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धर्मानुप्रेक्षा
१८५ पालनके लिये आठ शुद्धियोंका उपदेश है, १ भावशुद्धि २ कायशुद्धि ३ विनय शुद्धि ४ ईर्यापथशुद्धि ५ भिक्षाशुद्धि ६ प्रतिष्ठापना शुद्धि ७ शयनासन शुद्धि ८ वाक्यशुद्धि ।
भावशुद्धि तो, जैसे शुद्ध (उज्ज्वल) भोंति ( दिवार ) में चित्र शोभायमान दिखाई देता है वैसे-ही कर्मके क्षयोपशम जनित है इसलिये उसके बिना तो आचार ही प्रगट नहीं होता है । दिगम्बररूप सब विकारोंसे रहित यत्नरूप जिसमें प्रवृत्ति है, शान्त मुद्रा जिसको देखकर दूसरोंको भय उत्पन्न नहीं होता है तथा आप भी निर्भय रहता है, ऐसी कायशुद्धि है । अरहन्त आदिमें भक्ति, गुरुओंके अनुकूल रहना सो विनयशुद्धि है । मुनि जीवोंके सब स्थान जानते हैं इसलिये अपने ज्ञानसे, सूर्य के प्रकाशसे, नेत्र इन्द्रियसे मार्गको अतियत्नसे देखकर गमन करते हैं सो र्यापथशुद्धि है। भोजनके लिये गमन करे तब पहिले तो अपने मलमूत्रकी बाधाको परीक्षा करे, अपने अंगका अच्छी तरह प्रतिलेखन करे, आचारसूत्र में कहे अनुसार देश काल स्वभावको विचारे और इतनी जगह आहारके लिये नहीं जावे-जिनके गीत नृत्य वादित्रकी आजीविका हो उनके घर पर नहीं जावे, जहाँ प्रसूति हुई हो वहाँ नहीं जावे, जहाँ मृत्यु हुई हो वहाँ नहीं जावे, वेश्याके नहीं जावे, पापकर्म हिंसाकर्म जहाँ हो वहाँ नहीं जावे, दीनके घर, अनाथके घर, दानशाला, यज्ञशाला, यज्ञ, पूजनशाला, विवाह आदि मंगल जहाँ हो रहे हों, इन सबके आहारके लिये नहीं जावे । धनवानके जाना या निर्धनके जाना ऐसा विचार न करे, लोकनिंद्यकुलके घर नहीं जावे, दीनवृत्ति नहीं करे, प्रासुक आहार ले, आगमके अनुसार दोष अन्तराय टालकर निर्दोष आहारले, सो भिक्षाशुद्धि है । यहाँ लाभ अलाभ सरस नीरसमें समानबुद्धि रखता है । भिक्षा पांच प्रकारकी कही है १ गोचर २ अक्षम्रक्षण ३ उदराग्निप्रशमन ४ भ्रमराहार ५ गर्तपूरण । गो की जैसे दातारको सम्पदादिककी तरफ न देखे, जैसा पावे वैसा आहार लेनेहीमें चित्त रक्खे सो गोचरीवृत्ति है । जैसे गाड़ीको वांगि ( पहियोंमें तेल देकर ) ग्राम पहुँचे वैसे संयमके साधक कायको निर्दोष आहार देकर संयम साधे सो अक्षम्रक्षण है। आग लगने पर जैसे तैसे जलसे बुझा कर घरको बचावे वैसे ही क्षुधा अग्निको सरस नीरस आहारसे बुझा कर अपने परिणाम उज्ज्वल रक्खे सो उदराग्नि प्रशमन है । भौंरा जैसे फूलको बाधा नहीं करता है और वासना ( गंध ) लेता है वैसे ही मुनि दातारको बाधा न पहुँचा कर आहार ले सो भ्रमराहार है । जैसे गर्त ( गड्ढा ) को जैसे तैसे भरतसे भरते हैं वैसे ही मुनि स्वादु निःस्वादु आहारसे उदर भरें सो गर्त्तपूरण है, ऐसे भिक्षाशुद्धि होती है । मल मूत्र श्लेष्म थूक आदिका जीवोंको देखकर यत्नपूर्वक
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