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________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा नहीं हैं । यहाँ तात्पर्य यह है कि तीन काल और तीनलोकमें सम्यक्त्वके समान कल्याणरूप अन्य पदार्थ नहीं है और मिथ्यात्वके समान शत्रु नहीं है इसलिये श्रीगुरुओंका यह उपदेश है कि अपने सर्वस्व उद्यम उपाय यत्न द्वारा मिथ्यात्वका नाश कर सम्यक्त्वको अंगीकार करना चाहिये । इस तरह गृहस्थधर्म के बारह भेदों में पहिला भेद सम्यक्त्वसहितपनां है उसका वर्णन किया । अब प्रतिमाके ग्यारह भेदोंके स्वरूप कहेंगे । पहिले दार्शनिक श्रावकको कहते हैं १४८ बहुतससमणिदं जं, मज्जं मंसादि सिंदिदं दव्वं । जय सेवदि दिं, सो दंसणसावओ होदि ॥ ३२८ ॥ अन्वयार्थः - [ बहुतससमणिदं जं मज्जं मंसादि णिंदिदं दव्वं ] बहुतसे त्रस जीवोंके घातसे उत्पन्न तथा उन सहित मदिराका और अति निन्दनीय मांस आदि द्रव्यका [ जो यिदं ण य सेवदि ] जो नियमसे सेवन नहीं करता है - भक्षण नहीं करता है [ सो दंसणसावओ होदि ] वह दार्शनिक श्रावक है । भावार्थ:- मदिरा और मांस तथा आदि शब्दसे मधु और पंच उदम्बर फल ये वस्तुएँ बहुत स जीवोंके घात सहित हैं इसलिये दार्शनिक श्रावक इनका भक्षण नहीं करता है । मद्य तो मनको मोहित करता है तब धर्मको भूल जाता है । मांस सघात के बिना होता ही नहीं है । मधुको उत्पत्ति प्रसिद्ध है वह भी त्रसघातका स्थान ही है । पीपल बड़ पीलू फलों में प्रत्यक्ष त्रस जीव उड़ते हुए दिखाई देते हैं । अन्य ग्रन्थों में कहा है कि ये श्रावकके आठ मूलगुण है और इनको त्रसहिंसा के उपलक्षण कहे हैं इसलिये जिन वस्तुओं में त्रसहिंसा बहुत होती है वे श्रावकके लिये अभक्ष्य हैं इस कारण उनका भक्षण करना योग्य नहीं है । सात व्यसन अन्याय प्रवृत्तिके मूल ( जड़ ) हैं उनका भी यहाँ त्याग कहा है | जुआ मांस मद्य वेश्या शिकार चोरी परस्त्री ये सात व्यसन कहे गये हैं । व्यसन नाम आपत्ति वा कष्टका है इनके सेवन करने वालों पर आपत्तियाँ आती हैं राजासे पञ्चोंसे दण्ड योग्य होते हैं तथा इनका सेवन भी आपत्ति वा कष्टरूप है, श्रावक ऐसे अन्यायके कार्य नहीं करता है । यहाँ दर्शन नाम सम्यक्त्वका है तथा धर्मकी मूर्ति सबके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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