर विषय सामग्रोका वियोग होने पर [ इदि वियप्पो ] ऐसा चितवन करे कि [तं कह पावेमि ] उसको मैं कैसे पाऊँ [ संतावेण पयट्टो ] उसके वियोगसे संतापरूप ( दुःखस्वरूप ) प्रवृत्ति करे [ सो च्चिय अट्ट ज्झाणं हवे ] वह भी आर्त्तध्यान है। भावार्थ:-आतध्यान सामान्यतया तो दुःखक्लेशरूप परिणाम है । उस दुःखमें लीन रहने पर अन्य कुछ चेत ( ज्ञान ) नहीं रहता है। यह दो प्रकारका है । पहिलेमें तो दुखदाई सामग्रीका संयोग होनेपर उसको दूर करनेका ध्यान रहता है। दूसरेमें इष्ट ( सुखदाई ) सामग्रीका वियोग होने पर उसके मिलनेका चितवन ( ध्यान ) रहता है सो आर्त्तध्यान है । अन्य ग्रन्थों में इसके चार भेद कहे गये हैंइष्टवियोगका चिन्तवन, अनिष्टसंयोगका चिन्तवन, पीडाका चिन्तवन, निदानबन्धका चिन्तवन । यहाँ दो भेद कहे उनमें ही ये सब गभित हो जाते हैं । अनिष्टसंयोगके दूर करने में तो पीड़ाका चितवन आ गया और इष्टके मिलनेकी वांछामें निदानबन्ध आ गया । ये दोनों ध्यान अशुभ हैं, पापबन्ध करते हैं, धर्मात्मा पुरुषोंके त्यागने योग्य हैं । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब रौद्रध्यानको कहते हैं हिंसादेण जुदो, असच्चवयणेण परिणदो जो दु । तत्थेव अथिरचित्तो, रुद्द उभारणं हवे तस्स || ४७३ ॥ अन्वयार्थः – [ जो हिंसाणंदेण जुदो ] जो पुरुष हिंसा में आनन्दयुक्त होता है [ असच्चत्रयणेण परिणदो दु ] तथा असत्यवचनसे प्रवृत्ति करता रहता है [ तत्थेव अथिरचित्तो ] और इन्हीं में विक्षिप्तचित्त बना रहता है [ तस्स रुदं ज्झाणं हवे ] उसके रौद्रध्यान होता है । भावार्थ:-- हिंसा ( जीवोंका घात ) करके अति हर्ष माने, शिकार आदि में आनन्दसे प्रवृत्ति करे, दूसरेके विघ्न हो तब अति सन्तुष्ट ( प्रसन्न ) हो और झूठ बोलकर अपनेको प्रवीण माने, दूसरेके दोषोंको निरन्तर देखे, कहे और उसमें आनन्द माने इस तरह ये रौद्रध्यानके दो भेद हैं । अब दो भेद और कहते हैं- परविसयहरणसीलो, सगीयविसये सुरक्खणे दक्खो । तग्गयचित्ताविट्ठो, निरंतरं तं पि रुद्द पि ॥ ४७४ ॥ अन्वयार्थः - [ परविसयहरणसीलो ] जो पुरुष दूसरेकी विषयसामग्रीको हरण करने के स्वभाव सहित हो [ सगीयविसये सुरक्खणे दक्खो ] अपनी विषयसामग्री की रक्षा करनेमें प्रवीण हो [ तग्गयचिचाविट्ठो निरंतरं ] इन दोनों कार्यों में निरन्तर चित्तको लवलीन रखता हो [ तं पि रुदं पि ] उस पुरुषके यह भी रौद्रध्यान ही है । भावार्थ : – दूसरेको सम्पत्तिको चुराने में प्रवीण हो, चोरी कर हर्ष माने तथा अपनी विषय सामग्रीको रखनेका अति यत्न करे और उसकी रक्षा कर आनन्द माने ऐसे ये दो भेद रौद्रध्यानके हुए । इस तरहसे यह चारों भेदरूप रौद्रध्यान अतितीव्र कषायके योगसे होता है, महापापरूप है, महापापबन्धका कारण है इसलिये धर्मात्मा पुरुष ऐसे ध्यानको दूरहीसे छोड़ देते है । जितने जगत में उपद्रवके कारण हैं वे सब रौद्रध्यानयुक्त पुरुष से बनते हैं क्योंकि जो पाप करके हर्ष ( सुख ) मानता है उसको धर्मका उपदेश भी नहीं लगता है वह तो अति प्रमादी होकर अज्ञानी पापही में मस्त रहता है । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश तप २२३ अब धर्मध्यानको कहते हैंविरिण वि असुहे ज्झाणे, पावणिहाणे य दुक्खसंताणे । तम्हा दूरे वज्जह, धम्मे पुण आयरं कुणह ॥४७५॥ अन्वयार्थः- [ विण्णि विज्झाणे असुहे ] हे भव्यजीवों ! आत और रौद्र ये दोनों ही ध्यान अशुभ हैं [ पावणिहाणे य दुक्खसंताणे ] पापके निधान और दुःखकी सन्तान [ तम्हा दूरे वजह ] जानकर दूरहीसे छोड़ो [ पुण धम्मे आयरं कुणह ] और धर्मध्यान में आदर करो। भावार्थ:-आर्त्त रौद्र दोनों ही ध्यान अशुभ हैं तथा पापसे भरे हैं और दुःखहीकी संतति इनसे चलतो है इसलिये इनको छोड़कर धर्मध्यान करनेका श्रीगुरुका उपदेश है। अब धर्मका स्वरूप कहते हैं धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो । रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥४७६॥ अन्वयार्थः- [ वत्थुसहावो धम्मो ] वस्तुका स्वभाव धर्म है जैसे जीवका स्वभाव दर्शन ज्ञान स्वरूप चैतन्यता सो इसका यहो धर्म है [खमादिभावो य दसविहो धम्मो ] दस प्रकारके क्षमादिभाव धर्म है [ रयणत्यं य धम्मो ] रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ) धर्म है [ जीवाणं रक्खणं धम्मो ] और जीवोंकी रक्षा करना भी धर्म है। भावार्थ:-अभेदविवक्षासे तो वस्तुका स्वभाव धर्म है । जीवका चैतन्यस्त्रभाव ही इसका धर्म है । भेदविवक्षासे दसलक्षण उत्तम क्षमादिक तथा रत्नत्रयादिक धर्म है । निश्चयसे तो अपने चैतन्यकी रक्षा, विभावपरिणतिरूप नहीं परिणमना है और व्यवहारसे परजीवको विभावरूप, दुःख क्लेशरूप न करना, उसोका भेद जीवका प्राणान्त न करना सो धर्म है। अब धर्मध्यान कैसे जीवके होता है सो कहते हैं धम्मे एयग्गमणो, जो ण वि वेदेदि पंचहा विसयं । वेरग्गमओ णाणी, धम्मज्झाणं हवे तस्स ॥४७७।। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा ____ अन्वयार्थः-[जो ] जो पुरुष [ णाणी ] ज्ञानी [ धम्मे एयग्गमणो ] धर्म में एकाग्र मन हो प्रवर्ते [ पचहा विसयं ण वि वेदेदि ] पाँचों इन्द्रियोंके विषयों को नहीं वेदै [ वेरग्गमओ] और वैराग्यमयी हो [ तस्स धम्मज्झाणं हवे ] उस ज्ञानीके धर्मध्यान होता है । भावार्थ:-ध्यानका स्वरूप एक ज्ञेयमें ज्ञानका एकाग्र होना है । जो पुरुष धर्ममें एकाग्रचित्त करता है उस काल इन्द्रियविषयोंको नहीं वेदता है उसके धर्मध्यान होता है। इसका मूल कारण संसारदेहभोगसे वैराग्य है, बिना वैराग्यके धर्म में चित्त रुकता नहीं है। सुविसुद्धरायदोसो, बाहिरसंकप्पवज्जिो धीरो । एयग्गमणो संतो, जं चिंतइ तं पि सुहज्झाणं ॥४७८॥ अन्वयार्थः-[ सुविसुद्धरायदोसो] जो पुरुष रागद्व पसे रहित होता हआ [बाहिरसंकप्पवजिओ धीरो ] बाह्य के संकल्पसे वर्जित होकर, धीरचित्त, [ एयग्गमणो [ संतो जं चिंतइ ] एकाग्रमन होता हुवा जो चिन्तवन करे [ तं पि सुहज्झाणं ] वह भो शुभ ध्यान है। भावार्थ:-जो रागद्वेषमयी या वस्तुसम्बन्धी संकल्प छोड़ एकाग्रचित्त हो ( किसीसे चलायमान करने पर चलायमान न हो ) चिन्तवन करता है सो भी शुभध्यान है। ससरूवसमुभासो, गट्टममत्तो जिदि दिओ संतो। अप्पाणं चिंतंतो, सुहज्झाणरओ हवे साहू ॥४७६॥ अन्वयार्थः-[ ससरूवसमुभासो] जिस साधुको अपने स्वरूपका समुद्भास ( प्रकट होना ) हो गया हो [ णट्ठममचो ] परद्रव्यमें ममत्वभाव जिसका नष्ट हो गया हो [ जिदिदिओ संतो] जितेन्द्रिय हो [ अप्पाणं चिंतंतो ] और अपनी आत्माका चिन्तवन करता हुवा प्रवतता हो [ साहू सुहज्झाणरओ हवे ] वह साधु शुभ ध्यानमें लीन होता है। ___ भावार्थ:-जिसको अपने स्वरूपका तो प्रतिभास हो गया हो तथा परद्रव्य में ममत्व नहीं करता हो और इन्द्रियोंको वश में रखता हो इस तरहसे आत्माका चिन्तवन करने वाला साधु शुभध्यानमें लीन होता है, दूसरेके शुभध्यान नहीं होता है । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश तप २२५ वज्जियसयलवियप्पो, अप्पसरूवे मणं णिरुंधत्तो। जं चिंतदि साणंद, तं धम्मं उत्तमं झाणं ॥४८०॥ अन्वयार्थः-[ जं] जो [ वज्जियसयलवियप्पो ] समस्त अन्य विकल्पोंको छोड़ [ अप्पसरूवे मणं णिरुंधंतो ] आत्मस्वरूपमें मनको रोककर [ साणंदं चिंतदि ] आनन्द सहित चिन्तवन करता है [ तं उत्तमं धम्मं ज्झाणं] सो उत्तम धर्मध्यान है। भावार्थ:-समस्त अन्य विकल्पोंसे रहित आत्मस्वरूपमें मनको रोकनेसे आनन्दरूप चिन्तवन होता है सो उत्तम धर्मध्यान है। यहाँ संस्कृतटीकाकारने धर्मध्यानका अन्य ग्रन्थोंके अनुसार विशेष कथन किया है उसको संक्षेपसे लिखते हैं । धर्मध्यानके चार भेद हैं, १ आज्ञाविचय, २ अपायविचय, ३ विपाकविचय, ४ संस्थान विचय । जीवादिक छह द्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्ततत्त्व और नौ पदार्थोंका विशेष स्वरूप विशिष्ट गुरुके अभावसे तथा अपनी मन्दबुद्धिके कारण, प्रमाण नय निक्षेपोंसे साधन कर सके ऐसा न जाना जा सके तब ऐसा श्रद्धान करे कि जो सर्वज्ञ वीतराग देवने कहा है सो हमें प्रमाण है ऐसे आज्ञा मानकर उसके अनुसार पदार्थों में उपयोगको रोकना सो* १ आज्ञाविचय धर्मध्यान है । ___ अपायका अर्थ नाश है इसलिये जैसे कर्मोंका नाश हो वैसा चिन्तवन करना तथा मिथ्यात्वभाव धर्म में विघ्नका कारण है इसका चिन्तवन रखना, इसका अपने न होनेका चिन्तवन दूसरेके दूर करनेका चिन्तवन करना सो २ अपायविचय है । विपाकका अर्थ कर्मका उदय है इसलिये जैसा कर्मका उदय हो उसके वैसे ही स्वरूपका चिन्तवन करना सो ३ विपाकविचय है । लोकके स्वरूपका चिन्तवन करना सो ४ संस्थानविचय है । धर्मध्यानके दस भेद भी होते हैं, १ अपाय विचय, २ उपायविचय, ३ जीवविचय, ४ आज्ञाविचय, ५ विपाकविचय, ६ अजीवविचय, ७ हेतुविचय, ८ विरागविचय, ६ भव विचय, १० संस्थानविचय, ऐसे इन दसोंका चिन्तवन सो इन चार भेदोंके ही विशेष भेद किये गये है। * सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं, हेतुभिर्नैव हन्यते । आज्ञासिद्ध तु तद्ग्राह्य, नान्यथावादिनो जिनाः ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा पदस्थक, पिण्डस्य, रूपस्थ, रूपातीत ऐसे भी धर्मध्यान चार प्रकारका होता है । पद अक्षरोंके समुदायको कहते हैं इसलिये परमेष्ठोके वाचक अक्षर जिनको मंत्र संज्ञा है सो उन अक्षरोंको प्रधान कर परमेष्ठीका चिन्तवन करे उस समय जिस अक्षरमें एकाग्रचित्त होता है सो उसका ध्यान कहलाता है । णमोकारमंत्रके पैतीस अक्षर हैं वे प्रसिद्ध हैं उनमें मन लगावे तथा उस ही मंत्रको भेदरूप करने पर संक्षिप्त सोलह अक्षर हैं-"अरहन्त सिद्ध आइरिय, उवज्झाय साहू: । इसहीके भेदरूप 'अरहन्त सिद्ध' ये छह अक्षर हैं । इसहीका संक्षेप "अ सि आ उ सा" ये आदि अक्षररूप पाँच अक्षर हैं । "अरहन्त" ये चार अक्षर हैं । "सिद्ध" अथवा "अहं" ये दो अक्षर हैं । "ॐ" यह एक अक्षर है इसमें पंचपरमेष्ठीके सब आदिके अक्षर है । अरहन्तका अकार, अशरीर ( सिद्ध ) का अकार, आचार्यका आकार, उपाध्यायका उकार, मुनिका मकार ऐसे पांच अक्षर अ+अ+आ+उ+म्="औम" ऐसा सिद्ध होता है । ये मंत्रवाक्य हैं इसलिये इनके उच्चारणरूपसे मनमें चिन्तवनरूप ध्यान करे तथा इनका वाच्य अर्थ जो परमेष्ठी है उनका अनन्तज्ञानादिरूप स्वरूप विचार कर ध्यान करना । अन्य भो बारह हजार श्लोकरूप नमस्कार ग्रन्थ हैं उनके अनुसार तथा लघु वृहत् सिद्धचक्र प्रतिष्ठा ग्रन्थोंमें मन्त्र कहे गये हैं उनका ध्यान करना चाहिये । मंत्रोंका विशेष वर्णन संस्कृत टीकामें है सो वहाँसे जानना । यहाँ संक्षेपसे लिखा है यह सब पदस्थध्यान है । पिण्डका अर्थ शरीर है उसमें पुरुषाकार अमूर्तीक अनन्तचतुष्टय सहित जैसा परमात्माका स्वरूप है वैसा ही आत्माका चितवन करना सो पिण्डस्थध्यान है । रूप अर्थात् अरहन्त का रूप, समोसरणमें घातिकर्मरहित, चौतीस अतिशय आठ प्रातिहार्य सहित, अनन्त चतुष्टयमंडित, इन्द्रादिसे पूज्य, परम औदारिक शरीर सहित ऐसे अरहन्तका * पदस्थं मंत्रवाक्यस्थं, पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनं । __ रूपस्थं सर्वचिद्रूपं, रूपातीतं निरंजनं ।। x णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ।। : अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः। * अरहंता असरीरा, आइरिया तह उवज्झया मूणिणो । पढमक्खरणिप्पण्णो, ओंकारो पंचपरमेट्ठी ।। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश तप २२७ ध्यान करना तथा ऐसा ही संकल्प अपनी आत्माका करके अपना ध्यान करना सो रूपस्थ ध्यान है । देह बिना, बाह्य के अतिशयादिक बिना, अपना दूसरेका ध्याता ध्यान ध्येयके भेद बिना, सर्व विकल्प रहित, परमात्मस्वरूपमें लयको प्राप्त हो जाना सो रूपातीत ध्यान है । ऐसा ध्यान सातवें गुणस्थान में होता है तब श्रेणी मांडता है । यह ध्यान व्यक्तरागसहित चौथे गुणस्थानसे सातवें गुणस्थान तक अनेक भेदरूप प्रवर्त्तता है । अब शुक्लध्यानको पाँच गाथाओंमें कहते हैंजत्थ गुणा सुविसुद्धा, उवसमखमणं च जत्थ कम्माणं । लेसा वि जत्थ सुका, तं सुक्कं भरणदे ज्झाणं ॥४८१॥ अन्वयार्थः-[ जत्थ सुविसुद्धा गुणा ] जहाँ भले प्रकार विशुद्ध ( व्यक्त कषायोंके अनुभव रहित ) उज्ज्वल गुण ( ज्ञानोपयोग आदि ) हों [ जत्थ कम्माण उवसमखमणं च ] जहाँ कर्मोंका उपशम तथा क्षय हो [जत्थ लेसा वि सुका ] और जहाँ लेश्या भी शुक्ल ही हो [ तं सुक्कं ज्झाणं भण्णदे ] उसको शुक्लध्यान कहते हैं । भावार्थ:-यह सामान्य शुक्लध्यानका स्वरूप कहा, विशेष आगे कहेंगे । कर्मके उपशम और क्षयका विधान अन्य ग्रन्थोंसे टीकाकारने लिखा है सो आगे लिखेंगे । अब विशेष भेदोंको कहते हैंपडिसमयं सुज्झतो अणंतगुणिदाए उभयसुद्धीए । पढमं सुक्कं ज्झायदि, आरूढो उभयसेणीसु ॥४८२॥ अन्वयार्थः-[ उभय सेणीसु आरूढो ] उपशमक और क्षपक इन दोनों श्रेणियों में आरूढ होकर [ पडिसमयं ] समय समय [ अणंतगुणिदाए उभयसुद्धीए सुझंतो ] अनन्तगुणी विशुद्धता कर्मके उपशम तथा क्षयरूपसे शुद्ध होता हुआ मुनि [पढमं सुक्कं ज्झायदि प्रथम शुक्लध्यान पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान करता है । भावार्थः–पहिले मिथ्यात्व तीन, कषाय अनन्तानुबन्धी चार, प्रकृतियोंका उपशम तथा क्षय होनेसे सम्यग्दृष्टि होता है। फिर अप्रमत्त गुणस्थानमें सातिशय विशुद्धतासहित हो श्रेणी प्रारम्भ करता है, तब अपूर्वकरण गुणस्थान होकर शुक्लध्यानका Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा पहिला पाया प्रवर्त्तता है । वहाँ यदि मोहकी प्रकृतियोंका उपशम करना प्रारम्भ करता है तो अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसांपराय इन तीनों गुणस्थानोंमें समय समय अनन्तगुणी विशुद्धतासे बढ़ता हुआ मोहनीय कर्मकी इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम कर उपशान्त कषाय गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है अथवा मोहकी प्रकृतियोंका क्षय करना प्रारम्भ करता है तो तीनों गुणस्थानोंमें इक्कीस मोहकी प्रकृतियोंका सत्तामें से नाश कर क्षीणकषाय बारहवें गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है । ऐसे शुक्लध्यानका पहिला पाया पृथक्त्ववितर्कवीचार प्रवर्तता है । सो पृथक् कहिये भिन्न भिन्न, वितर्क कहिये श्रुतज्ञानके अक्षर और अर्थ, तथा वीचार कहिये अर्थका, व्यंजनका और मन वचन कायके योग, इनका पलटना इस पहिले शुक्लध्यानमें होता है । सो अर्थ तो द्रव्यगुण पर्याय है सो द्रव्यसे द्रव्यान्तर गुणसे गुणान्तर पर्यायसे पर्यायान्तर होता है और इसी तरह वर्णसे वर्णान्तर तथा योगसे योगान्तर होता है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि ध्यान तो एकाग्रचित्तानिरोध है, पलटनेको ध्यान कैसे कहा ? इसका समाधान जितने समय तक एक विषय पर रुका सो तो ध्यान हुआ और पलट गया तब दूसरे विषय पर रुका वह भी ध्यान हुआ ऐसे ध्यानकी सन्तानको भी ध्यान कहते हैं । यहाँ सन्तानको जाति एक है उसकी अपेक्षा लेना । उपयोग पलटता है सो ध्याताकी पलटने की इच्छा नहीं है यदि इच्छा हो तो रागसहित होनेके कारण यह भी धर्म ध्यान ही रहे । यहां, रागका अव्यक्त होना केवलज्ञानगम्य है, ध्याताके ज्ञान गम्य नहीं है । आप शुद्धोपयोगरूप हुवा पलटनेका भी ज्ञाता हो है । पलटना क्षयोपशम ज्ञानका स्वभाव है इसलिये यह उपयोग बहुत समय तक एकाग्र नहीं रहता है, इसको 'शुक्ल' रागके अव्यक्त होनेहीके कारण कहा है । अब दूसरा भेद कहते हैंहिस्सेसमोह विलए, खीणकसाए य अंतिमे काले । ससरूवम्मि णिलीणो, सुक्कं ज्झाएदि एयत्तं ॥४८३॥ व्यंजन नाम श्रु तवचनका है जिससे अर्थ विशेष अभिव्यक्त होता है, ऐसे किसी भी श्रुतके वाक्यको व्यंजन कहते हैं। ( सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पृष्ठ ४२६ ) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश तप २२६ अन्वयार्थ:-[णिस्सेसमोह विलए ] आत्मा समस्त मोहकर्मके नाश होने पर [ खीणकसाए य अंतिमे काले ] क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तके कालमें [ ससरूवम्मि णिलीणो] अपने स्वरूपमें लीन हुवा [ एयत्तं सुक्कं ज्झाएदि ] दूसरा शुक्लध्यान एकत्ववितर्कवीचारध्यान करता है। भावार्थः-पहिले पायेमें उपयोग पलटता था सो पलटता रह गया । एक द्रव्य तथा पर्याय पर, एक व्यंजन पर, एक योग पर रुक गया । अपने स्वरूप में लोन है हो, अब घातिया कर्मके नाशसे उपयोग पलटेगा सो सबका प्रत्यक्ष ज्ञाता होकर लोकालोकको जानना यह ही पलटना शेष रहा है। अब तीसरे भेदको कहते हैंकेवलणाणसहावो, सुहमे जोगम्हि संठिो काए । जंज्झायदि सजोगिजिणो, तं तिदियं सुहमकिरियं च ॥४८४॥ अन्वयार्थः- [ केवलणाणसहावो ] केवल ज्ञान ही है स्वभाव जिसका ऐसा [ सजोगिजिणो ] सयोगीजिन [ सुहमे काए जोगम्हि संठिओ ] जब सूक्ष्म काययोगमें स्थित होकर उस समय [ जं ज्झायदि ] जो ध्यान करता है [तं तिदियं सुहमकिरियं च ] वह तीसरा सूक्ष्म क्रिया नामक शुक्लध्यान है । भावार्थ:-जब घातिया कर्म के नाशसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है तब तेरहवाँ गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली होता है वहाँ उस गुणस्थान कालके अन्त में अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है तब मनोयोग वचनयोग रुक जाते हैं और काययोगकी सूक्ष्म क्रिया रह जाती है तब शुक्लध्यानका तीसरा पाया कहलाता है । यहाँ उपयोग तो केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तबहीसे अवस्थित है और ध्यान में अन्तमुहर्त ठहरना कहा है सो इस ध्यानकी अपेक्षा तो यहाँ ध्यान है नहीं और योगके रुकने की अपेक्षा ध्यानका उपचार है । उपयोगकी अपेक्षा कहें तो उपयोग रुक हो रहा है कुछ जानना रहा नहीं तथा पलटानेवाला प्रतिपक्षी कर्म रहा नहीं इसलिये सदा ही ध्यान है । अपने स्व स्वरूपमै रम रहे हैं । ज्ञेय आरसी ( दर्पण ) की तरह समस्त प्रतिविम्बित हो रहे हैं । मोहके नाशसे किसी में इष्ट अनिष्टभाव नहीं हैं ऐसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामक तीसरा शुक्लध्यान प्रवर्त्तता है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब चौथे भेदको कहते हैंजोगविणासं किच्चा, कम्मच उक्कस्स खवणकरण । जं ज्झायदि अजोगिजिणो, णिक्किरियं तं चउत्थं च ॥४८५॥ अन्वयार्थः-[ जोगविणासं किच्चा ] केवली भगवान् योगोंकी प्रवृत्तिका अभाव करके [ अजोगिजिणो ] जब अयोगी जिन हो जाते हैं तब [कम्मचउक्कस्स खवणकरणटुं] सत्तामें स्थित अघातिया कर्मकी पिच्यासी प्रकृतियोंका क्षय करनेके लिये [जं ज्झायदि] जो ध्यान करते हैं [तं चउत्थं णिकिरियं च ] सो चौथा व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक शुक्लध्यान होता है। भावार्थः-चौदहवाँ गुणस्थान अयोगीजिन है वहाँ स्थिति पंच लघअक्षर प्रमाण है । वहाँ योगोंकी प्रवृत्तिका अभाव है सो सत्तामें अघातिया कर्मकी पिच्यासी प्रकृतियाँ हैं उनके नाशका कारण यह योगोंका रुकना है इसलिये इसको ध्यान कहा है । तेरहवें गुणस्थानकी तरह यहाँ भी ध्यानका उपचार जानना । कुछ इच्छापूर्वक उपयोगको रोकनेरूप ध्यान नहीं है । यहाँ कर्म प्रकृतियों के नाम तथा और भी विशेष कथन अन्य ग्रन्थोंके अनुसार है सो संस्कृतटीकासे जानना । ऐसे ध्यान तपका स्वरूप कहा । अब तपके कथनका संकोच करते हैंएसो वारसभेओ, उग्गतवो जो चरेदि उवजुत्तो। सो खविय कम्मपुजं, मुत्तिसुहं उत्तमं लहदि ॥४८६॥ अन्वयार्थः-[ एसो वारसभेओ] यह बारह प्रकारका तप है [ जो उवजुत्तो उग्गतवो चरेदि ] जो मुनि उपयोग सहित इस उग्रतपका आचरण करता है [ सो कम्मपुंजं खविय ] सो मुनि कर्मसमूहका नाश करके [ उत्तमं मुतिसुहं लहदि ] उत्तम ( अक्षय ) मोक्षसुखको पाता है । भावार्थः-तपसे कर्मकी निर्जरा होती है और संवर होता है ये दोनों ही मोक्षके कारण हैं इसलिये जो मुनिव्रत लेकर बाह्य अभ्यन्तर भेदरूप तपका विधिपूर्वक आचरण करता है सो मोक्ष पाता है । तब ही कर्मका अभाव होता है इसीसे अविनाशो बाधारहित आत्मीक सुखकी प्राप्ति होती है। ऐसे बारह प्रकारके तपके धारक तथा Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश तप २३१ इस तपका फल पानेवाले साधु चार प्रकारके कहे गये हैं-१ अनगार, २ यति, ३ मुनि ४ ऋषि । सामान्य साधु गृहवासके त्यागी मूलगुणोंके धारक अनगार हैं । ध्यानमें स्थित होकर श्रेणी मांडनेवाले यति हैं। जिनको अवधि मनःपर्ययज्ञान हो तथा केवलज्ञान हो सो मुनि हैं और ऋद्धिधारी हों सो ऋषि हैं । इनके चार भेद हैं-१ राजषि, २ ब्रह्मर्षि, ३ देवर्षि, ४ परमर्षि विक्रिया ऋद्धिवाले राजर्षि, अक्षीणमहानस ऋद्धिवाले ब्रह्मर्षि, आकाशगामी देवर्षि और केवलज्ञानो परमर्षि हैं । अब इस ग्रन्थके कर्ता श्रीस्वामिकात्तिकेय मुनि अपना कर्त्तव्य प्रगट करते हैं जिणवयणभावण', सामिकुमारेण परमसद्धाए । रइया अणुवेकवाओ, चंचलमण-रुंभण? च ॥४८७॥ अन्वयार्थः--[ अणुवेक्खाओ ] यह अनुप्रेक्षा नामक ग्रन्थ [ सामिकुमारेण ] स्वामिकुमारने ( यहाँ कुमार शब्दसे ऐसा सूचित होता है कि यह मुनि जन्महीसे ब्रह्मचारी थे ) [ परमसद्धाए ] श्रद्धापूर्वक ( ऐसा नहीं कि कथनमात्र कर दिया हो, इस विशेषणसे अनुप्रेक्षासे अत्यन्त प्रीति सूचित होती है ) [ जिणवयणभावणटुं] जिनवचनकी भावनाके लिये ( इस वचनसे यह बताया है कि ख्याति लाभ पूजादिक लौकिक प्रयोजनके लिये यह ग्रन्थ नहीं बनाया है, जिनवचनका ज्ञान श्रद्धान हुआ है उसकी बारम्बार भावना करना स्पष्ट करना जिससे ज्ञानकी वृद्धि हो कषायोंका नाश हो ऐसा प्रयोजन है ) [ चंचलमणरु भणच रइया ] और चंचल मन को रोकने के लिये रचा ( बनाया ) है । इस विशेषणसे ऐसा जानना कि मन चचल है इसलिये एकाग्र नहीं रहता है उसको इस शास्त्र में लगावें तो रागद्वेषके कारण विषय कषायोंमें न जावे इस प्रयोजनके लिये यह अनुप्रेक्षा ग्रन्थ बनाया है सो भव्यजीवोंको इसका अभ्यास करना योग्य है जिससे जिनवचनकी श्रद्धा हो, सम्यग्ज्ञानको वृद्धि हो और मन चंचल है सो इसके अभ्यासमें लगे, अन्य विषयोंमें व जावे । अब अनुप्रेक्षाका माहात्म्य कहकर भव्योंको उपदेशरूप फलका वर्णन करते हैं वारसअणुवेक्खाओ, भणिया हु जिणागमाणुसारेण । जो पढइ सुणइ भावइ, सो पावइ उत्तमं सोक्खं ॥४८८॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः- [ वारसअणुपेक्खाओ जिणागमाणुसारेण भणिया हु ] ये बारह अनुप्रेक्षायें जिनागमके अनुसार कही हैं ( इस वचनसे यह बताया है कि मैंने कल्पित नहीं कही है शास्त्रानुसार कही है ) [ जो पढइ सुणइ भावइ ] जो भव्यजीव इनको पढ़े, सुने और इनकी भावना ( बारम्बार चिन्तवन ) करे [ सो उत्तम सोक्खं पावइ ] सो उत्तम ( बाधारहित, अविनाशी, स्वात्मीक ) सुखको पावे । यह सम्भावनारूप कर्त्तव्य अर्थका उपदेश जानना । भव्यजीव है सो पढ़ो, सुनो, बारम्बार इनके चिन्तवनरूप भावना करो। अब अन्त्यमंगल करते हैंतिहुयणपहाणस्वामि, कुमारकाले वि तविय तवचरणं । वसुपुज्जसुयं मल्लि, चरिमतियं संथुवे णिच्चं ॥४८६।। अन्वयार्थः-[ तिहुयणपहाणस्वामि ] तीन भुवनके प्रधान स्वामी तीर्थंकरदेव जिन्होंने [ कुमारकाले वितविय तवचरणं ] कुमारकाल में ही तपश्चरण धारण किया ऐसे [ वसुपुजसुयं मल्लि चरिमतियं ] वसुपूज्य राजाके पुत्र वासुपूज्यजिन, मल्लिजिन और चरिमतिय ( अन्तके तीन ) नेमिनाथ जिन, पार्श्वनाथ जिन, वर्द्ध मानजिन इन पांचों जिनोंका मैं [णिच्च संथवे नित्य ही स्तवन करता हूँ उनके गुणानुवाद करता हूँ, वंदन करता हूँ। भावार्थः -ऐसे कुमारश्रमण पाँच तीर्थंकरोंको स्तवन नमस्काररूप अन्तमंगल किया है । यहाँ ऐसा सूचित होता है कि आप ( श्रीस्वामिकार्तिकेय ) कुमार अवस्थामें मुनि हुए हैं इसीलिये कुमार तीर्थंकरोंसे विशेष प्रीति उत्पन्न हुई है इसलिये उनके नामरूप अन्तमंगल किया है। ऐसे श्रीस्वामिकार्तिकेय मुनिने यह अनुप्रेक्षा नामक ग्रन्थ समाप्त किया । अब इस वचनिकाके होनेका सम्बन्ध लिखते हैं दोहा प्राकृत स्वामिकुमार कृत, अनुप्रेक्षा शुभ ग्रन्थ । देशवचनिका तासकी, पढी लगौ शिव पन्थ ।।१।। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश तप २३३ चौपाई देश हुँढाहड़ जयपुर थान, जगतसिंह नृपराज महान । न्यायबुद्धि ताकै नित रहै, ताकी महिमा को कवि कहै ।।२।। ताके मन्त्री बहुगुणवान, तिनकै मन्त्र राजसुविधान । ईति भीति लोकनिकै नाहिं, जो व्यापै तो झट मिटि जाहिं ॥३।। धर्मभेद सब मतके भले, अपने अपने इष्ट जु चले । जैनधर्मकी कथनी तनी, भक्ति प्रीति जैननिकै धनी ।।४।। तिनमें तेरापंथ कहाव, धरै गुणीजन करै बढाव । तिनिके मध्य नाम जयचन्द्र, मैं हूँ आतमराम अनंद ।।५।। धर्मरागते ग्रंथ विचारि, करि अभ्यास लेय मनधारि । भावन बारह चितवन सार, सो हूँ लखि उपज्यो सुविचार ।।६।। देशवचनिका करिये जोय, सुगम होय बांचै सब कोय । यातें रची वचनिका सार, केवल धर्मराग निरधार ॥७॥ मूलग्रंथतें घटि बढि होय, ज्ञानी पंडित सोधौ सोय । अल्पबुद्धिकी हास्य न करें, संतपुरुष मारग यह धरै ।।८।। बारह भावनकी भावना, बहु लै पुण्ययोग पावना । तीर्थकर वैराग जु होय, तब भावै सब राग जु खोय ||९।। दीक्षा धारै तब निरदोष, केवल ले अरु पावै मोप(मोक्ष)। यह विचारि भावो भवि जीव सब कल्याण सु धरौ सदीव ।।१०॥ पंच परमगुरु अरु जिनधर्म, जिनवानी भाष सब मर्म । चैत्य चैत्यमंदिर पढि नाम, नमूं मानि नव देव सुधाम ।।११।। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ पृष्ठ १ २४ ३८ ૪૪ ४४ ४५ ४५ कार्तिकेयानुप्रेक्षा दोहा संवत्सर विक्रमतर, सठि सावण तीज बदि, मर्म सु पाय । जैनधर्म जयवन्त जग, जाको वस्तु यथारथरूप लखि, ध्यायें शिवपुर जाय || १३ || इति श्रीस्वामिकार्तिकेय विरचित द्वादशानुप्रेक्षा जयचन्दजी कृत वचनिका हिन्दी अनुवाद सहित समाप्त | लाइन १३ १७ अंतिम १४ १६ १३ १६ अष्टादशशत जानि । पूरण भयो सुमानि ॥ १२ ॥ शुद्धि - पत्र अशुद्ध तनुनगनंतर कस रूवादु चेव चेव चेव चेव शुद्ध तनुनगनधर कैसे रूवा हुँ च्चैव चचंव चचैव च्चैव Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain E lation international