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द्वादश तप
अब विविक्तशय्यासन तपको कहते हैं
जो रायदोहेदू सणसिज्जादियं परिच्चयइ |
अा णिव्विसय सया, तस्स तवो पंचमो परमो ॥ ४४५ ।।
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अन्वयार्थः – [ जो रायदोसहेद् आसण सिञ्जादियं परिच्चयइ ] जो मुनि रागद्व ेषके कारण आसन शय्या आदिको छोड़ता है [ अप्पा णिव्विसय सया ] तथा सदा अपने आत्मस्वरूपमें रहता है और इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होता है [ तस्स पंचमो तवो परमो ] उस मुनि पाँचवाँ तप विविक्तशय्यासन उत्कृष्ट होता है ।
भावार्थ:-आसन ( बैठनेका स्थान ) और शय्या ( सोनेका स्थान ) आदि शब्दसे मलमूत्रादि क्षेपण करनेका स्थान ऐसा हो जहाँ रागद्वेष उत्पन्न न हो और वीतरागता बढ़े ऐसे एकान्त स्थान में सोवे बैठे क्योंकि मुनियोंको अपना आत्मस्वरूप साधना है, इन्द्रियविषय नहीं सेवन करने हैं इसलिये एकान्त स्थान कहा गया है । पूजादिसुरिवेक्खो, संसारसरीरभोगणिब्विण्णो । अब्भंतर तवकुसलो, उवसमसीलो महासंतो ॥४४६ ॥ जो विसेदि मसाणे, वणगहणे खिज्जणे महाभीमे । अणत्थवि एयंते, तस्स वि एदं तवं होदि ॥ ४४७॥
अन्वयार्थः - [ जो पूजादिसु णिरवेक्खो ] जो महामुनि पूजा आदिमें निरपेक्ष है, अपनी पूजा महिमादि नहीं चाहता है [ संसारसरीर भोगणिव्विण्णो ] संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त है [ अब्भंतरतवकुसलो ] स्वाध्याय ध्यान आदि अन्तरंग तपों में प्रवीण है, ध्यानाध्ययनका निरन्तर अभ्यास रखता है [ उवसमसीलो ] उपशमशील मन्दकषायरूप शान्तपरिणाम ही है स्वभाव जिसका ऐसा है तथा [ महासंतो ] महा पराक्रमी है, क्षमादिपरिणाम युक्त है [ मसाणे वणगहणे णिञ्जणे महाभीमे अण्णत्थ एयंते णिवसेदि ] श्मशानभूमिमें, गहन वनमें, निर्जन स्थानमें, महाभयानक उद्यान में और अन्य भी ऐसे एकान्त स्थानों में रहता है [ तस्स वि एदं तवं होदि ] उसके निश्चयसे यह विविक्तशय्यासन तप होता है ।
भावार्थ:- महामुनि विविक्तशय्यासन तप करते हैं । वे ऐसे एकान्त स्थानों में सोते बैठते हैं जहाँ चित्तमें क्षोभ करनेवाले कोई भी पदार्थ नहीं होते हैं जैसे शून्य गृह,
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