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________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा * दोहा * वस्तुस्वभाव विचारतें, शरण आपकू आप। व्यवहारे पंच परमगुरु, अवर सकल संताप ॥२॥ इति अशरणानुप्रेक्षा समाप्ता ॥२॥ संसार-अनुप्रेक्षा पहले दो गाथाओं में संसारका सामान्य स्वरूप कहते हैं एक चयदि शरीरं, अण्णं गिण्हेदि णवणवं जीवो। पुणु पुणु अण्णं अण्णं, गिराह दि मुचेदि बहुवारं ॥३२॥ एक्कं जं संसरणं, णाणादेहेसु हवदि जीवस्त । सो संसारो भएणदि, मिच्छकसाएहिं जुत्तस्य ॥३३॥ अन्वयार्थः-[ मिच्छकसायेहि जुत्तम्स जीवस्स ] मिथ्यात्व कहिये सर्वथा एकान्तरूप वस्तुको श्रद्धा में लाना और कषाय कहिये क्रोध, मान, माया, लोभ इनसे युक्त इस जीवका [जं णाणादेहेसु संसरणं हवदि ] जो अनेक शरीरों में संसरण कहिये भ्रमण होता है [ सो संसारो भण्णदि] वह संसार कहलाता है । वह किस तरह ? सो ही कहते हैं। [जीवो एक्कं शरीरं चयदि ] यह जीव एक शरीरको छोड़ता है [पुण णवणवं गिण्हेदि ] फिर नवीन (शरीर) को ग्रहण करता है [ पुण अण्णं अण्णं बहुवारं गिण्हदि मुंचेदि ] फिर अन्य अन्य शरीरको कई बार ग्रहण करता है और छोड़ता है [ सो संसारो भण्णदि ] वह ही संसार कहलाता है। भावार्थ:-( निश्चयसे अपनेको भूल जाना रूप मिथ्यात्व ही संसार है और व्यवहारसे ) एक शरीरसे अन्य शरीरको प्राप्ति होते रहना सो संसार है। अब ऐसे संसार में संक्षेपसे चार गतियां हैं तथा अनेक प्रकारके दुःख हैं। सो प्रथम ही नरकगतिमें दुःख हैं यह छह गाथाओंमें कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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