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________________ धर्मानुप्रेक्षा १३३ भावार्थ:-निगोदसे निकल कर पहिले कहे अनुक्रमसे दुर्लभसे दुर्लभ जानो, उसमें भी सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ जानो, उसको पाकर भव्यजीवोंको महान् आदर करना योग्य है। छप्पय । बसि निगोदचिर निकसि खेद सहि धरनि तरुनि बहु । पवनवोद जल अगि निगोद लहि जरन मरन सहु ।। लट गिंडोल उटकण मकोड तन भमर भमणकर । जलविलोलपशु तन सुकोल, नभचर सर उरपर । फिरि नरकपात अति कष्टसहि, कष्टकष्ट नरतन महत । तहँ पाय रत्नत्रय चिगद जे, ते दुर्लभ अवसर लहत ।।११।। इति बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा समाप्ता ।।११।। धर्मानुप्रेक्षा अब धर्मानुप्रेक्षाका निरूपण करते हैं । पहिले धर्मके मूल सर्वज्ञ देव हैं उनको प्रगट करते हैं जो जाणदि पच्चक्खं, तियालगुणपज्जएहि संजुरी । लोयालोयं सयलं, सो सव्वण्हू हवे देओ ॥३०२॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो [ सयलं ] समस्त [ लोयालोयं ] लोक और अलोकको [ तियालगुणपजएहि संजुत्तं ] तीनकालगोचर समस्त गुण पर्यायोंसे संयुक्त [ पञ्चक्खं ] प्रत्यक्ष [ जाणदि ] जानता है [ सो सव्वण्हू देओ हवे ] वह सर्वज्ञ देव है। भावार्थ:-इस लोकमें जीव द्रव्य अनन्तानन्त हैं। उनसे अनन्तानन्तगुणे पुद्गल द्रव्य हैं । एक एक आकाश, धर्म, अधर्म द्रव्य हैं । असंख्यात कालाणु द्रव्य हैं । लोकके बाहर अनन्तप्रदेशी आकाशद्रव्य अलोक है । इन सब द्रव्योंके अतीत काल अनन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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