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कार्तिकेयानुप्रेक्षा समाधान-यह आचार्यों की विवक्षाकी विचित्रता है। स्वामी समन्तभद्र आचार्यने भी रत्नकरण्डश्रावकाचारमें यहांके अनुसार ही कहा है इसलिये इसमें विरोध नहीं है । यहाँ तो अणुव्रतके उपकारीकी अपेक्षा ली है और वहाँ सचित्तादि भोग छोड़नेकी अपेक्षा मुनिव्रतकी शिक्षा देनेकी अपेक्षा ली है, कुछ विरोध नहीं है। ऐसे तीन गुणवतोंका वर्णन किया ।
अब चार शिक्षाव्रतोंका व्याख्यान करेंगे । पहिले सामायिक शिक्षाव्रतको कहते हैं
सामाइयस्स करणं, खेत्तं कालं च आसणं विलो। मणवयणकायसुद्धी, णायव्वा हुति सत्तेव ॥३५२॥
अन्वयार्थः-[ सामाइयस्स करणं ] प्रथम ही सामायिकके करने में [ खेतं कालं च आसणं विलओ ] क्षेत्र काल आसन और लय [ मणवयणकायसुद्धी] मनवचनकायको शुद्धता [ सत्तेव गायव्वा हुति ] ये सात सामग्री जानने योग्य है ।
अब सामायिकके क्षेत्रको कहते हैंजत्थ ण कलयलसद्दो, बहुजणसंघट्टणं ण जत्थस्थि ।
जत्थ ण दंसादीया, एस पसत्थो हवे देसो ॥३५३॥
अन्वयार्थः-[ जत्थ ण कलयलसदो] जहाँ कलकलाट ( कोलाहल ) शब्द नहीं हो [ बहुजणसंघट्टणं ण जत्थत्थि ] जहाँ बहुत लोगोंके संघट्ट ( समूह ) का आना जाना न हो [ जत्थ ण दंसादीया ] जहाँ डाँस मच्छर चिउंटी आदि शरीरको बाधा पहुँचानेवाले जीव न हों [एस पसत्थो हवे देसो ] ऐसा क्षेत्र सामायिक करनेके योग्य है।
भावार्थ:-जहाँ चित्तको कोई क्षोभ उत्पन्न करानेके कारण न हों वहाँ सामायिक करना चाहिये।
अब सामायिकके कालको कहते हैं--- पुव्वण्हे, मज्झण्हे, अवरगहे तिहि वि णालिया छक्को । सामाइयस्स कालो, सविणयणिस्सेस-णिहिट्ठो ॥३५४॥
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