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लोकानुप्रेक्षा अब उसी प्रकार जीव भी जीवका उपकार करता है ऐसा कहते हैं
जीवा वि दु जीवाणं, उवयारं कुणदि सव्वपच्चक्खं ।
तत्थ वि पहाणहेऊ, पुण्णं पावं च णियमेण ॥२१॥
अन्वयार्थः-[ जीवा वि दु जीवाणं उवयारं कुणदि ] जीव भी जीवोंके परस्पर उपकार करते हैं [ सव्व पञ्चक्खं ] यह सबके प्रत्यक्ष ही है। स्वामी सेवकका, सेवक स्वामीका; आचार्य शिष्यका, शिष्य आचार्यका; पितामाता पुत्रका, पुत्र पितामाताका: मित्र मित्रका, स्त्री पतिका इत्यादि प्रत्यक्ष माने जाते हैं। [ तत्थ वि ] उस परस्पर उपकार में भी [ पुण्णं पावं च णियमेण ] पुण्यपापकर्म नियमसे [ पहाणहेऊ ] प्रधान कारण हैं ।
अब पुद्गलके बड़ी शक्ति है ऐसा कहते हैं
का वि अपुव्वा दीसदि, पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती । केवलणाणसहाओ, विणासिदो जाइ जीवस्स ॥२११॥
अन्वयार्थः-[पुग्गलदव्वस्स] पुद्गल द्रव्यकी [ का वि ] कोई [ एरिसी । ऐसी [ अपुव्वा ] अपूर्व [ सत्ती ] शक्ति [ दीसदि ] दिखाई देती है | जाइ जीव जिससे जीवका [ केवलणाणसहाओ विणासिदो ] केवलज्ञान स्वभाव नष्ट हो रहा है।
भावार्थ:-जीवमें अनन्त शक्ति है । उसमें केवलज्ञानशक्ति ऐसी है कि जिसके प्रगट होने पर यह जीव सब पदार्थों को एक समय में जान लेता है। ऐसे प्रकाशको पुद्गल नष्ट कर रहा है, नहीं होने देता है तो यह अपूर्व शक्ति है । ऐसे पुद्गल द्रव्यका वर्णन किया ।
[निश्चय उपादानकी बातको गौण करके निमित्तकी ओरका यह कथन है, आवरणका अर्थ आच्छादन है-जीवमें जो शक्ति है उसे जीव स्वयं व्यक्त नहीं करता वहाँ तक निमित्तकी ओर झुकावका कथन है ] ।
-+-[ यदि जड़कर्म जीवके ज्ञानादिकका घात निमित्तकी ओरसे करता हो, तो प्रश्न केवलज्ञान आपके पास कब प्रगट था ? जो उसका कर्मोने घात किया ? ] ।
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