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कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ जदा जेण सहावेण ] वस्तु जिससमय जिस स्वभावसे [ परिणदरूवम्मि तम्मयत्तादो ] परिणमनरूप होती है उस समय उस परिणामसे तन्मय होती है [ तप्परिणाम साहदि ] इसलिये उस हो परिणामरूप सिद्ध करतो है-कहतो है [ जो वि णओ ] वह एवंभूत नय है [ सो हु परमत्थो ] यह नय परमार्थरूप है।
भावार्थ:-वस्तुका जिस धर्मकी मुख्यतासे नाम होता है उसही अर्थके परिणमनरूप जिससमय परिणमन करती है उसको उस नामसे कहना वह एवंभूत नय है, इसको निश्रय भी कहते हैं जैसे-गौको चलते समय गौ कहना और समय कुछ नहीं कहना।
अब नयोंके कथनका संकोच करते हैं
एवं विविहणएहिं, जो वत्थू ववहरेदि लोयम्मि ।
दसणणाणचरितं, सो साहदि सग्गमोक्खं च ॥२७८।। __ अन्वयार्थः-[ जो ] जो पुरुष [ लोयम्मि ] लोक में [ एवं विविहणएहिं ] इस तरह अनेक नयोंसे [ वत्थू ववहरेदि ] वस्तुको व्यवहाररूप कहता है, सिद्ध करता है
और प्रवृत्ति कराता है [ सो ] वह पुरुष [दसणणाणचरितं ] दर्शन ज्ञान चारित्रको [च ] और [ सग्गमोक्खं ] स्वर्ग मोक्षको [ साहदि ] सिद्ध करता है-प्राप्त करता है।
भावार्थ:-प्रमाण और नयों से वस्तुका स्वरूप यथार्थ सिद्ध होता है । जो पुरुष प्रमाण और नयोंका स्वरूप जानकर वस्तुको यथार्थ व्यवहाररूप प्रवृत्ति कराता है उसके सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी और उसके फल स्वर्ग मोक्ष की सिद्धी होतो है।
अब कहते हैं कि तत्त्वार्थको सुनने, जानने, धारण और भावना करनेवाले विरले हैं
विरला णिसुणहि तच्चं, विरला जाणंति तच्चदो तच्चं । विरला भावहिं तच्चं, विरलाणं धारण होदि ॥२७॥
अन्वयार्थः-[ विरला तच्चं णिसुणहि ] संसार में विरले पुरुष तत्त्वको सुनते हैं [ तच्च तच्चदो विरला जाणंति ] सुनकर भी तत्त्वको यथार्थ विरले ही जानते हैं [ विरला तचं भावहिं ] जानकर भी विरले ही तत्त्वकी भावना ( बारम्बार अभ्यास ) करते हैं [विरलाणं धारणा होदि ] अभ्यास करने पर भी तत्त्वकी धारणा विरलोंके ही होती है।
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