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________________ संसार-अनुप्रेक्षा ३३ पर्याप्तकजीव स्वयोग्य सर्व जघन्य ज्ञानावरण प्रकृतिकी स्थिति अन्तःकोटाकोटीसागर प्रमाण बांधता है । उसके कषायोंके स्थान असंख्यात लोकमात्र हैं। उसमें सब जघन्यस्थान एकरूप परिणमते हैं, उसमें उस एक स्थान में अनुभागबन्धके कारण स्थान ऐसे असंख्यातलोकप्रमाण हैं। उनमें से एक सर्वजघन्यरूप परिणमता है, वहां उस योग्य सर्वजघन्य ही योगस्थानरूप परिणमते हैं, तब जगत्श्रेणीके असंख्यातवें भाग योगस्थान अनुक्रमसे पूर्ण करता है। बीचमें अन्य योगस्थानरूप परिणमता है वह गिनती में नहीं है । इस तरह योगस्थान पूर्ण होने पर अनुभागका स्थान दूसरारूप परिणमता है, वहां भी वैसे ही योगस्थान सब पूर्ण करता है। तीसरा अनुभागस्थान होता है वहां भी उतने ही योगस्थान भोगे। इस तरह असंख्यातलोकप्रमाण अनुभागस्थान अनुक्रमसे पूर्ण करे तब दूसरा कषायस्थान लेना चाहिए । वहां भी वैसे ही क्रमसे असंख्यातलोकप्रमाण अनुभागस्थान तथा जगत्श्रेणीके असंख्यातवें भाग योगस्थान पूर्वोक्त क्रमसे भोगे तब तीसरा कषायस्थान लेना चाहिये । इस तरहसे ही चतुर्थादि असंख्यात लोकप्रमाण कषायस्थान पूर्वोक्त क्रमसे पूर्ण करे, तब एकसमय अधिक जघन्यस्थिति स्थान लेना चाहिये, उसमें भी कषायस्थान अनुभागस्थान योगस्थान पूर्वोक्त क्रमसे भोगे। इस तरह दो समय अधिक जघन्यस्थितिसे लगाकर तीस कोड़ाकोड़ीसागर पर्यंत ज्ञानावरणकर्मको स्थिति पूर्ण करे । इस तरहसे ही सब मूलकर्मप्रकृति तथा उत्तरकर्मप्रकृतियोंका क्रम जानना चाहिये। इस तरह परिणमन करते हुए अनन्तकाल व्यतीत हो जाता है, उस सबको इकट्ठा करने पर एक भावपरिवर्तन होता है । इस तरहके अनन्त परावर्तन यह जीव* भोगता आया है। अब पंचपरावर्तनके कथनका संकोच करते हैं एवं अणाइकाले, पंचपयारे भमेइ संसारे। णाणादुक्खणिहाणो, जीवो मिच्छत्त-दोसेण ।।७२।। अन्वयार्थः-[ एवं ] इस तरह [ णाणादुक्खणिहाणो] अनेक प्रकारके दुःखोंके ॐ [ अपनी मूर्खताको ] | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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