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लोकानुप्रेक्षा
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भावार्थ:- पाँच भरत, पाँच ऐरावत, पाँच विदेह ये कर्मभूमिके क्षेत्र हैं तथा अन्तके स्वयंप्रभ द्वीपके मध्य स्वयंप्रभ पर्वत है उससे आगे आधा द्वीप तथा अन्तका स्वयंभूरमण पूरा समुद्र इन स्थानों में विकलत्रय हैं और स्थानोंमें नहीं हैं ।
अब अढाई द्वीप के बाहर तिर्यंच हैं उनकी व्यवस्था हैमवत क्षेत्रके समान है ऐसा कहते हैं
माणुसखिस्स वहिं चरमे दीवस्स अद्धयं जाव | सव्वत्थे वितिरिच्छा, हिमवद तिरिएहिं सारिच्छा ॥१४३॥
अन्वयार्थः- [ माणुसखित्तस्स बर्हि ] मनुष्यक्षेत्र से बाहर मानुषोत्तर पर्वतसे आगे [ चरमे दीवस अद्वयं जाव ] अन्तके स्वयंप्रभ द्वोपके आधे भाग तक [ सव्वत्थे वि तिरिच्छा ] बीचके सब द्वीप समुद्रोंके तिर्यंच [ हिमवदतिरिएहिं सारिच्छा ] हैमवत क्षेत्र के तिर्यंचोंके समान हैं ।
भावार्थ:- हैमवतक्षेत्र में जघन्य भोगभूमि है । मानुषोत्तर पर्वत से आगे असंख्यात द्वीप समुद्र अर्थात् आधे स्वयंप्रभ नामक अन्तिम द्वीप तक सब स्थानों में जघन्य भोगभूमिकी रचना है बहाँके तिर्यंचोंकी आयु काय हैमवत क्षेत्रके तिर्यंचोंके समान है ।
अब जलचर जीवोंके स्थान कहते हैं
लवणोए कालोए, अंतिमजल हिम्मि जलयरा संति ।
सेससमुद्द ेसु पुणो, ण जलयरा संति खियमेण ॥१४४॥
अन्वयार्थः - [ लवणोए कालोए ] लवणोदधि समुद्र में, कालोदधि समुद्र में
[ अंतिम जलहिम्मि जलयरा संति ] अन्तके स्वयंभूरमण समुद्र में जलचर जीव हैं [ ससमुदे पुणो ] और अवशेष बीचके समुद्रों में [ नियमेण जलयरा ण संति ] नियमसे जलचर जीव नहीं हैं ।
अब देवोंके स्थान कहेंगे । पहिले भवनवासी व्यन्तरोंके कहते हैंखरभायपंकभाए, भावणदेवाण होंति भवणाणि । वितरदेवाण तद्दा, दुह पि य तिरिय लोयम्मि ॥ १४५ ॥
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