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________________ १३८ कार्तिकेयानुप्रक्षा अन्वयार्थ:-[जो सत्तभंगेहिं अणेयंतं तच्चं णियमा सद्द हदि ] जो पुरुष सात भंगोंसे अनेकान्त तत्त्वोंका नियमसे श्रद्धान करता है [ लोयाण पण्हवसदो ववहारपवत्तणटुं च] क्योंकि लोगोंके प्रश्नके वशसे विधिनिषेध वचनके सात ही भंग होते हैं इसलिये व्यवहारकी प्रवृत्तिके लिए भी सात भंगोंके वचनकी प्रवृत्ति होती है [ जो जीवाजीवादि णवविहं अत्थं ] जो जीव अजीव आदि नौ प्रकारके पदार्थोंको [ सुदणाणेण णएहि य ] श्रुतज्ञान प्रमाणसे तथा उसके भेदरूप नयोंसे [ आयरेण मण्णदि ] अपने आदर-यत्नउद्यमसे मानता है-श्रद्धान करता है [ सो सुद्धो सहिट्ठी हवे ] वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है। भावार्थ:-वस्तुका स्वरूप अनेकान्त है। जिसमें अनेक अन्त ( धर्म ) होते हैं उसको अनेकान्त कहते हैं । वे धर्म अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, अपेक्षत्व, दैवसाध्यत्व, पौरुषसाध्यत्व हेतुसाध्यत्व, आगमसाध्यत्व, अन्तरङ्गत्व, बहिरङ्गत्व इत्यादि तो सामान्य हैं । और द्रव्यत्व, पर्यायत्व, जीवत्व, अजीवत्व, स्पर्शत्व, रसत्व, गन्धत्व, वर्णत्व, शब्दत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व, मूर्त्तत्व, अमूर्त्तत्व, संसारित्व, सिद्धत्व, अवगाहनत्व, गतिहेतुत्व स्थिति हेतुत्व, वर्त्तनाहेतुत्व इत्यादि विशेष धर्म हैं । सो उनके प्रश्नके वशसे विधिनिषेधरूप वचनके सात भंग होते हैं । उनके 'स्यात्' पद लगाना चाहिये । स्यात् पद कथंचित् (कोई प्रकार) ऐसे अर्थ में आता है। उससे वस्तुको अनेकान्तरूप सिद्ध करना चाहिये । वस्तु 'स्यात् अस्तित्वरूप' है, ऐसे किसी तरह अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावसे अस्तित्वरूप हैं । वही वस्तु 'स्यात् नास्तित्वरूप' है, ऐसे पर वस्तुके द्रव्य क्षेत्र काल भावसे नास्तित्वरूप हैं। वस्तु 'स्यात् अस्तित्व नास्तित्व रूप' है, इस तरह वस्तुमें दोनों हो धर्म पाये जाते हैं और वचनसे क्रमपूर्वक कहे जाते हैं । वस्तु 'स्यात् अवक्तव्य' है, इस तरह वस्तुमें दोनों ही धर्म एक कालमें पाये जाते हैं तथापि एक कालमें वचनसे नहीं कहे जाते हैं इसलिये किसीप्रकार अवक्तव्य है । अस्तित्वसे कहा जाता है, दोनों एक काल हैं इसलिये एक साथ कहा नहीं जाता है, इस तरह वक्तव्य भी है और अवक्तव्य भो है इसलिये 'स्यात् अस्तित्व अवक्तव्य' है । ऐसे ही नास्तित्व अवक्तव्य है, दोनों धर्म क्रमसे कहे जाते हैं, एक साथ नहीं कहे जाते हैं इसलिये 'स्यात् अस्तित्व नास्तित्व अवक्तव्य' है । ऐसे सात ही भंग किसी तरह सम्भव होते हैं। ऐसे ही एकत्व अनेकत्व आदि सामान्य धर्मों पर सात भंग विधिनिषेधसे लगा लेना चाहिये । जैसी २ जहाँ अपेक्षा सम्भव हो सो लगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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