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लोकानुप्रेक्षा
अन्वयार्थः - [ किं बहुणा उत्तेण य ] बहुत कहने से क्या ? [ जेचियमेचाणि णामाणि संति ] जितने नाम हैं [ तिचियमेत्ता ] उतने [ हि ] ही [ नियमेण ] नियमसे [ अत्था ] पदार्थ [ परमत्था ] परमार्थ रूप [ संति ] हैं ।
भावार्थ:- जितने नाम हैं उतने ही सत्यार्थ पदार्थ हैं, बहुत कहने से क्या | ऐसे पदार्थोंके स्वरूपका वर्णन किया ।
अब उन पदार्थोंको जाननेवाला ज्ञान है उसका स्वरूप कहते हैंगाणाधम्मेहिं जुदं, अप्पाणं तह परं पिच्छियदो | जं जादि सजोगं, तं गाणं भरणदे समये || २५३ ||
अन्वयार्थः–[ जं ] जो [ णाणाधम्मेहिं जुदं अप्पाणं तह परं पि ] अनेक धर्मयुक्त आत्मा तथा परद्रव्योंको [ सजोगं जाणेदि ] अपने योग्यको जानता है [ तं ] उसको [ णिच्छयदो ] निश्चयसे [ समये ] सिद्धान्त में [ णाणं भण्णदे ] ज्ञान कहते हैं। अपने आवरणके क्षयोपशम तथा क्षय के ज्ञान है । यह सामान्य ज्ञानका स्वरूप
भावार्थः – जो आपको तथा परको अनुसार जानने योग्य पदार्थको जानता है वह कहा गया है ।
अब सकलप्रत्यक्ष केवलज्ञानका स्वरूप कहते हैं
जं सव्वं पि पयासदि, दव्वपज्जायसंजुदं लोयं ।
तह य अलोयं सव्वं, तं गाणं सव्वपच्चक्खं ॥ २५४ ॥
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अन्वयार्थः - [ जं ] जो ज्ञान [ दव्वपज्जायसंजुदं ] द्रव्यपर्याय संयुक्त [ सव्वं षि ]
सब ही [ लोयं ] लोकको [ तह य सव्वं अलोयं ] तथा सब अलोकको [ पयासदि ] प्रकाशित करता है ( जानता है ) [ तं सव्वपच्चक्खं गाणं ] वह सर्वप्रत्यक्ष केलवज्ञान है |
अब ज्ञानको सर्वगत कहते हैं
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सव्वं जाणदि जम्हा, सव्वगयं तं पि बुच्चदे तम्हा | पु विसरदि गाणं, जीवं चइऊण अण्णत्थ ॥२५५ ।।
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