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________________ २१४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब विनय तपको तीन गाथाओंमें कहते हैंविणयो पंचपयारो, दंसणणाणे तहा चरित्ते य । वारसभेयम्मि तवे, उवयारो बहुविहो णेप्रो ॥४५४॥ अन्वयार्थः- [विणयो पंचपयारो ] विनय पाँच प्रकारका है [ दंसणणाणे तहा चरिते य ] दर्शन में, ज्ञान में तथा चारित्रमें और [ वारसभेयम्मि तवे ] बारह प्रकारके तपमें विनय [उवयारो बहुविहो णेओ] और उपचार विनय इसप्रकार यह अनेकप्रकारका जानना चाहिये। दसणणाणचरित्ते, सुविसुद्धो जो हवेइ परिणामो । वारसभेदे वि तवे, सो च्चिय विणो हवे तेसिं ॥४५५॥ अन्वयार्थः- [दसणणाणचरिते ] दर्शनज्ञानचारित्रमें [ वारसभेदे वि तवे ] और बारहप्रकारके तपमें [ जो सुविसुद्धो परिणामो हवेइ ] जो विशुद्ध परिणाम होते हैं [ सो चिय तेसि विणओ हवे ] वह ही उनका विनय है। भावार्थः-सम्यग्दर्शनके शंकादिक अतिचाररहित परिणाम सो दर्शन विनय है । ज्ञानका संशयादिरहित परिणामसे अष्टांग अभ्यास करना सो ज्ञानविनय है । चारित्रको अहिंसादिक परिणामसे अतिचाररहित पालना सो चारित्रविनय है । तपके भेदोंका देखभालकर दोषरहित पालन करना सो तपविनय है । रयणत्तयजुत्ताणं, अणुकूलं जो चरेदि भत्तीए । भिच्चो जह रायाणं, उवयारो सो हवे विणो ॥४५६॥ अन्वयार्थः- [जह रायाणं भिचो ] जैसे राजाके नौकर राजाके अनुकूल प्रवृत्ति करते हैं वैसे ही [ जो रयणचयजचाणं अणुकलं भत्तीए चरेदि ] जो रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ) के धारक मुनियों के अनुकूल भक्तिपूर्वक आचरण ( प्रवृत्ति ) करता है [ सो उवयारो विणओ हवे ] सो उपचार विनय है । भावार्थः-जैसे राजाके नौकर लोग राजाके अनुकूल प्रवृत्ति करते हैं, उसकी आज्ञा मानते हैं, प्रत्यक्षमें देखकर उठ खड़े हो जाते हैं. सामने जाकर हाथ जोड़ते हैं, प्रणाम करते हैं, चले तब पीछे २ चलते हैं, उसकी पोशाक आदि उपकरण सजाते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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