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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
भावार्थ:- ( अपने को तो भूलते ही हैं और परमें इष्ट अनिष्ट मान कर ) अनेक रक्षाके प्रकार गढ़, कोट, सुभट, शस्त्रादिक को शरण मानकर कोटि उपाय करो परन्तु मरणसे कोई बचता नहीं । सब उपाय विफल जाते हैं ।
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अब शरणकी कल्पना करे उसको अज्ञान बताते हैं
एवं पेच्छतो वि हु, गह भूय- पिसाय जोइणी - जक्खं । सरणं मरणइ मूढो, सुगाढ- मिच्छत्त-भावादो ||२७||
अन्वयार्थः – [ एवं पेच्छतो वि हु ] ऐसे ( पूर्वोक्तप्रकार अशरण ) प्रत्यक्ष देखता हुआ भी [ मूढो ] मूढ प्राणी [ सुगाढमिच्छत्तभावादो ] तीव्रमिथ्यात्वभावसे [ गहय पिसाय जोड़णी जक्खं ] सूर्यादि ग्रह, भूत, व्यंतर, पिशाच, योगिनी, चडिकादिक, यक्ष, मणिभद्रादिकको [ सरणं मण्णइ ] शरण मानता है ।
भावार्थ:- यह प्राणी प्रत्यक्ष जानता है कि मरणसे बचानेवाला कोई भी नहीं है तो भी ग्रहादिकको शरण मानता है सो यह तीव्रमिथ्यात्वका माहात्म्य है । अब मरण है सो आयुके क्षयसे होता है यह कहते हैंआयुक्खयेण मरणं, आउं दाऊण सक्कदे को वि । तह्मा देविंदो विय, मरणाउ रक्खदे को वि ॥ २८ ॥
अन्वयार्थः - [ आयुक्खयेण मरणं ] आयुकर्मके क्षयसे दाऊण सकदे को वि ] और आयुकर्म किसीको कोई देने में समर्थ ] इसलिये देवोंका इन्द्र भी [ मरणाउ को विण रक्खदे ] नहीं कर सकता है | भावार्थ:
:-मरण आयुके पूर्ण होनेसे होता है और आयु कोई किसीको देने में समर्थ नहीं, तब रक्षा करनेवाला कौन ? इसका विचार करो !
मरण होता है [ आउं नहीं [तमा देविंदो वि मरनेसे किसीकी रक्षा
आगे इसी अर्थको दृढ़ करते हैं
अप्पा पि चतं, जह सक्कदि रक्खिदु सुरिदोषि । सव्वुत्तम भोय-संजुत्तं ॥ २६ ॥
तो किं ठंडदि सग्गं, अन्वयार्थः - [ जइ सुरिंदो वि] यदि देवोंका इन्द्र भी [ अप्पाणं पि चतं ] अपनेको चयते (सरते) हुए [ रक्खिदुं सकदि ] रोकने में समर्थ होता [ तो सब्बुचम
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