SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा भावार्थ:-जैसे मिटीका पिंड तो कारण है और उसका घट बना सो कार्य है। ऐसे ही पहिले पर्यायके स्वरूपको कहकर अब जीव पिछली पर्याय सहित हुवा तब वह ही कार्यरूप हुआ, ऐसे नियम है । इस तरह वस्तुका स्वरूप कहा जाता है । अब जीव द्रव्यके भी वैसे ही अनादिनिधन कार्यकारणभाव सिद्ध करते हैंजीवो अणाइ णिहणो, परिणयमाणो हु णवणवं भावं । सामग्गीसु पवट्ठदि, कज्जाणि समासदे पच्छा ॥२३१॥ अन्वयार्थः-[ जीवो अणाइणिहणो ] जीव द्रव्य अनादिनिधन है [ णवणवं भावं परिणयमाणो हु] वह नवीन नवीन पर्यायरूप प्रगट परिणमता है [ [सामग्गीसु पवढदि] वह ही पहिले द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी सामग्रीमें प्रवृत्त होता है [ पच्छा कजाणि समासदे ] और बादमें कार्योंको-पर्यायोंको प्राप्त होता है। भावार्थ:-जैसे कोई जीव पहिले शुभ परिणामरूप प्रवृत्ति करे तब स्वर्ग पावे और पहिले अशुभ परिणामरूप प्रवृत्ति करे तब नरक आदि पर्याय पावे ऐसे जानना चाहिये। __अब जीवद्रव्य अपने द्रव्यक्षेत्रकालभावमें रहता हुआ ही ( अपनेमें ही ) नवीन पर्यायरूप कार्यको करता है ऐसा कहते हैं ससरूवत्थो जीवो, कज्जं साहेदि वट्टमाणं पि । खित्ते एकम्मि ठिदो, णियदव्वे संठिदो चेव ॥२३२॥ अन्वयार्थः-[ जीवो ] जीवद्रव्य [ ससरूवत्थो वट्टमाणं पि ] अपने चैतन्यस्वरूपमें स्थित होता हुआ [ खिरो एकम्मि ठिदो ] अपने ही क्षेत्रमें स्थित रहकर [णियदव्वे संठिदो चेव ] अपने ही द्रव्योंमें रहता हुआ [कज साहेदि] अपने परिणमनरूप समय में अपने पर्यायस्वरूप कार्यको सिद्ध करता है । भावार्थ:-* परमार्थसे विचार करें तो अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव स्वरूप होता हुआ जीव पर्यायस्वरूप-कार्यरूप परिणमन करता है, पर द्रव्य क्षेत्रकाल भाव है सो तो निमित्तमात्र हैं। * [ ऐसा अनेकान्त स्वरूप है अतः ] । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy