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________________ १३२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा [ देसजम सीललेसं पि ] देशव्रत (श्रावकव्रत) शीलवत (ब्रह्मचर्य अथवा सप्तशील) का लेश भी नहीं पाता है । अब कहते हैं कि इस मनुष्यगतिमें ही तपश्चरणादिक हैं ऐसा नियम हैमणुवगईए वि तो, मणुवुगईए महव्वदं सयलं । मणुवगईए झाणं, मणुवगईए वि णिवाणं ।।२६६॥ अन्वयार्थः-[ मणुवगईए वि तओ ] हे भव्यजीवो ! इस मनुष्यगतिमें ही तपका आचरण होता है [ मणुवुगईए सयलं महव्वदं ] इस मनुष्य गति में ही समस्त महाव्रत होते हैं [ मणुवगईए झाणं ] इस मनुष्यगतिमें ही धर्मशुक्लध्यान होते हैं [ मणुवगईए वि णिवाणं] और इस मनुष्यगति में ही निर्वाण ( मोक्ष ) की प्राप्ति होती है। इय दुलहं मणुयत्तं, लहिऊणं जे रमन्ति विसएसु । ते लहिय दिव्वरयणं, भूइणिमित्तं पजालंति ॥३००। अन्वयार्थः- [इय दुलहं मणुय लहिऊणं जे विसएसु रमन्ति ] ऐसा यह दुर्लभ मनुष्यत्व पाकर भी जो इन्द्रियोंके विषयोंमें रमण करते हैं [ ते दिव्यरयणं लहिय भूइणिमित्तं पजालंति ] वे दिव्य ( अमूल्य ) रत्नको पाकर, भस्मके लिये दग्ध करते हैं-जलाते हैं। भावार्थ:-अत्यन्त कठिनाईसे पाने योग्य यह मनुष्यपर्याय अमूल्य रत्नके समान है, उसको विषयोंमें रमणकर वृथा खोना उचित ( योग्य ) नहीं है । अब कहते हैं कि इस मनुष्यपर्याय में रत्नत्रयको पाकर बड़ा आदर करो इय सव्वदुलहदुलहं, दसण णाणं तहा चरित्तं च । मुणिउण य संसारे, महायरं कुणह तिण्हं पि ॥३०१॥ अन्वयार्थः- [इय ] इसप्रकार [ संसारे ] संसारमें [ देसण गाणं तहा चरित्र च ] दर्शन ज्ञान और चारित्रको [ सव्वदुलहदुलहं ] सब दुर्लभसे भी दुर्लभ ( अत्यन्त दुर्लभ ) [ मणिउण य ] जानकर [तिण्हं ति ] दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों में हे भव्यजीवो ! [ महायरं कुणह ] बड़ा आदर करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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