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द्वादश तप
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होते हैं अतः शुचि गुणके योगसे शुक्ल कहा है । इसको मन्दतम कषाय अर्थात् अत्यन्त मन्दकषायसे होता है, ऐसा कहा है तथा कषायका अभाव होनेपर होता है ऐसा भी कहा है।
अब आर्त्तध्यानको कहते हैंदुक्खयर-विसयजोए, केम इमं चयदि इदि विचिंतंतो। चे?दि जो विक्खित्तो, अ ज्झाणं हवे तस्स ॥४७१।। मणहरविसयपिओगे, कह तं पावेमि इहि वियप्पो जो । संतावेण पयहो, सो च्चिय अट्ट हवे उझाणं ॥४७२॥
अन्वयार्थः-[ जो ] जो पुरुष [ दुक्खयरविसयजोए ] दुःखकारी विषयका संयोग होने पर [ इदि विचितंतो ] ऐसा चिन्तवन करे कि [ इमं कम चयदि ] यह मेरे कैसे दूर हो ? [विक्खित्तो चेदि ] और उसके संयोगसे विक्षिप्तचित्त होकर चेष्टा करे, रुदनादि करे [ तस्स अट्टं ज्झाणं हवे ] उसके आर्त्तध्यान होता है [जो मणहरविसयविओगे ] जो मनोहर विषय सामग्रोका वियोग होने पर [ इदि वियप्पो ] ऐसा चितवन करे कि [तं कह पावेमि ] उसको मैं कैसे पाऊँ [ संतावेण पयट्टो ] उसके वियोगसे संतापरूप ( दुःखस्वरूप ) प्रवृत्ति करे [ सो च्चिय अट्ट ज्झाणं हवे ] वह भी आर्त्तध्यान है।
भावार्थ:-आतध्यान सामान्यतया तो दुःखक्लेशरूप परिणाम है । उस दुःखमें लीन रहने पर अन्य कुछ चेत ( ज्ञान ) नहीं रहता है। यह दो प्रकारका है । पहिलेमें तो दुखदाई सामग्रीका संयोग होनेपर उसको दूर करनेका ध्यान रहता है। दूसरेमें इष्ट ( सुखदाई ) सामग्रीका वियोग होने पर उसके मिलनेका चितवन ( ध्यान ) रहता है सो आर्त्तध्यान है । अन्य ग्रन्थों में इसके चार भेद कहे गये हैंइष्टवियोगका चिन्तवन, अनिष्टसंयोगका चिन्तवन, पीडाका चिन्तवन, निदानबन्धका चिन्तवन । यहाँ दो भेद कहे उनमें ही ये सब गभित हो जाते हैं । अनिष्टसंयोगके दूर करने में तो पीड़ाका चितवन आ गया और इष्टके मिलनेकी वांछामें निदानबन्ध आ गया । ये दोनों ध्यान अशुभ हैं, पापबन्ध करते हैं, धर्मात्मा पुरुषोंके त्यागने योग्य हैं ।
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