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________________ धर्मानुप्रेक्षा १३६ लेना चाहिये । ऐसे ही विशेषत्व धर्म जीवत्व आदिमें लगा लेना चाहिये, जैसे-जीव नामक वस्तु है उसमें स्यात् जीवत्व स्यात् अजीवत्व इत्यादि लगा लेना चाहिये । यहाँ अपेक्षा ऐसे-जो अपना जीवत्व धर्म आपमें है इसलिये जीवत्व है, पर अजीवका अजीवत्व धर्म इसमें नहीं है तथा अपने अन्यधर्मको मुख्य कर कहता है उसकी अपेक्षा अजीवत्व है इत्यादि लगा लेना चाहिये । जीव अनन्त हैं उसकी अपेक्षा अपना जीवत्व आपमें है, परका जीवत्व इसमें नहीं है, इसलिये उसकी अपेक्षा अजीवत्व है ऐसे भी सिद्ध होता है । इत्यादि अनादि निधन अनन्त जीव अजीव वस्तुएँ हैं, उनमें अपने अपने द्रव्यत्व पर्यायत्व अनन्त धर्म हैं उन सहित सात भंगसे सिद्ध कर लेना चाहिये, तथा उनकी स्थूल पर्यायें हैं वे भी चिरकालस्थायी अनेक धर्मरूप होती हैं जैसे-जीव, संसारी सिद्ध, संसारीमें बस स्थावर, उनमें मनुष्य तिर्यंच इत्यादि । पुद्गल में अणु स्कन्ध तथा घट पट आदि, सो इनके भी कथंचित् वस्तुत्व सम्भव है, वह भी वैसे ही सात भंगोंसे सिद्ध कर लेना चाहिये । ऐसे हो जीव पुद्गलके संयोगसे हुए आस्रव बन्ध संवर निर्जरा पुण्य पाप मोक्ष आदि भाव उनमें भी बहु धर्मत्वको अपेक्षा तथा परस्पर विधिनिषेधसे अनेक धर्मरूप कथंचित् वस्तुत्व सम्भव है, सो सात भंगोंसे सिद्ध कर लेना चाहिये। जैसे एक पुरुषमें पिता पुत्र मामा भाणजा काका भतीजापणा आदि धर्म सम्भवते हैं, उनको अपनी अपनी अपेक्षासे विधिनिषेध द्वारा सात भंगोंसे सिद्ध कर लेना चाहिये । ऐसा नियमसे जानना कि वस्तुमात्र अनेक धर्मस्वरूप है सो सबको अनेकान्त जानकर श्रद्धान करता है और वैसे ही लोकमें व्यवहार प्रवर्ताता है । वह सम्यग्दृष्टि है । जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, पुण्य-पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये नौ पदार्थ हैं उनको वैसे ही सात भंगोंसे सिद्ध कर लेना चाहिये, उनका साधन श्रुतज्ञान प्रमाण है और उसके भेद द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक, उनके भी भेद नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय हैं । उनके भी उत्तरोत्तर भेद जितने वचनके प्रकार हैं उतने हैं, उनको प्रमाणसप्तभंगी और न यसप्तभंगीके विधानसे सिद्ध करते हैं । उनका वर्णन पहिले लोकभावनामें कर चुके हैं । उनका विशेष वर्णन तत्त्वार्थसूत्रकी टीकासे जानना चाहिये । ऐसे प्रमाण और नयोंसे जीवादि पदार्थोंको जानकर श्रद्धान करता है वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है। ___ यहाँ यह विशेष जानना चाहिये कि जो नय हैं वे वस्तुके एक २ धर्मको ग्रहण करने वाले हैं, वे अपने अपने विषयरूप धर्मको ग्रहण करने में समान हैं तो भी पुरुष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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