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________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब कहते हैं कि अलब्धपूर्व धर्मको पाकर केवल पुण्यके ही आशय से सेवन नहीं करना - १६२ एदे दहप्पयारा, पावकम्मस्स गासिया भणिया । पावकम्मस्स पुराणस्स य संजणया, पर पुराणत्थं ण कायव्वा ॥ ४०८ ॥ अन्वयार्थः - [ एदे दहप्पयारा ] ये दस प्रकार के धर्म के भेद णासिया ] पाप कर्मका तो नाश करने वाले [ य पुण्णस्स संजणया ] और पुण्यकर्मको उत्पन्न करनेवाले [ भणिया ] कहे गये हैं [ पर पुण्णत्थं ण कायव्या ] परन्तु केवल पुण्यही के प्रयोजनसे इनको अंगीकार करना उचित नहीं है । 1 भावार्थ: - सातावेदनीय, शुभआयु, शुभनाम, शुभगोत्र तो पुण्यकर्म कहे गये हैं । चार घातिया कर्म, असातावेदनीय, अशुभनाम, अशुभआयु और अशुभगोत्र ये पापकर्म कहे गये हैं । दस लक्षण धर्मको पापका नाश करनेवाला और पुण्यको उत्पन्न करनेवाला कहा है सो केवल पुण्योपार्जनका अभिप्राय रखकर इनका सेवन उचित नहीं है क्योंकि पुण्य भी बंध ही है । ये धर्म तो पाप जो घातियाकर्म उसका नाश करनेवाले हैं और अघातियों में अशुभ प्रकृतियोंका नाश करते हैं । पुण्यकर्म संसारके अभ्युदयको देते हैं इसलिये इनसे ( दशधर्मसे ) पुण्यका भी व्यवहार अपेक्षा बन्ध होता है सो स्वयमेव होता ही है, उसकी वांछा करना तो संसारकी वांछा करना है और ऐसा करना तो निदान हुआ, मोक्षार्थीके यह होता नहीं है । जैसे किसान खेती अनाजके लिये करता है उसके घास स्वयमेव होता है उसकी वांछा क्यों करे ? वैसे ही मोक्षार्थीको पुण्यबन्धकी वांछा करना योग्य नहीं है । पुराणं पि जो समच्छदि, संसारो तेण ईहिदो होदि । पुराणं सुग्गई हेदु, पुराणखएव निव्वाणं ॥ ४०६॥ अन्वयार्थः – [ जो पुण्णं पि समच्छदि ] जो पुण्यको भी चाहता है [ तेण [ संसारो ईहिदो होदि ] वह पुरुष संसार ही को चाहता है [ पुण्णं सुग्गई हेदुं ] क्योंकि पुण्य सुगतिके बन्धका कारण है [ णिव्वाणं पुण्णखएणेव ] और मोक्ष पुण्यके भी क्षय से होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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