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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
अन्वयार्थः-[ जम्हा सब्र्व्वं जाणदि ] क्योंकि ज्ञान सब लोकालोकको जानता है [ तम्हा तं पि सव्वगयं बुच्चदे ] इसलिये ज्ञानको सर्वगत भी कहते हैं [ पुण ] और [ णाणं जीवं चऊण अण्णत्थ ] ज्ञान जीवको छोड़कर अन्य ज्ञेय पदार्थों में [ ण य विसरदि ] नहीं जाता है ।
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भावार्थ:- : -- ज्ञान सब लोकालोकको जानता है इस अपेक्षा ज्ञान सर्वगत तथा सर्वव्यापक कहलाता है परन्तु ज्ञान तो जीवद्रव्यका गुण है इसलिये जीवको छोड़कर अन्य पदार्थों में नहीं जाता है ।
अब ज्ञान जीवके प्रदेशों में रहता हुआ ही सबको जानता है ऐसा कहते हैंयं पि ण जादि गाणदेसम्म ।
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गाणं ण जादि यं यियिदे सठियाणं
ववहारो गणणेयाणं ॥ २५६॥
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अन्वयार्थः - [ णाणं णेयं ण जादि ] ज्ञान ज्ञेयमें नहीं जाता है [ यं पि देसम्म ण जादि ] और ज्ञेयभी ज्ञानके प्रदेशों में नहीं जाता है [णियणियदे सठियाणं ] अपने अपने प्रदेशोंमें रहते हैं तो भी ज्ञान और ज्ञेयके ज्ञेयज्ञायक व्यवहार है ।
भावार्थ:- जैसे दर्पण अपने स्थान पर है, घटादिक वस्तुएँ अपने स्थान पर हैं । तो भी दर्पण की स्वच्छता ऐसी है मोनों कि दर्पण में घट आकर ही बैठा है ऐसे ही ज्ञानज्ञेयका व्यवहार जानना चाहिये ।
अब मन:पर्यय अवधिज्ञान और मति श्रुतज्ञानकी सामर्थ्य कहते हैंमज्जयविरणा, ओहीणाां च देसपच्चक्खं । मइया कमसो, विसदपरोक्खं परोक्खंच ॥ २५७ ॥
अन्वयार्थः - [ मणपञ्जयविण्णाणं ओहीणाणं च देसपच्चक्खं ] मन:पर्ययज्ञान और अवधिज्ञान ये दोनों तो देशप्रत्यक्ष है [ महसुयणाणं कमसो विसदपरोक्खं परोक्खं च ] मतिज्ञान और श्रुतज्ञान क्रमसे प्रत्यक्षपरोक्ष और परोक्ष हैं ।
भावार्थ:- मन:पर्ययज्ञान, अवधिज्ञान एकदेशप्रत्यक्ष हैं क्योंकि जितना इनका विषय है उतना विशद ( स्पष्ट ) जानते हैं, सबको नहीं जानते हैं, इसलिये एकदेश कहलाते हैं । मतिज्ञान इन्द्रिय व मनसे उत्पन्न होता है इसलिये व्यवहारसे ( इन्द्रियों के
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