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धर्मानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[पुचण्हे मज्झण्हे] सबेरे दोपहर [अवरण्हे तिहि वि णालियालको] और शामको इन तीनों कालों में छह छह घड़ीका काल [सामाइयस्स कालो] सामायिक का काल है [ सविणयणिम्सेमणिदिट्ठो ] यह विनय सहित गणधरदेवोंने कहा है।
भावार्थ:-सूर्योदयके तीन घड़ी पहिलेसे तीन घड़ी बाद तक छह घड़ी पूर्वाह्नकाल है । दोपहर ( बारह बजे ) के तोन घड़ी पहिलेसे तीन घड़ो बाद तक छह घड़ो मध्याह्न काल है । सूर्यास्तके तीन घड़ी पहिलेसे तोन घड़ी बाद तक छह घड़ी अपराह्नकाल है । यह सामायिकका काल उत्कृष्ट काल है । मध्यम चार घड़ी और जघन्य दो घड़ो का काल कहा गया है । एक घड़ी चौबीस मिनिट की होती है ।
अब आसन तथा लय और मनवचनकायको शुद्धताको कहते हैंबंधित्ता पज्जंकं, अहवा उड्ढेण उभो ठिच्चा । कालपमाणं किच्चा, इंदियवावारवज्जिदो होउं ॥३५५॥ जिणवयणेयग्गमणो, संवुडकाओ य अंजलिं किच्चा । ससरूवे संलीणो, वंदणअत्थं विचिंतंतो ॥३५६॥ किच्चा देसपमाणं, सव्वं सावज्जवज्जिदो होउं ।
जो कुवदि सामइयं सो मुणिसरिसो हवे ताव ॥३५७॥
अन्वयार्थः- [ जो पज्जंकं बंधित्ता] जो पर्यंक आसन बाँधकर [ अहवा उड्ढेण उभओ ठिच्चा ] अथवा खड्गासनसे स्थित होकर ( खड़े होकर ) [कालपमाणं किच्चा] कालका प्रमाण कर [ इंदियवावारवञ्जिदो होउ ] इन्द्रियोंका व्यापार विषयों में न होनेके लिये [ जिणवयणेयग्गमणो ] जिन वचनमें एकाग्र मन कर [संपुडकाओ य अंजलिं किच्चा] कायको संकोचकर हाथों से अंजुलि बनाकर [ ससरूवे संलीणो ] अपने स्वरूप में लीन होकर (वंदणअत्थं विचितंतो अथवा सामायिकके वन्दनाके पाठके अर्थका चितवन करता हुआ प्रवृत्ति करता है [ देसपमाणं किच्चा ] क्षेत्रका परिमाण कर [ सव्वं सावजवजिदो होउ] सर्व सावद्ययोग ( गृह व्यापारादि पापयोग ) का त्यागकर सर्व पापयोगसे रहित होकर [ सामइयं कुव्वदि ] सामायिक करता है [ सो ताव मुणिसरिसो हवे ] वह श्रावक उससमय मुनिके समान है ।
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