SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थ :- [ देवाविणारया वि य लद्धियपुण्णा हु ] देव, नारकी, लब्ध्यपर्याप्त [ सम्मुच्छिया वि मणुया ] और सम्मूर्छन मनुष्य [ संतरा होंति ] ये तो सान्तर ( अन्तर सहित ) हैं [ सेसा सव्वे निरंतरया ] अवशेष सब जीव निरन्तर हैं । ७४ भावार्थ:- पर्यायसे अन्य पर्याय पावे, फिर उसी पर्यायको पावे, जबतक बीच में अन्तर रहे उसको सान्तर कहते हैं । यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर कहा है । जो देव, नारकी मनुष्य तथा लब्ध्यपर्याप्तक जीवकी उत्पत्ति किसी कालमें न होय सो अन्तर कहलाता है और अन्तर न पड़े सो निरन्तर कहलाता है । वह वैक्रियकमिश्र काययोगी जो देव नारकी उनका तो बारह मुहूर्त्तका कहा है । कोई ही उत्पन्न न हो तो बारह मुहूर्त्त तक उत्पन्न नहीं होता है और सम्मूर्च्छन मनुष्य कोई ही न होय तो पल्यके असंख्यातवें भाग काल तक न होय । ऐसा अन्य ग्रन्थों में कहा है । अवशेष सब जीव निरन्तर उत्पन्न होते हैं । अब जीवोंकी संख्या कर अल्प बहुत्व कहते हैं यादो रइया, सव्वे हवंति देवा, Jain Education International रइयादो असंखगुणगणिया । पत्तेयवणफदी तत्तो ॥ १५३॥ अन्वयार्थः– [ मणुयादो रइया ] मनुष्योंसे नारकी [ असंखगुणगणिया हवंति ] असंख्यात गुणे हैं [ शेरइयादो सव्वे देवा ] नारकियोंसे सब देव असंख्यात गुणे हैं [ तचो पत्तेयवणफदी ] देवोंसे प्रत्येक वनस्पति जीव असंख्यात गुणे हैं । पंचक्खा चउरक्खा, लद्धिपुयण्णा तहेव तेयक्खा । वेक्खाविकमसो, विसेससहिदा हु सव्व संखाए ॥१५४॥ अन्वयार्थः – [ पंचक्खा चउरक्खा ] पंचेन्द्रिय, चौइन्द्रिय [ तहेव तेयक्खा ] तेइन्द्रिय [ वेक्खावि य ] द्वीन्द्रिय [ सव्व लद्भियपुण्णा ] ये सब लब्ध्यपर्याप्तक जीव [ संखाए विसेससहिदा ] संख्या में विशेषाधिक हैं । कुछ अधिकको विशेषाधिक कहते हैं सो ये अनुक्रमसे बढ़ते बढ़ते हैं । चउरक्खा पंचक्खा, वेयक्खा, तह य जाण तेयक्खा | एदे पज्जचिजुदा, अहिया अहिया कमेणेव ॥ १५५ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy