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कार्तिकेयानुप्रेक्षा क्षेपण करना सो प्रतिष्ठापना शुद्धि है । जहाँ स्त्री, दुष्ट जीव, नपुंसक, चोर, मद्यपायो, जीव-बध करनेवाले, नीच लोग रहते हों वहां न रहना सो शयनासनशुद्धि है, शृङ्गार विकार आभूषण सुन्दरवेश ऐसी वेश्यादिककी क्रीडा जहां होती हो, सुन्दर गीत नृत्य वादित्र जहाँ होते हों, जहां विकारके कारण नग्न गुह्यप्रदेश जिनमें दिखाई दे ऐसे चित्र हों, जहां हास्य महोत्सव घोड़े आदिको शिक्षा देनेका स्थान तथा व्यायामभूमि हो, वहां मुनि न रहे, जहां क्रोधादिक उत्पन्न हो ऐसे स्थान पर न रहे सो शयनासनशुद्धि है, जब तक कायोत्सर्ग खड़े रहनेको शक्ति हो तबतक स्वरूपमें लोन होकर खड़े रहें बाद में बैठे तथा खेदको दूर करने के लिये अल्पकाल सोवे । जहाँ आरम्भ की प्रेरणारहित वचन प्रवर्ते, युद्ध, काम, कर्कश, प्रलाप, पैशुन्य, कठोर, परपीड़ा करनेवाले वाक्य न प्रवर्ते, विकथाके अनेक भेद हैं वैसे वचन नहीं प्रवर्ते, जिनमें व्रत शीलका उपदेश हो, अपना परका हित हो, मीठे, मनोहर, वैराग्यके कारण, अपनी प्रशंसा दूसरेकी निन्दासे रहित, संयमी योग्य वचन प्रवर्तं सो वाक्य शुद्धि है । ऐसा संयम धर्म है, संयमके पाँच भेद कहे हैं-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात ऐसे पांच भेद हैं, इनका विशेष वर्णन अन्य ग्रन्थोंसे जानना।
अब तपधर्मको कहते हैंइहपरलोयसुहाणं, हिरवेक्खो जो करेदि समभावो । विविहं कायकिलेसं, तबधम्मो हिम्मलो तस्स ॥४००॥
अन्वयार्थः-[जो ] जो मुनि [ इहपरलोयसुहाणं णिरवेक्खो ] इसलोक परलोकके सुख की अपेक्षासे रहित होता हुआ [ समभावो ] सुखदुःख शत्रु मित्र तृण कंचन निन्दा प्रशंसा आदिमें रागद्वेष रहित समभावी होता हुआ [ विविहं कायकिलेसं ] अनेक प्रकार कायक्लेश [ करेदि ] करता है [ तस्स णिम्मलो तवधम्मो ] उस मुनिके निर्मल तपधर्म होता है ।
भावार्थः-चारित्रके लिये जो उद्यम और उपयोग करता है सो तप कहा है। वह कायक्लेश सहित ही होता है इसलिये आत्माको विभावपरिणतिके संस्कारको मिटानेके लिए उद्यम करता है । अपने शुद्धस्वरूप उपयोगको चारित्रमें रोकता है, बड़े बलपूर्वक रोकता है ऐसा बल करना ही तप है । वह बाह्य आभ्यन्त रके भेदसे बारह
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