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कार्तिकेयानुप्रेक्षा भावार्थ:-जीवका अर्थ प्राण धारण करना है । व्यवहारनयसे दस प्राण होते हैं । उनमें यथायोग्य प्राणसहित जीवे उसकी जीवसंज्ञा है।
अब एकेन्द्रियादि जोवोंके प्राणोंको संख्या कहते हैंएयक्खे चदुपाणा, बितिचउरिदिय असएिणसण्णीणं । छह सत्त अट्ठ णवयं, दह पुण्णाणं कमे पाणा ॥१४०॥
अन्वयार्थ:-[ एयक्खेचदुपाणा ] एकेन्द्रियके चार प्राण हैं [ वितिचउरिंदिय असण्णिसण्णीणं पुण्णाणं कमे छह सत्त अट्ठ णवयं दह पाणा ] दोइन्द्रिय, तेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असैनी पंचेन्द्रिय, सैनी पंचेन्द्रियके, पर्याप्तोंके अनुक्रमसे छह, सात, आठ, नो, दस प्राण हैं । ये प्राण पर्याप्त अवस्थामें कहे गये हैं।
अब इन ही जीवोंके अपर्याप्त अवस्थामें कहते हैंदुविहाणमपुराणाणं, इगिवितिचउरक्ख अंतिमदुगाणं । तिय चउ पण छह सत्त य, कमेण पाणा मुणेयव्वा ॥१४१॥
अन्वयार्थ:-[ दुविहाणमपुण्णाणं इगिवितिचउरक्ख अंतिमद्गाणं ] दो प्रकारके अपर्याप्त जो एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय असैनी तथा सैनी पंचेन्द्रियों के [तिय चउ पण छह सत्त य कमेण पाणा मुणेयव्वा ] तीन, चार, पाँच, छह, सात ऐसे अनुक्रमसे प्राण जानना चाहिये ।
भावार्थ:-निवृत्त्यपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त एकेन्द्रियके तीन, द्वीन्द्रियके चार, तेइन्द्रियके पाँच, चतुरिन्द्रियके छह, असैनी सैनी पंचेन्द्रियके सात प्राण जानना चाहिये।
अब विकलत्रय जीवोंका ठिकाना ( स्थान ) कहते हैंवितिचउरक्खा जीवा, हवंति णियमेण कम्मभूमीसु । चरमे दीवे अद्धे, चरमसमुद्दे वि सव्वेसु ॥१४२॥
अन्वयार्थः-[ वितिचउरक्खा जीवा ] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ( विकलत्रय ) जीव [ णियमेण कम्मभूमीसु हवंति ] नियमसे कर्मभूमिमें ही होते हैं [ चरमे दीवे अद्धे ] तथा अन्तके आधे द्वीपमें [ चरमसमुद्दे वि सम्वेसु ] और अन्तके सम्पूर्ण समुद्र में होते हैं।
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