________________
२०८
कार्तिकेयानुप्रेक्षा संख्या ( गणना ) प्रतिज्ञा मनमें विचार कर चले वैसी ही विधि मिले तो आहार ले अन्यथा न ले [भोज्जं पसु व्व भुजदि] और आहार पशु गौ आदि की तरह करे (जैसे गौ इधर उधर नहीं देखती है चरने हो की तरफ देखतो है ) [तस्स वित्तिपमाणं तवो] उसके वृत्तिपरिसंख्यान तप है ।
भावार्थः-भोजनको आशाको निराश करनेके लिये यह तप है । संकल्प माफिक विधि मिलना दैवयोग है, यह बड़ा कठिन तप महामुनि करते हैं ।
अब रसपरित्याग तपको कहते हैंसंसारदुक्खतट्ठो, विससमविसयं विचिंतमाणो जो। णीरसभोज्जं भुजइ, रसचाओ तस्स सुविसुद्धो ॥४४४॥
अन्वयार्थ:-[ जो संसारदुक्खतट्ठो विससमविसयं विचिंतमाणो ] जो मुनि संसारके दुःखसे तप्तायमान होकर ऐसे विचार करता है कि इन्द्रियों के विषय विषसमान हैं विष खाने पर तो एक ही बार मरता है और विषय सेवन करने पर बहुत जन्म मरण होते हैं ऐसा विचार कर [ णीरसभोज्जं भुजइ ] नीरस भोजन करता है [ तस्स रसचाओ सुविसुद्धो ] उसके रसपरित्याग तप निर्मल होता है।
भावार्थ:-रस छह प्रकारके हैं-घृत, तैल, दधि ( दही ) मिष्ट ( मीठा) लवण ( नमक ) दुग्ध ( दूध ) और खट्टा, खारा, मीठा, कडुआ, तीखा, कसायला ये भी रस* कहे गये हैं इनका दृढ़तानुसार त्याग करना, एक दो या सब रसोंको छोड़ना रसपरित्याग है । यहाँ कोई पूछता है कि मनहीमें त्याग करनेके कारण रसपरित्यागको कोई नहीं जानता है और ऐसे ही वृत्तिपरिसंख्यान होता है तब इसमें और उसमें क्या विशेषता है ? इसका समाधान
वृत्तिपरिसंख्यानमें तो अनेक प्रकारका त्याग है यहाँ केवल रसहीका त्याग है यह विशेषता है । दूसरी विशेषता यह है कि रसपरित्याग तो बहुत दिनका भी होता है उसको श्रावक जान भी जाता है और वृत्तिपरिसंख्यान बहुत दिनका नहीं होता है ।
* मूलाचार पंचाचाराधिकार गा० १५५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org