________________
१६२
कार्तिकेयानुप्रेक्षा भावार्थ:-यह शिक्षाव्रत है, यह इस अर्थको सूचित करता है कि सामायिकमें सब रागद्वेषसे रहित हो, सब बाह्यकी पापयोग क्रियाओंसे रहित हो अपने आत्मस्वरूप में लीन हुआ मुनि प्रवर्त्त रहा है, यह सामायिक चारित्र मुनिका धर्म है । यह ही शिक्षा श्रावकको दी जाती है कि सामायिक कालको मर्यादा कर उस कालमें मुनिकी तरह प्रवर्तता है क्योंकि मुनि होने पर इसी तरह सदा रहना होगा, इसो अपेक्षासे उस काल मुनिके समान श्रावकको कहा है ।
अब दूसरे शिक्षाव्रत प्रोषधोपवासको कहते हैं
रहाणविलेवणभूसण,-इत्थीसंसग्गगंधधूपदीवादि । जो परिहरेदि णाणी, वेरग्गाभरणभूसणं किच्चा ॥३५८॥ दोसु वि पव्वेसु सया, उवासं एयभत्त णिव्वियडी ।
जो कुणइ एवमाई, तस्स वयं पोसहं बिदियं ॥३५६।।
अन्वयार्थः-[ जो णाणी ] जो ज्ञानी श्रावक [ दोसु वि पव्वेसु सया ] एक पक्ष में दो पर्व अष्टमी चतुर्दशीके दिन [ ण्हाणविलेवणभूसणइत्थीसंसग्गगंधधूपदीवादि परिहरेदि ] स्नान, विलेपन, आभूषण, स्त्रीका ससर्ग, सुगन्ध, धूप, दीप आदि भोगोपभोग वस्तुओंको छोड़ता है [ वेरग्गाभरणभूसणं किच्चा ] और वैराग्य भावनाके आभरणसे आत्माको शोभायमान कर [ उबवास एयभत्त णिब्धियडी जो एवमाई कुणइ ] उपवास, एक वक्त, नीरस आहार करता है तथा आदि शब्दसे कांजी करता है ( केवल भात
और जल ही ग्रहण करता है [ तस्स पोसहं वयं बिदियं ] उसके प्रोषधोपवासवत नामक शिक्षावत होता है ।
भावार्थ:-जैसे सामायिक करनेको कालका नियम कर सब पापयोगोंसे निवृत्त हो एकान्त स्थानमें धर्मध्यान करता हुआ बैठता है वैसे ही सब गृहकार्यका त्याग कर, समस्त भोग उपभोग सामग्रीको छोड़कर सप्तमी तेरसके दोपहर दिनके बाद एकान्त स्थानमें बैठे, धर्मध्यान करता हुआ सोलह पहर तक मुनिकी तरह रहे, नौमी पूर्णमासीको दोपहर में प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर गृहकार्यमें लगे उसके प्रोषधवत होता है। अष्टमी चतुर्दशीके दिन उपवासकी सामर्थ्य न हो तो एक बार भोजन करे, नीरस भोजन कांजी आदि अल्प आहार करले, समय धर्मध्यानमें बितावे, सोलह पहर आगे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org