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धर्मानुप्रेक्षा
१६१ हिंसा होती है उससे गृहस्थ कैसे बचे ? सिद्धान्त में ऐसा भी कहा है कि जिस कार्यके करने में पाप अल्प हो और पुण्य अधिक हो तो ऐसा कार्य गृहस्थको करना योग्य है। गृहस्थ जिसमें लाभ समझता है सो कार्य करता है । थोड़ा द्रव्य देने पर अधिक द्रव्य आवे सो कार्य करता है किन्तु मुनियोंके ऐसा कार्य नहीं होता है उनके तो सर्वथा यत्न ही है ऐसा जानना चाहिये ।
देवगुरूण णिमित्तं, हिंसासहिदो वि होदि जदि धम्मो। हिंसारहिदो धम्मो, इदि जिणवयणं हवे अलियं ॥४०६॥
अन्वयार्थः-[ जदि देवगुरूण णिमितं हिंसासहिदो वि धम्मो होदि ] यदि देव गुरुके निमित्त हिंसाका आरम्भ भी यतिका धर्म हो तो [ धम्मो हिंसारहिदो इदि जिणवयणं अलियं हवे ] "धर्म हिंसा रहित है" ऐसा जिनेन्द्र भगवानका वचन अलीक ( झूठा ) सिद्ध होवे ।
भावार्थ:-क्योंकि भगवानने धर्म हिंसारहित कहा है इसलिये देव गुरुके कार्य के निमित्त भी मुनि हिंसाका आरम्भ नहीं करते हैं, जो श्वेताम्बर कहते हैं सो मिथ्या है।
अब इस धर्मको दुर्लभता दिखाते हैंइदि एसो जिणधम्मो, अलद्धपुवो अणाइकाले वि । मिछत्तसंजुदाणं, जीवाणं लद्धिहीणाणं ॥४०७॥
अन्वयार्थः- [इदि एसो जिणधम्मो ] इसप्रकारसे यह जिनेश्वर देवका धर्म [ अणाइकाले वि ] अनादिकाल में [ लद्धिहीणाणं ] जिनको स्व-काल आदिकी प्राप्ति नहीं हुई है ऐसे [मिछत्तसंजदाणं जीवाणं ] मिथ्यात्व सहित जीवोंके [ अलद्धपुयो] अलब्धपूर्व है अर्थात् पहिले कभी नहीं पाया ।
भावार्थः -अनादिकालसे मिथ्यात्वके कारण जोवोंको जीव अजीवादि तत्त्वार्थका श्रद्धान कभी नहीं हुआ, बिना तत्त्वार्थश्रद्धानके अहिंसाधर्म की प्राप्ति कैसे हो?
१ मुद्रित "प्रति में "णिम्मित" पाठ है ।
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