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________________ लोकानुप्रेक्षा ७५ अन्वयार्थः - [ चउरक्खा पंचक्खा ] चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय [ वैयक्खा तह य जाण तेयक्खा ] द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, [ एदे पजशिजुदा ] ये पर्याप्तिसहित जीव [कमेव ] अनुक्रमसे [ अहिया अहिया ] अधिक अधिक जानो । परिवज्जिय सुहुमाणं, सेसतिरिक्खाण पुराणदेहाणं । इक्को भागो होदि हु, संखातीदा अपुराणं ॥। १५६ ।। अन्वार्थः – [ सुहुमाणं परिवज्जिय ] सूक्ष्म जीवोंको छोड़कर [ सेसतिरिक्खाण पुण्णदेहाणं ] अवशेष पर्याप्तितिर्यंच हैं [ इक्को भागो होदि हु ] उनका एक भाग तो पर्याप्त है [ संखातीदा अपुण्णाणं ] और बहुभाग असंख्याते अपर्याप्त हैं । भावार्थ:-वादर जीवों में पर्याप्त थोड़े हैं, अपर्याप्त बहुत हैं । सुहुमापज्जत्ताणं, इक्को भागो हवेइ यि मेण । संखिज्जा खलु भागा, तेसिं पज्जत्तिदेहाणं ॥ १५७॥ अन्वयार्थः – [ सुहुमापजत्ताणं ] सूक्ष्म पर्याप्तक जीव [ संखिञ्जा खलु भागा ] संख्यात भाग हैं [ तेसिं पञ्जचिदेहाणं ] उनमें अपर्याप्तक जीव [ नियमेण ] नियमसे [ इक्को भागो हवे ] एक भाग हैं । भावार्थ:- सूक्ष्म जीवोंमें पर्याप्त बहुत हैं अपर्याप्त थोड़े हैं । संखिज्जगुणा देवा, अंतिमपटलादु आणदं जाव । तत्तों संखगुणिदा, सोहम्मं जाव पडि पडलं ॥ १५८ ॥ अन्वयार्थः - [ देवा अंतिमपटलादु आणदं जाव ] देव अन्तिमपटल ( अनुत्तर विमान ) से लेकर नीचे आनत स्वर्गके पटलपर्यंत [ संखिञ्जगुणा ] संख्यातगुणे हैं [ तत्तो ] उसके बाद नीचे [ सोहम्मं जाव ] सौधर्मपर्यंत [ असंखगुणिदा ] असंख्यातगुणे [ पडिपडलं ] पटलपटलप्रति हैं । सत्तमरणारयहिंतो, असंखगुणिदा हांति रइया | जावय पढमं णरयं, बहुदुक्खा होंति हेट्ठिट्ठा ||१५६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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