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-: आद्य निवेदन :__ आज हमें श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट सोनगढ़ के १४२ वें पुष्पके रूपमें परमपूज्य १०८ श्री स्वामी कार्तिकेय विरचित कार्तिकेयानुप्रेक्षा अर्थात् बारह भावनाओं को आपके समक्ष प्रस्तुत करते हुए अत्यन्त हर्ष है । वर्तमान उपलब्ध आर्ष ग्रन्थों में यह एक उच्चकोटिका बहुत प्राचीन ग्रन्थ है।
इस ग्रन्थराजका वीर निर्वाण सं० २४४७ में कलकत्तासे भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था द्वारा प्रकाशन हुआ था। उसके बाद इतने लम्बे समयमें भी कहींसे इसका पुनः प्रकाशन नहीं होनेसे कई वर्षोंसे यह ग्रन्थ अप्राप्य हो रहा था और बहुत से मुमुक्षु इसके स्वाध्यायसे वंचित रहते थे। यह देखकर मेरे भाव इसके पनः प्रकाशन कराने के हए । अतः मैंने यह ग्रन्थ श्रीयुत पं. महेन्द्रकुमारजी पाटनी, काव्यतीर्थ को संशोधन के लिए दिया तब उन्होंने मुझे निम्नलिखित सुझाव दिये।
(१) इसकी भाषा टोका श्रीयुत् सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० जयचन्द्रजी छाबड़ा द्वारा ढुढारी भाषा में की हुई है जो बहुत ही प्रामाणिक टीका है परन्तु इसको यदि आधुनिक हिन्दी भाषामें परिवर्तित कर दिया जावे तो अधिकांश भाई लाभ उठा सकेंगे।[पं. जयचन्द्रजी का संक्षिप्त परिचय अष्टपाहुड़में दिया है । ]
(२) इसकी मूल भाषा प्राकृत है जो ध्यान देने पर बहुत ही सरल व सरस ज्ञात होती है। ऐसी अवस्थामें यदि अन्वयपूर्वक अर्थ लिख दिया जावे तो मूल गाथाओंको समझने के लिए अधिक उपयोगी होगा । संभव है जैन परीक्षालय इसको सरल व उपयोगी समझ कर इसके दो तीन भाग करके कोर्समें भी रख दें तो विद्याथियों के लिए यह टीका अधिक लाभप्रद हो सकेगी।
मुझे ये सुझाव बहुत पसन्द आये और मैंने उन्हीं को यह कार्यभार सौंप दिया। पंडितजीने यह कार्य बड़ी ही लगन एवं परिश्रमपूर्वक अल्प समयमें ही पूरा कर दिया इसके लिए उन्हें हार्दिक धन्यवाद है।
भाषा परिवर्तनमें साहित्यिक दृष्टि गौण रखी गई है और टीकाकारके भावोंको जैसाका तैसा द्योतित करनेकी मुख्यता रखी गई है । इस परिवर्तन को मैंने आद्योपान्त भले प्रकारसे जाँच भी लिया है और मुझे विश्वास है कि इसमें टीकाकारके भावोंमें कहीं भी तोड़ मरोड़ नहीं होने दिया गया है फिर भी यदि कहीं कोई भूल हो गई हो तो पाठकोंसे क्षमायाचना पूर्वक प्रार्थना है कि उसे सुधार लेवें और मुझे भी सूचित करनेकी कृपा करें।
इस ग्रन्थराजकी विशेषता यह है कि इसमें प्रत्येक अनुप्रेक्षाका वर्णन इतने सुन्दर ढंगसे आया है कि धर्मका यथार्थ स्वरूप समझाते हुए संसार देह भोगोंका स्वरूप एवं उनकी असारता दिखा कर स्वात्मरुचि करानेकी ही मुख्यता है। हर एक विषय का खास करके लोकका स्वरूप एवं धर्मका स्वरूप क्रमशः लोकभावना एवं धर्मभावनामें बहुत हो विस्तृतरूपमें कहते हुए भी मुख्यता स्वात्मरुचिकी ही रही है इस कारण विशेषसे भी यह ग्रन्थ मुमुक्षुओंके लिए बहुत ही उपयोगी है।
ग्रन्थके साथ विषय सूची, गाथा सूची आदि भी सुविधाके लिये लगा दिये गये हैं आशा है पाठकगण इस ग्रन्थ राजके स्वाध्यायसे पूरा २ लाभ उठावेंगे।
निवेदक : नेमीचन्द पाटनी
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