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कार्तिकेयानुप्रेक्षा
अब रौद्रध्यानको कहते हैं
हिंसादेण जुदो, असच्चवयणेण परिणदो जो दु । तत्थेव अथिरचित्तो, रुद्द उभारणं हवे तस्स || ४७३ ॥ अन्वयार्थः – [ जो हिंसाणंदेण जुदो ] जो पुरुष हिंसा में आनन्दयुक्त होता है [ असच्चत्रयणेण परिणदो दु ] तथा असत्यवचनसे प्रवृत्ति करता रहता है [ तत्थेव अथिरचित्तो ] और इन्हीं में विक्षिप्तचित्त बना रहता है [ तस्स रुदं ज्झाणं हवे ] उसके रौद्रध्यान होता है ।
भावार्थ:-- हिंसा ( जीवोंका घात ) करके अति हर्ष माने, शिकार आदि में आनन्दसे प्रवृत्ति करे, दूसरेके विघ्न हो तब अति सन्तुष्ट ( प्रसन्न ) हो और झूठ बोलकर अपनेको प्रवीण माने, दूसरेके दोषोंको निरन्तर देखे, कहे और उसमें आनन्द माने इस तरह ये रौद्रध्यानके दो भेद हैं ।
अब दो भेद और कहते हैं-
परविसयहरणसीलो, सगीयविसये सुरक्खणे दक्खो । तग्गयचित्ताविट्ठो, निरंतरं तं पि रुद्द पि ॥ ४७४ ॥
अन्वयार्थः - [ परविसयहरणसीलो ] जो पुरुष दूसरेकी विषयसामग्रीको हरण करने के स्वभाव सहित हो [ सगीयविसये सुरक्खणे दक्खो ] अपनी विषयसामग्री की रक्षा करनेमें प्रवीण हो [ तग्गयचिचाविट्ठो निरंतरं ] इन दोनों कार्यों में निरन्तर चित्तको लवलीन रखता हो [ तं पि रुदं पि ] उस पुरुषके यह भी रौद्रध्यान ही है ।
भावार्थ : – दूसरेको सम्पत्तिको चुराने में प्रवीण हो, चोरी कर हर्ष माने तथा अपनी विषय सामग्रीको रखनेका अति यत्न करे और उसकी रक्षा कर आनन्द माने ऐसे ये दो भेद रौद्रध्यानके हुए । इस तरहसे यह चारों भेदरूप रौद्रध्यान अतितीव्र कषायके योगसे होता है, महापापरूप है, महापापबन्धका कारण है इसलिये धर्मात्मा पुरुष ऐसे ध्यानको दूरहीसे छोड़ देते है । जितने जगत में उपद्रवके कारण हैं वे सब रौद्रध्यानयुक्त पुरुष से बनते हैं क्योंकि जो पाप करके हर्ष ( सुख ) मानता है उसको धर्मका उपदेश भी नहीं लगता है वह तो अति प्रमादी होकर अज्ञानी पापही में मस्त रहता है ।
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