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________________ १३४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा समयरूप, आगामी काल उनसे अनन्तगुणा समयरूप है, उस कालके समयसमयवर्ती एक द्रव्यको अनन्त अनन्त पर्यायें हैं । उन सब द्रव्यपर्यायोंको युगपत् एक समय में प्रत्यक्ष स्पष्ट भिन्न भिन्न जैसे हैं वैसे जाननेवाला ज्ञान जिसके है, वह सर्वज्ञ है। वह ही देव है । औरोंको देव कहते हैं सो कहनेमात्र हैं । यहाँ कहने का तात्पर्य ऐसा है कि अब धर्मका वरूप कहेंगे, सोधर्मका स्वरूप यथार्थ इन्द्रियगोचर नहीं, अतीन्द्रिय है । उसका फल स्वर्ग मोक्ष है, वे भी अतीन्द्रिय हैं । छद्मस्थके इन्द्रियज्ञान होता है, परोक्ष इसके गोचर नहीं होता है । जो सब पदार्थोंको प्रत्यक्ष देखता है वह धर्मके स्वरूपको भी प्रत्यक्ष देखता है, इसलिये धर्मका स्वरूप सर्वज्ञके वचनहीसे प्रमाण है । अन्य छद्मस्थका कहा हुआ प्रमाण नहीं है । अतः सर्वज्ञके वचनकी परम्परासे जो छद्मस्थ कहता है सो प्रमाण है इसलिये धर्मका स्वरूप कहने के लिये प्रारम्भमें सर्वज्ञको स्थापन किया गया। अब जो सर्वज्ञको नहीं मानते हैं उनके प्रति कहते हैं - जदि ण हवदि सबगहू, ता को जाणदि अदिदियं अत्थं । इन्दियणाणं ण मुणदि, थूलं पि असेस पज्जायं ॥३०३।। अन्वयार्थ:-[ जदि सव्वण्हू ण हवदि ] हे सर्वज्ञके अभाववादियों ! यदि सर्वज्ञ नहीं होवे [ ता अदिदियं अत्थं को जाणदि ] तो अतीन्द्रिय पदार्थ ( जो इन्द्रियगोचर नहीं है ) को कौन जानता ? [ इंदियणाणं ] इन्द्रियज्ञान तो [थूलं ] स्थूलपदार्थ ( इन्द्रियोंसे सम्बन्धरूप वर्तमान ) को जानता है [ असेस पजायं पिण मुणदि ] उसकी समस्त पर्यायोंको भी नहीं जानता । भावार्थ:-सर्वज्ञका अभाव मीमांसक और नास्तिक कहते हैं उनका निषेध किया है कि यदि सर्वज्ञ न होवे तो अतीन्द्रिय पदार्थको कौन जाने ? क्योंकि धर्म और अधर्मका फल अतीन्द्रिय है उसको सर्वज्ञके बिना कोई नहीं जानता इसलिये धर्म अधर्म के फलको चाहनेवाले पुरुष सर्वज्ञको मानकर, उसके वचनसे धर्मके स्वरूपका निश्चय कर अंगीकार करो। तेणुवइट्ठो धम्मो, संगासत्ताण तह असंगाणं । पढमो बारहभेश्रो, दसभेो भासिओ बिदिओ ॥३०४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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