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अशरण-अनुप्रेक्षा भोयसंजुत् ] तो सर्वोत्तम भोगोंसे संयुक्त [ सग्गं किं छंडदि ] स्वर्गको क्यों छोड़ता ?
भावार्थ:-सर्व भोगोंका निवास स्थान अपना वश चलते कौन छोड़े ? अब परमार्थ शरण दिखाते हैं
दंसण-णाण-चरितं, सरणं सेवेहि परम-सद्धाए ।
अण्णं कि पि ण सरणं, संसारे संसरंताणं ॥३०॥ अन्वयार्थः- (हे भव्य ! ) [ परमसद्धाए ] परम श्रद्धासे [दसणणाणचरितं ] दर्शन ज्ञान चारित्र स्वरूप [ सरणं सेवेहि ] शरणका सेवन कर। [ संसारे संसरंताणं ] इस संसार में भ्रमण करते हुए जीवोंको [अण्णं किं पि ण सरणं ] अन्य कुछ भी शरण नहीं है।
भावार्थ:-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र अपना स्वरूप है सो यह ही परमार्थरूप (वास्तवमें) शरण है । अन्य सब अशरण है (सम्यग्दर्शनका विषय अपना त्रैकालिक निश्चय परमात्मा है ऐसा) निश्चयश्रद्धापूर्वक यह ही शरण ग्रहण करो, ऐसा उपदेश है।
आगे इसीको दृढ़ करते हैं
अप्पाणं पि य सरणं, खमादि-भावेहिं परिणदं होदि । तिव्व-कषायाविट्ठो, अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥३१॥
अन्वयार्थः- [य अप्पाणं खमादिभावेहिं परिणदं होदि सरणं ] जो अपनेको क्षमादि दशलक्षणरूप परिणत करता है सो शरण है [तिव्वकषायाविट्ठो अप्पेण अप्पाणं हणदि ] और जो तीनकषाययुक्त होता है सो अपने ही द्वारा अपनेको हनता है ।
भावार्थः-परमार्थसे विचार करें तो (स्वयं अपना गुरु-शिष्य, उपास्य-उपासक, भक्त-भगवान और स्वयं ही शत्रु व मित्र है)। आपही अपनी रक्षा करनेवाला है तथा आपही घातनेवाला है । (ज्ञातास्वभावकी अरुचि ही क्रोध है और रागादि करने योग्य है, मेरे है वह रागादि की रुचि है उसीका नाम निश्चयसे क्रोध है)। क्रोधादिरूप परिणाम करता है तब शुद्ध चैतन्यका घात होता है और क्षमादि परिणाम करता है तब अपनी रक्षा होती है । इन ही भावोंसे जन्ममरणसे रहित होकर अविनाशीपद प्राप्त होता है।
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