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अशरण-अनुप्रेक्षा सिंहस्स कमे पडिदं, सारंगं जह ण रक्खदे को वि।
तह मिच्चुणा य गहिदं, जीवं पि ण रक्खदे को वि ॥२४॥
अन्वयार्थः- [जह सिंहस्स कमे पडिदं ] जैसे ( वनमें ) सिंहके पैर नीचे पड़े हुए [ सारंगं को वि ण रक्खदे] हिरणकी कोई भी रक्षा करने वाला नहीं [ तह मिच्चुणा य गहिदं जीवं पि] वैसे ही ( संसारमें ) मृत्युके द्वारा ग्रहण किये हुए जीवकी [ को वि ण रक्खदे ] कोई भी रक्षा नहीं कर सकता है।
भावार्थ:- वनमें सिंह मृगको पैर नीचे दाब ले तब रक्षा कौन करे ? वैसे ही यह कालका दृष्टान्त जानना चाहिये ।
आगे इसी अर्थको दृढ़ करते हैं____ जइ देवो वि य रक्खदि, मंतो तंतो य खेत्तपालो य ।
मियमाणं पि मणुस्सं, तो मणुया अक्खया होंति ॥२५॥
अन्वयार्थः-[ जइ मियमाणं पि मणस्सं ] यदि मरते हुए मनुष्यको [ देवो वि य मंतो तंतो य खेतपालो य रक्खदि ] कोई देव, मंत्र, तंत्र, क्षेत्रपाल उपलक्षणसे संसार जिनको रक्षक मानता है सो सब ही रक्षा करने वाले होंय [ तो मणुया अक्खया होंति ] तो मनुष्य अक्षय होवें, कोई भी मरे नहीं ।
भावार्थ:-( नित्य निर्मोही पूर्ण ज्ञानानंद स्व को भूलकर ) लोग जोवित रहने के निमित्त (मोह वश होकर) देवपूजा, मंत्रतंत्र, औषधि आदि अनेक उपाय करते हैं परन्तु निश्चयसे विचार करें तो कोई जीवित दीखता नहीं है, वृथा ही मोहसे विकल्प पैदा करते हैं।
आगे इसी अर्थको और दृढ़ करते हैंअइ-बलिओ वि रउद्दो मरण-विहीणो ण दीसए को वि। रक्खिजंतो वि सया रक्ख-पयारेहिं विविहेहिं ॥२६॥
अन्वयार्थः-( इस संसार में ) [ अइबलिओ वि रउद्दो] अत्यंत बलवान् तथा अत्यन्त रौद्र (भयानक) [ विविहेहिं रक्खपयारेहिं रक्खिजंतो वि सया ] और अनेक रक्षाके प्रकार उनसे निरन्तर रक्षा किया हुआ भी [ मरणविहीणो को वि ण दीसए ] मरणरहित कोई भी नहीं दीखता है ।
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