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कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब इस कथनका संकोच करते हैं:
चइऊण महामोहं, विसऐ मुणिऊण भंगुरे सव्वे ।
णिव्विसयं कुणह मणं, जेण सुहं उत्तमं लहइ ॥२२॥ अन्वयार्थः- ( हे भव्यजीवों ! ) [ सव्वे विसऐ भंगुरे मुणिऊण ] समस्त विषयोंको विनाशीक जानकर [ महामोहं चइऊण] महामोहको छोड़कर [मणं णिबिसयं कुणह ] अपने मनको विषयों से रहित करो। [जेण उत्तमं सुहं लहइ ] जिससे उत्तम सुखको प्राप्त करो।
भावार्थ:-पूर्वोक्त प्रकारसे संसार, देह, भोग, लक्ष्मी इत्यादिकको अस्थिररूप दिखाये, उनको सुनकर जो अपने मनको विषयोंसे छुड़ाकर (अपनेको नित्य ज्ञानानन्दमय और) उनको अस्थिररूप भावेगा सो भव्यजीव सिद्धपदके सुखको पावेगा।
इति अध्र वानुप्रेक्षा समाप्ता ॥१॥
अशरण-अनुप्रेक्षा तत्थ भवे किं सरणं, जत्थ सुरिंदाण दीसदे विलो।
हरिहरबंभादीया, कालेण य कवलिया जत्थ ॥२३॥ - अन्वयार्थः-[ जत्थ सुरिंदाण विलओ दीसदे ] जिस संसार में देवोंके इन्द्रका नाश देखा जाता है [जत्थ हरिहरबंभादीया कालेण य कवलिया] जहां हरि कहिये नारायण, हर कहिये रुद्र, ब्रह्मा कहिये विधाता आदि शब्दसे बड़े २ पदवीधारक सब ही काल द्वारा ग्रसे गये [ तत्थ किं सरणं भवे ] उस संसारमें कौन शरण होवे ? कोई भी नहीं होवे ।
भावार्थः-शरण उसको कहते हैं जहां अपनी रक्षा हो सो संसारमें जिनका शरण विचार जाता है वे ही काल-पाकर नष्ट हो जाते हैं वहां कैसा शरण ।
अब इसका दृष्टान्त कहते हैं
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