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________________ १३७ धर्मानुप्रेक्षा अन्वयार्थः- [ अणउदयादो छण्ह ] पूर्वोक्त सात प्रकृतियों में से छह प्रकृतियोंका उदय न हो [ सजाइरूवेण उदयमाणाणं ] सजाति ( समान जातीय ) प्रकृतिसे उदयरूप हो [ सम्मत्तकम्मउदए ] सम्यक् कर्मप्रकृतिका उदय होने पर [ खयउवसमियं सम्म हवे ] क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है । भावार्थ:-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्वके उदयका अभाव हो, सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय हो, अनन्तानुबन्धो क्रोध मान माया लोभके उदयका अभाव हो अथवा उनका विसंयोजन करके अप्रत्याख्यानावरण आदिक रूपसे उदयमान हो तब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । इन तीनों ही सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका विशेष कथन गोम्मटसार लब्धिसारसे जानना। अब औपशमिक-क्षायोपशमिक सम्यक्त्व तथा अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन और देशव्रत इनका पाना और छूट जाना उत्कृष्टतासे कहते हैं गिरहदि मुञ्चदि जीवो, वे सम्मत्ते असंखवाराओ। पढमकसायविणासं, देसवय कुणदि उक्किटुं ॥३१०॥ अन्वयार्थः- [जीवो ] यह जीव [ वे सम्म ] औपशमिक क्षायोपशमिक ये दो तो सम्यक्त्व [ पढमकसायविणासं ] अनन्तानुबन्धीका विनाश अर्थात् विसंयोजनरूप, अप्रत्याख्यानादिकरूप परिणमाना [ देसवयं ] और देशव्रत इन चारोंको [असंखवाराओ] असंख्यातबार [ गिण्हदि मुंचदि ] ग्रहण करता है और छोड़ता है [ उकिट्ठ ] यह उत्कृष्टतासे कहा है। भावार्थ:-पल्यके असंख्यातवें भाग परिमाण जो असंख्यात उतनी बार उत्कृष्टतासे ग्रहण करता है और छोड़ता है, बादमें भी मोक्षकी प्राप्ति होती है। अब, सात प्रकृतियोंके उपशम, क्षय, क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ सम्यक्त्व किसप्रकार जाना जाता है ऐसे तत्त्वार्थश्रद्धानको नौ गाथाओंमें कहते हैं जो तच्चमणेयंतं, णियमा सद्दहदि सत्तभंगेहिं । लोयाण पण्हवसदो, ववहारपवत्तण? च ॥३११॥ जो आयरेण मण्णदि, जीवाजीवादि णवविहं अत्थं । सुदणाणेण णएहि य, सो सद्दिट्ठी हवे सुद्धो ॥३१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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