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कार्तिकेयानुप्रेक्षा [जिणेदेहिं ] जिनेन्द्रदेवने [ सव्वं पि अणेयंत ] सब ही वस्तुओंको अनेकान्त ( अनन्त धर्मस्वरूप [ भणिदं ] कहा है।
अब कहते हैं कि जो अनेकान्तात्मक वस्तु है सो अर्थक्रियाकारी है
जं वत्थु अणेयंतं तं चिय कज्जं करेदि णियमेण । बहुधम्मजुदं अत्थं, कज्जकरं दीसदे लोए ॥२२५॥
अन्वयार्थ:-[ जंवत्थ अणेयंत ] जो वस्तु अनेकान्त है-अनेक धर्मस्वरूप है [तं चिय ] सो हो [ णियमेण ] नियमसे [ कज्ज करेदि ] कार्य करती है [ लोए ] लोकमें [ बहुधम्मजुदं अत्थं ] बहुत धर्मोसे युक्त पदार्थ ही [ कज्जकरं दीसदे ] कार्य करनेवाले देखे जाते हैं।
___ भावार्थ:-लोक में नित्य, अनित्य, एक, अनेक भेद इत्यादि अनेक धर्मयुक्त वस्तुएँ हैं सो कार्यकारिणी दिखाई देती है जैसे मिट्टी के घड़े आदि अनेक कार्य बनते हैं सो सर्वथा मिट्टी एकरूप, नित्यरूप तथा अनेक अनित्य रूप ही होवे तो घड़े आदि कार्य बनते नहीं हैं, ऐसे ही सब वस्तुओंको जानना चाहिये। अब सर्वथा एकान्त वस्तुके कार्यकारीपना नहीं है ऐसा कहते हैं
एयंतं पुणु दव्वं, कज्जं ण करदि लेसमेत्तं पि ।
ज पुणु ण करदि कज्जं, तं वुच्चदि केरिसं दव्वं ॥२२६॥
अन्वयार्थः-[ एयंतं पुणु दव्वं ] एकान्तस्वरूप द्रव्य [ लेसमेत् पि ] लेशमात्र भी [ कज्ज ण करदि ] कार्यको नहीं करता है [जं पुणु ण करदि कज्ज ] और जो कार्य ही नहीं करता है [ तं बुच्चदि केरिसं दव्वं ] वह कैसा द्रव्य है, वह करता है तो शून्यरूपसा है।
भावार्थ:-जो अर्थक्रियास्वरूप होवे सो ही परमार्थरूप वस्तु कही है और जो अर्थक्रियारूप नहीं है सो आकाशके फूलके समान शून्यरूप है ।
अब सर्वथा नित्य एकान्तमें अर्थक्रियाकारीपनेका अभाव दिखाते हैंपरिणामेण विहीणं, णिच्चं दव्वं विणस्सदे णेव । णो उप्पज्जेदि सया, एवं कज्जं कहं कुणदि ।।२२७॥
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