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________________ धर्मानुप्रेक्षा १८७ प्रकारका कहा गया है । उसका वर्णन आगे चूलिकामें होगा, ऐसे तपधर्मका वर्णन किया। अब त्यागधर्मको कहते हैं जो चयदि मिट्ठभोज्जं, उवयरणं रायदोससंजणयं । वसर्दि ममत्तहेदु, चायगुणो सो हवे तस्स ॥४०१॥ अन्वयार्थः-[ जो मिट्ठभोज्जं चयदि ] जो मुनि मिष्ट भोजनको छोड़ता है [ रायदोससंजणयं उवयरणं ] रागद्वेष उत्पन्न करनेवाले उपकरणको छोड़ता है [ ममचहेदूं वसदिं ] ममत्वका कारण वसतिकाको छोड़ता है [ तस्स चायगुणो हवे ] उस मुनिके त्याग नामका धर्म होता है । __ भावार्थः-मुनिके संसार देह भोगके ममत्वका त्याग तो पहिले हो है । जिन वस्तुओंसे काम पड़ता है उनको मुख्यरूपसे कहा है । आहारसे काम पड़े तो सरस नीरसका ममत्व नहीं करे, धर्मोपकरण पुस्तक पीछी कमण्डलु जिनसे राग तीव्र बँधे ऐसे न रक्खे, जो गृहस्थजनके काम न आवे, बड़ो वसतिका रहनेकी जगहसे काम पड़े तो ऐसी जगह न रहे जिससे ममत्व उत्पन्न हो, ऐसे त्याग धर्मका वर्णन किया । अब आकिंचन्य धर्मको कहते हैंतिविहेण जो विवज्जदि, चेयणमियरं च सव्वहा संगं। लोयववहारविरदो, णिग्गंथत्तं हवे तस्स ॥४०२॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो मुनि [ लोयववहारविरदो ] लोक व्यवहारसे विरक्त होकर [ चेयणमियरं च सव्वहा संगं ] चेतन अचेतन परिग्रहको सर्वथा [ तिविहेण विवजदि ] मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनासे छोड़ता है [ तस्स णिग्गंथ हवे ] उस मुनिके निर्ग्रन्थत्व होता है। भावार्थः-मुनि अन्य परिग्रह तो छोड़ता ही है परन्तु मुनित्वके योग्य ऐसे चेतन तो शिष्य संघ और अचेतन पुस्तक पिच्छिका कमण्डलु धर्मोपकरण और आहार वसतिका देह ये अचेतन इनसे भी सर्वथा ममत्व छोड़े ऐसा विचारे कि मैं तो आत्मा ही हूँ अन्य मेरा कुछ भी नहीं है मैं अकिंचन है ऐसा निर्ममत्व हो उसके आकिंचन्य धर्म होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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